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Fanah❤️‍🔥: Ek Ishq, Ek Ibadat

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Rehnuma khan

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कुछ मोहब्बतें इबादत बन जाती हैं… और कुछ इबादतें फ़नाह! जब मोहब्बत रूह में उतर जाए, तो वो सिर्फ़ याद नहीं रहती… वो एक क़िस्सा बन जाती है, अधूरा, मगर अमर। इलाहाबाद की शेख हवेली की दीवारों के पीछे छुपी है एक बेमिसाल दास्तान, जहाँ अतीत की ख़ामोशिय...

Total Chapters (4)

Page 1 of 1

  • 1. Fanah❤️‍🔥: Ek Ishq, Ek Ibadat - Chapter 1

    Words: 1784

    Estimated Reading Time: 11 min

    यह कहानी पूरी तरह लेखक की मौलिक रचना है।

    इसमें मौजूद पात्र, घटनाएँ, स्थान और संवाद काल्पनिक हैं, और इनका किसी व्यक्ति, संस्था या घटना से कोई वास्तविक संबंध नहीं है। इस कहानी के सभी अधिकार लेखिका रहनुमा खान (Rehnuma Khan) के पास सुरक्षित हैं। बिना अनुमति किसी भी भाग की नकल, पुनः प्रकाशन या किसी भी रूप में उपयोग कॉपीराइट उल्लंघन माना जाएगा। {चलिए शुरू करते हैं तेरे इश्क में फना: एक इश्क एक इबादत भाग-1}

    [इलाहाबाद  | रात 11:47 PM]

    बाहर आसमान में बिजली कौंध रही थी। बारिश रुक-रुक कर टपक रही थी, जैसे किसी ने पुराने ग़मों की चादर ओढ़ रखी हो। हवेली की पुरानी लाइब्रेरी में हल्की पीली रौशनी जल रही थी, जो बमुश्किल पुराने लकड़ी के रैक और दीवारों तक पहुँच रही थी। खिड़की आधी खुली थी… पर्दे हवा में लहराकर दीवार से टकरा रहे थे।

    अरमान उम्र 21, तेज़ दिमाग़ और खामोश फितरत वाला,, एक अलमारी से अब्बू के कुछ ज़रूरी डॉक्यूमेंट्स निकाल रहा था।

    तभी एक कोने में कुछ सरकता है, जैसे किसी भूली चीज़ ने अपनी मौजूदगी जताई हो।

    अलमारी के सबसे नीचे कपड़ों के नीचे ढका हुआ एक छोटा संदूक़ पड़ा था। धूल से भरा, ज़ंग लगी कुंडी वाला… वो संदूक़ जैसे किसी ने जान-बूझकर छुपा कर रखा हो ना देखे जाने के लिए…ना खोले जाने के लिए।

    (अरमान धीरे से बुदबुदाते हुए) "ये क्या है…?"

    अरमान उसे खींचता है, नीचे रखता है…और कुंडी खोलते वक़्त एक अजीब सी सिहरन उसके हाथों में दौड़ जाती है,जैसे वक़्त ने खुद उस संदूक़ को छूने से मना किया हो।

    संदूक़ खुलता है। अंदर एक पुरानी, भारी, सुर्ख़ लाल रंग की डायरी, एक जोड़ी सिल्वर चूड़ियाँ,। एक मर्दों की घड़ी, और दो पुराने से फोटो रखे थे।

    पहले फ़ोटो में एक लड़की थी सफ़ेद सूट, लाल दुपट्टा, कानों में झुमके पहने उसके चेहरे पर ऐसी मुस्कान थी… जैसे ज़िंदगी में उसने कोई ग़म न देखा हो।

    उसके साथ एक लड़के की भी तस्वीर थी, वो उसमें मुस्कुरा नहीं रहा था,लेकिन उसकी आँखें जैसे चीख़-चीख़ कर कुछ कहना चाहती थीं।

    (अरमान – धीरे से) "ये... ये तो खाला जान हैं… और ये कौन हैं दूसरी तस्वीर में?"

    उसे महसूस नहीं होता कि वो कितनी देर से उन्हीं तस्वीरों को निहार रहा है।

    वो डायरी खोलता है…  डायरी का पहला पन्ना

    दिनांक: 12 नवंबर 2000

    "मुझे नहीं पता ये सब मैं क्यों लिख रही हूँ… शायद इसलिए कि मेरी रूह अब इस बोझ को नहीं सह पा रही।"मैं सोचती थी मेरी ज़िंदगी एक सादी सी किताब है  जिसमें मोहब्बत का कोई पन्ना लिखा ही नहीं जाना था।

    पर फिर... जैसे किसी ने उस सफ़ेद काग़ज़ पर लाल स्याही से एक तूफ़ान उतार दिया।"वो तूफ़ान अबीर ज़ायदान था…जिसने आते ही सबकुछ उलट दिया।"

    "और अजीब बात ये है… कि मुझे पता ही नहीं चला कब मैं उसकी तरफ़ खिंचती चली गई। कब वो मेरा डर बना,

    और कब मेरी दुआ..."मैंने तो सिर्फ़ जि़न्दगी जीनी चाही थी…पर अबीर को चाहकर मैं खुद से ही दूर होती चली गई।"

    "कुछ मोहब्बतें इबादत बन जाती हैं… और कुछ इबादतें फ़नाह।”

       🖋— हया शेख़

    अरमान की उँगलियाँ काँपती हैं। उसके अंदर कुछ टूटता है, जैसे किसी और की कहानी उसकी नसों में उतर रही हो। तभी पीछे से एक आवाज़ आती है, मलीहा की।

    (मलीहा – सख़्त और काँपती आवाज़ में) "अरमान! वो डायरी वहीं रख दो इन चीज़ों को दोबारा मत छूना।

    ये सब दफन हो चुके हैं।”"

    अरमान चौंककर पीछे देखता है। इसमें खाला जान का ज़िक्र क्यों है? “किसकी चीज़ें हैं ये? ये तस्वीर… ये डायरी… ये सब क्या है, अम्मी?”

    मलीहा आगे बढ़ी। उसकी आवाज़ काँप रही थी… पर आँखों में सख़्ती थी।

    मलीहा:  “कुछ कहानियाँ किताबों में नहीं मिलतीं…

    और जो मिल जाएं, वो हमेशा पढ़ने लायक नहीं होतीं।”

    अरमान: “पर जानना ज़रूरी है…आपने हमें कभी बताया ही नहीं कि खाला कौन थीं, कैसी थीं और ये तस्वीर वाला लड़का कौन है??

    मलीहा उसकी तरफ़ बढ़ी डायरी छीनने लगी। मगर अरमान पीछे हट गया।

    अरमान (गुस्से में): “ये मेरा भी हक़ है! क्या मैं नहीं जान सकता कि मेरे सवालों के पीछे कौन सी अधूरी कहानी छुपी है?”

