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सुहागरात ए लव स्टोरी

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Sameer Bose

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क्यों बना दिया उसे एक बुढ़े कि दुल्हन , जिससे करती थी प्यार और बन गई उसकी ही मां , **शामली सिर्फ़ 19 साल की थी।** कॉलेज में पढ़ती थी। ज़िंदगी में पहली बार किसी को दिल दिया था — और वो था **आर्यन**। उसके जैसा लड़का पहले कभी नहीं मिला था — बेबाक, प...

Total Chapters (34)

Page 1 of 2

  • 1. सुहागरात <br> <br>ए लव स्टोरी - Chapter 1

    Words: 687

    Estimated Reading Time: 5 min

    कमरे में लाल गुलाब की पंखुड़ियाँ बिखरी थीं, रेशमी चादर पर इत्र की हल्की महक फैली थी। दो औरतें धीरे-धीरे बिस्तर सजा रही थीं, जैसे किसी अनदेखे तूफान के लिए तैयारी कर रही हों। एक ने फुसफुसाते हुए कहा, “बेचारी दुल्हन, उसे नहीं पता वो किसके साथ बाँधी गई है।” दूसरी मुस्कुरा दी, लेकिन उसकी मुस्कान में एक अजीब सा डर झलक रहा था—“वो आदमी सिर्फ मर्द नहीं... आग है, जो छू ले, जल जाए।” चादर को सीधा करते हुए पहली बोली, “पहली वाली तो बस तीन दिन ही रह पाई थी, फिर बुखार चढ़ा और चल बसी... लेकिन सब कहते हैं, वो बुखार नहीं था, उसका असर था।” दूसरी ने धीमे से जोड़ा, “और जबसे मरी है... उस कमरे से अब तक उसकी कोई आवाज़ नहीं आई।” कुछ पल के लिए कमरे में सन्नाटा छा गया, मानो दीवारें भी उस रहस्य को जानती हों और डरती हों। “दुल्हन तो आज गई,” पहली औरत ने दबी आवाज़ में कहा। दूसरी की आँखें चादर पर टिकी थीं, “उसकी आँखों में जो आग है ना... सुहागरात नहीं, क़हर बनती है।” बिस्तर अब सज चुका था — खूबसूरत, लेकिन जैसे किसी कुर्बानी की सेज। वही ,

    मशालों की मद्धम रौशनी, कमरे में फैली गुलाब की महक और छत के पंखे की धीमी गति के बीच सब कुछ ठहरा हुआ था।

    मखमली चादर के बीच बैठी थी **शामली ( उम्र 19 )** — लाल रंग की साड़ी में, घूँघट आधा गिरा हुआ, होंठ काँपते हुए, साँसें भारी।
    उसकी कलाई में चूड़ियाँ खनक रही थीं — जैसे हर हरकत पर वो खुद को टोक रही हों।

    और सामने खड़ा था **विश्वनाथ प्रताप सिंह ( उम्र 40 ) ** — 6 फ़ीट लंबा, चौड़ी छाती, हल्के नम बाल, और आँखों में एक कड़क प्यास।
    उसने धीरे-धीरे दरवाज़ा बंद किया और कुंडी चढ़ा दी।

    “अब कोई नहीं रोकेगा…”
    उसकी आवाज़ भारी थी… और गूंज सी रही थी।

    शामली ने नज़रें झुका लीं, लेकिन चेहरे पर डर नहीं… एक **हलक़ा-सा इंतज़ार** था।

    “तुम जानती हो, ये मेरी दूसरी शादी है…”
    विश्वनाथ ने धीरे से कहा, पास आता गया।

    “जी…”

    “और मैं नाटक पसंद नहीं करता, ना दिखावे…”
    उसने एक हाथ से उसकी ठोड़ी उठाई।
    “आज की रात सिर्फ़ मेरी है। तुम्हारी भी… और हमारी भी।”

    उसका हाथ अब शामली की कमर तक पहुँच चुका था — साड़ी के भीतर वो नर्मी थी, जो किसी भी जमींदार की रातें सुलगाने को काफ़ी होती।

    शामली की साँसें तेज़ थीं। उसकी पीठ अब बिस्तर की सिलवटों पर पिघल रही थी।

    “तुम बहुत खूबसूरत हो, शामली… लेकिन उससे ज़्यादा, तुमने मेरे अंदर की भूख फिर से जगा दी है…”

    उसने साड़ी की पिन खोली — एक झटके में… और फिर चूड़ियाँ भी एक-एक करके।

    **हवा अब महकने लगी थी, पसीने और गुलाब के बीच एक नई खुशबू बन रही थी।**

    शामली की आँखें बंद थीं… और होंठ कांप रहे थे — जैसे खुद को रोक भी रही हो, और सौंप भी रही हो।

    विश्वनाथ अब पूरी तरह उस पर झुक गया था… और उनकी साँसें अब एक-दूसरे के गले में उलझ गईं।

    उसका हाथ अब पेट से नीचे की ओर खिसक रहा था… और तभी…

    ---

    **ठक… ठक… ठक…**

    **दरवाज़ा ज़ोर से खटका।**

    दोनों चौंक गए।

    “पापा?”
    बाहर से आवाज़ आई — **युवाओं की, साफ़, मासूम पर तीखी।**

    “आर्यन?”
    विश्वनाथ ने खुद को अलग करते हुए कहा।

    शामली ने घूँघट फिर से खींच लिया — जल्दी-जल्दी चादर में खुद को समेटते हुए।

    विश्वनाथ ने बमुश्किल खुद को संभाला और दरवाज़ा खोला।

    **आर्यन — 19 साल का, स्मार्ट, कॉलेज बॉय, थोड़ी फटी जींस, जैकेट और आँखों में जोश।**

    “सरप्राइज़!”
    उसने हँसते हुए कहा।

    “मैं अचानक आ गया, सोचा शादी की बधाई खुद दूँ…”

    विश्वनाथ उसे देखते रह गया — और पीछे देखा… जहाँ शामली चुपचाप बिस्तर पर बैठी थी, फिर से लाज से सिमटी हुई।

    आर्यन ने झांकते हुए पूछा —
    “ओह! यही हैं मेरी नयी मम्मी?”

    और फिर जैसे उसकी साँस अटक गई।
    उसकी आँखें… शामली पर टिकीं रह गईं।

    एक सेकंड… दो… तीन…

    **वो वही लड़की थी — जिसे वो कॉलेज में पिछले एक साल से पसंद करता था।**

    वही लड़की… जिसकी तस्वीर उसने फोन में छिपाकर रखी थी।

    अब वो **उसके पापा की बीवी बन चुकी थी**।

  • 2. सुहागरात <br> <br>ए लव स्टोरी - Chapter 2

    Words: 802

    Estimated Reading Time: 5 min

    सुबह की हल्की धूप खिड़की की जाली से छनकर कमरे में उतर रही थी, लेकिन **कमरे का माहौल अब भी रात जैसी भारी चुप्पी से भरा था।**

    साड़ी के टुकड़े, टूटी चूड़ियाँ और बिस्तर की सिकुड़ी चादरें — सब गवाही दे रहे थे कि रात ने यहाँ कोई तूफ़ान देखा है।

    **दरवाज़े पर दस्तक हुई।**

    **ठक… ठक…**

    विश्वनाथ प्रताप सिंह ने धीरे से आँखें खोलीं। बिस्तर के बाईं ओर **शामली** अब भी गहरी नींद में थी — उसका चेहरा थका हुआ था, बाल बिखरे हुए, और होंठों पर हल्की थरथराहट बाकी थी।

    वो उठ कर दरवाज़े तक गया। लकड़ी के भारी दरवाज़े की सांकल हटी।

    **बाहर नौकरानी खड़ी थी — साड़ी की पल्लू सिर पर, आँखें झुकी हुईं।**

    “मालिक… माता जी ने बुलाया है… कह रही थीं बहू को नीचे भेजिए… आज बहुत सारी रस्में करनी हैं।”

    विश्वनाथ ने एक नजर पलंग की ओर डाली, फिर ठंडी आवाज़ में बोला —
    “वो अभी तक सो रही है…”

    नौकरानी ने हल्का सिर हिलाया, “मैं बता दूँगी माता जी को।”

    वो पलटी और सीढ़ियाँ उतर गई।

    ---

    नीचे हवेली की रसोई और प्रांगण में चहल-पहल थी।

    **माता जी — सावित्री देवी**, लगभग 65 की उम्र, अब भी सीधी पीठ, घुटनों में लोहे की रॉड, लेकिन आवाज़ आज भी तलवार जैसी तेज़।

    वो दरबार हॉल में बैठी थीं, पान की डिब्बी पास रखी हुई और हाथ में रुद्राक्ष की माला।

    नौकरानी उनके पास पहुँची।

    “माता जी… वो… बहू तो अब तक सो रही है…”

    सावित्री देवी की आँखों में गुस्से की परछाईं दौड़ गई।

    “सो रही है?”
    उनका स्वर जैसे कड़कती बिजली।

    “आज पहली सुबह है उसकी… और ये राजकुमारी सो रही है? किस घर में आई है वो जानती है?”

    उन्होंने गुस्से में माला ज़मीन पर पटक दी।

    “बोल देना उसे… आज से छूट नहीं मिलेगी। इस हवेली में बहुओं को सज़-धज कर रहना पड़ता है… और उठना तो **पहली मुर्गे से पहले** होता है!”

    ---

    उसी वक्त ऊपर कमरे में...

    शामली नींद में थी, लेकिन करवटें बता रही थीं कि उसका शरीर थक चुका था। उसकी पीठ पर नीले निशान थे, और आँखों के नीचे हल्का काजल फैला हुआ।

    **विश्वनाथ बगल में बैठा, उसे देख रहा था। फिर तैयार होने लगा कोर्ट वगैरह पहनने लगा**

    वो अब भी बेतहाशा सुंदर लग रही थी — लेकिन उस सुंदरता में अब मासूमियत से ज़्यादा थकान और सौंपे जाने की लाचारी थी।

    उसने अपने हाथों से विश्वनाथ के हाथ पर सहलाया, और बुदबुदाया —

    “आपने कल कुछ नहीं कहा…”

    तभी विश्वनाथ ने उसका हाथ झटकते हुए कहा —
    “अब ज़्यादा मत सोना, नीचे जाओ… आज की रस्में हैं। और माँ वैसे भी किसी को माफ नहीं करती।”

    शामली ने धीरे से आँखें खोलीं।

    गला सूखा था, लेकिन बोली —
    “ठीक है… मैं तैयार हो जाऊँगी।”
    वो मन में सोची कि विश्वनाथ उसके साथ इस तरह क्यों बात कर रहा है , विश्वनाथ उससे थोड़ा रूट अंदाज में बता किया था ,
    ---

    कुछ देर बाद…

    नीचे दरबार हॉल में, बड़े थाल सजे हुए थे। पीतल की परातें, लाल सिंदूर, हल्दी, मिठाई और एक बड़ी **चाँदी की जोड़ी** — जिसे नई दुल्हन को पहनना था।

    **सावित्री देवी**, सिर पर लाल चुनरी, गले में मोटी सोने की माला, अब सामने बैठी थीं।

    शामली सीढ़ियाँ उतरते हुए आई।

    उसके चेहरे पर हल्की मुस्कान थी, लेकिन आँखें अब भी रात की परछाइयों से भरी हुई थीं।

    **साड़ी पूरी ढकी हुई**, गहनों से लदी, लेकिन चाल में थकान की सी लचक।

    सावित्री देवी ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा।

    “बहू… ये हवेली कोई आरामगाह नहीं है। यहाँ काम होता है, औरतें दिन में चार बार हाथ धोती हैं, आराम करने नहीं बैठतीं।”

    शामली ने सिर झुका दिया।

    “जी माता जी।”

    “आज कई रस्में हैं… रसोई में पहला भोग, आँगन में तुलसी पूजन, और फिर देवकक्ष में पूजा। और हाँ… हमारे खानदान की परंपरा है — **पहली सुबह बहू नहाकर तुलसी के नीचे दिया जलाए… और अपने पति के लिए व्रत रखे।**”

    शामली कुछ कहती, उससे पहले सावित्री देवी ने रुकाया —

    “रात जो भी हुआ हो… आज से बहू को **बांध कर रखना होगा**। इस घर की इज़्ज़त बहुओं की चाल में दिखती है।”

    ---

    आँगन में तैयारियाँ हो चुकी थीं।

    शामली अब तुलसी चौरे के सामने बैठी थी — हाथ में तेल का दिया, माथे पर सिंदूर, और होंठों पर बेमन की मुस्कान।

    पीछे खड़ा था **आर्यन** — चुपचाप, बिना बोले।

    वो उसे देखता रहा — वही लड़की… जिसके लिए वो कॉलेज में शायरी लिखता था… वही, जो अब उसके बाप की दुल्हन बन चुकी थी।

    उसका दिल जल रहा था, लेकिन चेहरा पत्थर हो चुका था।

    अचानक शामली ने पीछे मुड़कर देखा।

    दोनों की आँखें मिलीं…
    सिर्फ एक पल…

    लेकिन उस एक पल में **हज़ार कहानियाँ घुल गईं**।

    ---

    **और अब नई जंग शुरू होने वाली थी…**

    **रिवाज़ों से… हवेली से… और सबसे बड़ी — उस रिश्ते से, जिसकी पहली रात में आग थी और सुबह में राख।**

  • 3. सुहागरात <br> <br>ए लव स्टोरी - Chapter 3

    Words: 614

    Estimated Reading Time: 4 min

    ### **हाल – नई नवेली दुल्हन, पुराना स्वभाव**

    गुलाब और चमेली की मिली-जुली खुशबू से सजा वह भव्य हॉल — जहाँ रिश्तेदारों की चहक, बच्चों की खिलखिलाहट, ढोल की थाप और औरतों की हँसी गूंज रही थी।

    चारों तरफ रेशमी चादरें, रंग-बिरंगे परदे, और बीच में सजे दो कुर्सियाँ। एक कुर्सी पर बैठी थी **शामली** — लाल साड़ी, भारी घूंघट, हाथों में मेंहदी रचे हुए, गहनों से लदी हुई। उसकी उंगलियाँ बार-बार काँपती थीं… और दिल की धड़कन जैसे कोई अनसुना खत पढ़ रही हो।

    तभी बाईं ओर की सीढ़ियों से नीचे उतरते **विश्वनाथ प्रताप सिंह** दिखे — सफेद कोर्ट में, बाल करीने से सजे, लेकिन चेहरे पर वो ही सख्त रवैया। उनके कदम धीमे थे, जैसे मन कहीं और अटका हो।

    **"विश्वू!"** — पीछे से आवाज आई।

    **मां थी**, माथे पर छोटी सी बिंदी, हल्का ज़ेवर, लेकिन आँखों में वही पुरानी ठसक।

    "कहाँ जा रहे हो बेटा? अभी तो रस्में शुरू भी नहीं हुई। तैयार होकर कहाँ निकल पड़े?"

    विश्वनाथ के कदम रुक गए, और चेहरा ज़रा भी नरम नहीं पड़ा।

    **"ऑफिस जाना है मां।"** — आवाज़ में वही ठंडी कठोरता।

    "ऑफिस?" मां की भौंहें उठीं, "आज तुम्हारी शादी की अगली रस्म है। नई बहू आई है घर में… और तुम—?"

