आयुष खुराना — नाम सुनते ही मुंबई की बिज़नेस इंडस्ट्री काँप जाती है। वो शहर का सबसे तेज़ दिमाग़ और सबसे बड़ा Casanova है। उसकी दुनिया में पैसे की कोई कमी नहीं, और औरतों की तो कतार लगी रहती है। उसे किसी से कोई लगाव नहीं, क्योंकि उसका मानना है कि प्यार... आयुष खुराना — नाम सुनते ही मुंबई की बिज़नेस इंडस्ट्री काँप जाती है। वो शहर का सबसे तेज़ दिमाग़ और सबसे बड़ा Casanova है। उसकी दुनिया में पैसे की कोई कमी नहीं, और औरतों की तो कतार लगी रहती है। उसे किसी से कोई लगाव नहीं, क्योंकि उसका मानना है कि प्यार एक फालतू फीलिंग है जो सिर्फ़ कमज़ोरों को होती है। हर रिश्ते को वो एक सौदा समझता है — जहाँ उसे फायदा हो, वहीं दिल लगाना है, और जहाँ नुकसान दिखे, वहीं उसे तोड़ देना है। उसकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी ताक़त है उसका कंट्रोल — लोगों पर, हालातों पर, और खुद पर भी। लेकिन उसके इसी कंट्रोल को चुनौती देती है एक लड़की… समीरा। समीरा, एक ऐसी लड़की जो बाहर से बेहद खूबसूरत, आकर्षक और आत्मविश्वासी है। उसकी मुस्कान में ठहराव है, चाल में गरिमा है, लेकिन उसकी आँखों में एक थकी हुई उदासी छिपी है — क्योंकि वो एक शादी से बंधी हुई है जो सिर्फ़ नाम की है। एक ऐसा रिश्ता, जिसमें प्यार की जगह समझौता है, और खुशी की जगह बोझ। लेकिन समीरा टूटी नहीं है, बल्कि उसने खुद को और मज़बूत कर लिया है। अब वो किसी की दया नहीं चाहती — वो चाहती है इज़्ज़त, सपने, और खुद की पहचान। जब समीरा और आयुष पहली बार टकराते हैं, तो ये सिर्फ़ नज़रों की नहीं, एगो की टक्कर होती है। आयुष को लगता है, वो उसे भी वैसे ही जीत लेगा जैसे बाकी लड़कियों को — एक मुस्कान, कुछ अदाएं, और थोड़ी सी नज़दीकियाँ। लेकिन समीरा उससे अलग है। वो न तो आसानी से झुकती है, न डरती है। वो जानती है कि ये आदमी खतरनाक है — और फिर भी उसकी तरफ़ खिंचती चली जाती है। उधर आयुष के अंदर कुछ बदलने लगता है। वो समीरा को सिर्फ़ एक टारगेट की तरह नहीं देख पाता, लेकिन उसका अतीत और अहंकार उसे मोहब्बत मानने नहीं देते। उसके लिए ये सब अब एक खेल है — इगो, पावर और बदले का खेल। लेकिन खेल जब दिल से खेलने लग जाए, तो जीत-हार मायने नहीं रखती… सिर्फ़ टूटन बचती है। अगर आप चाहें, तो अब इसी डिस्क्रिप्शन के आधार पर कहानी की शुरुआत कर सकते हैं — क्या मैं पहले “आयुष की एंट्री” और फिर “समीरा की पहली झलक” से शुरू करूँ?
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### **स्थान: वही होटल रूम – रात 1:10AM**
**कमरा अब थोड़ा अस्त-व्यस्त है। बेडशीट्स सिकुड़ चुकी हैं, हवा में पसीने और परफ्यूम की मिली-जुली खुशबू तैर रही है। आइने में अब भी उनके धुंधले प्रतिबिंब हैं — जैसे वो खुद भी उस रात का हिस्सा बन चुके हों।**
---
**लड़की:** (धीरे से मुस्कुराते हुए, उसकी छाती पर उँगलियाँ चलाते हुए)
*"तुम्हें पता है न, ये सिर्फ आज की रात है?"*
**लड़का:** (उसकी कलाई थामते हुए, आँखों में झलकती चाहत और जानबूझ कर बेरुख़ी)
*"हाँ। और ये बात ही सबसे ज़्यादा सुकून देती है।"*
**लड़की:** (कंधे पर लटकों बालों को पीछे करती है)
*"कल की कोई बात न हो… न नाम, न शक्ल… बस अभी की ये गर्मी काफ़ी है।"*
**लड़का:** (हँसते हुए)
*"नाम तो वैसे भी हम दोनों को याद नहीं रहेंगे… लेकिन ये पल शायद रह जाए।"*
---
**उसने उसे फिर से अपनी ओर खींचा।**
अबकी बार वो चुम्बन **धीरे और इरादतन नहीं**,
बल्कि जैसे भूख मिटाने के लिए होंठ एक-दूसरे पर गिर पड़े हों।
**उसके उंगलियाँ उसकी पीठ पर खरोंच छोड़ रही थीं**,
वो हल्का सा दर्द… और उस दर्द में भी एक सुकून।
---
**"तुम बहुत देर कर रहे हो…"**
उसने कान में फुसफुसाते हुए कहा।
**"मैं तुम्हें अधूरा छोड़ना नहीं चाहता…"**
उसने उसकी जांघों पर हाथ रखते हुए जवाब दिया।
---
अब शब्द कम और साँसें ज़्यादा थीं।
बेड का हर कोना उनकी इस रात की गवाह बन रहा था।
**लड़की ने लड़के को उल्टा किया**, अब वो ऊपर थी —
उसकी आँखों में शरारत नहीं, एक नशा था…
जो कह रहा था — **"बस आज के लिए, मैं सब कुछ हूँ।"**
---
**"इतनी देर से तुम मुझे छू रहे हो, अब बारी मेरी है…"**
उसने कहा और उसकी छाती पर अपने होंठ रख दिए।
धीरे-धीरे, नीचे की ओर…
**एक रास्ता**, जो सिर्फ उसकी अपनी मर्ज़ी से तय हो रहा था।
**लड़के ने आँखें बंद कर लीं**, और उसकी उँगलियाँ बेडशीट्स को कसने लगीं।
---
**"कह दो, तुम कुछ फील कर रहे हो…"**
**"फील कर रहा हूँ — मगर इश्क़ नहीं।"**
**"अच्छा है… वरना इस एक रात के सौदे में कोई टूट जाता…"**
---
अब उनके बीच **ना शर्म थी, ना झिझक**।
वो **दो जिस्म थे, जो एक-दूसरे को महसूस करना चाहते थे… पूरी तरह, बिना रोकटोक**।
लड़की की आवाज़ें अब धीमी नहीं थीं,
**कभी गहराई में डूबी हुई**, कभी उसके काँधे में दबी हुई।
**बेड की मढ़ी हुई लकड़ियों में भी कंपन थी**,
और वॉर्म लाइट अब भी उनके जिस्मों को गीला कर रही थी।
---
**"तुम्हारी उँगलियाँ बहुत देर से भटक रही हैं…"**
**"क्योंकि तुम्हारा नक्शा बहुत जटिल है…"**
**"चलो, इस उलझन को खत्म करते हैं।"**
---
अब वो धीमे-धीमे नहीं —
बल्कि जैसे **आखिरी साँस तक एक-दूसरे को छू लेने की जिद में डूबे थे**।
लड़की ने उसके कंधे पर दाँतों का निशान छोड़ा।
लड़के ने उसकी जाँघों पर अपनी उँगलियाँ फिराईं —
इतनी पास, कि **सिर्फ़ एक सांस की दूरी बाकी थी… और फिर कुछ भी नहीं।**
---
कमरे में अब सिर्फ उनकी साँसों की लय थी —
**कभी तेज़, कभी टूटती हुई, कभी गहराई में उतरती हुई।**
**कोई इमोशन नहीं, कोई वादा नहीं — सिर्फ जिस्म।**
---
**कुछ देर बाद…**
दोनों चुपचाप लेटे थे।
नज़रे छत पर… जैसे ये रात खत्म हो चुकी थी।
**लड़की:** (धीरे से)
*"तुम अब चले जाओगे?"*
**लड़का:** (उसकी तरफ देखे बिना)
*"सुबह से पहले। तुम चाहो तो शावर ले लो… अकेले।"*
**लड़की:** (हल्की हँसी के साथ)
*"मैं चाहूँ भी क्या? इस रात के बाद कुछ भी माँगने की हिम्मत नहीं बचती…"*
---
**सुबह होते ही वो रूम खाली था।**
कोई नाम नहीं छोड़ा गया,
कोई नंबर नहीं माँगा गया।
**सिर्फ बेड की सिल्क शीट्स पर कुछ सिलवटें थीं…
और आइने में एक अधूरा धुंधलापन…
जो बता रहा था कि कोई था, पर अब नहीं है।**
ये है आयूष खुराना , मुम्बई शहर का नम्बर वन बिजनेस मैन साथ ही कैसेनोआ ,हर रात एक नई लड़की बिस्तर होना ही उसकी पहचान थी , हसीन जिस्मों से वो ऐसे खेलता जैसे ये तो उसकी आदत है जो बदली नहीं जा सकती है ,
### **"एक और रात... दोस्त के साथ"**
**स्थान: होटल रूम – रात 12:10 AM**
कमरे में बस हल्की वॉर्म लाइट जल रही थी। खिड़कियों के पर्दे बंद थे। AC की ठंडी हवा के बावजूद माहौल में एक अजीब सी गर्मी थी — जैसे कुछ अनकहा… कुछ अधूरा… हवा में अटका हो।
**"ये ड्रेस… तुम जान-बूझकर पहनकर आई हो न?"**
आयूष ने हल्के से मुस्कुराते हुए पूछा।
**"क्यों? ठीक नहीं लग रही?"**
नेहा ने जानबूझकर अपने बाल एक तरफ करके उसकी नज़रें अपने कंधों तक ले जानी दीं। *स्लीवलेस सिल्क नाइट गाउन* उसके शरीर से जैसे चिपकी हुई थी।
**"नज़रें हटती नहीं…"**, उसने बुदबुदाया और पास खिसक आया।
नेहा और आयुष बचपन से दोस्त थे। लेकिन इस रात, दोस्ती के उस पार एक खींचाव था — वो जो अक्सर *दिल नहीं, जिस्म* महसूस करता है।
नेहा ने नज़रों की सीध में रहकर सवाल किया,
**"क्या सोच रहे हो?"**
आयूष ने कुछ नहीं कहा। बस उसकी आँखों में झाँका और धीरे से उसका हाथ पकड़ लिया।
उसके अंगूठे की नरमी ने नेहा की हथेलियों में एक अजीब-सी सिहरन पैदा की।
---
बिस्तर पर दोनों आमने-सामने बैठे थे।
खामोशी के बीच साँसों की आवाज़ अब ज़्यादा साफ़ थी।
**"अगर आज हम… कुछ भी कर लें… तो क्या कल सब बदल जाएगा?"**
नेहा की आवाज़ धीमी थी, लेकिन उसमें एक गहराई थी।
**"पता नहीं…"**
आयूष उसके और करीब आया, **"लेकिन इस पल को रोकने का मन नहीं कर रहा।"**
उसने धीरे से उसकी ठुड्डी उठाई और होंठों पर एक *नरम, लंबा चुम्बन* रखा —
ना कोई जल्दबाज़ी, ना कोई दबाव…
बस एक भाव… जो कई सालों से दबी चाहत के नीचे दबा हुआ था।
---
**नेहा का शरीर अब थरथरा रहा था**, लेकिन वो चाहती थी, आयूष उसे पढ़े… टटोल कर, धीरे-धीरे…
वो रात *जल्दबाज़ी की नहीं*, बल्कि *हर पल में डूबने* की थी।
उसने अपनी हथेलियाँ उसकी छाती पर रखीं, और कहा —
**"तुम्हारा धड़कता हुआ दिल सुन पा रही हूँ… क्या ये भी दोस्ती का हिस्सा है?"**
आयूष हँसा, **"नहीं… ये हिस्सा शायद अब दोस्ती से बाहर है।"**
---
नेहा अब उसकी गोद में थी।
उसका सिर आयूष की छाती पर टिक गया।
आयूष ने उसके बालों में उंगलियाँ फिराईं, और धीरे से उसके कंधे पर होंठ रखे।
नेहा ने अपनी उँगलियाँ उसकी गर्दन के पीछे सरकाईं, और **आयूष के कान में धीमे से कहा —**
**"आज मुझे रोकना मत… लेकिन हदें अपनी रहनी चाहिए…"**
आयूष ने उसकी आँखों में देखा,
