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मृत्युग्रंथ" — एक ऐसा शीर्षक जो अपने आप में रहस्य, भय और मृत्यु का प्रतीक है। यह किताब एक रहस्यमयी ग्रंथ पर आधारित है वह किताब जिसके पास जाता है, उसकी मौत तय हो जाती है। एक प्राचीन ग्रंथ — मृत्युग्रंथ — जिसे हजारों साल पहले एक तांत्रिक ने लिखा थ... मृत्युग्रंथ" — एक ऐसा शीर्षक जो अपने आप में रहस्य, भय और मृत्यु का प्रतीक है। यह किताब एक रहस्यमयी ग्रंथ पर आधारित है वह किताब जिसके पास जाता है, उसकी मौत तय हो जाती है। एक प्राचीन ग्रंथ — मृत्युग्रंथ — जिसे हजारों साल पहले एक तांत्रिक ने लिखा था। इस ग्रंथ को जो भी पढ़ता है, उसकी मृत्यु अगले 13 दिनों में निश्चित हो जाती है। मौत का तरीका वही तय करता है जो ग्रंथ पढ़ने वाला सबसे अधिक डरता है। यह किताब खून नहीं मांगती, डर मांगती है। जिसने इसे पढ़ा उसकी चीखें पन्नों में कैद हो गई।
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चेतावनी:
इस अध्याय में वर्णित ''मृत्युग्रंथ' के संकेत काल्पनिक प्रतीकों पर आधारित हैं, लेकिन इनका प्रभाव मानसिक और भावनात्मक रूप से गहरा हो सकता है। यदि आप इसे पढ़ते समय किसी मानसिक दबाव या असामान्यता का अनुभव करें, तो तुरंत पढ़ना बंद करें और शांत वातावरण में जाएँ।
अध्याय - 1 प्राचीन अभिशाप
वाराणसी
सितंबर की एक ठंडी रात थी। गंगा किनारे के घाटों पर चिरपरिचित सन्नाटा पसरा हुआ था, जैसे कोई अदृश्य शक्ति सांसें रोककर खड़ी हो। चाँद अधूरा था, और आसमान में तारे किसी अज्ञात भय से छिप गए थे। हवाओं में एक अजीब सी बेचैनी थी, मानो कोई आत्मा भटक रही हो।
एक दूरस्थ घाट पर, एक झोंपड़ी के भीतर, एक वृद्ध तांत्रिक अंतिम सांसें गिन रहा था। उसका शरीर जर्जर था, आँखें धँसी हुईं, होंठ सूखे लेकिन कांपते हुए कुछ बोल रहे थे —
"आर्या... आर्या... आ रही है... मृत्युग्रंथ जाग चुका है..."
तांत्रिक की उंगलियाँ एक काले कपड़े में लिपटी किताब पर टिकी थीं। जैसे वो उसे अपने साथ नहीं, बल्कि किसी और तक पहुँचाने के लिए छोड़ रहा था। जैसे वह किताब अब उसकी नहीं रही।
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✨ दिल्ली विश्वविद्यालय, इतिहास विभाग – कुछ दिन पहले...