    मलीहा रुक गई।

    हवा अब खिड़कियों को ज़ोर से हिला रही थी। पर्दे दीवार से टकरा रहे थे। कमरे में बस एक ही बल्ब की पीली रौशनी थी जिसमें मलीहा का चेहरा थका हुआ, बुझा हुआ सा लग रहा था।

    अचानक, मलीहा झुकती है, और अरमान के हाथ से डायरी नहीं लेती बल्कि उसका हाथ पकड़ लेती है।

    “आ जा बेटा। अगर आज तूने दस्तक दी है… तो दरवाज़ा खोलना पड़ेगा।” वो दोनों मिलकर संदूक उठाते हैं।

    मलीहा उसे लाइब्रेरी के बीच रखी टेबल पर रख देती है।

    सामने दो कुर्सियाँ थीं मलीहा एक पर बैठती है,अरमान दूसरी पर। सामने टेबल पर वो पुरानी डायरी रखी थी। साथ में दोनों तस्वीर, घड़ी, पायल, अंगूठी सबकुछ।

    मलीहा (धीरे से, थकी आवाज़ में): “इस संदूक में एक लड़की की मोहब्बत है, एक लड़के का गुनाह,और एक ऐसे इश्क़ की राख, जो कभी बुझी नहीं।”

    अरमान (धीरे से):  “आप खाला के बारे में बता रही हैं?”

    मलीहा (सिर हिलाकर): “हाँ… हया शेख। मेरी बड़ी बहन… और इस दुनिया की सबसे बेबाक, सबसे बेगुनाह मोहब्बत।”

    अरमान कुछ नहीं कहता। वो धीरे से डायरी का पहला पन्ना पलटता है। डायरी का पन्ना खुलता है। बाहर बारिश तेज़ हो गई है। पर्दे हवा से उठकर बिखर रहे हैं…और एक रूहानी सी आवाज़ आती है,, हया की लिखावट में:

    [इलाहाबाद – शेख हवेली | सुबह 8:10 AM]

    "तारीख़ 14 जून

    इलाहाबाद की सुबहें बहुत खूबसूरत होती हैं। लेकिन कुछ चुप्पियाँ… इन हवाओं से भी भारी होती हैं। सूरज की रौशनी पर्दों से छनकर जब चेहरे पर पड़ी तो ऐसा लगा, जैसे वक़्त ने मेरे नाम का कोई खत भेजा हो।”मगर मुझे क्या पता था, कि आज का दिन मेरी ज़िंदगी में ऐसा मोड़ लाएगा जिससे सब खत्म हो जाएगा।

    फ्लैशबैक 25 साल पहले

    मलीहा (दरवाज़ा खटखटाते हुए): अप्पी! उठो ना… कॉलेज के लिए लेट होना है क्या !

    लड़की (तकिए में मुँह दबाकर): कॉलेज रहेगा… मैं नहीं। बता देना आज मैं स्पिरिचुअल ब्रेक पर हूं।

    मलीहा (हँसती है): बड़ी आई ब्रेक पर जाने वाली। अब्बू को बता दूं?

    लड़की (धीरे से मुस्कराते हुए): बता देना। और हाँ… बोलना अगर आज फिर उबला अंडा आया, तो मैं निकाह के लिए ‘हाँ’ कह दूँगी। (वो लड़की धीरे से उठती है… बाल बिखरे, आँखों में नींद, और होंठों पर आधी नींद में डूबी मुस्कान मगर आँखों में पूरी दुनिया की जागती आग।)

    (ये हैं हमारी कहानी की नायिका – हया शेख उम्र 20 साल रंग दूध-सा गोरा, बाल लंबे और लहराते, नज़रों में वो गहराई… कि कोई एक बार देखे, तो खुद को भूल जाए। हया सिर्फ़ एक नाम नहीं,एक सोच, एक बेबाक एहसास है , जो ना किसी डर से झुकता है, ना किसी मोहब्बत में घुलता है। इलाहाबाद की गलियों में पली-बढ़ी, मगर ख्वाब क़ायनात से भी बड़े रखती है। )

    इनका एक ही कहना है,, "मैं किसी की परछाईं नहीं बनूंगी… किसी की मुकम्मल कहानी बनूंगी"

    वहीं दूसरी ओर धूल से भरी सड़क पर एक ब्लैक SUV रुकती है… शीशे धीमे-धीमे नीचे होते हैं ...

    ड्राइवर: सर, हवेली तैयार है। सब क्लीन करवा दिया है।

    (गाड़ी से उतरते हुए वो आदमी धूप की ओर चेहरा मोड़ता है। तेज़ आँखें, सीधा चलने वाला, साइलेंस में डूबा।)

    आदमी: धूल सिर्फ हवेली में नहीं… रूहों पर भी है।

    ड्राइवर: आप इस शहर में कितने दिन रुकेंगे?

    वो मुस्कुराता है, बहुत धीमे से: जितने में राज़ उधेड़ दूं…

    {ये हैं हमारी कहानी के नायक अबीर ज़ायदान।

    उम्र 26 साल। चेहरा शांत, पर आँखों में एक ऐसा तूफ़ान

    जिससे नज़र मिलाना तो दूर, खुद से नज़र चुरानी पड़े।

    गहरी, ठंडी आँखें… जैसे हर राज़ उसमें समा गया हो।

    हर कदम नपा-तुला, हर खामोशी में एक मक़सद।

    वो मुस्कराता नहीं, क्योंकि वो मोहब्बत में नहीं मक़सद में जीता है। वो लौटा है इलाहाबाद की उन्हीं सड़कों में, जहां कभी उसके अपने दफन हुए थे। अब वो सवाल नहीं पूछता… सीधे हिसाब करता है।}

    शेख हवेली –

    सुबह 9 :15 PM | ड्राइंग रूम

    अम्मी (हया से): आज सलीम साहब का बेटा आ रहा है। पढ़ा लिखा है, शरीफ भी है।

    हया: और बोरिंग भी? अम्मी, मैं भी पढ़ी-लिखी हूं… इंट्रेस्टिंग हूं। मैच चाहिए, मोहब्बत नहीं तो फिर नसीहत भी मत देना।

    अब्बू (अख़बार से नज़र उठाते हुए): तेरी पसंद समझने की कोशिश करते हैं बेटा…पर तू कोई इम्तिहान बन गई है।

    हया (मुस्कुरा कर): इम्तिहान वही होते हैं जिनमें कुछ सीखने को मिले। मैं बस अपनी सिलेबस से बाहर नहीं जाती।

    इलाहाबाद {कॉलेज में}

    सफेद सूट, लाल दुपट्टा हवा में लहरा रहा था… स्कूटी से उतरती लड़की को देख लोग रुक जाते हैं।

    लड़का 1 (दोस्त से): भाई, हया शेख। आज फिर क़त्ल करने आई है।

    लड़का 2: उसकी चाल में कहानी है… आँखों में इश्तिहार।

    हया (खुदसे ही मन में): कभी कभी लगता है ये कॉलेज मुझे नहीं… मेरी मुस्कान को ज़्यादा नोटिस करता है।

    इतना कहकर हया चारों ओर पड़ती निगाहों को जैसे चीरती हुई तेज़ी से अपने स्टेप्स बढ़ाती है। हवा में उसका लाल दुपट्टा लहरा रहा था…

    इरम (हया की एक मात्र सहेली) दूर से आती हुई हया को देखती है, जो थोड़ा चिढ़ी हुई लग रही थी।

    इरम (मुस्कराकर, थोड़ा नाटकीय अंदाज़ में हाथ फैलाकर):  "आइये, आइये! हमारी मोहतरमा फिर से रिश्तों के बंधन में उलझी हुई नज़र आ रही हैं…क्या हुआ मेरी जान? फिर से कोई रिश्ता आ गया क्या?"