**"मैं तुम्हें सिर्फ महसूस करना चाहता हूँ, अपना बनाना नहीं…"**
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**नेहा ने खुद को थोड़ी देर के लिए उसकी बाहों में खो जाने दिया।**
उसकी नाक, उसकी साँसों की गर्मी, उसके गले की खुशबू — सब कुछ उसे सुकून दे रहा था।
वो उठी, और उसकी गोद में बैठ गई।
**उसके गाउन की स्ट्रैप धीरे से कंधे से नीचे फिसली।**
आयूष ने उस पर नज़र डाली, लेकिन बिना छुए, बस उसे देखा।
नेहा मुस्कराई — **"देख रहे हो? या समझ भी रहे हो?"**
**"तुम जितनी खूबसूरत हो, उससे कहीं ज़्यादा हिम्मत है तुममें…"**
उसने गर्दन झुकाकर *नेहा की गर्दन पर चुम्बन रख दिया।*
---
अब उनका साथ **एक-दूसरे को पढ़ने जैसा था।**
होंठों से स्पर्श नहीं, सवाल होते थे —
और उँगलियों से सिर्फ़ जवाब मिलते थे।
नेहा ने उसके हाथ को अपनी छाती की ओर खींचा,
**"डरो मत… मैं जानती हूँ तुम मुझे तोड़ोगे नहीं…"**
आयूष ने बहुत धीरे से उसे छुआ —
ना सिर्फ़ जिस्म, बल्कि **उसकी इजाज़त को, उसकी ताकत को**।
---
नेहा की आँखें बंद थीं, लेकिन उसके होंठ खुले थे।
**"आयूष… तुम समझते हो न… ये प्यास सिर्फ आज की है…"**
**"मैं हर बूँद संभाल कर रखूँगा…"**, उसने कहा और नेहा के दिल के पास होंठ रखे।
---
वे पूरी रात **एक-दूसरे के स्पर्श में, बिना पूरी तरह खोए… बस एक सुकून में डूबे रहे।**
बिना शोर, बिना शब्दों की चुभन…
बस **आहटें**, **साँसें**, और एक-दूसरे को जानने की खामोशी।
---
सुबह जब सूरज की रोशनी पर्दों के बीच से अंदर आई —
नेहा अब भी उसकी बाहों में थी।
**उसने कुछ नहीं पूछा, ना कोई वादा लिया।**
बस आयूष के होंठों पर एक आखिरी चुम्बन रखकर कहा —
**"हम अब भी दोस्त हैं… लेकिन अब हम एक-दूसरे को और बेहतर जानते हैं।"**
---
### \*एक रात… जो सब कुछ नहीं थी…
पर कुछ ऐसा था, जो किसी और के साथ कभी नहीं होगा।\*
### **"सुबह का ठहराव… और वो अधूरी प्यास"**
**स्थान: होटल रूम – सुबह 6:40 AM**
खिड़की के पर्दे अब भी आधे खुले थे।
सूरज की हल्की किरणें कमरे की दीवारों को धीरे-धीरे छू रही थीं — जैसे रात के सारे राज़ अब उजाले में आ रहे हों।
बिस्तर की चादरें अब भी थोड़ी उलझी थीं।
और उन चादरों के बीच दो लोग… एक-दूसरे के इतने करीब, जैसे **जिस्म की कोई अलग पहचान ही ना हो**।
नेहा अभी तक आरव की बाँहों में थी।
उसका सिर उसकी छाती पर टिका था, और उंगलियाँ हल्के-हल्के उसकी त्वचा पर कोई नाम लिख रही थीं…
शायद **वो नाम जो वो खुद नहीं रखना चाहती थी।**
आयूष जाग चुका था, लेकिन कुछ कह नहीं रहा था।
बस **नेहा की साँसों की गर्माहट**, और उसके स्पर्श की धीमी चाल को महसूस कर रहा था।
---
**"तुम सो रहे हो या सोच रहे हो?"**
नेहा की आवाज़ उसकी छाती से उठती हुई लगी — धीमी, गहरी और भीगी-सी।
**"तुम जो कर रही हो, उसमें सोचने की जगह कहाँ है…"**
आयूष ने धीरे से कहा और अपनी उँगलियाँ उसकी पीठ पर फिराने लगा —
एक रेखा सीखी हुई… **कंधे से कमर तक**… और फिर वापस।
नेहा ने उसकी ओर मुँह किया, उसके बहुत पास…
उनकी आँखें अब भी उनींदी थीं, लेकिन उनमें जो चमक थी, वो सिर्फ रात की नहीं थी —
**वो चाहत थी, जो अभी पूरी नहीं हुई थी।**
---
**"कल रात सिर्फ शुरुआत थी न?"**
नेहा ने धीमे से पूछा।
आयूष ने जवाब नहीं दिया…
बस उसके चेहरे को दोनों हथेलियों में लिया और **एक गहरा चुम्बन** उसकी आँखों पर रखा।
फिर उसकी गर्दन पर, और फिर उसके होठों पर…
जहाँ से उसकी साँसें कुछ और तेज़ हो गईं।
---
नेहा ने चादर को थोड़ा पीछे किया,
और खुद को उसकी बाँहों में खींचकर उसकी जांघ पर अपनी टाँग रख दी।
आयूष ने उसका चेहरा देखकर मुस्कराया —
**"तुम्हें कुछ नहीं कहना होता… तुम्हारी आँखें सब बोल देती हैं।"**
**"और तुम्हारे होंठ सब कर देते हैं…"**
उसने हल्की मुस्कराहट के साथ कहा और उसे नीचे खींच लिया।
---
अब दोनों के बीच कोई रुकावट नहीं थी।
ना कपड़े, ना सवाल, ना सोच।
**बस एक खामोशी थी जो हर हरकत में गूंज रही थी।**
आयूष ने धीरे से उसकी कमर के नीचे हाथ रखा, और खुद को उसके करीब खींचा।
**नेहा की आँखें बंद थीं**, लेकिन उसकी साँसों की लय बताती थी कि **हर छुअन उसे भीतर तक महसूस हो रही है।**
---
**"आयूष…"**
उसने एक लंबी साँस लेकर कहा —
**"आज… मुझे खुद से अलग कर दो…"**
**"नहीं…"**
उसने फुसफुसाया —
**"आज… मैं तुम्हें अपने जैसा बना दूँगा…"**
---
उसके होठ अब नेहा की गर्दन से नीचे उतरने लगे थे —
धीरे-धीरे, हर हिस्से को छूते हुए,
**जैसे कोई साज़ बज रहा हो**, और हर तार पर उसकी उँगलियाँ चल रही हों।
नेहा ने खुद को उसके ऊपर छोड़ा…
उसकी उँगलियाँ अब उसकी पीठ पर कसने लगीं,
और होंठों से **सिर्फ नाम नहीं, बल्कि वो आहें भी निकल रही थीं जो अब तक रोकी गई थीं।**
---
**बेड अब साँसों के साथ-साथ हिल रहा था।**
चादरों की रेखाएँ अब सीधी नहीं थीं,
और उनके बीच एक गर्माहट थी —
**जो सिर्फ जिस्मों की नहीं, भीतर के तूफ़ानों की थी।**
---
कुछ देर बाद…
सभी आवाज़ें धीमी होने लगीं,
साँसें एक जैसी हो गईं,
और शरीर फिर से एक-दूसरे में समा गए।
नेहा आयूष के सीने पर लेटी थी, पसीने से भीगी हुई,
लेकिन उसके चेहरे पर एक सुकून था —
**जैसे कोई भूख थी, जो अब शांत हुई थी…**
---
**"अब क्या?"**
नेहा ने आँखें खोले बिना पूछा।
**"अब… हम उठेंगे, कॉफ़ी पिएँगे… और फिर शायद… सब भूल जाएँगे।"**
**"या फिर… हर बार याद करेंगे जब कुछ अधूरा लगेगा…"**
---
आयूष ने उसकी हथेली पकड़ी, होंठों तक ले गया…
और बिना कुछ कहे, **बस उसकी हथेली को चूम लिया**।
कमरे में अब सिर्फ उजाला था,
लेकिन दिल में अभी भी वो **रात की नमी और सुबह की आँच** बाकी थी।
---
### \*कुछ रिश्ते नाम नहीं माँगते…
बस एक सुबह की खामोश गर्माहट में सब कह जाते हैं।\*
---
### **“रात की राख, सुबह की रौशनी”**
**स्थान: वही होटल रूम – सुबह 8:25 AM**
कमरे में अब बस हल्की सी गुनगुनी चुप्पी बची थी।
चादरें अब भी अस्त-व्यस्त थीं… और नेहा की पलकों पर अभी भी अधूरी नींद अटकी हुई थी।
वो उसकी बाहों में थी, जैसे अभी कुछ और पल उसे थामना चाहती थी।
लेकिन तभी, **फोन की तेज़ वाइब्रेशन** ने उस सुकून में दरार डाल दी।
आयूष ने धीरे से हाथ बढ़ाया, फोन उठाया, और स्क्रीन देखे बिना ही कॉल रिसीव की।
**"हाँ, बोलो।"** उसकी आवाज़ में अब वो गर्मी नहीं थी, बल्कि एक सख्त, सीधी लय थी।
कुछ सेकंड्स तक वो सुनता रहा, चेहरा बिना किसी हाव-भाव के शांत बना रहा… फिर बस एक लाइन बोली —
**"I'm on my way."**
फोन रखा।
और जैसे किसी ने उस पल के जादू को अचानक रोक दिया हो —
वो उठा, चादर एक तरफ की, और बिस्तर से नीचे उतर गया।
---
**"जा रहे हो?"**
नेहा की आँखें अब खुल चुकी थीं। आवाज़ धीमी थी, लेकिन भाव समझ में आ रहा था।
**"हाँ… ज़रूरी काम है।"**
आयूष ने कहा, और अलमारी की ओर बढ़ गया जहाँ उसका ब्लैक सूट, पॉलिश किए हुए Oxford शूज़, और परफेक्टली प्रेस की गई वाइट शर्ट टंगी थी।
**"कल रात ज़रूरी नहीं थी?"**
नेहा ने थोड़ा कड़वाहट भरे अंदाज़ में पूछा।
आयूष ने उसकी ओर देखा — एक सेकंड के लिए उसकी आँखें कुछ कहती हुई लगीं, फिर ठंडी हो गईं।
**"कल रात ज़रूरी थी… लेकिन खत्म हो चुकी है।"**
---
वॉशरूम से पानी की आवाज़ आने लगी, और नेहा तकिए पर पीठ टिकाकर छत को देखने लगी —
**उसका जिस्म अभी भी उसकी बाहों की छाप से गर्म था, लेकिन दिल धीरे-धीरे ठंडा हो रहा था।**
कुछ देर में दरवाज़ा खुला, और आयुष बाहर निकला —
अब एकदम **तैयार, स्मार्ट, बिज़नेस लुक में**।
ब्लैक Armani सूट, हल्के सिल्वर टाईपिन, और **चेहरे पर वही चेहरा… जो शहर का सबसे बेख़ौफ़ CEO बनाता था।**
उसने घड़ी पहनी, बालों को सेट किया, और बिना ज़्यादा देखे बोला —
**"तुम चाहो तो यहीं रहो, चाबी रिसेप्शन पर छोड़ देना।"**
**"और तुम?"**
**"मैं… मैं अब वही बन गया हूँ जो तुम्हें जानता भी नहीं।"**
---
### **स्थान “ओमेगा टॉवर – हेड ऑफिस” – सुबह 9:30 AM**
25वीं मंज़िल पर बना **एक ग्लास वॉल वाला कॉर्पोरेट ऑफिस**,
जहाँ शहर की सबसे ऊँची इमारत से नीचे देखना लोगों को डराता था —
लेकिन आयूष को नहीं।
जैसे ही उसकी एंट्री हुई,
**सिक्योरिटी, रिसेप्शन, और सारे फ्लोर स्टाफ** सीधा खड़ा हो गया।
**"Good morning, Sir!"**
वो सिर हल्का झुकाकर आगे बढ़ गया।
पाँच पर्सनल असिस्टेंट्स उसके पीछे-पीछे मीटिंग शेड्यूल, ईमेल रिपोर्ट्स और इंटरनल अपडेट्स लेकर चलने लगे।
**कॉन्फ्रेंस रूम** में जैसे ही एंट्री हुई,
भीतर दस लोग बैठे थे — सबके चेहरों पर एक प्रोफेशनल तनाव था।
आयूष ने कुर्सी पर बैठते ही हाथ उठाया, और कहा —
**"Manager, क्या ये मीटिंग वाक़ई ज़रूरी थी?"**
कमरे में एकदम सन्नाटा।
**अब अगला फैसला उसका होगा…
कि आज उसे क्या याद रखना है — रात की बाँहों का नर्म एहसास…
या दिन की टेबल पर रखे कागज़ों की सच्चाई।**
---
### **"केबिन के अंदर... आँखों से खेल"**
**स्थान: ओमेगा टॉवर – कॉन्फ्रेंस रूम – सुबह 9:45AM**
"Manager, क्या ये मीटिंग वाकई ज़रूरी थी?"