आर्या सेन, 24 वर्षीय शोध छात्रा, तंत्र और प्राचीन ग्रंथों पर शोध कर रही थी। वह हठी, बुद्धिमान और सवालों से डरने वालों में से नहीं थी। उसके लिए रहस्य चुनौती थे। उसका चेहरा आकर्षक नहीं, लेकिन आत्मविश्वास से दमकता हुआ था।
आर्या की विशेष रुचि उन पांडुलिपियों में थी जो लुप्त हो चुकी थीं, जिनका उल्लेख केवल किंवदंतियों में मिलता था। इन्हीं खोजों के बीच उसने एक संदर्भ पाया एक नाम, जो अब तक सिर्फ अफवाहों और लोककथाओं में था
"मृत्युग्रंथ"।
एक किताब, जो किसी समय एक महान तांत्रिक ने लिखी थी। कहा जाता था कि जो इसे पढ़ता है, वह 13 दिनों में मर जाता है। कैसे? क्यों? इसका कोई उत्तर नहीं था।
कुछ इसे पागलपन मानते थे। कुछ इसे तंत्र की अंतिम रचना। पर आर्या के लिए यह सिर्फ एक मिथक नहीं, बल्कि उसका शोध था।
वाराणसी की यात्रा
उसने वाराणसी का रुख किया, जहां एक पंडित ने बताया कि दशाश्वमेध घाट के पीछे एक प्राचीन पुस्तकालय है – ‘मुक्तिकेश भंडार’, जो अब शायद किसी को नहीं पता।
सांसें रोके, धड़कनों को शांत रखे, आर्या उस धूलभरे पुस्तकालय में पहुँची। लकड़ी की पुरानी अलमारियों, दीमकों के खाये पन्नों, और घुटन भरी गंध के बीच एक कोना था, जहां कोई वर्षों से नहीं गया था। वहीं उसे दिखी
एक काली मखमली चादर में लिपटी किताब।
उसका हाथ जैसे अपने-आप खिंचता चला गया। उसने किताब उठाई। भारी थी, जैसे सिर्फ कागज़ नहीं बल्कि किसी की आत्मा उसमें बंद हो। किताब पर कोई नाम नहीं था। कोई लेखक नहीं।केवल पहले पन्ने पर लिखा था
"जो इसे पढ़ रहा है, वो अब तक का अंतिम पाठ पढ़ रहा है।
जीवन नहीं, अब मृत्यु तुम्हारा पाठ पढ़ेगी।"
आर्या का कंठ सूख गया। पर वह डरी नहीं।
उसने किताब को अपने बैग में रखा, और होटल लौट आई।
अगली सुबह: पहली मौत
आर्या ने यह किताब जिस प्रोफेसर से साझा करनी चाही थी, उसका नाम था — डॉ. सोम ठाकुर।
प्रख्यात इतिहासकार, उसके मार्गदर्शक और एक तरह से पिता तुल्य। पर उस सुबह, आर्या को जो खबर मिली, उसने उसे भीतर तक हिला दिया।
डॉ. ठाकुर मृत पाए गए थे।
मौत की कोई वजह नहीं मिली। ना दिल का दौरा, ना जहर, ना चोट। पर उनका चेहरा भय से विकृत था, जैसे उन्होंने मरने से पहले कुछ ऐसा देखा, जो इंसान की आँखें कभी देखना नहीं चाहेंगी।
दीवार पर किसी ने खून से लिखा था
"अब तेरी बारी है..."
किताब की अजीब हरकतें
आर्या अब किताब से दूर रहना चाहती थी। उसने उसे बंद कर अलमारी में रख दिया।
पर रात में उसे लगा, अलमारी से कुछ फुसफुसाहटें आ रही हैं। पन्ने खुद-ब-खुद पलटते हैं।
और किताब में अब एक नया अध्याय जुड़ गया है, जिसका शीर्षक था: अध्याय 6 प्रोफेसर की चुप्पी
उसमें हू-ब-हू वो लिखा था, जो आर्या ने डॉ. ठाकुर से कहा था।
हर शब्द। हर वाक्य।
और अंत में लिखा था:
"उसने तुम्हारे लिए पढ़ा, अब तुम्हें उसकी जगह भरनी होगी।"
वासुदेव – एक अघोरी की चेतावनी
अगली रात, घाट पर एक अघोरी — वासुदेव — ने आर्या को बुलाया।
उसकी आँखें सफेद थीं, और कंठ से भयंकर स्वर निकलते थे।
"तू वही है जिसे ग्रंथ ने चुना है।
अब ये तुझसे बलिदान मांगेगा।
हर दिन एक जान, जब तक तू खुद निर्णय न करे... कि आखिरी जान कौन होगी?"
आर्या ने काँपते स्वर में पूछा,
"क्या मैं इसे जला सकती हूँ?"
वासुदेव हँसा, एक डरावनी हँसी।
"जिसे आत्मा ने लिखा हो, उसे आग नहीं, आत्मा ही मिटा सकती है।
और इस ग्रंथ की आत्मा... तुझमें है आर्या। तू इसे जानती नहीं, तूने इसे कभी छोड़ा ही नहीं..."
