वो एक रात थी।बस एक रात।ना कोई नाम पूछा गया,ना कोई वादा किया गया।दो अजनबी... एक शहर, एक कमरा, एक पल।वो चली गई।जैसे आई थी ...ख़ामोशी से, बिना निशान छोड़े।पर कुछ था जो पीछे रह गया।एक खुशबू... एक छुअन... एक नज़र।और फिर शुरू हुई विहान की जिद्।उसे ढूँढने क... वो एक रात थी।बस एक रात।ना कोई नाम पूछा गया,ना कोई वादा किया गया।दो अजनबी... एक शहर, एक कमरा, एक पल।वो चली गई।जैसे आई थी ...ख़ामोशी से, बिना निशान छोड़े।पर कुछ था जो पीछे रह गया।एक खुशबू... एक छुअन... एक नज़र।और फिर शुरू हुई विहान की जिद्।उसे ढूँढने की। ना मोहब्बत कह सका, ना दीवानगी। ये एक जिद् थी... उसकी आँखों में छिपे उस खालीपन को समझने की। उस मुस्कान के पीछे के सन्नाटे को छूने की। उस औरत को, जो जैसे हवा थी...पास आकर भी छूई नहीं जा सकती थी। उसने खुद को खो दिया... रास्तों में, सवालों में, चेहरों में। पर वो नहीं मिली। क्यों? क्या वो कभी थी ही नहीं? या क्या वो चाहती थी कि विहान उसे ढूँढता रहे? कभी-कभी एक रात की मुलाकात, पूरी ज़िंदगी की कहानी बन जाती है। ये कहानी उसी एक रात से शुरू होती है... और शायद कभी खत्म नहीं होती।
विहान मेहरा
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कमरे की नर्म रौशनी अब और भी धुंधली हो चली थी। उसके बदन की ऊष्मा, उसकी त्वचा की सतह पर महसूस हो रही थी — गर्म, जीवित, सचमुच मौजूद। उसकी उंगलियाँ अब उसकी पीठ से नीचे की ओर खिसकती जा रही थीं, हर एक इंच पर ठहरती हुई, जैसे शरीर की ज़ुबान को पढ़ रही हों।
उसके शरीर में एक सिहरन दौड़ गई — हल्की, मगर थरथराती हुई। उसकी साँसें अब पहले से भारी हो चुकी थीं, और वो हर साँस के साथ उसके सीने से और ज़्यादा चिपकती चली गई। उनकी त्वचाएँ एक-दूसरे में लिपटी थीं, कहीं पर पसीने की महीन परत, कहीं पर त्वचा की कोमल गहराई।
उसके होंठ, अब गर्दन की रेखा से नीचे उतरते जा रहे थे — कंधे के जोड़ पर रुकते, वहाँ की गर्माहट को चूमते, फिर आगे बढ़ते। हर जगह जहाँ वो रुकता, वहाँ त्वचा में एक गहरा कम्पन भर जाता। उसके हाथ अब उसकी कमर से होकर उसकी जाँघों तक पहुँचे थे, उसकी पकड़ में एक संयमित ज़ोर था — जैसे वो जानता हो कितना और कहाँ छूना है।
बिस्तर की चादरें उनके नीचे सिलवटों में बँध गई थीं, कुछ निशान उनके शरीरों से, कुछ उनकी हरकतों से बने थे। उसकी जाँघें अब उसके चारों ओर कसती जा रही थीं, शरीर ने खुद को बिना शब्दों के समर्पित कर दिया था। हर हरकत में लय थी — धीमी, मगर बेतरतीब भी, जैसे एक पुरानी धुन दो जिस्मों के ज़रिए खुद को दोहरा रही हो।
उस पल, उनका कोई अलग वजूद नहीं था। वो एक-दूसरे के भीतर समा गए थे — स्पर्श के ज़रिए, त्वचा के ज़रिए, साँसों के ज़रिए।
और फिर...