आरव की आवाज़ में वो टोन था जो सवाल नहीं, आदेश होता है।
मैनेजर हड़बड़ा गया, कुछ चार्ट्स और ग्राफ्स दिखाए,
लेकिन आयूष की नज़रें अब *स्लाइड्स पर नहीं*,
**कांच के उस पार खड़ी एक लड़की पर अटक गई थीं।**
**नाम: किआरा मेहरा**
**Designation: क्लाइंट रिलेशन डिपार्टमेंट**
लंबे सीधे बाल, मोस ग्रीन सिल्क शर्ट, हाई वेस्ट ट्राउज़र… और आँखें — **जैसे हर चीज़ को काट कर समझ लेने वाली।**
आयूष ने चेहरा मोड़ा, लेकिन अब वो उसे देख चुका था।
---
मीटिंग खत्म होते ही सब उठे, लेकिन आयूष ने धीमे से अपने पर्सनल असिस्टेंट से कहा —
**"किआरा मेहरा को बोलो… मेरे केबिन में 10 मिनट में मिले। अकेले।"**
**"यस सर!"**
---
### **स्थान: सीईओ केबिन – सुबह 10:20AM**
आयूष की कुर्सी चमड़े की थी, ब्लाइंड्स थोड़े खुले हुए, और सामने रखी टेबल पर एक ही फाइल —
*“किआरा मेहरा – प्रोजेक्ट स्काईलाइन अपडेट”*
दरवाज़ा हल्का-सा खुला और किआरा अंदर आई।
**"May I come in, sir?"**
आयूष ने उसकी ओर देखा —
**सिर्फ तीन सेकंड**… लेकिन उन तीन सेकंड्स में वो बहुत कुछ पढ़ चुका था।
**"Yes. Come in, Miss Mehra."**
किआरा धीमे-धीमे चलती हुई कुर्सी पर बैठ गई।
**"कुछ खास काम था, सर?"**
आयूष ने उसकी आँखों में झाँका और बोला —
**"तुम्हारी फाइल से ज़्यादा दिलचस्प तुम खुद हो।"**
किआरा मुस्कराई —
**"आप तो कहते थे आप दिल से नहीं सोचते, सर।"**
**"हूँ… लेकिन नज़रें कभी-कभी अपनी मर्ज़ी चलाती हैं।"**
---
आयूष अब अपनी सीट से उठा और धीरे-धीरे उसकी टेबल के पास आया।
**"तुम्हें पता है, तुम वर्ड डाटा से ज्यादा Dangerous हो।"**
किआरा ने गर्दन थोड़ा झुका कर कहा —
**"मैं अपनी जगह जानती हूँ, सर। बस आप बताएं… कहाँ तक जाना है।"**
---
अब दोनों के बीच एक टेबल भर की दूरी थी।
लेकिन आँखें… और शब्द… उस दूरी को पल-पल में चबा रहे थे।
**"तुम जानबूझ कर ऐसे कपड़े पहनती हो?"**
**"कपड़े मेरी चॉइस हैं, लेकिन जो सोचे… वो आपकी कल्पना है, सर।"**
**"कल्पनाओं से ही तो असलियत बनती है, किआरा। और फिलहाल मेरी कल्पना… तुम्हारे कॉलर से नीचे भटक रही है।"**
किआरा ने होंठों पर जीभ फिराई और धीमे से कहा —
**"तो क्या आपकी कल्पनाओं को… जवाब देना चाहिए?"**
---
आयूष उसके ठीक सामने आ गया।
उसने उसकी फाइल उठाई, लेकिन उसमें देखा कुछ नहीं।
बस कहा —
**"काम के बहाने नज़रों से खेलने का हुनर बहुत कम में होता है… और तुम मास्टर हो।"**
**"और आप खिलाड़ी लगते हो… जो हर राउंड में जीत तय करता है।"**
**"जीतना कभी मक़सद नहीं होता… बस, जो चाहिए… उसे पाना ज़रूरी होता है।"**
---
किआरा ने अपनी कुर्सी से थोड़ा झुककर उसकी ओर देखा —
**"तो क्या इस बातचीत का कोई क्लियर एंड है, सर?"**
**"क्लियर नहीं, लेकिन गर्म ज़रूर है।"**
**"मुझे भी गर्म खेल पसंद है, बशर्ते उसमें कोई दिल ना लगे…"**
**"दिल मेरे पास वीकेंड्स पर भी नहीं होता, Miss Mehra।"**
---
अब कमरे की हवा और गाढ़ी हो गई थी।
कोई छू नहीं रहा था,
लेकिन शब्दों की सरहदें अब जिस्म के बिल्कुल करीब पहुँच चुकी थीं।
**"तो क्या अगली मीटिंग में हम प्रेज़ेंटेशन की जगह…"**
**"… सिर्फ नज़रों से डिस्कस करेंगे?"**
किआरा ने बात पूरी की।
आयूष ने आँखें नीची कर हल्की हँसी में कहा —
**"Exactly. और शायद बिना स्लाइड्स के भी ज़्यादा समझ आएगा।"**
---
किआरा उठ खड़ी हुई, और जाते-जाते एक आखिरी वाक्य बोला —
**"कॉल मी, जब आपको मीटिंग नहीं… खेलना हो।"**
दरवाज़ा खुला, और वो बाहर चली गई।
लेकिन कमरे में अब भी उसकी खुशबू तैर रही थी —
**तेज, उलझी हुई… और बेहद जानलेवा।**
---
आयूष ने अपनी घड़ी देखी और धीरे से बुदबुदाया —
**"ना प्यार, ना नाम… लेकिन ये खेल लंबा चलेगा।"**
### **"धुंआ, रौशनी और वो एक थप्पड़"**
**स्थान: शहर का प्राइवेट डिस्को क्लब – रात 10:30PM**
सड़क किनारे रोकी गई ब्लैक मर्सिडीज़ में बैठा आयूष साइड मिरर में अपने बाल ठीक कर रहा था।
किआरा अगली सीट पर थी — स्लिट ड्रेस में, बाल खुले, होंठों पर गहरा लाल रंग, और आँखों में आग।
**"Ready?"**
उसने पूछा।
**"Born ready…"**
आयूष ने दरवाज़ा खोला।
---
अंदर कदम रखते ही माहौल ने जैसे उनके कपड़े उतारने शुरू कर दिए हों —
**धुएँ की परत, तेज़ म्यूज़िक, फ्लैशिंग लाइट्स, और बीचों-बीच बसी प्यास।**
बार की ओर बढ़ते हुए किआरा ने झुककर उसके कान में कहा —
**"यहाँ ज़ुबान नहीं, नज़रें चलती हैं…"**
आयूष मुस्कराया —
**"और मेरा इरादा है… आज दोनों चलें।"**
---
उन्होंने दो शॉट्स ऑर्डर किए —
*Whiskey for her, neat rum for him.*
**"Cheers…"**
गिलास टकराए… लेकिन हाथ नहीं।
किआरा का हाथ उसकी जांघ पर आ टिका।
**"तुम जितना चुप होते हो… उतने ही खतरनाक लगते हो।"**
**"और तुम जितना पास आती हो… उतनी दूर कर देती हो सब कुछ औरों को…"**
आयूष ने उसकी उंगलियों को अपनी हथेली में भर लिया।
---
डांस फ्लोर पर अब भीड़ घनी हो चुकी थी।
बॉडीज़ एक-दूसरे से रगड़ खा रही थीं, और हवा में महकते पसीने की खुमारी थी।
आयूष और किआरा फ्लोर की ओर बढ़े।
किआरा ने अपनी बाहें उसकी गर्दन में डालीं, और उसके सीने से चिपक गई।
**"चलो… देखे कौन किसकी हदें तोड़ता है।"**
---
आयूष अब नशे में नहीं था,
बल्कि उस एक्साइटमेंट में था जिसे **‘शिकारी की भूख’** कहते हैं।
डांस के बीच उसका हाथ कभी उसकी कमर पर, कभी जांघ पर फिसलता रहा —
किआरा भी खेल रही थी, **शब्दों की नहीं, जिस्म की भाषा में।**
---
**तभी…**
भीड़ में धक्का लगा —
और एक लड़की आयूष से **ज़ोर से टकरा गई।**
सूट-सलवार पहने, सिंपल लेकिन बेहद साफ-सुथरी लड़की थी।
बाल बंधे हुए, चेहरा हल्के गुस्से में… और उसकी आँखें एकदम सीधी।
**"सॉरी—"** आयूष ने झट reflex में कहा,
लेकिन उसकी नज़र अब रुक चुकी थी।
**उसका चेहरा नहीं, उसकी देह… खासकर वो जगह जहाँ सलवार की चुनरी सरक गई थी।**
---
**उसके उभार एक पल को बहुत पास लगे।**
और आयुष का हाथ… बस एक पल को छू गया —
ना चाहकर, या शायद चाहकर… **उसका सीधा स्पर्श उसके सीने पर**।
---
लड़की जैसे **बिजली की तरह पीछे हटी।**
**"क्या सोच रखा है खुद को!"**
उसने आयूष को घूरा।
**आयूष कुछ कहता, इससे पहले ही…**
**"बदतमीज़ कहीं का!"**
**एक ज़ोरदार थप्पड़ उसकी गाल पर पड़ा।**
डांस फ्लोर की म्यूज़िक धीमी नहीं हुई, लेकिन **आयूष के भीतर सब थम गया।**
---
किआरा उस वक्त बगल में थी।
वो चौंकी… लेकिन कुछ बोली नहीं।
उसने आयूष की आँखों में देखा —
**वहाँ कोई शर्म नहीं थी, बस… चौंक और एक नया आकर्षण।**
लड़की झटके से मुड़ी और तेज़ क़दमों से निकल गई। शाय़द किसी को तलाश रही थी ,
---
आयूष का गाल जल रहा था,
लेकिन **उसका दिमाग़ सिर्फ उस लड़की की चाल, उसकी आंखों की आग और थप्पड़ की गर्मी** से भरा था।
**"नाम तक नहीं पूछा…"**
उसने खुद से बुदबुदाया।
किआरा ने गिलास उठाया —
**"ऐसा क्या था उसमें?"**
**"तुम नहीं समझोगी…"**
**"तुम्हें थप्पड़ खाने की आदत नहीं ना…"**
**"नहीं… लेकिन उस जैसी आग की तलाश थी बहुत दिन से।"**
---
अब आयूष के होश में नशा शामिल हो चुका था।
वो लड़की चली गई थी, लेकिन **उसके स्पर्श का जवाब, उसकी नज़रें, और उसका चेहरा — उसकी आँखों में अब रुक गया था।**
**"उसके उभार से ज़्यादा… उसकी आँखों ने छुआ मुझे।"**
आयूष ने धीमे से कहा।
---
### **" – गर्म दीवारें, ठंडी आँखें"**
**स्थान: होटल स्वीट, 17वीं मंज़िल – रात 12:15AM**
आयूष और किआरा होटल की लॉबी से चुपचाप लिफ्ट में चढ़े।
दोनों के बीच कोई बात नहीं हुई —
लेकिन उनकी आँखें अब भी डिस्को फ्लोर की टेंशन से भरी थीं।
**किआरा जानती थी — वो थप्पड़ वाला सीन, किसी और के लिए था… लेकिन असर उस पर भी हुआ।**
और आयुष?
वो अब भी उसी अनजान लड़की के चेहरे में फँसा था —
लेकिन इस वक्त जो उसके साथ थी, वो **उसकी भूख को तोड़ने नहीं, बढ़ाने आई थी।**
---
कमरे का दरवाज़ा खुला —
हल्की मद्धम लाइट, स्लाइडिंग ग्लास विंडो से शहर की लाइट्स चमक रही थीं।
किआरा चुपचाप अंदर गई, हील्स उतारकर सोफे पर बैठ गई, और शॉर्ट व्हिस्की खुद ही गिलास में डाली।
**"इतना शांत क्यों हो?"**
उसने सवाल उछाल दिया — जैसे चुप्पी का गला घोंटना चाहती हो।
आयूष ने जैकेट उतारकर बेड पर फेंका, और शर्ट के दो बटन खोलते हुए बोला —
**"तुम्हें लगता है मैं उस थप्पड़ से हिल गया?"**
**"मैंने तो सोचा था तुम बस जीतने वाले खेल पसंद करते हो… हार का स्वाद कैसा लगा?"**
आयूष उसकी तरफ बढ़ा, उसकी व्हिस्की का गिलास उठाया और एक ही घूँट में खत्म कर दिया।
**"हार का नहीं… उस हाथ का स्वाद चखा है। जो थप्पड़ में भी इतना भरपूर था, जितना किसी किस में नहीं।"**
---
किआरा उसकी आँखों में झाँकी।
**"और मैं? मैं क्या सिर्फ कॉर्पोरेट टॉय हूँ तुम्हारे लिए?"**
**"नहीं। तुम वो हो जो खुद को किसी से कम नहीं मानती।
और आज… इसीलिए मैं चाहता हूँ कि हम एक-दूसरे को इस कमरे में हर तरीके से हराएँ।"**
किआरा खड़ी हुई।
**"तो फिर शुरू करें ये युद्ध?"**
आयूष ने उसकी कमर पकड़कर उसे अपनी ओर खींचा।
**"इसमें तलवारें नहीं, उंगलियाँ चलेंगी…"**
---
अब उनके बीच शब्द नहीं, साँसें चल रही थीं।
किआरा ने अपनी टॉप की ज़िप नीचे खींची —
**धीरे, जानबूझकर… जैसे हर इंच पर उसकी नज़र टिक जाए।**
**"मैं तुम्हें आँखों से पिघला सकती हूँ, आयूष।"**
**"तो पिघलाओ… लेकिन याद रखना, मैं भाप बनकर वापस चुभ जाऊँगा।"**
---
आयूष ने उसका हाथ पकड़ा और दीवार की तरफ धकेला —
पीछे काँच की ठंडी सतह, सामने उसका गर्म बदन।
**"तुम्हारी बॉडी मेरी रिस्क लिस्ट में है…"**
उसने उसके कान के पास कहा।
**"और तुम्हारी साँसें मेरी कमज़ोरी नहीं… मेरा शस्त्र हैं…"**
किआरा ने जवाब दिया और अपने होठ उसके कॉलर बोन पर रखे।
---
अब वो **छू नहीं रहे थे, वो टकरा रहे थे।**
हर बार जब किआरा पीछे हटती, आरव और गहरा आता।
हर बार जब आयूष रुकता, किआरा उसकी कमर कसकर खींच लेती।
**"तुम्हारा ये गुस्सा… मुझे और नंगा कर रहा है।"**
**"और तुम्हारा अहंकार… मेरे होंठों को खून की तरह लग रहा है।"**
---
बेड के किनारे दोनों गिर पड़े —
आयूष ने उसकी टाँगें पकड़कर अपने कंधे पर रखीं।
किआरा ने उसके बाल खींचे और कहा —
**"आज तुम मुझे नहीं, मैं तुम्हें खो दूँगी…"**
**"और मैं… उस हार में जीत ढूँढ़ लूंगा।"**
---
कमरे की गर्मी AC से लड़ने लगी थी।
**पसीने, साँसों, और शब्दों की बौछार के बीच**,
ये दोनों सिर्फ इंटीमेट नहीं हो रहे थे,
**एक-दूसरे को खुद की कमजोरी मानने से इनकार कर रहे थे।**
---
**"आयूष…"**
**"हाँ?"**
**"आज ये रात खत्म नहीं करनी…"**
**"क्योंकि हम दोनों अभी अधूरे हैं…"**
---
**स्थान: वही होटल स्वीट – रात 2:05AM**
कमरे में अब सिर्फ दो साँसें थीं —
एक, जो तेज़ होकर लहू में दौड़ रही थी।
दूसरी, जो धीमी लेकिन गहरी थी… **जैसे भीतर तक समा जाने वाली।**
आयूष और किआरा —
अब उनके बीच कुछ भी नहीं था… **न कपड़े, न बहाने, न दूरी।**
बेड की सिल्क शीट्स उलझ चुकी थीं।
