मैं और तुम बने हम यह एक फैमिली स्टोरी है सबकी लाइफ में कैसे-कैसे उनके लाइफ पार्टनर चाहते हैं कैसे वह परिवार के साथ एडजस्ट करते हैं दोनों का सामंजस मिलाकर दो जन मिलकर हम कैसे बनते हैं इसकी स्टोरी है एक रॉयल फैमिली है और वह सभी लोग एक दूसरे के साथ मिलक... मैं और तुम बने हम यह एक फैमिली स्टोरी है सबकी लाइफ में कैसे-कैसे उनके लाइफ पार्टनर चाहते हैं कैसे वह परिवार के साथ एडजस्ट करते हैं दोनों का सामंजस मिलाकर दो जन मिलकर हम कैसे बनते हैं इसकी स्टोरी है एक रॉयल फैमिली है और वह सभी लोग एक दूसरे के साथ मिलकर प्यार से रहते हैं जो कि हमारे हीरो की फैमिली है राजस्थान के रॉयल फैमिली उदयपुर से बिलॉन्ग करती है और हमारी हीरोइन की फैमिली मध्य प्रदेश के इंदौर शहर से बिलॉन्ग करती है और और उनका फैमिली इंट्रोडक्शन भी आपको आगे के चैप्टर में मिलेगा
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उदयपुर की रॉयल फैमिली में से एक फैमिली है विजय राठी रिटायर करनाल है देश में उन्होंने अपनी सेवाएं दी और अब रिटायर होकर उदयपुर में अपने अपने परिवार के साथ रहते हैं। एक बहुत ही शानदार पैलेस है
उदयपुर की पैलेस जिसका नाम है कृष्ण कुंज।
यह पैलेस अद्वितीय और भव्य संरचना है, जो राजस्थान की राजसी विरासत को दर्शाती है। इसकी वास्तुकला में राजस्थानी ओर मारवाड़ी शैली की झलक भी देखी जा सकती है।
पैलेस के अंदरूनी हिस्से में सुंदर गार्डन, विशाल हॉल और भव्य कमरे हैं, जो राजाओं के समय की भव्यता को प्रदर्शित करते हैं। कमरों में सुंदर नक्काशीदार दरवाजे, खूबसूरत पेंटिंग्स और आकर्षक फर्नीचर है। फर्नीचर में लकड़ी की नक्काशी और हस्तशिल्प का अद्वितीय मिश्रण है।
हाल की एंट्री गेट पर सुंदर नक्काशी और आकर्षक डिज़ाइन है, जो इसकी भव्यता को दर्शाता है। हाल में विशाल झूमर और सुंदर पेंटिंग्स हैं, जो इसकी भव्यता को और भी बढ़ाते हैं।
पैलेस में लगभग 30कमरे हैं, जिनमें से प्रत्येक अपनी विशिष्ट शैली और सजावट के साथ है। कमरों में राजस्थानी और मारवाड़ी शैली की झलक दिखाई देती है, जो इसे और भी विशिष्ट बनाती है।
यह पेरिस ४ फ्लोर में बना हुआ है
पहले फ्लोर पर अर्जुन के दादा दादी पूजा घर मेहमान घर भोजन कक्ष डायनिंग एरिया है
दूसरे फ्लोर पर अर्जुन के मम्मी पापा चाचा चाचा बड़े पापा बड़े मम्मी के कमरे हैं।
थर्ड फ्लोर पर सभी बच्चों के कमरे हैं
ऑफ़ फोर्थ फ्लोर पर स्विमिंग पूल जाम एरिया लाइब्रेरी थिएटर आदि चीज हैं सभी जगह जाने के लिए लिफ्ट लगी है।
अबअर्जुन और उसकी फैमिली का इंट्रोडक्शन
अर्जुन एक बहुत ही आकर्षक और चार्मिंग व्यक्तित्व वाला व्यक्ति है। उसकी स्ट्रांग फिजिक्स और गुड लुकिंग व्यक्तित्व उसे और भी आकर्षक बनाते हैं। वह एक इंटेलिजेंट और स्ट्रॉन्ग विल पावर वाला व्यक्ति है, जो अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए हमेशा तैयार रहता है। नीली आंखें रोज जिम में जाकर बनाया हुआ परफेक्ट फिगर गोरा रंग और उसकी मुस्कान किसी का भी दिल जीतने के लिए काफी है पर वह सबके सामने बहुत कम मुस्कुराता है उसकी मुस्कान से उसके परिवार के लिए होती है। अर्जुन का गुस्सा भी एक विशेषता है, जो उसे कभी-कभी थोड़ा सख्त और दृढ़ बनाता है। लेकिन इसके बावजूद, वह एक बहुत ही सहानुभूतिपूर्ण और देखभाल करने वाला व्यक्ति है, जो अपने परिवार और मरीजों के प्रति बहुत संवेदनशील है। और हां हमारे अर्जुन हीरो की है
डॉक्टर अर्जुन राठी जो की एक कोडियोलॉजिस्ट मतलब हार्ड के डॉक्टर है
अर्जुन के पिता, डॉ. विक्रम राठी जो की ऑर्थो सर्जन है , एक बहुत ही सम्मानित और अनुभवी डॉक्टर हैं, जो अपने बेटे को अपने नक्शेकदम पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं। अर्जुन की माँ, मिसेज़ विनीता राठी, एक बहुत ही प्यारी और देखभाल करने वाली महिला हैं, जो अपने परिवार के लिए समर्पित हैं। जो एक एनजीओ चलाती है जिसका नाम है *खुशियों का खजाना*
अर्जुन के चाचा, डॉ. अजय राठी, जो न्यूरोसर्जन है एक अनुभवी और सम्मानित डॉक्टर हैं, बहुत ही हंसमुख और जिंदादिल इंसान है। उनकी पत्नी, श्रीमती अंजलि राठी , एक बहुत ही प्यारी और देखभाल करने वाली महिला हैं, जो बच्चों को अच्छी शिक्षा देने के लिए समर्पित हैं। उनको पढ़ने का बहुत शौक है इसलिए वह सरस्वती शिशु मंदिर नाम की
स्कूल में टीचर है। अर्जुन के चाचा के बच्चे, वाणी और विद्या, दोनों बहुत जुड़वा बहने हैं। वे दोनों एमबीबीएस के फोर्थ ईयर में हैं। और उदयपुर मेडिकल कॉलेज से ही अपनी पढ़ाई कर रही है।
अर्जुन के बड़े पापा, श्री भूपेंद्र राठी , एक बहुत ही सम्मानित और अनुभवी राजनेता हैं, वह अपने विधानसभा क्षेत्र के विधायक हैं। जो अपने परिवार के के मुखिया है और अपने परिवार से बहुत प्यार करते हैं। और घर में सब उनकी बात मानते हैं उनकी पत्नी, मिसेज़ रेखा भूपेंद्र राठी , एक बहुत ही प्यारी और सुलझी हुई महिला हैं, जो रीति रिवाज को मानने वाली सशक्त महिला हैं।
इनका एक बेटा है भावेश राठी जिसकी एक फार्मेसी है जहां पर दवाइयां बनाई जाती हैं और अर्जुन और भावेश मिलकर वहां कई तरह के एक्सपेरिमेंट भी करते हैं। अर्जुन की पत्नी भावना राठी एक गायनिक है इनकी शादी को 1 साल हुआ है।
अर्जुन के दादा का नाम विजय राठी जो की एक रिटायर्ड कर्नल है और अर्जुन की दादी का नाम श्रीमती लक्ष्मी राठी है जो पूजा पाठ में बहुत विश्वास रखती है और भगवान की बहुत बड़ी भक्त है।
जीवन नाम का हॉस्पिटल है। जिस मै सभी लोग अपनी अपनी सेवाएं दे रहें हैं। अर्जुन का परिवार बहुत ही प्यारा और देश प्रेमी और अच्छे संस्कारों वाला मिलजुल के रहने वाले है, जो एक दूसरे के प्रति बहुत संवेदनशील हैं। वे सभी एक दूसरे के साथ बहुत प्यार और सम्मान से रहते हैं।
अर्जुन के दोस्त का नाम है। डॉक्टर विवेक चांडक
वह भी एक हार्ट स्पेशलिस्ट है और जो अर्जुन के साथ में अर्जुन की ही अस्पताल में कार्यरत हैं।
विवेक की मम्मी पापा है मिस्टर एंड मिसेज चांडक।
अभिनव चांडक पापा का बिजनेस है और मम्मी आभा चांडक हाउसवाइफ हैं बीवी की एक बहन है नमामि जो की फैशन डिजाइनिंग के फाइनल ईयर मै हैं।
आगे भी नए-नए कैरेक्टर्स आते रहेंगे जिनके इंट्रोडक्शन आपको समय-समय पर मिलता रहेगा आगे की स्टोरी जानने के लिए पढ़ते रहिए
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keep spelling Milte Hain next chapter mein bye...,
हीरोइन की फैमिली का इंट्रोडक्शन
नाम आरजू कोठारी
पापा अमित कोठारी
दादा राधेश्याम कोठारी
माँ विजय लक्ष्मी कोठारी (जो कि आज को जन्म देते ही मर गई थी आरजू की अच्छी देखभाल के लिए आरजू के पापा उसकी मासी से शादी कर लेते हैं पहले तो आरजू की मासी आरजू से बहुत प्यार करती थी पर जब मासी को खुद प्रेग्नेंट होती है तो फिर वह आरजू को अपने पास रखना मन कर देती है यह करके कि वह क्या-क्या संभालेगी घर संभाले तो बच्चे को संभाले उससे अर्जुन नहीं संभाली जाएगी इसलिए वह आरजू को उसके नाना नानी के पास भेज जा देती हैं) इनके दो बेटे हैं अजय और विजय बड़ा बेटा अजय जो की आर्किटेक्चर से ग्रेजुएशन कर रहा है और बड़ा छोटा बेटा अजय 12th क्लास में है यह सभी लोग भोपाल में रहते हैं आरजू के पापा बैंक में अकाउंटेंट है आरजू की मम्मी हाउसवाइफ है। आरजू के दादा आजू से बहुत प्यार करते हैं
नाना राम प्रसाद सोमानी
नानी लता सोमानी
दो मामा
बड़े मामा आकाश सोमानी
वाइफ रंजन सोमानी
उनके दो बच्चे
बेटा शौर्य सोमानी बैंक में जॉब करता हैं एक अच्छी पोस्ट पर है
शौर्य की वाइफ राधा सोमानी कॉलेज में प्रोफेसर है
इन दोनों का एक बेटा है 3 साल का मयंक
बेटी श्रावणी सोमानी
एमकॉम के फाइनल ईयर में है।
छोटे मामा हर्ष सोमानी
छोटी मम्मी हर्षित सोमानी
दो बच्चे हैं
बेटा हार्दिक सोमानी कॉलेज में थर्ड ईयर में है
बेटी हर्षा सोमानी फर्स्ट ईयर फैशन डिजाइनिंग का कोर्स कर रही है।
दोनों मामा का कपड़ों का शोरूम है सभी लोग मिलजुल के रहते हैं आरजू की दोनों मामियों से कम पसंद करती हैं क्योंकि उनको लगता है की आरजू उनके बच्चों की जगह ले रही है और उसमें काफी कुछ हाथ सौतेली मां यानी उसकी मासी भी है जो अपनी भाभियों को भटकती रहती है बुआ जी को कम पसंद करती है कि क्या आरजू के दादा ने वह जिस घर में रहते हैं वह घर आरजू के नाम हैं)
आरजू कोठारी उम्र 22 साल mba के फाइनल ईयर में है
हाइट 5.3 इंच पर्सनेलिटी बहुत ही सुंदर गेहूँआ रंग काली बड़ी-बड़ी आंखें, दुबली पतली काले घने लंबे बाल जो कमर तक आते हैं बहुत ही मासूम से दिखने वाली है। बहुत ही शांत और सूजी हुई लड़की जिसे गुस्सा नहीं आता है बहुत काम आता है क्योंकि हमारे हीरो से बिल्कुल उल्टी है।
खाना बहुत अच्छा बनाती है। घर में पढ़ी हो सभी बड़ों का मान सम्मान करती है शुरू में जाकर अपने मां का हाथ बताती है और घर में भी अपने मामियों के घर के सभी कामों में मदद करती है।
आरजू अपने मामा मामी की फैमिली के साथ में इंदौर में रंग महल कॉलोनी में रहती है दो मंजिला घर घर एंट्रेंस में एक लोहे का गेट अंदर घुसते से ही पहले एक बड़ा सा आंगन है जिसमें तुलसी का गुंडा रखा है और बहुत तरीके के फूलों के झाड़ लगे हुए हैं आरजू को प्रकृति से बहुत लगाव है। फिर अंदर जाकर एक बड़ा सा हॉल राइट साइड में किचन लेफ्ट साइड में ऊपर जाने के लिए रास्ता एक साइड में भगवान का पूजा का घर और तीन कमरे हैं एक कमरा नाना नानी का और दो दोनों मामा के कमरे हैं। ऊपर चार कमरे हैं जिसमें एक शौर्य का कमरा है दूसरे कमरे में तीनों बहने रहती हैं और एक कमरा हर्ष का है।
योग्य हमारी हीरोइन का इंट्रोडक्शन अब कल से हमारी स्टोरी के में पार्ट चालू होंगे
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आगे की स्टोरी अगले भाग में......
स्थान: कृष्ण कुंज पैलेस, उदयपुर
समय: सुबह 8:30 बजे – डायनिंग एरिया
(भव्य राजसी माहौल, डायनिंग टेबल पर गरमा-गरम नाश्ता सजा है। अर्जुन, अपने परिवार के साथ बैठा है।)
विनीता: अर्जुन बेटा, आज तो तुम इंदौर जा रहे हो ना?
अर्जुन (सिर हिलाते हुए): हां मम्मा, आज सुबह निकल रहा हूं। विवेक के लिए रिश्ता देखने जाना है।
(सभी आश्चर्य से उसकी ओर देखते हैं।)
भावना (मुस्कुराते हुए): ओह, लड़की देखने? अर्जुन जी आजकल तो आप बहुत सीरियस काम कर रहे हो!
अर्जुन (हँसते हुए): अरे नहीं, यह मेरे लिए नहीं... डॉक्टर विवेक चांडक के लिए है। उसकी मम्मी चाहती हैं कि मैं लड़की देखकर उनकी राय बताऊं।
रेखा बड़ी मम्मी: कौन है लड़की? जान-पहचान की फैमिली है क्या?
अर्जुन: लड़की का नाम है श्रावणी सोमानी। MBA कर रही है इंदौर में, रंग महल कॉलोनी में रहती हैं। विवेक की मम्मी का किसी जानने वाले के ज़रिये रिश्ता आया है।
लक्ष्मी दादी (मन में कुछ सोचते हुए): सोमानी... रंग महल कॉलोनी... राम प्रसाद सोमानी? वही तो आरजू के नाना हैं?
विक्रम राठी: हां मां, हो सकता है वही फैमिली हो। अर्जुन बेटा, अच्छे से बात करना। रिश्ते नाज़ुक होते हैं।
अर्जुन (सौम्य मुस्कान के साथ): चिंता मत करो पापा, मैं कोई फैसला नहीं कर रहा, बस मिलने जा रहा हूं।
वाणी (चुटकी लेते हुए): लेकिन भैया, कहीं लड़की देखने के बहाने आपकी नज़र किसी और पर न टिक जाए...
विद्या: हां... जैसे उसकी बड़ी बहन आरजू? MBA फाइनल ईयर, शांत, सुलझी, सुंदर...
(अर्जुन हल्के से मुस्कुराता है, लेकिन बिना कुछ कहे चाय का घूंट लेता है। भावना एक पल को उसकी मुस्कान पर नजर डालती है, फिर दूसरी ओर देखने लगती है।)
अर्जुन: मैं वहां सिर्फ विवेक के लिए जा रहा हूं। बाक़ी सब... भगवान की मर्ज़ी।
(गाड़ी आ जाती है, अर्जुन दादी के पैर छूता है, सबका आशीर्वाद लेकर रवाना हो जाता है – विवेक के घर की ओर ओर, एक नई शुरुआत की ओर...)
समय: सुबह ८ :00 बजे
(बंगले के बाहर एक खूबसूरत गार्डन, रंग-बिरंगे फूल खिले हुए हैं। अंदर से हल्की भजन की आवाज़ आ रही है – “शुभ कामना हो, मंगल बेला हो…”)
विवेक की मां (किरण चांडक) पूजा की थाली हाथ में लेकर आरती कर रही हैं।
किरण चांडक (मन ही मन): हे ठाकुरजी, आज हम बहू देखने जा रहे हैं… बस अच्छा रिश्ता हो, और लड़के-लड़की की कुंडलियाँ भी मिल जाएं।
(आरती पूरी करके वो अपने पति, शरद चांडक, को आवाज़ देती हैं।)
किरण: शरद जी! आप तैयार हैं ना? अर्जुन आता ही होगा।
शरद चांडक (अखबार पढ़ते हुए): हां हां… बस दस मिनट और। अर्जुन राठी से मिलने में तो समय की पाबंदी रखनी ही चाहिए, बहुत शालीन और संस्कारी लड़का है।
(इतने में विवेक अपने कमरे से निकलता है, ब्लू कुर्ता और व्हाइट पायजामा में एकदम हैंडसम लग रहा है।)
किरण (हंसते हुए): ओहो! कोई जरा इस डॉक्टर साहब की स्मार्टनेस देखे! लग रहा है जैसे खुद के लिए लड़की देखने जा रहा हो!
विवेक (हँसते हुए): मम्मी! वैसे भी आप लोग मुझे लड़की दिखाने ले जा रहे हो… तो कम से कम मैं ठीक लगूं!
शरद: बेटा, लड़की की फैमिली को हमसे ज्यादा तुम देखोगे... बस ध्यान रखना कि ज़्यादा मेडिकल बातें मत करने लग जाना वहाँ।
किरण: और हां, बातों में ज्यादा तेज़ मत बन जाना। सादगी में ही सुंदरता है।
(डोर बेल बजती है – अर्जुन राठी कृष्ण कुंज से अपनी SUV लेकर पहुंच चुका है।)
किरण: लो, अर्जुन भी आ गया!
(सभी बाहर आते हैं। अर्जुन गाड़ी से उतरता है – हल्के क्रीम कुर्ता और नेहरू जैकेट में बिल्कुल रॉयल। शरद चांडक और अर्जुन गर्मजोशी से गले मिलते हैं।)
अर्जुन: नमस्ते अंकल-आंटी! विवेक भाई, तैयारी पूरी?
विवेक: बस आपके साथ का इंतज़ार था भाई।
किरण: बेटा अर्जुन, नाश्ता कर लो फिर निकलो।
अर्जुन: नहीं आंटी, रास्ते में कर लेंगे। इंदौर जल्दी निकलते हैं तो समय पर पहुंच जाएंगे।
गाड़ी में: अर्जुन ड्राइव कर रहा है, पास में विवेक बैठा है। पीछे शरद और किरण।
शरद: अर्जुन बेटा, तुम्हारी राय पर हमें पूरा भरोसा है।
अर्जुन (मुस्कुराकर): अंकल, मैं किसी की बहन, किसी की बेटी से मिलने जा रहा हूं... राय भी उतनी ही संवेदनशील होगी।
विवेक (थोड़ा मज़ाकिया अंदाज़ में): बस ये मत हो कि तू ही दिल दे बैठे!
(सब हँस पड़ते हैं, लेकिन अर्जुन की हल्की सी मुस्कान में एक छुपी भावना झलकती है, जैसे कोई राज़ अंदर पल रहा हो।)
स्थान: इंदौर – आरजू का मामा-मामी का घर। सुबह के 10 बजे।
घर में चहल-पहल है। बैठक की सजावट हो चुकी है। गुलाब के फूलों से मेज़ सजाई गई है। मामी यानी रंजना देवी इधर-उधर घूमकर आख़िरी तैयारियाँ देख रही हैं।
रंजना (मामी):
(श्रावणी को आवाज़ लगाते हुए)
"श्रावणी! ज़रा देख लेना मिठाई में चांदी का वर्क लगा है कि नहीं। और वो टेबल पर जो गिलास रखे थे, उन्हें बदल देना।"
श्रावणी:
"जी मम्मी, सब हो गया है। मैंने फ्रूट्स की प्लेट भी सजा दी है।"
इतने में आरजू रसोई से निकलती है, साधारण सलवार-सूट पहने, बाल पीछे बंधे हुए, हाथ में पानी का गिलास।
आरजू:
"मामी जी, ये पानी दे दूँ मामा जी को?"
रंजना (आरजू की तरफ बिना देखे):
"नहीं... अभी नहीं। और हाँ, अब तुम तैयार हो गई हो तो सुनो ज़रा।"
आरजू (संकोच से):
"जी मामी?"
सुमित्रा:
"देखो, अब सारी तैयारी हो चुकी है। लड़के वाले कभी भी आ सकते हैं। तुम्हारे मामा को दुकान पर जाना था पर अब उन्हें यहाँ रुकना पड़ेगा। तो तुम ऐसा करो कि अभी के अभी दुकान चली जाओ। वहाँ देख लेना सब ठीक है या नहीं।"
आरजू (थोड़ा हैरान होकर):
"मामी जी... अभी दुकान? आज तो..."
