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In the shadows of moonlight

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Md Zafar

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Description

मुख्यमंत्री Zayyan Al-Mutakabbir एक सख़्त लेकिन इमानदार नेता थे, जिनकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी वर्षों से उनके वफादार ड्राइवर Yaseen Akhtar Qureshi निभा रहे थे। ड्राइवर की बेटी Liyana Noor, बेहद शांत, मासूम और खूबसूरत लड़की थी, जो अपने पिता से बेहद प्य...

Characters

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Zayyan al-Mutakabbir

Hero

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Liyana Noor .

Heroine

Total Chapters (16)

Page 1 of 1

  • 1. In the shadows of moonlight - Chapter 1

    Words: 544

    Estimated Reading Time: 4 min

    अध्याय 1: दो अजनबी, एक अधूरा रिश्ता

    पटना की सर्द रात अपनी चुप्पियों में कई राज़ समेटे थी। चाँद बादलों से झाँक रहा था, जैसे किसी अधूरी कहानी को देख रहा हो। मुख्यमंत्री ज़ाय्यान अल-मुतकाबिर, 32 वर्षीय युवा नेता, अपनी काली गाड़ी में बैठा शांत नजर आ रहा था—पर अंदर से टूट-सा रहा था। उसकी गहरी नीली आँखें अक्सर एक ही नाम पर ठहर जाती थीं… लियाना नूर।

    वो लड़की जिससे वह कभी मिला नहीं, जिसकी तस्वीर भी उसने कभी नहीं देखी। लेकिन बचपन से ही उसके हर खर्च, हर ज़रूरत की ज़िम्मेदारी ज़ाय्यान ने निभाई थी।

    क्यों? क्योंकि यासीन अख्तर कुरैशी, जो ज़ाय्यान के पिता के समय से उनके वफादार ड्राइवर रहे थे, ने एक दिन बस इतना कहा था:

    "साहब, मेरी बेटी मां के बिना है। अगर मैं कभी न रहूं, तो उसका ख्याल रखिएगा।"

    ज़ाय्यान ने वादा किया, और वो निभाया—चुपचाप।

    हर महीने पैसे भेजे, स्कूल की फ़ीस भरी, किताबें, कपड़े—पर कभी उससे मिला नहीं।

    बस... उसके नाम से उसे सुकून मिलता था।

    उधर, पटना की एक गली में लियाना नूर अपने छोटे-से घर में सुबह की चाय बना रही थी। आंगन में तुलसी, दीवारों पर पापा की मरम्मत की हुई घड़ी, और रसोई में पुराने रेडियो की आवाज़—यही थी उसकी दुनिया।

    लियाना बेहद मासूम, शांत और गहराई से भरी लड़की थी। उसकी मां बचपन में ही गुजर गई थी। तब से पापा ही उसका सबकुछ थे—उसकी दुनिया, उसकी खुशियाँ, उसका सहारा।

    उस दिन, जैसे ही उसके पापा यासीन अपनी ड्रेस पहनकर निकलने लगे, लियाना दौड़ती हुई दरवाज़े तक आई।

    "पापा, आज मत जाइए ना… मेरा दिल बहुत घबरा रहा है। कुछ अच्छा नहीं लग रहा।"

    यासीन मुस्कराए, उसका सिर सहलाया और बोले:

    "पगली… तेरा पापा हर रोज़ जाता है और हर शाम तेरे लिए लौटकर आता है। आज मिठाई भी लाऊंगा तेरे लिए। डर मत।"

    लियाना ने उनका हाथ पकड़ा… और बस देखा… जैसे अलविदा कहना नहीं चाहती थी।

    उधर मुख्यमंत्री का काफ़िला निकला। ज़ाय्यान पीछे बैठा था, चुप, गंभीर। रास्ता सुनसान था, तभी अचानक नकाबपोश हमलावरों ने गाड़ी को घेर लिया।

    गोलियों की आवाज़ें गूंज उठीं।

    यासीन ने बिना एक पल गंवाए गाड़ी मोड़ी और खुद को ज़ाय्यान के सामने ढाल दिया।

    तीन गोलियां। एक जीवन।

    जमीन पर गिरते हुए बस इतना कहा:

    "साहब को कुछ नहीं होना चाहिए… लियाना को बता दीजिए… मैं उससे बहुत प्यार करता हूँ…"

    ज़ाय्यान का दिल बैठ गया। वो इंसान, जिसने उसे ज़िंदगी भर वफादारी दी… उसकी बेटी का नाम, अब एक अधूरी जिम्मेदारी नहीं—एक ज़िंदा एहसास बन चुका था।

    अगली सुबह, मुख्यमंत्री हाउस से गाड़ी भेजी गई। सिपाही ने कहा,

    "मुख्यमंत्री साहब ने आपको हवेली बुलाया है।"

    लियाना चुप रही। उसकी आंखों में आंसू नहीं थे, अब गुस्सा था।

    "अब क्यों? जब मेरा सब कुछ चला गया? वो हवेली? नहीं जाऊंगी। मेरी दुनिया तो पापा के साथ चली गई।"

    उसने गाड़ी की ओर पीठ की और वापस घर के अंदर चली गई।

    एक अधूरी कहानी यहीं से शुरू होती है…

    क्या कभी ये रिश्ता मुकम्मल होगा?

    जानिए अगले अध्याय में…

  • 2. In the shadows of moonlight - Chapter 2

    Words: 750

    Estimated Reading Time: 5 min

    अध्याय 2: जब चुप्पियां बोल उठीं

    पटना की हवाओं में अब भी मातम घुला हुआ था।

    Yaseen Akhtar Qureshi की शहादत की खबर पूरे राज्य में फैल चुकी थी। लेकिन मीडिया, अफसरशाही और संवेदनाओं की भीड़ से दूर, एक छोटी सी खामोश गली में एक बेटी अपने आंसुओं को पत्थर बना चुकी थी।

    मुख्यमंत्री हाउस से आए सिपाही जब Liyana Noor से मिलने पहुंचे, तो उन्होंने एक साफ़ और सख्त इनकार सुना।

    "अब मुझे किसी की मदद नहीं चाहिए। जो मेरी दुनिया थी, वो जा चुकी है। हवेली? नहीं जाऊंगी।"

    सिपाहियों ने जब ये खबर Zayyan को सुनाई, तो पहली बार उसका चेहरा सख्त नहीं, बेचैन दिखा।

    वो जानता था—अब ये मामला सियासत या सहानुभूति का नहीं, दिल का था।

    शाम ढलते-ढलते, Zayyan खुद अपनी काली गाड़ी में बैठा। इस बार कोई काफ़िला नहीं था, कोई सुरक्षा नहीं—बस वो और एक कर्ज़, जो अब दिल से जुड़ चुका था।

    Zayyan का परिवार—इज्ज़त, ताकत और रिश्तों की जड़ें

    Zayyan की दुनिया सिर्फ सत्ता नहीं थी, वो एक ऐसे खानदान से ताल्लुक रखता था जो बिहार की राजनीति में दशकों से गूंजता आया था।

    उसकी माँ Mariam, एक बेहद खूबसूरत, सलीकेदार और काबिल महिला थीं। वो कभी बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री की पत्नी रह चुकी थीं—और आज भी लोग उन्हें इज़्ज़त से "बेगम साहिबा" कहते थे। उन्होंने ही Zayyan को सीधा, सच्चा और सोचने वाला इंसान बनाया।

    पिता Afroz Al-Mutakabbir—एक सख्त किरदार, भारी आवाज़ और फौलादी सोच वाला व्यक्ति, जो अब राजनीति से दूर थे, पर घर में अब भी उनके शब्द आखिरी माने जाते थे। लोग उनसे डरते थे, लेकिन घर के बच्चों को प्यार से समझाते भी थे।

    Zayyan के 3 छोटे भाई—

    Aqib, जो मीडिया और सोशल हैंडलिंग में माहिर था;

    Atif, जो कानूनी और भाषणों में Zayyan की ताकत था;

    और सबसे छोटा, Zubair, जो जमीनी स्तर पर संगठन चलाता था।

    तीनों भाई Zayyan को सिर्फ नेता नहीं, बड़ा भाई मानते थे—और राजनीति में उसकी रीढ़ बने हुए थे।

    घर में सबसे खास रिश्ता Zayyan का था अपने दादा—Fakhruddin Al-Mutakabbir से।

    एक वक्त के पावरफुल सांसद रहे Fakhruddin अब उम्र के आखिरी पड़ाव में थे, लेकिन उनका किरदार अब भी लौह जैसे मज़बूत था।

    उनकी आंखों में जिंदगी का अनुभव, दिल में परिवार की धड़कनें और ज़ुबान में अब भी असर था।

    "Zayyan, तुझमें तेरे दादी की मोहब्बत और मुझमें तेरा जुनून है," वे अक्सर कहते थे।

    Zayyan का Liyana से पहली बार सामना

    शाम उतर चुकी थी, जब Zayyan अपनी गाड़ी से उस गली में उतरा—बिना कोई सुरक्षा, बिना रौब के।

    दरवाज़ा लकड़ी का था, लेकिन उस पर एक दुनिया बंद थी।

    Zayyan ने धीरे से दस्तक दी।

    अंदर से खामोशी आई।

    कुछ पल बाद दरवाज़ा खुला—और सामने थी Liyana Noor।

    सादा सलवार में, बिना किसी बनावट के, आंखें लाल, चेहरा थका हुआ—और फिर भी, कुछ ऐसा… जो ज़ाय्यान ने कभी महसूस नहीं किया था।

    दोनों चुप।

    Zayyan ने कुछ कहना चाहा, लेकिन शब्द भारी लग रहे थे।

    "मैं आया हूँ… तुम्हें लेने।"

    Liyana ने उसकी आंखों में देखा, और कहा:

    "अब क्यों? जब मेरी दुनिया बिखर गई, तब आप क्यों आए? क्या एक नाम जानना काफी था?"

    "आपने मेरे लिए सब किया, मैं जानती हूँ। पर आपने मुझे कभी देखा नहीं। अब जब सब चला गया, तो हवेली से क्या मिलेगा मुझे?"

    Zayyan चुप रहा।

    फिर उसकी आवाज़ टूटी, मगर साफ़ थी:

    "मैंने तुम्हें कभी देखा नहीं… क्योंकि डरता था। डरता था कि अगर एक बार देख लिया… तो फिर वो रिश्ता कागज़ों से दिल तक पहुंच जाएगा। और अब… वो पहुंच चुका है।"

    Liyana की आंखें भीगने लगीं, लेकिन उसने पलकें नहीं झपकाईं।

    "मैं पापा के लिए नहीं, खुद के लिए तैयार नहीं हूँ… अभी नहीं।"

    Zayyan ने सर झुकाया।

    उसने जबरदस्ती नहीं की।

    "ठीक है। मैं तुम्हारा इंतज़ार करूंगा। हवेली का दरवाज़ा नहीं, दिल का दरवाज़ा खुला रहेगा। जब चाहो… आ जाना।"

    Zayyan लौट गया, लेकिन उस दिन एक बंधन जन्म ले चुका था—बिना किसी वादा, बिना किसी इकरार के।

    आगे क्या होगा?

    क्या Liyana अपने टूटे दिल को जोड़कर Zayyan की दुनिया में कदम रख पाएगी?

    या Zayyan का इंतज़ार… सिर्फ एक सियासी कहानी बनकर रह जाएगा?

  • 3. In the shadows of moonlight - Chapter 3

    Words: 904

    Estimated Reading Time: 6 min

    अध्याय 3: गलियों से हवेली तक का सफर

    Liyana Noor की दुनिया अब चार दीवारों और ढेर सारी यादों तक सिमट चुकी थी।

    हर सुबह की शुरुआत पापा की आवाज़ के बिना होती, और हर रात उनका नाम आंखों में समा जाता।

    मुख्यमंत्री Zayyan Al-Mutakabbir जब उसके दरवाज़े आया था, उसने सारा आत्मसम्मान जुटाकर साफ इनकार कर दिया था।

    वो नहीं चाहती थी कि कोई उसकी मजबूरी को हमदर्दी समझे।

    Zayyan चुपचाप लौट गया था… मगर पूरी तरह नहीं।

    जाते-जाते उसने अपने सबसे भरोसेमंद सिपाही Faheem को इशारा दिया था:
    "उस पर नज़र रखो, पर दूर से।

    अगर कुछ भी गलत लगे, एक पल की भी देर मत करना।"

    Faheem उसकी आज्ञा समझ गया था। और कुछ ही दिन बाद, वो पल आ गया — जब एक खामोश निगाह ने एक तूफान की शुरुआत देखी।

    🌑 अकेलापन और उम्मीद का संघर्ष

    Liyana को अब खुद ही अपने घर का खर्च चलाना था। उसके पास कोई साधन नहीं बचा था।

    ना कोई रिश्तेदार, ना सहारा।

    उसने तय किया कि अब खुद नौकरी ढूंढेगी।

    एक दिन वह पास के रेस्टोरेंट में गई — उम्मीद थी कि शायद वेट्रेस का काम मिल जाए।

    मालिक ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और फिर हँसते हुए बोला:
    "तुम जैसी सीधी-सादी लड़कियां इस काम के लिए नहीं बनीं। यहां लोग खाने से ज्यादा चेहरों पर ध्यान देते हैं।"

    लियाना कुछ नहीं बोली। बस आंखों में अपमान और होंठों पर मौन लिए बाहर निकल गई।

    🌒 जब साया डर बन गया

    शाम ढल रही थी। हवा में हल्की ठंडक थी और रास्ते सुनसान।

    लियाना अकेली लौट रही थी — दिल में टूटा आत्मसम्मान और आंखों में थकान।

    जैसे ही वह मोहल्ले के पुराने पुल के पास पहुंची, एक जाना-पहचाना साया सामने आ गया।

    Sameer Qadri — वो गुंडा, जो कभी उसके पापा से डरता था, अब बेखौफ मुस्कुरा रहा था।

    "बहुत दिन हो गए तुझसे बात किए… अब तेरा रक्षक नहीं रहा, अब कोई रोकने वाला भी नहीं।"

    लियाना की रगें कांप उठीं।

    Sameer ने रास्ता रोका और उसकी कलाई पकड़ ली।

    उसकी आंखों में हवस थी।

    "आ जा ना… अकेली है तू अब… चल कहीं बैठकर चाय पीते हैं…"

    लेकिन उसी क्षण, लियाना के भीतर कुछ टूट कर बाहर आया —

    वो डर, जो अब तक उसे चुप रखे था…

    अब गुस्से में बदल चुका था।

    उसने ज़ोर से Sameer को धक्का दिया — ऐसा धक्का, कि वह लड़खड़ाकर गिर पड़ा।

    "हाथ लगाकर दिखा दोबारा!" लियाना चिल्लाई और दौड़ पड़ी।

    🕯️ छाया से समाचार

    Faheem, जो थोड़ी दूरी पर निगरानी कर रहा था, ये सब देख चुका था।

    उसने तुरंत फोन निकाला और Zayyan को सूचना दी:
    "Sahab… Sameer Qadri ने लियाना को रोकने की कोशिश की। उसने उसे धक्का दिया और घर भाग आई है। बहुत डर गई थी।"

    🔥 जब चुप्पी से तूफान निकला

    फोन कटते ही Zayyan की आंखें सुर्ख हो गईं।

    वो ऑफिस में था — लेकिन अब सब कुछ फेंक दिया।

    "Poora kafila nikaalo.

    Main uska saathi बनकर नहीं, रक्षक बनकर जा रहा हूं।"

    🚨 सायरन, सन्नाटा और सारा मोहल्ला

    रात के सन्नाटे को चीरते हुए, मुख्यमंत्री का काफिला मोहल्ले में दाखिल हुआ।

    हर दरवाजे, हर खिड़की से आंखें झांक रही थीं।

    "Zayyan Al-Mutakabbir?"

    "मुख्यमंत्री खुद आया है?"

    "किसके लिए?"

    "कहीं लियाना के लिए तो नहीं?"

    और फिर गाड़ियों का काफिला Liyana के छोटे से घर के सामने रुका।

    Zayyan उतरा — आंखों में गुस्सा, दिल में तूफान।

    💔 सामना

    दरवाज़ा खटखटाया नहीं… जैसे झिंझोड़ा।

    Liyana ने खोला — सामने वही शख्स खड़ा था, जिसे वह पापा की मौत का गुनहगार समझती थी।

    "Tum theek ho?" Zayyan की आवाज़ भारी थी।

    Liyana ने कहा:
    "Main theek हूं। डरने की आदत हो गई है।"

    Zayyan ने एक क़दम आगे बढ़ाया।

    "Tumne mujhe roka, माना।

    लेकिन मैं वादा कर चुका हूं…

    और जब बात वादे की हो…

    तो मैं खुद को भी नहीं रोकता।"

    लियाना की आंखें नम हो गईं।

    "क्या आपके पास अब जवाब है, जब पापा नहीं रहे?"

    Zayyan ने कुछ पल चुप रहने के बाद कहा:
    "Haan. Jawab yeh hai —

    मैं अब सिर्फ मुख्यमंत्री नहीं…

    तुम्हारे पापा की आखिरी उम्मीद हूं।"

    🌕 मोहल्ले के सामने इकरार

    सैकड़ों निगाहों के बीच, Liyana चुप रही।

    Zayyan ने इशारा किया — दो महिला सिपाही सामने आईं।

    "Ab chalo. Is baar tumhare liye nahi… tumhare papa ke liye."

    Liyana ने धीरे-धीरे सिर झुका दिया।

    और वो उसके साथ चल पड़ी।

    🕌 हवेली की दहलीज़

    Zayyan के साथ चलना… जैसे एक अजनबी दुनिया में कदम रखना था।

    बड़ी हवेली के दरवाज़े पर खड़ी Liyana कांप रही थी — डर से नहीं, नए जीवन की दहशत से।

    उसे देखकर Mariam बेगम आगे आईं — शालीन, सौम्य और ममता से भरी।

    "अब तू मेरी बेटी है।

    ये घर तेरा है।

    और मैं, तेरी मां।"

    Liyana ने उनके सीने से लगकर अपने सारे टूटे टुकड़े समेट लिए।

    🌙 बालकनी की नजर से

    Zayyan हवेली की बालकनी में खड़ा चाँद देख रहा था।

    आज, एक साया जो गलियों में था… अब हवेली के अंदर था।

    वो सफर, जो डर और गुस्से से शुरू हुआ था — अब एक वादे की मंज़िल पर था।

  • 4. In the shadows of moonlight - Chapter 4

    Words: 1353

    Estimated Reading Time: 9 min

    "दहलीज़ के उस पार"

    Zayyan की गाड़ी जैसे ही हवेली के भारी फाटक से अंदर घुसी, Liyana का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। एक नई दुनिया थी उसके सामने—ऊँची दीवारें, लंबे बरामदे, चुप्प सी हवाएं और नज़रों में छुपे सवाल।

    Zayyan ने गाड़ी रोकी। वह पहले उतरा और फिर Liyana के लिए दरवाज़ा खोला। उसके चेहरे पर अब भी वही शांत गंभीरता थी, जैसे वह खुद को भी समझ नहीं पा रहा हो कि वह क्यों उसे यहां तक ले आया।

    Liyana झिझकते हुए बाहर निकली। उसके पांव जैसे ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे, मानो हर कदम उसके अतीत को और पीछे छोड़ रहा हो।

    हवेली के दरवाज़े पर खड़ी थी Mariam बेगम, सफ़ेद सूती साड़ी में, माथे पर हल्का सिंदूर और आंखों में गहराई—जो सिर्फ एक मां की आंखों में होती है।

    Liyana ने सिर झुकाया। वो कुछ कह नहीं पाई। उसकी आंखों में बस ढेर सारा थकान और अनकहे जख्म थे।

    Mariam बेगम मुस्कराईं, एक हल्की लेकिन भरोसे भरी मुस्कान।

    "अब तू मेरी बेटी है," उन्होंने उसका चेहरा अपने हाथों में लेकर कहा।

    "ये घर तेरा है। और मैं... तेरी मां।"

    वो शब्द नहीं थे, जैसे कोई मरहम हो… जो उसकी आत्मा पर लगे घावों को धीरे-धीरे भर रहा हो।

    Liyana उनके गले लग गई, जैसे कोई बिछड़ी हुई आत्मा अपना ठिकाना पा गई हो।

    शाम ढलने लगी थी। हवेली की दीवारें सुनहरी रोशनी से चमक रही थीं, लेकिन अंदर एक तूफान आने वाला था।

    Afroz Al-Mutakabbir, Zayyan के पिता, घर लौटे। उनका चेहरा सख्त था, चाल में सत्ता की गूंज थी। उन्होंने जैसे ही Liyana को देखा, उनके माथे की शिकन गहराने लगी।

    "ये लड़की कौन है?" उन्होंने ग़ुस्से में पूछा।

    Zayyan ने संयम से कहा, "ये Yaseen chacha की बेटी है। अब वो अकेली है। मैं उसे यहां लाया हूँ... हमारे पास।"

    Afroz का चेहरा सख्त हो गया, "तुम जानते हो क्या कर रहे हो? एक अनजान लड़की को हवेली में लाकर तुमने पूरे खानदान का नाम खतरे में डाल दिया है! और क्या भूल गए कि UP CM की बेटी से तुम्हारा रिश्ता तय हुआ है?"