गद्दे की कोमलता अब उनकी चालों के नीचे सिसक रही थी।
---
**किआरा की उंगलियाँ आयूष की पीठ पर कुछ तलाश रही थीं।**
उसकी नज़रों में जंग जारी थी,
लेकिन होंठों पर वो मोहक मुस्कराहट थी —
**"तुम ये रात नहीं संभाल पाओगे…"** उसने बिना शब्दों के कहा।
आयूष ने उसके बालों को एक ओर किया,
और उसकी गर्दन पर अपनी गर्म सांसें छोड़ीं।
**"तुम्हें अपनी हदें भूलनी पड़ेंगी… ये रात मेरे हिसाब से चलेगी।"**
किआरा ने हँसते हुए उसे नीचे की ओर खींचा —
**"चलो, साबित करो।"**
---
अब उनकी चालों में समर्पण नहीं, मुकाबला था।
आयछष ने उसका एक हाथ सिर के पास रोका,
दूसरा उसके कमर के पास,
और फिर होठों से वो सारा इलाका छानने लगा जहाँ **इच्छा सबसे तेज़ धड़कती है।**
**किआरा की साँसें अब थमी नहीं रही थीं।**
उसने उसकी पीठ पर नाखून फेरते हुए धीमे से कहा —
**"मैं पिघल नहीं रही… मैं तुम्हें पिघला रही हूँ…"**
---
आयूष उसकी जांघों के बीच आया।
उसकी टाँगें अपने आप खुलती गईं —
ना किसी डर से, ना किसी मजबूरी से —
**बल्कि इस तूफ़ान को स्वीकारने के लिए।**
उसने किआरा की आँखों में गहराई से देखा।
**"आँखें बंद मत करना…"**
**"क्यों?"**
**"क्योंकि मैं तुम्हारे चेहरे पर अपनी जीत देखना चाहता हूँ।"**
---
अब कोई धीरे नहीं था।
**हर हरकत, हर धक्का**,
एक लहर की तरह बिस्तर पर गूंज रही थी।
कभी वह ऊपर थी,
कभी आयूष उसकी कमर कसकर खुद पर खींचता।
कभी वो हँसती —
कभी उसकी साँसें रुक-सी जातीं।
---
**"आयूष… ये… ये सिर्फ़ खेल है न?"**
**"हाँ… और मैं हारना नहीं जानता।"**
**"तो चलो… आज तुम्हें हार सिखाती हूँ…"**
किआरा ने उसे उल्टा किया —
अब वो ऊपर थी, उसकी जांघों के बीच बैठी,
बाल बिखरे हुए, और उसकी आँखें — आग की तरह जलती हुई।
**उसने दोनों हाथ उसकी उभार पर रखे और धड़कनों पर सवारी करने लगी।**
---
बेड अब तड़क रहा था,
कमरे की दीवारें साँसें पकड़ चुकी थीं,
मिरर में उनका प्रतिबिंब अब रुक-रुक कर थरथरा रहा था।
**"तुम थक गए?"**
किआरा ने धीमे से पूछा।
**"अभी तो शुरुआत है…"**
---
आयूष ने उसे दोबारा अपने नीचे लिया,
और इस बार, **नज़रों से ज़्यादा, होंठों ने कहा कि अब फैसला होगा।**
धीरे से, लेकिन पूरे अधिकार के साथ —
उसने उसका चेहरा चूमा…
फिर कॉलर बोन…
फिर उसकी साँसों के बीच वो उतरता गया।
---
**उनके जिस्म अब अलहदा नहीं थे — एक जैसे बह रहे थे।**
बिस्तर अब एक रणभूमि थी…
जिसमें दोनों सेनापति एक-दूसरे की हार में जीत ढूँढ रहे थे।
कमरे में अब रोशनी सिर्फ खिड़की से आ रही थी —
शहर की लाइट्स मंद हो चुकी थीं,
लेकिन बिस्तर पर दो लोग अब भी एक-दूसरे में उलझे थे —
**न सपनों में, न रिश्तों में — सिर्फ उस गर्म रात की साँसों में।**
आयूष की बाँह के नीचे किआरा सिमटी हुई थी।
उसका बदन अभी भी गर्म था, लेकिन साँसें अब थमी हुई सी।
**"तुम अब भी जाग रहे हो?"**
किआरा ने आँखें बंद रखते हुए पूछा।
**"तुम्हारे बदन से ये रात खत्म नहीं हो रही…"**
आयूष ने उसके बालों में उंगलियाँ फेरते हुए जवाब दिया।
किआरा हल्का मुस्कराई।
**"मेरे होठों की गर्मी ने तुम्हारी नींद चुरा ली?"**
**"होठों की नहीं… तुम्हारी ख़ामोशियाँ ज़्यादा तेज़ निकलीं।"**
---
उनके बीच अब कोई हड़बड़ी नहीं थी —
बस धीरे-धीरे फैलता हुआ आलस्य…
एक ऐसा आलस्य जो सिर्फ़ उन लोगों को आता है जो **थककर भी सुकून से भरे नहीं होते।**
आयूष ने उसकी पीठ पर उँगलियाँ फिराईं,
जहाँ अब भी उसकी साँसों के निशान गहरे थे।
**"पता है?"**
उसने फुसफुसाया।
**"तुम किसी और की नहीं लगती…"**
**"मैं किसी की नहीं हूँ। ये रातें मेरी हैं, और मैं जिसे चाहूं… उन्हें बाँट सकती हूँ।"**
आयूष मुस्कराया —
**"तभी तो तुम्हारी देह से नहीं, तुम्हारी आज़ादी से जलन होती है।"**
---
किआरा ने धीरे से उसकी छाती पर चूमा —
ना किसी भावना से, ना किसी स्नेह से —
बस एक **शब्दहीन इकरार** कि
**“ये रात थी, जो थी… बस इतनी ही।”**
**"मुझे नींद आ रही है…"**
उसने थककर कहा।
**"तुम सो सकती हो… मैं अब भी तुम्हें महसूस कर रहा हूँ।"**
**"तुम हमेशा कंट्रोल में क्यों रहना चाहते हो?"**
**"क्योंकि जब मुझे कोई छोड़कर चला जाता है,
तो कम से कम खुद से तो हाथ नहीं छूटता…"**
---
कुछ देर चुप्पी रही।
बिस्तर पर दो जिस्म…
कभी बेतहाशा करीब थे —
अब धीमे-धीमे **अपनी दूरी फिर से तौलने लगे थे।**
लेकिन दोनों को पता था,
कि **ये रिश्ता नहीं था — ये रात थी।**
रात जो बहुत कुछ कह गई थी —
बिना कोई वादा किए।
---
### **– "भीगी दीवारों के बीच ठहरी हुई साँसें"**
**स्थान: वही होटल स्वीट – सुबह 7:05AM**
कमरे की खिड़की से हल्की रोशनी भीतर आ चुकी थी।
शहर की गहमागहमी फिर से जाग रही थी — लेकिन इस कमरे में एक सुकून सा पसरा हुआ था।
आयूष की आँख खुली।
बिस्तर आधा खाली था।
**"वो उठ चुकी है?"**
वो हल्के से उठकर बाथरूम की ओर बढ़ा।
बाथरूम का दरवाज़ा अधखुला था, और भीतर से **शॉवर की बूँदों** की आवाज़ आ रही थी।
भाप से शीशा धुंधला हो चुका था,
लेकिन उसमें किसी के हाथ का **एक हल्का धुँधला दिल** बना हुआ था —
जैसे किसी ने आधी नींद में उसकी याद में कोई निशान छोड़ा हो।
---
**"तुम जाग गए?"**
किआरा की आवाज़ आई — गर्म, भरी हुई, और थोड़ी सी सुस्त।
**"मैं सोच रहा था… आज की सुबह शांत होगी।"**
**"शांतियाँ तो नींद के लिए होती हैं…
और हमने तो रात भर बस शोर ही पैदा किया है…"**
उसने हँसते हुए कहा।
---
आयूष ने बिना कुछ कहे शर्ट उतारी —
और उसी भाप भरे बाथरूम में दाख़िल हो गया।
शॉवर से गर्म पानी की बूँदें किआरा की पीठ पर गिर रही थीं —
उसके गीले बाल उसकी गर्दन से फिसलते हुए पीठ तक गिर रहे थे।
उसने पीछे मुड़कर देखा —
**"इतनी जल्दी फिर से?"**
**"मैं तो सिर्फ साफ़ होने आया हूँ…"**
उसने मुस्कुराकर कहा।
---
आयूष ने उसके कंधे पर हाथ रखा,
पानी की गर्म बूँदें उनके बदन से गुजरती जा रही थीं —
**और दोनों के बीच कुछ भी नहीं था… सिर्फ उस गर्म पानी की सरसराहट।**
किआरा ने अपनी पीठ उसकी छाती से सटा दी।
**"अगर यही सफ़ाई है, तो मैं हर दिन गंदी रहना चाहूँगी…"**
आयूष ने उसके बालों को एक ओर किया —
**उसकी गीली गर्दन पर होंठ रखे**,
और कहा —
**"तुम्हारे बालों की खुशबू… इस भाप से भी गाढ़ी है…"**
---
शॉवर अब सिर्फ नहाने का नहीं,
**छूने का ज़रिया बन गया था।**
आयूष की उंगलियाँ उसके कंधों से होती हुई उसकी बाहों तक फिसलीं —
किआरा ने दोनों हाथ दीवार पर टिका दिए,
और सिर झुका लिया।
**"तुम्हारी उंगलियाँ अब मेरी आदत बन चुकी हैं…"**
**"और तुम्हारा बदन, मेरी सुबह की शुरुआत…"**
---
आयूष ने धीरे से उसकी हथेली को अपनी पकड़ में लिया,
और उसे पलटकर अपने सामने कर लिया।
किआरा के गालों पर पानी की बूँदें,
और आँखों में अब भी **रात का थोड़ा-सा अंधेरा** बाकी था।
**"कल रात सिर्फ गर्मी थी…"**
उसने धीमे से कहा।
**"पर ये सुबह… कुछ और है।"**
**"शायद इसलिए, क्योंकि अब हम देख पा रहे हैं —
एक-दूसरे को पूरी रोशनी में।"**
---
शॉवर के नीचे दोनों कुछ देर बस एक-दूसरे को देखते रहे।
आयूष ने उसकी पीठ को सहलाया, और फिर उसे कसकर अपने गले से लगा लिया।
कोई जल्दबाज़ी नहीं थी,
कोई प्रदर्शन नहीं था —
बस पानी की बूँदें गिर रही थीं,
और दो जिस्म… **थोड़े थक चुके थे, लेकिन अब भी जुड़े हुए।**
---
**"चलो अब नहा भी लें?"**
किआरा ने उसकी छाती पर हल्का सा धक्का देकर कहा।
**"अब तक क्या कर रहे थे?"**
**"रगड़ने के अलावा भी तो कुछ होता है…"**
उसने आँखें मटकाकर शैम्पू की बोतल उठाई।
---
थोड़ी देर बाद दोनों बाथरूम से बाहर निकले —
तौलिये में लिपटे हुए,
और उस भाप से भरे पल की एक मूक मुस्कराहट अपने होठों पर लिए।
---
---
### **– “भीगेपन से भरे एहसास”**
**स्थान: होटल स्वीट – सुबह 7:45AM**
बाथरूम से बाहर आते ही कमरे की हल्की हवा और एसी की ठंडक,
उन दोनों के गीले शरीर से टकराई —
एक हल्की सिहरन, जो अब किसी झिझक की वजह से नहीं…
बल्कि उस **भीगेपन को महसूस करने की वजह से** थी,
जिसे उन्होंने एक-दूसरे में बांटा था।
आयूष ने तौलिया उसके कंधों पर डाला।
**"ठंड लग रही है?"**
किआरा ने कुछ नहीं कहा।
बस अपनी गर्दन उसके कंधे में छुपा ली।
उसका गीला बदन अब भी कांप रहा था —
शायद पानी से ज़्यादा, **उसके स्पर्श की थकावट** से।
---
आयूष ने चुपचाप उसे पलंग की ओर ले जाकर बैठाया।
फिर पास रखे सफ़ेद, मुलायम तौलिये से उसके बालों को धीरे-धीरे सुखाने लगा।
उसकी उंगलियाँ बालों के बीच हल्की-सी मालिश करती जा रही थीं —
कभी किसी कोमल रफ्तार से,
तो कभी ऐसे जैसे **हर बूँद को अपनी हथेली में कैद करना चाहता हो।**
किआरा की आँखें बंद थीं।
**शब्दों की ज़रूरत ही नहीं थी।**
---
फिर उसने नीचे बैठकर उसके दोनों पैर तौलिए से सुखाने शुरू किए —
एक-एक उंगली… जैसे वो किसी टूटे मोती को सहेज रहा हो।
**"पता है, आज तुम चुप क्यों हो?"**
उसने मुस्कुरा कर पूछा।
किआरा ने आँखें खोलकर धीमे से कहा —
**"क्योंकि कभी-कभी तुम्हारे हाथ मेरी ज़ुबान से ज़्यादा बोलते हैं।"**
---
फिर वह उठा, और अलमारी से किआरा की ड्रेस निकाली —
सॉफ्ट ग्रे सिल्क की लॉन्ग टॉप और नीचे प्लाजो।
**"तुम्हें आज फिर से खुद में ढकना कैसा लग रहा है?"**
किआरा ने होंठ भींगे हुए जवाब दिया —
**"जैसे किसी तूफ़ान के बाद बाल संवार रही हूँ।"**
---
आयूष ने उसकी बाँहों में हाथ डाला,
और धीरे-धीरे उसके टॉप की बाहें ऊपर खींचीं।
हर बार जब उसकी उँगलियाँ उसकी त्वचा से टकराईं,
किआरा की पलकों में **हल्की हरकत** होती।
फिर उसने उसका चेहरा अपनी तरफ घुमाया।
**"तुम्हारे गाल अब भी गर्म हैं…"**
**"शायद तुम्हारे होंठ अब भी उतरे नहीं हैं उनसे…"**
---
उसने किआरा के माथे पर होंठ रख दिए —
एक धीमा, गहरा स्पर्श —
जैसे वो न किसी रिश्ते का वादा था, न कोई मोहब्बत का इज़हार…
बस, **“मैं यहां हूँ”** कहने की एक इमानदार कोशिश।
फिर उसने खुद अपना पैंट और शर्ट पहन लिया।
किआरा अब तैयार बैठी थी — बाल पीछे बंधे, आँखें अब थोड़ी स्थिर।
लेकिन उसकी नज़रों में अब भी रात की परछाई बाकी थी।
---
**"आयूष…"**
उसने धीरे से पुकारा।
**"हूँ?"**
**"अगर हम फिर मिलें… तो क्या उस मुलाकात में भी तुम मुझे ऐसे ही सहेजोगे?"**
आयूष मुस्कुराया।
**"अगर हम फिर मिलें, तो मैं तुम्हें बिखरने ही नहीं दूँगा।"**
---
कमरे में कुछ पल के लिए एक गहरा सन्नाटा छा गया।
सिर्फ एसी की हल्की आवाज़, और दिल की धड़कन की नमी।
फिर आयूष ने हाथ बढ़ाया —
**उसके होठों को हल्के से छुआ… और एक आख़िरी, भीगी मुस्कराहट बाँटी।**
---
ये कहानी आप सभी को कैसी लग रही है कमेंट कर जरूर बताना और इसे भी बाकी सब कहानी से प्यार देना , मुझे आशा है कि ये भी आपको अच्छी लगेगी ,
**स्थान: आयूष खुराना का ऑफिस – उसका प्राइवेट केबिन – सुबह 11:20AM**
कमरे में एसी की ठंडी हवा चल रही थी, लेकिन आयूष के भीतर जैसे कोई गर्म लावा बह रहा था।
उसका चेहरा शांत था, मगर आँखें...