    हया (आकर बेंच पर बैठते हुए, मुँह बनाकर): "क्या बताऊँ यार… आज शाम को फिर वही ढकोसला!

    अम्मी-अब्बू को कितनी बार कहा है, मैं शादी उसी से करूंगी, जो मेरे लिए 'मैच' वाला हो… मेरे हिसाब का हो।" 🙄

    इरम (हँसते हुए, मज़ाकिया लहजे में):  "ओ हो हो… तू ठहरी फिक्शनल कैरेक्टर्स की दीवानी। अब असल ज़िंदगी में क्या कोई माफ़िया लुक, हैंडसम, चार्मिंग लड़का मिल सकता है तुझे ?" 🤣🤣

    हया (भौहें चढ़ाकर, नकली गुस्से में): "तू ना... चुप कर, समझी! दाँत तोड़ दूंगी तेरे!" (फिर खुद भी हँस पड़ती है)

    इरम (धीरे से मुस्कुराकर):  "अच्छा बाबा सॉरी… अब बता, कौन बेचारा आने वाला है, आज?"

    हया (उठकर खड़ी होती है, हाथ नचाते हुए): "वही नाम वाले लड़के… क्या नाम है उसका… हाँ, फुरकान… या रेहान… अब कौन करे ऐसे बोरिंग चिपकू लड़के से शादी?

    जब दिल ही न मिले तो रिश्ता क्या काम का?"

    इरम हँसते हुए उसे देखती है…और हया झल्लाती हुई कैंटीन से निकल जाती है, पर मुस्कान उसकी नज़रों में तैर जाती है।

    जारी है।

    आप सभी से एक छोटी सी गुज़ारिश है…अगर आपको ये भाग पसंद आया हो, तो कमेंट करके ज़रूर बताइए:

    हया, अबीर और अरमान मलीहा किसका किरदार सबसे ज़्यादा दिल छू गया? आपको क्या लगता है अबीर क्यों लौटा है इतने सालों बाद?  क्या ये कहानी सिर्फ अतीत है… या किसी अधूरे इश्क़ की नई शुरुआत?

    आपके कमेंट्स मुझे अगला भाग लिखने की हिम्मत देंगे।

    तो देर मत कीजिए ❤️ कमेंट, शेयर और प्यार ज़रूर दीजिए!

    लेखिका: Rehnuma Khan (Rk)

  • 2. Fanah❤️‍🔥: Ek Ishq, Ek Ibadat - Chapter 2

    Words: 1353

    Estimated Reading Time: 9 min

    फना❤️‍🔥: एक इश्क एक इबादत – भाग 1 (Recap)

    हवा, बारिश और एक पुरानी हवेली के सन्नाटे के बीच…अरमान को मिलता है, एक रहस्यमय संदूक़ जिसमें बंद है हया शेख़ की मोहब्बत, कुछ अधूरे पन्ने, और एक ऐसे इश्क़ की राख, जो कभी बुझी ही नहीं।

    अब आगे।

    मलीहा की उंगलियाँ डायरी के पन्नों को छू रही थीं…हर लफ़्ज़ जैसे ज़ख्म सा फिर से खुल रहा था। अरमान उसकी तरफ़ देखता है। एक सवाल उसकी आँखों में होता है, मगर वो पूछता नहीं।

    मलीहा (धीरे से बुदबुदाती है):  "पता नहीं क्यों… हया अप्पी आज बहुत याद आ रही हैं…" (उसकी आवाज़ भर्रा जाती है, मगर वो मुस्कराने की कोशिश करती है)

    अरमान (धीरे से):  "कहानी अब आपकी यादों से नहीं… आपकी रूह से निकल रही है, अम्मी…"(डायरी के पन्ने हवा से फिर से हिलने लगते हैं…) 

    अगले पन्ने की हेडिंग आती है: "जब पहली बार हमारी नज़रें टकराईं थी…”

    [इलाहाबाद – | दोपहर 2:45 PM]

    सर की क्लास खत्म होते ही हया, अपनी चितपरिचित स्टाइल में किताबें समेटती है, और इरम को खींचती हुई बाहर निकलती है। हया (आँखें घुमाते हुए): "चलो अब निकला जाए वरना फिर वही लेक्चर  ‘हया,  तुम बहुत चुप रहने लगी हो…'"

    इरम (मुस्कुराते हुए):  "और तू चुप? हया शेख और चुप? किसी दिन सूरज पश्चिम से उगेगा ना तब भी ऐसा नहीं होगा!"

    दोनों खिलखिलाती हुई कॉलेज की पार्किंग में पहुंचती हैं। हया स्कूटी स्टार्ट करती है, इरम पीछे बैठती है।

    [इलाहाबाद का पुराना चौक | 3:05 PM]

    स्कूटी एक पुरानी सी किताबों की दुकान के बाहर रुकती है। ऊपर बोर्ड है  “सरोज बुक्स एंड स्टेशनरी”  इरम (बोर होते हुए): "अब कितनी किताबें पढ़ेगी? छोड़ भी… मुझे घर जाना है, अम्मी इंतज़ार कर रही होंगी।"

    हया (आँखें दिखाते हुए): "5 मिनट… सिर्फ़ 5 मिनट! तेरी इज्ज़त की क़सम।"

    इरम (हँसते हुए):  "मेरी इज़्ज़त तो तू स्कूटी पर ही उड़ा देती है रोज़…... जा, मैं बाहर खड़ी हूं।"

    हया मुस्कुराकर स्कूटी से उतरती है, और दुकान में दाखिल होती है। अंदर पुरानी किताबों की खुशबू थी और एक अजीब सी सुकून भरी खामोशी।

    [उसी वक़्त – दुकान के दूसरे कोने से प्रवेश करता है… अबीर ज़ायदान]

    काले कुर्ते में, … चेहरा शांत पर आँखें तेज़। वो दूसरी तरफ से बुक्स देख रहा था… और जैसे ही मुड़ता है उसकी टक्कर होती है।

    बुक्स हया के हाथ से गिर जाती हैं, और वो खुद… अबीर की बाहों में लड़ खड़ा कर गिर जाती है!