    Zayyan की आंखों में एक चमक थी—गुस्से और सच्चाई की।

    "मैं कोई सौदा नहीं कर रहा, अब्बू। Liyana कोई बोझ नहीं है। वो उस इंसान की बेटी है, जिसने मेरे लिए अपनी जान दी।"

    "तुम्हें कुछ समझ में नहीं आता! तुम्हारी नर्मी तुम्हारी कमजोरी बन जाएगी," Afroz गरजे।

    तभी पीछे से एक भारी आवाज गूंजी—Dada Jaan।

    वो लाठी के सहारे धीरे-धीरे आए, पर उनकी उपस्थिति ही काफी थी सबको शांत करने के लिए।

    "बस करो तुम दोनों!" उनकी आवाज में गूंज थी, "राजनीति से ऊपर भी कुछ होता है—इंसानियत। Liyana इस हवेली में रहेगी। और जो इस फैसले को नहीं मान सकता, वो जा सकता है।"

    Afroz खामोश हो गए, पर आंखों में विरोध अब भी था।

    Mariam बेगम ने Liyana का हाथ थामा और उसे हवेली के एक सुंदर कमरे में ले गईं। कमरा गुलाबी रोशनी में नहाया हुआ था। रेशमी पर्दे, नीली दीवारें और खिड़की से झांकता चाँद।

    "अब ये कमरा तेरा है, बेटा," Mariam ने प्यार से कहा, "कभी कोई तकलीफ हो, तो बिना बोले मेरे पास आ जाना।"

    Liyana ने आंखों में पानी भरकर सिर हिला दिया। वो कुछ नहीं बोली, लेकिन दिल में पहली बार राहत की एक सांस थी।

    रात का वक्त था।

    Zayyan बालकनी में खड़ा चाँद को देख रहा था। हवा में एक ठहराव था। बहुत कुछ बदल रहा था।

    "वो साया जो गलीयों में था… अब हवेली के अंदर है।"

    उसने खुद से कहा।

    एक लड़की जो डर और बेबसी के साये में थी, आज इस हवेली में है—और वो खुद उसे वहां लाया था।

    वो सफर जो कभी सिर्फ एक वादा था, आज सच बन चुका था।

    लेकिन… हवेली की दीवारें सबको गले नहीं लगातीं।

    नीचे रसोईघर से आती कुछ बेतरतीब आवाज़ें Liyana के कानों तक पहुंचीं।

    "कौन है ये लड़की? मालिक की इतनी फिक्र क्यों इस पर?"

    "सुनने में आया है, किसी नौकर की बेटी है। अब रानी बनकर बैठी है।"

    Liyana का चेहरा फक पड़ गया।

    उसने खुद को शीशे में देखा। उसके पीछे एक आलीशान कमरा था, लेकिन आंखों में वही पुरानी बेबसी।

    अगले ही पल… वो कमरे से बाहर निकल गई—चुपचाप, बिना किसी को बताए।

    हवेली की दहलीज़ पर

    Liyana फिर खड़ी थी।

    इस बार कांप नहीं रही थी।

    अबके डर से नहीं, आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए… वो हवेली छोड़ रही थी।

    सामने वही दरवाज़ा था—पर इस बार, लौटने की नहीं… खुद को पाने की शुरुआत थी।

    रात के करीब 2 बजे का समय था। हवेली नींद में डूबी हुई थी, लेकिन एक दिल बेचैन था।

    Liyana, बिना आवाज़ किए, अपने कमरे से निकली। नंगे पाँव, सर्द पत्थर की ज़मीन पर, उसकी रूह तक काँप रही थी। आँखों में आँसू नहीं थे, लेकिन दिल पूरी तरह भीगा हुआ था।

    किसी ने कुछ नहीं देखा, किसी ने कुछ नहीं सुना—और शायद यही उसकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी ख़ामोशी थी।

    हवेली का भारी दरवाज़ा वो धीरे से खोलती है। चाँदनी की हल्की रौशनी उसके सफेद दुपट्टे पर पड़ रही थी, मानो रात भी उसे रोकना चाहती हो।

    "मैं किसके लिए यहाँ ठहरी हूँ?"

    "जब अपनी पहचान ही बोझ लगने लगे, तो वहाँ रुकना नहीं चाहिए…" वो खुद से बुदबुदाई।

    उसके कदम तेज़ होते गए।

    वो हवेली के पीछे वाले पुराने रास्ते से निकल पड़ी, जहाँ कोई पहरा नहीं था।

    रात की स्याही में लिपटी वो लड़की, एक अनजाने सफर पर निकल गई—न कोई ठिकाना, न कोई मंज़िल।

    स्टेशन तक पहुँचते-पहुँचते सुबह के 5 बज चुके थे। चेहरे पर थकान, पाँवों में ज़ख्म, और दिल में सिर्फ़ एक सवाल—

    "अब कहाँ जाना है?"

    🌅 सुबह—हवेली में

    Zayyan, रोज़ की तरह 6 बजे उठता है। सबसे पहले Liyana के कमरे की ओर बढ़ता है। दरवाज़ा खुला था। पर्दे हल्के हवा में हिल रहे थे। बिस्तर जस का तस था, लेकिन उस पर Liyana नहीं थी।

    उसके माथे पर शिकन दौड़ गई।

    "Liyana?"—उसने धीमे से आवाज़ दी, पर कोई उत्तर नहीं।

    फिर तेज़ी से उसने अपने अंगरक्षकों और मुलाज़िमों को बुलाया।

    "पूरी हवेली छान मारो! Liyana कहीं नहीं दिख रही!"

    हवेली में हड़कंप मच गया।

    Mariam बेगम की आँखें डबडबा गईं।

    Afroz साहब चुपचाप थे—जैसे उनके शब्द भी इस वक्त थम गए थे।

    तभी दरवाज़े से Zayyan के तीनों छोटे भाई—Aqib, Atif और Zubair— दाखिल हुए। वो छुट्टियों से विदेश से लौटे ही थे।

    Zayyan ने गुस्से में उन्हें देखा, "तुम लोग आ गए? अच्छा हुआ। एक बड़ी मुसीबत हो गई है—Liyana गायब है।"

    Atif चौंक गया, “गायब? क्या मतलब?”

    Zubair ने तुरंत ज़िम्मेदारी समझते हुए कहा,

    "Bhai, CCTV फुटेज देखना होगा। अगर वो गई है, तो कैमरे में ज़रूर दिखाई देगी।"

    Zayyan ने बिना देर किए सिक्योरिटी रूम की तरफ़ दौड़ लगाई। स्क्रीन पर टाइमलाइन खोली गई।

    2:06 AM—कैमरे में हल्की हलचल दिखी।

    दुपट्टा उड़ता हुआ… हल्की परछाई सी… नंगे पाँव भागती एक लड़की…

    Liyana।

    Zayyan की मुट्ठियाँ कस गईं। चेहरा पत्थर हो गया। आँखों में ऐसा तूफ़ान था, जो सबकुछ बहा ले जाए।

    "उसने भागने की हिम्मत कैसे की…?"—उसका गुस्सा उबाल मारने लगा।

    Zubair बोला, "भैया, उसने भागने से पहले किसी से बात नहीं की?"

    Zayyan ने ज़मीन की ओर देखा, और बमुश्किल खुद को संभालते हुए कहा:

    "उसने मुझसे कुछ नहीं कहा... कुछ भी नहीं। और ये बात ही मुझे सबसे ज़्यादा तोड़ रही है।"

    Aqib और Atif को अब समझ आया कि मामला सिर्फ़ किसी लड़की के भागने का नहीं था—Zayyan के दिल की चुप्पी टूट चुकी थी।

    Zayyan, अब चुप नहीं बैठ सकता था।

    उसने अपने पर्सनल ड्राइवर को बुलाया और आदेश दिया:

    "स्टेशन, बस अड्डा, हर गली—हर कोना खंगालो। वो जहाँ भी हो… मुझे चाहिए। ज़िंदा और सलामत।"

    उसका चेहरा अब एक प्रेमी का नहीं, बल्कि आग में झुलसते सम्राट का था।

    हवेली के दरवाज़े से निकलते समय, Zayyan की आंखों में सिर्फ एक ही बात थी:

    "आप क्यों गईं, Liyana...? जब मैं आपके साथ था?"

    अध्याय 4 समाप्त।

  • 5. In the shadows of moonlight - Chapter 5

    Words: 1263

    Estimated Reading Time: 8 min

    अध्याय 5: "ज़िम्मेदारी या मोहब्बत?"

    स्टेशन के कोने में बैठी Liyana की आँखें अब भी नम थीं, पर आवाज़ में वही दृढ़ता थी।

    "मैं आपके साथ नहीं जाऊँगी, Zayyan साहब। न हवेली, न कहीं और।"

    Zayyan, अब उस इंसान में बदल चुका था जो कभी खुद को नहीं पहचानता था। भीड़ से बेपरवाह, उसने Liyana की कलाई कसकर पकड़ ली।

    "बहुत हो गया ये इज़्ज़त का नाटक, अब मेरे साथ चलो। तुम जानती नहीं हो मैं क्या कर सकता हूँ।"

    Liyana ने खुद को छुड़ाने की लाख कोशिश की।

    "छोड़िए मुझे! मुझे आपके साथ कहीं नहीं जाना है!"

    उसकी आवाज़ में रोष था, उसकी आँखों में डर।

    पर Zayyan का सब्र अब टूट चुका था।

    एक झन्नाटेदार थप्पड़ उसके गाल पर पड़ा।

    स्टेशन की आवाज़ें थम गईं, और Liyana का चेहरा झुक गया।

    उसने थरथराती आवाज़ में कहा, "आप भी वैसे ही निकले… जैसे दुनिया। मेरा किरदार, मेरी चुप्पी… सब पे ज़ुल्म। मैं अब भी कहती हूँ — मैं आपके साथ नहीं जाऊँगी।"

    Zayyan ने कोई सफाई नहीं दी। उसका चेहरा सख्त था, आँखें बुझी हुई — लेकिन गुस्से से जलती।

    उसने Liyana को ज़बरदस्ती गाड़ी में बिठाया।

    "हवेली नहीं जाना चाहती न? ठीक है। Farmhouse चलो। वहाँ सिर्फ मैं और तुम होंगे। कोई सवाल नहीं, कोई ताना नहीं।"

    🚗 सड़क पर सन्नाटा पसरा था।

    Liyana रो रही थी, चुपचाप। पर अब आँसू बहने से ज़्यादा, आत्मा में घुटन थी।

    "पापा… आपने तो कभी ऊँची आवाज़ में बात तक नहीं की थी। ये आदमी मुझे तमाचा मारता है, जबरदस्ती करता है… और कहता है, ये उसका हक़ है।" उसने खुद से बुदबुदाया।

    Farmhouse एकांत में था — हवेली से दूर, शांति से भरा। मगर Liyana के लिए ये शांति एक कैद थी।

    कमरा सुंदर था — दीवारें हल्की नीली, फर्श पर मुलायम कालीन, रेशमी चादर वाला बिस्तर। पर ये साज-सज्जा, उसकी हालत से जुदा थी।

    वो चुपचाप फर्श पर बैठ गई।

    🌙 उसी रात, Zayyan फार्महाउस के बरामदे में बैठा था, अकेला।

    Zubair, Aqib और Atif — तीनों भाई आ पहुँचे थे, खबर सुनकर।

    Zubair ने सबसे पहले कहा, "Bhai… आपने उससे हाथ उठाया? और अब उसे यहाँ ला कर बंद कर दिया? ये मोहब्बत नहीं है।"

    Atif ने आँखें तरेरीं, "आप जो कर रहे हैं वो ग़लत है। ये प्यार नहीं, पागलपन है। उसे आपसे डर लग रहा है।"

    Zayyan ने कोई जवाब नहीं दिया।

    Aqib ने धीरे से कहा, "आपको उससे प्यार है न?"

    Zayyan ने ठंडी साँस ली और कुछ पल खामोश रहा, फिर फर्श की ओर देखते हुए बोला — "मुझे उससे मोहब्बत नहीं हो सकती। उस पर सिर्फ एक ज़िम्मेदारी है मेरी। Yaseen chacha की आखिरी अमानत है वो। मैंने उसे बचाया… अब ज़िंदगी भर उसका ख़्याल रखना मेरा फ़र्ज़ है।"

    Zubair बोला, "फर्ज़ में तमाचे नहीं होते, भाई… ज़िम्मेदारी में ज़ोर जबरदस्ती नहीं होती।"

    Zayyan की आँखें नम थीं, पर उसने आंसुओं को रोक लिया।

    "मैं पछता रहा हूँ… बहुत पछता रहा हूँ," — उसने धीमे से कहा, "पर उसके सामने नहीं दिखा सकता। मेरा झुकना, उसके घाव पर नमक होगा। मैं सिर्फ इंतज़ार कर सकता हूँ… कि एक दिन वो समझे — कि मैं गलत था… पर जानबूझकर नहीं था।"

    🌧 Liyana कमरे के कोने में बैठी थी।

    वो अब चुप थी, थकी हुई थी।

    खिड़की के बाहर चाँद था… वैसा ही, जैसा वो बचपन में पापा के साथ देखा करती थी।

    "उन्होंने मुझे कभी रोने नहीं दिया… और आज, हर आँसू उनके बिना गिरता है।" उसने खुद से कहा।

    "क्या यही मोहब्बत है? ज़ोर? थप्पड़? घसीटना?"

    "नहीं। ये सिर्फ़ दिखावा है — ज़िम्मेदारी का… हक़ का… अहंकार का।" उसने खुद से वादा किया — "मैं अब फिर से किसी हवेली की दहलीज़ पर नहीं जाऊँगी। जहाँ मेरी इज़्ज़त सवाल बन जाए, वहाँ मेरा कोई रिश्ता नहीं।"

    🌌 फार्महाउस के बाहर बारिश गिर रही थी।

    Zayyan खिड़की पर खड़ा था, उसके हाथ कांप रहे थे।

    पर चेहरा… अब भी वैसा ही सख्त।

    भीतर से टूटा हुआ, पर बाहर से पत्थर।

    "वो सही है… मैं गलत था। पर शायद मैं उसे अब कभी ये कह भी न सकूं।" उसने फुसफुसाते हुए कहा।

    रात के 2 बजे का समय था। फार्महाउस में सब कुछ शांत था। बाहर हल्की हवा चल रही थी और चाँद बादलों से आँख-मिचोली खेल रहा था।

    कमरे के कोने में बैठी Liyana, अब शांत नहीं थी — वो योजना बना रही थी।

    "अब और नहीं," उसने खुद से कहा। "यह कैद, यह बेड़ियाँ, ये तमाचे — ये सब उस बेटी के लिए नहीं हैं जिसे उसके पापा ने कभी डाँटा तक नहीं।"

    धीरे-धीरे उसने कमरे की दीवार के कोने से छोटा सा हैंगर का लोहे का टुकड़ा निकाला जो उसने 2 दिन पहले देखा था। शायद किसी ने पर्दा बदलते वक़्त वहाँ गिरा दिया था।

    उसने उसे जमीन पर घिसकर थोड़ा तेज़ बनाया और रस्सी की गाँठों को काटने लगी, जो Zayyan ने उसके पैरों में बाँध रखी थी।

    आँखों में आँसू नहीं थे, पर होंठ कांप रहे थे — डर से नहीं, जिद से।

    करीब 1 घंटे की मशक्कत के बाद रस्सियाँ ढीली पड़ गईं।

    धीरे से उसने खिड़की का पर्दा हटाया और बाहर की ओर झाँका। कोई चौकीदार नहीं था। Zayyan शायद अंदर अपने कमरे में सो रहा था।

    वो चुपचाप खिड़की से निकली।

    फार्महाउस के पिछवाड़े झाड़ियों से होते हुए वो खेतों की ओर भागी।

    पाँव कांप रहे थे, कपड़े मिट्टी में लथपथ हो चुके थे, मगर आँखों में सिर्फ़ एक ही मंज़िल थी — आज़ादी।

    वो खेतों के उस पार एक सुनसान सड़क तक पहुँची ही थी कि…

    "Liyana!"

    एक गरजती हुई आवाज़ रात की खामोशी चीर गई।

    Zayyan!

    SUV की हेडलाइट्स ने उसे घेर लिया। गाड़ी से 2 बॉडीगार्ड उतरे, और वो भागती रही, पर वो तेज़ थे।

    Liyana को आखिरकार एक झाड़ी के पास पकड़ लिया गया।

    वो चिल्लाई — "छोड़ दो मुझे! मुझे आज़ाद रहना है! मैं कोई सामान नहीं हूँ!"

    Zayyan गाड़ी से उतरा, उसकी आँखें सुर्ख थीं।

    "अब बहुत हो गया, Liyana! मैं तुझसे बहस नहीं करूँगा!" उसने अपने अंगरक्षक को इशारा किया।

    "गाड़ी में डालो। इसी वक्त वापस फार्महाउस।"

    कमरे में दोबारा पहुँचा दिया गया।

    Liyana के बाल बिखरे हुए थे, चेहरा धूल और आँसुओं से गीला था, लेकिन आँखों में फिर भी वही आग थी।

    Zayyan ने कमरे का दरवाज़ा बंद किया, और इस बार लोहे की बेड़ियाँ लाकर उसके पैरों में बाँध दीं।

    "अब तुम कहीं नहीं जा सकतीं। तब तक नहीं, जब तक मैं खुद न कहूँ — अब जा सकती हो।"

    Liyana की आँखों से आँसू बह निकले।

    "आपको क्या लगता है? ये मोहब्बत है? नहीं, ये डर है… ज़ुल्म है… और मैं इससे टूटने वाली नहीं हूँ। आप चाहे बेड़ियाँ बाँध लें, मेरा हौसला कभी नहीं बाँध सकेंगे।"

    Zayyan एक पल को ठहर गया। उसकी मुट्ठियाँ बंधीं थीं।

    "मैं तुम्हें जाने नहीं दे सकता, क्योंकि तुम्हारी जान अब सिर्फ़ तुम्हारी नहीं रही… ये मेरी ज़िम्मेदारी है।"

    "तो निभाइए अपनी ज़िम्मेदारी… लेकिन इंसान बनकर। दरिंदा नहीं।"

    Zayyan ने कोई उत्तर नहीं दिया।

    वो बस कमरे से बाहर निकला और दरवाज़ा ज़ोर से बंद कर गया।

    बाहर निकलते ही बरामदे की दीवार से पीठ टिकाकर धीरे-धीरे फिसलकर नीचे बैठ गया।

    Zubair वहीं आ गया।

    "भैया, आपने फिर उसे कैद कर लिया?"

    Zayyan ने भर्राई आवाज़ में कहा — "मैं उसे खोना नहीं चाहता… लेकिन मैं खुद को भी अब पहचान नहीं पा रहा हूँ।"

    "क्या मैं सच में मोहब्बत कर रहा हूँ… या सिर्फ़ खुद को साबित करने की ज़िद निभा रहा हूँ?"

  • 6. In the shadows of moonlight - Chapter 6

    Words: 1795

    Estimated Reading Time: 11 min

    अध्याय 6: फ़ैसलों की सीढ़ियाँ

    सूरज ढलने को था। फार्महाउस की खामोशी में हल्की-हल्की हवा के झोंके पेड़ों को झुला रहे थे, लेकिन Zayyan के मन में तूफ़ान मचा था।

    Zayyan बालकनी में खड़ा था, गहरी सोच में डूबा। तभी Aqib, Atif और Zubair एक साथ उसके पास आए। तीनों के चेहरे पर गंभीरता थी।

    Aqib ने सबसे पहले चुप्पी तोड़ी,
    "भाईजान, आप पिछले 3 दिन से यहीं फार्महाउस पर ठहरे हुए हैं। मीडिया में सवाल उठने लगे हैं। MLA भी पूछ रहे हैं कि आप अचानक गायब क्यों हैं।"

    Atif ने तुरंत जोड़ा,
    "और सबसे बड़ी बात, आप Liyana को ज़्यादा देर तक यहां नहीं रख सकते। ये फार्महाउस कोई सुरक्षित जगह नहीं है।"

    Zayyan ने बिना उनकी तरफ देखे जवाब दिया,
    "मुझे मालूम है।"

    Zubair ने सीधा सवाल किया,
    "तो फिर आप क्या सोच रहे हैं? Haveli में ले जाना ही पड़ेगा। Maa भी लगातार पूछ रही हैं।"

    Zayyan ने आंखें बंद कीं, जैसे कोई भारी फैसला लेने जा रहा हो।

    "Main usse wapas Haveli nahi le jaa sakta aise hi... usne mujhe aankhon mein dekh kar kaha tha ki wo kisi ki bheek nahi chahti... aur is bar uska bharosa tod diya to kabhi nahi sambhalegi।" – Zayyan की आवाज़ भारी थी।

    तीनों भाइयों ने एक-दूसरे की तरफ देखा।

    Aqib मुस्कराया,
    "तो फिर क्या आप उसे यहीं कैद करके रखेंगे?"

    Zubair चुटकी लेते हुए बोला,
    "Ya fir shaadi karke is farmhouse ko uska permanent address bana denge?"

    तीनों हँस पड़े। लेकिन Zayyan का चेहरा गंभीर ही रहा।

    "ये मज़ाक नहीं है," उसने कहा। "Liyana कोई आम लड़की नहीं है। उसके साथ जो हुआ, वो किसी के साथ भी होता तो टूट जाता। पर वो... अब भी टिकी हुई है।"

    Atif ने धीरे से कहा,
    "भाईजान, आपकी आंखों में जो डर है, वो हम समझते हैं। आप डरते हैं कि कहीं वो फिर न भाग जाए… या कहीं दिल न टूटे।"

    Zayyan ने सिर हिलाया,
    "Main usse wapas Haveli le jaunga, मगर इस बार… अपने तरीक़े से। Maa se कह दो कि वो उसका कमरा तैयार रखें।"

    Zubair ने आंख मारी,
    "और अब्बू से?"