जैसे किसी शिकार को सूंघ चुकी हों —
किसी ऐसी चुनौती की गंध जो सीधे उसके अहंकार को लहूलुहान करके चली गई थी।
लैपटॉप की स्क्रीन पर मीटिंग के डॉक्यूमेंट्स खुले थे,
चार्ट्स और ग्राफ्स की लहरें उभर रही थीं — लेकिन वो उन्हें देख नहीं रहा था।
उसकी नज़रें स्क्रीन पर थीं, लेकिन ज़हन में... **वही चेहरा तैर रहा था।**
---
**वो लड़की।**
डिस्को की हलचल, तेज़ लाइट्स, बेस की कंपन…
और उसी बीच उसकी गर्म साँसों से भरी आवाज़ —
**"हाथ लगाने की सोचना भी मत… वरना सबके सामने तमाचा पड़ेगा!"**
आयूष ने एक झटके में लैपटॉप बंद कर दिया।
कुर्सी पर पीठ टिकाई, और ठंडी साँस भरी।
**"और फिर तुमने तमाचा मारा… वो भी सबके सामने।"**
---
उसकी उंगलियाँ टेबल पर बेतहाशा बजने लगीं।
वो ज़रा-सा झुका, और टेबल के काँच पर अपनी परछाईं देखी —
चेहरा अब भी वैसा ही परफेक्ट था, लेकिन आज कुछ दरारें थीं वहाँ…
**"तुमने मुझे छुआ, और मैं चुप रह गया? नहीं… ये बस शुरुआत थी।"**
---
उसकी यादें अब और गहरी होती चली गईं।
वो रात… डिस्को का वीआईपी सेक्शन…
वो लड़की — **सूट सलवार** में, जिसकी पतली कमर उस ड्रेस से भी ज्यादा घातक लग रही थी।
उसका हर कदम जैसे जानबूझकर किसी की नब्ज़ से खेल रहा था।
**उसके उभार…**
**उसकी जुल्फ़ें जो कंधों पर गिरती थीं…**
**और वो गुलाबी होंठ… जो गालों से भी ज़्यादा नर्म और मगरूर थे।**
---
**"तुमने मुझे छुआ था,मगर उस रात तुम नहीं जानती थीं,**
**कि तुमने किसको चुनौती दी है।"**
उसने धीरे से अपनी जैकेट की जेब से मोबाइल निकाला।
गैलरी में स्क्रोल करते-करते वो रुका —
एक blurry फोटो पर…
**सीसीटीवी से ली गई थी।**
क्लब के बाहर की —
जहाँ वो लड़की तेज़ी से निकल रही थी, उसके गाल पर आयुष के हाथ का हल्का निशान अब भी उभर रहा था।
लेकिन उसकी आँखें…
**उसी पल में भी वो आँखें हारी नहीं थीं।**
बल्कि और ज्यादा चुनौती देती थीं —
जैसे कह रही हों:
**"तेरी औकात नहीं मुझे नीचा दिखाने की।"**
---
आयूष मुस्कुराया।
**"अब यही आँखें झुकेंगी।"**
उसने कुर्सी से उठकर केबिन के शीशे के सामने खड़ा हुआ।
अपना चेहरा देखा —
एकदम सधा हुआ, ताक़तवर, और अब बदले की तीखी इच्छा से भरा।
**"उस रात तुम्हारी चाल में भी अकड़ थी, जैसे हर मर्द को पिघला देने का हुनर तुम्हें विरासत में मिला हो।"**
**"कमर की हर लहर में ऐंठन नहीं, एक जंग छुपी थी — और मैंने उसे पढ़ लिया।"**
**"तुम्हारा उभार, तुम्हारी चाल, तुम्हारे होंठ…**
**तुम्हारे जिस्म का हर हिस्सा किसी ऐलान की तरह था — लेकिन उस ऐलान को मैं अपने क़दमों तले दबा दूँगा।"**
---
वो वापस कुर्सी पर बैठा।
अब उसके चेहरे पर वो हौले-से खिंचती मुस्कान थी, जो दुश्मन को डराने के लिए काफी होती है।
**"तुम सोच रही होगी कि उस थप्पड़ के बाद मैंने तुम्हें भुला दिया होगा… मगर नहीं…"**
**"मैंने तुम्हारे हर अंग को याद रखा है।"**
**"तुम्हारी साँसों की गर्मी, उस ड्रेस की सिलवटें, और तुम्हारे बालों की ख़ुशबू — सब मेरी स्मृति में दर्ज हैं।"**
---
वो फिर से मोबाइल की स्क्रीन पर गया।
**"नाम नहीं मालूम, पर चेहरा अब भी आँखों में जिंदा है।"**
**"माना उस रात तुमने जीत ली एक लड़ाई, मगर अब जंग मेरी होगी।"**
**"और मेरी जंग में कोई माफ़ी नहीं होती।"**
---
तभी उसका फ़ोन बजा।
कंपन सीधा दिल की धड़कन से टकराया।
**"Yes?"** उसकी आवाज़ में वही सधा हुआ लहजा।
**"सर, मिस्टर गोयल नीचे वेट कर रहे हैं, उन्होंने कहा तुरंत आइए।"**
आयूष ने फोन काटा।
**"ठीक है… बता देना, आयूष खुराना आ रहा है।"**
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लेकिन जाते-जाते, उसने एक बार फिर वही blurry फोटो खोली।
**उसने ज़ूम करके उस चेहरे को देखा — आंखें जलती थीं, होंठ भींचे हुए थे।**
**"तुमने मुझे छूने की गलती की थी — अब मैं तुम्हारे वजूद से खेलूँगा।"**
---
वो उठ खड़ा हुआ।
सूट की कॉलर सीधी की,
अपना वॉलेट जेब में डाला,
और केबिन से बाहर निकलते हुए आखिरी बार मुड़ा…
**"अब ढूंढना बाकी है तुम्हारा नाम।**
**बस नाम… फिर देखना, इस शहर में कोई कोना नहीं बचेगा तुम्हारे लिए।"**
---
कमरे का दरवाज़ा बंद हुआ।
लेकिन उस केबिन की दीवारें अब भी गवाही दे रही थीं —
**कि एक लड़की की 'थप्पड' ने एक आदमी के 'घमंड' को ललकार दिया था।**
और अब…
**ये सिर्फ बदले की बात नहीं थी — ये लड़ाई अब जुनून बन चुकी थी।**
---
### **रात का वो कमरा…**
कमरे की लाइट बहुत धीमी थी। हल्की पीली रौशनी में सिर्फ दो साये दिख रहे थे — **आयूष** और एक लड़की, जो बस एक ढीली-सी वाइट शर्ट में थी। शर्ट का ऊपरी बटन खुला था और उसके अंदर से उसकी नाज़ुक सी चमकती त्वचा जैसे किसी हीरे जैसी लग रही थी।
वो लड़की आयूष की गोद में बैठी थी, उसके गले में बाहें डाले हुए।
उसकी आंखों में कुछ नशा था, कुछ चाहत… और होंठों पर हल्की मुस्कान।
"तुम्हारी आंखें बहुत तेज़ हैं," लड़की ने धीरे से कहा, "लगता है जैसे सब पढ़ लेते हो अंदर से…"
आयूष उसके गाल पर झुक आया, एक-एक कर उसके होठों को चूमते हुए बोला,
"और तुम्हारा ये बदन… जैसे हर जगह से मुझे आवाज़ दे रहा हो…"
वो दोनों अब एक-दूसरे में पूरी तरह खो चुके थे।
आयूष ने उसके होंठों को चूमते हुए उसकी शर्ट के बटन खोलने शुरू किए। लड़की का बदन एक हल्की सी कंपकंपी के साथ खुल रहा था, जैसे उसे ये सब नया हो।
"ये मेरी पहली बार है," लड़की ने धीमे से कान में कहा।
आयूष रुक गया। उसकी आंखों में कुछ पल के लिए softness आ गई, लेकिन फिर उसने उसे गले से लगा लिया।
"मैं संभाल लूंगा," उसने उसके कान में फुसफुसाया।
वो अब बिस्तर पर आ चुके थे। लड़की का पूरा बदन आयूष की बाँहों में था — उसके नीचे धीरे-धीरे कांपता हुआ।
पहली बार की झिझक और हल्का-सा दर्द उसके चेहरे पर साफ़ दिख रहा था, लेकिन साथ ही उसकी आंखों में कुछ पाने की प्यास भी थी।
हर एहसास जैसे एकदम नया था उसके लिए।
आयूष धीरे-धीरे आगे बढ़ता गया, हर कदम पर लड़की का ध्यान रखते हुए।
कमरे में अब सिर्फ सांसों की आवाजें थीं, और उनके मिलते जिस्मों की गर्मी…
वक़्त जैसे रुक गया था।
कई बार... कई तरीकों से... वो दोनों एक-दूसरे में समा चुके थे।
रात के आखिरी पहर में, जब सब थम गया, तो दोनों बिस्तर पर बिना कुछ बोले बस लेटे हुए थे — एक-दूसरे की ओर पीठ किए।
आयूष की आँखें छत पर टिकी थीं, लेकिन उसका मन कहीं और भटक रहा था।
एक चेहरा... बार-बार उसके ज़हन में आ रहा था।
**वही लड़की**, जिससे वो कभी पूरी तरह दूर नहीं जा पाया।
तभी बगल में लेटी लड़की ने करवट ली और उसकी छाती पर हाथ रखते हुए पूछा,
"किसके बारे में सोच रहे हो?"
आयूष मुस्कुराया, मगर उसकी मुस्कान में एक हल्का सा ताना था।
"इस दुनिया में तुम्हारे अलावा और भी लड़कियाँ हैं जान," उसने कहा।
लड़की कुछ पल को चुप रही, फिर धीमे से बोली,
"लेकिन इस वक्त तो मैं तुम्हारे साथ हूँ…"
आयूष ने बिना कुछ कहे उसे फिर से अपनी ओर खींच लिया।
उसके होंठों को चूमा, और उसकी गर्दन पर अपने होठों की नमी छोड़ता हुआ फिर से उसके अंदर खो गया।
लड़की ने भी खुद को पूरी तरह उसके हवाले कर दिया — इस बार और भी खुलकर, और भी बेताबी के साथ।
कमरे में फिर से वही गर्माहट लौट आई थी।
उनके जिस्म फिर से उलझ रहे थे, लिपट रहे थे…
हर स्पर्श में भूख थी, और हर सांस में बेचैनी…
इस बार वो लड़की भी पहले जैसी नहीं थी।
वो दर्द के बजाय अब आनंद की लहरों में डूब रही थी।
रात की खामोशी में, सिर्फ एक-दूसरे की आवाजें थीं —
कभी धीमी सिसकियाँ, कभी तेज़ सांसें, और बीच-बीच में दबे हुए नाम…
पर आयूष का मन अब भी पूरी तरह वहाँ नहीं था।
उसे अब उस *एक चेहरे* का पता लगाना था।
जो कहीं खो गया था…
लेकिन अब भी उसके दिल के सबसे गहरे हिस्से में जिंदा था।
आयूष खुराना अब तक अकेले लंच करना पसंद करता था।
ना किसी के टेबल पर बैठना, ना किसी को अपने टेबल पर बुलाना।
सिर्फ वो — और उसका फिक्स लंच बॉक्स, जिसमें खाना कम और सोच ज्यादा होती थी।
लेकिन आज वो जब केबिन की ओर बढ़ा, तो कुछ बदला-बदला सा लगा।
लाउंज में ऑफिस के और भी स्टाफ इकट्ठा थे।
हंसी-मज़ाक चल रहा था — कुछ नॉर्मल-सी हलचल जो अमूमन हर वर्कप्लेस में होती है।
आयूष बस वहीं से गुज़रने ही वाला था कि एक टेबल से आती हँसी ने उसके कदम थाम लिए।
---
**"भाई, वाइफ तो कमाल की हैं… लाजवाब खाना बनाती हैं!"**
**"और इतनी सिंपल और खूबसूरत… हमसे मिलवाया ही नहीं आपने कभी!"**
ये बात हँसते हुए कोई कह रहा था, और सामने एक लड़का शर्माते हुए सिर खुजा रहा था —
**राहुल**, अकाउंट्स डिपार्टमेंट का सीनियर स्टाफ।
आयूष की नज़र स्वाभाविक तौर पर उस टेबल की ओर गई — और फिर…
उसका दिल **एक पल के लिए ठहर गया।**
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वहीं सामने…
**वो लड़की बैठी थी।**
**वही आंखें। वही चेहरा। वही होंठ। वही अकड़।**
**डिस्को वाली थप्पड़ रानी।**
लेकिन आज…
ना तेज़ लाइट्स थीं, ना बेस की गूंज, ना वीआईपी सेक्शन की हवा।
आज वो सलवार कमीज़ में, आँखों में काजल और हाथ में स्टील की टिफिन थामे
**"एक वाइफ"** की तरह बैठी थी।
वो राहुल के पास बैठी थी, हँस रही थी, खाना परोस रही थी — जैसे दुनिया की सबसे आम लड़की हो।
---
**"यहाँ?"**
आयूष के ज़हन में जैसे कोई तूफान दौड़ गया।
**"ये यहाँ कैसे?… कभी देखा क्यों नहीं इसे?"**
उसकी नज़रें कुछ देर तक सिर्फ उसी पर टिकी रहीं।
**गुलाबी दुपट्टा, सलीके से बंधे बाल, और आँखें — जो अब भी उतनी ही तेज़ लग रही थीं जितनी उस रात थीं।**
**पर आज उनमें एक नया रंग था — घरपन का, अपनेपन का, 'साधारण' होने का।**
---
उसने अपनी उँगलियाँ जेब में डालीं, और चेहरे पर वो पुराना मास्क चढ़ा लिया —
**"खुराना मास्क" — सधा हुआ, शांत, लेकिन अंदर से भयानक।**
वो बिना कुछ कहे सीधा निकल गया, लेकिन उस वक़्त…
**उसकी चाल में एक नई चुस्ती थी।**
जैसे उसने अपनी शिकार को पहचान लिया हो —
बस अब उसकी **कमज़ोर नस** ढूँढनी थी।
---
**स्थान: आयूष का केबिन – दोपहर 2:20PM**
लंच खत्म हुआ।
सारे स्टाफ अपने-अपने काम में लग गए।
आयूष खामोशी से अपने केबिन में वापस आ चुका था।
लेकिन दिमाग में अब कोई प्रेज़ेंटेशन नहीं था, ना मीटिंग शेड्यूल —
बस एक ही सवाल घूम रहा था:
**"वो यहाँ क्या कर रही है?"**
उसने इंटरकॉम उठाया और रिसेप्शन पर कॉल किया:
**"राहुल शर्मा को मेरे केबिन में भेजो। अभी।"**
---
**पाँच मिनट बाद – दरवाज़ा खुला**
**"सर?"** राहुल ने सिर झुकाते हुए पूछा।
**"आओ, बैठो।"**
आयूष ने सामने वाली कुर्सी की ओर इशारा किया।