आर्या अब एक ऐसे रास्ते पर थी, जहां पीछे जाना मृत्यु था और आगे बढ़ना —
मौतों की श्रृंखला।
वह जानती थी
ये सिर्फ किताब नहीं है,
ये एक आईना है जिसमें जो दिखेगा, वही उसकी किस्मत बन जाएगा।
किताब की पहली माँग
घाट की हवाएँ तेज़ हो चली थीं। गंगा की लहरें जैसे चंद्रमा को पुकार रही थीं, या फिर किसी प्राचीन आत्मा की आहट थीं जो वासुदेव के शब्दों के साथ गूंज रही थीं।
आर्या स्तब्ध खड़ी थी। उसके होंठ सूखे थे, आंखें डरी हुईं, पर भीतर एक तूफान पल रहा था भय, जिज्ञासा और अस्वीकार का।
"मैंने इसे कभी नहीं चाहा..." उसने धीमे स्वर में कहा।
वासुदेव की मुस्कान ठंडी थी। उसने अपनी कमर से राख की एक छोटी थैली निकाली और आर्या की ओर फेंक दी। वह राख जैसे ही ज़मीन पर गिरी, वहाँ आकृति बनी एक त्रिशूल, एक नाग, और किताब की आकृति।
"यह तुझसे पहले भी कईयों के पास गया," अघोरी बोला, "पर किसी ने भी उसे समझा नहीं, जिया नहीं... और कोई भी उसे झेल नहीं पाया।"
आर्या ने हिम्मत करके सवाल पूछा
"और अगर मैं कुछ ना करूँ? कुछ ना पढ़ूँ, तो क्या यह रुक जाएगा?"
वासुदेव ने सिर झटक दिया।
"नहीं... अब यह ग्रंथ तुझसे खुद को पूरा करवाएगा।
हर अध्याय, हर शब्द किसी की साँसें मांगता है।
पहले प्रोफेसर ठाकुर गए... अब अगला तुझसे जुड़ा होगा।"
आर्या को लगा जैसे किसी ने उसके सीने में बर्फ रख दी हो।
"मगर... मैं किसी की जान नहीं लेना चाहती। मैं एक शोधकर्ता हूँ, हत्यारी नहीं..." वह काँपती हुई बोली।
वासुदेव चुप हो गया। उसके चेहरे पर अब गहराई थी, जैसे वह आने वाले भविष्य को महसूस कर रहा हो।
"ग्रंथ बलिदान नहीं लेता, वह सच दिखाता है।
और सच... सबसे घातक होता है।
अब तुझसे पूछा नहीं जाएगा। तेरी क़ीमत अब नियति तय करेगी।
जो भी तेरे करीब होगा... वो इसके पन्नों पर लिखा जाएगा।
और फिर मिटा दिया जाएगा।"
आर्या घबरा गई।
उसका मन उथल-पुथल हो उठा। उसे अब कुछ नहीं समझ आ रहा था क्या यह सब भ्रम है? एक मानसिक प्रलाप?
या फिर वाकई वो एक ऐसे शाप से बंध चुकी है, जो उसकी सोच से परे है?
---
रात ढलती है... और एक कॉल आता है
रात के तीन बजे, होटल के कमरे में उसकी नींद एक अनजान कॉल से टूटी। स्क्रीन पर नंबर अनजान था, पर किसी अनजानी ताकत ने उसे फ़ोन उठाने को मजबूर किया।
"आर्या..."
एक लड़खड़ाती आवाज़ थी, जैसे कोई दर्द में है।
"कौन?" उसने पूछा।
"मैं... रिद्धि..." आवाज टूटी हुई थी।
आर्या चौंक गई।
रिद्धि शर्मा उसकी बचपन की सबसे करीबी दोस्त, जिससे वह पिछले तीन वर्षों से बात तक नहीं कर पाई थी। एक झगड़े ने उन्हें अलग कर दिया था।
"रिद्धि...? तुम इतनी रात को...?"
"आर्या, कुछ अजीब हो रहा है। मेरे कमरे में कोई है... कोई दिखता नहीं पर... साया है। दीवार पर किसी ने खून से तुम्हारा नाम लिखा है।"
आर्या का गला सूख गया।
उसके हाथ कांपने लगे। उसने काँपते स्वर में पूछा
"रिद्धि... क्या तुमने किसी किताब का ज़िक्र किया?"