    Zayyan की आंखों में वही पुरानी आग चमक उठी,
    "Abbu se main खुद बात करूंगा। अब जो होगा, वो मेरे फैसले से होगा — किसी डर से नहीं।"

    तीनों भाई मुस्कराए। अब उन्हें पता था — तूफ़ान फिर से उठने वाला है। लेकिन इस बार, Zayyan उसका सामना करने को तैयार था।

    ---

    अगली सुबह की रोशनी फार्महाउस के बड़े शीशों से छनकर अंदर आ रही थी। पर सुबह की यह मुलायम रौशनी Zayyan के इरादों के सामने फीकी थी। हवाओं में एक अनकही बेचैनी थी, जैसे आसमान खुद किसी तूफ़ान के आने की खबर दे रहा हो।

    Liyana गहरी नींद से जगी ही थी कि दरवाज़े पर हल्की-सी दस्तक हुई।

    "बीबी साहिबा," एक महिला सेविका की आवाज़ थी, "मुख्यमंत्री साहब ने आपको नीचे हॉल में बुलाया है।"

    Liyana चौंकी। उसका दिल तेजी से धड़कने लगा। पिछली रात उसने Zayyan की आंखों में कुछ देखा था — कुछ ऐसा जो उसे डरा गया था। वो सिर्फ मोहब्बत नहीं थी… उसमें जिद थी, जुनून था… और कुछ ऐसा जो लियाना को असहज कर रहा था।

    उसने जल्दी से दुपट्टा ओढ़ा और नीचे चल पड़ी।

    हॉल में माहौल

    हॉल की साज-सज्जा बेहद भव्य थी, लेकिन उस समय वहां का माहौल बर्फ-सा ठंडा और खौफनाक था। Zayyan बड़े सोफ़े पर बैठा था, उसके तीनों भाई — Aqib, Atif और Zubair — पास में कुर्सियों पर थे। चारों तरफ़ हथियारबंद सिपाही कतार में खड़े थे, जैसे किसी युद्ध की तैयारी हो।

    Liyana ने अंदर कदम रखा तो सबकी नज़रें उसी पर टिक गईं।

    Zayyan ने गंभीर स्वर में कहा,
    "आओ, Liyana... यहां बैठो।"

    वो कुछ कदम आगे बढ़ी पर रुक गई,
    "तुमने मुझे यहां क्यों बुलाया है?"

    Zayyan ने इशारे से पास की कुर्सी की तरफ दिखाया,
    "क्योंकि आज तुम्हें फैसला लेना है। या तो मेरे साथ… या सब कुछ छोड़ कर।"

    Liyana की आंखों में सवाल थे,
    "तुम ऐसा क्यों कर रहे हो, Zayyan? तुम वही हो ना जिसने मुझे भरोसा दिलाया था कि मेरी मर्ज़ी के बिना कुछ नहीं होगा?"

    Zayyan उठा, उसकी आंखें लाल हो चुकी थीं। वो कुछ कदम चला, फिर रुक कर बोला,
    "मैंने तुमसे वादा किया था, नहीं… तुम्हारे अब्बा से किया था कि मैं तुम्हारी हिफ़ाज़त करूंगा। ये वादा मेरा बोझ नहीं है, ये मेरा ईमान है।"

    Liyana ने कांपते स्वर में कहा,
    "तो क्या इस तरह धमका कर, डराकर… ये निभाओगे?"

    Zayyan की आंखों में कुछ और गहरा उतर आया। उसने अपनी कमर से पिस्तौल निकाली और एक कोने में खड़े सिपाही की ओर इशारा किया।

    "Faisal, सामने आओ।"

    सिपाही आगे आया। वो घबराया हुआ था।

    Zayyan ने कहा,
    "तुमने उस दिन मेरी बात अनसुनी की थी, जब मैंने कहा था कि Liyana के कमरे के पास कोई न जाए बिना इजाज़त।"

    Faisal ने कांपते हुए कहा,
    "हुजूर… वो गलती से—"

    धांय!!

    Zayyan ने बिना एक पल गवाएं गोली चला दी। सिपाही वहीं गिर पड़ा। पूरे हॉल में सन्नाटा छा गया।

    Liyana चीख पड़ी,
    "Zayyan! तुम पागल हो गए हो क्या?"

    Zayyan उसकी तरफ तेज़ी से बढ़ा और आंखों में आंखें डालकर बोला,
    "हां, हो गया हूं। क्योंकि अब तुम सिर्फ मेरी ज़िम्मेदारी नहीं हो… तुम वो कसम हो जिसे मैं हर हाल में पूरा करूंगा। अगर तुमने इंकार किया, तो एक-एक करके सब मरेंगे। क्योंकि ये मेरी मोहब्बत नहीं, मेरा फ़र्ज़ है।"

    तीनों भाई चुप थे। कोई कुछ नहीं बोला।

    Liyana फूट पड़ी,
    "Zayyan, तुम्हें क्या लगता है? इस डर से मैं तुमसे शादी कर लूंगी? ये मोहब्बत नहीं, कैद है।"

    Zayyan ने शांत लेकिन सख़्त स्वर में कहा,
    "तो कैद ही सही। पर उस कैद में तुम्हारी जान सलामत रहेगी। मुझे फर्क नहीं पड़ता तुम मुझसे नफरत करती हो… लेकिन मैं तुम्हें किसी और की तरह टूटते हुए नहीं देख सकता। अब फैसला तुम्हारे हाथ में है — मेरी बीवी बनो… या इस दुनिया को अलविदा कह दो।"

    Liyana कांप रही थी। उसके पांव जैसे ज़मीन में धंस गए थे।

    Zubair ने धीरे से कहा,
    "भाईजान… इतना ज़्यादा…"

    Zayyan ने हाथ उठाकर उसे चुप कर दिया।

    "मैंने अब फैसला कर लिया है। आज रात निकाह होगा। Maulana को बुला लिया गया है। और जो भी बीच में आया… उसे वही अंजाम मिलेगा जो Faisal को मिला।"

    Liyana की आंखों से आंसू बहने लगे।
    "तुमने मुझे हमेशा से एक ज़िम्मेदारी समझा, कभी इंसान नहीं समझा।"

    Zayyan थोड़ा रुका। उसके चेहरे पर दर्द उभरा, लेकिन वो तुरंत फिर कठोर हो गया।

    "शायद मैं सही नहीं हूं, लेकिन मैं वही कर रहा हूं जो मेरे वादे के मुताबिक ज़रूरी है।"

    वो पीछे मुड़ा और तेज़ कदमों से हॉल से निकल गया। पीछे रह गए तीनों भाई… और रोती हुई Liyana।

    ---

    कुछ घंटे बाद...

    Liyana अपने कमरे में बंद थी। उसके अंदर तूफ़ान चल रहा था। गुस्सा, दर्द, अपमान — सब कुछ एक साथ। वो ज़मीन पर बैठी रो रही थी, लेकिन अब आंसुओं के साथ एक और भावना जुड़ चुकी थी… सवाल।

    "क्या मेरी ज़िन्दगी सच में मेरे हाथ में नहीं?"

    तभी Mariam बेगम कमरे में आईं। उन्होंने धीरे से दरवाज़ा खोला और अंदर आईं।

    "बेटा..." उन्होंने धीरे से कहा, "मैं जानती हूं तुम्हारे साथ जो हो रहा है, वो गलत है। लेकिन तुम जो फैसला लो, दिल से लो। Zayyan सिर्फ एक शख्स नहीं है… वो खुद को दुनिया से लड़ाने को तैयार है — सिर्फ तुम्हारे लिए।"

    Liyana ने सिर उठाया।
    "क्या जबरदस्ती का नाम भी अब मोहब्बत है?"

    Mariam ने गहरी सांस ली,
    "नहीं… लेकिन कुछ फैसले हालात की आग में जलकर ही निकलते हैं। ये आग तुम्हें भी जलाएगी… और उसे भी।"

    ---

    रात का वक्त...

    हर कोने में रौनक और शोर था। Maulana साहब आ चुके थे। कमरे में गुलाब और मोगरे की खुशबू फैली थी — पर माहौल सज़ा की तरह लग रहा था।

    Zayyan शेरवानी में तैयार था। उसका चेहरा भावशून्य था। Aqib ने धीरे से कहा,
    "भाईजान, क्या ये वाकई ज़रूरी था?"

    Zayyan ने आंखों में गहराई से देखा और बोला,
    "बहुत ज़रूरी। अगर आज ये रिश्ता ना जुड़ा… तो सब कुछ टूट जाएगा।"

    Atif बोला,
    "लेकिन दिल तोड़कर रिश्ता नहीं बनता, भाई…"

    Zayyan कुछ नहीं बोला।

    इसी बीच Mariam बेगम, Liyana को लेकर निकाह वाले कमरे में आईं। लियाना की आंखें लाल थीं। चेहरे पर विरोध था, लेकिन चाल में मजबूरी थी।

    Maulana साहब ने सबको बैठने का इशारा किया।

    "Nikah ke liye larki ka naam?"

    Mariam बोलीं,
    "Liyana Noor bint Yaseen Qureshi."

    "Aur ladke ka?"

    Zubair ने कहा,
    "Zayyan Al-Mutakabbir bin Afroz Al-Mutakabbir."

    Maulana साहब ने पूछा,
    "Liyana Noor bint Yaseen Qureshi, kya aapko Zayyan Al-Mutakabbir ke nikah mein kabul hai?"

    तीन बार सवाल दोहराया गया।

    हर बार Liyana चुप रही।

    Zayyan की आंखों में गुस्सा उबल रहा था, पर वो कुछ नहीं बोला।

    आखिर तीसरी बार, Liyana ने कांपते होठों से कहा,
    "…kabul hai…"
    निकाह का पल

    Maulana साहब ने जैसे ही Liyana की धीमी “क़ुबूल है” सुनी, कमरे में मौजूद सभी गवाहों के चेहरे गंभीर हो गए। Mariam बेगम ने लियाना का हाथ हल्के से थामा, जैसे उस टूटे हुए पल में उसे सहारा देना चाहती हों।

    Maulana साहब ने अब रुख किया Zayyan की ओर। वो अब भी चुपचाप बैठा था, उसकी आंखों में वो सब कुछ साफ़ दिख रहा था — जिद, दर्द, मोहब्बत, और वादा।

    Maulana साहब ने पूछा:

    "Zayyan Al-Mutakabbir bin Afroz Al-Mutakabbir, kya aapko Liyana Noor bint Yaseen Qureshi ka nikah mein qubool hai?"

    Zayyan की नज़रें सीधी Liyana पर जा टिकीं — जो सिर झुकाए बैठी थी, दुपट्टे में खुद को छुपाए हुए, जैसे उसकी रूह भी कांप रही हो।

    Maulana साहब ने दोबारा पूछा:

    "Kya aapko Liyana Noor bint Yaseen Qureshi ka nikah mein qubool hai?"

    Zayyan की मुठ्ठियाँ भींच गईं, और उसके होठों से ठंडे लेकिन दृढ़ स्वर में निकला:

    "Qubool hai..."

    Maulana साहब ने तीसरी बार दोहराया:

    "Kya aapko Liyana Noor bint Yaseen Qureshi ka nikah mein qubool hai?"

    Zayyan ने अबकी बार थोड़ा ज़ोर से कहा:

    "Qubool hai!"

    Maulana साहब ने दस्तावेज़ों पर दस्तखत करवाए। गवाहों ने भी दस्तखत किए। आवाज़ आई:

    "Mubarak ho. Nikah mukammal hua."

    पर ये "मुबारकबाद" किसी जश्न की तरह नहीं, एक सज़ा का ऐलान लग रही थी।

    ---

    निकाह के बाद का सन्नाटा

    कमरा तालियों से नहीं, खामोशी और सिसकियों से गूंजा। Zubair और Atif की आंखों में अफ़सोस था। Aqib ने सिर झुका लिया।

    Liyana अब भी ज़मीन की ओर देख रही थी। उसने एक बार भी Zayyan की ओर नहीं देखा।

    Mariam बेगम ने धीरे से उसके सिर पर हाथ रखा और कहा:

    "अब तुम हमारी बहू नहीं, इस घर की इज़्ज़त हो। पर इज़्ज़त दिल से मिलती है… मजबूरी से नहीं।"

    Zayyan अब भी मौन खड़ा था। उसके मन में तूफ़ान था — क्या उसने अपना वादा निभाया, या एक मासूम को कैद कर दिया?

    उसने खुद से नज़रें चुराकर बस इतना कहा:

    "अब ये रिश्ता अल्लाह के नाम पर बंध चुका है। और मैं उसे निभाऊँगा… चाहे मेरी रूह टुकड़े-टुकड़े हो जाए।"

  • 7. In the shadows of moonlight - Chapter 7

    Words: 1662

    Estimated Reading Time: 10 min

    अध्याय 7: निकाह के बाद की राह

    निकाह की मुकम्मल रस्म के बाद हवाओं में सिर्फ एक ही चीज़ थी — सुकून और एहतराम। इमाम साहब की दुआ और ‘क़ुबूल है’ की गूंज ने दोनों रूहों को एक पाक बंधन में बाँध दिया था। मेहर की रकम तय हुई, गवाह मौजूद थे, और ज़ैयान ने लियाना को बतौर अपनी बीवी खुले दिल से कबूल किया।

    अब सब कुछ बदल चुका था। लियाना अब ज़ैयान अल-मुतकब्बिर की बीवी थी — ना किसी की मेहमान, ना किसी की मोहताज।

    निकाह की रस्म के बाद ज़ैयान ने सभी मेहमानों की तरफ रुख करते हुए गंभीर और मजबूत लहजे में कहा,

    "अब हम सब हवेली चलेंगे। वहाँ से हमारी ज़िंदगी का नया सफर शुरू होगा। सब लोग तैयारी कर लें।"

    सब कुछ सामान्य लग रहा था, लेकिन तभी ज़ैयान की माँ, मरीयम बेग़म ने धीरे से कहा,

    "ज़ैयान, ज़रा रुको बेटा।"

    ज़ैयान उनकी तरफ पलटा। मरीयम बेग़म का चेहरा शांत था लेकिन उनके लफ्ज़ों में एक अहम बात छुपी थी।

    "तुम्हारी बुआ, यानी तुम्हारे अब्बा की बहन… वो इस निकाह के बारे में नहीं जानतीं," उन्होंने धीमे स्वर में कहा।

    ज़ैयान की भौंहें सिकुड़ गईं, "तो क्या हुआ अम्मी?"

    मरीयम ने गहरी सांस ली, "बेटा, वो चाहती थीं कि तुम्हारी शादी यूपी के मंत्री की बेटी से हो। बहुत पहले से ये रिश्ता तय करने की कोशिश चल रही थी। तुम्हारे अब्बा भी उनके पक्ष में थे। तुम्हारी बुआ इस रिश्ते को इज़्ज़त का मामला मानती हैं। और अब जब उन्हें ये निकाह पता चलेगा, तो वो लियाना को कबूल नहीं करेंगी।"

    लियाना की नजरें ज़मीन में गड़ गईं। उसकी उंगलियाँ कांप उठीं। ज़ैयान ने उसकी ओर देखा — और उसकी खामोशी में छुपे डर को महसूस कर लिया।

    मरीयम बेग़म ने आगे कहा, "बेटा, मैंने इस लड़की को अपनी बेटी की तरह अपनाया है। लेकिन हवेली में हर दिल इतना खुला नहीं। तुम्हारी बुआ का असर पूरे खानदान पर है। तुम्हें अब अपने फैसले की हिफ़ाज़त करनी होगी… और अपनी बीवी को किसी भी हाल में रुसवा नहीं होने देना होगा।"

    ज़ैयान ने अपनी मुट्ठियाँ भींच लीं। उसकी नीली आँखों में आग झलक उठी।

    "अम्मी, लियाना मेरी बीवी है — निकाह के सारे उसूलों के साथ। जिसने इसे ठुकराया, उसने मुझे ठुकराया। और मैं अपनी बीवी की इज़्ज़त पर कोई सौदा नहीं करूंगा।"

    उसने लियाना का हाथ थाम लिया — मज़बूती से, भरोसे से।

    "अब ये सिर्फ हवेली का सफर नहीं है, बल्कि एक इम्तिहान की शुरुआत है। लेकिन मैं हर क़दम पर इसके साथ हूँ… चाहे कोई भी खिलाफ क्यों ना हो।"

    लियाना की आँखों में हल्का सुकून झलका, जैसे उसे अब यकीन हो चला था कि वो अकेली नहीं है।

    हवेली की ओर पहला क़दम बढ़ चुका था — एक बीवी की इज़्ज़त, और एक शौहर की ज़िम्मेदारी के साथ।

    फार्महाउस के बाहर SUVs की एक लंबी कतार खड़ी थी। स्टाफ और सुरक्षाकर्मी तैयार खड़े थे। हवेली लौटने का वक़्त आ चुका था — लेकिन अब यह वापसी साधारण नहीं थी। आज ज़ैयान की बग़ल में उसकी बीवी बैठी थी, उस निकाह के साथ जो किसी ने सोचा नहीं था।

    ज़ैयान की माँ मरीयम बेग़म, और उनके तीनों बेटे — अाक़िब, अातिफ़ और जुबैर — अपने-अपने वाहनों में सवार हो चुके थे। पर सबसे पीछे की काली कार में बैठे थे ज़ैयान और लियाना — साथ में, लेकिन एक अजीब सी दूरी के साथ।

    कार का दरवाज़ा ज़ैयान ने खुद लियाना के लिए खोला था। वह धीरे से अंदर बैठी, अपना दुपट्टा सिर पर सलीके से जमाते हुए। ज़ैयान उसके ठीक बगल में बैठा, लेकिन दोनों के बीच एक गहराई से भरी ख़ामोशी पसरी हुई थी।

    कार चल पड़ी। बाहर की सड़कें पीछे छूटने लगीं, लेकिन लियाना का मन कहीं अटक गया था — उसी निकाह की उन लम्हों में, जो उसके लिए किसी बेमौसम तूफ़ान की तरह आए थे।

    पीछे की सीट पर बैठी लियाना खिड़की की तरफ हल्का झुकी हुई थी। चेहरा झुका हुआ, आँखें नम, और सोचें उलझी हुईं। ज़ैयान चुपचाप उसकी तरफ देख रहा था — जैसे वो उसके अंदर की हलचल को बिना लफ़्ज़ों के पढ़ने की कोशिश कर रहा हो।

    लियाना के मन में जैसे एक जंग चल रही थी —

    "मैंने निकाह तो कर लिया... पर मेरा दिल अब तक इस रिश्ते को पूरी तरह नहीं मान सका।"

    "क्या ये शादी बस एक वादा निभाने के लिए हुई? या इसमें मेरे लिए भी कोई जगह है?"

    उसने एक गहरी सांस ली, और आँखें बंद कर लीं।

    "अगर मैं इस रिश्ते को सचमुच कबूल कर लूं... तो क्या मुझे ज़ैयान को उसका हक़ देना होगा? एक शौहर होने का पूरा हक़? क्या मैं तैयार हूँ इस सबके लिए?"

    ज़ैयान अब भी चुप था, पर उसकी निगाहें सिर्फ लियाना पर थीं। उसकी हर हरकत, हर झिझक वो महसूस कर रहा था — लेकिन उसने कुछ नहीं कहा।

    गाड़ी में AC की ठंडी हवा बह रही थी, लेकिन लियाना के माथे पर पसीने की नमी थी।

    "क्या मुझे अब हर वक़्त उसके साथ रहना होगा? उसकी बीवी बनकर? क्या मैं अपने दिल को ये मानने पर मजबूर कर सकती हूँ कि अब मेरा वजूद सिर्फ मेरा नहीं, उसका भी है?"

    ज़ैयान ने धीरे से एक पानी की बोतल उसकी ओर बढ़ाई, बिना कुछ कहे। लियाना ने देखा, फिर झिझकते हुए बोतल ली और एक घूंट भरा।

    "वो मेरा दुश्मन नहीं है... लेकिन अपना भी तो नहीं लगता।"

    उसकी उंगलियाँ कांप रही थीं। उसने खुद को संभालने की कोशिश की।

    "अगर मैं इस शादी को सच में अपना लूं... तो क्या मैं खुद से हार जाऊंगी? या फिर शायद किसी सुकून की शुरुआत वहीं से होगी?"

    गाड़ी की रफ्तार तेज़ थी, लेकिन अंदर वक्त ठहर गया था। कुछ कहे बिना ही बहुत कुछ हो रहा था।

    ज़ैयान ने हल्की आवाज़ में पूछा, "सब ठीक है?"

    लियाना ने गर्दन हिलाई — ना में नहीं, हाँ में भी नहीं। बस एक धीमा-सा इशारा जो कहता था: “मैं खुद नहीं जानती।”

    गाड़ी हवेली के रास्ते पर मुड़ चुकी थी।

    लियाना ने एक आखिरी बार बाहर देखा — खेत, पेड़, रास्ते… सब पीछे छूट रहे थे। और अब उसके सामने था एक महल — जो शायद उसका घर था, शायद नहीं भी।

    लेकिन एक बात तय थी — उसके दिल की जंग अब शुरू हो चुकी थी।

    गाड़ी हवेली के बड़े दरवाज़े पर आकर रुकी। दरवाज़े पर खड़े गार्डों ने फौरन सलाम किया, लेकिन माहौल में सन्नाटा था — जैसे हवेली खुद ज़ैयान और लियाना के स्वागत के लिए तैयार नहीं थी।

    ज़ैयान ने लियाना की तरफ देखा, उसके चेहरे पर हल्की थकान और डर की परतें थीं। यह वही हवेली थी, जहाँ से वो एक बार दुखी होकर भागी थी। लेकिन आज वह यहां ज़ैयान की बीवी बनकर लौटी थी।

    ज़ैयान ने दरवाज़ा खोला, पहले खुद उतरा और फिर लियाना को सहारा देकर नीचे उतरने में मदद की। उसके हाथों का यह स्पर्श किसी दावे जैसा था — “अब तुम अकेली नहीं हो।”

    लियाना ने नज़रें उठाई ही थीं कि हवेली की दहलीज़ पर एक कड़वी आवाज़ गूंज गई —

    “क़दम मत रखो इस हवेली में!”