सब कुछ शांत हो गया।
कमरे में सिर्फ़ दो साँसों की लय थी, और एक अजीब सी खामोशी — जैसी युद्ध के बाद आती है।
विहान की आँखें बंद थीं, उसका माथा उस लड़की कंधे में टिका हुआ। उसकी उंगलियाँ अब भी उसकी पीठ पर थीं, लेकिन बिना किसी हरकत के। मानो स्पर्श के उस चरम पर पहुँचने के बाद, शरीर ने खुद को थाम लिया हो।
वो कुछ नहीं बोला। और लड़कीने भी कोई शब्द नहीं कहा।
शब्द अब उनके बीच ज़रूरी नहीं थे। रात कह चुकी थी जो कहना था — स्पर्शों की भाषा में, साँसों के दरम्यान।
कुछ मिनट, या शायद घंटे बीते होंगे।
विहान को नींद नहीं आई — उसे आदत नहीं थी किसी के साथ सोने की।
पर इस बार… नींद नहीं आई क्योंकि वो उसके पास थी।
और वो नहीं चाहता था कि यह ख़त्म हो।
---
जब आँख खुली, तो हल्की रोशनी पर्दों के आरपार भीतर आ रही थी। कमरे में अब भी रात की महक थी — पसीने, परफ्यूम और बारिश के संगम से बनी कोई अद्भुत याद।
पर बिस्तर… खाली था।
वो जा चुकी थी।
विहान तुरंत उठ बैठा। उसका दिमाग़ सबसे पहले ये सोच रहा था कि कहीं ये सपना तो नहीं था। चादर अब भी गीली थी, तकिए की दूसरी तरफ हल्की सी खुशबू थी — वो थी यहाँ।
लेकिन अब नहीं थी।
कहीं कोई नोट नहीं, कोई निशान नहीं, कोई नंबर नहीं।
वो हमेशा जानता था कि लोग आते हैं, जाते हैं — और उसे इससे फर्क नहीं पड़ना चाहिए। लेकिन अब फर्क पड़ रहा था।
उसने शीशे के पार देखा — मुंबई की सड़कों पर सुबह की भीड़ चल पड़ी थी। टैक्सियाँ दौड़ रही थीं, सड़क किनारे चायवाले आग सुलगा रहे थे।
पर विहान मेहरा, जिसकी दुनिया तय समय पर चलती थी — उस सुबह रुक गया था।
उसने अपने अंदर कुछ फिसलता हुआ महसूस किया। जैसे कोई दरवाज़ा खुला हो — और कोई याद उसमें से बाहर निकल आई हो।
"अगर मैं सुबह चली जाऊँ... तो क्या तुम मुझे ढूँढोगे?"
उस लड़की वो लाइन उसी रात हँसकर टाल दी थी।
लेकिन अब वो सवाल बनकर उसकी सांसे रोक रही थी।
"हाँ," वो बड़बड़ाया। अब, जब बहुत देर हो चुकी थी।
"मैं तुम्हें ढूँढूँगा।"
उसने मोबाइल उठाया — कोई कॉल, कोई ट्रेस, कुछ भी?
नहीं।
वो इतनी समझदार थी कि कोई सुराग नहीं छोड़ा।
सालों में पहली बार विहान को लगा — कोई उसे हराकर जा चुका है।
उसकी दुनिया में सब कुछ नियंत्रित होता है — सौदे, रिश्ते, फैसले।
वो एक ऐसा आदमी था जो जब किसी चीज़ पर नज़र रखे, तो वो चीज़ उसकी हो जाती।
पर ये औरत…
वो एक रात…
उसने विहान की पकड़ से फिसलकर उसके मन में एक ज़िद बो दी थी।
अब ये तलाश बदन की नहीं थी।
अब ये आदत से अलग कुछ खो देने का गुस्सा था।
अब ये उसकी मर्दानगी पर लगा पहला धब्बा था।
और इस हार को विहान सह नहीं सकता था।
_
बस एक रात।
ना कोई नाम पूछा गया, ना कोई सवाल किया गया।
ना कोई वादा, ना कोई उम्मीद।
दो अजनबी — एक अजनबी शहर, एक बंद कमरा, और कुछ लम्हें जो जैसे वक़्त से चुराए गए थे।
कभी-कभी, एक रात की मुलाक़ात,
पूरी ज़िंदगी की कहानी बन जाती है।
ये कहानी भी उसी एक रात से शुरू होती है...