    हया उसकी बाहों में, सांसें रुकी हुई, और उसकी आंखें अबीर की आंखों से टकराती हैं।

    दोनों कुछ सेकंड यूं ही ठहर जाते हैं | हया के होंठ आधे खुले, और अबीर की नजरें जैसे उसकी रूह तक उतर रही हों।

    इरम बाहर से झांकते हुए (धीरे से): "हम्ममम....… ओ माय अल्लाह....… फिल्म शुरू!"

    दुकान की घंटी बजती है, हवा चलती है… अबीर होश में आता है, और धीरे से हया को सीधा करता है।

    हया (झल्लाकर): "आंखें नहीं हैं आपकी? देखकर नहीं चल सकते?"

    अबीर (चुपचाप एक सेकंड उसे देखता है)… फिर मुड़ने लगता है।

    हया (पीछे से):  "शायद माफ़ी मांगना आपकी लिस्ट में नहीं है…"

    अबीर रुकता है।

    धीरे-धीरे उसके कदम पीछे लौटते हैं। वो हया के पास आता है… उसके बिलकुल पास आकर, हया की दोनों बाहों को थाम लेता है। उसकी आँखों में गहराई उतर चुकी है… तीखी, मगर थमी हुई। हया हड़बड़ाकर उसकी आँखों में देखती है… मगर नजरें नहीं झुकाती।

    अबीर (धीमी, मगर गहरी आवाज़ में):  "देखो… मेरी आंखों में नहीं… तो कम से कम रास्ते में खड़ी रुकावटें तो देख लिया करो। और हां, माफ़ी तब मांगी जाती है,,, जब कोई गलती हो… तक़दीर से टकराने को गलती नहीं कहते… मिस..."

    हया एक पल को स्तब्ध रह जाती है।… उसकी जुबान हलक में अटक जाती है। इरम बाहर से फटी आंखों से दोनों को देखती है, और बुदबुदाती है: "उफ़्फ़… बंदा लाइन से बाहर ही नहीं, डायरेक्ट स्क्रीन फाड़ रहा है!"

    धीरे-धीरे अबीर ने अपनी पकड़ ढीली की… और एक हल्के से झटके में हया को पीछे की रैक की तरफ कर दिया मगर आहिस्ता से, जैसे कह रहा हो “देखो, रास्ता भी दिखा रहा हूँ।”

    हया का दिल तेजी से धड़क रहा होता है… बहुत तेज़। वो कुछ कहने की कोशिश करती है, मगर ज़ुबान थम जाती है।

    अबीर मुड़ता है और तेज़ क़दमों से बाहर निकलने लगता है... मगर दरवाज़े तक पहुँचते-पहुँचते एक आखिरी नज़र हया पर डालता है,,, गहरी, ठहरी हुई, कुछ अधूरी सी कहती हुई... और फिर भीड़ में कहीं ग़ायब हो जाता है।"

    हया के चेहरे पर गुस्सा, हैरानी, और कुछ अजीब सा डर… सब एक साथ होते हैं।

    तभी ऊपर रैक से एक मोटी किताब गिरती है, और उसके मुंह पर लगती है

    इरम (हँसते हुए):  "लो..… तेरी किस्मत ने भी थप्पड़ मार दिया।"

    हया (गुस्से में):  "चुप कर वरना ये किताब तुझे उड़ती हुई मिलेगी।"

    बैक टू प्रेजेंट।

    अरमान डायरी का अगला पन्ना पढ़ रहा है। मलीहा खामोश बैठी है, उसकी आंखों में नमी है। डायरी में लिखा था "उसे देखा… तो दिल ने कहा ना जाने कौन है।… मगर हर धड़कन उससे रिश्ता जोड़ने को बेताब है। एक टकराहट… और ज़िंदगी की रफ्तार बदल गई। शायद वो मेरा अंजाम था… और मुझे उसके आग़ाज़ में ही जल जाना था।"

    मलीहा (धीरे से चुप्पी तोड़ते हुए): "कुछ मुलाक़ातें नसीब की तरह आती हैं… और कुछ, क़यामत की तरह रहती हैं…"

    अरमान: " क्या हुआ था अम्मी? क्या अबीर और हया की मुलाक़ात का असर वहीं से शुरू हो गया था?"

    मलीहा: "शुरू तो हुआ था… मगर हया अप्पी को अभी नहीं पता था कि वो जिसकी आँखों में देखकर काँप गई थी… वो उसकी किस्मत से टकराने वाला है। उस दिन के बाद… घर लौटकर वो वही थी जिद्दी, बेबाक… मगर अब उनके दिल में एक अजनबी का चेहरा तैरने लगा था।"

    अरमान धीरे से डायरी का अगला पन्ना पलटता है।

    पुराने कागज़ की सरसराहट के साथ, एक और अधूरी दास्तां सामने आती है।

    पन्ने पर ऊपर लिखा था,,,

    "रिश्ता… जो दिल से नहीं, दस्तूर से आया था"

    [शेख हवेली | शाम 5:50 PM | फ्लैशबैक – जब हया बुक स्टोर से लौटी थी]

    दरवाज़ा खुलता है, हया स्कूटी से सीधा घर लौटी है। बाल थोड़े बिखरे, होंठों पर गुस्से की लकीर, और आँखों में अबीर की आँखों की परछाईं। चेहरा थोड़ा गरमाया हुआ है, शायद किताबों की दुकान की वो टक्कर अब तक दिमाग में घूम रही है।

    हया जैसे ही घर के अंदर दाखिल होती है, कमरे में मौजूद सभी को अदब से सलाम करती है।

    हया (धीरे, मगर सलीके से): "अस्सलामु अलैकुम सभी को…"

    अम्मी, मलीहा, एक साथ मुड़कर उसे देखते हैं। माहौल थोड़ी देर के लिए शांत हो जाता है… फिर

    अम्मी (मुस्कुराकर, नर्म आवाज़ में): "वअलैकुम अस्सलाम… जा बेटा, जल्दी तैयार हो जा… रिश्ते वाले आ गए हैं।"

    हया (अचानक ठिठकते हुए, भौंचक्के और चिढ़े हुए अंदाज़ में): "क्या..आ....आ? अम्मी! फिर से? हर बार की तरह ये सरप्राइस अटैक क्यों...? मैंने सुबह भी कहा था ना आपसे फिर भी....!"

    मलीहा (सोफे से हँसते हुए, चिढ़ाती है):"अब कैसे बचोगी अप्पी जान… नई मुसीबत से?"

    हया (एक हाथ कमर पर रखते हुए, पूरे स्टाइल में, धीमे लेकिन तेज़ अंदाज़ में): "मेरा नाम हया शेख है… और हया शेख हर सिचुएशन को हैंडल करना अच्छे से जानती है!"

    मलीहा (चहकते हुए, आँखें चमकाकर): "मतलब अब क्या नया बखेड़ा करने वाली हैं आप, अप्पी?"

    हया (आँखें घुमाकर, शरारती मुस्कान के साथ): "कुछ नहीं… बस थोड़ा सा… शॉक थैरेपी!"