    विश्वनाथ ने सीधा जवाब दिया, बिना घुमाव के।

    **"आपकी बहू है, आप देखिए। मुझसे मत कहिए।"**

    सन्नाटा।

    पास खड़ी दो बुआओं ने एक-दूसरे को देखा। एक नौकरानी जो पानी की ट्रे लेकर आ रही थी, ठिठक गई।

    मां की पेशानी पर शिकन उभर आई, मगर वह अब भी संयम में थीं। थोड़ा पास आकर फुसफुसाईं — लेकिन आवाज़ शामली तक भी पहुँच गई।

    **"विश्वू, बेटा… ये रस्में सिर्फ लड़की की नहीं होतीं। तुम भी उसका साथ दो। वो सब कुछ अकेले थोड़ी करेगी?"**

    विश्वनाथ का चेहरा तन गया।

    वो दो क़दम पीछे हटे, जैसे हर रस्म से दूरी बनाना चाहते हों।

    **"मां, ये शादी मैंने आपकी ज़िद पर की है। रस्म-रिवाज़ निभाने के लिए नहीं।"**

    **"मुझे न तो शादी में कोई दिलचस्पी थी, न ही इस तमाशे में।"**

    इतना कहकर उन्होंने एक तीखी नज़र शामली पर डाली — बस एक पल के लिए।

    शामली, जो अब तक शांत बैठी थी, उसका चेहरा ज़रा भी हिला नहीं… लेकिन उसका दिल?

    उसके भीतर कुछ चटक गया था। शायद एक सपना। या शायद वो भ्रम, जो उसे सुबह तक यह विश्वास दिला रहा था कि कुछ तो खास होगा आज… कि कोई तो पल होगा जहाँ वो उसकी तरफ देखेगा… मुस्कुराएगा…

    पर वहाँ जो था — वो सिर्फ सर्द हवाओं जैसा व्यवहार था।

    बगल में बैठी एक महिला ने धीरे से उसके कंधे पर हाथ रखा, लेकिन शामली की आँखें अब धुंधला चुकी थीं। उसका सिर झुका रहा, मगर अंदर कुछ टूट रहा था।

    उधर, विश्वनाथ पलटे और सीढ़ियाँ चढ़ने लगे। हर कदम उनके ठंडे इरादों की गवाही देता जा रहा था।

    मां वहीं खड़ी थीं — गुस्से और लाचारी के बीच जूझती हुई।

    **"तू तो पहले जैसा ही है…"** — उन्होंने धीमे से कहा, शायद खुद से ही।

    चारों तरफ हलचल अब भी थी, पर उस हॉल के कोने में बैठी नई दुल्हन और ऊपर जाते विश्वनाथ के बीच **एक बहुत बड़ा सन्नाटा फैल गया था।**

    ---

    **कुछ पल बाद…**

    रस्में फिर शुरू हो गईं। ढोल फिर बजने लगे। शामली को हल्दी की थाली पास दी गई।

    उसके चेहरे पर अब मुस्कान नहीं थी — बस एक ठहरी हुई चुप्पी।

    मां ने सब संभालने की कोशिश की। रिश्तेदारों से मुस्कुराकर बात की। नौकरों को निर्देश दिए। लेकिन उनकी आँखों में अब चिंता थी।

    रात का ये पहला झटका था — जिसे सिर्फ शामली नहीं, पूरा घर महसूस कर रहा था। वही कोने में खड़ा आर्यन ये सब देख उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं , जैसे जो कुछ हुआ उसे समझ नहीं आया ,

  • 4. सुहागरात <br> <br>ए लव स्टोरी - Chapter 4

    Words: 857

    Estimated Reading Time: 6 min

    हॉल गुलज़ार था — ढोल की थाप के साथ कोई महिला गा रही थी,
    **"सजन आयो सजनी के अंगना, रस्म निभावै आज..."**
    हर चेहरे पर हँसी थी, हर जुबां पर बधाई... लेकिन उन सबके बीच **शामली** — अपनी जगह पर बैठी, अब हल्दी की थाली लिए हुए — बिना कोई भाव जताए, जैसे वो रस्में किसी और के लिए हो रही हों।

    **विश्वनाथ जा चुका था।**
    और अब **आर्यन** भी, चुपचाप निकल गया था। किसी ने ज़्यादा गौर नहीं किया उसकी मौजूदगी या ग़ायब होने पर। वह हमेशा ही थोड़ा किनारे रहा था — सौम्य, शांत, और अनकहा।

    ---

    #### **रसभरी रस्में और भीतर का सूखा**

    महिलाओं ने शामली की हथेलियों पर चुटकी भर हल्दी लगाई, एक ने उसके गालों पर भी चिपका दी।

    **"नज़र न लगे, बहुत भोली लगती है दुल्हन।"**

    एक बुआ ने पीछे से चुटकी ली —
    **"भोली तो है, पर किस्मत देखो ज़रा। पहली रस्म में ही दूल्हा भाग गया!"**

    उनकी हँसी पास बैठी औरतों ने बाँटी, लेकिन शामली के चेहरे पर कोई शिकन तक नहीं आई।
    बस हल्की सी गर्दन झुकी, जैसे खुद को आवाज़ों से काट लेना चाहती हो।

    किसी ने हँसी में कहा,
    **"अरे मुस्कुरा भी लिया करो, दुल्हन लगती हो, अदालत की गवाह नहीं!"**

    शामली ने जबरन होंठों को खींचने की कोशिश की — एक कमजोर मुस्कान, जो कुछ पलों में खुद ही बिखर गई।
    वो एक-दो जगहों पर हल्की हँसी में शामिल भी हुई, ताकि किसी को लगे कि वो नाराज़ नहीं… दुखी नहीं…

    पर उसके मन में तो हर वाक्य, हर आहट के पीछे **विश्वनाथ के शब्दों की परछाइयाँ** थीं:

    > **"मां, ये शादी मैंने आपकी ज़िद पर की है… मुझसे मत कहिए…"**
    > **"मुझे न इस शादी से कुछ लेना है, न इन तमाशों से…"**

    ---

    #### **रसोई की तरफ़ से आती महकें और अंदर की घुटन**

    किचन से घेवर और मटर-पनीर की खुशबू आ रही थी। महिलाएं बातें करती हुई अंदर-बाहर घूम रही थीं। बच्चों का झुंड हलवा लेकर लड़ रहा था।

    **शामली उठी**, उसकी आँखों में एक बोझ था जिसे किसी ने नहीं पढ़ा।
    उसने ज़रा-ज़रा सा थाली संभाला और फिर खड़ी हो गई।
    मां ने देखा — वो सब संभाल रही है, मुस्कुराने की कोशिश कर रही है, और इस नाटक में शामिल होने की पूरी कोशिश कर रही है।
    लेकिन आंखें? वो अब भी गीली थीं, धुंधली, जैसे कोई भूतिया सपना पीछा कर रहा हो।

    ---



    उधर मां ने एक पल के लिए अपनी नज़र हटाई और गहरी सांस ली।
    उनके मन में अजीब सा द्वंद्व था — बेटे की सख्ती और बहू की चुप्पी के बीच वो खुद को किसी सज़ा में महसूस कर रही थीं।

    **"क्या यही चाहती थी मैं?"** उन्होंने खुद से पूछा।
    **"क्या ये वही घर है जो मैंने अपनी बहू के लिए सोचा था?"**

    ---

    #### **शामली की हँसी और सबका भ्रम**

    धीरे-धीरे रस्में आगे बढ़ीं — मुँह दिखाई, मिठाई बाँटना, तस्वीरें खिंचवाना…

    शामली ने हर जगह खुद को निभाया।
    वो हँसी भी, दो-तीन जगहों पर किसी महिला के जोक पर ठहाका भी लगाया — सबको लगा,
    **"अरे… नई दुल्हन धीरे-धीरे घुल रही है।"**

    किसी ने कहा,
    **"चलो अच्छा है, लड़का थोड़ा कठोर है लेकिन लड़की बहुत समझदार निकली।"**

    पर हकीकत ये थी — वो हँसी नकली थी।
    हर बार जब कोई उसके सामने विश्वनाथ का नाम लेता, उसकी उंगलियाँ साड़ी की किनारी को ज़ोर से भींच लेतीं।
    किसी ने नहीं देखा, पर उसकी हथेलियों की मेंहदी अब उखड़ने लगी थी — शायद पसीने और घबराहट से।

    ---



    जब रस्में पूरी हुईं, तो हॉल धीरे-धीरे खाली होने लगा।

    बच्चे थककर अपने मां-बाप की गोद में सो गए थे, रिश्तेदार विदाई के आलिंगन में लग गए थे, और स्टाफ अब मेज़ें समेटने लगा था।

    शामली, अब कमरे में अकेली थी। वही दुल्हन वाला कमरा — दीवार पर रेशमी पर्दे, बिस्तर पर फूलों की चादर, और दरवाज़े के पास एक बड़ी आईने वाली अलमारी।

    वो धीरे-धीरे आईने के सामने गई… घूँघट हटाया… और खुद को देखा।

    चेहरा थका हुआ, आँखें सूजी हुई… लेकिन उनमें अब एक अजीब सी जिद थी।

    **"तुम मेरी ज़िंदगी हो सकते थे… पर तुमने सिर्फ तमाशा देखा…"**
    उसने खुद से कहा, जैसे किसी से नहीं, **विश्वनाथ से बात कर रही हो।**

    ---

    ### **आर्यन का कमरा – एक दूसरा सन्नाटा**

    घर के सबसे ऊपर वाले हिस्से में, जहाँ मेहमानों की नज़रें नहीं जातीं, वहाँ था **आर्यन** का कमरा।

    कमरा शांत था, बिस्तर सजा नहीं था — एक तरफ खिड़की से आधा चाँद झाँक रहा था।

    आर्यन बिस्तर पर बैठा था, फोन उसके हाथ में था।

    स्क्रीन पर उंगलियाँ बार-बार एक ही तस्वीर पर टिक रही थीं — **शामली की हल्दी के समय की तस्वीर**, जब उसके गालों पर हल्दी थी और आँखों में छलकती चुप्पी।

    आर्यन की आंखों में न हँसी थी, न दुःख — बस एक रहस्यमयी शून्यता।

    वो तस्वीर ज़ूम करता, रुकता… और फिर धीरे से बगल रखे तकिए पर फोन रख देता।

    फिर धीरे से बुदबुदाया —
    **"तुम्हें देखकर कुछ समझ नहीं आया… या शायद सब कुछ समझ आ गया…"**

    कमरे में फिर सन्नाटा छा गया।

    फिर सिर्फ खिड़की की हवा, और आर्यन की गहरी सांसें…
    जैसे एक कहानी वहीं से शुरू होनी हो। मन ही मन‌ कहा,
    **" तुम्हें मैं भूल नहीं सकता हूं, तुम मेरा पहला और आखिरी प्यार हो"**

  • 5. सुहागरात <br> <br>ए लव स्टोरी - Chapter 5

    Words: 730

    Estimated Reading Time: 5 min

    ### **सन्नाटों में गूंजता नाम — “शामली”**

    रात ढल चुकी थी।

    हवाओं में ठंडक घुल गई थी। हवेली के हर कोने में लाइटें धीमी हो चुकी थीं, मेहमान जा चुके थे, और सजावट के फूल अब मुरझाने लगे थे।

    बड़ी हवेली की ऊपरी मंज़िल पर एक कमरा था — भारी फर्नीचर, मखमली पर्दे और दीवार पर पुरखों की तस्वीरें।

    उस कमरे में **शामली** अकेली थी।

    लाल साड़ी अब अधखुली हो चुकी थी, पल्लू फर्श पर पड़ा था आधी अभी भी कमर से बंधी थी, ब्लाउज डीप गले से उभार हल्के दिख रही थी ,
    गहने धीरे-धीरे उतारे जा चुके थे। उसने अपने बाल खोल लिए थे, जो उसके थके हुए चेहरे पर बिखर गए थे।
    आईने के सामने बैठी वह एकटक अपनी ही परछाईं को देख रही थी —
    ना रौशनी में कुछ दिख रहा था, ना अंधेरे में कुछ छुप रहा था।

    एक रात पहले जिस कमरे में उसके स्वागत के लिए गुलाबों की चादर बिछाई गई थी,
    आज वहाँ सिर्फ **उदासी की सिलवटें** थीं।

    ---

    #### **उधर, हवेली के किचन के पास…**

    **विश्वनाथ की मां**, हल्के आसमानी रंग की साड़ी में, अपने कमरे से बाहर आई थीं।
    उनके चेहरे पर थकान नहीं थी — चिंता थी।
    वो जानती थीं, **विश्वनाथ अब तक घर नहीं आया है**।

    वो सीढ़ियाँ उतरकर सीधे रसोई के सामने वाले बरामदे में पहुँचीं।
    वहाँ बैठी थी **मधु** — वही पुरानी नौकरानी, जो सालों से इस घर में है। उम्र करीब चालीस के पार, लेकिन तेज़ नज़र और समझदार जुबान वाली।

    मधु ने उन्हें आते देखा तो झट से उठ गई,
    “मालकिन, कुछ चाहिए आपको?”

    मां ने सिर हिलाया और कुर्सी पर बैठ गईं।

    **“नहीं मधु, बस चैन नहीं मिल रहा।”**

    मधु ने धीरे से कहा,
    “पता है मुझे… जमीदार साहब आज फिर नहीं आए।”
    और यह कहकर वह चुप हो गई।

    कुछ देर दोनों के बीच सन्नाटा रहा।

    ---

    #### **फिर मां बोल पड़ीं:**

    “मैंने सोचा था… शादी करूँगी तो कुछ तो बदलेगा उसमें।
    घर में रहना सीखेगा… किसी के लिए जिम्मेदार होना सीखेगा…
    लेकिन लगता है, बहू भी उसके लिए बस एक रस्म बनकर रह गई।”

    मधु ने धीमे स्वर में कहा,
    “मालकिन, जमीदार साहब में जो सख्ती है… वो तो बचपन से है।
    पर आज जब बहू की आँखें देखीं मैंने…
    मुझे लगा, उस लड़की में बहुत सहने की ताक़त है।”

    मां ने गहरी सांस ली,
    “हां… शामली समझदार है। शांत भी है…
    पर ये चुप्पी अगर टूटी, तो ज़िंदगी भर कुछ न टूट जाए…”

    ---

    #### **मधु थोड़ी देर चुप रही, फिर पूछा:**

    “आपने जमीदार साहब से बात की थी? शादी के बाद थोड़ा समय देने को?”