    आवाज़ उसके अब्बा जान, अफरोज़ अल-मुतकब्बिर की थी। उनके चेहरे पर गुस्से की लकीरें साफ़ थीं, और लहजा इतना सख़्त कि हवेली के हर कोने में सनाटा छा गया।

    लियाना सहम गई। ज़ैयान ने उसका हाथ और कस लिया।

    “मैं इस निकाह को नहीं मानता,” अफरोज़ साहब ने दो टूक कहा, “जिसने खानदान की इज्जत का सौदा किया हो, वो इस हवेली में क़दम नहीं रख सकता।”

    अभी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि पीछे से तेज़ और कड़वी आवाज़ सुनाई दी —

    “और यह लड़की?” — ज़ैयान की बुआ, रईसा बेग़म, सख्त चेहरे के साथ सामने आ गईं।
    “कौन है ये? कहाँ से उठाकर लाए हो इसे? हमारी हैसियत, हमारा दर्जा, हमारी सियासत — इन सबसे इसका कोई वास्ता नहीं! और तुम इसे बहू बनाकर ले आए? तुम्हारी शादी तो यूपी के मुख्यमंत्री की बेटी से तय हो चुकी थी!”

    लियाना का चेहरा सफ़ेद पड़ गया। इतने लोगों के सामने उसका यूँ अपमान… लेकिन ज़ैयान की पकड़ अब भी उसके हाथ पर मज़बूती से थी।

    तभी ज़ैयान ने एक क़दम आगे बढ़ाया। उसकी आँखों में नीला नहीं, अंगारे थे।

    “बस कीजिए बुआ!” उसकी आवाज़ बम की तरह गूंजी।
    “जिस औरत के बारे में आप इतनी बेहूदगी से बोल रही हैं, वो अब मेरी बीवी है। मेरी बीवी! और जो कोई इसकी इज़्ज़त पर उंगली उठाएगा, समझ ले कि वो मुझ पर उंगली उठा रहा है।”

    सब चुप हो गए। लेकिन ज़ैयान का ग़ुस्सा अब रुकने वाला नहीं था।

    “और आप, अब्बा जान…” उसकी नजरें सीधी अफरोज़ साहब की आँखों में थीं, “अगर आप मेरी बीवी को इस हवेली में जगह देने से इंकार कर रहे हैं, तो सुन लीजिए — मैं भी कोई मोहताज नहीं हूं इस घर का। ये खानदान मुझसे है… मैं इस खानदान से नहीं।”

    उसकी सांसें तेज़ थीं, लेकिन आवाज़ एकदम साफ़ और मजबूत।

    “आप कहते हैं कि मेरी शादी उस लड़की से तय थी जो एक मुख्यमंत्री की बेटी है?” ज़ैयान ने तंज भरी हँसी के साथ कहा,
    “मैं चाहूं तो उस मुख्यमंत्री की गद्दी को जड़ से हिला सकता हूं… आपकी पार्टी को मिट्टी में मिला सकता हूं। लेकिन मैं सियासत अपनी बीवी की इज़्ज़त के नीचे नहीं रखता।”

    अब हवेली का आँगन खामोशी में डूब गया था। किसी की हिम्मत नहीं हुई ज़ैयान के सामने कुछ कहने की।

    तभी ऊपर की बालकनी से एक भारी लेकिन शालीन आवाज़ आई —

    “बहू को ज़्यादा देर तक दहलीज़ पर खड़ा रखना कोई अच्छी बात नहीं होती।”

    यह दादा जान थे — ज़ैयान के दादा, खानदान की सबसे बुज़ुर्ग और प्रभावशाली हस्ती। उनके लफ्ज़ों में नर्मी थी, पर असर ऐसा कि अफरोज़ साहब और रईसा बेग़म के चेहरे झुक गए।

    “उसे अंदर ले आओ,” उन्होंने धीरे से कहा, “हम बात बाद में करेंगे।”

    ज़ैयान ने बिना कुछ कहे लियाना का हाथ थामा और उसे हवेली की दहलीज़ पार करवाया — एक वक़्त था जब यह घर उसके लिए अजनबी था, लेकिन आज... वह उसी घर की बहू बन चुकी थी।

    और हवेली की खामोश दीवारें गवाह बन गईं — एक लड़ाई की जो मोहब्बत और इज़्ज़त के लिए लड़ी जा रही थी।

  • 8. In the shadows of moonlight - Chapter 8

    Words: 1556

    Estimated Reading Time: 10 min

    हवेली के ऊँचे बुर्जों से रात की ठंडी हवा बह रही थी। पूरा आँगन चाँदनी में डूबा हुआ था, जैसे सितारों ने ज़मीन पर भी अपना जादू बिखेर दिया हो। हवेली के एक कोने में, वह कमरा जहाँ आज एक नई दुल्हन को उसके शौहर के साथ पहली बार एकांत मिलना था—गुलाब और चमेली की महक से महक रहा था। कमरे की हर दीवार पर रेशमी परदे लटके थे, और फर्श पर फैली गुलाब की पंखुड़ियाँ हर कदम पर किसी रहस्य की तरह बिछी थीं।

    Zayyan का कमरा—आज एक महकता हुआ सपना लग रहा था।

    Liyana को धीरे-धीरे उस कमरे तक लाया गया। उसके सिर पर दुपट्टा था, हाथों की मेहंदी अब तक रंग पकड़े थी, और नाक में वो नथ पड़ी थी जो निकाह की शाम उसकी माँ की यादों को समेटे उसके चेहरे पर सजाई गई थी।

    कमरे में दाख़िल होते ही Zayyan की मां, Mariam Begum, उसके पास आईं। उनके चेहरे पर एक अजीब-सी मुस्कान थी, जिसमें अपनापन भी था और एक गहरी समझ भी।

    "Liyana बेटा," उन्होंने उसकी काँपती हथेलियाँ थाम लीं, "मैं जानती हूँ कि आज की रात सिर्फ़ एक रस्म नहीं, बल्कि एक जज़्बात है... एक डर भी है, और उम्मीद भी। मैं ये नहीं कहती कि तुम आज ही इस रिश्ते को पूरी तरह अपना लो। लेकिन कोशिश करना, इसे समझने की... इसे महसूस करने की।"

    Liyana की आँखों में हल्की नमी थी। दिल की धड़कनें इतनी तेज़ थीं कि उसका चेहरा गुलाब से भी ज़्यादा सुर्ख हो चुका था। वो कुछ कह नहीं सकी, बस नज़रें नीची कर लीं।

    Mariam Begum ने उसके सिर पर हाथ फेरा, फिर कहा, "एक रस्म होती है, बेटा... पहली रात, जब शौहर अपनी बीवी की नथ उतारता है। वो सिर्फ़ एक ज़ेवर नहीं, बल्कि एक वादा होता है—इज़्ज़त, मोहब्बत और हमसफ़र बनने का। मैं चाहती हूँ कि Zayyan ये रस्म पूरी करे। सिर्फ़ मेरे लिए नहीं, तुम्हारे लिए भी।"

    इतना कहकर उन्होंने Liyana को Zayyan के पलंग पर बैठा दिया। बिस्तर रेशमी चादरों और गुलाब के हारों से सजा था। मोमबत्तियाँ चारों तरफ़ जल रही थीं, जैसे हर लौ किसी दिल की धड़कन का बयान दे रही हो।

    Mariam Begum कमरे से बाहर चली गईं।

    कुछ ही पलों में Zayyan कमरे में दाख़िल हुआ। उसका चेहरा गंभीर था, लेकिन आँखों में एक धीमा जज़्बा तैर रहा था। उसने अपनी मां से हुई बातचीत को याद करते हुए कहा,

    "Ammi ने कहा, एक रस्म है... मैं निभा दूंगा।"

    उसकी नज़र सीधी Liyana पर पड़ी। वो पलंग के किनारे बैठी थी, दोनों हाथ आपस में भींचे हुए, जैसे अपनी ही हथेलियों से खुद को संभालने की कोशिश कर रही हो। उसकी पलकों के नीचे छुपी घबराहट ज़ाहिर हो रही थी। उसकी साँसें भी कांप रही थीं।

    Zayyan कुछ पल खामोश रहा, फिर धीमे-धीमे उसके पास आया।

    "Tum ghabrao mat…" उसने कहा, "Main janta hoon ke yeh asaan nahi hai. Lekin tum akeli nahi ho."

    उसने एक कुर्सी खींचकर उसके सामने रखी और बैठ गया।

    "Yeh nath... tumne khud pehni thi?" Zayyan ने पूछा, उसकी आँखें उस नथ पर टिकी थीं।

    Liyana ने हल्के में सिर हिला दिया। "Nikah ke waqt... Ammi ne kaha tha... shaadi ke bina nath adhuri hoti hai…"

    Zayyan के चेहरे पर एक हल्की मुस्कान उभरी, लेकिन वो मुस्कान एक गहरे भाव में छिप गई।

    वह धीरे-धीरे अपनी जगह से उठा और Liyana के सामने झुक गया। उसकी उंगलियाँ काँपती हुई उस नथ की ओर बढ़ीं। उसके हाथ बेहद नर्मी से Liyana की नाक के पास पहुँचे, जैसे कोई गुलाब की पंखुड़ी को छू रहा हो। Liyana की पलकें झुक गईं, साँसें ठहरने लगीं। उसके गालों की गर्माहट मोमबत्ती की लौ जैसी लग रही थी।

    Zayyan ने धीरे से नथ को उतारा।

    एक पल के लिए दोनों के बीच सब कुछ ठहर गया।

    वो नथ अब Zayyan की हथेलियों में थी—एक छोटी सी चीज़, लेकिन इतनी भारी कि उसकी थाह शायद कोई रिश्ता भी नहीं ले पाए।

    "Yeh nath... sirf ek rasam nahi thi, Liyana," Zayyan ने धीमे से कहा। "Yeh ek zimmedari thi... jo maine apne dil se uthayi hai."

    Liyana ने पहली बार उसकी आँखों में देखा। उसमें ग़ुस्सा नहीं था, जबरदस्ती नहीं थी... बस एक मौन वादा था।

    "Tum mere liye koi majboori nahi ho," Zayyan ने कहा, "tum mere liye ek vada ho... tumhare Abbu se kiya gaya ek ahad... jise main har haal mein nibhaunga."

    Liyana की आँखों से दो मोती गिरे। शायद डर के नहीं, बल्कि उस विश्वास के जो पहली बार उसे किसी मर्द की बातों में महसूस हुआ।

    Zayyan ने नथ को एक छोटी सी मख़मली डिबिया में रखा और कहा,

    "Jab tum chaaho, jab tum taiyaar ho, tab tum mere paas aana. Main intezaar karunga... bina kisi shart ke."

    कमरे में फिर खामोशी छा गई... पर अब वो खामोशी बोझिल नहीं थी। उसमें एक भरोसे की ख़ुशबू थी, जो गुलाब और चमेली से कहीं ज़्यादा गहरी थी।

    रात बाहर आसमान पर फैल रही थी, लेकिन कमरे के अंदर... मोहब्बत की पहली सी किरण दस्तक दे चुकी थी। Zayyan ने जब Liyana की नथ उतारी थी, तो उसके अंदर कुछ बदल गया था—नर्म, सच्चा और समझदार। पर उस रात उसने मोहब्बत से ज़्यादा एक ज़िम्मेदारी पूरी की थी।

    नथ उतारने के बाद वो धीरे से उठ खड़ा हुआ। Liyana अब भी हल्की साँसों के साथ बैठी थी, उसकी आँखों में झिझक और माथे पर सवाल।

    "आप बेड पर सो जाइए," Zayyan ने धीमे स्वर में कहा। "मैं सोफे पर सो जाऊंगा।"

    Liyana ने कुछ कहने की कोशिश नहीं की। वो बस उसकी आँखों में देखती रही, फिर धीरे से तकिये पर सिर रख लिया। उसने कमरे की छोटी-सी लाइट जला दी ताकि अंधेरे से उसका डर थोड़ा कम हो सके, और फिर चादर में लिपटकर सो गई।

    पर Zayyan, जो सोफे पर लेट गया था, सो नहीं रहा था। उसकी निगाहें बार-बार Liyana की तरफ़ चली जातीं। मोमबत्ती की मद्धम रोशनी में उसका चेहरा और भी मासूम लग रहा था। उसके बाल उसके गालों पर बिखरे हुए थे, और उसकी साँसें धीमी-धीमी चल रही थीं। एक अजीब-सी शांति थी उस लम्हे में, जैसे कोई अनकहा रिश्ता दोनों के बीच साँस ले रहा हो।

    Zayyan बस उसे देखता रहा… सारी रात।

    रात गुजर गई।

    सुबह के 5 बजते ही कमरे के बाहर हल्की सी दस्तक हुई।
    ठक-ठक।

    Liyana हल्की आवाज़ से जाग गई। Zayyan फौरन उठ बैठा।

    "Kaun ho sakta hai subah-subah?" उसने खुद से कहा।

    Zayyan खिड़की की ओर बढ़ा और पर्दा थोड़ा सरकाया। बाहर उसकी Bua और Ammi Jaan खड़ी थीं।

    Liyana उठकर दरवाज़ा खोलने जा ही रही थी कि Zayyan ने उसका हाथ थाम लिया।

    "रुकिए," उसने फौरन कहा।

    Liyana चौंकी। "आप मुझे रोक क्यों रहे हैं?"

    Zayyan ने बिना जवाब दिए अपनी ऊँगली की नोक से थोड़ा-सा खून निकाला।
    Liyana उसकी हरकतें हैरानी से देखती रही।

    Zayyan ने वो खून सफेद चादर पर टपका दिया। बस 2-3 बूंदें। इतना ही काफी था।

    Liyana अवाक रह गई।

    "Zayyan… ये सब…"

    "कभी-कभी सच्चाई से पहले झूठ का सहारा लेना पड़ता है," उसने गहरी आवाज़ में कहा। "कुछ लोगों को वही दिखाना पड़ता है जो वो देखना चाहते हैं… वरना ये रिश्ता सांस लेने से पहले दम तोड़ देगा।"

    इतना कहकर Zayyan बालकनी की ओर से कमरे से निकल गया। शायद जिम की ओर चला गया था, जैसे रोज़ की तरह।

    Liyana अब भी वहीं खड़ी थी, जैसे किसी साजिश की गवाही दे रही हो।

    अब फिर से दरवाज़े पर दस्तक हुई।
    ठक-ठक।

    Liyana ने खुद को संभाला, और जाकर दरवाज़ा खोला।

    Bua बिना कुछ बोले सीधी कमरे में दाख़िल हुईं। उनकी नज़रें तेज़ थीं, जैसे किसी और मकसद से आई हों।

    उनकी आँखें सीधे बिस्तर पर गईं—जहाँ सफेद चादर पर खून की छोटी सी बूँदें थीं।

    उनका चेहरा एक पल को सख्त हुआ, फिर नर्म पड़ गया।

    Bua को भरोसा था कि Zayyan ने ये शादी सिर्फ़ एक वादे को निभाने के लिए की है, दिल से नहीं। उन्हें लगता था कि धीरे-धीरे वो Liyana को खुद से दूर कर देगा, और फिर किसी बहाने से तलाक दे देगा।

    पर बिस्तर पर खून देख कर उनकी सोच डगमगा गई।

    "Shayad… dono ne ek dusre ko apna liya hai," उन्होंने मन ही मन कहा।

    अब कोई सवाल करने की ज़रूरत नहीं थी।

    पीछे से Mariam Begum की आवाज़ आई, जो कपड़े हाथ में लिए खड़ी थीं।

    "Liyana बेटा," उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, "ये लो कपड़े। आज तुम्हारी पहली रसोई है। जल्दी से तैयार हो जाओ। सारा खानदान नीचे तुम्हारा इंतज़ार कर रहा है।"

    Liyana ने कपड़े थामे। अब उसके चेहरे पर भी एक हल्की सी मुस्कान थी, जो रात के डर के बाद की पहली राहत जैसी थी।

    Bua कुछ नहीं बोलीं। उन्होंने Liyana की ओर देखा, फिर चुपचाप कमरे से निकल गईं।

    Liyana दरवाज़ा बंद कर अंदर लौटी।

    कमरे में अब सन्नाटा नहीं था, बल्कि कुछ नया था—एक नाटक, जो भावनाओं और चालाकी के बीच खेला गया था… एक शुरुआत, जो झूठ की कुछ बूँदों से सजी थी… पर शायद, आने वाले दिनों में सच्चे जज़्बातों से महक उठेगी।

    कमरे की दीवारें अब गवाह थीं उस सुबह की, जब एक पति ने पत्नी के लिए दुनिया को एक झूठ दिखाया, और एक पत्नी ने बिना कुछ कहे वो झूठ स्वीकार कर लिया… शायद भरोसे की पहली ईंट रखने के लिए।

    और बाहर, हवेली की गलियों में... गुलाब और चमेली की ख़ुशबू अब भी फैली थी — मगर इस बार उसमें एक नई कहानी बसी थी।

  • 9. In the shadows of moonlight - Chapter 9

    Words: 1663

    Estimated Reading Time: 10 min

    सुबह की नर्म रोशनी हवेली की बालकनी से छनकर अंदर आ रही थी। कमरे के कोने में रखे सोफे पर ज़य्यान अब भी नींद में करवटें बदल रहा था, जबकि बिस्तर पर लियाना चादर में लिपटी हुई शांत थी। अचानक दरवाज़े पर एक धीमी सी दस्तक हुई।

    ज़य्यान की नींद उस दस्तक से टूट जाती है। वो तुरंत उठ बैठता है, आँखों में नींद की हल्की परतें अब भी बाकी थीं। उसी वक़्त लियाना की भी आँख खुलती है और वो दरवाज़े की तरफ बढ़ने लगती है। मगर तभी ज़य्यान उसका हाथ थाम लेता है।

    "रुको," उसकी आवाज़ में एक सख़्त लेकिन चिंता से भरी गंभीरता थी।

    "क्या हुआ?" लियाना ने हैरान होकर पूछा।

    ज़य्यान बिना कुछ कहे तेज़ी से बिस्तर के पास गया, अपनी एक उंगली में हल्का सा कट मारा और कुछ बूंदें ख़ून की बिस्तर की चादर पर टपका दीं।

    "इस घर में नज़रों से ज़्यादा ज़ुबानें चलती हैं। किसी को ये शक़ भी नहीं होना चाहिए कि हमारे बीच अभी कुछ नहीं हुआ," वो फुसफुसाया, फिर लियाना की आँखों में गहराई से झांकते हुए बोला, "यहां हर मुस्कान के पीछे शक और हर चुप्पी के पीछे साज़िश छुपी होती है।"

    इतना कहकर वो दरवाज़े की दूसरी ओर की आवाज़ सुनते हुए खिड़की से बाहर निकला और बालकनी के जंगले से होते हुए पीछे वाले गेट की ओर चला गया – जिम के रास्ते।

    लियाना ने खुद को संभाला और तेज़ी से जाकर दरवाज़ा खोला। सामने बुआ जान और अम्मी जान खड़ी थीं। अम्मी जान के हाथ में एक सजावटी थाली थी जिसमें एक बेहद खूबसूरत मेहरून रंग का अनारकली सूट और कुछ ज़ेवर रखे थे।

    अम्मी जान ने मुस्कुराकर कहा, “बेटा, ये पहन लेना… आज तुम्हारी पहली रसोई है।”

    बुआ जान ने बस हल्की सी गर्दन हिलाई और बिना कुछ कहे सीढ़ियों की ओर मुड़ गईं। अम्मी जान भी उनके पीछे-पीछे नीचे चली गईं।

    लियाना ने धीमे से दरवाज़ा बंद किया। उसका दिल धड़क रहा था — एक अजनबी घर, अजनबी रिश्ते, और अब एक रस्म जिसकी ज़िम्मेदारी अकेले उसी पर थी।

    वो सीधे वॉशरूम की ओर भागी। ठंडे पानी की धार ने उसकी उलझनों को थोड़ी राहत दी। नहाने के बाद उसने मेहरून रंग का अनारकली सूट पहना — झिलमिल करता रेशमी कपड़ा, जिस पर बारीक कढ़ाई थी, सिर पर हल्का दुपट्टा रखा और आईने में खुद को देखा। कुछ पल अपनी ही आंखों में ताकती रही — जैसे खुद से हिम्मत मांग रही हो।

    उसने सजदे में झुककर फज्र की नमाज़ अदा की। हर अल्फ़ाज़ में दुआ थी — "या अल्लाह, आज का दिन मेरे लिए आसान बना देना।"

    नीचे हॉल में बुआ जान और अम्मी जान बैठी थीं। लियाना जब सीढ़ियों से नीचे उतरी तो उसकी नज़ाकत और लिबास ने हर किसी की नज़र को कुछ पल के लिए रोक लिया।

    अम्मी जान की आंखों में मोहब्बत की चमक थी, “माशा अल्लाह! कितनी प्यारी लग रही हो बेटा। जैसे खुदा ने फुर्सत से बनाया हो।”

    लेकिन बुआ जान की ज़ुबान कांटों जैसी थी, “खूबसूरती अपनी जगह है, लेकिन असल खूबी तो तब दिखेगी जब रसोई में हाथ चलेगा। देखना है कुछ आता भी है या बस सज-धज ही आती है। पहली रसोई का सारा नाश्ता तुम्हें अकेले ही बनाना है।”

    लियाना का चेहरा एक पल को उतर गया, लेकिन उसने झुककर कहा, “जी बुआ जान, जो आप कहें।”

    अम्मी जान चाहकर भी कुछ नहीं कह सकीं — इस वक़्त घर में बुआ जान ही बड़ी थीं।

    रसोई में लियाना अकेली खड़ी थी। मसालों की खुशबू, बर्तनों की खनक और उसके दिल की धड़कन, सब एक साथ गूंज रहे थे।

    उसने खुद से कहा, "तुम हार नहीं मानोगी लियाना… ये तुम्हारी इज्ज़त की पहली परीक्षा है।"