    अम्मी (हल्के गुस्से में मगर ममता भरी आवाज़ में): "हया! तहज़ीब से पेश आओ। लड़के वाले पहली बार आए हैं। ज़रा संभलकर बात करना।"

    हया मुस्कुराती है, और बिना कुछ कहे सीधा अपने कमरे की ओर चली जाती है।

    मलीहा और हया की अम्मी यानी (राफिया शेख) अपना सर पीट लेती हैं।

    जारी है।

    क्या आपको भी अबीर और हया की टक्कर में कोई खास कनेक्शन महसूस हुआ? क्या आपको लगता है कि हया का दिल अबीर के लिए सच में कुछ महसूस करने लगा है या ये सिर्फ़ एक झटका था?

    कमेंट करके बताइए आपको ये एपिसोड कैसा लगा?

    क्या आप भी हया-अबीर के अगले आमने-सामने का इंतज़ार कर रहे हैं? ❤️ अगर कहानी ने दिल को छुआ हो, तो लाइक ज़रूर करें! ✨ और हां, शेयर करना ना भूलें क्योंकि मोहब्बत और कहानियां, दोनों बांटने से बढ़ती हैं…

    रहनुमा खान 🩵

  • 3. Fanah❤️‍🔥: Ek Ishq, Ek Ibadat - Chapter 3

    Words: 1316

    Estimated Reading Time: 8 min

    | हया का कमरा 🌼

    कमरा हल्की गुलाबी रोशनी में नहाया हुआ था। ड्रेसिंग टेबल के सामने बैठी हया, आइने में खुद को देख रही थी।

    रिश्ता…? सीरियसली...?

    उसने हल्के से होंठ काटे, आँखें बंद कीं और अबीर की आंखों का ख्याल उसके ज़ेहन में तैर गया।

    उफ़्फ़ हया! तुम भी ना!" (उसने खुद ही अपने सर पर हल्के से टपली मारी, और माथा पकड़ते हुए मुस्कराई,)
    "क्या सोच रही हो तुम बेवकूफ़ लड़की… वो कोई शहज़ादा थोड़ी ना था… बस एक टक्कर थी!"

    पर दिल कहाँ मानता है?

    हवा में अब भी हल्की सी वो टक्कर गूंज रही थी।
    दिल की धड़कनों में अबीर की गहरी आवाज़ बसी थी।
    "तक़दीर से टकराने को गलती नहीं कहते… मिस…"

    हया ने खुद सिर झटक कर आईने में देखा फिर हल्के से होंठों पर मुस्कराहट आई...

    “रिश्ते वालों से खेलना है ना… तो खेलते हैं। मगर हया शेख़ के स्टाइल में!” वो गुलाबी चिकनकारी का सूट पहनती है… एकदम सिंपल मगर ग्रेसफुल। हल्का सा काजल, कानों में छोटे से झुमके, और होंठों पर गुलाबी लिप ग्लॉस।

    आइने में खुद को देखती है, और बुदबुदाती है:
    “क़यामत आ गई तो... मेरी कोई गलती नहीं होगी।”
    (इतना कहकर वह कमरे से निकल कर किचन की और बढ़ जाती है।)

    कुछ समय बाद

    हया जब कमरे से निकलती है, तो रसोई में जाती है।
    नाश्ते की ट्रे हाथ में उठाती है पकोड़े, समोसे, और एक पकोड़े की प्लेट से पकोड़े उठा कर उसपे लाल मिर्च का पाउडर डाल देती है (बाहर से देखने से पाउडर नजर नहीं आ रहा था।)

    हया मुंह बनाते हुए धीरे से बोली "अब आएगा मजा हया की मर्जी के बिना शादी मतलब बर्बादी"।

    हया ने अपने कदम ड्राइंग रूम की और बढ़ाए उसकी हर चाल में अदा थी, हर मुस्कान में हया शेख़ की ‘तानाशाही तमीज़’। हॉल में आते ही, सबसे पहले उसने सिर झुकाया।


    लड़का जिसका नाम समीर है, शराफ़त की मिसाल… हल्की दाढ़ी… शफ़क़त भरी आँखें…और जैसे ही उसने हया को देखा उसकी नज़रें उसी पर टिक गईं।

    हॉल में दाख़िल होती है, झूठी मासूमियत के साथ।

    "अस्सलामुअलैकुम" वो धीरे-धीरे बोलती है जान-बूझकर हल्के से शर्माते हुए।

    लड़के की अम्मी मुस्कुरा कर कहती हैं: वालेकु अस्सलाम बेटा, बहुत प्यारी बच्ची है… थोड़ी शर्मीली लग रही है।”

    हया ट्रे आगे बढ़ाती है, “पकोड़े लीजिए…”और अब जान-बूझकर लड़के की तरफ ट्रे बढ़ाती है,  जिसमें सबसे तीखे मिर्ची वाले पकोड़े रखे होते हैं।

    समीर, जो देखने में शरीफ, थोड़े भोले अंदाज़ में था।  एक पकोड़ा खाता है… फिर दूसरा… अगले ही पल… उसकी आँखों से आँसू झलक जाते हैं। मगर वो कुछ कहता नहीं।

    हया धीरे से सोचती है: “इतना भोला है क्या… या दिल से फना होने को तैयार है।?”

    फिर हया मुस्कुराते हुए ट्रे थमाकर पीछे हटी ट्रे मेज़ पर रखी और धीरे-धीरे चलती हुई जाकर अपनी अम्मी के पास बैठ गई। अम्मी के ठीक पास वाली जगह मलीहा की थी। जो पहले से वहीं बैठी सब तमाशा देख रही थी।

    हया ने एक नज़र समीर की ओर डाली उसकी आँखें हल्की लाल, चेहरा पसीने से भीगा, और होंठों पर जबरन  मुस्कान थी।

    लड़के की अम्मी हँसकर कहती हैं: “अरे बेटा रो क्यों रहा है…? मिर्ची ज़्यादा है क्या?”

    लड़का, आँखें पोंछते हुए कहता है, “न-नहीं अम्मी… ये आँसू… तो इनकी मेहनत के लिए हैं… बहुत अच्छा बनाया है।”

    हया (मन में): “ओ तेरे की… ये तो इम्तिहान पास कर गया। अब लो हया मैडम टेस्ट नंबर दो।”

    मलीहा पास झुकते हुए, धीरे से फुसफुसाई  "अल्लाह... अप्पी जान, आप तो कमाल कर गईं... बेचारा लड़का रोते हुए भी मुस्कुरा रहा है!"

    हया ने पलटकर उसे देखा, और होंठ भींचते हुए खुद को हँसी से रोका।

    फिर धीरे से बोली  "ये तो सिर्फ़ ट्रेलर था मलीहा… पिक्चर अभी बाक़ी है! दोनों बहनों की आँखें मिलीं फिर हल्के से मुस्कुरा दी।

    समीर की अम्मी ने हया की अम्मी की तरफ़ देख कर मोहब्बत भरे लहज़े में कहा: "हमें तो लड़की बहुत पसंद आई… आप कहिए तो बात आगे बढ़ाएं?"