    मां ने थककर कहा,
    “हर बार यही कहती आई हूँ।
    और हर बार उसने यही कहा कि उसके पास वक़्त नहीं है…
    ‘भावनाओं के लिए मेरे पास जगह नहीं बची’, ये उसके शब्द थे।”

    मधु ने सहानुभूति भरी आँखों से उन्हें देखा।

    “क्या आप जानती हैं मालकिन, जब रस्मों के बाद बहू मुस्कुरा नहीं रही थी…
    तो कई औरतें उसे घमंडी कहने लगी थीं।
    पर मैंने उसकी आँखें देखीं — उनमें बहुत कुछ था।
    बस किसी ने पढ़ा नहीं…”

    मां का गला भर आया —
    “कभी-कभी लगता है, मैंने एक बेटी लाकर उसे सिर्फ अकेलापन सौंप दिया…”

    ---

    ### **उसी वक्त, शामली का कमरा…**

    शामली अब आईने से हट चुकी थी।
    वो बिस्तर के किनारे बैठ गई थी, और धीरे-धीरे अपने पैरों के गहने उतार रही थी।

    बाहर हवा की सरसराहट थी, और कमरे के अंदर भारी सन्नाटा।

    उसने अपनी डायरी निकाली — जो उसने ने विदा के वक़्त उसके बैग में रखी थी।

    पहला पन्ना खोला, और लिखा:

    > **"शादी का दूसरा दिन।
    > आज भी उन्होंने मेरी तरफ देखा नहीं।
    > क्या मैं सिर्फ एक ज़िम्मेदारी हूँ?
    > या कोई कर्ज़ जो उन्होंने मां के लिए चुका दिया?"**

    उसके हाथ काँप रहे थे।
    आँखें नम थीं, लेकिन आंसू अब बहते नहीं थे —
    **वो सूख चुके थे… शायद उसी वक्त जब सीढ़ियों पर विश्वनाथ ने कहा था — "मुझसे मत कहिए…"**

    ---

    ### **फिर नीचे रसोई में…**

    मां कुर्सी से उठ खड़ी हुईं।

    उन्होंने मधु की ओर देखा, आवाज़ में हल्की थकावट थी लेकिन स्वर में आदेश साफ़ था।

    **“जा मधु, बहू को बुला ला… खाना खाएगी तो शायद नींद आए…”**

    मधु ने सिर हिलाया।

    **“जी मालकिन…”**

    वो झुककर सलाम करती है और सीढ़ियाँ चढ़ने लगती है।

    हर कदम के साथ वो सोच रही थी —
    **“जिस घर की पहली रात इतनी खाली हो, वहां दुल्हन के मन की आवाज़ कौन सुनेगा?”**

  • 6. सुहागरात <br> <br>ए लव स्टोरी - Chapter 6

    Words: 797

    Estimated Reading Time: 5 min

    ### ** भूख से भारी इन्तज़ार — शामली और मधु की मुलाक़ात**

    ऊपरी मंज़िल पर हल्की रौशनी थी। दीवारों पर उकेरे गए पुराने डिज़ाइन, भारी पर्दे और धीमी हवा — सब मिलकर उस हिस्से को और भी **अकेला और ठहरा हुआ** बना रहे थे।

    मधु — जो इस हवेली की सबसे पुरानी और भरोसेमंद नौकरानी थी — हाथ में एक छोटी सी ट्रे लिए सीढ़ियाँ चढ़ती जा रही थी।

    हर कदम के साथ उसके दिल में एक ही ख्याल था — **“कितनी चुप लड़की है ये… बिना बोले कितना कुछ कह जाती है।”**

    कमरा अब भी वैसे ही बंद था। दरवाज़े के बाहर खड़ी मधु ने एक बार दस्तक दी, फिर धीरे से आवाज़ लगाई —

    **“बहू जी…?”**

    अंदर कुछ देर सन्नाटा रहा। फिर धीमे-धीमे दरवाज़ा खुला।

    शामली सामने थी।

    लाल जोड़े के बिना, अब हल्के गुलाबी रंग कि साड़ी पहनी, बाल खुले हुए — लेकिन थके, उलझे और बिखरे हुए। उसकी आँखों में नींद नहीं, बल्कि जागे हुए सवाल थे।

    मधु मुस्कराई,
    **“बहू जी, माता जी ने भेजा है… खाना लगाने को कहा है। नीचे सब इंतज़ार कर रहे हैं।”**

    शामली ने कुछ पल मधु को देखा, फिर बहुत धीमे से पूछा —

    **“वो… आए क्या?”**

    मधु ज़रा झिझकी। सवाल सीधा था — जवाब मुश्किल।

    वो झूठ बोल सकती थी, पर शामली की आँखों में ऐसा सन्नाटा था जिसे धोखा देना आसान नहीं था।

    **“मतलब… साहब?”** मधु ने थोड़ा समय खींचने की कोशिश की।

    शामली ने बस सिर हिला दिया। आवाज़ अब भी शांत थी, मगर उसकी गूंज अंदर तक थी —

    **“हां… विश्वनाथ जी। वो घर आए क्या?”**

    मधु ने ज़रा नज़रें झुका लीं, फिर हल्के से मुस्कुराकर बोली —

    **“अभी नहीं बहू जी… पर आते होंगे। साहब जब काम में लग जाते हैं, तो देर हो ही जाती है। ऐसा नहीं है कि नहीं आएंगे। थोड़ी देर और लग सकती है बस…”**

    शामली की नज़र एक पल के लिए फर्श पर टिक गई। फिर उसने बिना किसी शिकवे या हैरानी के कहा —

    **“मैं खाना उनके साथ ही खा लूंगी। आप बताना जब वो आ जाएं… मैं यहीं हूँ।”**

    मधु ने ज़रा घबरा कर कहा,
    **“बहू जी… वो आने में वक्त लग सकता है। आप ऐसे भूखे मत रहिए। माता जी भी कह रही थीं कि आप खाना खा लें, थक गई होंगी। रस्मों का दिन बहुत भारी होता है…”**

    शामली मुस्कुरा दी — **एक सूनी, फीकी मुस्कान।**

    **“आप नहीं समझेंगी मधु दीदी… खाना थकान के बाद खाया जाता है…
    पर जब मन थका हो, और दिल भरा हो…
    तो भूख भी अंदर कहीं छुप जाती है।”**

    मधु पहली बार चौक गई।
    उसने बहू को अब तक चुप, सहमी, धीमी लड़की समझा था —
    लेकिन अब पहली बार महसूस हुआ,
    **“इस चुप्पी के नीचे बहुत कुछ ज़िंदा है… बहुत कुछ बोलता है।”**

    मधु ने एक कदम आगे बढ़कर, बड़े अपनापन से पूछा —

    **“बहू जी, आप नाराज़ हैं उनसे?”**

    शामली ने आँखें उठाईं। कुछ पल बाद बोली —

    \*\*“नहीं। नाराज़ होने का हक़ तो तब होता जब कोई रिश्ता हो।
    यहाँ तो बस एक नाम जुड़ा है — पति-पत्नी का।
    रिश्ता तो शायद उनसे बना ही नहीं… या उन्होंने बनने ही नहीं दिया।”

    उसकी आवाज़ काँपी नहीं, लेकिन उसमें वो थकावट थी जो सालों की लड़ाई के बाद आती है।

    ---

    #### **मधु ने धीरे से ट्रे पास रख दी।**

    **“आपने कुछ खाया नहीं बहू जी, पानी भी नहीं लिया। ये ठीक नहीं।”**

    शामली ने धीरे से कहा —
    **“मुझे आदत है इन्तज़ार की।
    पहले पापा का इन्तज़ार करती थी जब वो देर से लौटते थे…
    फिर माँ का, जब वो अस्पताल में थीं।
    अब… ये नया इन्तज़ार है। बस रिश्ता बदल गया है, आदत नहीं।”**

    मधु की आँखें नम होने लगीं। वो अब तक एक सेविका थी — अब एक माँ की तरह महसूस कर रही थी।

    **“बहू जी… साहब वैसे ही हैं, जैसे आप देख रही हैं।
    पर ये मत सोचिए कि आप अकेली हैं इस घर में।”**

    शामली ने मधु की तरफ पहली बार नज़र भरकर देखा —
    उस नज़र में अपनापन नहीं, लेकिन **एक शून्य भरोसा** था।

    ---

    #### **कुछ देर सन्नाटा रहा, फिर मधु बोली:**

    **“मैं नीचे बता देती हूं माता जी को कि आप नहीं खा रही हैं अभी…”**

    शामली ने धीरे से सिर हिला दिया।

    मधु ने ट्रे उठाई, दरवाज़ा खोला — फिर एक पल को रुक गई।

    पीछे मुड़कर बोली —

    \*\*“अगर किसी दिन बहुत ज़्यादा थक जाओ, तो सिर्फ आवाज़ दे देना…
    मधु दीदी पास ही रहती है।”

    शामली ने कोई जवाब नहीं दिया, बस सिर झुका लिया।

    ---



    मधु सीढ़ियाँ उतरती है। नीचे मां इंतज़ार में बैठी होती हैं।

    **“क्या बहू आ रही है?”**

    मधु ने सिर हिलाया —
    **“नहीं माता जी, कहती हैं — जब साहब आएंगे, तब खाएंगी।”**

    मां की आँखों में दर्द उतर आया —
    **“दूसरे ही दिन से ये इन्तज़ार शुरू हो गया…
    जाने और कितनी रातें यूँ ही गुजरेंगी…”**

  • 7. सुहागरात <br> <br>ए लव स्टोरी - Chapter 7

    Words: 769

    Estimated Reading Time: 5 min

    ### **सन्नाटों की संगत — रात का खाना**

    रात का खाना तैयार था।

    डाइनिंग हॉल की बड़ी सी मेज़ पर चांदी की प्लेटें करीने से सजी थीं। दीवारों पर लगे पुराने झूमर की रौशनी अब भी कमरे में गरिमा बनाए रखे थी। बर्तन की खनक और परोसते नौकरों की धीमी बातचीत, माहौल को थोड़ा-बहुत जीवित रखे हुए थी।

    **विश्वनाथ की मां**, एक साड़ी में, सिर ढका हुआ, खाने के पास बैठी थीं। उनकी आँखों में थकावट थी — दिनभर की नहीं, बल्कि **सालों से खिंची उम्मीदों की थकावट**।

    वो एक ही दिशा में बार-बार देख रही थीं — शायद दरवाज़े की ओर।

    तभी धीमे क़दमों की आहट सुनाई दी।

    **शामली आई थी।**

    बालों को पीछे समेटे हुए, चेहरा अब भी उतना ही शांत — लेकिन वह चुप्पी अब और गहरी लग रही थी।

    मां ने उसकी तरफ देखा और हल्का मुस्कुराने की कोशिश की।

    **“आ गई बहू… चलो, बैठो। खाना ठंडा हो जाएगा।”**

    शामली ने धीरे से सिर हिलाया और एक खाली कुर्सी की ओर बढ़ गई — **वही जगह**, जहाँ से विश्वनाथ की कुर्सी ठीक दाईं ओर पड़ती थी। लेकिन वहाँ अब भी कोई नहीं था… **और शायद आज भी नहीं आएगा**।

    मां ने खाना परोसने का इशारा किया, और नौकरों ने धीमे-धीमे थालियाँ भरनी शुरू कीं।

    कुछ पल बाद, मां ने धीरे से कहा —

    **“मैं जानती हूँ… तुमने खाना सिर्फ मेरे कहने पर शुरू किया है।”**

    शामली ने बिना देखे जवाब दिया,
    **“जी…”**

    **“पर दिल कहाँ है ना तुम्हारा, इस थाली में?”**

    अब शामली ने उसकी ओर देखा। **मां की आँखें अब सख्त नहीं थीं**, वे नरम थीं — मानो वो सिर्फ एक सास नहीं, **एक टूटी हुई मां** बन गई थीं, जो अपने बेटे के व्यवहार से खुद भी टूटी हुई थीं।

    **“विश्वू ऐसा नहीं था… कभी नहीं था,”** मां ने फुसफुसाकर कहा, “बहुत हँसमुख, बहुत सजीव… पर पता नहीं कब ऐसा हो गया।”

    शामली चुप रही।

    उसने एक निवाला लिया, पर गले से नीचे उतारना कठिन हो रहा था। उसने पानी पीया, जैसे कोई बुरा स्वाद धोने की कोशिश कर रही हो।

    मां की आँखें नम थीं,
    **“मुझे लगा था, तुम्हारे आने से वो बदलेगा।
    घर में बहू होगी, तो घर जैसा महसूस होगा उसे।
    पर…”**

    फिर वो एकदम चुप हो गईं।

    शामली ने बहुत धीरे से पूछा —
    **“क्या वो अक्सर… ऐसे ही रहते हैं?”**

    मां ने सिर झुका लिया।

    **“हाँ।
    शादी के लिए भी बहुत मुश्किल से राज़ी हुआ।
    बचपन से हर चीज़ में ठंडा रवैया।
    पर अब तो जैसे सब रिश्तों से भी दूरी बना ली है।
    ऑफिस, किताबें, अकेलापन — बस इन्हीं में डूबा रहता है।”**

    शामली ने धीरे से अपनी थाली किनारे कर दी। उसका मन खाने से अब पूरी तरह हट चुका था।

    मां ने देखा, पर कुछ नहीं कहा। बस साड़ी के पल्लू से आँखें पोंछीं।

    फिर, थोड़ी हिम्मत जुटाकर उन्होंने कहा —

    **“बहू, तुम मत बदलना। तुम वैसी ही रहना जैसी हो।
    मैं जानती हूँ, बहुत कठिन है ये सब…
    पर अगर तुम भी ठंडी हो गईं, तो इस घर में कोई गर्मी नहीं बचेगी।”**

    शामली ने मां की ओर देखा — **ये पहला पल था जब दोनों औरतें एक-दूसरे की पीड़ा को बाँट रही थीं**। एक सास जो अपने बेटे के खोने से टूटी थी, और एक बहू जो अपने पहले ही दिन अपने सपनों के टूटने की आवाज़ सुन चुकी थी।

    अचानक दरवाज़े की घंटी बजी।

    दोनों चौंकीं। मां ने जल्दी से नौकर को इशारा किया।

    कुछ ही देर में नौकर लौटा —
    **“साहब नहीं हैं… आर्यन बाबू आए हैं।”**

    मां ने गहरी साँस ली,
    **“उसे भी वक्त बेवक्त घर आने की आदत है…”**

    शामली ने नज़रें झुका लीं। कुछ पल बाद चुपचाप उठी और धीरे से बोली —

    **“मैं कमरे में जाऊं?”**

    मां ने सिर हिलाया।
    **“ठीक है बहू। खाना थोड़ा सा ले जाओ, बाद में खा लेना…”**

    **“नहीं चाहिए,”** शामली ने बहुत विनम्रता से कहा, **“भूख अभी भी नहीं है।”**

    वो धीमे क़दमों से वापस चली गई। **डाइनिंग टेबल पर उसकी अधूरी थाली**, और मां की नम आँखें — दोनों रह गईं।

    ---



    आर्यन ऊपर अपने कमरे में जाता है। एक छोटा सा लैंप जल रहा है। टेबल पर उसका फोन रखा है।

    वो बैठते ही फोन उठाता है — कुछ देर स्क्रीन देखता है, फिर गैलरी खोलता है।

    **पहली तस्वीर: आज की ही शामली की — रस्म में बैठी, हाथों में मेंहदी, आंखों में उम्मीद।**

    आर्यन एक पल को रुक जाता है।

    **चेहरे पर कोई मुस्कान नहीं — बस गहराता हुआ सवाल।**

    उसने मोबाइल स्क्रीन को धीमे से लॉक किया, और बिस्तर पर गिरकर छत देखने लगा।

    **रात का सन्नाटा पूरे घर पर छा चुका था…
    लेकिन हर कमरा, हर रिश्ता — किसी न किसी सवाल से गूंज रहा था।**

    ---

  • 8. सुहागरात <br> <br>ए लव स्टोरी - Chapter 8

    Words: 843

    Estimated Reading Time: 6 min

    कमरा शांत था, बहुत शांत। बस छत के पंखे की धीमी सी आवाज़, जैसे किसी पुराने किस्से की धड़कती हुई रेखा। दीवार की घड़ी की टिक-टिक कमरे में गूंज रही थी, जैसे हर सेकंड किसी अनकहे इंतज़ार की गवाही दे रहा हो।

    **शामली** करवट बदल रही थी।

    रात के जाने कौन से पहर में यह करवटें अब नींद का हिस्सा नहीं, बेचैनी की पहचान बन चुकी थीं। वो साड़ी जो दिन भर की थकावट के बाद उसने बेमन से लपेटी थी, अब बिस्तर की सिलवटों में उलझी हुई थी। हल्का पल्लू उसके सीने से खिसक गया था, लेकिन उसे अब इसकी कोई सुध नहीं थी।

    **“वो आएंगे भी या आज भी नहीं?”**
    ये सवाल शायद उसके अंदर गूंजते हुए ग़ायब हो चुका था — या शायद उसे खुद से जवाब की उम्मीद नहीं थी।

    शामली ने एक लंबी साँस ली, आँखें बंद की, लेकिन नींद अब कोसों दूर थी। हल्की हवा खिड़की से आ रही थी और उसके खुले गले में चुपचाप समा रही थी। उसके चेहरे पर थकान थी, लेकिन उस थकान के पीछे था एक अनकहा इंतज़ार — एक अधूरी जिज्ञासा — जो अब धीरे-धीरे भीतर ही भीतर आकार लेने लगी थी।

    तभी...