    उसने सूजी का हलवा बनाना शुरू किया — इलायची की खुशबू के साथ घी की सुनहरी आंच पर भूनती हुई सूजी उसकी हिम्मत का हिस्सा बन गई। साथ ही उसने आलू की टिक्की और मेथी-पराठे भी बनाए।

    जब सब तैयार हो गया, उसने खुद ही सब कुछ ट्रे में सजाया और डाइनिंग टेबल पर रख दिया। टेबल पर चांदी की प्लेटें, मखमली कुर्सियां और उसके हाथों का पहला बनाया हुआ नाश्ता — एक सन्नाटा सबके बैठने से पहले ही छा गया।

    धीरे-धीरे सब नीचे आए — सबसे पहले अफ़रोज़ साहब, फिर ज़ुबैर, आतिफ़ और आक़िब। दादा जान भारी क़दमों से आए और हेड चेयर पर बैठ गए। ज़य्यान, जो अब तक जिम से लौट आया था, दूसरी हेड चेयर पर आकर बैठ गया।

    सभी बिना कुछ बोले खाने लगे — कोई तारीफ नहीं, कोई शिकवा नहीं। सिर्फ़ सन्नाटा।

    दादा जान ने एक निवाला लिया, फिर नज़रें उठाकर लियाना की तरफ देखा, "ठीक है। खाने में मेहनत की बू है।"

    ज़य्यान ने कुछ नहीं कहा। सिर्फ़ हल्का सा सिर झुकाया।

    और फिर रस्म शुरू हुई — तोहफों की।

    सबसे पहले दादा जान ने एक सोने की अंगूठी थमाई — “खानदान में कदम रखा है, हौसले से चलो।”

    आक़िब ने एक इत्र का सेट दिया — “सिर्फ़ हाथ नहीं, दिल भी महकता रहना चाहिए।”

    आतिफ़ ने एक क्लासिक कुरान शरीफ़ भेंट की — “हर जवाब उसमें मिलेगा।”

    अम्मी जान ने एक ख़ूबसूरत कड़े का सेट पहनाकर कहा — "आज तुमने साबित कर दिया कि तुम सिर्फ़ नाम की बहू नहीं, हमारे घर की रौनक बन सकती हो।"

    फिर बुआ जान का नंबर आया — वो चुप थीं। सबको लगा शायद कुछ नहीं देंगी। मगर आखिर में उन्होंने एक छोटा डब्बा लियाना की तरफ बढ़ाया।

    “हमारे खानदान की औरतों को हीरे रास आते हैं,” उन्होंने कहा और एक शानदार डायमंड नेकलेस लियाना के हाथ में थमा दिया।

    “शुक्रिया,” लियाना ने सिर झुका लिया।

    अंत में अब्बू जान यानी अफ़रोज़ साहब ने एक डिब्बा आगे बढ़ाया — उसमें एक डायमंड का कंगन था। उन्होंने बस इतना कहा, "शादी का रिश्ता निभाना आसान नहीं होता... ये सिर्फ़ शुरुआत है।"

    लियाना ने कंगन लिया लेकिन पहनने की कोशिश नहीं की — उसने महसूस किया कि ये तोहफ़ा भी शायद एक इम्तिहान है।

    ज़य्यान?
    वो तो खामोशी से सिर्फ़ खाना खाता रहा। कोई तोहफा नहीं, कोई मुस्कान नहीं। उसके चेहरे पर वो ही सख़्त मुखौटा था जो लियाना को समझ नहीं आता था। शायद वो भूल ही गया था कि आज की यह रस्म उसके लिए कितनी अहम थी — या शायद जानबूझकर भूल गया था।

    डाइनिंग टेबल से उठने के बाद लियाना वापस अपने कमरे में गई। उसने सब तोहफ़े अलमारी में सहेजकर रख दिए — मगर उस डायमंड कंगन को हाथ में लेते हुए उसकी आँखों में आंसू आ गए।

    "सब कुछ मिल गया," उसने बुदबुदाते हुए कहा, "सिवाय अपने शौहर की मोहब्बत के।"

    कमरे में दाख़िल होते ही लियाना ने दरवाज़ा बंद किया और एक गहरी साँस ली, जैसे दिनभर की थकावट और भावनाओं का बोझ उसके सीने पर पत्थर बनकर रख दिया गया हो। उसके हाथ अब भी भारी लग रहे थे — शायद उन तोहफ़ों की वजह से नहीं, बल्कि उन उम्मीदों की वजह से जो तोहफों की तरह खाली निकलीं।

    वो धीरे-धीरे अलमारी के पास गई, और चुपचाप सब गहने उतारकर तह करके कपड़ों के साथ रख दिए। वो हीरा जड़ा हार, जो बुआ जान ने ना चाहते हुए दिया था… वो कंगन, जो उसके ससुर ने दिया — लेकिन बिना अपनत्व के। और ज़य्यान? उसने तो कुछ भी नहीं दिया, न कोई शब्द, न कोई मुस्कान, न कोई नज़र।

    लियाना आईने के सामने खड़ी हुई, अपने चेहरे को देखा।

    "क्या कमी रह गई मुझमें?"

    उसने खुद से सवाल किया।

    वो बिस्तर पर बैठ गई, और उसकी आंखें खुद-ब-खुद भीगने लगीं। ज़ुबां खामोश थी लेकिन दिल में तूफ़ान था।

    "क्या वो मुझसे नफ़रत करता है?"
    "या फिर ये रिश्ता उसके लिए सिर्फ़ एक मजबूरी है?"

    वो याद करने लगी सुबह का वक़्त — जब ज़य्यान ने उसके हाथ थामे थे, जब उसके कटे हुए हाथ की बूंदों से बिस्तर पर खून फैलाया था… ताकि दुनिया को लगे कि इस रिश्ते में कुछ आगे बढ़ा है।

    "क्या उस वक़्त भी बस एक दिखावा था? क्या मैं उसके लिए सिर्फ़ एक वादा हूँ जो उसने अब्बा से किया था… एक बोझ?"

    पर फिर उसके दिमाग़ में एक और बात आई।

    "लेकिन आज सुबह… जब उसने मेरे हाथ पकड़े थे… जब उसने मुझे रोका था दरवाज़ा खोलने से… उसने मुझसे कहा था कि इस घर में बहुत साज़िशें होती हैं… उसने मुझे बचाया था।"

    वो पल कुछ अलग था। उस पल में ज़य्यान की आंखों में जो फिक्र थी, वो झूठी नहीं थी। उस स्पर्श में जो गर्मी थी, वो बनावटी नहीं थी।

    "क्या वो सब सिर्फ़ एक लम्हे की जिम्मेदारी थी? या फिर कहीं दिल के किसी कोने में उसे मेरा ख्याल भी है?"

    उसका दिल बहुत उलझ गया था — एक तरफ़ ज़य्यान की बेरुख़ी, दूसरी तरफ़ उसकी ख़ामोश हिफ़ाज़त।

    लियाना धीरे से बिस्तर के सिरहाने बैठ गई, जहां सुबह ज़य्यान ने खून की बूंदें गिराई थीं। वो चादर पर उंगलियों से उस निशान को महसूस करने लगी।

    "किसी और ने आज मेरा साथ नहीं दिया। यहां तक कि बुआ जान ने मेरा मज़ाक उड़ाया… पर उसने मुझे उनके सामने गिरने नहीं दिया। क्या यह सिर्फ़ एक औपचारिकता थी या फिर… कुछ और?"

    उसकी आंखें बंद हो गईं, और ज़य्यान का चेहरा सामने आने लगा — गंभीर, शांत, लेकिन कहीं गहराई में बहुत कुछ छुपाए हुए।

    "अगर वो मुझसे कुछ महसूस नहीं करता, तो क्यों सुबह इतना कुछ किया? क्यों मेरी इज्ज़त को अपनी चुप्पी से ढक लिया?"

    एक आंसू उसकी पलकों से लुढ़ककर उसके हाथ पर गिरा।

    "शायद वो मुझे पसंद नहीं करता। शायद ये रिश्ता निभा रहा है सिर्फ़ अपने अब्बा के नाम की वजह से… लेकिन फिर भी, मैंने आज जो सन्नाटा उसकी आंखों में देखा, उसमें दर्द भी था… शायद वो खुद भी उलझा हुआ है।"

    वो सोचती रही, बस सोचती रही — एक कमरे में, अकेले। बाहर हवेली की दीवारें ऊंची थीं, पर उसके दिल में उठती दीवारें उससे भी ऊंची लग रही थीं।

    लियाना तकिए पर सिर रखकर लेट गई, लेकिन नींद उसके पास नहीं आई। हर करवट पर ज़य्यान की एक नज़र, एक चुप्पी, एक बेरुख़ी और एक दबी हुई मोहब्बत याद आती रही।

    "काश… वो एक बार मुझसे साफ़-साफ़ कह दे कि मैं उसकी क्या लगती हूं।"

  • 10. In the shadows of moonlight - Chapter 10

    Words: 775

    Estimated Reading Time: 5 min

    अध्याय 10 – हवेली में साज़िश का साया

    शाम के वक्त हवेली की फिज़ा में हल्की सी ठंडक घुल चुकी थी। पुराने फर्श पर धीमी रफ्तार से चलती हवा जैसे आने वाले तूफ़ान की आहट दे रही थी। ज़य्यान अभी तक वापस नहीं आया था, लेकिन हवेली के हॉल में अम्मी जान, बुआ जान, छोटे भाई आक़िब और आतिफ बैठकर चाय पी रहे थे। माहौल शांत था।

    लियाना आज सुबह की 'पहली रसोई' के बाद से सबका ध्यान खींच चुकी थी। अपनी नर्मी, तहज़ीब और संकोच से उसने घर के हर सदस्य को अपनेपन का एहसास कराया था। आज शाम उसने फिर से खुद से ही सबके लिए चाय बनाने की जिद की। अम्मी जान ने मना किया, लेकिन उसने मुस्कराकर कहा,

    "यह मेरा फर्ज़ है... और मुझे खुशी मिलती है आप सबके लिए कुछ करके।"

    लियाना ने अदरक-इलायची वाली गर्म चाय बनाकर एक-एक कर सबको हॉल में पहुंचाई। उसने चुपचाप सबके पास जाकर कप रखा, सिर झुकाया और वापस जाने ही वाली थी कि अचानक हवेली के बड़े मुख्य दरवाज़े की कुंडी खुलने की आवाज़ आई।

    दरवाज़ा पूरी ताक़त से खुला और भीतर दाख़िल हुए दो नए चेहरे – एक लड़का और एक लड़की। लड़का करीब 28 साल का था – लंबे कद का, आंखों में तेज़, पर वो तेज़ जो भरोसा नहीं, डर पैदा करे। उसका नाम था आहिल, बुआ जान का इकलौता बेटा। उसके साथ थी उसकी बहन हिबा, जो दिखने में सीधी-सादी थी पर आंखों में चालाकी और घमंड साफ झलक रहा था।

    बुआ जान की आंखों में चमक आ गई जैसे उन्होंने जिन दो लोगों को बुलाया था, वो अपने काम के लिए सही वक्त पर पहुंच चुके हों। वो जल्दी से उठीं और लपककर बोलीं,

    "आहिल बेटा, हिबा बिटिया! तुम लोग आ ही गए। देखो कौन आया है हमारे घर... ज़य्यान की बीवी, लियाना।"

    लियाना ने झुककर सलाम किया,

    "अस्सलामु अलैकुम।"

    हिबा ने नाक चढ़ाकर जवाब दिया,

    "वाअलैकुम अस्सलाम।"

    आहिल ने चाय का कप पकड़ते हुए लियाना को ऊपर से नीचे तक इस नज़र से देखा जैसे कोई चीज़ तौल रहा हो। उसकी निगाहें बेहयाई से भरी थीं। लियाना को बहुत असहज महसूस हुआ। वो झट से मुड़ गई और रसोई की तरफ बढ़ने लगी।

    बुआ जान ने मुस्कराकर दोनों से कहा,

    "अब तुम दोनों कुछ दिन यहीं रहो। इस हवेली को तुम्हारी जरूरत है।"

    अम्मी जान ने हैरानी से पूछा,

    "बिना खबर के अचानक कैसे चले आए तुम लोग?"

    बुआ जान बात टालते हुए बोलीं,

    "बस, मन किया मिलने का। बहुत दिन हो गए थे। हवेली भी सुनी-सुनी सी लग रही थी।"

    अम्मी जान ने गहरी निगाह से बुआ जान को देखा, जैसे कुछ समझ गई हों। लेकिन उन्होंने कुछ नहीं कहा।

    उधर, लियाना रसोई में खड़ी कांप रही थी। आहिल की नजरें आज भी उसे परेशान कर रही थीं। उसकी निगाहों में गंदगी थी, और बुआ जान का व्यवहार… अब साफ लगने लगा था कि उनके मन में उसके लिए अपनापन नहीं, कोई और ही चाल है।

    रात के खाने पर सब एक साथ बैठे थे। ज़य्यान अब तक नहीं लौटा था। आहिल जानबूझकर लियाना के पास वाली कुर्सी पर बैठ गया। हिबा ने खाना खाते-खाते तीखे तंज कसने शुरू कर दिए,

    "वैसे भाभी जान, सुना है आप बहुत सीधी हैं… इतनी सीधी कि हवेली के रिवाजों का भी ख्याल नहीं रखा आपने?"

    लियाना ने विनम्रता से सिर झुका लिया। अम्मी जान ने हिबा को घूरा,

    "हिबा, ये कैसी बात कर रही हो?"

    हिबा ने झूठी मुस्कान के साथ कहा,

    "मैं तो बस मज़ाक कर रही थी, अम्मी जान।"

    पर लियाना समझ चुकी थी – हवेली में अब कुछ भी वैसा नहीं था जैसा सुबह तक लग रहा था। बुआ जान की साज़िश का पहला चेहरा आज शाम सामने आ चुका था। उनकी योजना साफ थी – आहिल और हिबा के जरिए लियाना को हवेली से निकाल बाहर करना, या उससे ज़य्यान को अलग करवा देना।

    रात में जब सब सोने चले गए, तो लियाना अपनी कोठरी में अकेली बैठकर सोचने लगी।

    "क्या यही मेरी नई ज़िंदगी है? क्या अब हर रोज़ अपमान, डर और चालों से लड़ना होगा?"

    उसने क़ुरान का एक पन्ना खोला और धीमी आवाज़ में तिलावत करने लगी। उसका दिल डर से भरा हुआ था, लेकिन उसका ईमान मज़बूत था। उसे यकीन था, ज़य्यान एक ना एक दिन सब समझेगा।

    पर बुआ जान के इरादे तेज़ थे। उन्होंने अब तय कर लिया था कि लियाना को इस घर से या तो तलाक दिलवाकर निकाला जाएगा, या फिर उसे इस कदर तोड़ा जाएगा कि वो खुद ही भाग जाए।

    आहिल की नजरें अब रोज़ लियाना का पीछा करेंगी… और हिबा हर रोज़ उसे अपमानित करने की कोशिश करेगी।

    और ज़य्यान?

    वह अब भी बेख़बर था… हवेली में उठते इस तूफान से…

  • 11. In the shadows of moonlight - Chapter 11

    Words: 1521

    Estimated Reading Time: 10 min

    अध्याय 11: “ख़ामोशी के साए”

    (Novel: चाँदनी के साए में)

    हवेली की दीवारें दो दिन से खामोश थीं। जैसे वक्त थम गया हो।

    ज़य्यान अल-मुतकब्बिर दो दिन पहले किसी मीटिंग का कहकर गया था... और अब तक लौटा नहीं।

    लियाना की नज़रों को दरवाज़े की ओर ताकते हुए दो दिन हो चुके थे।

    हर आहट पर उसकी धड़कन तेज़ हो जाती, पर दरवाज़ा कभी ज़य्यान के लिए नहीं खुलता।

    इन दो दिनों में एक चीज़ और बदल गई थी — बुआ जान के बेटे की नज़रों का अंदाज़।

    वो अब खुलेआम लियाना को घूरता, बेहूदे इशारे करता, और कभी-कभी तो बातों में छिपा ज़हर भी घोल देता।

    🌒 एक रात — हवेली की ख़ामोशी में...

    रात के कोई 1 बजे का वक्त होगा।

    हवेली में सब सो चुके थे। बाहर चांदनी फैली थी, लेकिन लियाना के कमरे में सिर्फ़ डर पसरा हुआ था।

    वो बिस्तर पर लेटी थी, आँखें बंद थीं, पर नींद उससे कोसों दूर।

    अचानक... दरवाज़े की कुंडी धीरे से घूमी।

    “क्लिक...”

    किसी ने दरवाज़ा खोला।

    लियाना की आंखें फौरन खुल गईं।

    सामने बुआ जान का बेटा था — फराज।

    आँखों में हवस और चेहरा पसीने से भीगा हुआ।

    "तुम्हें तो यहाँ रानी बनकर रखा गया है..."

    उसने धीमी आवाज़ में कहा और दरवाज़ा बंद कर दिया।

    "क्या... क्या कर रहे हो तुम... बाहर निकलो!"

    लियाना काँपती आवाज़ में चिल्लाई, लेकिन फराज उसकी तरफ़ बढ़ता चला गया।

    "चुप रहो... वरना ये हवेली तुम्हारा चिल्लाना कभी बाहर नहीं जाने देगी..."

    उसने उसकी कलाई पकड़ी।

    लियाना ने जोर से खुद को छुड़ाने की कोशिश की।

    "हक नहीं है तुम्हें मुझपर हाथ डालने का!"

    "हक तो ज़य्यान को भी नहीं रहा अब... वो तो तुम्हें छोड़ चुका है!"

    फराज ने धक्का देने की कोशिश की, पर लियाना ने उसके सीने पर एक ज़ोरदार धक्का मारा और दरवाज़ा खोलकर दौड़ पड़ी।

    🌙 लियाना का डर और अम्मी जान

    वो हॉल की तरफ भागी, आँसू आँखों से छलक रहे थे।

    अचानक सामने से अम्मी जान रसोई से निकलती दिखाई दीं।

    "अरे बेटा... इतनी रात को कहाँ भागती हुई आ रही हो?"

    लियाना जल्दी से अपना आँचल ठीक करती है और काँपती आवाज़ में कहती है:

    "वो... प्यास लगी थी... पानी लेने नीचे आई थी..."

    अम्मी जान की नज़रें उसकी हालत पर टिक गईं।

    "तेरा चेहरा सफेद क्यों है? काँप क्यों रही हो?"

    "कुछ नहीं अम्मी जान... बस नींद नहीं आ रही थी।"

    अम्मी जान उसके करीब आईं, उसके चेहरे को सहलाया।

    "कोई तंग कर रहा है क्या?"

    लियाना की आंखों में आंसू आ चुके थे, लेकिन उसने जबरन सिर हिला दिया।

    "नहीं... बस... बस प्यास लगी थी।"

    अम्मी जान समझ तो गईं, पर उन्होंने कुछ नहीं कहा।

    उन्होंने लियाना को गले लगाया।

    "जा... ऊपर जाकर आराम कर, बेटा। जो भी हो, बता देना। ये हवेली तुझे अपनी बेटी मानती है।"

    लियाना ने हल्का सिर हिलाया और चुपचाप ऊपर चली गई।

    🌫️ अगले कुछ दिन...

    फराज ने अपनी हरकत को मानों मज़ाक बना लिया था।

    अब वो रोज़ लियाना को तंग करता —

    कभी अकेले देखकर मुस्कराता, कभी रास्ता रोक लेता।

    एक दिन उसने कहा:

    "अगर ज़य्यान ना लौटा... तो ये हवेली मेरी होगी, और तुम भी!"

    लियाना ने गुस्से से जवाब दिया:

    "मैं एक बार जान दे दूँगी, लेकिन तुम्हारे जैसी घटिया सोच के सामने कभी झुकूंगी नहीं!"

    ⌛ एक हफ्ते बाद — ज़य्यान की वापसी

    हवेली का दरवाज़ा खुला।

    अंदर ज़य्यान दाख़िल हुआ — मगर वो वैसा ज़य्यान नहीं था।

    उसके चेहरे पर सख्ती थी, आंखों में सूनापन।

    उसने ना किसी से मुस्कराकर बात की, ना किसी से हालचाल पूछा।

    लियाना की नज़रें उसे देखने को तरस गई थीं...

    लेकिन ज़य्यान ने उस पर एक ठंडी नज़र डाली और आगे बढ़ गया।
    🌑: बेआवाज़ विदाई

    सूरज ढलने को था। हवेली के आँगन में शाम की खामोशी उतर चुकी थी। ज़य्यान दीवानख़ाने में बैठा था, चेहरा गंभीर और आँखों में न जाने कितनी अनकही बातें। तभी लियाना उसके पास आई — आँखों में सवाल, दिल में कई रातों का बोझ लिए।

    "ज़य्यान..." उसकी आवाज़ कांप रही थी, "मुझे आपसे कुछ कहना है..."