"हाँ... कल एक पुरानी किताब मेरे पास पहुंची, जिसमें तुम्हारा नाम लिखा था, और..."
आवाज़ कट गई।
फोन डेड हो गया।
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एक और मौत... एक और अध्याय
अगली सुबह अखबार की हेडलाइन थी
“प्रसिद्ध पत्रकार रिद्धि शर्मा की रहस्यमयी मौत, शरीर पर कोई निशान नहीं, लेकिन दीवार पर लिखा था ‘अध्याय 7 पूरा हुआ।’”
आर्या की साँसें जैसे थम गईं।
उसके रोंगटे खड़े हो गए।
उसने जब अपने कमरे में वापस जाकर किताब खोली —
तो पाया, उसमें एक नया अध्याय जुड़ा था:
अध्याय 7: अधूरी दोस्ती
“कभी जो जुड़ी थीं आत्माएं, जब दो राहों पर चलीं,
मृत्यु ने मिलाया उन्हें फिर, पर जीवन ने कुछ कहा नहीं।”
आर्या की आँखें नम हो गईं।
उसने वो अध्याय पूरा पढ़ा और हर शब्द वैसा ही था जैसा उसका और रिद्धि का रिश्ता रहा था।
अंत में लिखा था:
“तेरा नज़दीक होना जान नहीं लेता तेरा जिक्र होना काफी है।
अगला कौन होगा आर्या? क्या तू पहचान पाएगी?”
।
अंत का संकेत
वासुदेव की आवाज उसके दिमाग में गूंज रही थी
"हर दिन एक जान... जब तक तू खुद निर्णय न करे कि आखिरी जान कौन होगी..."
अब आर्या के पास तीन रास्ते थे:
1. किताब को पूरा पढ़े और मौतों की गिनती देखती रहे।
2. किसी और को इसका बोझ सौंप दे ताकि वह बच सके।
3. या... उस "आत्मा" को खोजे, जिसने इस किताब को लिखा... और उसे अंत करने का मार्ग पूछे।
पर वो आत्मा कौन थी?
कहाँ थी?
क्या वह अब भी जीवित थी?
या कहीं...
आर्या ही उसका पुनर्जन्म तो नहीं...?
सवाल कई थे, लेकिन जवाब कोई नहीं,
लेखक की ओर से संदेश:
हम अक्सर सोचते हैं कि हम किताबें पढ़ते हैं। लेकिन क्या कभी आपने सोचा है कि कोई किताब आपको पढ़ रही हो?
'मृत्युग्रंथ' केवल एक कहानी नहीं — यह आत्मा के अंधकार से संवाद है। और वह संवाद तब तक चलेगा जब तक आप स्वयं उसकी भाषा नहीं बोलने लगते।
अगर आप अब भी साथ हैं, तो तैयार रहिए
अध्याय - 2 छठे पृष्ठ की भविष्यवाणी
स्थान: वाराणसी, होटल मानसरेखा – सुबह 4:03 बजे
कमरे की खिड़की के परदे हवा में धीरे-धीरे हिल रहे थे, जैसे कोई अदृश्य ताकत उन्हें छू रही हो। उस अंधेरे कमरे में बस एक पीली सी रात की बत्ती जल रही थी, जो आधे जलते-आधे बुझते बल्ब की तरह कांप रही थी।
आर्या का चेहरा पसीने से भीगा हुआ था। वो बिस्तर पर बैठी थी, उसकी सांसें तेज़ थीं, और हाथों में थरथराहट।
फोन की घंटी बजी थी।
ट्रिंग-ट्रिंग... ट्रिंग-ट्रिंग...
आर्या ने कांपते हाथों से फोन उठाया। स्क्रीन पर कोई नाम नहीं था।
केवल एक ब्लैंक नंबर —
"ह...हैलो?" उसकी आवाज़ में डर साफ झलक रहा था।
फोन के उस पार कुछ पल खामोशी रही। फिर...
“आर्या...”
आवाज़ गहरी थी। जैसे किसी बहुत गहरी गुफा से कोई बोल रहा हो।
"तू जाग चुकी है..."