    **दरवाज़े के पास किसी के कदमों की आहट हुई।**

    बहुत धीमी। बहुत सधी हुई।

    शामली के बदन में एक हरकत हुई — नज़रें अब भी बंद थीं लेकिन सांसें धीमी होने लगीं। पलकें भले ही झुकी हुई थीं, पर कान पूरे सजग।

    **विश्वनाथ लौट आया था।**

    वो हल्के क़दमों से कमरे में दाखिल हुआ। घड़ी की टिक-टिक जैसे थम गई थी। उस घड़ी से ज़्यादा अब शामली की धड़कनें तेज़ थीं।

    **“आ गए…”**
    ये शब्द उसने मन में कहा, होंठ हिले तक नहीं, लेकिन चेहरा जैसे थोड़ी राहत से भर गया।

    वो चाहती तो उठ सकती थी — एक पत्नी की तरह, एक साथी की तरह — पर जाने क्यों उसका मन उस पलों को केवल "महसूस" करना चाहता था, "जीना" नहीं।

    विश्वनाथ ने शर्ट की बटन खोलनी शुरू की थी।

    शामली की बंद पलकों के बीच से एक महीन सी रेखा खुली… बहुत हल्की, जैसे कोई चोरी करते पकड़ा न जाए।

    वो जो देखा उसने… वो कुछ पल के लिए साँस रोक देने जैसा था।

    विश्वनाथ की शर्ट अब उतर चुकी थी। उसका सीना चौड़ा, गहरा और किसी मजबूत दीवार सा लगा — जैसे उसमें कोई थकान नहीं, कोई लाचारी नहीं। जैसे उसमें एक दुनिया है, जिसमें शामली को कभी जगह नहीं मिली।

    **"इतना मजबूत… कितना सख़्त…"**
    वो मन ही मन सोचने लगी।

    फिर अचानक उसने खुद को टोका — **"मैं ये क्या देख रही हूं?… ये तो मेरे पति हैं… लेकिन…"**
    लेकिन उस ‘लेकिन’ ने ही तो उसे रोक नहीं पाया।

    अब उसकी नज़रें उसकी पीठ पर थीं — जो अब कमरे के कोने में खड़े दर्पण में झलक रही थी। हल्की रोशनी में विश्वनाथ का बदन, जैसे कोई पुरानी कहानी का योद्धा हो — चोट खाया, लेकिन झुका नहीं।

    शामली की नज़र उसके कंधों पर गई — चौड़े, फैले हुए — जैसे उस पर सिर रखकर सारी दुनिया की थकान मिटाई जा सकती हो।

    अब विश्वनाथ अपनी पैंट बदल रहा था — और यही वो पल था जब शामली ने तुरंत अपनी पलकों को बंद कर लिया, जैसे किसी चोरी पर रंगे हाथों पकड़ी गई हो।

    **“पागल हो गई हूं क्या मैं?”**
    उसका दिल धकधक कर रहा था — और उस धड़कन में डर नहीं था, सिर्फ हल्का सा कौतूहल था।

    पर कुछ ही सेकंड्स बाद…

    उसने फिर से पलकों की महीन दरार से देखा — इस बार उसकी नज़रें सीधे **विश्वनाथ के सीने** पर थीं — अब पूरी तरह खुला, अब पूरी तरह सामने।

    कहीं कोई झिझक नहीं थी उसमें। उसकी साँसें अब गहरी हो चली थीं।

    **“ये सीना… ये मर्द… क्यों लगता है, जैसे इसके पास बैठ जाऊं तो कोई सवाल बाकी ना रहे…”**

    उसने धीरे से करवट ली — अब वो आधे खुले पल्लू और आधी जागी आंखों के साथ बस उसे देख रही थी — चुपचाप, बिना कोई आवाज़ किए।

    विश्वनाथ अब शर्ट पहन चुका था — लेकिन वो कुछ पल के लिए आईने में खुद को देखता रहा — और शायद उसने महसूस कर लिया था, कि कोई उसे देख रहा है।

    लेकिन उसने कुछ कहा नहीं।

    बस पैंट की जेब से कुछ निकाला, टेबल पर रखा और फिर धीमे क़दमों से दरवाज़े की ओर बढ़ गया — शायद पानी के लिए।

    शामली अब आंखें बंद किए, तकिये पर हल्की मुस्कान के साथ थी — **"आज पहली बार लगा… मैं सच में किसी की पत्नी हूं।"**

    उसके मन में अब कोई डर नहीं था — अब जो था, वो था सिर्फ एक हल्का सा मोह… एक हल्का सा खिंचाव… और एक चौड़े सीने की छवि, जो अब नींद के उस कोने में समा चुकी थी, जहाँ से जागना भी अच्छा लगता है।

    कमरे में फिर वही सन्नाटा था — लेकिन इस बार वो सन्नाटा खाली नहीं था।

    वो अब भी जाग रही थी… लेकिन अब करवटें बेचैन नहीं थीं।

    अब वो करवट उस तरफ थी — जहाँ **विश्वनाथ का चौड़ा सीना** थोड़ी देर पहले था… और अब भी उसकी आंखों के पीछे छुपा हुआ, हर सांस में धड़क रहा था।

  • 9. सुहागरात <br> <br>ए लव स्टोरी - Chapter 9

    Words: 777

    Estimated Reading Time: 5 min

    ### **कमरा – रात का दूसरा सिरा**

    पानी की बोतल से हल्की-हल्की आवाज़ आई, और फिर दरवाज़ा उसी सधी चुप्पी से खुला जैसे अभी कुछ देर पहले बंद हुआ था।

    **विश्वनाथ लौट आया था।**

    कमरे में हल्की रोशनी अब भी वैसी ही थी — दीवार पर पड़ी घड़ी की परछाईं अब लंबी हो चली थी। पंखा अब भी घूम रहा था, मगर अब वो आवाज़ जैसे और भी गहरी लग रही थी।

    वो सीधे बिस्तर की ओर गया। चुपचाप, शांत। जैसे कुछ कहने की कोई ज़रूरत ही न हो।

    बिस्तर पर लेटते हुए उसने धीरे से करवट बदली — और उसी करवट में वो **शामली की ओर** मुड़ गया।

    साड़ी का पल्लू अब भी हल्का सा फिसला हुआ था — कंधे पर जैसे कोई रेशमी साया हो, जो पूरी तरह ढक नहीं पा रहा था। उसका ब्लाउज हल्का टाइट था, और उसमें उभरे **उभार** इतने साफ़ थे कि चाहकर भी नज़रें फिसल जाएं — ये मुमकिन नहीं था।

    **विश्वनाथ की नज़र वहीं अटक गई।**

    एक पल के लिए जैसे उसकी साँसें थम गईं।

    फिर उसने खुद को काबू में किया — पलकों की एक झपक से नज़रें फेर लीं — और करवट बदल ली। लेकिन…

    **नींद अब भी कोसों दूर थी।**

    उसका मन जैसे अब कमरे की हवा में कुछ नया तलाश रहा था। आँखें बंद करने की कोशिश की, पर दिमाग जैसे अब जाग चुका था।

    फिर उसे याद आया — **साइड टेबल पर रखी किताब।**

    "शायद कुछ पढ़ लूं… नींद आ जाए," उसने सोचा।

    लेकिन वो किताब **शामली की तरफ़** वाले टेबल पर थी।

    उसने धीमे से उठकर झुकना शुरू किया — ध्यान से, बहुत सधे क़दमों में — ताकि शामली की नींद न टूटे।

    पर जैसे ही वो आगे झुका…

    **उसका बदन हल्का सा शामली के बदन से छू गया।**

    एक सिहरन सी हुई — **हल्की, मगर बहुत साफ़।**

    और **शामली की नींद खुल गई।**

    उसने धीरे से आंखें खोलीं… कुछ सेकंड के लिए उसे कुछ समझ नहीं आया — लेकिन अगले ही पल जब उसकी नज़रें **विश्वनाथ की नज़रों** से टकराईं…

    कमरे का हर कोना जैसे कुछ कह गया।

    दोनों कुछ कह नहीं सके… पर **आंखों की वो टकराहट** — जैसे किसी अनकही बात का जवाब बन गई थी।

    वो कुछ पल वैसे ही रुके रहे — झुके हुए, थमे हुए।

    अब बस कमरे में थी **टिक-टिक**, **धड़कनों की गूंज**, और दो जोड़ी आँखें… जो **पहली बार बिना पर्दे के मिली थीं।**
    विश्वनाथ झुका हुआ था — किताब अब भी उसकी उंगलियों से कुछ इंच दूर थी, लेकिन **शामली की आँखें** उससे कहीं ज़्यादा करीब।

    वो कुछ पल ऐसे ही रुका रहा — जैसे समझ नहीं पा रहा हो कि अब पीछे हटना चाहिए या आगे बढ़ना।

    **शामली की साँसें** अब ज़रा तेज़ थीं, उसकी नज़रें जैसे सीधे **विश्वनाथ की आँखों** में कुछ तलाश रही थीं — कोई जवाब, कोई वजह… या शायद सिर्फ एक झलक अपने उस हिस्से की, जो अब तक अनदेखा था।

    **उनके चेहरे बहुत पास थे।**

    इतने पास कि एक-दूसरे की साँसें तक महसूस की जा सकती थीं। शामली की आँखें अब झुकी नहीं थीं — वो स्थिर थीं, हल्के से डरी हुई… लेकिन कहीं न कहीं स्वीकार करती हुई।

    **विश्वनाथ थोड़ा और झुका।**

    शामली की पलकें कांपने लगीं।

    और तभी…

    उनके होठ बस **एक साँस की दूरी** पर रुक गए।

    एक अनजाना पल — जिसमें **कुछ घटने ही वाला था**।

    लेकिन उस पल ने जैसे खुद को रोक लिया।

    विश्वनाथ की नज़रों ने उसकी आँखों से एक सवाल किया — और शामली की नज़रों ने उस सवाल का कोई जवाब नहीं दिया… **पर इन्कार भी नहीं किया।**

    **होठ बस छूने ही वाले थे…**

    लेकिन…

    **एक घबराहट की लहर** अचानक दोनों के अंदर से उठी।

    जैसे दोनों को एक साथ होश आ गया हो।

    विश्वनाथ ने तेजी से खुद को पीछे खींचा, और फौरन उठकर वापस अपनी जगह लेट गया — आँखें बंद कर लीं, साँसें काबू करने की कोशिश करता रहा।

    **शामली भी तुरंत करवट बदलकर पीठ कर ली।**

    चेहरे पर गर्मी थी — मगर वो गर्मी किसी शर्म की नहीं, **एक अनजाने एहसास की थी।**

    कमरे में अब फिर वही सन्नाटा था।

    लेकिन इस बार वो सन्नाटा कुछ **अधूरा सा**, कुछ **रुका-रुका** सा था।

    **किस हुआ नहीं… पर होते-होते रह गया।**

    और उसी "न-पूरे" पल के साथ — दोनों चुपचाप लेटे रहे, बिना कुछ कहे, बिना कुछ पूछे।

    कुछ देर बाद…

    विश्वनाथ की साँसें धीमी हो गईं।

    शामली की भी आँखें खुद-ब-खुद बंद हो गईं।

    और **दोनों नींद की उसी देहलीज़ पर चले गए**, जहाँ कुछ कहा नहीं जाता — बस महसूस किया जाता है।

    कमरा अब भी उतना ही शांत था…
    पर अब उस सन्नाटे में एक **अनकहा एहसास** था —
    जो न करीब आया,
    न दूर गया —
    बस **दो धड़कनों के बीच टिका रहा…**

  • 10. सुहागरात <br> <br>ए लव स्टोरी - Chapter 10

    Words: 734

    Estimated Reading Time: 5 min

    कमरे में गहरी नींद पसरी हुई थी।

    पंखे की धीमी आवाज़ और खिड़की से आती हल्की हवा के बीच हर चीज़ जैसे ठहरी हुई थी — **साँसें**, **धड़कनें**, और वो **अनकहा एहसास** भी, जो अब भी कमरे के कोनों में सांस ले रहा था।

    **शामली की नींद खुली।**

    धीरे-धीरे पलकें खोलीं, तो सामने का नज़ारा देखकर पल भर के लिए उसकी साँस अटक गई।

    **विश्वनाथ उसके पास ही सोया था — बिना शर्ट के।**

    वो करवट लेकर उसकी ओर मुड़ा हुआ था, उसकी साँसें स्थिर, गहरी थीं। उसका चौड़ा सीना, मजबूत कंधे… और हल्के-हल्के बिखरे **छोटे-छोटे बाल**, जो उस मर्दानगी को और भी साफ़ कर रहे थे — जिससे शामली अभी तक सिर्फ कल्पना में टकराई थी।

    **वो दृश्य** उसके लिए नया नहीं था… लेकिन इतना पास से, इतनी साफ़ियत से कभी देखा नहीं था।

    पल भर में **रात की वो अधूरी बात**, वो न हो पाने वाला पल… सब याद आ गया।

    शामली के होंठ सूख गए थे — एक बेचैन-सी जिज्ञासा फिर से दिल में उठी।

    **"शर्ट तो रात में थी…"** उसने खुद से सोचा, **"शायद गर्मी लगी होगी… या शायद… वो अब खुल कर सो पाते हैं…"**

    उसने धीरे से हाथ बढ़ाया — बहुत धीरे, जैसे कोई काँच की चीज़ छूने जा रहा हो।

    उंगलियाँ अब **विश्वनाथ के कंधे** तक पहुँचने ही वाली थीं…

    **बस एक पल और…**

    लेकिन तभी —

    **दरवाज़े पर खटखटाहट हुई।**

    **ठक-ठक।**

    बहुत धीमी, लेकिन एकदम स्पष्ट।

    शामली का हाथ वहीं रुक गया — जैसे किसी ने अचानक समय थाम दिया हो।

    उसने फौरन नज़रें दरवाज़े की ओर घुमाईं — और दिल की धड़कनें फिर से तेज़ हो गईं।

    कमरे की सारी गर्मी, सारी खामोशी… अब उस एक **खटखटाहट** में सिमट आई थी।


    **ठक-ठक… ठक।**

    दरवाज़े पर दोबारा खटखटाहट हुई।

    इस बार **विश्वनाथ की नींद** भी टूट गई।

    उसने आँखें खोलीं — हल्का सा करवट बदला — और देखा, **शामली** पहले से जाग रही थी। कुछ पल के लिए **नज़रें मिलीं।**