रंजना (कड़वाहट छिपाते हुए):
"हाँ, हाँ, मुझे सब पता है। आज लड़के वाले आ रहे हैं। और इसीलिए तो बोल रही हूँ। पिछली बार क्या हुआ था, तुम्हें याद है ना? सबके सामने तुम आ गई थीं और फिर सबने बस तुम्हें ही देखा... ये सब अच्छा नहीं लगता। लोग बात बनाते हैं। आज का दिन श्रावणी के लिए है। तुम समझ रही हो ना?"
आरजू (धीरे से):
"जी मामी।"
सुमित्रा (थोड़ा सख्ती से):
"तो बस, ज़्यादा सवाल मत करो। जा के अपना दुपट्टा ले लो और निकलो। मामा को बोल दो कि दुकान का हिसाब बाद में देख लेंगे। लड़के वाले आएँ उससे पहले घर से निकल जाओ।"
आरजू अंदर जाती है। उसकी आँखों में हल्का-सा दुख दिखता है, पर वह कुछ नहीं बोलती। वह अपनी चप्पल पहनती है, अपने बैग में कुछ कागज़ रखती है और चुपचाप निकल जाती है।
श्रावणी (धीरे से मामी से):
"मम्मी... थोड़ा ज़्यादा नहीं हो गया क्या?"
सुमित्रा:
"तेरे भले के लिए ही तो कर रही हूँ। तू मेरी बेटी है, तेरी शादी में कोई रुकावट ना आए इसलिए सब कर रही हूँ। उस लड़की की वजह से पिछली बार कितना तमाशा हो गया था। अब नहीं चाहिए ऐसा कुछ।" मुझे उससे कोई बाहर नहीं है एक बार तेरी शादी पक्की हो जाए तब जाकर मेरे को चेन है
।
रंजन देवी (श्रावणी की माँ) हर छोटी-बड़ी बात पर नज़र रख रही थीं – पर्दे ठीक हैं या नहीं, चाय की ट्रे तैयार है या नहीं, और सबसे ज़रूरी – आरजू गई कि नहीं लड़की वाले कभी भी आ जाएंगे।
मां चिंता मत करो आपने बोला है तो तुरंत ही निकल गई शोरूम के लिए।
थोड़ी देर बाद
काले रंग की इनोवा पोर्च के सामने रुकी। सबसे पहले उतरे डॉ. अर्जुन राठी, फिर उनके पीछे-पीछे डॉ. विवेक चांडक और उनके माता-पिता – अभिनव और आभा चांडक बाहर निकाल के आते हैं
दरवाज़े पर आकाश कोठारी (श्रावणी के पिता) और हर्ष (बेटा) ने उनका स्वागत किया।
आकाश (हाथ जोड़ते हुए):
"नमस्कार! आइए, बहुत अच्छा लगा आपसे मिलकर।"
आभा
"आपका घर तो बहुत सुंदर है और जो बाकी बगीचा है उसमें इतनी सुंदर-सुंदर खुले हैं उसकी खुशबू बहुत ही अच्छी आ रही है"
हर्ष (मुस्कराकर): हां आरजू को फूल बहुत पसंद है इसलिए बगीचे का काम वही करती है।
आरजू का नाम सुनकर अर्जुन को ऐसा लगा जैसे कि उसकी हार्ट की बीट में सो गई। ( सिर्फ नाम सनकी है हाल है जब अर्जुन आरजू से मिलेगा तब क्या होगा )
सभी को ऊपर के बैठक कक्ष में ले जाया गया जहाँ चाय-नाश्ता पहले से तैयार था। बैठने की औपचारिकता के बाद सबका परिचय हुआ। बातचीत बहुत ही सुसंस्कृत और सौहार्दपूर्ण रही।
आभा जी (विवेक की माँ):
"बिलकुल पारंपरिक घराना लगता है, हमें अच्छा लग रहा है यहां कर बातें तो बहुत होती रहेगी श्रावणी को बुलाए ना।
दूसरे कमरे से श्रावणी आई – हल्के गुलाबी रंग की सिल्क की साड़ी, सिंपल जूड़ा, और चेहरे पर शर्मीली मुस्कान। हाथों में ट्रे थी – चाय की।
उसकी चाल धीमी और संयत थी। आँखें हल्के से झुकी हुईं। कमरे में सन्नाटा छा गया।
विवेक की नज़रें पलभर के लिए ठहर गईं।
आभा (धीरे से):
"बहुत सुंदर है। बिल्कुल सुघड़ और शांत स्वभाव की लग रही है।"
श्रावणी सबको चाय देकर एक ओर बैठ जाती है। थोड़ी बातचीत के बाद:
आभा:
"अगर आप लोग कहें तो हम दोनों बच्चों को थोड़ी देर अकेले बात करने का मौका दे दें?"
रंजन देवी:
"हाँ हाँ, बिल्कुल। राधा, हर्ष – ले जाओ इन्हें ऊपर गेस्ट रूम में।"
💬 श्रावणी और विवेक की बातचीत (ऊपर के कमरे में)
कमरे में सिर्फ दोनों बैठे हैं। पल भर की चुप्पी।
विवेक (मुस्कराकर):
"आपको असहज लग रहा होगा शायद। लेकिन मुझे आपसे बहुत सहजता महसूस हो रही है।"
श्रावणी (धीरे से):
"आपका स्वभाव बहुत शांत है... और सीधा। शायद रिश्ते इन्हीं गुणों पर टिकते हैं।"
विवेक:
"क्या आप इस रिश्ते को आगे बढ़ाना चाहेंगी?"
श्रावणी (थोड़ी झिझक के बाद):
"अगर परिवारों की रज़ामंदी है... और आप जैसा स्वभाव... तो मैं ना नहीं कह सकती।"
थोड़ी देर दोनों और भी बातचीत करते हैं पसंद ना पसंद के बारे में पूछते हैं
मुस्कुराते हुए एक दूसरे को देखते हैं।
नीचे सब खुशी से बातचीत कर रहे थे।
ऊपर से सभी लोग श्रावणी विवेक अर्जुन हर्ष राधा नीचे आ जाते हैं
अर्जुन विवेक आपकी आंखों में अपनी मां को बोलता है कि उसे लड़की पसंद है।
आभा:-
"हमें बेटी बहुत पसंद आई। हम रिश्ता पक्का करना चाहते हैं।"
रंजन देवी:
हमें भी विवेक जी बहुत पसंद आए हम लोग सगाई कर लेते हैं
आकाश :- पंडित जी से बात कर लेते हैं अगर आज कुछ शुभ मुहूर्त हो तो आज ही सगाई कर लेते हैं। आकाश जी पंडित जी को फोन लगा कर बात करता है।
"हमारे पंडितजी ने आज शाम 7 बजे का शुभ मुहूर्त बताया है। अगर आप चाहें तो आज ही सगाई—"
अभिनव चांडक (विवेक के पापा):
"बिलकुल! रिश्तों में विलंब कैसा?" अभी 2:00 हम लोग होटल के लिए निकलते हैं और शाम को 7:00 बजे मिलते हैं सगाई के लिए आप लोग होटल ग्रीन पैराडाइज में आ जाइए वहीं सगाई कर लेंगे अभी हम लोग चलते हैं।
आकाश जी :- नहीं नहीं पहले भोजन कीजिए उसके बाद में ही आप यहां से जाएंगे और अब तो हम रिश्तेदार भी हो गए हैं तो भोजन के बिना तो हम आपको जाने नहीं देंगे।
आभा जी:- भाई साहब आपकी बात सही है पर आप लोगों ने नाश्ता ही इतना कर दिया कि अब भोजन की बिल्कुल भी जगह नहीं है।
हम लोग निकालते हैं आप लोग सापरिवार 7:00 बजे होटल पहुंची है।
सभी लोग होटल के लिए निकल जाते हैं और आभा थोड़ी सी चिंतित दिखती है तो अर्जुन से पूछता है आंटी क्या हुआ आप थोड़ी परेशान दिख रहीलिए
क्या है आभा जी की परेशानी की वजह मिलते हैं नेक्स्ट चैप्टर में
इंदौर – होटल ग्रीन पैराडाइज के बाहर, दोपहर 2:30 बजे
आभा जी, अर्जुन, विवेक और अभिनव जी होटल की लॉबी से बाहर निकलते हैं। बाहर हल्की धूप है, लेकिन हवा में इंदौर की खास ठंडक है। सभी के चेहरे पर खुशी है, पर आभा जी का चेहरा थोड़ा सोच में डूबा हुआ।
अर्जुन (गाड़ी की तरफ बढ़ते हुए, हल्के मुस्कान के साथ):
"आवा आंटी, आप थोड़ी परेशान लग रही हैं… सब ठीक तो है?"
आभा (हिचकिचाकर):
"हाँ बेटा, सब ठीक है… बस एक छोटी सी टेंशन है।"
विवेक:
"क्या बात है मम्मी? अब तो रिश्ता भी पक्का हो गया, शाम को सगाई भी है, फिर?" क्या आपको लड़की पसंद नहीं आई है लड़की में कोई कमी है।
आभा (गहरी सांस लेकर): कैसी बात कर रहे हो फिर तुम लड़की मुझे बहुत पसंद आई है पर तुम जानते हो
"हम लोग जल्दी-जल्दी में आए और सगाई की अंगूठी तो ले आए, लेकिन बहू के लिए साड़ी और सूट लाना रह ही गया। शादी-ब्याह में ये चीज़ें तो पहली ही दी जाती हैं।"
अभिनव जी (हंसते हुए): क्या श्रीमती जी आपने तो डरा ही दिया था।
"अरे, ये कोई बड़ी बात है? अभी ले आते हैं।"
आभा (थोड़ा गंभीर होकर):
"हाँ, लेकिन मुझे कोई अच्छी, बढ़िया और पारंपरिक साड़ी चाहिए। और मैं चाहती हूँ कि विवेक और अर्जुन, तुम दोनों जाओ और खुद पसंद करके लाओ।"
अर्जुन (मुस्कुराते हुए):
"ठीक है, आंटी। तो चलिए, मिशन ‘साड़ी शॉपिंग’ शुरू करते है।
गाड़ी में अर्जुन ड्राइव कर रहा है, बगल में विवेक बैठे हैं। पीछे की सीट पर आभा और अभिनव।
विवेक (मुस्कुराकर):
"तो अर्जुन, लड़की कैसी लगी?"
अर्जुन (थोड़ा मजाकिया अंदाज में):
"मुझसे क्यों पूछ रहे हो? मुझे थोड़ी ना शादी करनी है। तुम्हें पसंद आनी चाहिए… वैसे, तुम्हारी आंखों में तो जवाब साफ दिख रहा था।"
विवेक (हंसते हुए):
"हाँ, श्रावणी सच में बहुत अच्छी लगी। सादा-सा स्वभाव, और आंखों में सच्चाई… लगता है अच्छा जीवनसाथी बनेगी।"
आभा (प्यार से):
"बस, यही चाहिए मुझे।"
अर्जुन (हल्के मजाक में):
"तो अब हमें सिर्फ साड़ी ढूंढनी है, लेकिन आंटी, अगर मैंने चुनी तो गारंटी है कि वो लड़की को बहुत पसंद आएगी।"
आभा (हंसते हुए):
"अच्छा, देखेंगे।"
कोठारी सिल्क हाउस
गाड़ी एक भव्य, पुराने अंदाज के शोरूम के बाहर रुकती है। ऊपर बड़े-बड़े सुनहरे अक्षरों में लिखा है – "कोठारी सिल्क हाउस"। कांच के दरवाजों के पार अंदर की रोशनी और रंगीन साड़ियों की चमक दिख रही है।
अंदर कदम रखते ही, हल्की चंदन और इत्र की खुशबू महसूस होती है। दीवारों पर लकड़ी के फ्रेम, जिनमें पुराने जमाने की शादियों की तस्वीरें टंगी हैं। कहां पर एक कृष्ण भगवान की बहुत सुंदर बड़ी भाव फ्रेम रखी हुई है।काउंटर के पीछे खड़ी है – आरजू।
आज उसने हल्के नीले रंग का कॉटन सूट पहना है, बाल ढीले बंधे हुए, कानों में छोटे मोती के झुमके, और आंखों में एक साधारण-सी, लेकिन गहरी चमक। मेकअप के नाम पर उसने सिर्फ आंखों में काजल डाला हुआ था एकदम सादा सिंपल कोई मेकअप नहीं कोई आर्टिफिशियल चीज नहीं बालों को तरीके से गुटके एक छोटी बनाई हुई थी और आजू-बाजू से दो लड़के निकली हुई थी जिनको वह बार-बार पीछे करते हुए वह कस्टमर के बिल बना रही है, पर जैसे ही दरवाजे की घंटी बजती है, वह नज़र उठाकर देखती है।
अर्जुन और आरजू की नज़रें पहली बार मिलती हैं।
उस एक पल में –
अर्जुन के दिल की धड़कन जैसे एक सेकंड के लिए रुक जाती है, फिर तेज़ हो जाती है।
आरजू को भी अजीब-सा एहसास होता है, जैसे किसी अनजान चेहरे में एक अजीब-सी अपनापन की छाया दिखी हो।
लेकिन दोनों तुरंत ही नज़रें हटा लेते हैं।
आरजू (प्रोफेशनल अंदाज़ में, मुस्कुराकर):
" जय श्री कृष्णा , स्वागत है। क्या देखना चाहेंगे?"
आभा जी:
"बेटी, हमें बहू के लिए सगाई की साड़ी और सूट देखने हैं। अच्छी, बढ़िया क्वालिटी के।"
आरजू:
"ज़रूर, आप बैठिए… मैं साड़ियां निकालती हूँ।"
सब लोग आरजू के पीछे-पीछे चले गए वह एक काउंटर पर जाकर रुकी और वहां से बोली श्याम भैया जरा अच्छी और सुंदर साड़ियां निकाल कर दिखाइए।
श्याम अलग-अलग शेल्फ से साड़ियां निकालकर मेज़ पर रखता है आरजू एक-एक साड़ियों के बारे में बता रही थी – बनारसी, कांजीवरम, जॉर्जेट, सिल्क… हर रंग, हर डिज़।
अर्जुन (एक पीच रंग की साड़ी उठाकर):
"ये वाली कैसी है, आंटी?"
आभा:
"अच्छी है, लेकिन थोड़ी भारी चाहिए।"
विवेक (हंसते हुए):
"तुम तो ऐसे चुन रहे हो जैसे तुम्हारी शादी हो रही है।" मेरी सगाई है तो साड़ी भी मैं ही चुगा उन के लिए साड़ी में चलूंगा।
अर्जुन (मुस्कुराकर):
"अरे, सगाई भले तुम्हारी हो, लेकिन पसंद तो टॉप क्लास की होनी चाहिए।"
आरजू हल्के से मुस्कुराती है। उसकी नज़र अर्जुन पर जाती है, जो साड़ी का पल्लू हाथ में लेकर ध्यान से कपड़े का टेक्सचर महसूस कर रहा है। दो पल के लिए आरजू अर्जुन में ही खो जाती है।
श्याम उसका वाले कहता है आरजू दीदी कुछ और दिखाएं क्या
आरजू का नाम सुनके वह बस उसे नाम में ही खो गया और उसके कानों में आरजू नाम ही सुनाई दे रहा था
विवेक :- उसको जोर से धक्का मारा और बोला बार-बार कहां खो जाता है।
अर्जुन हां हां बोल क्या हुआ
विवेक:- ये वाल साड़ी बहुत सुंदर लग रही है
अर्जुन को मन में बोलता है कंट्रोल अर्जुन क्या कर रहा है आज तक कभी तूने किसी लड़की को ऐसे देखा है तो फिर क्यों तू बार-बार आरजू के एहसास में होते जा रहा है। जस्ट रिलैक्स अर्जुन एक गहरी सांस लेता है।
अर्जुन हां अच्छी लग रही है आंटी से पूछ लेते हैं आंटी कैसी लग रही है साड़ी
आभा जी :- हां यह साड़ी तो सुंदर है कुछ लाल कलर में हो तो बताओ
आरजू:
"अगर आपको भारी डिज़ाइन चाहिए तो ये देखिए – लाल और सुनहरे ज़री का काम, शुद्ध सिल्क में।"
अर्जुन (साड़ी फैलाकर देखते हुए, धीमे स्वर में):
"वाह… ये तो सच में खूबसूरत है।"
आरजू:
"ये शादी और सगाई दोनों में पहनी जा सकती है। और इसके साथ मैचिंग ब्लाउज़ और दुपट्टा भी मिलेगा।"
आभा:
"ये मुझे बहुत पसंद आई। इसे पैक कर दीजिए, और साथ में एक सूट भी दिखा दीजिये।
आरजू सूट का कलेक्शन निकालती है। अर्जुन एक हल्के हरे रंग का सूट उठाता है।
अर्जुन:
"ये कैसा रहेगा?"
आरजू (थोड़ा मुस्कुराकर):
"ये अच्छा है, लेकिन शायद पेस्टल शेड में ज्यादा एलिगेंट लगेगा।"
अर्जुन:
"तो आप बताइए, कौन सा सबसे अच्छा रहेगा?" आपको अच्छे से पता होगा आज के जमाने में लड़कियों को कैसे कलर पसंद है एक अच्छा सा सूट दिखाइए जो मेरे होने वाली भाभी को पसंद आए।
आरजू (हल्के से इशारा करते हुए):
"वो – मिंट ग्रीन वाला, जिसमें हल्का सिल्वर वर्क है।"
अर्जुन (सूट उठाकर):
"हां… ये सच में अच्छा है।"
विवेक (चुटकी लेते हुए):
"लगता है, अर्जुन भाई को दुकानदार की पसंद ज्यादा पसंद आ रही है।"
अर्जुन (थोड़ा झेंपते हुए, पर मुस्कुराकर):
"अच्छी चीज़ अच्छी ही लगती है, चाहे जो भी पसंद करे।"
आरजू हल्की-सी नज़रें झुकाती है, लेकिन होंठों पर मुस्कान आ ही जाती है। जिसे बहुत जल्दी छुपा भी लेती है
साड़ी और सूट पैक हो चुके हैं। आरजू बिल बनाती है, और अर्जुन कार्ड देता है।
विवेक:- को से रोक देता है कि नहीं मैं दूंगा पेमेंट मैं करूंगा।
अर्जुन अपना कार्ड वापस रख लेता है।
आरजू (रसीद देते हुए):
"धन्यवाद… और सगाई के लिए बधाई।"
अर्जुन एक पल रुककर उसकी आंखों में देखता है।
विवेक:-
"धन्यवाद…
अर्जुन :- आपकी दुकान का कलेक्शन बहुत सुंदर है। पता नहीं है जिंदगी क्यों बोला था बस वह कुछ पल और आरजू को देखना चाहता था इसलिए बेख्याली में उसके मुंह से निकल गया
आरजू हल्की सी ‘थैंक यू’ कहकर नज़रें झुका लेती है।
सब लोग सामान लेकर बाहर निकल जाते हैं अर्जुन एक बार पलट के आरजू को दिखता है और आरजू भी उसके और दिखती है एक सेकंड के लिए दोनों की आंखें मिलती है और फिर जितनी है कि नीचे कर लेती है और अर्जुन अपना चेहरा दुकान से बाहर चले जाता है।
गाड़ी में लौटते वक्त अर्जुन खिड़की से बाहर देख रहा है, पर मन में वही नीली सूट वाली लड़की घूम रही है।
विवेक (छेड़ते हुए):
"कहां खो गए, अर्जुन?"
अर्जुन (थोड़ा मुस्कुराकर):
"कुछ नहीं… बस, दुकान सच में अच्छी थी।"
आभा जी (मुस्कुराते हुए, जैसे सब समझ गई हों):
"हाँ, दुकान भी… और शायद दुकानदार भी?"