कुछ सेकंड तक चुप्पी रही — फिर उसने सीधा सवाल दागा:
**"आज लंच में तुम्हारे साथ जो लड़की थी… वो कौन थी?"**
राहुल थोड़ा घबरा गया, पर फिर मुस्कुरा उठा:
**"सर, वो मेरी वाइफ है। शादी को डेढ़ साल हुआ… अभी दो महीने पहले ही शहर आई है मेरे साथ रहने।"**
आयूष का चेहरा शांत था, लेकिन अंदर जैसे कोई लपट उठी थी।
**"अच्छा… वाइफ?"**
**"जी सर, घर से ही खाना बनाकर लाती है रोज़… तो मैंने कहा चलो लंच साथ कर लें।"**
आयूष ने हल्की मुस्कान दी, जैसे बात उसे इंट्रेस्टिंग लगी हो:
**"काफ़ी सिंपल लग रही थी… पहली बार देखी मैंने उसे।"**
**"जी सर, बहुत घरेलू टाइप है… लेकिन बोल्ड भी है… सबको पसंद आती है।"**
**"खाना अच्छा बना लेती है?"**
**"बहुत अच्छा, सर! मेरी तो किस्मत ही खुल गई है!"** राहुल हँस पड़ा।
---
आयूष मुस्कुराया, लेकिन उसकी मुस्कान…
**वो मुस्कान नहीं थी जो किसी की शादी पर बधाई देती है।**
वो वो मुस्कान थी जो **किसी शिकार को पिंजरे में बंद देखकर आती है।**
**"ठीक है राहुल, जाओ… और अगली बार जब वो आए, तो उसे रिसेप्शन से भेज देना… मैं मिलना चाहूँगा।"**
**"जी सर!"** राहुल खुश होकर चला गया।
---
दरवाज़ा बंद हुआ।
आयूष अब अपनी कुर्सी पर पीछे झुक गया।
उसका हाथ धीरे-धीरे टेबल पर बाएँ से दाएँ फिसल रहा था —
जैसे किसी अदृश्य प्लान की स्केचिंग कर रहा हो।
---
उसने मोबाइल उठाया, गैलरी में वही blurry तस्वीर खोली।
अब उस चेहरे की असलियत उसके सामने थी।
**"नाम मिल गया…"**
**"और अब… उसका रिश्ता भी।"**
उसने फिर से मुस्कराया —
**इस बार एक डेविलिश स्माइल के साथ।**
वो स्माइल जो चेतावनी नहीं देती —
बस कहती है:
**"तू बच नहीं पाएगी… अब तू सिर्फ मेरी याद नहीं — मेरा निशाना है।"**
---
कमरे की खिड़की से धूप सीधी आयूष के चेहरे पर पड़ रही थी।
लेकिन वो अब भी ठंडा था —
**ठंडा, पर अंदर से धधकता हुआ।**
अब खेल शुरू हो चुका था।
दरवाज़ा बंद था।
कमरे में हल्की-सी अंधेरी रौशनी थी — पर्दे आधे खिंचे थे।
आयूष अपनी कुर्सी पर बैठा, एक फ़ाइल के पन्ने पलट रहा था… लेकिन असल में उसकी नज़रें कहीं और थीं।
**मोबाइल स्क्रीन पर वो लड़की थी — राहुल की बीवी।**
एक प्रोफाइल पिक, जो शायद राहुल ने खुद खींची होगी… या किसी पुरानी याद में कैद की होगी।
**"तू उसकी बीवी है? या सिर्फ नकाब में छिपी कोई कहानी?"**
उसने गहरी सांस ली और फिर इंटरकॉम उठाया।
**"क्लीनिंग स्टाफ से विशाल को भेजो।"**
---
**पाँच मिनट बाद – दरवाज़ा खुला**
**"सर?"** विशाल ने झिझकते हुए पूछा।
**"एक छोटा सा काम है तुम्हारे लिए।"**
आयूष ने नज़दीक बुलाया, और अपनी आवाज़ धीमी कर ली।
**"नीचे बेसमेंट का स्टोररूम खोलना है… एक बॉक्स रखा है वहाँ, उसे मेरी कार में डाल देना। अकेले। किसी को मत बताना।"**
**"ठीक है सर।"**
**"और हाँ… बॉक्स को खोलने की कोशिश मत करना। वो पर्सनल है।"**
विशाल ने सिर हिलाया और निकल गया।
---
**स्थान: ऑफिस बेसमेंट – 4:35PM**
बेसमेंट में हल्का अंधेरा और गंध फैली थी।
विशाल कोने में गया — वहीं जहां अक्सर पुराने काग़ज़ और कबाड़ रखे जाते थे।
वहाँ एक बड़ा **काला बॉक्स** पड़ा था। भारी।
उसने उठाने की कोशिश की — लेकिन तभी…
**धप्प!!**
एक छोटी सी प्लास्टिक पन्नी नीचे गिरी — उसमें कुछ लाल सा था।
**"ये क्या है…?"** विशाल ने अनजाने में वो उठाई।
हाथ लगते ही हल्का-सा कुछ चिपचिपा लगा।
वो चौंका — **रक्त जैसा कुछ?**
---
**स्थान: आयूष की कार – ऑफिस पार्किंग – शाम 5:00PM**
विशाल जैसे ही बॉक्स लेकर आया, आयूष पहले से वहाँ खड़ा था।
**"सर… ये रहा। लेकिन एक बात कहूँ…"**
**"हम्म?"**
**"बॉक्स से कुछ गिरा था… और उसमें… सर कुछ अजीब था…"**
आयूष मुस्कुरा दिया।
**"कुछ भी अजीब नहीं विशाल… वो पेंट था। मेरी वाइफ आर्टिस्ट थी, उसकी पुरानी चीज़ें हैं।"**
**"ओह… ठीक है सर।"**
**"और हाँ विशाल…"**
आयूष ने उसकी तरफ मुड़कर कहा, **"अब तुम थोड़ा ओवरटाइम किया करो — मैं तुम्हें एक्स्ट्रा पे दूँगा। पर एक काम और करना पड़ेगा।"**
**"कैसा काम?"**
**"बस… जब कहूँ, तब किसी चीज़ को उठाकर कहीं और रख देना… और किसी से सवाल-जवाब मत करना।"**
विशाल थोड़ी देर तक सोचता रहा… फिर धीरे से मुस्कुराया।
**"ठीक है सर।"**
---
**स्थान: अगली सुबह – अकाउंट्स डिपार्टमेंट – 10:00AM**
राहुल अपना सिस्टम खोल ही रहा था कि तभी दो पुलिस ऑफिसर ऑफिस में दाखिल हुए।
**"राहुल शर्मा?"**
**"जी… मैं राहुल…"**
**"आपको पुलिस स्टेशन चलना होगा। आपके नाम एक **खून के केस** में जांच चल रही है।"**
**"क्या? खून??"** राहुल के चेहरे का रंग उड़ गया।
**"जी हाँ — तीन दिन पहले एक संदिग्ध बॉक्स बरामद हुआ है जिसमें खून के निशान हैं… और उसमें से आपके फिंगरप्रिंट मिले हैं।"**
**"ये… ये कैसे हो सकता है? मैं तो…"**
**"बिना वकील के ज्यादा मत कहिए। बस साथ चलिए।"**
पूरा ऑफिस सकते में था।
आयूष अपने केबिन की खिड़की से ये सब देख रहा था।
उसने हल्की मुस्कान के साथ अपनी कॉफी का एक सिप लिया।
---
**स्थान: ऑफिस के CCTV रूम – उसी शाम**
आयूष ने IT हेड को बुलाया।
**"राहुल को ले जाते वक्त जो बेसमेंट का फुटेज है… उसे मिटा दो।"**
**"सर…?"**
**"उस दिन कोई नीचे गया ही नहीं — बस इतना रिकॉर्ड रखो। बाकी डिलीट।"**
**"ओके सर।"**
---
**स्थान: वही लड़की – अगले दिन – ऑफिस कैंटीन – दोपहर 1:30PM**
वो अकेले बैठी थी।
राहुल अब पुलिस की हिरासत में था, और उसका चेहरा उतरा हुआ।
वो उस टिफिन को घूर रही थी, जिसमें अब ना स्वाद था, ना किसी के लिए परोसने का उत्साह।
तभी पीछे से एक आवाज़ आई:
**"आप अकेली हैं आज?"**
उसने पलट कर देखा — आयूष।
शालीनता से मुस्कुराता हुआ।
**"मेरा नाम आयूष खुराना है… कंपनी का डायरेक्टर हूँ।"**
**"जी… नमस्ते…"** वो थोड़ा झिझकी।
**"मैं जानता हूँ, जो राहुल के साथ हुआ… अजीब है। लेकिन जब तक कुछ साबित नहीं होता, हम आपके साथ हैं।"**
उसकी आँखों में भरोसे की झलक आई — और कहीं गहराई में डर की भी।
**"थैंक यू…"**
आयूष उसकी आँखों में देख रहा था — अब वहाँ **न घर का रंग था, न नज़र की तेज़ी…**
बस एक बात साफ थी —
**"अब तू अकेली है… और अब मैं तेरे करीब आ सकता हूँ।"**
---
**जाल बिछ चुका था।
और अब शिकार… खुद चलकर उसमें आ रहा था।**
लोहे की जाली के उस पार विशाल बैठा था।
चेहरा थका हुआ था, आँखों में झुंझलाहट और दिल में घबराहट। पिछले दो दिन उसकी ज़िंदगी में जैसे भूचाल ले आए थे। अब वो कैदी था — **खून के इल्ज़ाम में फँसा हुआ**, और सबसे बुरा… **उसे पता भी नहीं था कि असल में उसने किया क्या है।**
“तुमसे कोई मिलने आया है।”
गार्ड ने दरवाज़े पर आकर आवाज़ दी।
विशाल ने चौंक कर सर उठाया।
“कौन?”
“देख लो खुद ही…”
वो लड़खड़ाते क़दमों से मुलाक़ात कक्ष में आया — और फिर उसकी नज़र सामने बैठी **सफेद शर्ट और नीली टाई में चमकते आयूष खुराना** पर पड़ी।
**"आप…?"** विशाल ने चौंकते हुए कहा।
**"अब क्या बाकी रह गया बताने को?"**
आयूष ने हमेशा की तरह वही शांत, ठंडी मुस्कान के साथ कहा –
**"कुछ चीज़ें तो बस बताई नहीं जातीं… सौंप दी जाती हैं। जैसे ये प्रस्ताव।"**
विशाल ने भौंहें तरेरीं।
**"क्या चाहते हो अब?"**
आयूष झुका। दोनों हाथ मेज़ पर रखे।
**"तुम्हें बाहर निकलने का रास्ता देना चाहता हूँ। केस से छूट, नौकरी वापस, और ऊपर से प्रमोशन भी।"**
विशाल हँसा — कड़वाहट से।
**"और बदले में?"**
एक लंबी चुप्पी… फिर एक वाक्य —
**"तुम्हारी बीवी चाहिए मुझे।"**
पूरा कमरा जैसे सन्नाटे से गूंज उठा।
विशाल ने गर्दन झटका, जैसे यकीन नहीं आया हो।
**"क्या???"**
आयूष ने बात साफ़ की —
**"एक महीना। सिर्फ एक महीना। मेरी प्राइवेट गेस्टहाउस में सिर्फ रात में, तुम्हारी बीवी मेरे साथ रहेगी। जो कहूँ, वही करेगी।"**
विशाल की आँखों में खून उतर आया।
**"तुमने दिमाग़ खो दिया है क्या?"**
**"नहीं विशाल,"** आयूष ने कहा, **"मैंने अपनी ताक़त की गिनती शुरू की है। और तुम मेरे लिए कुछ भी नहीं… जब तक तुम मेरे लिए कुछ बनो नहीं।"**
**"सुनो… अभी तुम्हारे खिलाफ खून का केस है। सबूत कमज़ोर हैं लेकिन गवाह बनवा दूँ, तो सीधे उम्रकैद। अब सोचो — तुम्हारी बीवी बाहर अकेली… रोज़ थाने के चक्कर… वकील की फीस… दो वक्त की रोटी का भी ठिकाना नहीं। और तुम यहाँ सड़ते रहोगे।"**
विशाल का गला सूख गया।
**"तुम दरिंदा हो।"**
आयूष ने मुस्कराते हुए कहा –
**"मैं व्यापारी हूँ, विशाल। तुम्हारी मुसीबत की कीमत लगा रहा हूँ… और कीमत सिर्फ एक महीना है। उसके बाद – तुम आज़ाद… और वो भी।"**
विशाल ने चुपचाप मेज़ पर से अपनी नज़रें हटा लीं। होंठ काँप रहे थे… और आँखों में पानी भरने को था।
**"अगर मैंने मना किया?"** उसने रुकते हुए पूछा।
आयूष ने बिना पलक झपकाए कहा –
\*\*"तो अगली बार जब तुम अपनी बीवी से मिलोगे, तब वो या तो सड़क पर भीख माँग रही होगी… या किसी और की बाँहों में होगी — मजबूरी में, न मर्ज़ी से।"
**"मैं बस इस मजबूरी में खुद को जोड़ने की इजाज़त माँग रहा हूँ…"**
एक लंबा सन्नाटा…
फिर आयूष ने घड़ी देखी और उठ खड़ा हुआ।
**"शाम तक सोच लो। जवाब 'हाँ' में देना… क्योंकि 'ना' सुनने की आदत नहीं है मुझे।"**
वो चला गया।
विशाल वहीं बैठा रहा — हाथ कांपते हुए, माथा झुका हुआ। अब सवाल ये नहीं था कि **क्या करना चाहिए**,
अब सवाल ये था कि **क्या वो अपनी बीवी को उस दरिंदे के हाथों सौंप देगा… या खुद कुर्बानी देगा… लेकिन उसकी इज़्ज़त बचा लेगा?**
---
**सौदे कई होते हैं — कुछ ज़मीन के, कुछ आत्मा के…
लेकिन सबसे बड़ा सौदा वो होता है, जब कोई किसी और की इज़्ज़त की कीमत पर अपनी रिहाई खरीदना चाहता है।**
**अब देखना ये है — विशाल आदमी बना रहेगा… या मजबूरी उसे औरों जैसा बना देगी।**
### **कमरा नंबर 3 – मुलाक़ात की दूसरी दोपहर**
लोहे की जाली के पीछे आज फिर वही कुरसी खाली थी, और उसी कुरसी की ओर देखता विशाल, जैसे किसी उम्मीद में साँसें रोके बैठा था।
फिर दरवाज़ा खुला।
**धारा आई थी।**
उसका चेहरा पहले जैसा नहीं था — थका हुआ, सूजा हुआ… आँखें लाल थीं, लेकिन ठंडी नहीं… उनमें एक सवाल, एक डर और एक गुस्सा था।
**"कैसी हो?"** विशाल की आवाज़ धीमी पड़ी।
धारा ने जवाब नहीं दिया। कुर्सी खींची और बैठ गई। कुछ पल दोनों के बीच खामोशी छाई रही, फिर विशाल खुद बोल पड़ा।
**"वो आया था…"**
धारा की पलकें काँपीं।
**"कौन?"**
**"आयूष खुराना।"**
अब धारा की साँसें जैसे रुक गईं।
**"क्या कह रहा था?"**
विशाल ने एक गहरी साँस ली, और धीमी, कड़वी आवाज़ में बोला —