    वो नज़रेँ जो एक अधूरी रात और एक रुका हुआ एहसास बाँट चुकी थीं।

    लेकिन… बस पल भर को।

    **विश्वनाथ ने नज़रें फेर लीं।**

    शायद शर्म नहीं… शायद झिझक थी, या सिर्फ अनकहा लिहाज़।

    उसने जल्दी से अपने सिरहाने रखी **शर्ट उठाई**, उसे पहनते हुए चुपचाप बिस्तर से उठा।

    **शामली** अब भी चुप थी — लेकिन उसकी आँखें हर हरकत देख रही थीं। अभी कुछ पल पहले जो सीना खुला हुआ था, अब फिर कपड़ों में ढक चुका था — जैसे कोई भाव अचानक वापस पीछे खींच लिया गया हो।

    **विश्वनाथ ने दरवाज़ा खोला।**

    सामने **नौकरानी खड़ी थी** — सिर हल्का झुकाए, आंखें नीचे किए।

    **"माता जी बुला रही हैं…"** उसने धीमे स्वर में कहा।

    **"अभी आता हूँ,"** विश्वनाथ ने संक्षेप में जवाब दिया।

    दरवाज़ा बंद हुआ।

    कमरे में फिर से सन्नाटा था —
    लेकिन इस बार ये सन्नाटा…
    बस "बाहर जाने" और "कुछ कहे बिना रह जाने" के बीच का था।
    दरवाज़ा बंद हुआ…
    **विश्वनाथ चला गया।**

    उसके कदमों की आहट धीरे-धीरे दूर होती गई — जैसे कोई भाव, कोई एहसास कमरे से निकलकर बाहर चला गया हो।

    **शामली बिस्तर पर अकेली रह गई।**

    कमरा अब भी वही था — वही धीमी रोशनी, वही सधी हुई हवा, वही घड़ी की टिक-टिक…
    पर अब ये सब **अलग सा** लग रहा था।
    **खाली… अधूरा… और कहीं न कहीं, चुभता हुआ।**

    वो तकिये पर सिर रखे कुछ देर यूँ ही पड़ी रही, फिर **धीरे से आँखें बंद कीं।**

    पर अब नींद कहाँ थी…

    उसके मन में एक खामोश सवाल उभर आया —
    **"क्या कभी मुझे पति जैसा कोई अपनापन मिलेगा?"**

    उसने करवट ली — अब पीठ कमरे की तरफ़ थी और चेहरा तकिये में छिपा हुआ।

    **"क्या कभी वो मुझे सिर्फ नाम की बीवी नहीं,
    बल्कि अपने परिवार का हिस्सा समझेंगे?"**

    उसके दिल में कोई शिकायत नहीं थी —
    बस एक छोटी सी उम्मीद थी,
    जो हर दिन जगती थी… और हर रात
    **थोड़ी और चुप हो जाती थी।**

    वो जानती थी —
    विश्वनाथ बुरा नहीं था।
    पर **उसके और अपने बीच** जो दूरी थी,
    वो सिर्फ बिस्तर या दीवार की नहीं,
    **रिश्ते की खामोशी** की थी।

    **शामली की आँखें भीग गईं।**

    पर आँसू नहीं बहे —
    बस पलकों के पीछे थमे रहे,
    जैसे दिल कह रहा हो —

    **"अगर कभी उन्होंने मुझे पत्नी की तरह देखा,
    तो शायद ये घर… घर लगने लगे।"**

    कमरे में अब भी सन्नाटा था —
    लेकिन अब ये सन्नाटा एक लड़की के दिल का था,
    जो **पत्नि** तो बन गई थी,
    पर अब भी किसी **पत्नी** की तरह प्यार तलाश रही थी।

  • 11. सुहागरात <br> <br>ए लव स्टोरी - Chapter 11

    Words: 733

    Estimated Reading Time: 5 min

    **बैठक की खिड़की से धूप की किरणें** अंदर आ रही थीं, लेकिन कमरे की **गंभीरता** ने उस रोशनी को भी फीका बना दिया था।

    **विश्वनाथ** सिर झुकाए अपनी मां के सामने बैठा था। माँ की आँखों में कुछ कहने की बेचैनी थी, और चेहरे पर एक चुप्पी — जिसमें वर्षों की ममता, उम्मीद और अब चिंता घुली थी।

    उन्होंने लंबा साँस लिया और धीरे से पूछा,
    **"इतनी रात गए कमरे में क्यों लौटे थे?"**

    विश्वनाथ ने नज़रें उठाईं, लेकिन ज़्यादा देर तक माँ की आँखों में नहीं देख सका।
    **"काम था…"**
    उसकी आवाज़ धीमी थी, जैसे कुछ छुपाने की कोशिश कर रहा हो।

    माँ ने उसी स्वर में आगे कहा,
    **"काम था, ठीक है। लेकिन बहू के चेहरे पर जो उदासी थी ना, वो देखकर मेरी रात की नींद उड़ गई। बेटा… क्या तुमने उससे ठीक से बात की?"**

    विश्वनाथ ने गहरी सांस ली — फिर थकान भरी आवाज़ में बोला,
    **"मां… मैंने आपसे उस दिन साफ कहा था, ये शादी मेरी मर्ज़ी की नहीं है। पर आपने नहीं मानीं। अब जो हो गया, उसे मैं पीछे नहीं ले जा सकता। पर उसमें घुलना… मेरे बस में नहीं है।"**

    माँ उसकी बात सुनकर कुछ पल चुप रहीं। फिर धीमे से बोलीं,
    \*\*"बेटा, घुलने की बात नहीं है… रिश्ता निभाने की बात है। वो लड़की अब इस घर की इज़्ज़त है। दिन-रात नज़रें टिकाए बैठी रहती है दरवाज़े पर, शायद तुम दो पल बात कर लो।"

    "वो अकेली है… और तुम भी।"\*\*

    विश्वनाथ ने हल्की हँसी के साथ, थकी हुई आवाज़ में कहा,
    **"अकेला नहीं हूं माँ, बस खामोश हूं। और जहां तक उसकी बात है, उससे बात करूं भी तो क्या? हमारी उम्र में बहुत बड़ा फर्क है। मैं उसे समझ भी नहीं पाऊँगा, और वो… शायद कभी मुझे स्वीकार ही न करे।"**

    माँ ने उसकी आँखों में देखा —
    **"तुम्हें पता भी है, उसकी आँखों में जब तुम्हें देखती है तो क्या होता है? वो हर दिन तुम्हारे कुछ शब्दों के इंतज़ार में बैठी रहती है… और तुम बस उम्र की दीवार खड़ी किए बैठे हो।"**

    विश्वनाथ ने माथा पकड़ा,
    **"माँ, ये सब फिल्मी बातें मत करो… मैं उसके साथ जबरदस्ती कुछ नहीं निभा सकता। मैंने कहा था आपसे, जबरन शादी का अंजाम यही होता है।"**

    माँ की आवाज़ अब थोड़ी सख्त हो गई —
    **"शादी जबरन नहीं थी बेटा… मजबूरी थी। आखिरी ख्वाहिश थी। और हाँ, मैं भी चाहती थी कि तुम्हारे जीवन में कोई ऐसा हो जो तुम्हारी खामोशी तोड़े। लेकिन लगता है, ये खामोशी तुम्हारी आदत बन गई है।"**

    विश्वनाथ ने कुछ पल चुप रहकर कहा,
    **"तो क्या करूँ माँ? उसे हँसते हुए देखूं, तो लगता है मैं उसकी हँसी में फिट नहीं बैठता। और जब वो चुप होती है, तो उस चुप्पी में खुद को भी खोता महसूस करता हूं।"**

    माँ ने उसकी बातों को बड़े धैर्य से सुना, फिर पास आकर उसके कंधे पर हाथ रखा —
    **"शामली तुमसे कुछ नहीं माँग रही बेटा… सिर्फ एक छोटा सा अपनापन। बस इतना कि वो इस घर में अजनबी न लगे। तुम कुछ नहीं दे सकते, कोई बात नहीं… लेकिन उसकी तरफ पीठ मत मोड़ो। वो आज भी तुम्हारी तरफ चेहरा किए बैठी है।"**

    विश्वनाथ की आँखें थोड़ी नम हो गईं, लेकिन उसने उन्हें झपकाकर छिपा लिया।
    **"मैं कुछ सोचूंगा…"** उसने कहा।

    **"सोचो मत… बस एक बार मुस्कुरा कर बात कर लो। देखना, वो लड़की खुद रास्ता बना लेगी।"** माँ की आवाज़ में आज कोई सलाह नहीं, बस एक माँ की सच्ची प्रार्थना थी।

    तभी दरवाज़े पर नौकरानी आई —
    **"साहब, गाड़ी तैयार है ऑफिस के लिए।"**

    विश्वनाथ ने उठते हुए हल्का सिर हिलाया,
    **"मैं निकलता हूँ माँ…"**

    माँ ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा,
    **"और हाँ… आज शाम को लौटो तो… उससे एक कप चाय मांग लेना।"
    "बस चाय नहीं… शायद रिश्ता भी मीठा हो जाए।"**

    विश्वनाथ कुछ कहे बिना बाहर निकल गया।

    ---

    ### ** शामली का कमरा**

    शामली अब भी बिस्तर पर बैठी थी — वही सवाल, वही चुप्पी।

    लेकिन तभी दरवाज़ा हल्का सा खुला। एक नौकरानी ने अंदर झाँककर कहा,
    **"बहू जी, साहब चले गए ऑफिस… माँ जी ने कहा आप नीचे नाश्ते के लिए आ जाइए।"**

    शामली ने सिर हिलाया —
    **"आ रही हूँ…"**

    उसने शीशे में खुद को देखा — चेहरे पर हल्की थकावट थी, लेकिन आँखों में अब भी कहीं कोई उम्मीद बाकी थी।

    धीरे-धीरे उसने बाल सँवारे, और खुद से फुसफुसाई —
    **"शायद आज कुछ बदले…"**

    और वो कमरे से बाहर निकल गई…
    शायद एक और कोशिश के लिए।

  • 12. सुहागरात <br> <br>ए लव स्टोरी - Chapter 12

    Words: 661

    Estimated Reading Time: 4 min

    दोपहर की धूप अब धीमी पड़ चुकी थी। परदे खींच दिए गए थे और कमरे में एक शांति सी बसी थी —
    ना कोई आवाज़, ना कोई शोर… बस दो औरतें, दो पीढ़ियाँ, और एक रिश्ता… जो अब धीरे-धीरे साँस ले रहा था।

    **शामली** फर्श पर बैठी थी — एक गहरे रंग की पीली साड़ी में, बाल पीछे बाँध रखे थे और चेहरा शांत था।
    **सास** पलंग पर लेटी थीं — पैर हल्के उठे हुए तकिए पर टिके थे और माथे पर शिकन। लेकिन चेहरे पर एक सुकून भी था — जैसे कई दिन बाद किसी ने मन से उन्हें छुआ हो।

    शामली ने हल्के से **तेल की कटोरी** उठाई, हथेलियों पर उँगलियाँ फिराईं और सास के पैरों पर तेल मलना शुरू किया —
    **ना कोई बातचीत, ना कोई दिखावा… सिर्फ स्पर्श की ईमानदारी।**

    कुछ पल तक सास चुप रहीं। फिर खुद-ब-खुद उनके होंठों पर एक मुस्कान फैल गई।
    **"तेरे हाथों में जादू है बहू…"**
    उनकी आवाज़ धीमी थी लेकिन बेहद सच्ची।

    शामली ने हल्के से मुस्कराकर कहा,
    **"तेल ही अच्छा है शायद…"**

    सास ने आंखें बंद कर लीं —
    **"नहीं, ये हाथ… ये नीयत। तू बिना कहे बहुत कुछ कह देती है बहू। तुझे देख के कई बार लगता है जैसे मेरी अधूरी बातें पूरी हो रही हों।"**

    शामली का मन एक पल को काँपा —
    ये वही सास थीं, जिनके सामने वो खुद को अजनबी समझती थी, लेकिन अब… जैसे कोई अनकहा रिश्ता पिघलने लगा था।

    **"बहुत दिन हो गए ऐसे आराम नहीं मिला,"** सास ने कहा,
    **"तेरा हाथ छूता है तो जैसे दुख भी सोने लगता है।"**

    शामली कुछ नहीं बोली, बस मुस्करा दी — और धीरे-धीरे अपनी उँगलियाँ उनके पंजों से एड़ियों की तरफ़ ले आई।
    उनकी चमड़ी पर पुरानी थकावट की लकीरें थीं — जो शायद बरसों की ज़िम्मेदारियों से आई थीं।

    सास ने कुछ देर बाद एक गहरी साँस ली और बोलीं,
    **"बहू, आज तुझसे दिल की बात करने का मन कर रहा है… पर शायद कह नहीं पा रही।"**

    शामली ने उनकी एड़ी पर हाथ टिकाए हुए कहा,
    **"तो मत कहिए माँ जी… कभी-कभी सिर्फ हाथों का जवाब काफी होता है।"**

    ये सुनते ही सास की आँखें हल्की सी भीग गईं —
    उनके मन की गाँठ किसी ने पहली बार बिना बोले खोल दी थी।

    **"तू इस घर में आई तो सोचा था, नाज-नखरे दिखाएगी, पर तू तो जैसे मेरी ही परछाईं है।"**
    उन्होंने शामली के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा,
    **"मैंने भी अपनी सास के पाँव दबाए थे कभी… लेकिन तब ये दिल का रिश्ता नहीं था, बस रिवाज़ था।
    तूने उस रिवाज़ को एहसास बना दिया बहू…"**

    शामली ने सिर झुकाया,
    **"मैं भी नहीं जानती थी माँ जी… की यहाँ प्यार भी मिलेगा। पर जब आपका हाथ सिर पर पड़ा, तो जैसे माँ की ऊँगली थाम ली मैंने फिर से।"**

    कुछ देर दोनों चुप रहीं।

    फिर सास ने हल्के से पूछा,
    **"कुछ चाहिए क्या तुझे?"**

    शामली चौंकी —
    **"नहीं माँ जी… बस ये पल काफी है।"**

    पर सास ने ज़िद की,
    **"नहीं, जो माँगेगी, मिलेगा। बोल, दिल से माँग बहू। तूने दिल से सेवा की है… और दिल से दिया गया कभी खाली नहीं जाता।"**

    शामली की उँगलियाँ एक पल को थम गईं।

    उसने हल्के से अपनी नज़रें उठाईं — चेहरे पर थोड़ी झिझक, पर आँखों में एक दबी हुई चाह।

    **"एक बात कहूँ माँ जी…?"**

    सास ने मुस्कराकर कहा,
    **"कह बहू…"**

    शामली ने अपनी आवाज़ को थोड़ा और नर्म किया,
    **"मेरा कॉलेज अधूरा है माँ जी… शादी की वजह से बीच में छोड़ना पड़ा।"**

    सास की मुस्कान ज़रा भी कम नहीं हुई। उन्होंने सिर्फ इतना कहा,
    **"तो?"**

    शामली ने उनकी आँखों में देखा —
    **"अगर आप कहें… तो क्या मैं उसे पूरा कर सकती हूँ?"**

    कमरे में फिर से शांति छा गई — पर इस बार ये शांति भारी नहीं थी…
    बल्कि एक सवाल की साँसें रोकती उम्मीद थी।