अर्जुन कुछ नहीं बोलता, बस हल्के से मुस्कुरा देता है।
अब देखते हैं सगाई में क्या होता है धमाल
शाम के सात बजने वाले थे।
राजवाड़ा मार्केट का शोर अब धीरे-धीरे थमने लगा था, दुकानों के शटर आधे गिरे हुए और लाइटें जल चुकी थीं। आरजू कोठारी दुकान का काउंटर बंद कर रही थी। दुकान के पुराने लकड़ी के दरवाज़े पर ताला डालते हुए उसने गहरी सांस ली — दिनभर की थकान चेहरे पर साफ झलक रही थी।
घर पहुँचते ही, लिविंग रूम में हलचल देखी।
मामी और नाना किसी बात पर बहस कर रहे थे।
मम्मी की आवाज़ में नाराज़गी थी —
मामी: "मैंने कहा न, आरजू सगाई में नहीं जाएगी। दुकान का काम संभाल कर आया थक गई होगी और उसकी जरूरत नहीं है"
नानाजी :- बहू की तुम गलत कर रही हो सब परिवार सगाई में जाएंगे तो आरजू भी जाएंगे अगर आरजू नहीं जाएंगे तो मैं भी नहीं जाऊंगा
आरजू: नानाजी में रुक जाती "
बात पूरी होने से पहले नाना ने टोक दिया —
नाना: " आरजू बीच में नहीं बोलते जब सगाई में सारा परिवार जा रहा है तो आज भी जाएंगे तेरे बिना हमारा परिवार अधूरा है ।"
मामी ने आँखें तरेरीं, उनके मन में अभी भी डर था कि कहीं लड़का आरजू को देखकर सगाई कैंसिल ना करते लेकिन नानाजी और मामाजी दोनों ने ज़िद पकड़ ली।
आख़िरकार, मामी जी को मनाना ही पड़ा आधे अधूरे मन से
राधा:- आरजू को बोला ज्यादा आरजू जीजी फटाफट तैयार हो जाओ चलो मैं आपकी मदद कर देता हूं फिर हम सब लोग निकालते हैं
कमरे में आई तो अलमारी से एक पिंक कलर का ड्रेस निकाला — हल्की-सी कढ़ाई, न ज्यादा भारी, न बहुत सिंपल।
बाल खुले छोड़ दिए, बस कंधों तक आते लहराते बालों में हल्की-सी चमक।
आँखों में काजल, माथे पर छोटी-सी गोल बिंदी, हाथों में चूड़ियाँ, पैरों में पायल की हल्की झंकार।
चेहरे पर कोई मेकअप नहीं, बस अपनी सादगी और आत्मविश्वास। आज की भाभी राधा ने आज की नजर निकल बहुत सुंदर लग रही है।
गाड़ी में सगाई का सामान
हर्ष और मामा जी ने गाड़ी में मिठाई के डब्बे, फूलों के गजरे, नारियल, और बाकी पूजा का सामान रखा।
गाड़ी स्टार्ट हुई और चार लोग — नानाजी नानी जी दोनों मामा मामी हर्ष राधा सब परिवार और आरजू — होटल की तरफ निकल पड़े।
इंदौर की शाम रंगीन हो चुकी थी। सड़कों पर पीली स्ट्रीट लाइट्स, दुकानों के बोर्ड, और कभी-कभी गाड़ियों की हॉर्न।
आरजू खिड़की से बाहर देख रही थी, लेकिन मन कहीं और था — वो नहीं जानती थी कि आज रात उसकी ज़िंदगी में क्या होने वाला है। उसके मन थोड़ा दुखी था कि मामी उसे इतना क्यों नाराज है पर वह अपनी बहन के लिए खुशी थी।
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दूसरी तरफ, ग्रैंड पर्ल होटल के अंदर हलचल चरम पर थी।
जो हॉल बुक किया था सगाई के लिए वहां के
लॉबी से हॉल तक फूलों की झालरें लटक रही थीं, हर कोने में गुलाब और गेंदा की खुशबू।
साउंड सिस्टम से हल्की शहनाई और तबले की धुन बज रही थी।
हॉल के बीच एक छोटा-सा स्टेज बना था — सुनहरी कपड़े से ढका, पीछे लाल और सफेद फूलों की आर्च।
स्टेज के सामने कुर्सियों की पंक्तियां लगीं थीं, बीच में कार्पेट बिछा था।
विवेक ने नेवी ब्लू जैकेट और वाइट कुर्ता पहना था, उसकी आंखों में चमक थी।
श्रावणी ने ब्लू कलर का घाघरा, साथ में सिल्वर ज़री का दुपट्टा ओढ़ा था। वह पार्लर से तैयार होकर आई थी थोड़ा सा लाइट मेकअप किया था। और भी बहुत सुंदर भी लग रही थी।
अर्जुन पिंक शेड का कुर्ता पहने हुए था, जिस पर हल्की गोल्डन कढ़ाई थी — बिल्कुल उस रंग से मैच करता, जो बाद में आरजू के कपड़ों से मेल खाने वाला था।
अर्जुन का मन हल्का-सा बेचैन था, लेकिन वजह खुद उसे भी नहीं पता थी।
हॉल में हल्की-सी बातचीत, हंसी-ठिठोली चल रही थी — कोई मिठाई टेस्ट कर रहा था, कोई फोटो क्लिक करवा रहा था।
बाहर होटल के गेट से लड़की वालों की गाड़ी आई।
श्रावणी के मामा, मम्मी, पापा, चाचा, चाची, भाई भाभीदादी — पूरा परिवार मुस्कुराते हुए, थोड़ा-थोड़ा झेंपते हुए अंदर आया।
हॉल में घुसने ही वाली थी कि एकदम से बड़ी मामी जी को याद आया कि वह सगाई की अंगूठी वाला पर्स गाड़ी में ही छोड़ कर।
मामी जी ने तुरंत आरजू को आवाज़ लगाई और बोला की गाड़ी में सजा के सगाई की अंगूठी वाला पर्स लेकर आओ
हर्ष :- बोल मम्मी मैं चल जाता हूं।
रंजना मामी जी:- नहीं हर्ष तुम हमारे साथ अंदर चलो अच्छा नहीं लगेगा आरजू है ना आरजू चल जाएगी
चल जाएगी ना आरजू आरजू की तरफ देखकर बोलती है
आरजू :- हां मामी जी आप लोग अंदर चलिए मैं अभी लेकर आता हूं।
आरजू अपना दुपट्टा संभाल के लिए वापस गया होटल के एड्रेस की तरफ बढ़ गई और बाकी सब लोग हाल के अंदर चले गए
फूलों के हार और हल्की संगीत के बीच लड़के वालों ने गर्मजोशी से स्वागत किया।
"कैसे हैं आप?" "सब तैयारी हो गई?" — हल्की-फुल्की बातचीत के बीच माहौल में मिठास घुल रही थी।
सब लोग आपस में बातचीत कर रहे थे और विवेक और श्रावणी एक दूसरे को चुपके-चुपके देख रहे थे सामने थोड़ी सी शर्म आते हुए अपनी पलके झुका हुई खड़ी थी। विवेक लगातार श्रावणी को ताड़ रहा था वह लगी इतनी सुंदर रही थी कि अर्जुन ने उसको धक्का दिया
विवेक :- झुंझलाते हुए क्यों क्या हुआ
अर्जुन :- सब लोग तुझे ही देख रहे हैं थोड़ा तो सब्र रखती रही होने वाली है कुछ पल का इंतजार
थोड़ी देर में पंडित जी आया सभी ने पंडित जी को प्रणाम किया और फिर पंडित जी ने
घड़ी देखते हुए कहा —
"मुहूर्त हो गया है, लड़का-लड़की को स्टेज पर बुलाइए।"
विवेक ने मुस्कुराकर श्रावणी का हाथ पकड़ा और स्टेज पर ले आया।
दोनों ने हल्के से एक-दूसरे को देखा, नज़रें झुका लीं, और स्टेज पर बैठ गए।
वही हर्ष की नजर दरवाजे पर ही थी आरजू अभी तक नहीं आई थी और किसी और की भी नजर दरवाजे की ओर थी उसके दिल की धड़कनें जैसे शोर मचा रही थी कि कोई दरवाजे से आने वाला है जो उसके दिल की धड़कनों को शांत कर देना। अर्जुन नहीं जानता था
उधर आराजू पार्किंग मैं पहुंची और उसने गाड़ी खुल के सगाई की अंगूठी वाला पर्स निकाला और हाल के लिए निकल गई
थोड़ी ही देर में
हॉल के दरवाज़े के पास हल्की-सी पायल की आवाज़ सुनाई दी।
अर्जुन, जो विवेक की बहन को वीडियो कॉल लगाते हुए पीछे था उससे बात कर रहा था की सगाई की रस में बस चालू ही हो रही है अचानक उसके दिल धड़कनों ने उसे इशारा किया और उसने अचानक पीछे मुड़ा।
जैसे ही अर्जुन ने उसे देखा, दिल की धड़कन तेज़ हो गई।
उसने एक पल के लिए सोचा — "ये यहां कैसे?"
वो खड़ा हो गया, बिना सोचे-समझे। बस आरजू को ही देखा जा रहा था और उसके हाथ से फोन नीचे गिर गया।
आरजू की आंखें भी अर्जुन से टकराईं।
दोनों की नज़रें मिलीं — और दोनों एक दूसरे को देखने वालों की एकदम से अर्जुन के गिरे हुए फोन में से आवाज आई भैया मुझे कुछ दिख नहीं रहा है सगाई का पूरा काला काला दिख रहा है आप फोन अच्छे से पकड़ो और इसी के साथ में उन दोनों का ध्यान एक दूसरे से हटा
इतने में शौर्य दौड़ते हुए आरजू के पास आया और बोला कितना टाइम लगा दिया चल जल्दी चाल सब वहां पर इंतजार कर रहे हैं
आरजू को शौर्य के साथ के अर्जुन को पता नहीं क्यों एक अजीब सी कैफियत हो चली थी अचानक उसका मन भारी होने लगा था।
खुद को संभाला और अपना फोन उठाया और वापस से सामने सगाई जान चल रही थी वहां पर उसका कैमरा कर दिया ताकि वह विक्की बहन को सगाई दिखा सके ( विवेक बहन सगाई में नहीं आई थी क्योंकि उसका एग्जाम चल रहे थे)
आरजू ने धीमे से मुस्कुराकर हां चलो और अंगूठी वाला पोस्ट जाकर श्रावणी की मम्मी को थमाया, लेकिन उसकी मन अर्जुन पर टिकी रहीं।
अर्जुन के चेहरे पर भी हल्की-सी मुस्कान थी, मानो कह रहा हो — "तो हम फिर मिल ही गए।" पर मन में अजीब सी हलचल चालू थी।
पीछे शहनाई की धुन कुछ और मधुर हो गई थी।
फूलों की खुशबू, पायल की झंकार, और स्टेज पर चल रही पूजा — इस सब के बीच एक नई कहानी की शुरुआत हो चुकी थी। या कुछ गलतफहमियों की वजह से यहीं खत्म हो जाएगी यह पता चलेगा अगले चैप्टर में तो मिलते हैं दो लाइक कमेंट और शेयर............
सभी लोग इस देश के नजदीक चेयर पर आकर बैठ गए थे
अर्जुन की निगाहें बार बार के आरजू पर जा रही थी और आरजू भी चुपके से एक दो बार अर्जुन की ओर देख रही थी।
स्टेज पर पंडित जी ने मंत्र पढ़ते हुए कहा,
अंगूठियां ले आए।
अर्जुन ने एक प्लेट में कुछ गुलाब की पंखुड़ियां डाली और उसमें दो अंगूठियां लेकर स्टेज की ओर जाने लगी कि तभी आरजू की मामी रंजन जी ने उस हाथ पकड़ लिया।
बड़ी मामी :- आज तुम कहां जा रही हो?
आरजू :- बड़ी मम्मी जी की अंगूठी की थालियां पंडित जी को स्टेज पर देने के लिए पंडित जी अंगूठियां बुला रहे हैं।
बड़ी मामी :- तुम यहीं बैठो तुम्हें जाने की जरूरत नहीं है और राधा की ओर देख कर कहती है राधा तुम लेकर जाओ इन अंगूठियां को
राधा:- मां मुझे लगता है आरजू को जाना चाहिए।
बड़ी मामी :- आपको थोड़ा धूर के देखी है और फिर बोलती हूं तुम्हें पता है मैं तुम्हारी सास हूं तुम मुझे ज्यादा पता होगा।
राधा :-अंगूठियां की प्लेट स्टेज पर चले जाती है।
आरजू आंखों में हल्की सी नमी लिए हुए गर्दन नीचे करके बैठी जाती है।
पंडित जी :-
“अब लड़का लड़की एक-दूसरे को अंगूठी पहनाएँ।”
विवेक और श्रावणी ने मुस्कुराते हुए एक-दूसरे को अंगूठी पहनाई।
कैमरों की फ्लैश चमक उठीं। मेहमानों ने तालियाँ बजाईं।
पंडित जी कहते हैं कि अब सगाई संपन्न हुई आप जाकर सभी बड़ों से आशीर्वाद ले लीजिए
सबसे पहले विवेक-श्रावणी ने विवेक के मम्मी-पापा के पैर छुए।
विवेक के पापा बोले अभिनव जी :- ,
“हमेशा एक-दूसरे का साथ निभाना… सुख-दुख में।”
विवेक की मम्मी आभा जी :- दोनों साथ में बहुत सुंदर लग रहे हो जल्दी से मेरे घर आ जाओ सदा खुश रहो।
बाबाजी कहती श्रावणी के मम्मी पापा से भी आशीर्वाद ले लो और उसके बाद में अपनी बहन नमामि से बात कर लेना उसके बहुत बार कॉल आ रहे हैं वीडियो कॉल पर उसकी भाभी तो उसकी बात कर देना।
विवेक : - अपना सर हिला लाकर बोलता है ठीक है मां
फिर श्रावणी की फैमिली
दादा-दादी, मम्मी-पापा, चाचा-चाची… सबने आशीर्वाद दिया।
अंत में हर्ष (भाई) ने जीजा को गले लगाया,
“अब तो आप हमारी बहन को लेकर ही जाएंगे, जीजाजी।”
राधा भाभी ने हँसते हुए मिठाई खिलाई,
“और हमारी बहन का ख्याल अच्छे से रखना।”
उसके बाद सामने उसे आरजू के पास ले जाती है और आरजू से मिलती है यह आरजू मेरे बुआ की बेटी
आरजू:- जय श्री कृष्ण जी जीजाजी
अर्जुन विवेक को आज के पास देखकर उसके पास चला आता है।
विवेक :- जय श्री कृष्णा तो हमने साड़ी अपनी दुकान से ली है क्या तो हमें डिस्काउंट भी ज्यादा मिल जाएगा और हंसने लगता है।
आराजू :* आप तो हमारे घर की बेटी ही लेकर जा रहे हैं तो दुकान भी आप की ही हुई।
विवेक:- सो तो है।
विवेक अर्जुन की तरफ देखकर श्रावणी से अर्जुन का इंट्रोडक्शन करता है श्रावणी यह है मेरा बेस्ट फ्रेंड अर्जुन डॉक्टर अर्जुन राठी।
श्रावणी अर्जुन से जय श्री कृष्णा
अर्जुन :- जय श्री कृष्णा भाभी
के बाद विवेक अर्जुन से बोलता है
“भाई, ये आरजू है — मेरी श्रावणी की की बेटी। और मेरी एक साली ”
अर्जुन ने हाथ जोड़कर कहा,( अर्जुन ने जैसे ही सुना की आरजू बीवी के साली है मतलब हर्ष उसका भाई है और उसके दिल में हलचल हो गई )
“जय श्री कृष्णा ”
आराजू :- मुस्कुरा जय श्री कृष्णा
विक्की माँ भी उन लोगों के पास आ जाती है विवेक से मुस्कुराते हुए याद दिलाया,
“अरे! ये वही लड़की नहीं है, जिस दुकान से हमने साड़ी ली थी?”
विवेक हँसते हुए बोला,
माँ ये श्रावणी की बुआ की बेटी
आरजू :- जय श्री कृष्णा आंटी
“ आप तो हमारे दुकान की सबसे सुंदर साड़ी और हमारे शहर की सबसे सुंदर लड़की — दोनों ही ले गए।”
विवेक का चेहरा लाल पड़ गया।
“अब हमारी पसंद अच्छी है तो इसमें मैं क्या कर सकती हूँ?”
विवेक ने मजाक में कहा,
“मेरी पसंद हमेशा से ही बेस्ट रही है।” आभा जी बोलिए
इतने में श्रावणी के दादाजी बोले,
“चलिए, अब सब लोग भोजन के लिए चलें।”
सामने बैठे लड़के वालों को उन्होंने इशारे से बुलाया और कहा,
“पहले आप सब बैठ जाइए।”
अभिनव जी, उनकी वाइफ, विवेक और अर्जुन को अलग टेबल पर बिठाया गया।
खातेदारी का सिलसिला शुरू हुआ —
शविवेक के पापा अभिनव मुस्कुराकर बोले, यह क्या बात हुई अब हम तो घर वाले हो गए हैं तो पहले
हम सब पूरी जेनरेशन बैठकर खाएँगे, उसके बाद अगली जेनरेशन। जब तक हम खाते हैं, आप सब हमारी खातेदारी करते रहिए।”
रामप्रसाद जी :- नहीं नहीं यह क्या बात कर रहे हैं आप आप लड़के वाले हैं आप बैठिए हम लोग आपकी खातेदारी करते हैं।
अर्जुन :- आज के जमाने में भी क्या लड़की वाले और क्या लड़के वाले नाना जी आप बैठिए हम सब लोग आपको परस्ते फिर हम लोग लेते हैं भोजन करेंगे।
अर्जुन की बात सुनकर आरजू को मन ही मन बहुत खुशी होती है
सब अर्जुन की बात मान कर भोजन के लिए बैठ जाते हैं
यह सुनते ही अर्जुन और विवेक ने मजाक में हाथ जोड़ दिए,
“ये तो बड़ा टफ टास्क है।”
अर्जुन, विवेक, आरजू, हर्ष और राधा — सब मिलकर बड़ों की प्लेट में मिठाई और पकवान भर रहे थे।
हर्ष ने विवेक से कहा,
“जीजाजी, यह लड्डू तो आपको ही खिलाना पड़ेगा।”
विवेक हँसते हुए बोले,
“भाई साहब, यह तो मिठाई से रिश्ता पक्का हो रहा है।”
अभिनव जी (विवेक के पापा) ने अर्जुन से मजाक किया,
“अरे डॉक्टर साहब, हमें मिठाई खिला रहे हो? कभी-कभी मरीज को इतना मीठा ठीक रहता है क्या?”
अर्जुन मुस्कुराकर बोले,
“कभी-कभी मीठा दवा से भी ज़्यादा असर करता है।”
सब हँस पड़े।
बड़ों के खाने के बाद अगली टेबल पर अर्जुन, विवेक, श्रावणी, आरजू, हर्ष और राधा बैठे।
हल्की-फुल्की बातें, मिठाई की प्लेटें, और चुपके से चल रही निगाहों की अदला-बदली…
विवेक ने धीरे से श्रावणी का हाथ पकड़ लिया और कान में फुसफुसाया,
“कल सुबह हम निकल रहे हैं… आप मिलने आएँगी ना?”
श्रावणी ने चौंककर उसकी ओर देखा,
“कितने बजे?”
“सुबह सात बजे।”
“मैं पूछकर बताती हूँ।”
उसकी आँखों में हल्की शरम और मुस्कान थी।
दूसरी तरफ अर्जुन और आरजू भी बिना बोले इशारों में बातें कर रहे थे — नज़रें मिलना, फिर झट से नीचे करना, और हल्की मुस्कान।
खाना खत्म होने के बाद सब फिर से बैठे।
पंडित जी को बुलाया गया और शादी का मुहूर्त निकाला गया।
पंडित जी ने पन्ने पलटकर कहा,
“दिवाली के बाद का समय उत्तम रहेगा।”
सारे बुजुर्ग खुश हो गए।
अभिनव जी ने कहा,
“तो तय रहा, अब मुलाकात होगी शादी में। बाकी की तैयारी फोन पर कर लेंगे।”
आभा जी :- रात भी बहुत हो गई है आप लोगों को भी प्रस्थान करना चाहिए हम सुबह हम लोग भी सुबह 7:00 उदयपुर के लिए निकल जाएंगे
रंजन बड़ी मम्मी जी :- आप लोग सुबह का नाश्ता कर हमारे घर से करके निकालिए।
अभिनव जी :- नहीं नहीं हम लोग सुबह जल्दी निकल जाएंगे और अब तो आना जाना और मिलना जुलना लगा ही रहेगा तो फिर कभी।
जहां रंजन जी की बात सुन के सब बच्चे खुश हो रहे थे तो आप अभिनव जी की बात सुनकर उनकी खुशी धूमल पड़ गई
श्रावणी :-की फैमिली ने एक-एक से मिलकर विदा ली और गाड़ी में बैठ गई।
लड़के वाले होटल के अपने कमरों में लौट गए, थकान के साथ लेकिन चेहरे पर संतोष भरी मुस्कान लिए।
मिलते हैं नेक्स्ट चैप्टर में
रात गहराने लगी थी। आँगन में रखे झालरों की रोशनी हल्की-हल्की झिलमिला रही थी। सभी मेहमान लौट चुके थे। घर के बड़े-बुज़ुर्ग धीरे-धीरे अपने-अपने कमरों की ओर जा रहे थे।
श्रावणी के दादा रामप्रसाद जी और दादी अपने कमरे में आ बैठे। कमरे की दीवारों पर पुरानी पारिवारिक तस्वीरें टंगी थीं — पोते-पोतियों के बचपन की झलक, बेटे-बेटियों की शादी के दृश्य।
रामप्रसाद जी ने गहरी साँस ली और बेड पर बैठते हुए बोले:
रामप्रसाद जी: "अरे भागवान, आज का दिन भी बहुत अच्छा बीता। सब काम भगवान की कृपा से बड़े अच्छे ढंग से हो गए।"
दादी: (मुस्कुराते हुए) "हाँ जी, मुझे तो शुरू से ही विवेक और उसके परिवार पर भरोसा था। बड़े अच्छे लोग निकले। आभा बहू ने जैसे ही कहा कि ' श्रावनी तो हमारी भी बेटी है’, मेरा दिल भर आया।"
रामप्रसाद जी: "बिलकुल सही कहा तुमने। देखो, यही तो असली रिश्तेदारी है… जहां लड़की-लड़के में भेद न हो। मुझे तो अर्जुन भी बड़ा भला लड़का लगा। सबको बराबर मान-सम्मान दिया।"
दादी: "हाँ, और सबसे बड़ी बात ये कि किसी में घमंड नहीं दिखा। वरना आजकल के लोग कहाँ इतना अपनापन दिखाते हैं।"
दोनों थोड़ी देर चुप हो गए। बाहर आँगन से हँसी-मज़ाक की आवाज़ें आ रही थीं — शायद बच्चे अभी भी बातें कर रहे थे।
रामप्रसाद जी: "भगवान से यही दुआ है कि श्रावणी और विवेक का जीवन सुखी रहे। हमारी पोती ने हमेशा सबकी इज़्ज़त की है, अब ससुराल में भी उसे वैसा ही आदर मिले।"
दादी: (धीरे से) "हाँ जी, और आरजू का भी ध्यान रखना होगा। बच्ची है… दिल से थोड़ी अकेली भी।"
रामप्रसाद जी ने सिर हिलाया और बोले,
"हाँ, मैं जानता हूँ। उसका भी भविष्य उज्ज्वल हो, यही प्रार्थना करता हूँ।"
बाहर से किसी के खिलखिलाने की आवाज़ आई तो दोनों मुस्कुराए और धीरे-धीरे बिस्तर पर लेट गए।
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बड़ी मामी (रंजन जी) और मामा (आकाश जी) का कमरा
दूसरे कमरे में माहौल थोड़ा अलग था। बड़ी मामी रंजन जी तकिये पर टेक लगाकर बैठी थीं और उनके पति आकाश जी पंखा घुमा रहे थे।
रंजन जी: (थोड़ा खीझकर) "देखा आपने? फिर से आरजू स्टेज तक पहुँच गई थी। अगर मैं उसका हाथ पकड़कर रोकती नहीं, तो सबके सामने चली जाती।"
आकाश जी: (थोड़ा शांत स्वर में) "अरे भाग्यवान, इतना भी क्या सोचती हो। बच्ची थी, बस मदद कर रही थी।"
रंजन जी: "आप हमेशा उसका पक्ष लेते हो। पर मुझे डर है कहीं कल को फिर कोई… सब गड़बड़ न हो जाए। याद है पिछली बार भी लड़के वाले उसे देखकर…?"