**"तुम्हें चाहिए उसे… एक महीने के लिए। हर रात के लिए… उसकी शर्तों पर। बदले में मुझे केस से आज़ादी मिलेगी, नौकरी वापस, और प्रमोशन भी।"**
धारा की आँखें फटी की फटी रह गईं। होंठों से कोई शब्द नहीं निकला। चेहरा सफेद हो गया, जैसे उसकी रगों से खून खींच लिया गया हो।
**"क्या… क्या मज़ाक है ये?"** उसकी आवाज़ काँप रही थी।
**"मज़ाक नहीं, धारा। यही असलियत है इस दुनिया की।"** विशाल ने गुस्से में कहा।
**"और वो ये भी कह कर गया कि अगर हम मना करें, तो तुम्हारी हालत उससे भी बुरी होगी… जो सड़क पर भीख माँगने से भी बदतर हो।"**
धारा की आँखों से आँसू निकल पड़े।
**"मैंने तुम्हारे साथ शादी की थी विशाल… ताकि हम साथ रह सकें… लड़ सकें… लेकिन ये… ये क्या…"**
विशाल ने फौरन उसका हाथ थाम लिया।
**"धारा… सुनो मेरी बात ध्यान से… मैं कुछ भी होने नहीं दूँगा। चाहे मुझे फाँसी ही क्यों न चढ़नी पड़े, लेकिन तुम्हें उसके पास नहीं जाने दूँगा। मैं टूट सकता हूँ… पर तुम्हें नहीं टूटने दूँगा।"**
धारा ने उसका हाथ कसकर पकड़ लिया।
**"मैं तुम्हारी हूँ विशाल… और सिर्फ तुम्हारी। अगर मुझे भी मरना पड़ा, तो मैं मर जाऊँगी… लेकिन किसी और के सामने झुकने से बेहतर है कि हम दोनों एक साथ लड़ें।"**
दोनों के बीच एक सन्नाटा पसरा — भावनाओं से लबालब, लेकिन मज़बूत।
कुछ पल बाद गार्ड ने कहा,
**"समय समाप्त हुआ।"**
धारा उठी, आँखें पोंछीं और बोली —
**"मैं घर जा रही हूँ। सोचो मत… और घबराना मत। हम जीतेंगे।"**
विशाल उसे जाते हुए देखता रहा… जब तक उसकी पीठ दिखाई देती रही।
---
### **जेल का कोना – उसी रात**
धारा के जाने के बाद विशाल एक बार फिर अकेला था। लेकिन आज की तरह अकेला पहले कभी महसूस नहीं किया था।
उसकी नज़रें लोहे की जाली से बाहर देखती रहीं, और दिल में वही सवाल उभरता रहा —
**"क्या वाकई अब मैं फाँसी चढ़ जाऊँगा?"**
पसीना उसके माथे पर उभर आया। उसके ज़ेहन में आयूष का चेहरा घूमने लगा — वो मुस्कान, वो नज़र, वो पागलपन।
और तभी, दूसरी तरफ…
---
### **स्थान: आयूष खुराना का ऑफिस – रात 10:15PM**
आयूष के ऑफिस की बत्तियाँ अब भी जल रही थीं, लेकिन मीटिंग टेबल खाली थी।
वो अपने निजी केबिन में बैठा था — एक हाथ में व्हिस्की का ग्लास, दूसरी ओर उसकी सेक्रेटरी, **अन्वी**, उसकी गोद में बैठी थी। दोनों के बीच हँसी, छेड़छाड़ और शराब की गंध तैर रही थी।
**"तो… तुमने उस केस वाले विशाल को मिलने दिया?"** अन्वी ने पूछा।
आयूष ने सिर हिलाया —
**"मिलने ही नहीं दिया… उसे एक ऑफर भी दिया है।"**
**"कौन-सा ऑफर?"** उसने आँखें मटकाईं।
आयूष की मुस्कान अब शिकारी सी हो गई थी।
**"उसकी बीवी।"**
अन्वी चौंकी।
**"क्या?? तुम… सीरियस हो?"**
**"हाँ… और उस जैसी औरत को देख कर… मैं कैसे रोक पाता खुद को?"**
आयूष ने उसे खींच कर करीब किया।
**"तुम तो मुझे अपना मानते हो… फिर दूसरी क्यों?"**
**"क्योंकि, अन्वी…"** आयूष ने धीमे से कहा, **"कुछ रिश्ते दिल के लिए होते हैं, और कुछ शरीर के लिए। मैं दोनों में फर्क करना जानता हूँ।"**
अन्वी चुप हो गई। उसके चेहरे पर थोड़ी जलन थी, लेकिन वो जानती थी — आयूष को कोई रोक नहीं सकता।
---
### **विशाल की कोठरी – आधी रात**
विशाल को नींद नहीं आ रही थी।
उसने अपने कोने में बैठकर आँखें बंद कर ली थीं। हाथ काँप रहे थे। दिल धड़क रहा था — तेज़, बेकाबू।
हर बार जब धारा का चेहरा ज़ेहन में आता, वो खुद को ज़मीन में गाड़ देना चाहता।
**"मैं कैसे उसे उस दरिंदे से बचाऊँ?"**
**"क्या मेरे पास कोई रास्ता है?"**
**"या मुझे वही करना होगा, जो उसने कहा?"**
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**दर्द वही होता है जो दिल और आत्मा को एकसाथ काटे — और इस वक्त विशाल उस चौराहे पर था, जहाँ कोई रास्ता सही नहीं लगता… और हर रास्ता उसकी बीवी की इज़्ज़त को किसी न किसी तरह कुचलता है।**
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### **अगली सुबह – पुलिस स्टेशन का अहाता**
अभी सुबह के 6:45 बजे थे। लेकिन एक काली कार पहले से बाहर खड़ी थी।
उस कार से उतरा आयूष खुराना — एक हाथ में फोल्डर, दूसरे में मोबाइल।
उसने फोन उठाया और सिर्फ इतना कहा —
**"आज शाम तक उसका जवाब चाहिए… वरना मैं गवाह बना दूँगा… और फिर कोई सौदा नहीं बचेगा, सिर्फ सज़ा।"**
जेल की कोठरी में पसरा सन्नाटा आज कुछ अलग था। दीवारें भी जैसे भारी हो गई थीं। हर चीज़ में एक डर, एक बेचैनी समा गई थी।
अचानक दरवाज़ा खुला।
**"विशाल! कॉल है तुम्हारे लिए।"**
सिपाही ने झल्लाते हुए आवाज़ लगाई।
विशाल चौंककर उठा — अंदर ही अंदर जानता था, ये कॉल किसकी होगी।
उसे फ़ोन रूम में लाया गया — वहाँ एक पुराना सा लैंडलाइन पड़ा था, और दीवार पर टँगी घड़ी की टिक-टिक इस माहौल को और बोझिल बना रही थी।
फोन उठते ही दूसरी तरफ वही आवाज़ आई —
**"गुड मॉर्निंग, विशाल। आज का सूरज कुछ भारी लग रहा है, है न?"**
विशाल ने कोई जवाब नहीं दिया। उसकी साँसें तेज़ हो गईं।
**"मुझे खामोशी पसंद है… लेकिन जवाब न देना कभी-कभी कायरता भी कहलाता है।"**
**"तुम क्या चाहते हो, आयूष?"** विशाल ने दबी आवाज़ में पूछा।
आयूष की हँसी गूँजी — वो हँसी जो किसी शिकारी की जीत जैसी लगती थी।
**"मैं पहले ही बता चुका हूँ। तुम्हें सिर्फ 'हाँ' कहना है… और तुम्हारी ज़िंदगी फिर से पटरी पर आ जाएगी।"**
**"तुम इंसान नहीं हो।"**
**"मुझे फर्क नहीं पड़ता लोग क्या कहते हैं। मुझे बस नतीजे चाहिए। और अभी… मैं चाहता हूँ कि तुम्हारी बीवी… मेरी हो — सिर्फ एक महीने के लिए। हर रात… मेरी शर्तों पर।"**
विशाल की उंगलियाँ फोन पर कस गईं।
**"अगर मैंने मना किया तो?"**
**"तो शाम तक मैं कोर्ट में गवाह बन जाऊँगा। सारे सबूत, सारे बयान मेरे पास हैं। तुम्हें फाँसी हो जाएगी। और फिर…"**
वो रुककर मुस्कराया,
**"मरने के बाद तुम्हारी बीवी को कौन बचाएगा? वैसे भी… वो तो मुझे मिल ही जाएगी। चाहे तुम्हारे रहते, या मरने के बाद। फर्क बस वक्त का है।"**
विशाल की साँसें जैसे रुक गईं। उसे ऐसा महसूस हो रहा था कि उसके शरीर से जान खींची जा रही है। आँखों में धारा का चेहरा घूम रहा था — उसकी आँखें, उसके आँसू, उसका भरोसा।
**"तुम… उसे छूने के लायक भी नहीं हो आयूष।"**
**"फिर उसे मेरे पास मत आने दो। आसान है न? बस 'हाँ' कह दो। फिर मैं अपने वकील से कहूँगा केस छोड़ दे। प्रमोशन तुम्हारे हाथ में, और जेल… एक बुरे सपने की तरह बीत जाएगा।"**
विशाल चुप हो गया।
फोन की लाइन पर कुछ सेकंड की खामोशी थी। लेकिन उन कुछ सेकंडों में एक आदमी की आत्मा घुट रही थी।
**"क्या सोच रहे हो?"**
आयूष की आवाज़ में अब चुभन थी, **"मैं गिनती गिनने लगूँ क्या? पाँच… चार… तीन…"**
**"ठीक है!"**
विशाल की चीख निकली — गला भर आया था, आँखें लाल हो चुकी थीं।
**"ठीक है… मैं तैयार हूँ।"**
आयूष की हँसी जैसे किसी ज़ख्म पर नमक बनकर गिरी।
**"बहुत बढ़िया। बहुत ही समझदारी वाला फैसला लिया है तुमने। अब मैं इंतज़ाम करवा देता हूँ। मेरी टीम तुम्हारी बीवी से संपर्क करेगी… आराम से… सम्मान से…"**
**"उससे एक शब्द भी ऊँची आवाज़ में कहा… तो मैं तुम्हें ज़िंदा नहीं छोड़ूँगा।"** विशाल की आवाज़ काँप रही थी, लेकिन उसमें दर्द से ज़्यादा अब आग थी।
**"अभी के लिए… ज़िंदा तो तुम खुद भी नहीं हो। लेकिन शुक्रिया, मेरे लिए रास्ता आसान करने के लिए। और हाँ…"**
वो एक बार फिर रुक गया —
**"शुभकामनाएँ तुम्हारे आत्मग्लानि भरे जीवन के लिए।"**
**“धत्त तेरी…”** विशाल फोन पर कुछ और कह पाता, उससे पहले ही कॉल कट हो चुकी थी।
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### **विशाल की कोठरी – फोन के बाद**
वो वहीं कुर्सी पर बैठा रहा — ठंडा, सुन्न और टूटा हुआ।
उसने अपनी आँखें बंद कर लीं… लेकिन अब वहाँ अँधेरा नहीं था — वहाँ धारा थी, और उसकी बेबसी।
उसके ज़ेहन में एक ही सवाल घूम रहा था —
**"क्या मैंने सही किया? या मैं अब वही बन गया हूँ… जिससे धारा को बचाने की कसम खाई थी?"**
उसकी उंगलियाँ काँप रही थीं।
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### **और दूसरी तरफ…**
आयूष खुराना ने अपना फोन टेबल पर फेंका और कुर्सी पर पीछे झुक गया।
उसकी मुस्कान अब और भी चौड़ी थी।
उसने अन्वी की तरफ देखा और बोला —
**"अब असली खेल शुरू होगा।"**
### ** वो पहली रात — आयूष का बंगला, इंतज़ार और आगमन**
बंगले की दीवारों पर महँगे परफ्यूम की हल्की महक थी, पर्दे सुनहरे रेशम के थे और लिविंग रूम की हर चीज़ कुछ ज़्यादा ही करीने से सजी हुई थी — जैसे कोई गड़बड़ी ना हो, जैसे कोई निशान ना छूटे।
आयूष खुराना अकेला था, लेकिन बेचैन नहीं — वो **संतुष्ट** था।
उसने अपने गिलास में वाइन डाली, फिर एक लंबा सिप लिया और मद्धम संगीत चालू कर दिया।
**"वो आएगी… थोड़ी घबराई, थोड़ी टूटी हुई… और सबसे बढ़कर — सिर्फ मेरी शर्तों पर।"**
उसकी नज़र घड़ी की सुइयों पर टिकी थी, जैसे एक शिकार को झुकी गर्दन के साथ आते देखने की लालसा हो।
कमरे में एक लम्बी सायं सायं थी — फिर **गेट की घंटी बजी।**
वो तुरंत उठा, धीमे कदमों से दरवाज़े की ओर गया। जब दरवाज़ा खोला — वहाँ खड़ी थी **धारा।**
उसकी आँखें झुकी थीं। होंठों पर कोई लिपस्टिक नहीं थी, लेकिन चेहरे पर एक अजीब सी ठहराव वाली शांति थी… या शायद हार।
वो एक हल्के नीले रंग की सिल्क की साड़ी में थी, जिसके किनारे पर सफेद जरदोज़ी का काम था — जैसे किसी त्यौहार के लिए पहना जाता है, लेकिन चेहरा किसी मातम से ढका हुआ।
आयूष ने मुस्कुराकर दरवाज़ा पूरा खोला, **"मैं जानता था… तुम आओगी।"**
धारा ने कोई जवाब नहीं दिया। वो अंदर आई — एक बेजान परछाईं की तरह।
कमरे में दाखिल होते ही उसकी नज़र सोफे पर बिखरे गुलाब के फूलों, मेज़ पर रखे दो गिलासों, और पीछे लगी आयूष की बड़ी तस्वीर पर गई।
**"कितना कुछ सोचा है तुमने…"** उसकी आवाज़ में ज़रा सी भी भावनाएँ नहीं थीं।
आयूष मुस्कराया, **"तुम्हारे लिए ही तो… पहली रात है ये हमारी। यादगार होनी चाहिए।"**
धारा ने एक गहरी साँस ली और एक कोने में रखे दीवान की तरफ चली गई। उसके चलने में थकान थी, जैसे हर क़दम से कुछ गिर रहा हो — उम्मीद, आत्मसम्मान… या शायद सब कुछ।
**"तुम बैठ सकती हो, अगर चाहो तो।"**
**"खड़ी रहना ज़्यादा बेहतर होगा।"** उसने धीरे से जवाब दिया।
आयूष ने एक गिलास उसकी तरफ बढ़ाया, **"वाइन? मूड थोड़ा हल्का होगा।"**
**"मैं होश में रहना चाहती हूँ। ताकि हर लम्हा याद रहे… और कभी माफ़ ना कर सकूँ खुद को।"**
आयूष की हँसी हल्की थी, लेकिन ज़हर से भरी, **"तुम्हारी ये इमोशनल ड्रामा… मुझे और ज़्यादा जज़्बाती बना देता है।"**