आर्या की रीढ़ में ठंड सी दौड़ गई।
"क-कौन? क्या बकवास है ये?"
"अब तुझसे कोई सवाल नहीं करेगा... अब तुझे खुद ही जवाब देने होंगे। तूने जिस ग्रंथ को छुआ है, वो अब तुझे नहीं छोड़ेगा। देख पाएगी तू वो, जो पहले किसी ने नहीं देखा?"
आर्या का गला सूख गया।
“मैं… मैं तुम्हें नहीं जानती। तुम कौन हो?”
“सिर्फ़ वही जान पाएगा जिसे ग्रंथ ने चुना है।”
फोन कट गया।
आर्या फौरन उठ खड़ी हुई और अलमारी की ओर दौड़ी जहाँ उसने कल रात वो रहस्यमयी किताब रखी थी।
लेकिन अलमारी का दरवाज़ा खुला हुआ था। और किताब वहाँ नहीं थी।
उसकी जगह, अलमारी के अंदर लकड़ी की दीवार पर किसी ने कुछ खरोंच कर उकेरा था।
छह बाहुओं वाला त्रिशूल।
त्रिशूल के इर्द-गिर्द चार सांप गोलाकार आकृतियों में लिपटे हुए थे – उनकी आँखों में जंग लगी हुई लोहे की सुइयाँ जमी थीं, मानो वो किसी अज्ञात काल का रहस्य छुपाए बैठे हों।
आर्या पीछे हट गई।
“ये… ये सब क्या हो रहा है?”
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सुबह 8:00 बजे – होटल की लॉबी
डॉ. अरविंद मिश्रा – बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के गेस्ट प्रोफेसर और आर्या के पिता के पुराने मित्र – होटल में आए। उन्होंने अपने हाथ में एक पुरानी डायरी पकड़ी हुई थी।
"आर्या,", मैंने सुना प्रोफेसर ठाकुर..."
आर्या ने आंखें झुका लीं, "हाँ... वो नहीं रहे।"
उन्होंने गहरी सांस ली, "मुझे खेद है प्रोफेसर ठाकुर के बारे में सुनकर। पर तुम जानती हो उन्होंने आखिरी बार किससे बात की थी?" तुम से ,
आर्या चौंकी।
पर मुझे लगता है कि उनके जाने से पहले उन्होंने तुम्हारे लिए कुछ छोड़ा है।"
"क्या?" आर्या ने सिर उठाया।
डॉ. मिश्रा ने उसकी ओर डायरी बढ़ाई – वो वही पीली कवर वाली डायरी थी जो अक्सर प्रो. ठाकुर अपने शोध के दौरान इस्तेमाल करते थे।
"उनकी मौत से ठीक एक रात पहले उन्होंने ये आखिरी नोट लिखा था।"
आर्या ने डायरी खोली, और उसमें लिखा था:
"वो ग्रंथ जाग चुका है।
आर्या ने उसे छुआ है।
अब वह उससे बंध चुकी है।
अगली मौत मेरी है, मानता हूँ... पर इसके बाद अगली बारी उसकी होगी, जो इसके सबसे करीब है।
वो जिसे आर्या अपने अतीत की साँसों में बचाकर रखती है।"
आर्या के हाथ कांपने लगे। उसने खुद से सवाल किया — "क्या मैं अकेली हूँ? मुझे प्रिय कौन है?"
पर तुरंत एक चेहरा उसकी आँखों के सामने आया – अनन्या, उसकी बचपन की सहेली, जो अब बनारस विश्वविद्यालय में ललित कला पढ़ाती थी। वही अनन्या जो कल ही उससे मिलने आने वाली थी।
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दोपहर 12:45 बजे – घाट की सीढ़ियाँ
आर्या ने अनन्या को कॉल किया।
"हैलो?" अनन्या की आवाज़ में उत्साह था।
"अनन्या, तू मत आना। कुछ ठीक नहीं है यहाँ। मेरी तबीयत... मेरी मानसिक स्थिति ठीक नहीं है।"
"क्या बात कर रही है यार? तू ठीक तो है न?"