    लेकिन ज़य्यान ने उसकी बात सुने बगैर एक ठंडी सांस ली और कहा, "तुम जा सकती हो, लियाना। यह हवेली अब तुम्हारे रहने की जगह नहीं है।"

    एक पल को वक़्त थम सा गया। लियाना को यकीन नहीं हुआ कि जो शख़्स उसकी ज़िंदगी का वादा था, वही उसे जाने को कह रहा है। उसके होंठ काँपे, आँखों में आँसू तैर गए, पर उसने कुछ नहीं कहा। वह जानती थी कि ज़य्यान के दिल में कुछ टूट चुका है, लेकिन वह क्या है — यह अब तक एक रहस्य था।

    लियाना धीरे-धीरे पलटी, उसकी चाल में थकावट नहीं, टूटी उम्मीदें थीं। बिना किसी से कुछ कहे, बिना पलटे, वह हवेली के उस बड़े फाटक से बाहर निकल गई, जहाँ कभी उसका स्वागत हुआ था। किसी नौकर ने कुछ पूछा नहीं, किसी ने रोका नहीं।


    ---

    उसी शाम, हवेली की बैठक में ज़य्यान के तीनों भाई — आक़िब, आतिफ़ और ज़ुबैर — उसके सामने खड़े थे।

    "भाईजान, आपने लियाना भाभी को हवेली से जाने को क्यों कहा?" आक़िब ने नाराज़गी से पूछा।

    "वह औरत इस हवेली की इज़्ज़त नहीं थी?" आतिफ़ का स्वर तना हुआ था।

    ज़ुबैर चुप था, लेकिन उसकी आँखों में भी सवाल थे।

    ज़य्यान ने एक लंबा सन्नाटा खींचा और फिर बहुत धीमी आवाज़ में बोला, "तुम्हें नहीं पता... उसे भी नहीं पता... लेकिन अब वक़्त आ गया है सच बताने का।"

    तीनों भाई ज़य्यान की तरफ़ देखने लगे। ज़य्यान की आँखें लाल थीं, जैसे बरसों से जमी आग अब फूटने वाली हो।

    "लियाना का असली बाप... उसका नाम राशिद था।"

    तीनों एक साथ चौंक उठे।

    "राशिद?" आक़िब ने दोहराया, "वही राशिद जिसने हमारी ख़ाला जान को भगाया था?"

    ज़य्यान ने सर हिलाया, "हाँ... वही।"

    कमरे में सन्नाटा छा गया।

    "जब हम छोटे थे, हमारी ख़ाला — अब्बू जान की छोटी बहन — बहुत खूबसूरत थीं, मासूम थीं। अब्बू जान उन्हें अपनी जान से बढ़कर चाहते थे। उन्होंने उनकी शादी अपने सबसे करीबी दोस्त से तय की थी। लेकिन ख़ाला जान को किसी और से मोहब्बत हो गई थी — राशिद से।"

    "अब्बू जान को जब ये बात पता चली, उन्होंने ख़ाला जान को बहुत समझाया, रोका... लेकिन ख़ाला जान ने उनकी बात नहीं मानी। और फिर शादी की रात... राशिद उन्हें भगा कर ले गया।"

    "हमारे अब्बू ने कभी उस हादसे को माफ़ नहीं किया। वो मानते थे कि एक भाई की तरह उन्होंने अपनी बहन को पाला, और उसी भाई के भरोसे को राशिद ने तोड़ा।"

    "फिर एक दिन खबर आई..." ज़य्यान की आवाज़ भारी हो गई, "कि राशिद ने हमारी ख़ाला जान को धोखे से कोठे पर बेच दिया।"

    तीनों भाई सन्न रह गए।

    "अब्बू जान ने न उस दिन किसी को बताया, न कभी किसी से इस बारे में बात की। उन्होंने हमारी ख़ाला को मर चुका मान लिया... लेकिन दिल से कभी वो दर्द मिटा नहीं।"

    "और अब... सालों बाद... उस राशिद की बेटी इस हवेली में थी। लियाना... वही मासूम सी लड़की... उसी नीच का खून।"

    "तुमने कैसे जाना?" ज़ुबैर ने धीमे से पूछा।

    "उस रात जब अब्बू जान ने उसके बारे में सवाल किया, मैंने तहकीकात करवाई। उसके जन्म के रिकॉर्ड्स, पुरानी फोटोज़, और फिर उसकी माँ के नाम से एक पुराना केस सामने आया... सब कुछ साफ हो गया।"

    "उसका नाम राशिद की बेटी के तौर पर दर्ज था।"

    "तो फिर आपने उसे भगा क्यों दिया?" आक़िब ने गुस्से में पूछा।

    "क्योंकि मैं उससे मोहब्बत करता हूं..." ज़य्यान की आँखें छलक आईं।

    "और मोहब्बत में सबसे बड़ी कुर्बानी... सच्चाई को अपनाना होता है। लेकिन मैं... मैं अब्बू जान की आँखों में उस दर्द को दोबारा नहीं देख सकता। वो औरत, जिसकी बेटी हमारे घर में बहू बनकर आए — उसकी माँ को कोठे पर बेचा गया था हमारे दुश्मन के हाथों।"

    "उसकी यादें इस हवेली में फिर से ज़िंदा हो जाएंगी... अब्बू जान बर्बाद हो जाएंगे।"

    तीनों भाई चुप थे।

    "मैंने लियाना को इसलिए नहीं भगाया कि वह बुरी है। वह तो उस गुनाह का शिकार है जो उसने कभी किया ही नहीं। लेकिन उसके साथ मेरा रिश्ता... अब्बू जान के जख्मों को फिर से हरा कर देगा।"

    "उसका रहना... हमारी तबाही होगी।"

    एक लंबी खामोशी के बाद आतिफ़ ने कहा, "भाईजान, ये तो आपकी मोहब्बत का इम्तिहान है... लेकिन लियाना तो बेगुनाह है। उसे तो ये सच तक नहीं मालूम।"

    "मालूम नहीं था..." ज़य्यान ने कहा, "लेकिन अब अगर उसे मालूम हो जाए, तो वह क्या जियेगी?"

    ज़ुबैर ने पूछा, "क्या आप उसे फिर कभी देखना नहीं चाहेंगे?"

    "दिल चाहे तो बहुत कुछ चाहता है," ज़य्यान ने टूटे लहजे में कहा, "पर हवेली के दागों को फिर से कुरेदना... ये मैं नहीं कर सकता।"

    तीनों भाइयों ने एक-दूसरे की तरफ देखा। आज पहली बार उन्होंने ज़य्यान की आँखों में एक ऐसा दर्द देखा जो किसी हार की नहीं, बलिदान की थी।


    ---

    लियाना हवेली से बहुत दूर निकल आई थी। उसकी चाल में कमजोरी थी, दिल में सवाल थे, आँखों में आँसू।

    उसे अब भी समझ नहीं आया था कि ज़य्यान ने ऐसा क्यों किया।

    वह क्या इतनी परायी हो गई थी कि एक शब्द भी नहीं सुना गया?

    वह नहीं जानती थी कि उसकी रगों में बहता लहू ही इस मोहब्बत की सबसे बड़ी दीवार था...

    जो ना ज़य्यान पार कर सकता था... और ना लियाना समझ सकती थी।


    ---

  • 12. In the shadows of moonlight - Chapter 12

    Words: 1243

    Estimated Reading Time: 8 min

    अध्याय 12 — दृश्य 1: ख़ामोशी की गोद में

    गर्मियों की वो रात, जब हवाओं ने भी अपने पर समेट लिए थे। लियाना की चाल भारी हो चली थी। नंगे पैर, सर्द ज़मीन पर चलते-चलते उसके पैरों में छाले पड़ चुके थे, पर उसने एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा, जैसे अब उस हवेली से कोई नाता नहीं रहा।

    शहर की लाइटें धीमी हो चुकी थीं, और वो रास्ता जिस पर कभी उसके बाबा जान उसे गोद में उठा कर चलाया करते थे, आज उसी पर वह टूटी हुई, बेजान सी चल रही थी।

    रात के 8 बज चुके थे। मोहल्ले की गलियां सुनसान थीं, सिर्फ कुत्तों के भौंकने की आवाज़ बीच-बीच में सन्नाटे को चीर रही थी। लियाना के चेहरे पर मिट्टी की परत थी, बाल बिखरे हुए और कपड़े गर्द से अटे पड़े थे। उसने सुबह से कुछ नहीं खाया था, पर उसे भूख का एहसास तक नहीं हो रहा था। उसे सिर्फ अपने सीने में एक अजीब सी घुटन महसूस हो रही थी, जैसे उसकी रूह ही बाहर निकलने को बेक़रार हो।

    आख़िरकार वह अपने घर के सामने पहुँची। वह दरवाज़े को नहीं देख रही थी, न छत को... उसकी निगाहें बस ज़मीन पर थीं। दरवाज़ा वैसे ही खुला था जैसे बाबा जान छोड़कर गए थे।

    बिना कुछ बोले, बिना किसी आवाज़ के, वह अंदर गई। घर की दीवारों से अब भी बाबा जान की खुशबू आती थी, जैसे वो यहीं हों... जैसे अभी भी वह उसके दर्द को महसूस कर सकते हों।

    धीरे-धीरे चलती हुई, वह बाबा जान के कमरे में पहुँची। कमरा अब भी वैसा ही था—बिस्तर वैसा ही बिछा हुआ, तकिए के पास वही कुरान की किताब, और खिड़की के पास उनकी पुरानी छड़ी।

    लियाना ने खुद को रोका नहीं। सीधा जाकर बिस्तर पर लेट गई, तकिए को अपनी बाहों में भींच लिया।

    "बाबा जान..." उसकी आवाज़ फूटी, "...आप मुझे छोड़कर क्यों चले गए?"

    उसके लब कांप रहे थे, आँखों से आँसू बह रहे थे जो तकिए को भिगो रहे थे।

    "जब से आप गए हैं, सब कुछ बिखर गया है। मेरे साथ हर चीज़ बुरी होती जा रही है। पहले वो हादसा, फिर हवेली... और अब..." वह घुटते हुए रो पड़ी, "अब मेरे शौहर ने भी मेरा साथ छोड़ दिया।"

    "जिसने मेरा हाथ थामा था, जिसने कहा था कि मैं उसकी ज़िम्मेदारी हूं... उसी ने मुझे जाने को कह दिया, जैसे मैं कोई बोझ हूं..."

    उसकी सिसकियाँ कमरे की दीवारों से टकरा रहीं थीं, और ऐसा लग रहा था जैसे ये दर-ओ-दीवार भी उसके आंसुओं में डूब रहे हों।

    "आपने मुझे बचपन में कहा था कि बेटियाँ कमजोर नहीं होतीं..." वो कांपती आवाज़ में बोली, "...फिर आज मैं इतनी टूटी क्यों हूं बाबा जान? क्यों?"

    वो तकिए से लिपटी रही, खुद से सवाल करती रही।

    कुछ ही देर में उसकी आँखें बोझिल हो गईं, लेकिन दिल का बोझ अब भी वहीं था। सिसकियों के बीच वह धीरे-धीरे थककर सो गई... या शायद जागती रही उस उम्मीद में कि कोई आए और कहे— "तू अकेली नहीं है, लियाना।"

    – सीन 2
    (सुबह 4:00 बजे का समय)

    अज़ान की सदा फिज़ा में गूंज रही थी। लियाना की आंखें अचानक खुल गईं। हल्की ठंडी हवा खिड़की के पर्दे से टकरा रही थी, और उस रूहानी सन्नाटे को अज़ान की आवाज़ चीर रही थी।

    वो चुपचाप बिस्तर से उठी। बदन थका हुआ था, आँखों में नींद अब भी बाकी थी, लेकिन दिल में बेचैनी की लहर दौड़ रही थी। बिना एक शब्द कहे उसने वुज़ू किया और अपने सफेद दुपट्टे को सिर पर डालकर नमाज़ के लिए बैठ गई।

    हर सजदे में उसका दिल किसी टूटे हुए शीशे की तरह चुभ रहा था, और जैसे ही उसने दुआ के लिए हाथ उठाए—उसकी रूह से निकलता दर्द उसकी आंखों से बह चला। वो पूरी तरह से टूट चुकी थी।

    "ऐ खुदा... क्यों किया तूने मेरे साथ ऐसा? क्यों ले लिया मुझसे मेरा हर सहारा? अब्बू जान को भी तूने मुझसे छीन लिया, और अब ज़य्यान भी..."—कहते-कहते उसकी आवाज़ रूह के अंदर से घुटकर बाहर आई। वो फूट-फूटकर रो पड़ी।

    अचानक, एक बात उसके ज़ेहन में कौंधी—
    अब्बू जान की कही वो आखिरी बात जो उसने कभी समझी ही नहीं थी:
    "अगर मैं ना रहूं... तो एक बार मेरा संदूक़ खोलकर देखना। उसमें तुम्हारे लिए कुछ रखा है मैंने..."

    उसे एक उम्मीद की किरण नज़र आई। वह झटपट उठी और कमरे में रखी पुरानी अलमारी की ओर दौड़ी। ज़ंग खाया हुआ, भारी सा संदूक़ नीचे पड़ा था—उसी संदूक़ को खींचकर ज़मीन पर लाई और कांपते हाथों से ताला खोला।

    संदूक़ खुलते ही धूल उड़ती हुई बाहर निकली। अंदर एक कपड़ों का पुराना जोड़ा neatly तह किया हुआ रखा था—बच्चों के कपड़े। और एक पुरानी डायरी, जिसके पन्ने समय के साथ पीले पड़ चुके थे।

    उसने धीरे से डायरी उठाई। पहला पन्ना पलटा, तो लिखा था—
    "मेरी प्यारी लियाना के नाम…"

    अल्फाज़ उसके अब्बू जान—यासीन अख्तर क़ुरैशी—के थे।
    हर शब्द में मोहब्बत, हर लाइन में दर्द बसा था।

    "मुझे पता है, बेटी... एक दिन ऐसा वक़्त आएगा जब तू बहुत अकेली होगी। शायद मैं उस वक़्त तेरे पास न रहूं, लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि मैं तुझसे दूर हूं। ये डायरी मेरा एहसास है, मेरी मौजूदगी है। जब भी लगे कि तुझे कोई समझने वाला नहीं, इसे खोल लेना।"

    उसकी उंगलियां कांप रही थीं, पर उसने आगे पढ़ना जारी रखा।

    "तू मुझे एक सड़क किनारे पड़ी मिली थी। एक नन्हीं सी बच्ची, लिपटी हुई एक कपड़े में। तुझसे नज़रें हटाना मुमकिन नहीं था। उस कपड़े में एक चिट्ठी भी छिपी थी, खून से सनी हुई... उसमें लिखा था—
    'मेरी बेटी को बचा लेना... मैं नहीं चाहती कि उसे मेरी या उसके बाप की हकीकत कभी पता चले। मेरा नाम उस पर साया बनकर न रहे...'"

    "उस चिट्ठी में ये भी लिखा था कि लड़की का नाम ना बताना, और उसके पास जो डायरी है, वो सिर्फ तब देना जब वो खुद अपनी माँ के बारे में जानना चाहे। पर बेटी... तूने कभी पूछा ही नहीं। शायद तुझे माँ की कमी कभी महसूस ही नहीं हुई। या शायद मैं तुझे उस तरह से पाल सका कि तुझे किसी और की कमी न महसूस हुई हो।"

    "पर अब, जब तू ये डायरी पढ़ रही है... तो शायद मैं इस दुनिया में नहीं हूं। ये जानकर मत रोना कि तू मेरी सगी बेटी नहीं थी, क्योंकि मेरे लिए तू खून से बढ़कर थी। तू मेरी दुआओं का जवाब थी। मैं तुझे अपने सीने से लगाकर जीया हूं।"

    "अब वक्त है कि तू सच जान सके। तेरे कपड़ों में जो चिट्ठी थी, उसमें लिखा था कि तू राशिद की बेटी है। मुझे नहीं पता कि वह कौन है, पर चिट्ठी में उसका नाम साफ लिखा था। बस इतना जान पाया कि वो इंसान तेरी माँ को धोखा देकर गया था। शायद ज़िंदा नहीं रहा या तुझसे मिलने की हिम्मत नहीं थी।"

    लियाना की आंखों से आंसुओं की धार बहने लगी।
    उसने वहीँ जमीन पर बैठकर संदूक के अंदर दुबारा देखा—
    एक पुरानी गुलाबी डायरी और एक बच्चों की छोटी सी फ्रॉक।

    शायद यही उसकी मां की आखिरी निशानी थी...

    उसने मां की डायरी को भी अपने सीने से लगा लिया। दिल में अब एक तूफान सा उठ खड़ा हुआ था। ज़िंदगी की सारी परछाइयाँ अब नई शक्ल लेने लगी थीं।

    और अब उसे समझ आया—
    क्यों ज़य्यान ने उसे छोड़ दिया था...
    क्यों उसके खून से सब डरते थे…

    अब सवाल सिर्फ माँ-बाप के नहीं थे, अब सवाल खुद अपनी पहचान का था।

    (जारी...)

  • 13. In the shadows of moonlight - Chapter 13

    Words: 1439

    Estimated Reading Time: 9 min

    "चाँदनी के साए में"

    अध्याय 13, दृश्य 1 — "बिखरते अफसाने"

    (वन सीन)

    दिन का सूरज ढलने को था, पर लियाना की ज़िंदगी में तो मानो कई सूरज एक साथ अस्त हो गए थे। ज़ाय्यान की बातों ने उसके वजूद को ही झकझोर दिया था। आँखों से बहे आँसू अब सूख चुके थे, लेकिन दिल का तूफ़ान और भी तेज़ हो चला था।

    "जिसे मैं अब्बू जान समझती रही... वो तो मेरे कुछ थे ही नहीं? और मेरी माँ कौन थी, मुझे कुछ नहीं पता?"

    उसने खुद से सवाल किया, पर जवाब कोई नहीं था।

    "कौन हूँ मैं? किससे हूँ मैं? मेरा अपना कौन है इस दुनिया में?"

    ये सवाल उसे तोड़ रहे थे।

    वो चुपचाप कमरे के एक कोने में बैठी रही। पूरे 2 दिन से उसने कुछ खाया नहीं था। भूख की जगह अब दर्द ने ले ली थी। शाम होते-होते वो रोते-रोते बेहोश हो गई। कोई देखने वाला नहीं था, कोई पुकारने वाला नहीं था। बस सन्नाटा और टूट चुकी लियाना।

    पूरी रात यूँ ही गुजर गई।

    सुबह की हल्की रौशनी खिड़की से अंदर आई तो उसकी बंद पलकों को छू गई।

    धीरे-धीरे उसने आँखें खोलीं। बदन में जान ही नहीं बची थी, पर फिर भी उसने खुद को घसीटा।

    वो उठी, सर पर धीरे से अपना दुपट्टा रखा और घर से बाहर निकल पड़ी।

    गली में कुछ औरतें आपस में बातें कर रही थीं।

    "सुना तुमने? आज शाम को ज़ाय्यान साहब की सगाई है यू.पी. के सी.एम. की बेटी से। नाम है मरीन फ़ातिमा। बड़ी तेज़ लड़की है। 1 हफ्ते बाद शादी भी है।"

    लियाना के कदम वहीं थम गए।

    दिल एकदम से बैठ गया।

    "तो अब ज़ाय्यान भी चला गया मेरी ज़िंदगी से?" उसने खुद से कहा।

    वो वापस घर आई। अब उसके पास रोने के लिए भी आँसू नहीं थे।

    बैग खोला, अपने कुछ कपड़े रखे और बिना किसी को कुछ बताए, घर से निकल गई।

    रास्ते में कई लोग दिखे, पर किसी ने उसकी आँखों का दर्द नहीं देखा।

    वो सीधा स्टेशन पहुँची।

    एक बेंच पर जाकर बैठ गई।

    "आ तो गई हूँ यहाँ... पर जाऊँ कहाँ?" उसने धीरे से बुदबुदाया।

    दोपहर के 12 बज चुके थे।

    एक ट्रेन प्लेटफॉर्म पर लगी।

    वो बिना कुछ सोचे, उसमें चढ़ गई।

    ट्रेन चली, और लियाना की आँखों से पुरानी यादें बहने लगीं।

    "ज़ाय्यान ने मेरा हाथ छोड़ा क्यूँ? मैंने तो बस उसे चाहा था... मैंने तो बस अपने अब्बू की कसम खाई थी..."

    वो खिड़की से बाहर देखती रही, आँसू बहते रहे।

    घंटों सफर के बाद ट्रेन रुकी।

    अनाउंसमेंट हुआ — "कोलकाता टर्मिनस"

    लियाना उतर गई।

    स्टेशन बड़ा था, भीड़ भी बहुत थी, पर वो अकेली थी।

    "ख़ुदा ने शायद मुझे यहीं लाकर छोड़ा है... क्यूंकि मेरी माँ को भी तो यहीं बेचा गया था..."

    उसने खुद से कहा और स्टेशन से बाहर निकल गई।

    वो नहीं जानती थी कि अब कहां रहेगी, क्या करेगी, पर अब उसका दिल सिर्फ़ यही कह रहा था — "बच जाना है।"

    ---

    दूसरी तरफ़ — पटना की हवेली

    पूरा घर अब सगाई की तैयारी में लगा था।

    यू.पी. के सी.एम. की बेटी — मरीन फ़ातिमा — को शाम को आना था।

    पर एक और बात पूरे घर में आग की तरह फैल चुकी थी — ज़ाय्यान ने लियाना को घर से क्यूँ निकाला।

    सबकी निगाहें अब मरियम बेगम (अम्मी जान) पर थीं।

    ख़ासकर बुआ जान, जो पहले से ही इस रिश्ते के खिलाफ थीं, ने सब पर ज़ोर डाल दिया —

    "अब देर किस बात की? ज़ाय्यान की दूसरी शादी कर दो। मरीन से रिश्ता पक्का है। लियाना को तो उसने खुद भगा दिया।"

    कोई कुछ नहीं बोल सका।

    दादा जान अपने कमरे में थे।

    चेहरे पर बेचैनी थी।

    शायद वो कुछ जानते थे... पर खामोश थे।

    अम्मी जान को सबने घेर लिया।

    "आपकी वजह से ज़ाय्यान की ज़िंदगी में ये तूफ़ान आया है!"

    "आपने ही उस लड़की को बहू माना था। देख लिया अंजाम?"

    अम्मी जान चुप थीं।

    बस उनकी आँखें बार-बार दरवाज़े की तरफ़ उठती थीं —

    "क्या वो लौटेगी?"