    सास ने कुछ नहीं कहा।

    शामली ने फिर से उनका पैर उठाया, और हल्के से अंगूठे से एड़ी दबाई — जैसे जवाब से पहले उनके दर्द को और भी राहत मिले।

  • 13. सुहागरात <br> <br>ए लव स्टोरी - Chapter 13

    Words: 773

    Estimated Reading Time: 5 min

    कमरे में अभी भी तेल की हल्की महक थी। सास के पैर अब हल्के-हल्के दबाव से राहत पा चुके थे, लेकिन माहौल में अब एक अलग सी गंभीरता तैर रही थी।

    शामली की आवाज़ अभी भी कमरे में गूंज रही थी —
    **"अगर आप कहें… तो क्या मैं कॉलेज पूरा कर सकती हूँ?"**

    सास कुछ पल चुप रहीं। उनकी आँखों में एक स्थिरता थी — वो मुस्कान जो अभी कुछ पल पहले तक मौजूद थी, अब धीरे-धीरे सख्ती में बदलने लगी।

    उन्होंने अपना पैर पीछे खींच लिया —
    **"बहू,"** उन्होंने आवाज़ साधी, **"मैंने तुझे बहू माना है, बेटी की तरह अपनाया है, लेकिन ये घर कोई छोटा-मोटा घर नहीं है। ये खानदान नाम वाला है।"**

    शामली ने चौंककर देखा —
    ये लहजा कुछ बदला हुआ था।

    **"इस घर की बहुएं किताबें नहीं, रिवाज़ निभाती हैं। कॉलेज जाना, क्लास करना… ये सब ठीक होता अगर तू अपने मायके में होती। लेकिन अब तेरा मायका पीछे छूट चुका है, और इस घर की चौखट के बाहर जो भी सपने हैं — वो अब तेरे नहीं रहे।"**

    शामली ने धीरे से कहा,
    **"माँ जी, मैं घर छोड़ने की बात नहीं कर रही… बस कुछ घंटे की पढ़ाई — ताकि मैंने जो शुरू किया था, वो अधूरा न रहे।"**

    सास की आवाज़ अब थोड़ी तेज़ हो गई —
    **"ये ऊँचे घरों की बहुएं अधूरे काम नहीं देखतीं, बहू — वो पूरे घर को संभालती हैं। ससुर जी का खाना, पति का ख्याल, पूजा की थाली, रिश्तेदारों की इज़्ज़त… और हाँ, मेरी जरूरतें। यही तेरी पढ़ाई है अब।"**

    शामली ने संयम से कहा,
    **"माँ जी, मैं घर के काम छोड़ नहीं रही, लेकिन क्या पढ़ाई करने से ये काम कम हो जाएंगे? मैं तो कोशिश करूँगी कि दोनों निभा सकूँ…"**

    सास ने हाथ उठाकर उसे रोक दिया —
    **"बस बहू। एक बात कान खोलकर सुन ले — ये घर कोई छोटा-मोटा घर नहीं, ज़मीदारों का खानदान है। यहाँ की औरतें बाहर निकलें तो लोगों की नज़रों में नहीं, इज़्ज़त में उतरें।**

    **तू कॉलेज जाएगी, लोग बातें बनाएँगे — देखो जमीदार साहब की बहू अब भी लड़कियों की तरह किताबें लेकर घूमती है। कल को कहेंगे, पढ़ाई के बहाने आज़ादी चाहती है।**

    **मैं ये सब नहीं सह सकती।"**

    शामली की आँखें भर आईं — पर वो रोई नहीं। उसकी आवाज़ अब थोड़ी काँप रही थी, लेकिन आत्मबल बरकरार था।
    **"माँ जी, अगर मैं घर का नाम गिराने का काम करती, तो चुप रहती। मैं तो बस सीखना चाहती हूँ, और घर के लिए ही। ताकि अगर कभी जरूरत पड़ी, तो आप सभी के काम आ सकूं।"**

    सास ने पलंग के सिरहाने पर हाथ टिकाते हुए कहा,
    **"तेरी नीयत पर शक नहीं बहू, पर तेरी सोच… वो इस घर के मिजाज़ से नहीं मिलती। यहाँ बहुएं घर चलाती हैं, अपने सपने नहीं।**

    **जो सपने मायके से लाई थी, उन्हें वहीं छोड़ आनी चाहिए थी। अब जो ज़िम्मेदारी है, वो तेरी असल पढ़ाई है।"**

    शामली ने एक गहरी सांस ली। फिर बहुत धीमे स्वर में कहा,
    **"तो क्या एक औरत का सपना उसकी ज़िम्मेदारी से टकराव है माँ जी?"**

    सास ने थोड़ी देर तक उसे देखा — एक गहरी, तटस्थ नज़र।

    **"हाँ, जब वो सपना घर की मर्यादा से बड़ा हो जाए — तो हाँ, वो टकराव बन जाता है। और मुझे टकराव नहीं चाहिए बहू… मुझे तुझसे शांति चाहिए, व्यवस्था चाहिए।"**

    शामली के होठ कांपे, पर वो अब भी धैर्य से बोली,
    **"मैं तो चाहती थी ये घर मेरा हो… लेकिन अगर इसमें मेरी इच्छाओं की कोई जगह नहीं, तो फिर ये मेरा कैसे होगा?"**

    सास ने कंधे उचकाए,
    **"हर किसी की इच्छा पूरी नहीं होती बहू। तू अब हमारे परिवार की बहू है — और ये तेरी सबसे बड़ी पहचान है। बाकी कुछ नहीं।"**

    शामली उठ खड़ी हुई — सिर झुकाया, और बहुत धीमे से कहा,
    **"मैं आपकी बात मानती हूँ माँ जी… पर अपने मन को समझाने में थोड़ा वक्त लगेगा।"**

    सास ने मुंह फेर लिया,
    \*\*"समझ जाएगा। वक्त सब सिखा देता है। अब चल, रसोई में दूध रख आया होगा, आर्यन उठने वाले होंगा।"

    **"उसकी चाय का वक्त हो गया है।"**

    शामली ने खुद को समेटा — अपने भावनाओं को मोड़कर, फिर से एक बहू के साँचे में ढाल लिया।

    **वो कमरे से बाहर निकल गई — चुपचाप, लेकिन मन में एक सवाल अब और गहराई से पैठ चुका था।**

    ---

    ### **आँगन के कोने में शामली अकेली बैठी थी…**

    उसके चेहरे पर कोई शिकवा नहीं था, लेकिन आँखों में अब भी उस सपने की परछाई थी — जिसे अभी-अभी किसी ने “खानदान” की दीवार से कुचल दिया था।

    **उसने आसमान की ओर देखा — जैसे कोई इशारा ढूंढ रही हो।
    फिर हल्के स्वर में खुद से कहा —**

    गाइज कमेंट और रेटिंग भी दो पीलिज ,

  • 14. सुहागरात <br> <br>ए लव स्टोरी - Chapter 14

    Words: 698

    Estimated Reading Time: 5 min

    कमरा हल्की पीली रोशनी में डूबा था। शामली अलमारी के सामने बैठी थी, और सफेद-गुलाबी, हल्के रंग के धुले हुए कपड़े करीने से तह कर रही थी। उसकी उंगलियाँ तेज़ थीं, मगर दिमाग कहीं और। हर जोड़ी कपड़े के साथ, जैसे कोई सोच उसके अंदर तह होती जा रही थी।

    तभी दरवाज़ा खुला।

    हल्की सी चरमराहट के साथ विश्वनाथ कमरे में दाखिल हुआ — कंधे पर ऑफिस का बैग, चेहरे पर वही थकान की पुरानी परछाईं।

    शामली का हाथ एकदम रुक गया। उसकी आँखें उस पर जाकर टिक गईं।

    **"आज बात करेंगे क्या?"**

    उसके मन ने धीरे से फुसफुसाया।

    पर विश्वनाथ ने नज़रों से भी नहीं छुआ।

    बस उसके करीब आया, और शामली के हाथ में रखा सफेद टॉवेल उठा लिया।

    शामली को एक पल को लगा... शायद कुछ पूछे, कुछ कहे, कुछ देखे भी।

    पर नहीं, वो तो बस टॉवेल लेने आया था — **जैसे कोई अनजान शख्स किसी होटल में तौलिया मांग रहा हो।**

    वो बाथरूम में चला गया।

    दरवाज़ा बंद। पानी की आवाज़ शुरू।

    शामली वहीं बैठी रह गई, हाथ में कपड़ा, और मन में ठंडा पड़ा हुआ कोई पुराना इंतज़ार।

    तभी अंदर से आवाज़ आई —

    **"साबुन खत्म है, एक साबुन देना।"**

    शामली के चेहरे पर एक हल्की सी चमक आ गई।

    वो छोटी सी बात, उसके लिए बड़ी हो गई।

    **"चलो, कुछ तो कहा... कुछ ज़रूरत तो समझी..."**

    वो जल्दी से उठी, और कमरे के बाहर बनी भंडारगृह की ओर गई। लकड़ी के दरवाज़े के पीछे की अलमारी में से एक साबुन निकाला — नीले रंग का नया पैक।

    साबुन को पैक से निकाला और बाथरूम की ओर दौड़ी।

    **"लीजिए साबुन,"** उसने दरवाज़े की ओर झुकते हुए कहा।

    अंदर से हाथ बाहर आया।

    पानी में भीगा हुआ... और उस भीगे हाथ की मांसल उंगलियाँ, मोटी कलाई, और हल्के घने बाल देखकर —

    शामली कुछ पल के लिए ठहर गई।

    उसने वो हाथ देखा —

    **मजबूत, मर्दाना, आत्मविश्वास से भरा — लेकिन फिर भी कितना दूर।**

    **"ये हाथ... कभी मेरे सिर पर भी तो आ सकता है।

    कभी मुझे थाम सकता है... कभी मेरी पीठ थपथपा सकता है...

    पर नहीं, बस साबुन लेने के लिए ही हाथ निकलेगा क्या?"**

    उसका मन अंदर ही अंदर बुदबुदाया।

    उसने धीरे से साबुन उसके हाथ में रखा। दरवाज़ा फिर से बंद।

    वो एक पल वहीं खड़ी रही... जैसे और कोई काम ही न हो उस वक्त।

    ---

    कमरे से बाहर, डायनिंग एरिया में, विश्वनाथ की माँ — **सत्यवती देवी** — कुर्सियाँ खिसका रही थीं।

    डाइनिंग टेबल पर बर्तन रखे जा रहे थे, भाप उठ रही थी दाल से।

    मधू, नौकरानी, मदद कर रही थी।

    तभी आर्यन, घर का बड़ा बेटा, सीढ़ियों से नीचे आता दिखा।

    सत्यवती बोली,

    **"बेटा, खाना लग रहा है, बैठ जा पहले खा ले, फिर जो करना है कर लेना।"**

    आर्यन ने टिशर्ट ठीक की, मोबाइल जेब में डाला और बिना रुके बोला,

    **"नहीं माँ, दोस्त के घर जा रहा हूँ, वहीं खा लूंगा।"**

    सत्यवती के हाथ रुक गए।

    **"बाप आज घर पर वक्त पर आ गया, तो बेटा निकल पड़ा हवाओं में।

    इन दोनों बाप-बेटे को तो जैसे ये घर सिर दर्द लगता है।"**

    मधू ने धीरे से आँखें नीचे झुका लीं, मगर होंठों की कोने हल्के से हिले।

    मां गुस्से से थाली पटकते हुए बोली,

    **"अब तो बस ये नई बहू ही कुछ सही करेगी। नहीं तो मेरे बस में होता, तो मैं इन दोनों को इस घर से कुछ दिन दूर भेज देती... शायद तब समझ आता घर क्या होता है।"**

    मधू हँसी रोक नहीं पाई। हल्की सी मुस्कान छुपाती हुई बोली,

    **"पता नहीं मालकिन, यहां कौन किसको सही करेगा।

    पर एक बात कहूँ... बहू बहुत सीधी है... पर उसकी चुप्पी किसी दिन बहुत कुछ बोल जाएगी।"**

    सत्यवती उसकी ओर पलटकर बोली,

    **"ज्यादा ना बोला कर तू, काम कर और कान खुले रख। इस घर में खामोशियाँ भी बहुत कुछ कहती हैं।"**

    ---

    उधर कमरे में वापस आई शामली, एक बार फिर कपड़े उठाने लगी।

    पर अब उसकी उंगलियाँ सुस्त थीं... और मन फिर से अकेला।

    बाहर बाथरूम से पानी की आवाज़ अब भी आ रही थी —

    जैसे हर बूँद उसके इंतज़ार को और लंबा कर रही हो।

    उसने सिर उठाकर दरवाज़े की ओर देखा —

    शायद अगली बार, कोई ज़रूरत नहीं, कोई संवाद हो...

    **या फिर सिर्फ एक और साबुन।**

  • 15. सुहागरात <br> <br>ए लव स्टोरी - Chapter 15

    Words: 561

    Estimated Reading Time: 4 min

    बाथरूम का दरवाज़ा खुला।
    भाप कमरे में फैली और उसके पीछे चला आया विश्वनाथ —
    भीगे बाल, चेहरे पर पानी की बूँदें, सफेद टॉवेल में लिपटा शरीर, और हाथ में एक पुराना रूमाल।

    शामली अब भी कमरे में थी, और बिस्तर के कोने पर बैठी हल्के हाथों से चादर सीधी कर रही थी।
    उसकी नज़रें अनायास ही विश्वनाथ की ओर उठीं —
    एक पल को आँखें मिलीं।
    पर जैसे ही विश्वनाथ ने बिस्तर की ओर कदम बढ़ाया, वो झिझककर थोड़ा पीछे सरक गई।

    विश्वनाथ ने बिना कोई बात किए बिस्तर पर से अपनी शर्ट उठाई।
    जैसे ही उसने शर्ट के लिए थोड़ा झुककर हाथ बढ़ाया — उसका चेहरा, उसका शरीर, बस एक लम्हे के लिए शामली के बेहद करीब था।

    शामली की साँसें अटक गईं।
    उसका दिल ज़ोर से धड़क उठा —
    **"शायद... कुछ कहे... शायद..."**

    लेकिन अगले ही पल विश्वनाथ ने शर्ट सीधी की, पहनने लगा और बिना कुछ बोले कमरे से बाहर चला गया।
    बस इतना ही।
    न कोई नज़र, न कोई शब्द, न कोई ठहराव।

    शामली उस पल वहीं ठिठकी रह गई।
    उसके चारों ओर कमरे की दीवारें और ज्यादा भारी लगने लगीं।

    ---

    **डाइनिंग टेबल**

    नीम गरम खाने की खुशबू कमरे में घुली थी।
    ताज़ी रोटियों की भाप, पकी हुई सब्ज़ी की सोंधी महक — और फिर उन सबके बीच कुछ उलझे हुए लोग।

    विश्वनाथ कुर्सी पर बैठा था।
    बाल तौलिये से पोंछते हुए, आँखें आधी नींद में — लेकिन बातों में अब भी वो थकावट की खिचच।

    **"आर्यन कहां है?"**
    उसने थोड़ा खीझते हुए पूछा।

    मधू पास ही खड़ी थी, रोटियों की टोकरी में से एक निकाल रही थी — पर उसके जवाब की तेजी सबको चौंका गई।