आकाश जी: (बीच में रोकते हुए) "बस-बस, पुरानी बातें मत दोहराओ। इस बार तो सब अच्छा से हो गया। विवेक-श्रावणी की सगाई हो गई, अब शादी की तैयारी करनी है।"
रंजन जी: (धीरे स्वर में) "हाँ, पर मैं चाहती हूँ कि आरजू ज़्यादा सामने न आए। सबकी नज़र जल्दी पड़ जाती है उस पर।"
आकाश जी: (हँसकर) "अरे भागवान, लड़की परदे में नहीं रहती, तो क्या उसे कमरे में बंद कर देंगे? परिवार है, मेहमान हैं, सबके सामने आना-जाना तो होगा ही।"
रंजन जी ने होंठ भींचे, पर कुछ बोली नहीं। मन ही मन वह जानती थीं कि आकाश जी सही कह रहे हैं, मगर उनका डर उन्हें बार-बार बेचैन कर देता था।
कमरे में सन्नाटा छा गया। सिर्फ खिड़की से आती हुई रात की ठंडी हवा ही हल्की सरसराहट कर रही थी।
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छोटे मामा-मामी (हर्ष और हर्षिता) का कमरा
अगले कमरे में अलग ही रौनक थी। हर्ष बिस्तर पर बैठकर फोन पर फोटो देख रहा था और उसकी पत्नी उसके पास बैठी हँस रही थी।
हर्ष: "देखो राधा, ये फोटो कितनी प्यारी आई है। बाबूजी लड्डू खाते हुए और माँ हँसते हुए।"
हर्षिता : "हाँ, सच में। और देखो ये वाली — अर्जुन जी जब मिठाई परोस रहे थे, तब सब कितने खुश थे।"
हर्ष: "मुझे तो जीजाजी बहुत अच्छे लगे। और उनका दोस्त अर्जुन… वाह, कितना विनम्र लड़का है। मुझे तो लगा जैसे बरसों से जान-पहचान हो।"
हर्षिता : (मुस्कुराते हुए) "हाँ, मैंने भी यही महसूस किया। अच्छा परिवार मिला है श्रावणी को।"
हर्ष: "अब तो मैं निश्चिंत हो गया। हमारे घर की बेटी सुखी रहेगी, यही सबसे बड़ा सुकून है।"
हर्षिता ने सिर हिलाया और बोली,
"चलो अब सो जाओ, कल से तो शादी की तैयारी की लिस्ट बनानी शुरू करनी है।"
दोनों हँसते हुए सो गए।
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श्रावणी और आरजू का कमरा
इस कमरे में सबसे ज़्यादा हलचल थी। श्रावणी, आरजू, और उनकी चचेरी बहन हर्षा तीनों बिस्तर पर बैठी थीं। साथ में हार्दिक, राधा भाभी, और शौर्य भी आ गए थे। सबके हाथ में मिठाई के डिब्बे खाते हुए और हँसी-ठिठोली का माहौल।
श्रावणी: (थोड़ा शर्माते हुए) "अरे, अब तो सब मुझे ही छेड़ेंगे।"
आरजू: (हँसकर) "अरे नहीं दीदी, अब तो आपकी नई लाइफ शुरू हो गई। सुबह-सुबह जीजू बुला रहे हैं मिलने के लिए।"
श्रावणी: (चौंकते हुए) "अरे ये तुमको कैसे पता?"
आरजू: "मैंने कानों से सुना। सात बजे बुलाया है।"
हार्दिक: (मजाक में) "तो फिर तैयार रहना, जीजू से मिलने मंदिर घूमने का बहाना बनाकर चली जाना।"
हर्षा: "हाँ हाँ, घरवालों से पूछने की क्या ज़रूरत है। मंदिर का गाना बना लो, बस निकल चलो।"
आरजू: (गंभीर होकर) "नहीं हर्षा, ये गलत बात है। हमें सब खुलकर घरवालों से कहना चाहिए। छुपकर मिलने से अच्छा है कि नाना जी नानीजी ॉउस सब घर बालो से बात कर लो।"
हर्षा :- फिर तो हो गया दीदी भी आप जीजू से नहीं मिल पाओगे
श्रावणी: (थोड़ा घबराकर) "पर दादाजी मानेंगे क्या?"
आरजू: "आप चिंता मत करो। मैं नाना जी से बात करूँगी। वो ज़रूर मान जाएंगे।"
राधा ने हँसते हुए कहा,
"अरे वाह, अब तो हमारी आरजू ही सॉलिड वकील बन गई है दीदी की।"
सब हँस पड़े। कमरे का माहौल हल्का-फुल्का और प्यारा हो गया। थोड़ी देर बाद सब बातें करते-करते सो गए।
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होटल में विवेक और अर्जुन
दूसरी तरफ होटल के कमरे में विवेक और अर्जुन बैठे थे। दोनों ने कपड़े बदल लिए थे।और सोफे पर आराम से बैठे थे।
विवेक: (खुश होकर) "भाई, आज तो मन हल्का हो गया। श्रावणी जैसी लड़की पाकर मैं सच में भाग्यशाली हूँ।"
अर्जुन: (मुस्कुराकर) "हाँ विवेक, मुझे भी देखकर अच्छा लगा। उसका परिवार, संस्कार… सब कमाल के हैं।"
विवेक: "और अर्जुन, तुझे पता है? नमामि के बहुत कॉल आ रहे थे। पर इतने प्रोग्राम में भूल ही गया।"
अर्जुन: "कोई बात नहीं। अभी वीडियो कॉल कर लो, मैं भी बात कर लूँगा।"
दोनों ने कैमरा ऑन किया और नमामि से बात की। थोड़ी देर हँसी-मज़ाक चला। मम्मी पहले तो थोड़ी सी नाराज हुई थी उसने उसे भाभी से बात नहीं कराई पर फिर मान जब आप विवेक ने उसको बोला कि उसको बहुत सारी शॉपिंग कराएगा।
बाद में जब कॉल खत्म हुआ तो विवेक ने खिंचाई करते हुए कहा,
"भाई, तेरी निगाहें तो कहीं और ही अटकी थीं आज।"
अर्जुन: (थोड़ा चौंकते हुए) "क्या मतलब?"
विवेक: "मतलब साफ है। तू बार-बार आरजू की तरफ देख रहा था।"
अर्जुन ने हल्की मुस्कान के साथ बात टाल दी,
"अरे यार, अब सोने दे।"
दोनों हँसते हुए अपने-अपने बिस्तर पर लेट गए।
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अभिनव जी और आभा जी का कमरा
होटल के दूसरे कमरे में अभिनव जी (विवेक के पापा) और आभा जी (मम्मी) बैठे बातें कर रहे थे।
आभा जी: "आज की सगाई बहुत प्यारी रही। लड़की का परिवार सच में बहुत अच्छा है।"
अभिनव जी: "हाँ, और उनकी पोतियाँ… श्रावणी और आरजू — दोनों ही कमाल की हैं।"
आभा जी: "मुझे तो आरजू बहुत भली लगी। कितनी सादगी है उसके स्वभाव में।"
अभिनव जी: "हाँ, और अर्जुन लड़का भी बड़ा समझदार है। विवेक का सच्चा दोस्त है।"
दोनों ने एक-दूसरे की तरफ देखा और मुस्कुरा दिए। उनके चेहरे पर संतोष की झलक साफ थी।
सुबह की हल्की रोशनी खिड़कियों से छनकर आ रही थी। इंदौर का वो घर, जहाँ कल पूरे दिन रिश्तों की खुशबू बसी रही थी, आज भी उसी उत्साह से जग रहा था। कल की थकान अब भी सबके चेहरे पर थी, लेकिन उसके पीछे छुपी खुशी आँखों में साफ चमक रही थी।
रसोई से छनकर आती चाय-पानी और पराठों की खुशबू पूरे घर में फैल रही थी। आरजू सुबह सबसे पहले उठ चुकी थी। उसने अपनी हल्की गुलाबी रंग की सूती सलवार-कुर्ता पहना हुआ था। बालों को ढीली चोटी में बाँधते हुए वह रसोई में मामी की मदद करने लगी।
🍵 नाश्ते की टेबल पर
थोड़ी ही देर में पूरा परिवार टेबल पर आकर बैठ गया। नाना-नानी, दोनों मामा-मामी, शौर्य और राधा—सबकी आँखों में संतोष और व्यस्तता का मिश्रण झलक रहा था।
रंजन जी (आरजू की मामी):
"देखो, आज विवेक जी के घर वाले आज वापस उदयपुर निकल रहे हैं अब तो रिश्तेदारी पक्की हो गई है, अच्छे लगते हैं हम सबको उनसे मिलने जाना चाहिए "
रामप्रसाद जी (नाना) :-जाना तो चाहिए पर ऐसे अच्छा नहीं लगता उन्होंने कहा था कि हम परेशान ना हो। जाना ही है तो
कौन जाएगा? यह भी तय करना है।"
इतना सुनते ही सबकी निगाहें एक-दूसरे की ओर घूमीं। हर्ष ने मुस्कुराकर कहा—
हर्ष छोटे मामाजी :
"श्रावणी को तो जाना होगा । आखिर अब तो उसी का रिश्ता तय हुआ है।" मुझे लगता है हम बड़ों को नहीं जाना चाहिए बच्चों को जाना चाहिए
हर्षिता (हर्ष की पत्नी, हँसते हुए):
"तो फिर आरजू और हर्षित को साथ में चले जाना चाहिए"
लेकिन रंजन जी ने तुरंत टोका।
रंजन जी (सख्ती से):
"नहीं-नहीं, हर्षिता ! आरजू नहीं जाओगी। आखिरकार यह मौका खास है। मैं चाहती हूँ कि इस बार तुम जाओ साथ जाए।"
यह सुनते ही सबका ध्यान अचानक आरजू की ओर चला गया। वह चुपचाप नाश्ता परोस रही थी।
हर्षिता ( हिचकते हुए) लेकिन भाभी मुझे लगता है कि बच्चों को ही जाना चाहिए बड़े चाहते हुए अच्छे नहीं लगेंगे। एक दूसरे से मिल भी लेंग।
रंजना जी बडबडाते हुए पता नहीं आजकल के लोगों को क्या हो गया है संबंध पका हुआ नहीं की चले मिलने नहीं कुछ गड़बड़ ना हो जाए इसलिए बड़ों को ही जाना चाहिए।
राम प्रसाद जी :* थोड़े कड़क आवाज में मुझे भी हर्ष बहू की बात सही लग रही है ऐसा करते हैं आरजू श्रावणी और हर्षित को भेज देते हैं कुछ मिठाइयां और नाश्ता लेकर
आरजू (थोड़ा हिचकते हुए):
"मैं? लेकिन नानाजी … मैं क्यों?"
रामप्रसाद जी:- बस अब यह फाइनल हो गया है कोई बहस नहीं होगी अपनी पत्नी की और देख कर
लता जी से जरा तैयारी करवाओ
लाताजी :- जी मैं भी करवाती हूं
रंजन जी ने हल्की नाराज़गी दिखाई—
रंजन जी :-
"लेकिन पिताजी, मेरा मानना है कि राधा ज्यादा सही रहेगी… की भाभी भी है "
बहुत देर तक बहस चली। आखिरकार नानी ने बीच में आकर कहा—
नानी:
"इतनी छोटी-सी बात पर इतना झगड़ा क्यों? देखो, श्रावणी तो जाएगी ही। उसके साथ आरजू जाएगी। हर्षित इन सब को लेकर जाएगा बाकी सब घर पर रहो।"
आखिरकार सब मान गए। श्रावणी और आरजू दोनों को साथ भेजने का फ़ैसला हुआ।
आरजू और श्रावणी अपने कमरे में तैयार होने लगीं। श्रावणी ने हल्के हरे रंग की सिल्क साड़ी पहनी थी, जिस पर सुनहरी बॉर्डर की कढ़ाई थी। उसके चेहरे पर नई दुल्हन-सी चमक थी। वहीं आरजू ने नीले रंग का सूती कुर्ता चुना, जिसमें सादगी थी लेकिन वही सादगी उसकी खूबसूरती को और निखार रही थी।
श्रावणी ने हँसते हुए आरजू से कहा—
श्रावणी :-
"तुम्हें पता है, आज विवेक जी से मिलते वक्त मैं कितना नर्वस हो जाऊँगी।"
आरजू (मुस्कुराकर) :-
"अरे, तुम तो कल ही सगाई कर चुकी हो। अब क्या नर्वस होना? अब तो अपना ही समझो।"
श्रावणी ने मजाकिया अंदाज़ में कहा—
श्रावणी :-
"हूँ… उन्होंने अगर मुझसे नंबर मांगा या कुछ ऐसा कहा जिससे मैं अनकंफरटेबल हो गई तो क्या करूंगी कुछ समझ नहीं आ रहा एक तरफ इच्छा हो रही है मिलने जाने की और थोड़ी सी नर्मसनेस भी हो रही है "
आरजू श्रावणी ()का हाथ पकड़ते हैं) दीदी परेशान मत हो बहुत अच्छे लोग हैं।अगर नंबर मांगा भी तो दे देना। और फिर जब तक एक दूसरे से बात नहीं करोगे समझोगे नहीं तो कैसे चलेगा सारी जिंदगी अब उनके साथी तो निभानी है।
तभी राधा अंदर आती है ओर बोलती :- आरजू बिल्कुल सही कह रही है श्रवनी सामने अच्छे लोग हैं और फिर एक दूसरे से बात करो एक दूसरे को समझो पसंद ना पसंद उसके लिए फोन नंबर तो तुमको एक्सचेंज करने ही होंगे ना चिंता मत करो सब अच्छा ही होगा चलो तैयार हो गई होगी तो फटाफट निकालो टेंशन मत लो थोड़ा सा रोमांस की बातें भी करके आना।
इतना सुनते ही दोनों खिलखिलाकर हँस पड़ीं।
थोड़ी देर में गाड़ी आ गई। श्रावणी और आरजू दोनों साथ बैठीं। हर्षित के साथ निकल गई रास्ते में माहौल हल्का-फुल्का था।
श्रावणी:
"आरजू, तुम साथ हो तो मुझे अच्छा लग रहा है। वरना अकेले जाते हुए पता नहीं कैसा लगता।"
आरजू (धीरे से):
"बस, तुम रिलैक्स रहो। सब अच्छा होगा।"
गाड़ी एक फूलों की दुकान के सामने रुकी। श्रावणी ने विवेक के लिए एक सुंदर बुके लिया। साथ ही विवेक के माता-पिता के लिए मिठाई और कुछ उपहार भी खरीदे गए।
होटल का रेस्टोरेंट पहले से ही एक टेबल बुक था। अंदर की सजावट सादी लेकिन शालीन थी। विवेक अपने माता-पिता के साथ वहाँ मौजूद था। अर्जुन भी साथ में आया हुआ था।
( श्रावणी के नाना जी ने बच्चे की मम्मी पापा को फोन लगा कर बता दिया था की आरजू और श्रवणी हर्षित के साथ आप लोगों से मिलने आ रहे)
जैसे ही श्रावणी और आरजू अंदर पहुँचीं, सबकी आँखें उनकी ओर घूमीं। श्रावणी ने पहले बीवी की मम्मी पापा का आशीर्वाद लिया उनको मिठाई के डब्बे पड़ा है फिर बुके आगे बढ़ाकर विवेक को दिया।
विवेक (हल्की मुस्कान के साथ):
"बहुत-बहुत धन्यवाद।" विवेक ने भी एक बहुत सुंदर सा बुक है को दिया साथ में एक लेटेस्ट मोबाइल।
श्रवनी फोन लेने में हिचक रही थी तो विवेक की मम्मी आभा जी ने उसके हाथ पैर हल्का सा हाथ रखा और कहा परेशान होने की जरूरत नहीं है यह तुम्हारे लिए तोहफा है रखो इसे अपने पास
सभी के बीच हल्की-फुल्की बातें होने लगीं। उसके बाद उन लोगों ने नाश्ता किया और विवेक की मम्मी पापा ने कहा कि हम लोग का सामान पैक होना रह गया हम लोग कमरे में जा रहे हैं जल्दी नीचे आते हैं।
अर्जुन ने इशारों में आरजू की ओर देखा और मुस्कुराया।
फिर अर्जुन आरजू और हर्षित तीनों बाहर आ गए
थोड़ी देर की बातचीत के बाद विवेक ने अपनी जेब से मोबाइल निकाला।
विवेक:
आज आप बहुत सुंदर लग रही है "श्रावणी जी, अगर आप बुरा न मानें तो… क्या मैं आपका नंबर ले सकता हूँ?"
श्रावणी हल्के से शर्मा गई और बोली—
श्रावणी:
"जी… क्यों नहीं।"
दोनों ने अपने-अपने फोन में नंबर सेव किए। यह पल उनके बीच एक नई शुरुआत जैसा था।
अर्जुन और आरजू
जैसी बाहर आए हर्षित का फोन आया और हर्षित ने का आरजू दीदी आप बैठो मैं यह फोन अटेंड करके आता हूं यहां पर नेटवर्क का थोड़ा सा प्रॉब्लम है बराबर आवाज नहीं आ रही है
बाहर की एक टेबल पर अर्जुन और आरजू बैठे थे।
अर्जुन (मुस्कुराते हुए):
"तो आरजू जी, नास्ता हो गया है अब चाय या कॉफ़ी?"
आरजू (धीरे से):
"मैं तो चाय ही लूँगी।"
दोनों के बीच कोई नहीं बातें हुईं। आज थोड़ा सा घबरा रही थी अर्जुन को समझ में नहीं आ रहा था कि वह आरजू से किस तरह से बात चालू करें। अर्जुन ने महसूस किया कि आरजू की सादगी और शांत स्वभाव में कुछ अलग ही आकर्षण था। अर्जुन कुछ बोलने का ही हुआ कि इतने में हर्षित आ गया फिर उन लोगों ने चाय खत्म करी।
थोड़ी देर बाद सबने एक-दूसरे को विदा कहा। श्रावणी और विवेक की आँखों में एक नई चमक थी। वहीं अर्जुन और आरजू के बीच भी एक अनकही समझदारी-सी महसूस हो रही थी।
सब वापस लौट आए। हर्षित श्रावणी और आरजू गाड़ी में बैठकर घर लौट आईं।
🏰 उदयपुर में अर्जुन का घर
शाम होते-होते अर्जुन, विवेक और परिवार के बाकी लोग उदयपुर लौट गए। जैसे ही वे कृष्ण कुंज पैलेस पहुँचे, दादी और दादाजी ने उनका स्वागत किया।
दादाजी (उत्साहित होकर):
"तो बेटा, रिश्ता पक्का हो गया?"
अर्जुन (मुस्कुराकर):
"जी दादाजी।"
घर में ख़ुशी की लहर दौड़ गई। दादी ने मिठाई बाँटी और सबने मिलकर बधाइयाँ दीं।
दादाजी ने कहा :- कि कल ही हम विवेक के घर जाकर उनको बधाई देकर आएंगे।
दादी :- शादी का मुहूर्त निकल गया क्या अर्जुन
अर्जुन:- हाँ दादी मां दिवाली के बाद में विवेक और शामली की शादी है
उस बाद अर्जुन अपने कमरे ममें चला गया क्योंकि वह बहुत थक गया था और उसको आराम करना था और फिर अगले दिन से हॉस्पिटल भी ज्वाइन करना था
अगले दिन की शुरुआत
अब धीरे-धीरे सब अपने-अपने रूटीन में लौटने लगे। विवेक और अर्जुन अस्पताल के काम में लग गए। लेकिन दिल के किसी कोने में कल की मुलाक़ातें और आज का दिन सबके लिए यादगार बन चुका था।
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सूरज की पहली किरणें धीरे-धीरे कृष्ण कुंज पैलेस की ऊँची खिड़कियों में छनकर आ रही थीं। कमरे में हल्की-हल्की रोशनी ने संगमरमर की चमकती दीवारों और फर्श पर सोने जैसी झिलमिलाहट बिखेरी हुई थी। अर्जुन का शयनकक्ष हमेशा की तरह व्यवस्थित और सुसज्जित था, लेकिन आज सुबह कुछ अलग सा माहौल था — घर के बाकी लोग भी धीरे-धीरे जागने लगे थे, और हल्की हलचल से पूरे पैलेस में जीवन की ऊर्जा फैल रही थी।
अर्जुन अपनी खिड़की के पास खड़ा था, बाहर उदयपुर की हवाओं में हल्की ठंडक महसूस कर रहा था। अभी जॉगिंग कर कर आया था तो जॉगिंग सूट पर ही था। उसकी आँखों में थोड़ी बेचैनी और थोड़ी उत्सुकता दोनों झलक रही थीं। पिछले दिन की मुलाकातें, सगाई की यादें और विवेक की बातें अभी भी उसके दिमाग में ताज़ा थीं।
“अर्जुन! उठो बेटा, नाश्ता तैयार है!”