    राफिया के चेहरे पर रौशनी सी दौड़ गई। वो हल्के से मुस्कुराईं और पूरे फ़ख्र से बोलीं: "अल्हम्दुलिल्लाह! हया जैसा नसीब सबको कहाँ मिलता है!"

    हया की मुस्कान गायब हो गई… चेहरा पत्थर सा… वो धीरे से पीछे हटने लगी। उसके चेहरे के भाव… जैसे किसी ने उसके अंदर की कोई पुरानी रूह छेड़ दी हो।

    सबके सामने, बिना कुछ कहे उसने अपनी आँखें बंद कीं… फिर जैसे ही खोलीं… उनमें एक अजीब सी वीरानी थी।

    माहौल बदल चुका था…

    अचानक हवा का झोंका कमरे की खामोशी चीर गया।

    समीर की अम्मी ने धीरे से पूछा: "बेटा… सब ठीक तो है?"

    हया ने कोई जवाब नहीं दिया। बस धीरे-धीरे आगे बढ़ती रही उसकी चाल अब नॉर्मल नहीं थी। एकदम ठहरी हुई… जैसे कोई और उस जिस्म को चला रहा हो। वो बिलकुल समीर के सामने आकर रुक गई। एकटक उसकी आँखों में घूरती रही।

    फिर बुदबुदाती आवाज़ में बोली 

    "किसने कहा हाँ…?"

    "किससे पूछी हाँ…?"

    "तुमने मुझसे पूछा…???"

    पूरा कमरा सन्न हो गया।

    समीर की अम्मी घबरा कर खड़ी हो गईं। "हया बेटा… क्या… क्या हो गया है तुम्हें?"

    हया अब हल्के से झुक गई थी और उसकी आवाज़,
    गहराती जा रही थी… एकदम किसी और लहज़े में जैसे कोई और बोल रहा हो:

    "जब तक मुझसे पूछोगे नहीं… मेरी रूह को चैन कैसे मिलेगा…"मैं अब भी उसी हवेली में हूँ… उसी कमरे में… उसी इंतज़ार में...(समीर की आँखें फटी की फटी रह गईं। उसने पीछे हटने की कोशिश की… मगर उसकी टाँगें काँपने लगीं।)

    "मैं नहीं चाहती… ये रिश्ता…"मुझे पसंद नहीं ये लड़का… ये रिश्ता… ये झूठा प्यार,,, मैं तो अब भी उसी मोड़ पर अटकी हूँ… जहाँ एक वादा अधूरा रह गया…"

    समीर के हाथ से गिलास गिर गया।

    "अ-अम्मी… मुझे नहीं करनी ये शादी… प्लीज़ किसी और से करवा दीजिए…" "मगर इससे नहीं! इससे नहीं!!"

    कमरे में एकदम हड़कंप मच गया। सबकी साँसें अटक गईं। समीर बाहर की ओर भाग गया और उसके पीछे पीछे उसकी अम्मी भी।

    उनके जाते ही हया ने ठहाका लगाया… ज़ोर का… राफिया जी की साँसें जो थमी थीं, अब गुस्से और हैरानी में बदल चुकी थीं।

    उन्होंने माथा पकड़ लिया "या अल्लाह… ये लड़की कब सुधरेगी…!"

    मलीहा जो सोफे के कोने पर बैठी तमाशा देख रही थी  हँसी रोकते हुए बोली: "ये सुधर गई तो ‘हया शेख़’ कहलाएगी कैसे…!"

    कमरे में अब हया की मुस्कान थी… और वो समीर की हालत सोच हंस रही थी। जैसे कोई डरावनी फिल्म देख ली हो उसने।


    | अमन हवेली
    | रात 8 बजे

    हवेली की दीवारों पर नीम रोशनी साया बनाकर झूल रही थी… हर कोना जैसे किसी राज़ से वाक़िफ़ हो… हर सन्नाटा जैसे कोई दास्तान कह रहा हो…

    वहीं… ऊपर की मंज़िल पर…

    बरामदे में खड़ा था अबीर। बालकनी की रेलिंग से टिककर,  उसके सामने आसमान था मगर नज़रों के आगे एक चेहरा।

    एक चेहरा जो सिर्फ़ एक टकराहट में रूह के अंदर उतर गया था। उसके होंठ खामोश थे, मगर दिल जैसे हर लम्हा दोहरा रहा था

    कौन थी वो ...? और क्यूँ अब तक मेरे अंदर बाकी है...?



    हवा ज़रा तेज़ चली बरामदे के परदे एक लम्हे को उड़े, और फिर ढह गए अबीर की रूह में जो तूफ़ान चल रहा था। वो किसी को नज़र नहीं आ सकता था।

    पूरी हवेली ख़ाली थी। वो अकेला था न कोई नौकर न कोई आवाज़ बस घड़ी की टिक-टिक, और अबीर की गहराइयों में डूबती सांसें।

    क्या महज़ एक पल वाक़ई सब कुछ बदल सकता है…?
    वो सोच रहा था, जैसे कोई पुराना राग अपने आप चल पड़ा हो…


    आँखें कुछ कह रही थीं उसके लहजे में कुछ था। उसकी आँखें… जैसे किसी किताब का बंद पन्ना थीं, जिसे खोलने का मन हो… मगर डर भी लगा

    उसने खुद को झिड़का…

    क्या कर रहा हूँ मैं? एक अनजान… एक पल भर की टक्कर और ये दीवानगी?

    मगर दिल ने जवाब दिया  "हर दीवानगी वक़्त नहीं देखती… कभी-कभी पहली नज़र ही आख़िरी ठहरती है…

    अबीर ने गहरी सांस ली आँखें मूंद लीं और तुरंत उसने खोलीं।

    "नाम तो नहीं जानता लेकिन शायद मेरी क़िस्मत जानती है उसे।


    इनफ अबीर!!!