"नहीं। मतलब... हाँ। तू... तू बस मत आना।"
"ओके, पर डरा मत। तू सबसे बहादुर लड़की है जिसे मैं जानती हूँ। तेरे पास आकर ही समझ पाऊँगी तुझे क्या हो गया है।"
कॉल कट गया।
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होटल, दोपहर 1:15 बजे
आर्या कमरे में लौटी। अलमारी बंद थी, पर इस बार उसमें से एक धीमी सरसराहट की आवाज़ आ रही थी।
उसने धीरे से दरवाज़ा खोला।
वही किताब वापस उसी जगह रखी थी।
पर इस बार वो खुली हुई थी – छठे पृष्ठ पर।
आर्या ने नीचे झुककर देखा। वहाँ कुछ लिखा था —
"आज दोपहर 2:16 पर, जो आएगी वह जियेगी नहीं।
वो जिसे तू अपने अतीत की साँसों में बचाए रखे हुए है, वही आज ग्रंथ की माँग बनेगी।"
उसके नीचे एक स्केच बना था —
अनन्या की हँसती हुई तस्वीर।
आर्या की आंखों से आंसू बह निकले।
"नहीं… ये नहीं हो सकता। मैं नहीं होने दूंगी ऐसा!"
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1:45 PM – घाट की ओर आती सड़क
अनन्या रिक्शे में बैठी थी। उसके हाथ में गुलाबी रंग की स्कार्फ उड़ रही थी। वो सोच रही थी – आर्या उसे देखकर कितना खुश होगी।
उसे नहीं पता था कि उसकी दोस्त मौत से लड़ रही है – एक ऐसी मौत जो किसी बंदूक, आग या बीमारी से नहीं, बल्कि एक अभिशप्त ग्रंथ की भविष्यवाणी से आने वाली थी।
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2:11 PM – होटल के सामने सड़क
आर्या होटल से बाहर भागी। उसकी आँखें सुलग रही थीं।
“अनन्या! रुक!”
वो एक मोड़ पर पहुंची। सामने अनन्या चल रही थी। और तभी...
एक तेज़ रफ्तार ट्रक बायीं ओर से आया। उसके हॉर्न की आवाज़ ज़ोरदार थी –
“पों-पों-पों——”
ट्रक की रफ्तार पागलों जैसी थी।
"अनन्या!!"
आर्या ने दौड़कर उसे जोर से धक्का दिया। अनन्या सड़क के किनारे गिर गई।
ट्रक कुछ इंच दूर से आर्या को रगड़ता हुआ गुज़रा...
...और फिर हवा में गायब हो गया।
हाँ, गायब।
ना कोई ब्रेक की आवाज़, ना कोई टायर का निशान।
ना कोई ड्राइवर।
बस, खाली सड़क।
अनन्या कांपती हुई उठी।
“आर्या… तू ठीक है?”
आर्या ने सिर्फ़ सिर हिलाया। उसकी आँखों में अब डर नहीं था।
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रात – घाट के पीछे, काशी की सुनसान गलियों में
आर्या फिर से उसी रहस्यमयी वृद्ध पुरुष से मिली – वासुदेव, जिसने पहले अध्याय में उसे चेताया था।
"मैंने बलिदान नहीं होने दिया। अनन्या बच गई।"
वासुदेव ने हल्की मुस्कान के साथ कहा –
"अब तुझमें ग्रंथ से लड़ने की क्षमता है। अब ये किताब तुझसे डरेगी नहीं... बल्कि तुझे आज़माएगी।"
"ये किताब क्या चाहती है मुझसे?"
"ये ग्रंथ तुझसे बलिदान नहीं, समझौता चाहता है।
हर पृष्ठ, हर भविष्यवाणी एक सौदा है।
कभी आत्मा के साथ, कभी रिश्तों के साथ... और अंत में, अस्तित्व के साथ।"
आर्या की आँखों में अब डर की जगह एक अजीब सी निश्चिंतता थी।
“तो अब मैं क्या हूँ? सिर्फ़ एक शोधकर्ता?”
वासुदेव ने धीमे स्वर में कहा —
"अब तू इस ग्रंथ की उत्तराधिकारी है, आर्या।
तेरा जीवन अब तेरा नहीं।
अब तुझे इतिहास से लड़ना होगा…
मृत आत्माओं से नहीं,
बल्कि उनके रहस्यों से।”