अर्जुन की माँ, विनीता जी, के हल्के-फुल्के स्वर ने कमरे में गूँजते ही उसे सपनो की पर से परतों से बाहर खींच लिया।
“जी माँ, अभी आती हूँ,” अर्जुन ने धीमे स्वर में जवाब दिया।
वह धीरे-धीरे अपने कमरे से बाहर आया। फैमिली हॉल में हल्की हलचल थी। दादी और दादाजी पहले ही नाश्ते की मेज पर बैठे थे।
बड़ी माँ रेखा जी :-ने अर्जुन की माँ को देख मुस्कुराते हुए कहा,
“आज बेटा, तुम्हारा बेटा कुछ ज्यादा ही शांत लग रहा है। कल की मुलाकातें क्या उसे कुछ सोचने पर मजबूर कर रही हैं?”
विनीता जी ने हँसते हुए जवाब दिया, “हूँ… शायद, पर इतनी जल्दी समझ नहीं आ रहा। अभी नाश्ता खाकर काम पर ध्यान देना चाहिए। कल की थकान ज्यादा हो गई है।”
अर्जुन ने अपने लिए हल्का सा नाश्ता लिया और आसपास फैली हल्की-फुल्की बातचीत में शामिल हो गया। दादाजी ने उसकी ओर देखकर कहा,
“अर्जुन, तुम्हें याद है कल विवेक के घर जाने की योजना थी। अब तुम्हें हॉस्पिटल भी जाना है। तैयार हो जाओ, काम का समय है।”
अर्जुन ने सिर हिलाकर हामी भरी और धीरे-धीरे अपने कमरे में जाकर कपड़े बदले।
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वहीं दूसरी ओर, विवेक का घर भी हल्की हलचल से जग चुका था। विवेक और बहन नमामि की मस्ती भरी सुबह की बातचीत भी अपने चरम पर थी।
“भईया , आप अभी तक उठे क्यों नहीं? जल्दी उठो, नाश्ता ठंडा हो जाएगा,” नमामि ने चुटकी लेते हुए कहा।
“बस, अभी आ रहा हूँ। तुम भी जल्दी तैयार हो जाओ, कॉलेज छोड़ते हुए चले जाऊंगा मैं तुम्हें ,” विवेक ने हल्की मुस्कान के साथ जवाब दिया।
नमामि, विवेक की बहन, ने उनके पीछे से आकर दोनों को हल्के-फुल्के ताने दिए। अरे ऐसे कैसे कॉलेज छोड़ देंगे आपने मुझसे वादा किया था आपको शॉपिंग करेंगे तो पहले शॉपिंग बाद में हॉस्पिटल।
“ हां कर दूंगा पर आज नहीं 2 दिन बाद संडे को ”
विवेक बोला हँस पड़े। यह हल्का-फुल्का माहौल पूरे घर में फैला हुआ था।
अर्जुन और विवेक दोनों अपनी-अपनी जगहों से हॉस्पिटल के लिए निकले। रास्ते में हल्की बातचीत हो रही थी।
अर्जुन ने कार में मुस्कुराते हुए कहा, “विवेक, कैसा लग रहा है नया-नया रिश्ता।”
विवेक ने मुस्कुराते हुए कहा, “हाँ, मैं जानता हूँ। ऐसा लगता है कि अब तुम थोड़ा चिंतित हो गए हो। पर कोई बात नहीं, सब अच्छा होगा। तुम्हारे लिए भी जल्दी लड़की ढूंढ लेंगे फिर तुम भी हमारे ही लाइन में आ जाओगे”
हॉस्पिटल पहुँचते ही दोनों ने अपने काम में लग गए। अर्जुन अपने डेस्क पर बैठा, मरीजों के रिकॉर्ड चेक कर रहा था, वहीं विवेक भी अपने काम में व्यस्त था।
“अर्जुन, देखो यह रिपोर्ट। यह मरीज थोड़ा अलग है, हमें ध्यान से देखना होगा,” विवेक ने ध्यानाकर्षण करते हुए कहा।
“ठीक है, मैं देखता हूँ। वैसे, कल की मुलाकात और आज की सुबह की बातें अभी तक दिमाग में घूम रही हैं तेरे दिमाग में ,” अर्जुन ने हल्का मुस्कुराते हुए कहा।
विवेक ने हँसते हुए कहा, “तुम अब थोड़ा ज्यादा सोचने लगे हो, क्या बात है?”
अर्जुन ने थोड़ी देर चुप्पी साधी, फिर मुस्कुराते हुए कहा, “शायद… कुछ सोचने पर मजबूर हूँ।”
दोनों दोस्तों की बातचीत में हल्की-फुल्की मस्ती और काम की गंभीरता का मिश्रण था। हॉस्पिटल का वातावरण अभी भी व्यस्त था, लेकिन उनके बीच की दोस्ताना नोकझोंक माहौल को हल्का और सुखद बना रही थी।
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थोड़ी देर बाद अर्जुन ने देखा कि वह चुपके से अपने फोन में कुछ तस्वीरें देख रहा है। यह तस्वीरें पिछली सगाई के दिन की थीं, जिसमें आरजू और श्रावणी दोनों दिखाई दे रही थीं। अर्जुन मुस्कुराया, यह तस्वीरें उसने चुपके से ली थीं, लेकिन अब वह उनके चेहरे की सादगी और मुस्कान को देखकर खुद को रोक नहीं पा रहा था।
विवेक ने पीछे से नज़र डालते हुए हँसते हुए कहा, “अरे, यह क्या? किसी को देख रहे हो क्या?”
अर्जुन ने हल्की हिचक के साथ अपना फोन छुपाया और मुस्कुराया, “कुछ नहीं, बस पुरानी तस्वीरें देख रहा था।”
विवेक ने चुटकी लेते हुए कहा, “हूँ… कुछ तो है, दिख रहा है। तुम्हारा दिल थोड़ी देर के लिए खुश हो गया लगता है।”
अर्जुन ने हल्की मुस्कान के साथ सिर हिलाया, पर अंदर ही अंदर उसे यह बात भी समझ में आ रही थी कि शायद वह आरजू के बारे में सोच रहा है।
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रात मेँ
यही समय था जब श्रावणी ने अपने फोन पर विवेक कॉल शो होरा रहा था ओर वो हल्की हिचक पूछ रही थी कॉल लोगों नहीं लोग फिर अंत में उसने फोन उठा ही लिया ।
श्रावणी :-“हैलो,
विवेक :- … हाँ, मैं विवेक हूँ।”
“श्रावणी, कैसे हो? सब ठीक?” विवेक ने हल्के-फुल्के स्वर में पूछा।
“हूँ… मैं ठीक हूँ। बस… थोड़ी घबराहट है,” श्रावणी ने धीरे-धीरे कहा।
“अरे, घबराहट मत करो। सब अच्छा होगा। बस अपने आप पर भरोसा रखो,” विवेक ने मुस्कुराते हुए कहा।
धीरे-धीरे उनकी बातचीत में हल्की-फुल्की हँसी और रोमांस का पन आता गया। छोटी-छोटी बातें, मजाकिया टिप्पणियाँ, और दिल की बातों का आदान-प्रदान होने लगा।
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अगले दिन
सभी मरीजों की चेकअप प्रक्रिया पूरी होने के बाद अर्जुन और विवेक थोड़ी देर के लिए हॉस्पिटल के कॉरिडोर में बाहर निकले। वहाँ हल्की धूप और ठंडी हवा ने उनका मन थोड़ा शांत किया।
“तो अर्जुन,” विवेक ने मुस्कुराते हुए कहा, “आज का दिन कैसा रहा? तुम्हें थोड़ा तनाव तो नहीं हो रहा?”
अर्जुन ने हँसते हुए कहा, “थोड़ा बहुत, पर काम का आनंद भी लिया। पर मन अभी भी कल और आज की मुलाकातों के बारे में सोच रहा है। तुम्हें पता है वह बेस्ट हार्ट सर्जन है उनके साथ काम करना क्या ही कहना ”
विवेक ने चुटकी लेते हुए कहा, “हूँ… कुछ भी। काम की नहीं तेरे चेहरे की मुस्कान के बारे में बात कर रहा हूं। तुम्हारे चेहरे पर यह साफ दिख रहा है। क्या कहना चाह रहे हो?”
अर्जुन ने हल्की हिचक के साथ सिर हिलाया, “शायद… कुछ खास है। पर अभी सबको नहीं बताना चाहता।”
दोनों ने थोड़ी देर कॉरिडोर में खड़े होकर अपने-अपने काम की बातें कीं, हल्की-फुल्की हँसी और मजाक भी चलता रहा। मरीजों के आने-जाने का सिलसिला जारी था, लेकिन उनके बीच की दोस्ताना बातचीत माहौल को हल्का बना रही थी।
अर्जुन और रवि के कुछ सर्जरी थी वह उसमें व्यस्त हो गए
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दिन के अंत तक हॉस्पिटल का काम खत्म हुआ और दोनों कार में घर लौटने लगे। रास्ते में अर्जुन चुपचाप कुछ सोच रहा था। विवेक ने उसकी नज़रों में हल्की मुस्कान देखी और
विवेक ने हँसते हुए कहा, “अरे! यह तो नया ट्विस्ट है। लगता है तुम्हें अपनी भावनाओं का एहसास हो गया है। पर चिंता मत करो, धीरे-धीरे सब साफ हो जाएगा।”
अर्जुन मुस्कुराया और सिर हिलाया। कार में हल्की-फुल्की खामोशी छा गई। दोनों के मन में सगाई की मुलाकात और हॉस्पिटल सीन की यादें घूम रही थीं। अर्जुन ने चुपके से अपने फोन में आरजू की पिछली तस्वीरें देखीं, फिर मुस्कुराया।
घर पहुँचते ही अर्जुन ने देखा कि घर का माहौल सामान्य से हल्का-फुल्का उत्साह भरा था। दादी ने मिठाई बाँटी, विनता जी और अर्जुन के पिताजी हल्की बातचीत में व्यस्त थे,
जबकि बाकी लोग धीरे-धीरे अपना काम कर रहे थे।
अर्जुन अपने कमरे में गया, हाथ धोकर हल्के कपड़े बदले और फिर बडिनर के लिए नीचे आया।
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नाश्ते की मेज पर हल्की-फुल्की बातें चल रही थीं। दादी ने मुस्कुराते हुए अर्जुन से कहा,
“बेटा, आज का दिन कैसा रहा? सब ठीक-ठाक?”
अर्जुन ने हल्का सा सिर हिलाया और मुस्कुराया।
विनता जी ने हँसते हुए कहा, “अच्छा, आज थोड़ा जल्दी नाश्ता करो, फिर हॉस्पिटल जाना है। तुम थक जाओगे। क्या जरूरत थी आज की नाइट शिफ्ट करने की अभी 2 घंटे पहले ही तो आए हो ”
अर्जुन :- मां आप तो जानती ही हो एक बच्चे की हार्ट सर्जरी है वह मेरा होना बहुत जरूरी है।
विनीता जी :-( थोड़ा सा नाराज होते हुए ) हाँ हाँ तेरा होना
ही जरूरी है।
भावना जी (बड़ी मां ) :- ( अर्जुन के सर पर हाथ फेरते हुए )क्यों परेशान होती हो तुम तो जानती हो मेरा बेटा कितना होशियार है।
अर्जुन के चाचा और चाची हल्की-फुल्की बातें कर रहे थे। उनके बीच कुछ मजाकिया टिप्पणियाँ भी उड़ रही थीं, जिससे माहौल खुशनुमा हो गया।
“अर्जुन, देखो, तुम थोड़ी देर से मुस्कुरा रहे हो। कुछ ख़ास है क्या?” बड़ी मम्मी ने हल्का सा पूछा।
अर्जुन ने हँसते हुए कहा, “कुछ नहीं, बस आज का दिन यादगार था।”
वाणी :- ( थोड़ी सी आंखें मार्केट हुए )याद कर रहा मतलब भैया कोई लड़की पसंद आ गई क्या?
विद्या :- ( हाथ मटकते ) "लगता है अब हमारे लिए दूसरी भाभी भी आने वाली है।"
भावना :- ( एक्साइड होते हुए) क्या सच में अर्जुन भैया आपको मेरी देवरानी पसंद आ गई।
अर्जुन:- ( थोड़ा सा मुस्कुराते हुए) नहीं भाभी ऐसी कोई बात नहीं है बस सर्जरी अच्छे से निपट गई इसीलिए और सर्जरी भी मैंने बेस्ट डॉक्टर हार्ट सर्जन के अंडर करी तो उसे बात के लिए याद रहा।
चलो सभी को गुड नाइट और सब अपने अपने कमरे में जाकर सो जाते हैं
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ब्डिनर के बाद अर्जुन ने अपना बैग तैयार किया और हॉस्पिटल के लिए निकल पड़ा।
वहीं, इंदौर में विवेक का घर भी हल्की हलचल में था। विवेक ने अपनी बहन नमामि के साथ डिनर किया।
नमामि ने हल्के-फुल्के स्वर में विवेक को चिढ़ाया, “भैया, तुम अभी भी कल की मुलाकात भूल नहीं पा रहे हो न?” हर टाइम सिर्फ भाभी के बारे में ही सोचते रहते हो।
विवेक मुस्कुराए और बोला,( के सर पर धीरे से मारते हुए) “थोड़ी बहुत याद तो है। पर काम में ध्यान लगाना भी ज़रूरी है।”
विवेक की मां आभा हँस पड़ी और हल्की-फुल्की नोकझोंक करने लगी।
माँ मेँ नाइट ड्यूटी के लिए जाना है मैं निकलता हूं।
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अर्जुन और विवेक दोनों अपने-अपने हॉस्पिटल पहुँचे। अर्जुन मरीजों के रिकॉर्ड चेक कर रहा था, वहीं विवेक भी काम में व्यस्त था।
“अर्जुन, यह रिपोर्ट थोड़ी अलग है। ध्यान से देखना होगा,” विवेक ने कहा।
अर्जुन ने सिर हिलाया और कहा, “ठीक है, मैं देखता हूँ। 1 घंटे बाद इसकी सर्जरी है ”
थोड़ी देर बाद अर्जुन ने चुपके से अपने फोन में आरजू की तस्वीरें देखीं। विवेक ने पीछे से देखा और मुस्कुराया,
“अरे, यह क्या? किसी को देख रहे हो?”
अर्जुन ने हल्की हिचक के साथ जवाब दिया, “कुछ नहीं, बस पुरानी तस्वीरें देख रहा था।”
विवेक ने हँसते हुए कहा, “ अर्जुन आज भी वापस तस्वीर कुछ तो झोल है थोड़ा सा मुस्कुराते हुए”
अर्जुन ने मुस्कुराया, लेकिन अंदर ही अंदर उसे एहसास हो गया कि वह शायद आरजू को पसंद करने लगा है।
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शाम को श्रावणी ने विवेक को फोन किया।
“हैलो, विवेक? मैं हूँ… हाँ, मैं ठीक हूँ।”
“अरे, श्रावणी, कैसे हो? सब ठीक?” विवेक ने पूछा।
“हूँ…,” श्रावणी ने कहा।
“घबराओ मत। सब अच्छा होगा। दूसरे पर भरोसा रखेंगे तो धीरे-धीरे हमारा रिश्ता नॉर्मल हो ही जाएगा ,” विवेक ने मुस्कुराते हुए कहा।
धीरे-धीरे उनकी बातें हँसी-खुशी और हल्की रोमांटिक अंदाज़ में बदलने लगीं। छोटी-छोटी बातें, मज़ाक, और दिल की भावनाएँ साझा होने लगीं।
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धीरे-धीरे वक्त गुजरने लगा
करीब एक महीने बाद,
हॉस्पिटल की कैंटीन में अर्जुन और विवेक बैठकर बातें कर रहे थे।
“अर्जुन, तुम्हें लगता है कि तुम्हारा दिल कहीं अटक गया है?” विवेक ने हल्के मजाक में पूछा।
अर्जुन ने थोड़ा हिचकते हुए कहा, “हाँ… शायद मैं आरजू को पसंद करने लगा हूँ। पर समझ नहीं आ रहा।”
विवेक ने मुस्कुराते हुए कहा, “समझने की कोशिश करो। धीरे-धीरे सब साफ हो जाएगा।”
इसके बाद दोनों अपने-अपने काम में लग गए। शाम को विवेक ने श्रावणी से फोन पर बातें की।
( विवेक ने आज सोचा है था कि वह श्रावणी से आराजू के बारे में पूछेंगे और सब सही रहा तो वह अगर आरजू की जिंदगी में कोई नहीं होगा तो वह आरजू को अर्जुन की जिंदगी में लाकर रहेगा उसका दोस्त बहुत शांत स्वभाव का है उसे गुस्सा बहुत आता है शायद अर्जुन आरजू को पसंद करने लगा है तो अर्जुन की लाइफ पटरी पर उसे ही लाना होगा।)
विवेक :-
“श्रावणी, आरजू के बारे में तुम्हारे विचार क्या हैं?” विवेक ने पूछा।
श्रावणी थोड़ी चुप रही, :- अचानक आरजू के बारे में क्यों पूछ रहे हैं।
विवेक :- बस यूं ही पूछा उसके बारे में कुछ बताओ ना जैसे उसका बॉयफ्रेंड वगैरा है क्या।
श्रावणी :- (थोड़ा गुस्सा होकर )क्यों आप मेरी जगह उसे पसंद करने लगे हैं क्या?
विवेक:- ( उस को गुस्सा होते हुए देखकर थोड़ा सा अवक रह जाता है ) फिर सामने को थोड़ा सा कठोर शब्द में बोलता है सामने तुम क्या बोल रही हो।
श्रावणी :- (फिर से एहसास होता है उसने क्या बोला तो शर्मिंदा हो जाती है और 2 मिनट तक कुछ नहीं बोलते फिर धीरे से बोलता है )सॉरी मैं शायद गुस्से में कुछ ज्यादा बोल गई।
विवेक :- शालू ( विवेक प्यार से श्रावणी को शालू ) क्या कोई ऐसी बात है जो तुम मुझे बताना चाहती हो? क्योंकि जहां तक मैं जानता हूं। इसमें इतना गुस्सा होने वाली कोई बात नहीं थी।अगर मैं आरजू के बारे में पूछ रहा था, तो क्योंकि मैं तुम्हारे सभी फैमिली मेंबर के पसंद ना पसंद के बारे में पूछा है।
श्रावणी :-
फिर धीरे-धीरे बोली, “मैं उसे कम पसंद करती हूँ… क्योंकि आप से.... पहले रिश्ता... मेँ.... मेरे लिए ( बोलकर बहुत जोर से आंख बंद कर लेती है) आया था, पर लड़के वालों ने उसे देखकर पसंद कर लिया। और मुझे...... री...रिजेक्ट कर दिया था”( आवाज में थोड़ी सी कपआहत थी )
विवेक :- , ( गहरी सांस ली )“शालू शांत हो जाओ।
शालू :- आ.... …आप इस बजह से हमारा री.....रिस्ता तो नहीं इतना बोल के शालू चुप हो जाती है।
विवेक :- तुम्हें मुझ पर विश्वास है ना शालू यह कोई वजह नहीं हुई रिश्ता तोड़ने की। इसमें तुम्हारी कोई गलती नहीं। ना ही आरजू की ”
श्रावणी ने हल्की राहत की साँस ली और कहा, “हाँ पर आरजू ”
विवेक :- " शालू इस सब मेँ आरजू की भी कोई गलती नहीं थी गलती थी तो शरीफ उन लडके वालो की उन की सोच की कितने लोगों की बाहरी सुंदरता पसंद है अंदरूनी नहीं"
मुझे बताओ शालू क्या कभी भी आरजू ने तुम्हारा बुरा चाहा है।
शालू :- नहीं (अपनी आंखों के आंसू पहुंचती है एक हद से )
विवेक:- मेँ तो आरजू क ज्यादा नहीं जनता पर तय तो बचपन से उस के साथ हो क्या कभी कही आरजू तुम्हारे साथ गलत किया।
शालू :- नहीं।।।।
विवेक:- फिर तुमको कैसे लगा की आरजू तुम्हारा कभी भला नहीं चाहेगी या आरजू में लड़के वालों को बहलाया फासलाया होगा।
शालू :- आई एम सॉरी शायद आप सही कह रहे हो विवेक गलती शालू की नहीं थी गलती तो मेरी थी जो मैंने ही मेरी बहन को सही नहीं समझा।
विवेक :- चलो कोई बात नहीं अभी देर नहीं हुई है अपनी बहन से गले मिलो और नहीं शुरुआत करो।
शालू :- चलो ठीक है विवेक अब मैं फोन रखती हूं हम कल बात करेंगे। का बहुत-बहुत धन्यवाद।।।।
विवेक :- धन्यवाद यह तो मेरा फर्ज है। और तुम्हारा भी जहां मैं गलत हूं। वहां तुम मुझे समझाओ जहां तुम गलत हो मैं वहां तुम्हें समझाऊं । एक दूसरे का हाथ पकड़ कर चलेंगे । तभी तो *मैं और तुम बनेंगे हम* अब सो जाओ गुड नाइट।
शालू :- गुड नाइट
कहीं दूर खत्म हो गई थी और कहीं नजदीकी आने की थी
plz follow me......