    **"छोटे मालिक तो दोस्त के घर चले गए, साहब। बोले, वहीं खाना खा लेंगे।"**

    विश्वनाथ का चेहरा सख्त हो गया।
    जैसे वो जवाब नहीं, सीधा ताना सुन रहा हो।

    उसने अपनी माँ की तरफ देखा,
    **"माँ, ध्यान दिया करो न... कहाँ है, कब आता-जाता है, कोई सुध लो।"**

    सत्यवती देवी, जो अब तक छौंक की खुशबू में रमी हुई थीं, तीखे स्वर में बोलीं —
    **"ने बेटा, तू कौन सा मेरी बात मानता है? बाप गया है तो बेटा भी जाएगा ही न।
    जब तू ही घर में दीवार बना है, तो बच्चे क्या सीखेंगे?"**

    शामली चुपचाप खड़ी थी — एक हाथ में दाल की कटोरी, दूसरे में चम्मच।
    उसने धीमे से कटोरी टेबल पर रखी, फिर रोटियों की टोकरी बढ़ाई।
    चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी — लेकिन आँखों के नीचे एक थकी हुई रेखा थी।

    सत्यवती ने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा,
    **"अब तू बैठ जा बहू। खाना खा ले, बाक़ी के काम के लिए मधू है।
    इतनी देर से खड़ी है, तू नौकरानी नहीं है — बहू है इस घर की।"**

    शामली थोड़ा सकुचाई,
    **"नहीं मम्मीजी, दो रोटियाँ और सेंक लूँ..."**

    सत्यवती ने थोड़ी नर्मी से लेकिन आदेशात्मक स्वर में कहा,
    **"मैं कह रही हूँ ना बैठ जा।
    घर की थाली पहले बहू की भरे तो बरकत आती है।"**

    विश्वनाथ ने बिना कुछ कहे खाना शुरू कर दिया।
    रोटियों को चुपचाप तोड़ते हुए, दाल में डुबोकर खाता रहा।
    शामली उसके सामने बैठ गई, पर वो नज़रें अब भी थाली में ही गड़ी थीं।

    शामली ने भी खाना शुरू किया,
    पर उसके गले से एक निवाला भी बिना ठहराव के नीचे नहीं जा रहा था।

    ---

    वो रात, बस दो चीज़ें कह गई —
    एक थाली में गर्म खाना था…
    और दूसरी थाली में ठंडी चुप्पी।

  • 16. सुहागरात <br> <br>ए लव स्टोरी - Chapter 16

    Words: 703

    Estimated Reading Time: 5 min

    आर्यन की कार ने मोड़ काटा और विवेक के घर के गेट के सामने आकर धीरे से थम गई।
    बाहर सड़क की पीली रोशनी बिखरी थी, और हवा में नमी थी—जैसे बरसात होने से पहले की बेचैनी।

    उसने इंजन बंद किया, सिर सीट से टिकाया और गहरी साँस भरी।
    मन अजीब बोझिल था।

    गेट पर खड़ी विवेक की बाइक के पास से होते हुए, आर्यन उस छोटे से आँगन में पहुँचा जहाँ विवेक दरवाज़े की कुंडी खोलकर इंतज़ार कर रहा था।

    “आ गया तू,” विवेक ने कहा, पर उसकी आँखों में हल्की चिंता तैर रही थी।

    “चल अंदर। भूखा लग रहा होगा।”

    आर्यन कुछ नहीं बोला, बस सिर झुकाए अंदर दाख़िल हो गया।
    कमरे में हल्की पीली रोशनी थी, और दीवारों पर विवेक की पुरानी स्केचिंग टंगी थी।
    फर्श पर फैले किताबें, गिटार और कॉमिक्स—सब उस पुराने दोस्ताने वक़्त की निशानी थे।

    विवेक किचन में गया, और गरम करने के लिए डिब्बाबंद सूप निकाल लाया।
    दोनों चुपचाप लिविंग रूम में बैठे। टीवी पर कोई उड़ते जहाज़ों की डॉक्यूमेंट्री चल रही थी, पर किसी का ध्यान नहीं था।

    कुछ देर बाद विवेक ने धीरे से पूछा,
    **“काफ़ी दिन से तू टूटा-टूटा लग रहा है… सब ठीक?”**

    आर्यन ने सूप का एक घूँट लिया, फिर चुपचाप बैठा रहा।

    **“ठीक कैसे हो सकता है?”** वो बोला,
    **“जिस औरत से मैंने प्यार किया था… आज वो मेरे बाप की बीवी है।”**

    विवेक की आँखें फैल गईं।
    वो जानता था शामली कभी आर्यन की प्रेमिका थी, पर ये बात कि अब वो उसकी सौतेली माँ बन चुकी है—ये नई थी।

    **“तू सीरियस है?”**

    आर्यन ने एक धीमा हँसी जैसा कुछ निकाला, जो ज़्यादा दर्द जैसा लगा।

    **“हाँ… शादी हो चुकी है। अब वो मेरी माँ है… सौतेली सही, लेकिन इस घर में उसी नाम से बुलाया जाता है।”**

    कमरे में सन्नाटा पसर गया।
    विवेक ने सूप की कटोरी हाथ में ली, लेकिन अब उसे भूख नहीं रही थी।

    **“और तू उससे अब भी…”**

    **“हाँ,”** आर्यन ने झट से कहा, **“मैं उससे अब भी वही महसूस करता हूँ।
    क्या करूँ?
    मैं उसे भूल नहीं पाया।
    जब वो कमरे में होती है… उसकी ख़ामोशी मुझे बाँध लेती है।
    वो कुछ नहीं कहती, मगर मैं उसकी आँखों में सब देखता हूँ।”**

    विवेक उठकर खिड़की के पास गया।
    बारिश की कुछ बूँदें अब गिरने लगी थीं।

    **“ये तो गड़बड़ हो गया यार,”** उसने कहा,
    **“अब क्या करेगा तू?”**

    आर्यन कुछ पल चुप रहा, फिर बोला—
    **“आज शामली ने मुझे देखा भी नहीं।
    बस तौलिया दी, और जैसे मैं कोई मेहमान हूँ उस घर में।
    मुझे उससे कोई उम्मीद नहीं करनी चाहिए… पर फिर भी हर दिन करता हूँ।”**

    विवेक पीछे पलटा,
    **“और वो? वो क्या चाहती है?”**

    आर्यन ने जेब से एक काग़ज़ निकाला—थोड़ा भीगा हुआ, मोड़ा हुआ।
    वो चुपचाप उसे विवेक की तरफ़ बढ़ाता है।
    हमारे बीच अब पहले वाला रिश्ता नहीं है , ये याद रखना


    विवेक ने काग़ज़ को पढ़ा, फिर नज़रें आर्यन पर टिका दीं।

    **“ये क्या है?”**

    **“ये… उसने मेरे तकिये के नीचे रख छोड़ा था।
    जब से पापा के साथ उसका रिश्ता बना है, हमने कोई बात नहीं की।
    पर कभी-कभी उसकी आँखें मुझसे वही पुराने सवाल करती हैं, जो मैं करना चाहता हूँ—कि क्या ये रिश्ता ज़िंदा है?”**

    **“और तुझे क्या चाहिए?”**

    आर्यन धीरे से बोला,
    \*\*“मुझे चाहिए… एक और मौका।
    लेकिन ये कहना अब पाप जैसा लगता है।”

    **“क्योंकि अब वो माँ है।”**

    \*\*“हाँ… माँ, लेकिन मेरी नहीं।
    मैं उसे उस नज़र से देख ही नहीं सकता।”

    कमरे की रोशनी अब और मंद पड़ रही थी।
    विवेक ने आगे झुककर कहा—
    **“कभी-कभी रिश्ते जो समाज तय करता है, वो हमारे दिल से नहीं पूछते।
    और कभी-कभी, दिल की फुसफुसाहटें ही ज़िंदगी का सबसे बड़ा सच होती हैं।”**

    आर्यन खिड़की के पास आया।
    बाहर अंधेरा और बारिश की आवाज़…
    उसके मन के भीतर के तूफान जैसे खुद को आवाज़ दे रहे थे।

    **“तू क्या करेगा अब?”** विवेक ने आखिरी बार पूछा।

    आर्यन ने लंबी सांस भरी,
    **“शायद कल रात… मैं उससे बात करूँगा।
    शायद सिर्फ इतना कहूँगा—तुम माँ हो सकती हो, लेकिन मेरे दिल की आवाज़ को कोई नाम नहीं चाहिए।”**

    विवेक ने मुस्कुरा कर कहा,
    **“चल, कल रात।”**

    दोनों फिर चुप हो गए।

    आर्यन ने आखिरी बार वो चिट्ठी सीने से लगाई,
    और मन में एक अनकही सी उम्मीद ले कर आँखें मूँद लीं।

  • 17. सुहागरात <br> <br>ए लव स्टोरी - Chapter 17

    Words: 826

    Estimated Reading Time: 5 min

    शामली उस सुबह जल्दी उठ गई थी। रात की उलझी नींद के बाद भी चेहरा थका हुआ था, लेकिन आँखें... वो जैसे रातभर जागती रही हों। उसने धीरे से अपनी साड़ी के पल्लू को ठीक किया और बालों में चुटी बाँध ली।

    आर्यन बालकनी में खड़ा था — नाश्ता नहीं किया, कुछ बोले भी नहीं। लेकिन उसकी आँखें पूरे वक्त शामली पर ही थीं।
    शामली को उसकी वो गहरी नज़रें जैसे छूती जा रही थीं।

    “कुछ खा लो,” शामली ने प्लेट बढ़ाते हुए कहा।

    आर्यन ने कोई जवाब नहीं दिया।

    बस उसका हाथ पकड़ लिया — धीमे से, लेकिन पूरे अधिकार से।

    “क्या है आर्यन?” शामली हड़बड़ा गई।

    “तुम।”
    आर्यन की आवाज़ नरम थी, लेकिन भीतर कोई तूफ़ान था।

    “आर्यन... प्लीज़... अब तुम बच्चे नहीं रहे। दुनिया देख रही है… तुम्हारी और मेरी राहें अलग हैं।”

    आर्यन धीरे से उसकी उंगलियों पर अंगूठा फेरने लगा।
    “मेरे लिए नहीं, शामली। मैं तो हर रोज़ बस यही सोचता हूँ — कैसे तुम्हें वापस अपना बना लूँ।”

    शामली ने अपना हाथ खींचा, लेकिन आर्यन ने कसकर थाम लिया।

    “छोड़ो मुझे। अब ये बचपना बंद करो,” शामली ने ज़ोर देकर कहा।

    “बचपना नहीं है ये। तुम समझ क्यों नहीं रही? मैं तुम्हें हर हाल में पाना चाहता हूँ — हर हाल में... चाहे तुम मेरी कसम खाओ या किसी और की बाँहों में रहो, मेरा हक़ कोई नहीं छीन सकता।”

    शामली की साँसें तेज़ हो गईं। उसकी पलकों में कुछ गीला-सा तैरने लगा था।

    “हक़?” वो थरथराई आवाज़ में बोली, “कौन-सा हक़ आर्यन? रिश्तों की हद होती है… तुम मेरे पति के बेटे हो…”

    आर्यन की आँखों में एक पल को धुआँ भर आया। फिर उसने उसका चेहरा छू लिया — धीमे, पूरी नर्मी से।
    “न तो मैंने तुम्हें कभी माँ माना… न तुमने मुझे बेटा समझा… तो फिर ये दिखावा क्यों? रिश्ते जबरन के हों, तो उन्हें निभाना बेवकूफी नहीं क्या?”

    शामली को उसकी उँगलियों की गर्मी साफ़ महसूस हो रही थी।

    “मैं एक औरत हूँ जो एक समझौते में जी रही है,” शामली की आवाज़ काँप रही थी, “जिस रिश्ते में प्यार नहीं… बस ज़िम्मेदारियाँ हैं। पर मैंने उसे निभाने की कसम खाई है। मैं वचन तोड़ने वालों में नहीं।”

    आर्यन अब बहुत पास आ गया था — इतना कि शामली की साँसें उसके सीने से टकरा रही थीं।

    “तोड़ दो वो वचन,” वो फुसफुसाया। “उस रिश्ते में कुछ नहीं बचा, और तुम रोज़ खुद को जला रही हो। क्यों नहीं किसी ऐसे के पास आती, जो तुम्हें हर दिन चाहत दे, हर रात सुकून…?”

    शामली की पलकों से एक आँसू लुढ़क पड़ा।

    “तुम नहीं जानते, कितना मुश्किल है मेरे लिए ये सब,” वो बमुश्किल बोल पाई।

    “जानता हूँ,” आर्यन ने उसका चेहरा ऊपर किया, “और ये भी जानता हूँ कि जब मेरी उँगलियाँ तुम्हारी पीठ पर फिसलती हैं, तुम कांपती हो… जब मैं तुम्हारे कान के पास आता हूँ, तुम सिहर जाती हो… तुम मुझे चाहती हो, शामली। तुम खुद से लड़ रही हो।”

    शामली की रूह काँप गई। उसका दिल हज़ार टुकड़ों में बँटने लगा।

    “बस… आर्यन…” उसने मुँह फेरने की कोशिश की।

    लेकिन आर्यन ने उसका चेहरा अपनी हथेलियों में थाम लिया। उसके होंठों के बेहद करीब आकर रुक गया।

    “मैं रुक जाऊँगा,” उसने धीरे से कहा, “अगर तुम एक बार साफ़-साफ़ कह दो कि तुम्हें मेरी ज़रा-सी भी चाह नहीं।”

    शामली चुप रही।

    आर्यन की साँसें अब उसकी गर्दन पर महसूस हो रही थीं।

    “कह दो… एक बार कह दो कि मेरी छुअन तुम्हें कुछ नहीं देती।”

    शामली की पलकों पर भरा पानी अब बहने को था।

    “मैं… मैं नहीं कह सकती…”

    आर्यन मुस्कुराया — अधूरी, टूटी सी मुस्कान।

    “क्योंकि तुम भी मुझे पाना चाहती हो। तुम सिर्फ डर रही हो, दुनिया से… खुद से… उन बेजान रिश्तों से।”

    शामली अब पीछे हट गई।

    “हाँ… चाहती हूँ तुम्हें,” उसने भर्राए गले से कहा। “पर सिर्फ चाहने से कुछ नहीं होता। एक इमारत की नींव सिर्फ दीवारें नहीं होतीं, उस पर भरोसे के पत्थर भी होते हैं। और मैं अपने वचनों की नींव पर खड़ी हूँ। तुम चाहो तो मेरे पास रह सकते हो… लेकिन सिर्फ बतौर साया — कोई हक़ नहीं मिलेगा तुम्हें।”

    आर्यन ने उस जवाब को पिया जैसे कोई कड़वा जाम।

    “तो ठीक है,” उसने सर झुकाया। “मैं तुम्हारे साए की तरह साथ रहूँगा… लेकिन याद रखना, मैं हवा नहीं हूँ जो सिरहाने से निकल जाऊँगा। मैं वो आग हूँ जो भीतर जलती रहती है — धीरे-धीरे, साँसों में, रगों में… और एक दिन… सब भस्म कर देती है।”

    शामली उसे देखकर थर-थर काँपने लगी।

    उसने धीरे से मुड़ कर जाने की कोशिश की, लेकिन आर्यन ने फिर उसका हाथ थाम लिया — बस एक पल को।

    “जब भी तुम्हें लगे कि दुनिया से थक गई हो… जब भी लगे कि सुकून चाहिए… बस मेरी आँखों में देखना। मैं वहीं रहूँगा… तुम्हारी हर दीवार के पीछे।”

    शामली की आँखें झुकी थीं, लेकिन दिल अब पहले जैसा शांत नहीं रहा।

    वो चली गई — बिना कुछ कहे।

    पीछे आर्यन खड़ा रहा —
    बिलकुल वैसे ही जैसे कोई आँधी आने से पहले का सन्नाटा।

  • 18. सुहागरात <br> <br>ए लव स्टोरी - Chapter 18

    Words: 607

    Estimated Reading Time: 4 min

    दोपहर की तपिश हवेली की दीवारों में बस चुकी थी। रसोई के कोने में चूल्हा सुलग रहा था, और साथ ही सुलग रही थी शामली — भीतर से भी और बाहर से भी।

    पसीने से भीगी हुई उसकी साड़ी उसकी पीठ से लिपट गई थी, जैसे कोई बोझ। माथे से लटें लटक रही थीं, और उसकी उंगलियाँ चुपचाप लौकी काट रही थीं… पर ध्यान कहीं और था।

    “बहुत गर्मी है आज…”

    एक जानी-पहचानी आवाज़, धीमी और गहरी।

    शामली की उंगलियाँ रुक गईं। उसने बिना पीछे देखे धीरे से कहा,
    **“तुम फिर आ गए आर्यन?”**

    आर्यन मुस्कुराया। “क्यों? आना मना है क्या?”