धारा ने पहली बार उसकी आँखों में सीधा देखा — एकदम खाली नज़रों से।
**"तुम क्या चाहते हो आयूष? मेरा जिस्म? या वो गिल्ट जो तुम्हें ताक़त देता है?"**
उस सवाल पर आयूष कुछ पल को चुप हो गया — फिर धीरे से पास आया, **"दोनों। लेकिन तुम्हारे जिस्म से पहले… तुम्हारी आत्मा को तोड़ना चाहता हूँ।"**
**"तुम तोड़ चुके हो।"** धारा ने कह दिया, जैसे कोई अंतिम सत्य बोल रही हो।
उसने साड़ी का पल्लू हल्का सा संभाला और कमरे के बीच जाकर खड़ी हो गई — जैसे कोई अपना अंतिम युद्धभूमि खुद चुन रहा हो।
आयूष ने उसकी ओर बढ़ते हुए कहा, **"अब देर मत करो, धारा। रात लंबी है… और मैं हर पल का मज़ा लेना चाहता हूँ।"**
धारा की साँसें तेज़ थीं, लेकिन वो पीछे नहीं हटी। उसके चेहरे पर डर नहीं था — सिर्फ एक सख्त परछाईं, जैसे उसने खुद को कहीं छोड़ दिया हो… शायद उसी जेल के बाहर, जहाँ विशाल बैठा तन्हा रो रहा था।
उसने धीरे से कहा, **"मैं तैयार हूँ। जैसे तुमने कहा था। एक महीना… हर रात… तुम्हारी शर्तों पर।"**
आयूष पास आया, एक लट उसके कान के पीछे से हटाई और धीमे से फुसफुसाया —
**"अब हम दोस्त नहीं, किरदार हैं — एक कहानी के… जिसमें मैं जीतूंगा और तुम… हमेशा के लिए मेरी हो जाओगी।"**
धारा ने अपनी आँखें बंद कर लीं —
और वहीं…
### **वो पहली रात — आयूष का बंगला, कपड़े, बंद दरवाज़े और धारा का मौन**
डिनर टेबल पर खाने के बाद आयूष ने प्लेटें ज़ोर से सरकाईं, नैपकिन से होंठ पोंछे और उठते हुए बोला —
**"चलो धारा, असली रात अब शुरू होनी है।"**
धारा ने बिना कुछ कहे प्लेट की तरफ देखा, जैसे कुछ कौर अभी गले में ही फँसा हो। वो चुपचाप उठी और उसके पीछे चल पड़ी।
सीढ़ियाँ चढ़ते वक्त उसकी चूड़ियों की आवाज़ और हील्स की खटखट, बंगले की उदास दीवारों में गूंज रही थी — जैसे कोई अनजानी विदाई का संगीत।
कमरे का दरवाज़ा खुला — बड़ी सी खिड़की से चाँदनी अंदर झाँक रही थी। अंदर एक साइड में लगी **बड़ी वॉर्डरोब** को आयूष ने खोला, और गर्व से बोला —
**"ये सब तुम्हारे लिए है। पूरा महीना… हर दिन के लिए कुछ नया।"**
धारा ने नज़र उठाई — अलमारी में दर्जनों महंगे, डिज़ाइनर वेस्टर्न ड्रेसेज़ थीं। हॉट रेड, डीप ब्लैक, स्किन फिटेड साटन गाउन्स, नेट की ट्रांसपेरेंट नाइटीज़, और छोटे-छोटे बिकिनी स्टाइल नाइटसूट्स।
उसके होंठ कांप गए। उसने निगाहें फेर लीं।
**"कपड़े…?"** उसकी आवाज़ धीमी थी, **"इतनी तैयारी… पहले से ही?"**
आयूष हँसा — वो हँसी नहीं, काबू की घोषणा थी।
**"महीनों से सोच रहा था ये पल। जब तुम हार मानकर आओगी… और मैं तुम्हें अपनी शर्तों पर देखूंगा।"**
उसने एक **लाल सिल्क का शॉर्ट नाइटी** निकाला — हल्का ट्रांसपेरेंट, जिसमें सिर्फ ज़रूरत भर की परछाइयाँ छिपती थीं।
वो कपड़ा पकड़ाते हुए बोला, **"पहली रात के लिए, ये परफेक्ट है। पहनो… मैं इंतज़ार कर रहा हूँ।"**
धारा ने वो कपड़ा हाथ में लिया — जैसे किसी ने कोई लहराता शर्म पकड़ाकर उसे भी निर्वस्त्र कर दिया हो। उसकी आँखों में आँसू नहीं थे — बस एक ठंडी शर्म थी।
**"क्या मैं… कुछ और पहन सकती हूँ?"** उसने धीरे से पूछा।
आयूष उसकी आँखों में देखता रहा — फिर पास आकर बोला,
**"तुम्हारे सवाल अब मोल नहीं रखते, धारा। इस कमरे में, इस महीने… बस मेरी मर्ज़ी चलेगी।"**
वो पीछे हटा और पलंग पर बैठ गया, **"तुम्हें तो वैसे भी आदत डालनी है — सिर्फ मेरी पसंद की।"**
धारा ने अलमारी के दरवाज़े के पीछे जाकर कपड़े बदले। उसकी उंगलियाँ कांप रही थीं, आँखें बंद थीं, जैसे हर धागा उसके अस्तित्व से कुछ छीनता जा रहा हो।
जैसे ही वो नाइटी में बाहर आई, आयूष ने सीटी बजाई।
**"वाह… बिल्कुल वैसा ही जैसा मैंने कल्पना की थी। पर…"**
वो उठा और उसके चारों ओर घूमने लगा, **"अभी भी तुम्हारी चाल में संकोच है। एक महीने बाद देखना… यही चाल तुम्हारा हथियार बनेगी।"**
धारा खड़ी रही — हाथ सामने बाँधे हुए, जैसे खुद को ढँक रही हो। उसके भीतर जैसे कुछ टूटा नहीं था, बल्कि धीरे-धीरे गल रहा था।
**"क्यों कर रहे हो ये सब?"** उसकी आवाज़ एक फुसफुसाहट थी।
**"क्योंकि मैं कर सकता हूँ। और क्योंकि तुमने मुझे न कहा था कभी। अब हर न का बदला मैं हाँ से लूंगा — हर रात, हर सांस में।"**
आयूष ने उसका हाथ पकड़कर पलंग की ओर खींचा।
**"डरो मत। मज़ा भी आएगा। आखिर हम दोनों कलाकार हैं — और ये सीन… परफॉर्मेंस की मांग करता है।"**
धारा ने खुद को ज़रा सा पीछे खींचा, लेकिन फिर थम गई। उसकी आँखें अब भी खाली थीं, लेकिन उसमें एक आखिरी चमक थी — जो किसी चुप प्रतिशोध जैसी लग रही थी।
**"अगर तुम जीतना चाहते हो, तो मैं हारूँगी। लेकिन याद रखना… कुछ हारें ऐसी होती हैं, जो जीत से ज़्यादा गहराई छोड़ती हैं।"**
आयूष हँसने लगा — और उसी हँसी के बीच उसने कमरे का दरवाज़ा बंद किया।
दरवाज़े की कुंडी लगी…
चाँदनी अंदर आना बंद हो गई…
और कमरे में बस वो था —
**वो नंगी शर्तों की शुरुआत।**
दरवाज़े की कुंडी लग चुकी थी।
धारा की साँसें अब कमरे की दीवारों से टकरा रही थीं — जैसे हर धड़कन कुछ कहना चाहती थी, लेकिन लफ़्ज़ नहीं मिल रहे थे।
आयूष अब भी मुस्कुरा रहा था, एक कलाकार की तरह जो अपने सीन का पहला टेक शुरू करने जा रहा हो।
वो उसके करीब आया — इतना करीब कि उसकी साँसों की गरमी धारा के गले से टकराई।
उसके बालों की एक लट कान के पास से हटाई, और धीमे से फुसफुसाया:
"तुम्हें पता है... ये नाइटी सिर्फ तुम्हारे लिए नहीं, मेरे ख्वाबों के लिए बनाई गई है।"
धारा ने उसकी आँखों में देखा — वो चमक अब भी थी, लेकिन किसी इंसान की नहीं… किसी शिकारी की।
उसने खुद को थोड़ा पीछे खींचा, लेकिन फिर रुक गई। जैसे मान गई हो कि अब पीछे हटना कोई विकल्प नहीं।
आयूष ने उसका हाथ थामा — उँगलियाँ ठंडी थीं, लेकिन पकड़ में एक शर्त थी।
धीरे-धीरे, वो उसे पलंग की ओर ले गया।
बैठते हुए बोला,
"डरने की ज़रूरत नहीं। ये एक रोल है… और तुम तो अच्छी अदाकारा हो ना?"
धारा कुछ नहीं बोली। बस उसकी साँसें थोड़ी तेज़ हो गईं।
वो चुपचाप उसके सामने बैठ गई — हल्की-सी दूरी पर।
आयूष ने उसके चेहरे की तरफ झुकते हुए कहा:
"आँखें बंद करो। जो मैं कहूँ, उसे महसूस करो। ये रात, सिर्फ एहसासों की है।"
धारा ने अपनी पलकें मूँद लीं। उसकी उँगलियाँ अब भी आपस में गुथी हुई थीं।
आयूष ने धीरे से उसकी कलाई पर हाथ रखा — बहुत धीमे, जैसे कोई नया वाद्ययंत्र छू रहा हो।
उसके स्पर्श में गर्मी थी — और नियंत्रण भी।
लेकिन धारा अब भी पिघल नहीं रही थी — बस ठहर रही थी।
"तुम्हें पता है," आयूष ने कहा, "तुम्हारी खामोशी भी सेक्सी है। जैसे हर नज़ाकत, हर दूरी… मेरे करीब आने को मचल रही हो।"
उसने धीरे से धारा की गर्दन के नीचे उंगलियाँ फिराईं — और साटन की पट्टी को हल्का सा पीछे सरकाया।
कंधा उजागर हुआ — लेकिन धारा का चेहरा अब भी शांत था।
"तुम बहुत खूबसूरत हो…" उसकी आवाज़ थोड़ी मुलायम हो गई थी,
"लेकिन तुम्हें क्या लगता है — ये सब मैं सिर्फ दिखावे के लिए कर रहा हूँ?"
धारा ने पहली बार उसकी ओर देखा —
एक लंबी, स्थिर नज़र… जिसमें दर्द नहीं था, बल्कि स्वीकार का एक अजीब सा शांति थी।
"नहीं," वो बोली, "मुझे लगता है तुम ये सब इसलिए कर रहे हो… क्योंकि तुम्हें लगता है कि तुम्हारा हक है।"
आयूष कुछ पल उसे देखता रहा — फिर हँसा, लेकिन इस बार उस हँसी में थोड़ा रुकावट थी।
जैसे धारा की ये शांति कहीं उसे अंदर से परेशान कर रही थी।
"हक नहीं… जुनून," उसने धीरे से कहा।
अब वो उसके और पास आया, उसके चेहरे के बिल्कुल करीब।
उसके गाल पर एक हल्का स्पर्श, और होंठों के पास आकर थम गया।
"इजाज़त नहीं चाहिए मुझे। मुझे सिर्फ तस्दीक चाहिए — कि तुम मेरी हो।"
धारा ने उसकी आँखों में देखा —
"जिस चीज़ की तस्दीक ज़ोर से करनी पड़े… वो कभी तुम्हारी होती नहीं, आयूष।"
ये सुनते ही आयूष की उंगलियाँ थोड़ी सख़्त हो गईं। उसने धारा की ठुड्डी को ऊपर किया, और धीरे से कहा:
"आज नहीं तो कल… ये तस्दीक तुम खुद करोगी।"
लेकिन जैसे ही वो उसके होंठों तक पहुँचा, धारा ने हल्के से उसका हाथ थाम लिया —
एक पल के लिए सब थम गया।
"आज मैं चुप हूँ… मगर ये चुप्पी मेरी हार नहीं है। ये बस एक ठहराव है — इंतज़ार उस लम्हे का, जब तुमसे इसका जवाब माँगूंगी… तुम्हारे ही अंदाज़ में।"
आयूष उसे देखता रहा — और फिर धीरे-धीरे उसकी पकड़ ढीली पड़ गई।
उसने पलंग की ओर इशारा किया:
"आराम करो। शो शुरू हो चुका है… लेकिन क्लाइमैक्स अभी दूर है।"
धारा चुपचाप पलंग के कोने पर बैठ गई, और आँखें बंद कर लीं।
कमरे में अब बस धीमी साँसों की आवाज़ थी — और चाँदनी की जगह एक टेबल लैम्प की हल्की रोशनी।
पर उस रोशनी में अब सिर्फ दो जिस्म नहीं थे —
एक जंग थी, जो बिना आवाज़ लड़ी जा रही थी।
और आयूष को शायद पहली बार एहसास हुआ था…
कि ये सीन जितना आसान उसने समझा था,
उतना नहीं था।
धारा अब भी पलंग के कोने पर बैठी थी — उसकी पीठ सीधी, लेकिन आँखें भारी।
उसने घुटनों को अपने सीने से लगाकर खुद को बाँध लिया, जैसे खुद में ही शरण ढूंढ रही हो।
आयूष उसे एक पल देखता रहा — फिर मुस्कराया, जैसे खेल अब शुरू हुआ हो।
वो पास आया, उसके बालों को उँगलियों से सँवारा, और धीमे से कान में कहा —
"इस चुप्पी में भी बहुत कुछ है… और मैं सब पढ़ लूंगा, वक्त के साथ।"
धारा की पलकों ने ज़रा सा काँपकर जवाब दिया — एक खामोश इन्कार… या शायद एक चुनौती।
धारा आयुष से बेहद नफरत करती थी लेकिन जता नहीं सकती थी , ये बात उसे अंदर से तोड रही थी ,
वो जानती थी कि उसके चेहरे पर अगर एक भी शिकन आई, तो आयूष समझ जाएगा कि उसकी चुप्पी के पीछे कितनी आग दबी है।
हर पल वो खुद को संयम की डोर से बाँध रही थी — ताकि उसका गुस्सा उसके इज़्ज़त बन कर जले नहीं।
लेकिन अंदर कुछ दरक रहा था — एक ऐसी दीवार, जो रोज़-रोज़ उसकी नफ़रत के बोझ से थकती जा रही थी।
आयूष की हर मुस्कान, हर छुअन, उसे उसकी मजबूरी की याद दिला जाती थी।
और आज… पहली बार धारा को लगा, कि ये जंग उसे तोड़ने के लिए नहीं, बल्कि बदलने के लिए बनाई गई है।
उसने आँखें मूँद लीं, लेकिन भीतर की आवाज़ें अब और तेज़ होने लगी थीं — जैसे हर याद उसे झकझोर रही हो।
"नफ़रत जताने से नहीं, सहने से ज़्यादा गहरी होती है," उसने मन ही मन सोचा।
हर बार आयूष के पास होने से पहले वो खुद से थोड़ी और दूर हो जाती थी।
पर आज, उस दूरी में ही उसे अपनी ताक़त का पहला सिरा मिल रहा था — चुप्पी के परे एक नई धारा जन्म ले रही थी।
गाइज कहानी अच्छी लग रही होतो कमेंट कर दिया करो ,