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सुबह की पहली किरणें इंदौर के उस पुराने घर के आँगन में उतर चुकी थीं। तुलसी चौरे पर रखी दीपक की लौ अभी भी धीमे-धीमे जल रही थी। रसोई से घी की खुशबू और मसालों की महक आ रही थी। आरजू, हमेशा की तरह, चुपचाप किचन में व्यस्त थी।
वह आटे की लोई बेल रही थी, कभी तवा पर रोटी डाल रही थी, कभी सब्ज़ी में नमक चखकर देख रही थी। उसके चेहरे पर वही सादगी, वही शांत भाव था।
श्रावणी, जो अपने कमरे से नहा-धोकर तैयार होकर आई थी, आज कुछ अलग ही मनस्थिति में थी।
पिछली रात विवेक से हुई बातचीत उसके दिल को झकझोर गई थी। उसने पहली बार महसूस किया कि शायद उसने अपनी छोटी बहन आरजू के साथ कुछ ज़्यादा ही कठोर व्यवहार किया है।
रात भर वह सोचती रही, करवटें बदलती रही। और अब सुबह उसने तय किया था कि वह अपनी गलती मान लेगी।
धीरे-धीरे वह किचन में पहुँची। आरजू झुकी हुई रोटियाँ सेंक रही थी। श्रावणी ने एक पल रुककर उसे देखा। उसकी आँखें नम हो गईं।
श्रावणी (धीरे से): “आरजू…”
आरजू (चौंककर पीछे मुड़ी): “हाँ दीदी? आप… आप यहाँ? सब ठीक है न?”
श्रावणी की आँखों से आँसू छलक पड़े। वह आगे बढ़ी और अचानक आरजू को पीछे से गले लगा लिया।
श्रावणी (रोते हुए): “मुझे माफ़ कर दे आरजू… मैंने तुझे गलत समझा। मैंने हमेशा तुझ पर शक किया, तेरी अच्छाइयों को नज़रअंदाज़ किया। मैं बहन होकर भी तेरी दोस्त न बन सकी।”
आरजू (घबराकर, आँसू पोंछते हुए): “अरे दीदी, आप ये क्यों कह रही हैं? आप मेरी बड़ी बहन हैं। अगर कभी कुछ कह भी दिया तो… मैं बुरा नहीं मानती।”
श्रावणी (कसकर पकड़ते हुए): “नहीं आरजू, गलती मेरी थी। मैं तुझसे जलने लगी थी। क्योंकि उस दिन… जब मेरे लिए रिश्ता आया था और
लड़के वालों ने तुझे पसंद किया… तब से मेरे मन में तेरे लिए कड़वाहट भर गई थी।
पर कल रात विवेक ने मुझे समझाया कि इसमें न तेरी गलती थी, न मेरी… गलती तो उनकी सोच की थी।”
आरजू की आँखें भर आईं। उसने श्रावणी के गाल पर हाथ रखकर कहा,
आरजू: “दीदी, मुझे पता है। मैं हमेशा चाहती थी कि आप खुश रहें। मैं कभी नहीं चाहती थी कि मेरी वजह से आपको दुख मिले।”
दोनों बहनों ने गले लगकर रोते-रोते मन की गांठें खोल दीं। उस पल घर का वातावरण कुछ अलग ही पवित्र लग रहा था।
शालू :- (आरजू के कंधे से आपमें हाथ ने मारते हुए ) अच्छा अर्जुन सुना क्या तुझे अर्जुन जी पसंद है?
आराजू :-( चौक कर ) क्या दी कुछ भी ओर थोड़ा शर्मा जाती हैं।।।
शालू :- कल विवेका जी की बातो से लगा की अर्जुन like you.......
आरजू ( शर्मा कर ) :- पता नहीं दी पर वो अच्छे हैं.....
लेकिन… यही वह क्षण था जब पीछे से रंजना जी (श्रावणी और आरजू की माँ) वहाँ से गुज़रीं। उन्होंने दोनों बहनों की बातें आधी-अधूरी सुनीं और रुक गईं। उनके चेहरे पर असहजता, गुस्सा और चिंता की लकीरें उभर आईं।
रंजना जी आपमें कमरे मेँ जाती हैं.......
रंजना जी मन ही मन बड़बड़ाईं:
“नहीं… ये अच्छा नहीं हो रहा। अगर दोनों बहनें फिर से करीब आ गईं, तो कहीं अर्जुन का रिश्ता आरजू से न जुड़ जाए। मैं श्रावणी के भविष्य को दांव पर नहीं लगा सकती। मुझे कुछ करना ही होगा। हर जगा लोग आरजू कोई पसंद करने लगाते हैं। नहीं! मेरी बेटी ही सुविधा कोई ओसंद आयगे ”
वह तुरंत अपने कमरे में घूमते हुए । बेचैनी से चक्कर लगाने लगीं। फिर मोबाइल उठाकर अपने भाई (वैभव जी) को फोन लगाया।
रंजना जी: “भैया, नमस्ते… मुझे आपसे एक ज़रूरी बात करनी थी। आपने कहा था न कि आप अपने बेटे नमन के लिए कोई सीधी-सादी, सुलझी हुई लड़की ढूँढ रहे हैं? तो मेरे पास एक नाम है – आरजू।”
वैभव जी (चौंकते हुए): “आरजू? वही तुमारी भांजी? पर बहन, ये बात इतनी आसान नहीं होगी। तुम्हारे घर वाले…?”
रंजना जी: “भैया, आप चिंता मत करो। मैं सब संभाल लूँगी। मैं आज ही पिताजी (राम प्रसाद जी) से बात करती हूँ। अगर हम आगे बढ़े तो परिवार मना नहीं करेगा। नमन बहुत अच्छा लड़का है, और मुझे लगता है कि आरजू के लिए वही सही रहेगा।”
फोन रखने के बाद रंजना जी सीधे राम प्रसाद जी (अपने ससुर और आरजू के नाना) के कमरे में गईं।
राम प्रसाद जी (अखबार पढ़ते हुए): “आओ बहू, क्या बात है? इतनी घबराई-सी क्यों लग रही हो?”
रंजना जी (संकोच करते हुए): “बाबूजी, मुझे आपसे एक ज़रूरी बात करनी है। दरअसल… मेरे भाई वैभव जी… उन्होंने आरजू का हाथ अपने बेटे नमन के लिए माँगा है।”
राम प्रसाद जी एकदम से चौंक गए। चश्मा उतारकर रंजना जी की तरफ देखा।
राम प्रसाद जी: “क्या? नमन और आरजू? यह तो बहुत बड़ी बात है बहू। तुम जानती हो कि ऐसे रिश्ते पूरे परिवार की सहमति से तय होते हैं। और आरजू की पसंद भी जरूर हैं।”
रंजना जी (धीरे से): “जी बाबूजी, मैं जानती हूँ। पर मुझे लगता है कि नमन आरजू के लिए अच्छा जीवनसाथी होगा।
वह सीधा-सादा, पढ़ा-लिखा और संस्कारी लड़का है। और आप तो जानते ही हैं, लड़की की उम्र निकल जाए तो बाद में रिश्ते मुश्किल हो जाते हैं।”
राम प्रसाद जी ने लंबी सांस ली। उन्होंने कुछ पल सोचा और फिर कहा:
“ठीक है, इस बारे में हम सब परिवार के सामने डाइनिंग टेबल पर बात करेंगे। जो सही होगा, वही किया जाएगा।”
रंजना जी मुस्कुराईं। उन्हें लगा उनकी चाल चल गई।
पूरे परिवार के लोग नाश्ते की मेज पर इकट्ठा हुए। बड़े मामा आकाश जी और उनकी पत्नी उनके बेटे शौर्य भी साथ था। छोटे मामा हर्ष और हर्षित पहले से बैठे थे। आरजू –,श्रावणी, राधा और बाकी सब – मिलकर नाश्ता परोस रही थीं।
माहौल हल्का-फुल्का और उत्साह से भरा हुआ था।
वही समय था जब राम प्रसाद जी ने गला खंखारकर सबको शांत होने का इशारा किया।
राम प्रसाद जी: “सुनो सब लोग… मुझे एक जरूरी बात करनी है। रंजना बहू ने अभी मुझे बताया कि उसके भाई वैभव जी ने आरजू का हाथ अपने बेटे नमन के लिए माँगा है।”
इतना सुनते ही पूरा हॉल चुप हो गया। हर कोई एक-दूसरे का चेहरा देखने लगा।
आरजू का चेहरा सफेद पड़ गया। उसके हाथ काँपने लगे। वह नीचे ज़मीन की तरफ देखने लगी।
श्रावणी ने तुरंत उसकी ओर देखा और चौंक गई। उसने महसूस किया कि यह अचानक आई घोषणा आरजू के लिए कितनी भारी है।
श्रावणी ने हिम्मत दिखाते हुए उसका हाथ पकड़ लिया और दबाया। ओर कुछ बोलने की हुए थी की
रंजना जी (माहौल सँभालते हुए): बोली “मुझे लगता है कि नमन एक अच्छा लड़का है। सीधा, सरल और पढ़ा-लिखा। आरजू के लिए वही सही रहेगा। आप सबको कैसा लगता है?”
आकाश जी (थोड़ा सोचकर): “नमन मैंने देखा है। वह ठीक लड़का है। पर इतना बड़ा फैसला यूं ही नहीं लिया जा सकता। हमें आरजू की राय भी लेनी होगी।”
हर्ष (धीरे से): “हाँ, बिल्कुल। बिना आरजू की इच्छा जाने कोई कदम नहीं उठाना चाहिए।”
लता जी ( नानी आरजू की ), थोड़ा सतर्क स्वर में): “मुझे लगता है… हमें जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए। अभी सगाई का माहौल नया-नया है। हमें सोच-समझकर कदम बढ़ाना होगा।”
आरजू (हकलाते हुए): “मैं… मैं…” (कुछ कहने ही वाली थी कि)
श्रावणी ने उसका हाथ कसकर दबा दिया और कहा:
“आरजू अभी कुछ मत बोलो। सोच-समझकर फैसला लेना ज़रूरी है।”
रंजना जी ने बीच में बात काटी:
“परिवार की सहमति सबसे बड़ी होती है। और नमन बहुत अच्छा है। मुझे पूरा विश्वास है कि आरजू उसके साथ खुश रहेगी।”
श्रावणी (गहरी आवाज़ में, सबको चौंकाते हुए):
“हाँ, नमन अच्छा है। और अगर परिवार को लगता है कि यह रिश्ता सही है तो… मैं भी मानती हूँ। आखिरकार बहन की खुशी सबसे ज़रूरी है। पर ”
इस की आगे कीच बोलती की रंजना जी बोला :- पर नमन तेरा मामाजी क बेटा हैं ओर बहुत अच्छी पोसर पर काम भी करता हैं उस की तनख्वाह भी बहुत १००००० रु महीना हा मुझे तो उस मेँ कोई कमी नहीं लगाती।
राम प्रसाद जी ने माहौल को शांत करते हुए कहा:
“ठीक है। तो यह तय रहा कि हम वैभव जी और उनके परिवार को जनता भी अच्छे हैं उन कोई बुलाएँगे। नमन और आरजू की मुलाकात कराएँगे। उसके बाद आगे का फैसला करेंगे।”
इस घोषणा के बाद सब लोग अपने-अपने काम में लग गए, लेकिन माहौल अब भी भारी था।
आरजू का चेहरा पीला पड़ गया था। वह चुपचाप उठी और अपने कमरे में चली गई।
अंदर ही अंदर अर्जुन (जो उदयपुर में था) को शायद जल्द ही इस खबर का पता चलने वाला था… और तब कहानी में नया तूफ़ान उठेगा। या नहीं या तो आने बाला समय बतायेगा......
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आरजू अपने कमरे में अकेली बैठी थी। खिड़की के पास खड़ी होकर वह बाहर झाँक रही थी। सामने नीम का पेड़ हवा में झूम रहा था। सुबह का शोरगुल अब कम हो चुका था। पक्षियों की चहचहाहट धीरे-धीरे थम रही थी। लेकिन उसके दिल के भीतर का शोर किसी भी तरह थमने का नाम नहीं ले रहा था।
उसके मन में एक साथ कई सवाल घूम रहे थे—
"क्या सच में मामीजी ने मेरे लिए रिश्ता भेजा है?
क्या मैं अपनी मर्जी से कभी कुछ चुन पाऊँगी?
और अर्जुन… अर्जुन के बारे में जो बातें शालू ने कही थीं… क्या सचमुच…?"
वह इन विचारों में खोई थी कि तभी धीरे-धीरे दरवाज़ा खुला और श्रावणी अंदर आई।
श्रावणी कमरे में आई और बिना कुछ कहे सीधे उसके पास आकर खड़ी हो गई।
आरजू ने चौंककर उसे देखा—
आरजू (धीरे से): "दीदी… आप? कुछ काम था?"
श्रावणी ने उसकी तरफ देखा, जैसे बहुत सारी बातें उसके गले में अटकी हों। कुछ देर खामोशी छाई रही। फिर उसने गहरी साँस ली।
श्रावणी: "आरजू, मुझे तुमसे सीधी बात करनी है।"
आरजू (हैरानी से): "जी दीदी?"
श्रावणी: "ये रिश्ता… नमन का… तुम्हें पसंद है क्या?
मतलब… अगर घरवाले राज़ी हो भी जाएँ तो क्या तुम मन से तैयार हो?"
आरजू एक पल को चौंक गई। उसने आँखें झुका लीं।
आरजू (धीमे स्वर में): " मैं नमन जी को तो कभी देखा नहीं है ओर दीदी, मेरी राय की कब सुनी जाती है? मामी जी और नाना-नानी जो चाहेंगे वही होगा। मैं तो बस उनकी इच्छा मान लूँगी।"
श्रावणी ने झटके से उसका चेहरा अपनी ओर घुमाया।
श्रावणी (थोड़ा गुस्से में): "नहीं आरजू! ये तुम्हारी ज़िंदगी है। तुम्हें अपनी पसंद बतानी चाहिए। क्या तुम्हें… अर्जुन पसंद है?"
ये सुनकर आरजू का चेहरा लाल पड़ गया। उसने जल्दी से नज़रें फेर लीं। होंठ काँप रहे थे, पर कुछ बोली नहीं।
आरजू (हकलाते हुए): "दीदी… ऐसी बातें मत कीजिए। अर्जुन जी हमारे....वो … और बड़े अच्छे इंसान हैं। पर… मैं…"
श्रावणी ने उसकी झिझक भाँप ली। उसके होठों पर हल्की मुस्कान आई।
श्रावणी: "मतलब कहीं न कहीं तुम्हें अर्जुन पसंद है। सही कह रही हूँ न?"
आरजू का चेहरा और लाल हो गया। उसने धीरे से कहा—
आरजू: "मुझे नहीं पता दीदी… मैं बस इतना जानती हूँ कि अर्जुन जी बहुत अच्छे हैं… पर उन्होंने कभी ऐसा कुछ कहा नहीं। और न ही मैं ऐसे सपने देखने की हिम्मत करती हूँ।"
श्रावणी ने उसका हाथ पकड़ लिया।
श्रावणी: "आरजू, अगर तुझे अर्जुन पसंद है तो नमन के लिए हाँ मत कहना। मैं माँ दादा जी दादी सब से बात करूँगी।"
आरजू की आँखें भर आईं। उसने धीमे स्वर में कहा—
आरजू: "नहीं दीदी। अगर नाना-नानी और मामी जी ने सोच लिया है तो मैं मना कैसे करूँ? उनकी इच्छा मेरे लिए सबसे बड़ी है। और वैसे भी… अर्जुन मुझे पसंद करता है या नहीं, इसका मुझे कोई यक़ीन नहीं।"
ये कहते-कहते उसकी आँखों से आँसू बह निकले।
श्रावणी को जैसे किसी ने झटका दे दिया। उसने कसकर उसका हाथ छोड़ा और पीछे हट गई।
श्रावणी (कड़वाहट से): "मतलब तू सबकुछ सह लेगी? अपनी खुशी का गला घोंट देगी? सिर्फ इसलिए कि सबको खुश करना है?"
आरजू ने चुपचाप सिर झुका लिया।
श्रावणी का चेहरा लाल हो गया। गुस्से और लाचारी में वह कमरे से बाहर निकल गई।
कमरे से निकलते ही श्रावणी सीधे अपने मोबाइल की तरफ बढ़ी। उसका दिल जोर-जोर से धड़क रहा था। उसने तुरंत नंबर मिलाया।
श्रावणी (फोन लगते ही): "विवेक! मुझे आप से अभी बात करनी है।"
विवेक (थोड़ा हैरान स्वर में): "अरे श्रावणी, सब ठीक तो है? तुम इतनी परेशान क्यों लग रही हो?"
श्रावणी (तेज़ आवाज़ में): "ठीक कहाँ है विवेक! आप कोई पता है? मम्मी ने आरजू का रिश्ता नमन के साथ तय करने की बात चलाई है।"
फोन के उस पार कुछ पल खामोशी रही। फिर विवेक की धीमी आवाज़ आई—
विवेक: "क्या? आरजू और नमन? लेकिन… ये तो सिर्फ बात ही चल रही है ना ? सिर्फ बात चली है, पक्की नहीं हुई।"
श्रावणी (बेचैन होकर): "तुम समझ नहीं रहे हो विवेक। अगर मम्मी चाहती है कि नमन और आरजू का रिश्ता हो तो यह होकर ही रहेगा हैं। अगर दो दिन बाद नमन का परिवार आया तो सब मान जाएंगे। और आरजू… वो तो खुद अपनी ज़ुबान नहीं खोलती।"
विवेक (साँस छोड़ते हुए): "श्रावणी, तुम शांति रखो। मैं समझ रहा हूँ। देखो, अभी कुछ पक्का नहीं हुआ है। मैं अर्जुन से बात करूँगा। अगर वाकई अर्जुन को आरजू पसंद है, तो हम कुछ रास्ता निकालेंगे। तुम चिंता मत करो।"
श्रावणी ने होंठ काटते हुए कहा—
श्रावणी: "ठीक है, पर जल्दी कुछ करना पड़ेगा। मम्मी ने मन बना लिया है।"
फोन रखते ही उसकी आँखों में आँसू आ गए।
उसी दिन सुबह। विजयनगर स्थित वैभव जी का घर।
वैभव जी अख़बार पढ़ रहे थे और उनकी पत्नी आराधना किचन में थीं। तभी वैभव जी ने आवाज़ दी—
वैभव जी: "आराधना, सुनो! अभी रंजना दीदी का फोन आया था। उसने आरजू का रिश्ता हमारे नमन के लिए सोचा है।"
आराधना (हैरानी से बाहर आकर): "क्या? आरजू? लेकिन… ये तो बहुत अचानक है।"
तभी नमन भी कमरे में आ गया। उसने सब सुन लिया था।
नमन (तेज़ स्वर में): "पापा, मुझे शादी नहीं करनी अभी! मेरी नौकरी की जिम्मेदारी है।"
वैभव जी ने भौंहें चढ़ा दीं।
वैभव जी: "नमन, ये कोई बहाना नहीं है। लड़की बहुत अच्छी है। तेरी बुआ ने उसे पसंद किया है। और हम सबको भी लगता है कि रिश्ता ठीक रहेगा।"
नमन (ज़िद में): "पापा, मैं किसी को जानता भी नहीं। ऐसे कैसे शादी कर लूँ?"
आराधना ने बेटे को शांत करने की कोशिश की।
आराधना: "नमन बेटा, पहले जाकर देख तो लो लड़की को। अगर पसंद न आए तो कोई ज़बरदस्ती नहीं करेगा।"
नमन गुस्से में कमरे से बाहर चला गया। वैभव जी ने गहरी साँस ली और बोले—
वैभव जी: "संडे को चलेंगे। लड़की देखेंगे। बाकी बात वहीं तय होगी।"
उदयपुर। अस्पताल।
अर्जुन अपने केबिन में फाइलें देख रहा था। तभी विवेक अंदर आया। उसके चेहरे पर चिंता साफ झलक रही थी।
अर्जुन (मुस्कुराकर): "अरे विवेक! तू अचानक? सब ठीक है?"
विवेक (कुर्सी पर बैठते हुए): "नहीं अर्जुन… सब ठीक नहीं है। मुझे तुझसे कुछ ज़रूरी बात करनी है।"
अर्जुन ने फाइल बंद कर दी।
अर्जुन: "कहो। क्या हुआ?"
विवेक ने धीरे-धीरे सबकुछ बताया— नमन का रिश्ता, और परिवार का फैसला। अर्जुन का चेहरा सुनते-सुनते बदलने लगा।
कुछ पल खामोशी रही। फिर अर्जुन ने धीमी आवाज़ में कहा—
अर्जुन: "मतलब… अब सब लोग चाहते हैं कि आरजू की शादी नमन से हो?"
विवेक: "हाँ। लेकिन पक्का नहीं हुआ है। दो दिन में नमन का परिवार आरजू को देखने आएगा।"
अर्जुन कुर्सी से उठकर खिड़की के पास चला गया। उसकी आँखें गहरी सोच में डूब गईं।
विवेक (धीरे से): "अर्जुन, तू सच-सच बता। क्या तू आरजू को पसंद करता है?"