    शामली ने ठंडी साँस ली। “अब बहुत कुछ मना है। और तुम्हें ये सब समझना चाहिए।”

    वो धीरे-धीरे उसके पीछे आ खड़ा हुआ।
    “तुम्हारी साड़ी भीग गई है… मगर फिर भी लग रही हो जैसे कोई देवी धूप में नहा रही हो।”

    शामली ने पलटे बिना कहा, “आर्यन… ये मत कहा करो। अब मैं…”

    “अब तुम *मेरी सौतेली माँ* हो — हाँ, ये तो सुना ही है बहुत बार,” उसने बात पूरी की, जैसे ताना मार रहा हो।

    अब शामली पलटी। उसके चेहरे पर पसीना था, पर आँखों में गुस्सा और दर्द दोनों।
    “हाँ, हूँ। और इस हवेली की बहू भी। तुम्हारे पिता की पत्नी।”

    आर्यन उसकी आँखों में घुसकर बोला,
    “और मेरे दिल की हलचल। ये भी सच है, शामली।”

    वो नाम — **"शामली"** — जब उसकी ज़ुबान से निकला, तो हवा का बहाव जैसे बदल गया।

    शामली ने एक पल उसकी ओर देखा। फिर पीछे हट गई।
    “तुम्हें शर्म नहीं आती आर्यन? तुम मुझे नाम से बुलाते हो अब? अपने पिता की पत्नी को?”

    “तुम मेरा नाम क्यों लेती हो तब? अगर मैं तुम्हारे लिए सिर्फ रिश्ता भर होता, तो मेरी नज़रों से ऐसे क्यों कांपतीं?”

    शामली कुछ कह न सकी। उसके होंठ खुले पर आवाज़ नहीं निकली।

    आर्यन ने धीमे से उसके पास आकर कहा,
    “तुम्हें देखने से पहले मुझे पाप का मतलब नहीं पता था। अब हर दिन लगता है कि ये पाप मुझे पूरा खा जाएगा — अगर तुम मेरी न हुई तो।”

    शामली ने उसकी ओर देखा — गुस्से से नहीं, टूटते हुए।

    “ये पाप है आर्यन। और इस पाप की सज़ा मैं हर दिन काट रही हूँ। रातों को जागती हूँ, तुम्हारी आवाज़ कानों में गूंजती है, पर याद आती है तुम्हारे पिता की वो आँखें… जिन्होंने मुझमें भरोसा देखा था, मोह नहीं।”

    आर्यन और पास आया। अब दोनों के बीच सांसों की दूरी भर थी।
    “और मैंने तुम्हारे अंदर वो आग देखी थी… जो दुनिया को जला सकती है। तुम पत्थर बनकर क्यों जी रही हो शामली?”

    शामली की आँखों में आँसू थे, गुस्सा नहीं।

    “क्योंकि पत्थर ही समाज के पैरों तले टिकता है। और मैं… तुम्हारी माँ नहीं सही, लेकिन इस हवेली की मर्यादा हूँ। अगर मैं हिली तो ये पूरा ख्वाब गिर जाएगा।”

    आर्यन ने उसकी हथेली थामी। “तो गिरा दो। ख्वाब सिर्फ तब तक हैं, जब तक नींद में हैं। हम जाग चुके हैं शामली। अब झूठ जीना मत कहो मुझसे।”

    शामली ने उसका हाथ झटक दिया। उसकी आवाज़ काँपती थी,
    “तुम नहीं समझते, ये हवेली सिर्फ ईंटों से नहीं बनी। ये इज़्ज़त, कसम, रिश्ते, सबकुछ एक धागे में बंधा है। और मैं उस धागे में गाँठ बन चुकी हूँ। मुझे और मत खींचो आर्यन…”

    आर्यन पीछे हटा। अब उसकी आँखें नम थीं, पर जिद कम नहीं।

    धीरे से बोला,
    “एक दिन यही गाँठ खुल जाएगी… और तब शायद बहुत कुछ टूटेगा। पर मैं जानता हूँ, तब भी तुम मेरी ही रहोगी।”

    वो चला गया। सिर्फ उसकी खुशबू और अधूरी आवाज़ें पीछे छूट गईं।

    शामली वहीं खड़ी रही — साड़ी की कोर पोंछती, और आँसू गिरते हुए चूल्हे की आँच में सूखते जा रहे थे।

  • 19. सुहागरात <br> <br>ए लव स्टोरी - Chapter 19

    Words: 594

    Estimated Reading Time: 4 min

    कमरे की बत्तियाँ धीमी थीं, खिड़की से हल्की चाँदनी बिखर रही थी। दीवार घड़ी की टिक-टिक और पंखे की धीमी आवाज़ के सिवा सब कुछ शांत था।

    शामली सफेद ट्रे में दूध का गिलास लेकर धीरे-धीरे आर्यन के कमरे में दाख़िल हुई।

    वो कुर्सी पर अधलेटा सा बैठा था, नीले टीशर्ट के अंदर से उसकी बाजुओं की नसें उभरी हुई थीं। नज़रें किताब पर थीं, लेकिन जैसे ही दरवाज़ा खुला, उसकी आंखें सीधी शामली पर जा टिकीं।

    शामली की हल्दी रंग की साड़ी पसीने से चिपकी हुई थी, बालों की एक लट बार-बार चेहरे पर आकर गिर रही थी। उसने गिलास मेज़ पर रखा और बिना कुछ कहे पलटने लगी।

    "रुको।"
    आर्यन की आवाज़ सधी हुई थी, मगर उसमें कुछ ऐसा था जो उसे एक पल को रोक गया।

    "कुछ बात करनी है," उसने कहा।

    "क्या?" शामली ने बिना देखे पूछा।

    "कल मेरे साथ चलो," वो मुस्कराया, "घूमने। शहर से बाहर। अकेले।"

    शामली ने पलटकर उसे घूरा, “तुम्हें समझ नहीं आता क्या? मुझे ये सब नहीं पसंद।”

    “तुम्हें नहीं पसंद, लेकिन मुझे तो है ना,” वो उठते हुए धीरे-धीरे उसकी तरफ़ आया।

    “मज़ाक मत करो आर्यन। अब मैं तुम्हारी कौन हूं और तुम मेरे क्या हो,

    “और मैं कौन हूँ, ये भी जानती हो?” वो करीब आकर रुका।

    “तुम मेरे पति के बेटे हो... और मैं एक—”
    “नहीं शामली,” उसने धीमे से उसकी ठोड़ी उठाई, “तुम सिर्फ़ सौतेली मां नहीं हो... कम से कम मेरे लिए नहीं।”

    शामली ने उसका हाथ झटका, “मुझे जाने दो।”

    लेकिन वो दीवार के पास खड़ी हो चुकी थी और आर्यन ने अब दरवाज़े की कुंडी खींच दी।

    "क्या कर रहे हो?" उसकी आवाज़ हल्की काँप गई।

    आर्यन का चेहरा पास था, साँसें गर्म और नज़रे कुछ और कह रही थीं —
    "एक शर्त लगाते हैं शामली," उसने फुसफुसाते हुए कहा,
    "कल तुम मेरे साथ नहीं गई, तो मैं खुद आ जाऊंगा रसोई में, तुम्हारे आसपास मंडराता हुआ। फिर जो होगा, उसकी ज़िम्मेदार तुम पर होगी।"

    “तुम पागल हो क्या? मुझे निकलना है—”

    "एक बार हाँ बोल दो... मैं सब कुछ भूल जाऊंगा। नहीं तो..."
    उसने उसका आँचल पकड़ा, और उसकी तरफ झुकते हुए कहा,
    "...कल की साड़ी भी मैं ही चुनूँगा, और पहनाऊँगा भी।"

    शामली का चेहरा शर्म और डर से लाल हो गया।

    "ये ठीक नहीं है आर्यन... तुम मुझे मजबूर कर रहे हो," उसकी आँखें नम थीं, मगर आवाज़ अब भी सख्त थी।

    "मजबूरी तुम निभा रही हो... लेकिन चाहत मेरी भी कोई मजबूरी नहीं," उसने धीरे से उसके कान के पास कहा।

    "तुम्हें सिर्फ़ चाहिए कि मैं तुम्हारे पास रहूं, लेकिन तुम ये क्यों भूल जाते हो कि मैं तुम्हारे बाप की ज़िम्मेदारी हूँ!"

    आर्यन हँस पड़ा, "बिलकुल याद है... और इसीलिए तो कहता हूँ — मेरा दावा तुम पर पहले है।"

    शामली ने दरवाज़े की ओर बढ़ते हुए कहा, "खोलो ये कुंडी... अभी के अभी।"

    वो उसके सामने आ खड़ा हुआ — "तो पक्की? नहीं जाओगी तो..."
    वो थोड़ा झुका, उसका पसीने से भीगा कंधा छूते हुए बोला,
    "...मैं हर दिन तुम्हें वैसे ही भिगोऊंगा, जैसे आज तुम्हारी साड़ी भीगी है।"

    शामली का शरीर जैसे सिहर उठा। उसकी आँखें भरी थीं, लेकिन होंठ भींचे हुए।

    “तुम मेरी ज़िंदगी को मज़ाक बना रहे हो आर्यन।”

    "नहीं शामली... मैं तो उसे असल बना रहा हूँ,"
    उसने ट्रे उठाई, गिलास से दूध पिया और खाली गिलास उसकी ओर बढ़ाया —
    "कल इसी वक़्त... लेकिन गिलास नहीं, खुद आना।"

    आर्यन ने दरवाज़ा खोल दिया। शामली जल्दी से निकली, मगर उसके कदम भारी थे।

    कमरे से बाहर निकलते हुए वो सिर्फ़ एक बात सोच पा रही थी —
    **"क्या सच में अब कुछ बचा है जिसे इनकार कह सकूं?"**

  • 20. सुहागरात <br> <br>ए लव स्टोरी - Chapter 20

    Words: 507

    Estimated Reading Time: 4 min

    सुबह की रोशनी हवेली के आँगन में उतर रही थी, लेकिन रसोई के कोने में बैठी शामली की आँखें अब भी रात के अंधेरे में भटकी हुई थीं।

    उसके हाथ में चाय की प्याली थी, लेकिन उसकी उंगलियाँ कप से ज़्यादा अपनी **कंपकंपाहट** को छिपा रही थीं।

    उसके मन में सिर्फ़ एक बात घूम रही थी — **आर्यन की चुनौती**।

    *"‘मैं हर दिन तुम्हें वैसे ही भिगोऊंगा…’*
    उफ़… वो कैसे बोल गया ये सब?
    कैसे देखता है मुझे अब?
    क्या मेरी हर चुप्पी अब इज़ाजत बनती जा रही है?"\_

    तभी पीछे से एक आवाज़ आई —

    **“आज तुम्हारी पसंद की चाय लाया हूं?”**

    शामली चौंक गई। **आर्यन**।

    वो अभी नहा कर निकला था, बाल हल्के गीले थे और टी-शर्ट के नीचे से वो वही **बेफिक्री और ज़िद** टपक रही थी।

    शामली ने आँखें चुराईं, “आर्यन, यहां मत आओ। अभी सब उठे भी नहीं हैं।”

    “तो?” उसने कुर्सी खींचकर उसके पास बैठते हुए कहा, “क्या सोच रही थी? वही बात… या मैं?”

    “तुम हर बार भूल क्यों जाते हो,” शामली की आवाज़ में तल्ख़ी थी, “मैं तुम्हारी माँ हूँ अब — सौतेली ही सही, लेकिन हूँ।”

    “कभी रिश्ते काग़ज़ों से बंधते हैं?”
    आर्यन ने उसे सीधे देखा, “मैं तुम्हारा नाम लेता हूँ, क्योंकि मैं तुम्हें पहचानता हूँ। माँ कहकर उस पहचान को मार नहीं सकता।”

    शामली ने गहरी साँस ली, “तो तुम यही साबित करना चाहते हो कि तुम्हारी चाहत किसी ज़िम्मेदारी से बड़ी है?”

    “हाँ,” वो बोला, “क्योंकि ज़िम्मेदारियाँ बस निभाई जाती हैं… पर चाहत जीती जाती है।”

    शामली खड़ी हो गई, “आर्यन, मुझे काम करना है। और हाँ, मैं कहीं नहीं जा रही आज। कल रात की बात भूल जाओ।”

    आर्यन भी खड़ा हो गया। अब दोनों आमने-सामने थे।

    “तो यही तय है?” उसने धीरे से पूछा,
    “तुम नहीं चलोगी मेरे साथ?”

    “नहीं,” शामली ने सख़्त लहज़े में कहा।

    आर्यन एक पल को चुप रहा, फिर धीरे से झुककर उसके कान के पास बोला —

    **“फिर मैं भी तय कर चुका हूँ शामली… तुम घर के बाहर नहीं चलोगी, तो मैं तुम्हारे कमरे के अंदर आऊँगा — और तब कोई दूध की ट्रे नहीं होगी तुम्हारे हाथ में।”**

    शामली का चेहरा सुर्ख़ हो गया। उसकी आँखों में ग़ुस्सा, घबराहट और शर्म एक साथ कौंध उठी।

    “ये हदें पार करने की बात है आर्यन… और मुझे अब डर लगने लगा है तुमसे।”

    “डर वही लगता है जिससे चाह हो, शामली। वरना नफ़रत से तो लोग लड़ते हैं, भागते नहीं।”

    शामली ने मुँह फेर लिया, “अब यहाँ मत आना। और न ही मुझे बुलाना।”

    वो पलटी और तेज़ी से वहाँ से चली गई।

    आर्यन वहीं खड़ा रह गया… उसकी नज़रें उसी कप में ठहरी थीं जिसमें थोड़ी देर पहले शामली की उंगलियाँ कांप रही थीं।

    उसने कप उठाया, एक घूँट लिया, और धीमे से मुस्कराया —

    **“इस चाय में इनकार की तल्ख़ी है… लेकिन ज़रा सी मिठास भी बाकी है।”**

    आर्यन तो तय कर चूका था कि आज तो वो शामली को घूमाने लेकर ही जाएगा , इस घर से दूर घरवालों से दूर साथ में कुछ वक्त जहां दोनों दिल कि बात सुन और कह सके ,