    ---

    ज़ाय्यान, अपने कमरे में अकेला बैठा था।

    दरवाज़ा बंद था, मोबाइल ऑफ़ था।

    उसके हाथ में लियाना की एक पुरानी तस्वीर थी।

    लेकिन चेहरा पत्थर हो गया था।

    न आँखें नम थीं, न होंठ हिले।

    "मैंने सही किया... मैं झूठ के साथ नहीं रह सकता।"

    उसने खुद से कहा।

    पर कहीं अंदर एक आवाज़ गूंज रही थी —

    "तूने उसे छोड़ा नहीं... उसे बर्बाद कर दिया।"

    ---

    कोलकाता स्टेशन पर बैठी लियाना, अब बिल्कुल अलग ज़िंदगी की तरफ़ बढ़ रही थी।

    एक अनजान शहर, अनजान लोग, और एक टूटी लड़की...

    बस इतना तय था —

    अब लौटना नहीं है।

    अब खुद को खोजना है।

    अब अपने अतीत की राख से नया वजूद...

    कोलकाता स्टेशन से बाहर निकलते ही लियाना ने अपने चारों ओर निगाहें दौड़ाईं। भारी भीड़, अनजान चेहरे, अनजानी ज़ुबान और एक अजीब सी घबराहट उसके सीने में भर गई।

    सड़क के किनारे खड़े ऑटोवालों की भीड़ में से एक आदमी ने ज़ोर से पुकारा, "मैडम! कहाँ जाना है?"

    लियाना ने धीरे से कहा, "भाईया, कोई ऐसी जगह बता दीजिए जहाँ मैं कुछ दिन रुक सकूँ।"

    उसकी आवाज़ में मासूमियत थी और थकावट भी। आँखों के नीचे काले घेरे और उलझे बाल साफ़ बयां कर रहे थे कि ये लड़की बहुत कुछ सहकर आई है।

    ऑटोवाले की निगाहें उस पर टिकी रहीं। उसने नजरें झुकाते हुए पूछा, "आप यहाँ अकेली आई हैं?"

    लियाना ने सिर हिलाकर कहा, "हां... मेरा कोई नहीं है... मैं पहली बार यहाँ आई हूं।"

    ऑटोवाले के चेहरे पर एक मुस्कान उभर आई, पर वो मुस्कान सच्ची नहीं थी — उसके मन में कुछ और ही चल रहा था।

    "तो बैठिए मैडम, मैं आपको ले चलता हूं एक अच्छी जगह पर।"

    उसने दरवाज़ा खोला।

    लियाना चुपचाप बैठ गई। उसे कुछ भी अंदाज़ा नहीं था कि ये सफ़र उसकी किस दिशा में ले जाएगा।

    ऑटो कुछ दूर चलने के बाद एक सुनसान सड़क पर मुड़ा। लियाना ने चारों तरफ़ देखा, यहाँ न कोई दुकानदार था, न भीड़।

    "भाईया... ये रास्ता तो बड़ा सुनसान है।"

    ऑटोवाले ने झूठी मुस्कराहट के साथ कहा, "अरे मैडम, यहाँ एक गेस्ट हाउस है जो बहुत अच्छा है। लड़कियों के लिए सुरक्षित भी है।"

    थोड़ी देर बाद उसने जेब से एक पानी की बोतल निकाली।

    "मैडम, आप बहुत थकी लग रही हैं। ये पानी पी लीजिए, कुछ खाया पिया नहीं लगता आपको।"

    लियाना ने बिना सोचे बोतल ले ली।

    "शुक्रिया भाईया..."

    उसने 2-3 घूंट पी लिए।

    पानी पीते ही कुछ देर में उसका सिर घूमने लगा।

    "मुझे... मुझे चक्कर... सा आ रहा है..."

    उसकी आवाज़ धीमी पड़ गई।

    उसकी आँखें बंद होने लगीं और शरीर ऑटो में ही एक तरफ़ लुढ़क गया।

    ऑटोवाला मुस्कराया।

    "अब आएगा असली मज़ा..."

    उसने फोन निकाला, "हां रीना दीदी, एक माल भेज रहा हूँ... ताज़ा है... बिलकुल नादान। पहली बार आई है... बिलकुल फूल सी।"

    फोन कटते ही उसने ऑटो मोड़ लिया और उसे शहर के एक बदनाम मोहल्ले की ओर ले गया।

    ---

    लियाना को होश नहीं था कि उसके साथ क्या हो रहा है। उसे ये भी नहीं पता था कि अब उसका जीवन किसी और के हाथों की कठपुतली बनने जा रहा है।

    जब उसे होश आया, तो अंधेरा था।

    कमरे में तेज़ बत्ती जल रही थी। दीवारों पर अजीब तस्वीरें टंगी थीं। कमरे में खुशबू की जगह गंध थी।

    उसका सिर भारी था, आंखें खुल नहीं रही थीं।

    उसने खुद को उठाने की कोशिश की, पर शरीर जवाब दे चुका था।

    तभी दरवाज़ा खुला।

    एक औरत अंदर आई — चेहरे पर मोटा मेकअप, लाल बड़ी बिंदी, हाथ में चूड़ियाँ।

    "उठ गई बिटिया? बड़ी देर सुलाया तूने आज..."

    उसने ठहाका लगाया।

    लियाना घबरा गई।

    "मैं... मैं कहाँ हूँ? आप कौन हैं?"

    औरत ने सिगरेट सुलगाई और उसकी तरफ़ देखकर बोली, "जैसे सब आती हैं, वैसे ही तू भी आई है। अब यही तेरा घर है।"

    लियाना काँप गई।

    "नहीं! मुझे जाने दो... मैं यहाँ नहीं रह सकती।"

    "अरे जाने देंगे... क्यों नहीं... पर पहले थोड़ा काम कर ले। फिर चाहे तो उड़ जा।"

    लियाना चिल्लाई, "नहीं! मुझे यहाँ से बाहर जाना है! छोड़ दो मुझे!"

    औरत ने चिल्लाकर कहा, "ऐ! ज़्यादा नाटक मत कर। यहाँ सबका यही ड्रामा होता है। अब चुपचाप रह, नहीं तो फिर ज़बरदस्ती करनी पड़ेगी।"

    लियाना फूट-फूट कर रोने लगी।

    "ख़ुदा... ये कहाँ ले आया मुझे..."

    उसके होंठ काँपते रहे।

    "अब कोई ज़ाय्यान नहीं आएगा तुझे बचाने... और ना ही तेरा अब्बू..."

    औरत ने कहा और दरवाज़ा ज़ोर से बंद कर दिया।

    लियाना ने सिर दीवार से टिका दिया।

    अब वो दुनिया छोड़ चुकी थी — जहाँ ख्वाब होते हैं, रिश्ते होते हैं, और उम्मीद होती है।

    अब उसकी ज़िंदगी एक अंधेरे गड्ढे में धकेल दी गई थी, जहाँ से लौटना आसान नहीं।

    वो एक गुड़िया बन गई थी — काठ की गुड़िया।

    जिसके आंसुओं की कोई कीमत नहीं, जिसकी चुप्पियों का कोई अर्थ नहीं।

  • 14. In the shadows of moonlight - Chapter 14

    Words: 948

    Estimated Reading Time: 6 min

    अध्याय 14: नर्क की सीढ़ियाँ (भाग 1)

    कमरे में बासी हवा भरी थी, जैसे साँस लेना भी गुनाह हो। चारों ओर अजीब सी दीवारें, जिन पर लिपस्टिक के निशान, पान की पीक और दरवाजों पर पड़े पुराने धक्कों के निशान थे। लियाना की आँखें खुलीं, पर रौशनी से ज़्यादा अंधेरा उसे दिखाई दे रहा था।

    दरवाज़ा खुला। सामने खड़ी थी वही औरत — भारी मेकअप, मोटी बिंदी, हाथों में रंगीन चूड़ियाँ और चाल में ऐसी कठोरता, जिसे देख कर ही डर लगे।

    "उठ गई बिटिया?" उसने सिगरेट का एक लंबा कश खींचते हुए पूछा, "अब आराम बहुत हो गया। अब असली काम शुरू होगा।"

    लियाना घबरा गई, "मैं… मैं कहाँ हूँ? मुझे जाने दो… मुझे यहाँ नहीं रहना…"

    औरत ने ठहाका मारा, "अब यहीं तेरा घर है, और यही तेरी दुनिया। अब तुझे मर्दों को खुश करना है। यही काम है तेरा अब।"

    "नहीं!" लियाना चीख पड़ी। उसके गले से आवाज़ काँप रही थी, "मैं ऐसी लड़की नहीं हूँ! मैं शादीशुदा हूँ! मुझे छोड़ दो! मैं मर जाऊंगी, पर ये काम नहीं करूंगी!"

    औरत का चेहरा सख्त हो गया। उसने दबी आवाज़ में कहा, "मरने की बातें यहाँ मत कर… वरना सच में मार दी जाएगी। यहाँ हर लड़की ने यही बोला था — फिर भी आज तुझसे ज़्यादा पैसे कमा रही हैं।"

    फिर उसने पीछे मुड़कर अपने साथ खड़ी कुछ लड़कियों को इशारा किया, "रेशमा, सुलोचना, इसे आज रात के लिए तैयार करो। बहुत पैसा मिलेगा इस पर… लगती है पहली बार आई है… कच्ची कली है पूरी।"

    लियाना काँपती रही।

    औरत वहाँ से चली गई, मगर लियाना की आँखों में जो खौफ छोड़ गई, वो वहीं ठहर गया।

    रेशमा नाम की एक लड़की उसके पास आई। उसकी आँखों में भी अतीत का कोई टूटा सा किस्सा था। उसने धीरे से कहा, "आदत डाल ले इस ज़िंदगी की बहन… वरना यहाँ जीने भी नहीं देंगे और मरने भी नहीं…"

    लियाना ने उसकी आँखों में देखा और गिड़गिड़ा पड़ी, "नहीं! प्लीज़… मेरी मदद करो! मैं शादीशुदा हूँ… मेरी शादी हो चुकी है… मुझे यहाँ से निकलना है… ख़ुदा के लिए…"

    रेशमा की आँखों में नमी थी, लेकिन वो मजबूर थी।

    उसी समय पीछे से एक और लड़की ने कहा, "जल्दी कर! मालकिन ने कहा है इसे तैयार करना है। देर होगी तो हम सब पर पड़ेगी!"

    रेशमा ने चुपचाप लियाना का हाथ पकड़ा और उसे एक कोने की ओर ले गई, जहाँ एक दर्पण के सामने सस्ते और उटपटांग कपड़े रखे थे।

    लियाना चीख पड़ी, "नहीं! मैं ये कपड़े नहीं पहनूंगी! ये कपड़े नहीं… इनसे तो कुछ भी नहीं ढक रहा…"

    पर उसकी आवाज़ किसी दीवार से टकराकर रह गई। लड़कियाँ अपना काम कर रही थीं, जैसे वे मशीनें हों, और लियाना बस एक नया पुर्जा।

    जब वह तैयार हो गई, तो वो खुद को शीशे में देखकर डर गई। उसका चेहरा, उसका शरीर — सब किसी और का लग रहा था। ऐसा लगा जैसे लियाना अब कहीं नहीं बची… बस एक जिस्म रह गया था… बिकाऊ।

    दूसरी तरफ़ — पटना हवेली

    पटना की हवेली में रंग-बिरंगी रोशनी बिखरी थी। हर कोने में सजावट और चमक। शाम की सगाई पार्टी शुरू हो चुकी थी।

    स्टेज पर ज़ाय्यान खड़ा था — बेजान चेहरा, थके हुए कंधे और हाथ में मरीन फ़ातिमा की उँगलियाँ। यू.पी. के सीएम की बेटी — मरीन — मुस्कुरा रही थी, पर उसकी आँखों में गुस्सा छिपा नहीं था। वो जानती थी कि यह रिश्ता सिर्फ़ सियासत के लिए है, मगर अब जब उसकी सगाई हो रही है, तो यह रिश्ता भी उसके घमंड का हिस्सा बन चुका था।

    "चलो ज़ाय्यान, रिंग पहनाओ," किसी ने माइक पर कहा।

    ज़ाय्यान ने जैसे किसी नींद में अंगूठी उठाई और मरीन की उँगली में डाल दी। कोई मुस्कुराहट नहीं, कोई शब्द नहीं।

    स्टेज के नीचे तालियाँ बज रही थीं। पत्रकार फोटो खींच रहे थे। मीडिया में ब्रेकिंग न्यूज़ चल रही थी।

    पर ज़ाय्यान… वो तो कहीं और था।

    पीछे खड़े उनके अब्बू जान — अफ़रोज़ अल-मुतकब्बिर — झूठी मुस्कान के साथ लोगों से हाथ मिला रहे थे, पर अंदर से बेचैन थे।

    उन्होंने एक भरोसेमंद नौकर को पास बुलाया, "जावेद… चुपचाप लियाना का पता लगाओ… और खबर लाओ कि वो अब कहाँ है…"

    जावेद सिर झुकाकर चला गया।

    वापस कोलकाता — कोठे का नर्क

    लियाना को अब एक आदमी के साथ भेजा जाना था — एक नामी व्यापारी का बिगड़ा हुआ बेटा। शराब की बदबू, शरीर पर सोने की चेनें, आँखों में वासना की लपटें।

    "बहुत सुंदर है ये माल," उसने कहा और दरवाज़ा बंद कर लिया।

    लियाना घबरा गई, "प्लीज़… मुझे मत छुइए… मैं शादीशुदा हूँ… मेरे शौहर का नाम ज़ाय्यान है… मुझे जाने दीजिए…"

    लड़का हँसा, "यहाँ किसी का शौहर नहीं होता… बस रातें होती हैं और जिस्म…"

    वो उसकी तरफ़ बढ़ा, लियाना पीछे हटती रही।

    उसने लियाना के गाल पर ज़ोर से थप्पड़ मारा। "नाटक बंद कर!"

    लियाना ज़मीन पर गिर गई… उसकी आँखों में आंसू भर आए।

    पर तभी…

    उसे याद आया कि आते वक्त उसने ज़मीन से एक कांच का टुकड़ा उठाकर छुपा लिया था।

    जैसे ही लड़का उसके करीब आया, लियाना ने पूरा ज़ोर लगाकर वो कांच उसके चेहरे पर दे मारा।

    "आह!" लड़का चीख पड़ा। उसके चेहरे से खून बहने लगा।

    "कमबख्त!" वो चिल्लाया और दरवाज़ा खोलकर बाहर भागा।

    लियाना वहीं बैठी काँप रही थी… हाथ में खून… आँखों में खौफ… लेकिन उस एक पल में उसने खुद को बचा लिया था।

  • 15. In the shadows of moonlight - Chapter 15

    Words: 1415

    Estimated Reading Time: 9 min

    कमरे की दीवारों पर अंधेरा घना हो चला था, मगर उससे भी गहरा अंधेरा लियाना की ज़िंदगी में उतर चुका था।

    लड़के के चेहरे से खून लगातार बह रहा था। वह दर्द और गुस्से से काँपता हुआ कमरे से बाहर निकला और ज़ोर से चिल्लाया —

    "मालकिन! मैं तुम्हारे कोठे को बरबाद कर दूंगा! और इस लड़की को भी! चेहरा मेरा यूँ बिगाड़ा है, अब देखना क्या करता हूँ!"

    उसकी आवाज़ कोठे की हर दीवार से टकराई। लड़कियाँ सहम गईं, लेकिन किसी ने कुछ नहीं कहा।

    मालकिन — शबनम बेगम, भारी कद, साड़ी के पल्लू में बंधी चाबियों की आवाज़ और चेहरे पर दहकती हुई गुस्से की लहर — तेज़ी से आई।

    "कौन था वो हरामज़ादा? और ये कमबख़्त कहाँ है?"

    उसकी आँखें आग उगल रही थीं।

    एक लड़की ने काँपते हुए इशारा किया — "कमरे में है… वहीं… वही लड़की..."

    शबनम बेगम गुस्से में दरवाज़ा धकेलकर कमरे में घुसी।

    लियाना एक कोने में सिमटी खड़ी थी। शरीर थर-थर काँप रहा था, गाल पर उस दरिंदे का थप्पड़ अब तक छपा हुआ था — सुर्ख लाल। माथे से पसीना बह रहा था, आँखों में थकी हुई नमी थी।

    "तूने समझा क्या है खुद को?" शबनम चीखी, "उस लड़के से तूने हाथ उठाया? जानती है कितना नुकसान किया है तूने?"

    लियाना की आवाज़ काँपी, लेकिन वो झुकी नहीं —

    "मैं जिस्म नहीं बेचूंगी... चाहे मार डालो... पर मैं ये नर्क नहीं जी सकती..."

    शबनम ने अपनी चप्पल ज़मीन पर पटकी और दरवाज़े की तरफ़ पलटी —

    "काला!" उसने पुकारा।

    कुछ ही पल में एक गंजा, गठीला आदमी अंदर आया — आँखों में निर्दयता, हाथ में चमड़े की मोटी बेल्ट।

    "इस हरामी लड़की को सज़ा दिखाओ, जैसे आज तक किसी को नहीं मिली। इसे याद रहे कि कोठे में इंसान की कीमत नहीं, सिर्फ़ जिस्म बिकता है!"

    काला आगे बढ़ा।

    लियाना की साँसे तेज़ हो गईं।

    "नहीं! नहीं! मत मारो मुझे! प्लीज़!"

    उसकी चीखें कमरे में गूँज उठीं।

    पहला वार — कमर पर पड़ा।

    चटाक!!

    काले चमड़े की बेल्ट उसकी नाज़ुक त्वचा को चीर गई।

    "आह्ह...!!" लियाना ज़मीन पर गिर पड़ी, लेकिन काला रुका नहीं।

    दूसरा वार — पीठ पर।

    तीसरा — जाँघों पर।

    चौथा — गर्दन के पास।

    हर वार के साथ उसकी चीखें तेज़ होती गईं, मगर गूंगी दीवारों से टकराकर रह जातीं।

    उसका दुपट्टा दूर जा गिरा, बाल बिखर गए, होठों से खून की बूंदें टपकने लगीं।

    शरीर अब बस काँपता हुआ दर्द बन गया था।

    काला रुका नहीं।

    अब उसने उसका चेहरा निशाना बनाया।

    चटाक!!

    बेल्ट उसके दाएं गाल पर पड़ी — जहां पहले ही वो लड़के के हाथ का निशान था। अब चमड़े की धार से खून की महीन सी लकीर निकल आई।

    चेहरे की त्वचा फटने लगी।

    लियाना कराह रही थी, "ख़ुदा… मुझ पर रहम कर..." उसकी साँसे उखड़ने लगीं।

    शबनम ने चिल्लाकर कहा, "रुक! अब इसका चेहरा मत बिगाड़, वरना बेचेंगे किसे?"

    काला रुक गया, मगर उसने जाते-जाते लियाना की पसलियों में एक जोरदार लात मारी।

    "इंसान बनकर आई थी, अब देख रंडी बनती है या नहीं!"

    उसने हँसते हुए कहा और बाहर निकल गया।

    लियाना वहीं ज़मीन पर पड़ी रही — शरीर खून, आँसू और दर्द से लथपथ।

    उसका लहूलुहान चेहरा ज़मीन से चिपका था। आँसू निकल रहे थे, पर आवाज़ अब नहीं थी।

    उसके होंठ बस एक ही शब्द फुसफुसा पा रहे थे —

    "ज़ाय्यान…"

    पटना की रौशनी से दूर, कोलकाता के उस तंग गली में, एक पुरानी कोठी के अंधेरे कमरे में लियाना चुपचाप बैठी थी। उसके बदन पर गहरे नीले और काले निशान थे। चेहरे पर दर्द और थकावट के गहरे रंग थे। होंठ सूख चुके थे, आँखें सूज चुकी थीं — लेकिन उसमें अब भी एक आग बची थी, जो बुझी नहीं थी।

    4 दिन हो चुके थे उसे हवेली छोड़े। इन 4 दिनों में उसने न तो कुछ खाया था, न ढंग से सो पाई थी। कोठे की मलक़िन — शबनम बाई — एक बेरहम औरत थी, जिसकी आँखों में पैसा ही खुदा था। जब लियाना ने उस अमीर गंदे आदमी का चेहरा शीशे से फाड़ दिया था, तब से ही शबनम बाई की आँखों में आग थी।

    उस रात शबनम बाई ने गुस्से से अपने किराए के गुंडों को बुलाया था। एक हट्टा-कट्टा आदमी आया, जिसकी आँखों में कोई इंसानियत नहीं थी। उसने बिना कुछ कहे, लियाना को बालों से पकड़ा और ज़मीन पर घसीटते हुए उसे उस गंदे कमरे में लाकर पटक दिया।

    लियाना कुछ बोलती उससे पहले ही उसकी कमर पर बेल्ट पड़ी।

    चटाक!

    "तू समझती क्या है अपने आपको?" शबनम चीखी, "हमारा नुकसान किया है तूने। अब भुगत!"

    गुंडा फिर से बेल्ट लेकर लपका। एक के बाद एक बेल्ट उसके पीठ पर, पीठ से लेकर टांगों तक, कंधों तक पड़ी। लियाना की चीखें कमरे की दीवारों से टकरा रही थीं। पर सुनने वाला कोई नहीं था।

    "रोक दो... प्लीज़... अल्लाह के लिए छोड़ दो..." — लियाना कराहते हुए कहती रही, पर कोई रहम न हुआ।

    उसकी गाल पर थप्पड़ पड़ा — इतना जोर से कि होठ से खून निकल आया। शबनम बाई उसकी ठोड़ी पकड़कर बोली —

    "अब इस कोठे की इज्जत तू बचाएगी, वरना हर दिन तू इसी तरह पिटेगी।"

    फिर वो जोर से दरवाज़ा बंद करके चली गई। लियाना ज़मीन पर पड़ी तड़पती रही — आँखों से आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे।

    उसी वक्त — पटना की हवेली में...