अर्जुन ने आँखें बंद कर लीं। कुछ देर बाद उसने गहरी साँस ली और कहा—
अर्जुन: "हाँ विवेक… मुझे आरजू सच में पसंद है। उसकी सादगी, उसका स्वभाव… सबकुछ। मैं… शायद उससे शादी भी करना चाहता हूँ।"
विवेक ने राहत की साँस ली।
विवेक: "तो फिर देर मत कर। तुझे अब कदम उठाना होगा। वरना देर हो जाएगी।"
अर्जुन ने उसकी तरफ देखा।
अर्जुन: " नहीं विवेक हम इस तरह नहीं कर सकते हैं अगर कुछ कदम उठाया और उसका कुछ गलत हो गया आरजू के साथ तो शायद मैं खुद को जिंदगी भर माफ नहीं कर पाऊंगा।"
विवेक:- " कैसे बैठे रहना सही है?"
अर्जुन :- " तो शायद कुछ आज ही कर सकती है अगर वह रिश्ते के लिए मना करते तो बात कुछ बन सकती है"
नहीं तो......
plz follow me
2 दिन पलक झपकते ही बीत गए थे और आ गई थी वह रात जब दूसरे दिन आने वाले थे नंबर और उसका परिवार
सबके मन की बातें और बेचैनियां
सबसे पहले आरजू की बेचैनी कि कल क्या होगा अगर नमन ने उस कोई देख लिया हां कर दिया तो फिर शायद उसको अर्जुन को भूलना होगा।
आरजू
उसने तश्तरी में रखे जल से तुलसी में दो बूँदें छिड़कीं—मानो मन की आग थोड़ी ठंडी कर दे। फिर अपने बिस्तर के सिरहाने से पुरानी-सी डायरी निकाली। पन्नों पर एक-एक करके लिखे उसके छोटे-छोटे सपने जैसे शब्दों में खिल उठे—“अपनी दुकान का छोटा-सा काउंटर, नर्म पीली रोशनी, और… किसी का साथ, जो मुझे मेरे जैसा होने दे।”
पर पन्ना उसी जगह बंद हो गया जहाँ ‘किसी’ का नाम नहीं लिखा था। उसने कलम को कैप लगाकर रखा और आसमान की तरफ देखा—“भगवान, मेरी कोई गलती न हो—बस इतना देना।”
उदयपुर
छत पर हवा में हल्की ठंडक थी। दूर से झील के किनारे की इमारतों पर टिमटिमाती रोशनी सितारों जैसी लग रही थी। अर्जुन ने फोन उठाया—डायल टाइप किया—फिर मिटा दिया।
अर्जुन (मन में): जो कहना था, विवेक से कह दिया। पर असली बात तो उससे कहनी है—आरजू से। और अगर उसने… अगर उसे मैं वैसा—
वह वाक्य बीच में ही छोड़कर बालकनी की जाली पर मुट्ठी भींच बैठ गया। चाँद उसके सामने था—पर आँखों के पीछे वही चेहरा था—अर…जू।
लता और राम प्रसाद जी का कमरा ---
कमरे की अलमारी पर रखी चौसर की बिसात जैसे किसी पुराने फैसले की गवाह हो। रामप्रसाद जी बिस्तर की टेक लगाकर बैठे थे। लता जी ने पानी का गिलास आगे बढ़ाया।
लता: “कल लड़के वाले आ रहे हैं… क्या पक्का सही है ये सब?”
रामप्रसाद (सोचते हुए): “बात तो ठीक है, पर… हमें आरजू की इच्छा पूछे बिना कुछ नहीं करना चाहिए। और… मुझे लगता है—आरती को भी बुला लें। सौतेली सही, पर जो है—उसका हक तो बनता है।”
लता (धीमे): “हाँ… अगर आरती आएगी—तो आरजू को बुरा लगेगा। बचपन से माँ क प्यार नहीं मिला हैं मेरी बच्ची को।”
रामप्रसाद: “फिर भी। हम अपना धर्म निभाएँगे। कल सुबह मैं खुद फोन कर दूँगा।”
रंजना और आकाश ---
रंजना आईने के सामने खड़ी अपनी साड़ी की पल्लू ठीक कर रही थीं—चेहरे पर वैसा ही Glow जैसा किसी बड़े आयोजन की पूर्वसंध्या पर होता है। आकाश जी ने चश्मा उतारकर देखा।
आकाश: “आज तुम बहुत खुश लग रही हो।”
रंजना (मुस्कराकर): “और खुश न होऊँ तो? मेरी भतीजे की बात है—अच्छे घर हैं। नमन अच्छा लड़का है।”
आकाश (संभल-संभल): “खराब नहीं कह रहा… पर फैसला सोच-समझकर लेना होगा। आरजू हमारी बेटी नहीं सही, पर हमने उसे अपने मन से पाला है—कहीं जल्दबाज़ी में—”
रंजना (तुनककर): “क्यों? मेरा भतीजा अच्छा नहीं है क्या? सब कहते हैं संस्कारी, पढ़ा-लिखा—नौकरी करता है। और मुझे तो लगता है इससे बेहतर घर—”
आकाश (नरमी से): “बी better घर की बात नहीं, better फैसला होना चाहिए—जो उसके मन से भी मेल खाए।”
रंजना ने जवाब में बस पल्लू ठीक किया—पर मन का पल्लू और कसकर थाम लिया।
हर्ष ने खिड़की बंद की—रात की हवा कमरे में ठंडी थी।
हर्ष: “कल लड़के वाले आ रहे हैं। देखना—बड़ी भाभी ने सब कुछ पहले से प्लान कर रखा होगा।”
हर्षिता (सीधी बात): “और हम? हमने क्या प्लान किया है? आरजू की राय?”
हर्ष (हल्की झेंप): “बात करूँगा सुबह… देखो न, हालात कुछ ऐसे हैं—”
हर्षिता: “हालात हमेशा ऐसे ही होते हैं। कोई एक आवाज़ उठाता है—तभी हालात बदलते हैं।”
हर्ष खामोश हो गया—पर आँखों में एक निर्णय की चिंगारी जल उठी।
शौर्य और राधा
शौर्य बिस्तर के कोने पर बैठा था—हाथों में बचपन की एक तस्वीर—जिसमें नमन उसके साथ पतंग दौड़ा रहा था।
शौर्य (हौले): “नमन को मैं बचपन से जानता हूँ… पर शादी—शादी तो दोस्ती से बड़ी बात है। क्या वो सचमुच आरजू के लिए सही होगा?”
राधा (संजीदगी से): “सही-गलत का फैसला जल्दबाज़ी में मत करिए। कल देखेंगे—उसकी बात, उसका बर्ताव, सब। और सबसे बड़ी बात—आरजू क्या कहती है।”
शौर्य ने तस्वीर अलमारी में रख दी—जैसे स्मृतियाँ लौटा दी हों—और सिर हिलाया—“कल।”
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आँगन में झाड़ू की सरसराहट, रसोई में छौंक की खटर-पटर, और तुलसी पर धूप की पहली बूँद। घर जैसे एक साथ जाग गया।
रंजना जी कमान संभाले हुई थीं—किसी सेनापति-सी फुर्ती और फुर्सत के बिना।
रंजना (निर्देश देते हुए): “शालू, मेहमान कक्ष की चादर सीधी कर—कढ़ाई वाली! हर्ष, बाजार से ताज़ा समोसे और कचौरी ले आना—गरम-गरम होने चाहिए। राधा, लस्सी ठंडी कर—मीठी कम रखना, इंदौर में सबको मीठा ज़्यादा पसंद है, पर ज्यादा नहीं! और हाँ—नाश्ते की प्लेटें—स्टील वाली चमकती हुई चाहिए।”
लता जी (हल्की मुस्कान से): “और बहू, आराम भी कर लो ज़रा—नहीं तो मेहमान आने तक तुम थक जाओगी।”
रंजना (आँख दबाकर): “अरे माजी, आज आराम कैसा! आज तो मेरी—मतलब हमारी—बिटिया का दिन है। अलमारी तो डबल डबल रिश्ता हो जाएगा।”
शालू भागती-भागती आई।
शालू: “माँ , हॉल में पर्दों की गाँठ खुल गई थी—मैंने लगा दी है।”
रंजना: “शाबाश! अब जरा आरजू को कहना—तैयार हो जाए। और हाँ—जो मैंने अलग से साड़ी रखी है—वही पहनना है उसे।”
शालू ने ‘ठीक है’ में सिर हिलाया—पर उसके चेहरे की शरारती चिंता ने संकेत दिया—वह किसी की अपनी योजना भी बना रही है।
रसोई में भाप से शीशे धुंधले हो रहे थे—कढ़ी उबलते-उबलते उफनने को थी, राधा ने सधी उँगलियों से आँच कम की। हर्ष ने किचन की चौखट से झाँककर कहा—
हर्ष: “राधा, कुछ मदद—?”
राधा (हँसकर): “आप चाय उबाल दीजिए—और हाँ, आज मीठा ज़रा कम।”
हर्ष: “मैं कोशिश करूँगा—पर मीठी बातें ज़रूर करूँगा!”
राधा मुस्करा दी—तनाव के बीच यह छोटी-सी हँसी घर में राहत की हवा-सी फैल गई।
रंजना अपने कमरे में गईं। अलमारी खोली—ऊपरी खाने में रखी ‘सबसे अच्छी’ साड़ी—पीले में हल्का सुनहरा काम, किनारी पर महीन ज़री। उन्होंने साड़ी को हथेलियों पर फैला कर देखा—जैसे एक सपना तौला हो।
वह साड़ी लेकर सीधी आरजू के कमरे में पहुँचीं। दरवाज़े पर दस्तक—फिर बिना इंतज़ार किए भीतर।
आरजू आईने के सामने खड़ी बाल गूँथ रही थी। उसकी आँखों में नींद नहीं—सिर्फ रात की बेचैनी की थकान।
रंजना (नरमी ओढ़े हुए): “बेटी, ये साड़ी पहन लो। आज तुम्हें बहुत अच्छा लगना चाहिए।”
आरजू ने साड़ी थामी—उँगलियाँ किनारी की ज़री में उलझीं—जैसे मन उलझा हो।
रंजना (धीमे, पर सधे स्वर में): “देखो, मैं चाहती हूँ ये रिश्ता हो जाए। नमन बहुत अच्छा लड़का है—सीधा-सादा, पढ़ा-लिखा, घर-परिवार अच्छा। मेरी खुशी के लिए… तुम ‘हाँ’ कह देना।”
शब्द सरल थे—पर उनका भार आरजू के कंधों पर बैठ गया।
आरजू (धीरे): “मामी… मेरी एक बात—”
रंजना (तुरंत, बात काटते हुए): “मुझे पता है, तुम कहोगी—‘मेरी राय… मेरी मर्ज़ी…’ पर बेटी, हर बात में अपनी मर्ज़ी नहीं चलती। बड़े-बुज़ुर्ग जो तय करें, वही भला। और वैसे भी… (एक सेकंड रुककर) हर जगह लोग तुम्हें ही पसंद करने लगते हैं—तुम समझदार हो, सलीकेदार हो—तो इसमें तुम्हारी क्या गलती! पर घर की शांति के लिए… जो सही हो, वही करना चाहिए।”
वाक्य की आखिरी लाइन में अनकहा संकेत था—श्रावणी की तरफ देखा है न?
आरजू की पलकें झुकीं। उसने साड़ी को गोद में सहेजा। आवाज़ थरथराई—पर नम्र रही।
आरजू: “आप जैसे कहेंगी, मैं वैसा ही करूँगी।”
रंजना ने उसके सिर पर हाथ फेरा—और मुस्कराकर बाहर चली गईं। उनके जाते ही कमरे की हवा भारी हो गई—जैसे किसी ने भीतर का ऑक्सीजन खींच लिया हो।
शालू फुसफुसा कर अंदर आई—दोनों हथेलियों में कोई छोटा-सा कागज़।
शालू (धीमे): “आरजू, ये—मैंने अर्जुन जी का नंबर विवेक जी से… मतलब… (घबराकर) मैं बस… अगर—”
आरजू (हल्की डाँट, पर प्यार से): “शालू! ये ठीक नहीं है।”
शालू: “ठीक क्या नहीं है? सच ठीक है। दीदी, एक बार बात कर लो… एक बार पूछ लो—वरना बाद में…”
खामोशी। कागज़ की मुँदी सीढ़ी-सी मोड़ी पर्ची—आरजू की हथेली पर धर-सी गई—और शालू भाग गई।
आरजू ने पर्ची देखी—उल्टी-सीधी लिखावट में अंक। उसने पर्ची मोड़कर अपनी दुपट्टे की अंदरूनी किनारी में टाँक-सा दिया—“कहीं नहीं।”
नाश्ते की मेज़ पर आने से पहले, लता जी और रामप्रसाद जी ने एक-दूसरे की ओर देखा—अधूरी-सी सहमति।
रामप्रसाद: “लता, मैं आरती ओर जवाई जी को फोन कर देता हूँ। जो होगा, सामने होगा।”
लता जी ने सिर हिलाया—“कर दीजिए।”
फोन लगा। कुछ औपचारिकताओं के बाद… आवाज़ के दूसरी तरफ सकुचाहट थी—पर स्वीकृति भी कि हमारा आना तो नहीं हो पाएगा अब देख लीजिए ।
रामप्रसाद (नरमी से): “आज नहीं तो कल—अभी तो आने वाले लड़के वाले हैं। तुम कल सुबह तक आ जाओ—बस।”
फोन रखकर उन्होंने लता की तरफ देखा—“जो होना है, सामने होकर ही सही।”
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उधर, वैभव जी ने नमन को हॉल में बुलाया। मेज़ पर सूखे मेवे की थाली और एक शॉल—जो आमतौर पर ‘किसी की सराहना’ में दिया जाता था।
वैभव जी: “तैयार रहना। सुबह के बाद चलेंगे—दोपहर तक वहाँ पहुँचना है।”
नमन (थका-सा ‘हाँ’): “जी।”
आराधना (धीरे): “देखना बेटा—सिर्फ देखने जाना है। तय करने की जल्दी नहीं।”
नमन ने उनकी तरफ देखा—माँ की आँखों में एक तसल्ली देने वाली रोशनी थी। उसने बस ‘ठीक है’ कहा और कमरे में चला गया।
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सुबह
घर का मुख्य दरवाज़ा साफ़—उसके ऊपर आम के पत्तों की बंदनवार ताज़ा। शौर्य ने घंटी की चेन ठीक की—राधा ने आरती की थाली सजा दी—रोली, चावल, फूल और हल्का-सा इत्र।
राधा: “जब वे आएँ—पहले माँ आरती कर लेंगी। बहुत सालों बाद मां के भाई घर आ रहे हैं। फिर आप पानी और शर्बत।”
शौर्य: “ यह क्या होता है मां के भाई तुम्हारा भी तो मामा ससुर है । ( मजाक करते हुए ) और कहाँ बैठाना—ये तय है? मां के हिसाब से ही सब करेंगे हैं ना माँ....अपनी मां को चढ़ाते हुए ”
राधा: “हाँ—बैठक में दाईं तरफ पुरुष, बाईं तरफ महिलाएँ। बीच में सेंटर टेबल पर नाश्ता। और हाँ—आरजू को अभी किचन में ही रहने देना—पहले औपचारिक बातें हो लें।”
यह आखिरी लाइन राधा ने रंजना की तरफ देखकर कही—जैसे ‘आपका नियम’ पुनः उच्चारित कर रही हो।
रंजना (संतोष से): “ठीक।”
( 10 साल बाद रंजन जी के भाई आ रहे थे उनके घर और साथ में आरजू के लिए रिश्ता भी था तो मैं वेलकम तो डबल होनी ही था )
हर्ष ने घड़ी देखी—“ग्यारह चालीस।”
लता जी (भगवान का नाम लेते): “अब जो भी हो—अच्छा हो।”
आरजू ने पीली साड़ी पहनी। वह साड़ी उसकी रंगत पर जैसे सूरज-सा उतर आई। उसने हल्का-सा काजल लगाया, बिंदी बहुत छोटी—जैसे बस ‘है’ कह देने भर। बालों की चोटी में सफ़ेद फूलों का छोटा-सा गजरा।
आईने में खुद को देखा—और देखती रह गई। उसे खुद से पूछना था—कौन हो तुम? वह जो सबके कहने से जीती है—या वह, जिसे अपने सपनों की धुन सुनाई देती है?
हथेली अनायास दुपट्टे के अंदर चली गई—वही मोड़ी पर्ची उँगलियों से टकराई—दिल की धक-धक फिर तेज़।
दरवाज़े पर दस्तक—शालू की फुसफुसाहट—“आरजू , आ गए… गाड़ियाँ।”
आरजू ने पलकें बंद कीं—एक लंबी साँस—और ‘हाँ’ में सिर हिला दिया।
गाड़ियाँ आँगन के बाहर आकर रुकीं। हॉर्न नहीं—बस धीमे ब्रेक की चरमराहट। फाटक खुला—शौर्य ने आगे बढ़कर अभिवादन किया।
पहली गाड़ी से वैभव जी उतरे—साफ़ सुथरा कुर्ता-पायजामा, कंधे पर हल्का शॉल। उनके पीछे आराधना—हल्के नीले रंग की साड़ी, मुँह पर नम्र मुस्कान। तीसरे नंबर पर नमन—सादा शर्ट-पैंट, घड़ी पर एक नज़र, फिर घर की देहरी पर ठहरकर कदम।
शौर्य (मुस्कराते): “ जय श्री कृष्णा प्रणाम मामाजी मामी जी कैसे हैं आप लोग?—आइए, आइए।”
वैभव :- " तो मजे में है भांजे तुम सुनाओ क्या हाल-चाल है बहुत सालों बाद दिखा तुम्हें तुम तो आजकल मामा के घर आना ही बंद कर दिए "
शौर्य( मुस्कुराते हुए) :- मामा जी ऐसी कोई बात नहीं है बस काम धंधे में ऐसे उलझ गए चलिए अंदर चलते मन बहुत देर से आपकी राह दिख रही है।
अंदर दहलीज़ पर हर्षता जी ( छोटी मामी) खड़ी थीं—आरती की थाली रंजना जी कोई थमा दी। रंजन जी ने आरती उतारी—माथे पर रोली का टीका, चावल—और फिर—“आइए, ( अपने भाई के गले लगा कर ) बहुत सालों बाद आए भैया आप कैसे हो? ”
बैठक सजा-सँवरा—कुशन बराबर, सेंटर टेबल पर नाश्ते की सजी प्लेटें।
रंजना जी ने आगे बढ़कर आराधना से गले लगकर ओढ़नी पकड़ ली—“जय श्री कृष्ण भाभी , आइए… बहुत दिन बाद—”
आराधना (नम्रता से): “जी, जय श्री कृष्णा —आपका घर बहुत सजीला है। दीदी नहीं बदला बिल्कुल वैसा ही है जब मैं पहली बार देख कर आ थी।”
वैभव जी (रामप्रसाद जी से): “नमस्ते, बाबूजी जी। बहुत-बहुत आभार—आपने बुलाया।”
रामप्रसाद: “आपका स्वागत है—आइए, बैठिए।”
सब बैठे।
लता नानी जी —कैसे हैं? रास्ता ठीक रहा?
अनुराधा:- जी सब ठीक हैं । इंदौर की बारिश कैसी रही?
—फिर शरबत आया।
नमन की आँखें कमरे में इधर-उधर घूमीं—पर ‘उस’ चेहरे की तलाश ज़ाहिर नहीं थी—या शायद ज़ाहिर थी और वह छुपा रहा था क्या उसे चेहरे की तलाशी थी?।
रंजना: “आरजू—अंदर से चाय लेकर आओ, बेटा।”
कमरे में एक क्षण के लिए किसी अदृश्य घड़ी की टिक-टिक सुनाई दी—
फिर रसोई की तरफ से बर्तनों की खनक।
राधा और शालू ट्रे में कप सजा रही थीं। शालू ने ग़ौर से दीदी को देखा—पीली साड़ी—चेहरे पर संयम की चिकनी परत—और आँखों में हल्की कंपकंपाहट।
शालू (धीमे): “आरजू , कप सँभाल लीजिए।”
आरजू ने ट्रे थामी। हाथों की नसों में थिरकन तेज़ हुई। उसने खुद को सँभाला—और कदम उठाए।
बैठक में पहुँचते ही उसके पाँव देहलीज़ पर मानो ठिठक गए—नज़र अनायास सबसे पहले ‘उन’ पर पड़ी—नमन। फिर पल भर को वह ‘न’ पर अटकी—और फिर ‘मन’ पर जाकर ठहर गई—ये वही है, जिसके लिए बात चल रही है।
नमन ने भी नजर उठाई—बस एक पल—फिर शरबत की ग्लास पर नज़र फेर ली—जैसे अपने चेहरे की घबड़ाहट छुपाना चाहता हो कुछ ऐसा जो अपने चेहरे से चाहे नहीं करना चाहता हो ।
रंजना (मुस्कराकर): “ये हमारी—बिटिया। प्रणाम करो सबको।”
आरजू (दोनों हाथ जोड़कर): “जय श्री कृष्णा।”
आवाज़ धीमी—पर साफ़—और उसमें एक मर्यादा की ध्वनि थी, जो कमरे की सांगोपांग औपचारिकताओं से ऊपर थी।
आराधना (पुचकार): “जीती रहो, बेटा। बहुत सुंदर लग रही हो।”
वैभव जी (हौले से): “भगवान भला करे।”
आरजू ने ट्रे से कप बढ़ाए। हाथ काँपे—कप की चीनी-चीनी खनक से सभी ने नजर उठाई—पर उसने तुरंत सँभाल लिया।
रामप्रसाद (मुस्कराकर): “पहली बार है न, बच्ची? घबराओ मत। ये सब तो… (आँखें मींचकर) रस्में हैं।”
नमन ने कप थामते हुए भरसक शिष्टाचार दिखाया—“थैंक—जी।” वह ‘यू’ तक जाते-जाते रुक गया—फिर ‘जी’ पर मुस्करा दिया।
रंजना की आँखें चमकीं—जैसे scoreboard पर पहला रन आ गया हो।
नाश्ता परोसा गया—कचोरी के साथ धनिए की चटनी, समोसे के साथ मीठी-खट्टी इमली। राधा ने प्लेट आगे की।
आराधना (सच्ची मुस्कान): “इंदौर की कचोरी—वाह! आपकी रसोई का हाथ साफ़ है।”
राधा (नम्र): “धन्यवाद।”
वैभव जी (हल्के हँसकर): “हमारे यहाँ तो कचोरी से ज़्यादा बहस होती है—मीठा ज्यादा या कम!”