    जारी है।

  • 4. Fanah❤️‍🔥: Ek Ishq, Ek Ibadat - Chapter 4

    Words: 1650

    Estimated Reading Time: 10 min

    🌙 नोट बराए रीडर्स:

    अब ये दास्तान चलेगी सिर्फ़ "माज़ी" में...वहीं माज़ी जहाँ हर मुस्कान के पीछे कोई तन्हा सिसकी थी, हर मुलाक़ात के पीछे कोई बिछड़ने की तहरीर।

    वही माज़ी जहाँ अबीर की ख़ामोश निगाहें पहली बार किसी अजनबी लम्हे से टकराईं, और हया की हँसी के पीछे एक खामोश तुफ़ान छुपा था। अब जो कुछ भी होगा, वो अतीत की उन्हीं गलियों में से महसूस किया जाएगा...क्योंकि कभी-कभी, मोहब्बत आगे बढ़ने के लिए पीछे लौटती है।


    अगले दिन जुमे की सुबह | इलाहाबाद की दरगाह | 7:22 AM]

    सुबह की नमाज़ के बाद इलाहाबाद में मजार के बाहर का नज़ारा एक ख़्वाब की तरह था। हल्की सी बारिश की महक हवा में घुली हुई थी… ज़मीन पर चमकते पानी की बूंदें… और दीवारों पर लटकते हरे और सुनहरे धागों से सजी चादरें।

    दरगाह की चौखट पर आज जैसे वक़्त ठहर गया था।

    जुमे की सुबह की ठंडी हवा, मिज़ाज में एक अलग सी नमी लिए बह रही थी… गुलाबों की भीनी-भीनी ख़ुशबू, अगरबत्ती की हल्की महक और बाहर तक फैली खामोशी में एक अजीब सुकून था… जैसे आसमान भी सजदा कर रहा हो।

    दरगाह के अहाते में मख़मली चादरों की कतारें बिछी थीं… लोग दूर-दूर से अपनी दुआओं की थैलियाँ लिए आए थे। हर एक चेहरा किसी राज़ का मुसाफ़िर लगता था।

    इन्हीं में दाख़िल होती हैं,,, हया और मलीहा।

    हया आज फिरोज़ी रंग का बेहद सलीकेदार सूट पहने थी… सिर पर, महीन दुपट्टा, जो चेहरे पर चाँदनी सा झलक रहा था। उसकी आँखों में नम सी चमक… जैसे अंदर कुछ टूटा हुआ हो… मगर अब भी थामे रखा हो।


    मलीहा (धीरे से): "अप्पी, ज़रा धीरे चलिए… लोग बहुत हैं आज..."

    हया (गहराई से मुस्कुराकर): "आज सिर्फ़ भीड़ नहीं आई मलीहा… आज रूहें भी सजदे में आई हैं। शायद मेरा जवाब भी यहीं कहीं हो..."

    दोनों दरगाह के दरवाज़े से थोड़ा पहले रुकती हैं। हया अपने दोनों हाथों में चादर थामे, दरगाह के बाहर बनी लोहे की रेलिंग पर बड़ी अकीदत से रखती है।

    बुज़ुर्ग खादिम (जो वहीं पास में तस्बीह फेर रहे थे), कहते हैं: "बिटिया, दिल साफ़ हो तो दुआ अंदर से नहीं… दर पे भी सुनी जाती है। रख दो यहाँ… और कह दो जो कहना है...

    हया (सर झुकाकर, बहुत अदब से): "बाबा… मैं कुछ मांगने नहीं… किसी की सलामती की खबर देने आई हूं।"

    इतना कहकर हया दरगाह की सीढ़ियों के पास बैठ जाती है… कुछ कदम पीछे मलीहा चुपचाप खड़ी रहती है।

    हया ने आंखें मूंदी… हाथ उठाए… और ज़ुबां से वो निकला जिसे वो बरसों से दिल में छुपाए बैठी थी:

    "या रहमान… या रहीम…
    मेरे अल्फ़ाज़ कमज़ोर हैं…
    मगर मेरा यकीन बहुत बड़ा है।
    मैं आज उसके लिए आई हूं…
    जो हमसे नाराज़ है… जो ख़ामोश है,
    जो अपने ग़मों को समंदर बना चुका है।
    जिसके जाने के बाद ये घर अधूरा रह गया।

    वो कहीं नहीं दिखते…
    बस ज़िंदगी से दूर चले गए हैं।

    या अल्लाह,
    उनके ग़ुस्से को माफ़ कर देना
    उन्हें सलामत रखना
    उन्हें मेरा ये पैग़ाम पहुँचा देना
    कि मैं अब भी रोज़ उनकी,,
    सलामती के सजदे करती हूं।
    बस वो एक बार लौट आए…
    चाहे कुछ भी न कहें…
    बस लौट आए…"


    हया की आँखें भीग जाती हैं… मगर उसने अब भी हाथ नहीं झुकाए। पास खड़ी मलीहा भी आंखें पोंछने लगती है।

    फिर हया ने धीरे से अपनी आँखें खोलीं। एक बार आसमान की तरफ़ देखा जैसे ऊपर कोई उसकी फ़रियाद सुन रहा हो... फिर दुपट्टे को सिर पर सँवारते हुए, उसने अपनी हथेलियाँ अपने चेहरे पर फेरीं… जैसे दुआ को अपने वजूद में बसा लेना चाहती हो।

    कुछ पल यूँ ही बैठी रही… चुप… बस आँखों में एक कशमकश थी।

    फिर धीरे से, अपनी बैग की ज़िप खोली। अंदर से एक हल्के से मुड़े हुए किनारों वाली तस्वीर निकाली। तस्वीर पुरानी थी… किनारे हल्के पीले पड़े हुए… जैसे वक़्त की गर्द ने उस पर दस्तक दी हो।

    हया ने उस तस्वीर को कुछ लम्हों तक देखा… उसकी पलकें ठहर गईं।


    वो तस्वीर धीरे से उसने पास पड़े सफ़ेद पत्थर पर रख दी पत्थर, जो दरगाह की दीवार से सटा हुआ था… सर्द, शांत और गवाह…


    तस्वीर में तीन चेहरे थे एक हया का… और दो और…
    हया के धीरे से कहा;


    "इस तस्वीर में छुपे दो नाम,
    एक, जिसे मिट्टी ने ओढ़ लिया,
    और दूसरा, जो ज़िंदगी से ही रुख़्सत हो गया,
    मगर सांसों में अब भी ज़िंदा है।
    मैं नाम नहीं ले सकती…
    मगर हर दुआ में वही दो चेहरे,
    सजदे में उतर आते हैं।
    या रब्ब… तू ही गवाह है,
    उस वक़्त का, उस मोहब्बत का,
    उस वक़्त की राख का…"

    एक तेज़ हवा का झोंका आया… तस्वीर के कोने हिल उठे… मगर वो तस्वीर वहीं रही जैसे कोई रिश्ता ज़मीन से नहीं, रूह से जुड़ा हो।

    पास ही एक सूफ़ी फकीर की धीमी आवाज़ गूंजती है  "कुछ नाम लब पर नहीं आते… मगर रूह से कभी उतरते भी नहीं!!"


    उसने नज़रों से तस्वीर को छुआ,

    हया (धीमे लहज़े में,): "या रब्ब… सब पर अपना करम फ़रमा, सबकी हिफाज़त फ़रमा, हर दिल की दुआ क़बूल फ़रमा… आमीन, या रब्बुल-आलमीन।"


    वो हाथ उठाकर दुआ मांग रही थी। ठीक उसी वक्त, दरगाह की सीढ़ियों से नीचे उतरता हुआ एक क़द-ओ-काठी वाला सफेद शख्स कुर्ते में, चेहरे पर साया सा ग़म, लिए  वो भी कुछ सोचता हुआ, अपने में खोया हुआ आगे बढ़ रहा था… माहौल में ठहराव था, पर उसकी आंखों में सवाल थे।


    हया जैसे ही उठती है तस्वीर रखकर पीछे मुड़ती है
    ठक!