    हवेली में रोशनी थी, सजावट थी, और लोग हँस-हँस कर बधाइयाँ दे रहे थे। ज़ैयान की सगाई हो चुकी थी, यूपी की मुख्यमंत्री की बेटी के साथ। ज़ैयान स्टेज पर खड़ा था, लेकिन उसके चेहरे पर एक भाव भी नहीं था। उसने बस अंगूठी पहनाई और दूर खड़ा होकर लोगों से औपचारिक बातें करता रहा।

    उसे अब भी यह नहीं मालूम था कि लियाना कहाँ है, किस हाल में है। उसने जानबूझकर खुद को उस सोच से काट रखा था। उसकी नज़रों में भावनाएँ छुपी रहती थीं, और ज़ुबान पर कठोरता।

    वहीं, एक कोने में अफरोज साहब खड़े थे — उनका दिल किसी तूफान से गुजर रहा था। जब से लियाना हवेली से चली गई थी, उन्हें चैन नहीं था। ज़ैयान कुछ भी नहीं बोलता, लेकिन अफरोज समझते थे कि वो क्यों खामोश है।

    उन्होंने एक शाम अपने सबसे पुराने और वफादार नौकर इम्तियाज़ को अपने कमरे में बुलाया। कमरा बंद कर लिया गया।

    "तुम्हें एक ज़िम्मेदारी दे रहा हूँ इम्तियाज़," अफरोज बोले।

    "हुक्म करें मालिक," इम्तियाज़ ने सिर झुकाकर कहा।

    "लियाना को ढूंढ निकालो। किसी को खबर न हो — खासकर ज़ैयान को नहीं। पता करो वो ज़िंदा है या नहीं। और अगर ज़िंदा है... तो किस हाल में है।"

    इम्तियाज़ को बिना कोई और सवाल किए चुपचाप शहर छोड़ने की इजाज़त दी गई। अगले दिन ही वो कोलकाता के लिए रवाना हो गया।

    फिर से कोलकाता...

    शबनम बाई के कोठे में रात और स्याह होती जा रही थी। हर कोने से दर्द की आवाज़ें आती थीं। लेकिन लियाना अब भी खामोश थी। उसने बिस्तर से खुद को बाँध रखा था — जैसे किसी दरिंदे से बचने की आखिरी कोशिश हो।

    Reshma — वही लड़की जिसने पहले दिन उसे समझाया था — धीरे से कमरे में आई। वो चुपचाप पास बैठी।

    "तू बहुत बहादुर है, लियाना," Reshma बोली, "इतनी मार खाने के बाद भी झुकी नहीं तू..."

    लियाना ने धीरे से आँखें खोलीं, एक आँसू गाल पर लुढ़क गया।

    "झुक गई तो जीना मुश्किल होगा... बस ख्वाहिश है कि कोई मुझे यहाँ से निकाल ले जाए..."

    Reshma ने उसका हाथ पकड़ा। "अगर अल्लाह ने चाहा, तो कोई ज़रूर आएगा..."

    इम्तियाज़ की खोज

    कोलकाता में इम्तियाज़ ने कई जगहों पर तलाश शुरू की। पुराने दोस्त, पुलिस के कुछ भरोसेमंद लोग, और खुद की आँखें लगाईं। चौथे दिन उसे एक आदमी मिला जो लड़कियों की तस्करी से जुड़ा था। पैसे लेकर उसने एक नाम बताया — "शबनम बाई"।

    इम्तियाज़ के कान खड़े हो गए। उसने उसी रात उस इलाके की तलाश शुरू कर दी। एक पुराने से मकान पर उसकी नज़र पड़ी, जहां से औरतों की आवाज़ें आ रही थीं। और फिर... एक क्षण के लिए एक खिड़की से लियाना का चेहरा दिखा — सूजा हुआ, सहमा हुआ।

    इम्तियाज़ की आँखें भर आईं। उसने तुरंत हवेली में एक गुप्त संदेश भिजवाया — सिर्फ अफरोज साहब के नाम।

    हवेली में अगला तूफान...

    अफरोज साहब के हाथ में इम्तियाज़ का खत आया — लिखा था:

    "लियाना को ढूंढ लिया है... बहुत बुरे हाल में है... कोलकाता में एक कोठे में..."

    अफरोज की मुट्ठियाँ भींच गईं। पर चेहरे पर वही ठंडा सन्नाटा।

    "ज़ैयान को नहीं बताना अभी," उन्होंने खुद से कहा।

    "ये लड़ाई मेरी है। उस लड़की की इज़्ज़त अब मेरा ज़िम्मा है।"

  • 16. In the shadows of moonlight - Chapter 16

    Words: 2130

    Estimated Reading Time: 13 min

    अध्याय 16 — जली हुई पीठ और टूटा हुआ हौसला

    (पहला भाग)

    चार दिन से लियाना उस नरक में बंद थी। खाने को कुछ नहीं लिया था, सिर्फ़ दीवारों को ताकती रहती थी। आँखें सूख गई थीं, होंठ फटे हुए थे, और आत्मा जैसे देह से निकल चुकी थी। उस दिन रात में जब कोठे की बाकी लड़कियाँ सोने लगीं, एक साया उसके पास आया — रेशमा।

    रेशमा ने धीमे स्वर में कहा,

    "अगर तुझे निकलना है तो बस एक ही मौका है, आज रात।"

    लियाना ने थकी हुई नज़रों से उसकी ओर देखा, जैसे रोने की ताक़त भी अब बची न हो।

    "मैं मदद करूंगी, लेकिन जल्दी करना। पीछे वाला दरवाज़ा खुला रहेगा सिर्फ़ दस मिनट के लिए।"

    लियाना ने सिर हिलाया। पहली बार किसी ने उसके लिए दरवाज़ा खोला था। पहली बार उसे ऐसा लगा कि शायद वह बच सकती है।

    उसने चुपचाप चादर ओढ़ी, दर्द भरे शरीर को खींचती हुई उठी, और धीरे-धीरे उस पीछे वाले रास्ते की ओर बढ़ने लगी, जहाँ रेशमा ने कहा था।

    चार कदम ही चली थी कि अचानक दो साये सामने से आ खड़े हुए — दो हट्टे-कट्टे गार्ड, और उनके पीछे खड़ी थी वही औरत — कोठे की मालकिन।

    उसकी आँखों में आग थी, और होंठों पर ज़हर।

    "भागने की कोशिश? तू समझती क्या है अपने आपको!" वो चीखी।

    लियाना के चेहरे का रंग उड़ गया। गार्डों ने बिना कोई सवाल किए, उसे ज़मीन पर गिरा दिया। फिर वही हुआ जिसे सोचकर रूह काँप जाती है।

    मालकिन ने गुस्से में कहा,

    "इस बार सिर्फ़ मार नहीं पड़ेगी... इस बार नज़ीर बनेगी तू!"

    वो अंदर से एक लोहे की मोटी रॉड निकलवाती है — जो चूल्हे की आग में तप रही थी। लाल तपती हुई, जैसे अंगार हो।

    गार्डों ने लियाना के दोनों हाथ पकड़कर ज़मीन पर दबा दिए। उसकी पीठ नंगी थी। मालकिन ने तपती हुई रॉड उसके पीठ पर रख दी।

    "आह्ह्ह्ह्ह..."

    चीख ऐसी थी जैसे किसी जानवर को ज़िंदा जलाया जा रहा हो। दर्द ने उसकी साँसें रोक दीं। त्वचा जलने की गंध पूरे कमरे में फैल गई।

    मालकिन ने फिर एक बार दहाड़ा —

    "अब कोई भागने की सोच भी नहीं सकेगा!"

    पीठ पर एक, फिर दूसरा जलता हुआ निशान। खाल झुलस गई, मांस लाल हो गया और लियाना बेहोश होने लगी। लेकिन वह बेहोश नहीं हुई। शायद रब्ब ने उसके अंदर हिम्मत जगा दी कि वह हर पीड़ा को ज़िंदा महसूस करे।

    उसकी आँखों से आँसू बहते जा रहे थे, मगर आवाज़ अब नहीं निकल रही थी। शरीर कांप रहा था, लेकिन मुँह से चीख नहीं। यह वो दर्द था जिसे लफ्ज़ बयां नहीं कर सकते।

    रेशमा को भी एक थप्पड़ मारा गया।

    "तेरी वजह से ये सब हुआ!" मालकिन गरजी।

    कोठे में बाकी लड़कियाँ सहमी हुई दरवाज़े की ओट से यह मंजर देख रही थीं। कोई कुछ नहीं बोला। सबकी आँखों में डर, लेकिन दिलों में आँसू थे।

    लियाना को घसीटकर उसके कमरे में फेंका गया।

    "अब हिलना मत... कल तुझे उस आदमी के सामने पेश किया जाएगा जिसने तुझे बर्बाद करने की कसम खाई है!" मालकिन ने कहा और दरवाज़ा बंद कर दिया।

    लियाना अब सिर्फ़ एक जलता हुआ शरीर थी। पीठ से रिसता मांस, दर्द से कांपती साँसें और एक टूटा हुआ दिल... अब उसके पास जीने की कोई वजह नहीं थी, लेकिन मरने की इजाज़त भी नहीं थी।

    अगले दिन का सूरज एक नई उम्मीद नहीं, बल्कि एक और दर्द लेकर उगा था। लियाना की आँखें रातभर खुली रहीं थीं। उसके शरीर की पीड़ा तो जैसे सन्नाटे में बदल गई थी, पर उसकी आत्मा हर क्षण चीख रही थी। पीठ पर जलते लोहे के निशान अभी भी धधक रहे थे। उठने की हिम्मत तक नहीं थी, पर फिर भी उसे घसीटकर नहलाया गया, सजाया गया — जैसे एक चमकदार चीज़ जो किसी की नज़र में कीमती लगे।

    शाम ढलने लगी थी। कोठे का माहौल फिर से वैसा ही बन चुका था — रोशनी, इत्र की खुशबू, और सजधज से भरा हाल, जहाँ अमीर और रसूखदार लोग अपने चेहरे पर नकाब लगाए आते थे। आज की रात कोई ख़ास थी, सब कह रहे थे। और लियाना… एक बार फिर उस खूबसूरती की मूर्ति बनाकर हाल के बीचोंबीच खड़ी की जा रही थी — ज़ख्मों की तकलीफ़ उसकी सूरत पर नहीं, पर आत्मा पर छपी थी।

    रह-रह कर जब भी कमर का दर्द उठता, उसकी साँसे तेज़ हो जातीं। मुँह से कोई आवाज़ नहीं निकलती, बस आँखें भर आतीं।

    "चलो, जल्दी करो इसे तैयार करो, आज के मेहमान बहुत बड़े लोग हैं," कोठे की मलक़िन ने तेज़ आवाज़ में कहा।

    लड़कियों ने चुपचाप लियाना को फिर से तैयार किया — उसकी पीठ पर दवाई नहीं लगाई गई, ताकि कपड़े उस पर चिपके रहें और उसे हर पल तकलीफ़ हो। वह जानबूझकर की जा रही थी। यह सब सज़ा का हिस्सा था।

    "क्या अब बस यही जिंदगी है?" — लियाना के मन में यही प्रश्न था। तभी, रेशमा चुपके से उसके पास आई। उसके हाथ में एक छोटी सी शीशी थी — उस पर कुछ नहीं लिखा था।

    "अगर जीना चाहो, तो सहना पड़ेगा... और अगर मरना चाहो, तो ये ज़हर है। बहुत धीमा असर करता है, पर इससे कोई वापसी नहीं होती।"

    लियाना की थकी हुई आँखें उसकी तरफ़ उठीं।

    "मौत ही तो बची है अब," उसने बुदबुदाकर कहा।

    और बिना एक पल गँवाए, लियाना ने पूरी शीशी पी ली।

    रेशमा का दिल काँप गया, पर उसने कुछ नहीं कहा।

    थोड़ी देर बाद, लियाना को कोठे के हॉल में ले जाया गया। वहाँ की भीड़, लोगों की निगाहें, सब कुछ जैसे धुंधला हो रहा था — ज़हर का असर धीरे-धीरे शुरू हो रहा था।

    पर तभी, उसकी नज़र भीड़ में एक शख्स पर पड़ी — सफेद कुर्ता-पायजामा, सधी हुई आँखें, और चेहरा जो कभी बहुत सख़्त दिखता था। वह थे अफ़रोज़ अल-मुतकब्बिर — ज़य्यान के अब्बूजान।

    लियाना का दिल काँप गया।

    "क्या ये मुझे खरीदने आए हैं?" — यह खयाल जैसे बिजली बनकर उसके भीतर दौड़ गया।

    उसे अपने ही वजूद से नफरत होने लगी थी। vah shakhs uski jindagi mein Abbu Jaan ki haisiyat rakhta tha. और आज वही…?

    मलक़िन ने उसे सबके सामने लाकर खड़ा किया।

    "देखिए हज़रतों! ये लड़की अब तक किसी के हाथ नहीं लगी है। नाज़ुक है, खूबसूरत है, और अब हमारी शान बनने जा रही है।"

    सबकी नज़रें हवस से भरी थीं। बोली शुरू हुई।

    "पचास हज़ार..."

    "एक लाख..."

    "डेढ़ लाख..."

    बोली पर बोली लगती रही।

    लियाना की आँखों से आँसू बहते रहे। उसकी टाँगे काँप रही थीं। ज़हर की गर्मी शरीर में दौड़ रही थी, और मन में घृणा।

    तभी एक गहरी आवाज़ गूंजी —

    "50 lakh।"

    पूरा हॉल चुप हो गया।

    सबकी नज़र उस व्यक्ति पर गई — वही आदमी जो अब तक चुपचाप बैठा था — अफ़रोज़ अल-मुतकब्बिर।

    किसी को नहीं पता था कि वो कौन हैं। कोई उन्हें पहचान नहीं सका, पर लियाना ने पहचान लिया था।

    उसके मन में एक साथ सौ सवाल उठे। क्या वाकई वो उसे खरीदने आए थे? या… क्या ये कोई और चाल है?

    बोली वहीं रुक गई। सब चुप हो गए।

    मलक़िन मुस्कराई और अफ़रोज़ साहब के पास जाकर बोली —

    "बधाई हो हज़ूर, ये लड़की अब आपकी हुई।"

    अफ़रोज़ ने कुछ नहीं कहा, बस सिर झुका लिया।

    लियाना ने एक गहरी साँस ली — वह अब तक कुछ समझ नहीं पा रही थी। मौत धीरे-धीरे पास आ रही थी, पर अब उसे यह सोचकर और तकलीफ़ हो रही थी कि क्या मरने से पहले उसका सम्मान भी छीन लिया जाएगा?

    उसे अफ़रोज़ के पास ले जाया गया। किसी को भनक तक नहीं लगी कि यह सब क्यों हुआ।

    पर रेशमा… वह सब कुछ देख रही थी। उसने झुक कर अफ़रोज़ को देखा। शायद वह कुछ समझ गई थी।

    "अब्बू जान उसे क्यों लेने आए हैं… क्या वो जानते हैं कि यह लियाना है?" यह सवाल भी उसके भीतर सुलगता रहा।

    हॉल की चहल-पहल खत्म हो चुकी थी। और लियाना की किस्मत अब अफ़रोज़ के हाथों में थी।

    पर जो कोई नहीं जानता था — यहाँ तक कि खुद ज़य्यान भी नहीं — वो यह कि अफ़रोज़ ने एक गुप्त आदमी को हफ्तों पहले भेजा था, ताकि लियाना का पता लगाया जा सके। उन्होंने ज़य्यान को कुछ भी नहीं बताया था, क्योंकि वो नहीं चाहते थे कि उनका बेटा फिर से भावनाओं में बह जाए। उन्होंने तय कर लिया था — लियाना को वहाँ से निकालना ही होगा, किसी भी कीमत पर।

    आज की रात अफ़रोज़ के लिए भी आसान नहीं थी। उन्होंने वो सब देखा था — एक बेटी जैसी लड़की को इस हालत में देखना… उनके भीतर भी तूफान उठा था।

    पर उनके चेहरे पर कोई भाव नहीं था। वही कठोर, राजनेता-सा चेहरा। पर अंदर से वे भी टूट चुके थे।

    लियाना का शरीर अब भी काँप रहा था। ज़हर अपना काम कर रहा था। उसकी आँखें बंद होने लगी थीं।

    और अफ़रोज़ ने धीरे से उसके कान में फुसफुसाकर कहा —

    "अब तुम यहाँ नहीं रहोगी।"

    यही शब्द उसके दिल में एक हल्की सी उम्मीद की लौ बनकर जल उठे।

    क्या वह वाकई बचाई जाएगी? क्या यह नर्क अब खत्म होगा?

    या ज़हर अपना काम पूरा कर चुका होगा?

    लियाना अब बेहोशी के करीब थी। धीमे-धीमे ज़हर उसके जिस्म में फैल रहा था, जैसे किसी सांप ने अपने ज़हर से उसकी रग-रग को जकड़ लिया हो। उसकी आंखें अब आधी खुली थीं, होंठ सूख चुके थे, चेहरा पीला और बेबस नज़र आ रहा था।

    अफ़रोज़ जी ने उसे क़ीमत अदा करके कोठे से अपने साथ निकाल तो लिया था, लेकिन उन्हें अब तक अंदाज़ा नहीं था कि उसकी यह हालत सिर्फ़ शारीरिक थकावट नहीं, बल्कि अंदर ही अंदर उसे मारने वाला ज़हर था।

    कार की पिछली सीट पर बैठी लियाना, कांपते हुए होठों से कुछ कहने की कोशिश कर रही थी, पर आवाज़ जैसे गले में ही अटक जा रही थी। अफ़रोज़ जी ने अपना कश्मीरी शॉल उसके कंधों पर डाला और धीरे से उसके माथे को सहलाया।

    "सब ठीक हो जाएगा, बेटी," उन्होंने बुदबुदाते हुए कहा, पर उनके दिल में एक अजीब सी बेचैनी थी।

    लियाना ने हल्का सा सिर हिलाया, जैसे कुछ कहना चाह रही हो… "अ… अब्बू…"

    पर वो बात अधूरी रह गई। उसकी सांसें तेज़ चलने लगी थीं। अफ़रोज़ जी ने घबराकर ड्राइवर से कहा, “तेज़ चलाओ, जल्दी हवेली पहुंचो। बहुत देर हो चुकी है।”

    कार तेज़ी से कोलकाता की उस पुरानी हवेली की ओर दौड़ी जो अफ़रोज़ जी की निजी मिल्कियत थी — जहां कोई नहीं रहता था, बस कुछ भरोसेमंद नौकर संभालते थे। इस काम के लिए उन्हें किसी को भनक नहीं लगने देनी थी — ना ज़य्यान को, ना घर की औरतों को, और ना ही बाहर की दुनिया को।

    जैसे ही कार हवेली के गेट पर पहुँची, दो सेवक दौड़ते हुए आए। अफ़रोज़ जी ने कार का दरवाज़ा खोला और धीरे से बोले, "इसे अंदर ले चलो… संभाल कर… बहुत तकलीफ़ में है। डॉक्टर को बुलाओ। जल्दी!"

    सेवकों ने लियाना को सावधानी से उठाया, लेकिन तभी लियाना की आंखें पलटने लगीं और उसका जिस्म बेजान सा लटक गया।

    “नहीं! लियाना!” अफ़रोज़ जी चिल्ला उठे।

    उन्हें अब समझ आ गया था कि कुछ गड़बड़ है… कुछ बहुत गड़बड़।

    हवेली के अंदर जैसे ही लियाना को लिटाया गया, डॉक्टर को तुरंत बुलाया गया। डॉक्टर उम्रदराज़ और भरोसेमंद था। अफ़रोज़ जी ने उसे एक नज़र में सब कुछ समझा दिया — "बस इसे बचा लो। कोई और बात मत पूछना। किसी को खबर नहीं होनी चाहिए।"

    डॉक्टर ने चेकअप करना शुरू किया। कुछ ही मिनटों में उसने अफ़रोज़ जी की तरफ देखा और गंभीर आवाज़ में कहा, "इसने कोई बहुत धीमा ज़हर लिया है। Organ failure शुरू हो चुका है। सांसें धीमी पड़ रही हैं। हमें ICU जैसी सेटिंग बनानी होगी।"

    "जो करना है करो, लेकिन ये ज़िंदा रहनी चाहिए," अफ़रोज़ जी ने दृढ़ता से कहा।

    नर्सें बुलाई गईं। IV ड्रिप लगाई गई। मॉनिटरिंग मशीनें लगाई गईं। लेकिन डॉक्टर ने धीरे से कहा, “शायद हम देर कर चुके हैं।”

    अफ़रोज़ जी की आंखों में पहली बार डर झलक रहा था। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि जो लड़की अभी कुछ घंटे पहले तक खड़ी थी, वो इतनी जल्दी मौत के मुहाने पर कैसे पहुंच गई?

    लियाना अब कुछ भी महसूस नहीं कर रही थी। उसकी सांसें अब मशीनों के सहारे चल रही थीं। चेहरे पर एक गहरी थकान थी, जैसे हर दर्द से परे जाकर अब उसे शांति चाहिए थी।

    अचानक मशीनों की बीप धीमी होने लगीं।

    "वो कोमा में जा रही है," डॉक्टर ने धीरे से कहा।

    अफ़रोज़ जी एक पल को स्तब्ध रह गए। उन्होंने लियाना के सिर पर हाथ रखा और आंखें बंद कर लीं।

    “मुझे माफ़ कर दो बेटा… बहुत देर हो गई…”

    कमरे में सन्नाटा छा गया।

    मशीनें चल रही थीं, डॉक्टर कोशिश कर रहा था, नर्सें दौड़ रही थीं…

    पर लियाना अब इस दुनिया से कटी हुई एक गहराई में समा चुकी थी।

    (अध्याय 17 – भाग 1 promo.)

    अगला भाग — "अंधेरों की आगोश में", जहां लियाना को बचाने की जद्दोजहद, अफ़रोज़ जी की बेचैनी, और ज़य्यान की अज्ञानता की गहराई सामने आएगी।