लता: “यहाँ भी वही हाल है, बेटा।”
हँसी की एक पतली लकीर कमरे में फैल गई—तनाव का जाला थोड़ा ढीला हुआ।
रामप्रसाद ने औपचारिक वार्ता का धागा उठाया—
रामप्रसाद: “नमन बेटा, काम क्या करते हो?”
नमन (सीधा): “आईटी में हूँ, अंकल—प्रोडक्ट टीम में। हाल ही में एक प्रोजेक्ट लीड किया था।”
आकाश: “बहुत बढ़िया। अंजना बेटी नहीं आई?”
वैभव जी: “ नहीं बाबूजी —अंजना— कॉलेज के ट्रिप की तरफ से घूमने के लिए कश्मीर गई हुई है।”
रंजना ने यह नज़र बदली पकड़ ली—और पलकें झपकाकर मुस्कान के पीछे बहुत कुछ दबा दिया।
आरजू ट्रे लेकर किचन में लौटी। शालू ने आँखों से पूछा—क्या?
आरजू ने बस ‘ठीक’ कहा—पर आवाज़ ‘ठीक’ नहीं थी। उसने दीवार की तरफ पीठ टिका ली—दुपट्टे की किनारी के अंदर वही मोड़ी पर्ची उँगलियों में महसूस हुई।
शालू (बहुत धीरे): “आरजू , एक बार… एक मेसेज ही सही—”
आरजू (धीरे, पर तय): “नहीं, शालू। अभी नहीं।”
शालू (फुसफुसाकर): “फिर कब?”
उत्तर नहीं आया—बस साँसों का एक लंबा, धीमा पुल जिसे पार करने जितनी ही हिम्मत चाहिए थी।
बैठक में औपचारिक बातों ने जब थोड़ा-सा अपनापा ओढ़ लिया, वैभव जी ने सहज होकर कहा—
वैभव जी: “अगर आप सब ठीक समझें… तो नमन और… (नज़र आरजू की तरफ) बिटिया—दो मिनट आँगन में बात कर लें? सिर्फ औपचारिक पहचान… ताकि बच्चों की राय भी साथ हो।”
कमरे की हवा फिर से भारी—फिर हल्की। नजरें रंजना पर—फिर रामप्रसाद पर—फिर लता पर।
रामप्रसाद (संतुलित): “बिल्कुल। दो लोग—दो मिनट—अपने मन की बात कह-समझ लें—उतना तो हक़ बनता है।”
रंजना (एकदम से उजली मुस्कान): “हाँ, हाँ—क्यों नहीं!”
उसने शालू को आँखों से इशारा किया—“बाहर बरामदे की कुर्सियाँ—फूलों के पास—दो रख दे।” शालू ने ‘जी’ कहा—पर उसकी आँखों में एक अलग शरारत थी—जैसे वह जासूसी उपन्यास की नायिका हो।
रंजना (आरजू से, मीठे सख़्ती में): “बेटी, बाहर आ जाओ। और—सीधी-सीधी बात करना—ज़्यादा भी न कहना, कम भी नहीं।”
‘सीधी-सीधी’ में ‘मेरी-मेरी’ छुपा था—हर किसी ने समझ लिया—पर किसी ने कहा नहीं।
बरामदा
बरामदे में नीम की छाया, सामने गमलों में गेंदा, जूही, रजनीगंधा। हवा में हल्की खुशबू। दो कुर्सियाँ—एक-दूसरे की ओर आधी मुड़ी हुईं।
नमन पहले आया—जेब में हाथ डालकर बाहर निकाल लिए—फिर वापस डाल दिए—फिर मुस्करा दिया—जैसे खुद से भी परिचय हो रहा हो।
आरजू आकर बैठी—कमर थोड़ी सीधी, नजर नीचे—फिर ऊपर—फिर हल्की।
नमन (औपचारिक मुस्कान): “हाय—मतलब—जय श्री कृष्णा । मैं… नमन।”
आरजू (हल्की मुस्कान): “जय श्री कृष्णा मैं—आरजू।”
दोनोँ के बीच एक पतली-सी हवा चली—क्या कहें? कितना कहें?
नमन: “मैं… सच बोलूँ? मुझे नहीं पता कि ऐसे—इस तरह—क्या बात करनी चाहिए। पर… (कंधे उचकाकर) मैं शादी को… मतलब… बहुत… गंभीर चीज़ मानता हूँ। इसलिए… जल्दी में—”
वह वाक्य अधूरा छोड़ बैठा—जैसे डर गया कि सामने वाला क्या सोचेगा।
आरजू (धीरे, साफ़): “आप… जो सोचते हैं—कह दीजिए। मैं समझने की कोशिश करूँगी।”
नमन (राहत की साँस, फिर ईमानदारी): “मुझे अभी—अभी का मतलब, अभी—शादी का दबाव ठीक नहीं लगता। जॉब का एक बड़ा प्रोजेक्ट चल रहा है—और… (रुककर) मैं किसी को जाने बिना कोई वादा… नहीं करना चाहता। तुम तो मुझे अभी 4 महीने के लिए तो कोई भी जाना है अपने प्रोजेक्ट के लिए और इस समय मैं अपने रिश्तों को नहीं दे पाऊंगा।”
शब्द जैसे घर के अंदर बैठे कई चेहरों तक पहुँचे—हालाँकि वे वहाँ नहीं थे—पर सुन रहे थे।
आरजू (ध्यान से): “मैं समझ सकती हूँ। और… (थोड़ा हिचककर) मैं भी किसी को जाने—बिना—”
वाक्य यहीं रुक गया। उसकी पलकों पर एक छोटी-सी काँपती बूँद आकर ठहर गई—जो गिरी नहीं।
दूर से शालू ने परदे की ओट से झाँका—और खुद से बोली—“ये दोनों ईमानदार हैं। बस जिगर चाहिए—बोलने का।”
नमन (बहुत धीरे): “आप… क्या चाहती हैं?”
ये वह सवाल था जो पिछले कई दिनों से कमरे-से-कमरें, चेहरों-से-चेहरों टकराकर वापस लौट रहा था—अब सीधा वहीं आकर खड़ा था जहाँ होना चाहिए—उस से—उसके सामने।
आरजू ने साँस-सी गहरी साँस ली। हथेलियाँ दुपट्टे पर टिकीं। और वह पर्ची—जो अंदर छिपी थी—अब जैसे दिल की धड़कन के साथ कदमताल कर रही थी।
आरजू (धीरे, स्पष्ट): “मैं… बस इतना चाहती हूँ कि जो फैसला हो—वह मेरे मन के साथ हो। और आपके भी।”
नमन ने सिर हिलाया—और उसी क्षण उसे लगा—यह लड़की हाँ या ना का खेल नहीं, सच की भाषा समझती है।
नमन: “अगर… घरवालों के बीच… समय माँगा जाए? ताकि हम—थोड़ा—जान सकें एक-दूसरे को?”
आरजू ने सीधे उसकी आँखों में देखा—और पहली बार उसे यह सहज लगा—कि वह किसी से छिप नहीं रही।
आरजू: “समय… ठीक शब्द है।”
दोनों की मुस्कानें बेहद छोटी थीं—पर सच्ची।
बरामदे से लौटकर दोनों फिर बैठक के दरवाज़े पर ठहरे। अंदर की दुनिया—जहाँ बड़े-बुज़ुर्ग बैठे थे, और फैसले जैसे चाय की तरह कपों में ढलकर मेज़ पर रखे जाते हैं।
वैभव जी (उत्सुक, पर संतुलित): “बच्चे? कुछ… बात हुई?”
नमन ने एक नजर आरजू की तरफ देखा—फिर बोला—
नमन: “जी—हमारी राय है… कि थोड़ा समय—”
रंजना (बीच में, मिठास में खिंचाव): “समय…? पर यहाँ सब—”
रामप्रसाद (शांत, दृढ़): “समय—बिल्कुल ठीक बात है। जल्दबाज़ी में किया गया फैसला—अच्छा नहीं होता। (लता की ओर) है न?”
रंजना :-. ( बस किसी भी तरीके से हां करवाना था) बाबूजी समय का क्या है अब विवेक जी और शालू का रिश्ता भी तो ऐसे ही हुआ कि आजकल के बच्चे मुझे कुछ समझ आते नहीं।
लता (संतोष से): “हाँ—बच्चों की इच्छा—पहले।”
रंजना के चेहरे पर पल-भर के लिए एक छाया दौड़ी—पर उसने फौरन मुस्कान से ढँक दी।
आराधना (कोमलता से): “हमारे लिए भी यही अच्छा है। बच्चा—और बिटिया—दोनों सहज रहें—फिर आगे की बात।”
नमन अगले हफ्ते आने बाला हैं इंदौर । उसके पासपोर्ट के लिए तब दोनों बच्चे एक बार फिर मिलेंगे उसके बाद हम डिसाइड कर लेंगे क्या करना है सब क्या कहते हैं?
रंजन जी ( खुश होते हुए ) बिल्कुल भाभी अगले हफ्ते नमन जब तुम आओगे हमें फोन कर देना और तुम लोग मिल लेना या घर ही आ जाना जैसा तुम्हें ठीक लगे।
आकाश (संतुलित): “तो… अगला कदम—बच्चे कुछ दिन में फिर मिल लें—परिवार मौजूद हो—और फिर… तय कर लेंगे।”
हर्ष ने भीतर कहीं ‘वाह’ कहा—पर ज़ाहिर नहीं होने दिया। राधा ने रसोई की ओर देखकर शालू को आँखों से संकेत दिया—सब ठीक?
शालू ने लगभग नाचती हुई भंगिमा में ‘थम्ब्स-अप’ दिखाया किसी को नज़र न आए—पर उसे लगा, नीम के पत्ते भी तालियाँ बजा रहे हैं।
मेहमान उठने लगे—“अब चलें”—“फिर मिलेंगे”—“बहुत अच्छा लगा”—व हवा में मुस्कानों के साथ तैरते रहे। दहलीज़ पर लता जी ने आरती की थाली फिर उठाई—बिदाई-सी नहीं, फिर मिलने की रीति-सी।
नमन बाहर गाड़ी तक आया। एक पल के लिए उसने पीछे मुड़कर देखा—बरामदे के पास आरजू खड़ी थी—पीली साड़ी, हाथ में दुपट्टे की किनारी, और आँखों में वह शांति जो अभी-अभी बहुत शोर झेलकर आती है।
नमन ने हल्की-सी सराहना में आँखें झुका दीं—और बिना कुछ बोले गाड़ी में बैठ गया। गाड़ियाँ निकलीं—धूल नहीं उड़ी—बस एक हल्की-सी हवा उठी, जो भीतर तक आई और हर कमरे का तापमान थोड़ा-सा बदल गई।
अंदर, बैठक में, दादा-दादी और सबके चेहरे पर अलग-अलग भाव थे—राहत, चिंता, उम्मीद।
रंजना अपने कमरे में गईं—अलमारी का दरवाज़ा खोला—और वही पीली साड़ी का खाली हैंगर देखा—एक पल के लिए उन्हें लगा—खाली हैंगर और खाली योजना—दोनों साथ खनक उठे। उन्होंने हैंगर टेढ़ा किया—और फिर सीधा।
इधर, आरजू अपने कमरे में पहुँची। उसने साड़ी की किनारी से वह कागज़ निकाला—अंकों का छोटा-सा टापू—और उसे मेज़ पर रख दिया।
फोन उठाया—स्क्रीन जगी—उसकी उँगली कॉन्टैक्ट्स तक गई—फिर रुक गई—फिर पीछे लौटी—नोट्स खोले—एक लाइन लिखी—
“सच बोलना—डरना नहीं।”
आसमान में बादल हट रहे थे। नीम के पत्तों के बीच से धूप की पतली रौशनी कमरे में आई—बिल्कुल उतनी—जितनी किसी को अपने मन की राह दिखाने
सुबह का सूरज हल्की सुनहरी रौशनी में फैला था। रविवार का दिन था, पर अर्जुन के लिए रविवार कभी रविवार जैसा नहीं होता था। हर दिन उसके लिए एक-सा—मरीज, हॉस्पिटल, चेकअप, ऑपरेशन, फिर वही थका देने वाला रूटीन। लेकिन आज जाने क्यों उसके भीतर अजीब-सी बेचैनी थी।
अर्जुन अपने कमरे में टहल रहा था। अलमारी के शीशे में खुद को देखा तो ठंडी सांस खींच ली।
“अरे डॉक्टर साहब,” उसने खुद से कहा, “इतने बड़े-बड़े ऑपरेशन कर लेते हो, पर दिल के मामले में हाथ कांपते हैं?”
नीचे से उसकी माँ की आवाज़ आई—
“अर्जुन, आज छुट्टी का दिन है… थोड़ा आराम कर लो बेटा।”
“हाँ माँ…” उसने धीरे से जवाब दिया, मगर खुद जानता था कि चैन से बैठना उसके बस की बात नहीं। उसके दिल के किसी कोने में कुछ मुलाक़ात की बातें गूंज रही थीं। विवेक का रिश्ता, घर वालों की उम्मीदें, और फिर अचानक आई उस लड़की की छवि… एक नाम , बस एक अहसास।
थोड़ी देर बाद अर्जुन ने कार निकाली और सीधा झील की ओर चला गया।
वहाँ पहले से विवेक इंतज़ार कर रहा था।
विवेक ने हँसते हुए कहा—
“वाह डॉक्टर साहब, आज तो आप भी फुर्सत के मारे हो। कहीं कोई सर्जरी तो नहीं मिस कर दी?”
अर्जुन हल्का मुस्कुराया—
“तुम्हें देखकर लगता है कि मैं ही अकेला परेशान हूँ। तू तो मस्त बैठा है, और मैं यहाँ…।”
“क्यों? कल की मीटिंग का असर अब तक है?” विवेक ने आंख दबाते हुए कहा।
अर्जुन चुप रहा। झील का पानी हल्की लहरों से चमक रहा था। उसने पत्थर उठाकर पानी में फेंका।
“विवेक… क्या कभी तुझे लगा है कि दिल कुछ और मंजिल कुछ …?”
विवेक हँस पड़ा—
“ये सवाल मुझसे मत पूछ, अर्जुन। तू तो ‘आदर्श इंसान’ टाइप है। सबको खुश रखना ही तेरे जीने का मकसद है।( थोड़ा नाराज होते हुए)”
“नहीं…” अर्जुन ने गंभीरता से कहा, “कभी-कभी लगता है कि मैं बस एक डॉक्टर नहीं, एक इंसान भी हूँ। मेरे भी कुछ ख्वाब हैं, कुछ चाहतें हैं…”
विवेक ने पहली बार उसे गौर से देखा।
“तो रोक कौन रहा है तुझे? मान ले ना..... की आरजू को तेरे दिल्ली ने पसंद कर लिया है ”
अर्जुन ठिठक गया। वह खुद भी इस सवाल का जवाब नहीं जानता था। एक छवि, मासूम-सी मुस्कान उसके मन में, पर नाम, पहचान—कुछ नहीं बोल सकता था।उसका उसे अधिकार ही नहीं था।
विवेक ने हल्के से उसकी पीठ थपथपाई—
“चल, छोड़। ये सब सोच-सोचकर पागल मत बन। जो लिखा है नसीब में, वो होकर रहेगा।”
इंदौर का घर – लड़के वालों का दिन
उधर इंदौर में रंजना जी के घर माहौल अलग ही था। सुबह से ही हलचल थी। बरतन खनक रहे थे, बैठक सजाई जा रही थी, और रसोई में पकवानों की खुशबू फैल रही थी।
रंजना जी बार-बार आवाज़ लगातीं—
“श्रावणी! ज़रा जल्दी करो। ये साड़ी पहन लो, हाँ यही वाली। और बाल अच्छे से बना लो।”
श्रावणी सकुचाई-सी खड़ी थी।
“माँ… ये सब मुझे अच्छा नहीं लगता। इतने लोगों के सामने आना…”
“अरे पगली,” माँ ने समझाया, “लड़के वाले आ रहे हैं। पहली छाप ही सबसे बड़ी होती है।”
शालू चुपचाप पास खड़ी देख रही थी। उसे माँ की बेचैनी समझ आ रही थी, पर दिल कहीं और अटका था। उसे लग रहा था कि माँ जानबूझकर आरजू को पीछे कर रही हैं।
उधर आरजू अपने कमरे में बैठी थी। हाथ में किताब खोली, पर पन्ने धुंधले हो रहे थे। दिल तेजी से धड़क रहा था। उसे इस मुलाक़ात से कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए था, पर पता नहीं क्यों बेचैनी उसे भी घेर रही थी। समझ में नहीं आ रहा था वह क्या करें नमन अर्जुन मामी सब में फस गई थी
वह सोच में डूब हुई थी की के कमरे में रंजन जी आई
रंजन जी :- ( बहुत प्यार से दिखावे का प्यार ) " अर्जुन मुझे नमन बहुत पसंद है बहुत अच्छा लड़का है और तेरे लिए सही रहेगा मुझे लगता है तुझे हां कर देना चाहिए समय का क्या है एक मुलाकात तो तुम्हारी रविवार को होगी है और मुझे लगता है उसमें तुम्हारी हां ही होगी" ( उस के कंधे पर थोड़ा सा दबाव बनाते हुए)
शालू ने सब देखा।( आरजू के कमरे के दरवाजे पर खड़ी थी) उसने सोचा—
“माँ हमेशा आरजू को दबाने की कोशिश करती हैं, पर ये सब ज़्यादा दिन नहीं चलेगा। सच सामने आएगा। आरजू अपने दिल की ही करेगी और मैं उससे करवा कर रहूंगी आखिर छोटी बहन है मेरी।”
शालू में कुछ सोचा और बच्चे को फोन लगाया
शालू :- हेलो विवेक जी
विवेक :- ( झील में अर्जुन के पास ही बैठा था शालू का फोन देखकर थोड़ा सा चौक गया आज का रिश्ता पक्का तो नहीं हो क्या और हड़बड़ा के उसने फोन उठाया ) हेलो !शालू कैसी हो?
शालू :- मैं ठीक हूं आप कैसे हैं? आज तो आपको अस्पताल से छुट्टी होगी?
विवेक:- हां मैं ठीक हूं आपसे दिल से छुट्टी है मैं यहां अर्जुन के साथ दिल पर बैठा हूं तुम बताओ कैसा रहा दिन।
शालू :- सब ठीक था नमन और आरजू के रिश्ते की बात को एक हफ्ते तक के लिए होल्ड पर है।
विवेक :-( आश्चर्यचकित होकर ) :- मतलब मैं कुछ समझ नहीं।
शालू :- आज जो कुछ भी हुआ वह सभी को बता देती है।
विवेक :- ( खुश होकर) चलो बहुत अच्छी बात है। मैं अर्जुन से बात करता हूं।उसको सब बताता हूं और देखते हैं आगे क्या करना है।
उधर झील के किनारे अर्जुन अब भी अकेला बैठा था। (क्योंकि विवेक बात करते हुए थोड़ा सा अर्जुन से दूर आ गया था)
सूरज ढल चुका था। उसने खुद से बुदबुदाया—
“पता आरजू … लेकिन लगता है कि तुम मेरी तलाश हो जो शयद ही पूरी होगी।”
विवेक:-( खुश होकर ) अर्जुन को सारी बात बताता है कि नमन और आरजू का रिश्ता एक हफ्ते होल्ड पर है।
अर्जुन :- ( शांति से) खुश होने वाली बात क्या है विवेक। जो आज नहीं हुआ वह कल होगा या एक हफ्ते बाद होगा होगा तो सही।
विवेक:- अर्जुन मेरे मन में एक बात आई है मैं दादा जी से बात करता हूं और उनसे बोलता हूं कि वह तेरा रिश्ता आरजू के लिए भेजें। जरूरी नहीं की लव मैरिज हम लव को अरेंज बना देंगे। क्या कहते हो?
अर्जुन ( आंखें बड़ी करके उसको देखा है) तुम पागल हो गए हो क्या क्या बात कर रहे हो।
विवेक :- मैं सही बोल रहा हूं अर्जुन मेरी बात को समझ।
अर्जुन :- कुछ समझ नहीं आ रहा है क्या बोलूं तुझे।
विवेक:- तू कुछ मत बोल हम जो करना है मैं करूंगा।
अब देखना है आगे क्या होता है
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