    एक तेज़ सी टक्कर… सांसें गिरती हैं। हया सीधा उस शख्स से टकरा जाती है,और एक पल को जैसे वक़्त थम जाता है।

    हया पीछे लड़खड़ाती है, पर वो शख़्स झट से उसे थाम लेता है। दोनों की आंखें मिलती हैं…

    पहचान का पहला झटका "ये तो वही है… किताबों की दुकान वाला अजनबी…"

    वो अबीर ही था!!

    अबीर की पकड़ कसी हुई थी, पर लफ़्ज़… बिल्कुल ठहरे हुए। हया की पलकें फड़कीं… उसके होंठ बुदबुदाए:
    "फिर से आप?"

    अबीर (हल्की चुभती आवाज़ में, आंखें टकराते हुए):
    "रास्ते में तुम बार-बार क्यों मिलती हो? या तो तक़दीर ज़िद पर है… या तुम…"


    हया (जैसे पलट कर काटने को तैयार): "ज़रा तहज़ीब सीख लीजिए जनाब… हर बार किसी लड़की से टकराना इत्तेफ़ाक़ नहीं होता!"


    अबीर, उसकी बात सुनकर हल्के से मुस्कराता है, मगर आंखें अब भी सीधी उसकी रूह में देख रही थीं।


    अबीर (धीरे से झुककर): "मैं इत्तेफ़ाक़ों में नहीं… इशारों में यक़ीन रखता हूँ… पर अफ़सोस… तुम हर बार किसी उलझन की तरह मिलती हो।"


    हया, अब गुस्से से नज़रे झटकती है और बोलती है:
    "खुद को बहुत अहम समझते हो ना? जाइए… किसी और के रास्ते में अटकिए।"

    अबीर एक पल को ठहरता है… फिर सीढ़ी की ओर बढ़ता है… मगर पीछे मुड़कर एक बार फिर देखता है, और हल्की सी फुसफुसाहट में कहता है: "तुम्हारा नाम नहीं जानता… मगर तुम्हारी आंखें… एक अजीब सी पहचान बन चुकी हैं।"

    हया सन्न रह जाती है…


    जैसे वो बात उसी के दिल ने कही हो, बस लफ़्ज़ किसी और ने पहन लिए हों।


    अबीर के जाते ही, हया ने गहरी साँस ली और पलटी तो पीछे मलीहा को देख रही थी जो दोनों हाथ मोड़कर, एक भूरी आँखों वाली बिल्लियों की तरह हया को घूर रही थी।


    मलीहा (छेड़ते हुए, आँखें गोल कर) “या अल्लाह… अप्पी जान! कौन था वो? सीधा शहज़ादा मुग़लिया खानदान से उतरा था क्या? क़सम से… लग रहा था जैसे फ़िल्मी हीरो दरगाह शरीफ का चक्कर लगा गया हो…”


    हया (गुस्से से) “मलीहा… ज़रा अदब से पेश आओ! दरगाह में खड़े हैं… तमीज़ नाम की भी कोई चीज़ होती है!”


    मलीहा (होठों पर हाथ रखकर मुस्कुराते हुए)
    “अरे आप ही तो कहती हैं कि दुआओं की कबूलियत के वक़्त सब होता है… तो अगर टक्कर भी हुई, तो शायद क़ुबूल हो जाए?”


    हया (घूरते हुए मलीहा को दरगाह से बाहर ले जाती है। बाहर ड्राइवर खड़ा दोनों का इंतजार कर रहा था।)


    मलीहा (धीरे से उसके कान के पास) “अप्पी, वो वाक़ई में... बहुत जच रहा था आपके सामने। ऊपर से उसकी आवाज़… उफ़्फ़… जैसे बारीक रेशमी रूह सी सरक गई हो दिल में!”


    हया (साँस रोककर) “बस करो मलीहा! कुछ भी मतलब… कुछ भी बोलती रहती हो!”


    मलीहा (नाक सिकोड़कर शरारती लहज़े में) “आपका चेहरा देख कर लग रहा था जैसे किसी ने आपका दिल चोरी कर लिया हो… और आप FIR दर्ज कराने जा रही हों!”

    हया (होठ दबाते हुए, आँखें तरेरकर) “ख़ुदा का वास्ता है मलीहा… ये कोई मज़ाक नहीं। बात बस एक टक्कर की थी!”


    मलीहा (नज़दीक आकर धीरे से,) “तो फिर इतना सन्नाटा क्यों था अप्पी…? जब टकराए थे ना आप दोनों… तो क़सम से… मुझे लगा वक़्त थम गया हो…”


    हया (धीरे से नजरें झुकाते हुए,) “…शायद वक़्त ही नहीं, कुछ और भी थम गया था।”


    मलीहा (काँखते हुए, शरारती मुस्कान में) “देख लीजिए अप्पी… कहीं जिसकी टक्कर से आज दिल धड़का है… वो आपकी ज़िन्दगी की दस्तक न बन जाए!”


    हया (तेज़ी से उसकी तरफ देखकर) “इतना भी मत उड़ो! और वैसे भी, जिसकी आँखों में गुरूर हो… उससे दिल नहीं, फ़ासले बनाए जाते हैं।”


    मलीहा (जवाब में मुस्कराकर) “आप फ़ासले बनाते रहिए… वो क़िस्मत बन जाए, तो कुछ कर भी नहीं पाएंगी!”


    हया (धीमे से आँखें बंद करते हुए) “कभी-कभी लगता है... शायद नाम नहीं जाना, मगर चेहरा... चेहरा दिल में दर्ज हो गया है।”


    मलीहा (ठंडी साँस भरते हुए) “वो तो मैं कबसे कह रही हूं अप्पी जान… एक बार नाम पता चल जाए, तो खोजने में वक़्त नहीं लगेगा!”


    हया (मुस्कुराकर धीरे से उसकी कलाई पकड़ती है और बोलती है) “चुप कर मलीहा… तुम बहुत सवाल करने लगी हो।


    [हया और मलीहा गाड़ी में बैठ हवेली के लिए रवाना हो जाती हैं, हया का दिल अब भी वहीं रुका था… उसी सीढ़ी पर… जहाँ एक अजनबी ने उसका वजूद थाम लिया था  एक टक्कर में छिपा मुक़द्दर…]



    जारी है।


    नोट: अगर ये अहसासात से लबरेज़ हिस्सा आपके दिल को छू गया हो... तो अपनी राए से हमें नवाज़ना ना भूलिएगा।

    अपनी राय का इज़हार ज़रूर कीजिए अगर दिल चाहे, तो एक प्यारी सी समीक्षा भी दीजिएगा… मगर... रेटिंग गिराना नहीं... मोहब्बत बाँटना है!! 🤍