और शायद, कभी खत्म नहीं होती।
*
*
*
*
कौन है वो लड़की?
क्या विहान उस लड़की को ढूंढ पाएगा?
_
कहानी का पहला पार्ट कैसा लगा बताइएगा जरूर ।
आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है।
कहानी के साथ जुड़े रहने के लिए मुझे फॉलो करना ना भूले❤️
©® Writer Tanu ✍🏻
रात गुजर चुकी थी, लेकिन उस कमरे की खामोशी अभी भी बरकरार थी।
होटल का स्टाफ कमरे में आवाजाही कर रहा था। कमरे की हालत देखकर हर कोई समझ गया था कि पिछली रात यहाँ क्या हुआ होगा। उनके बीच कानाफूसी और इशारे चल रहे थे। वे ऐसे कमरे साफ़ करने के आदी थे।
सब कुछ वापस अपनी जगह पर रख दिया गया था। पर्दे फिर से खिड़कियों पर टँग गए थे, अस्त-व्यस्त चादरें ठीक कर दी गई थीं, वाइन की बोतल खाली थी और ग्लास सिंक में पड़ा था।
सब कुछ वैसा ही था... बस वो नहीं थी।
विहान कांच की बड़ी खिड़की के पास खामोश खड़ा था, खिड़की से बाहर मुंबई शहर का विहंगम दृश्य देख रहा था। लेकिन वो खूबसूरत नज़ारा भी उसके अंदर की बेचैनी को शांत नहीं कर पा रहा था।
ऐसी कितनी ही रातें उसकी ज़िंदगी में आईं और चली गईं। एक से बढ़कर एक हसीनाएं उस पर सब कुछ लुटाकर चली गईं, लेकिन अगली सुबह उसे उनमें से किसी की भी याद नहीं रहती थी।
लेकिन यह लड़की...
वह उसके जिस्म और रूह में जैसे एक धमाका करके चली गई थी। काश, कल रात उसे नींद न आई होती तो वो लड़की ऐसे फिसलकर न जाती। वह खुद पर ही खीझ रहा था। उसकी नींद ने ही उसे धोखा दिया था।
उसकी आँखों में हल्की लाली थी। पिछली रात जो बोतल में उतरी थी, उसकी वजह से उसे एक पल के लिए भी नींद नहीं आई थी।
होटल मैनेजर ने एक बेहद खूबसूरत हसीना को कमरे में भेजा था, लेकिन जब उसे वह चेहरा नहीं दिखा जो उसे चाहिए था, तो उसने उसे वापस भेज दिया। फिर से उसने ग्लास उठा लिया था।
वह गैलरी में बैठा था। जब सारा स्टाफ चला गया, तो वह उठा और शर्ट पहनी। शर्ट के बटन लगाते हुए, मानो वह हर बटन के साथ खुद को फिर से जोड़ रहा हो। घड़ी बाँधी, बालों में हाथ फेरा, वॉलेट उठाया... सब कुछ तयशुदा और सधा हुआ था।
लेकिन उसकी जो चाल हमेशा दमदार और निडर हुआ करती थी, आज धीमी थी...
जैसे ही वह नीचे आया, मोबाइल पर टाइमपास कर रही रिसेप्शनिस्ट एकदम से चौकस हो गई। उसे देखकर उसने अपने बाल ठीक किए। अधेड़ उम्र का मैनेजर, डरी हुई मुस्कान के साथ सीधे उसके सामने खड़ा हो गया। उसे लगा कि विहान इस बात से नाराज़ होगा कि उसने भेजी हुई लड़की को पसंद नहीं किया। विहान मेहरा का गुस्सा उसे कतई बर्दाश्त नहीं था।
"गुड मॉर्निंग, मिस्टर मेहरा।" कमर से झुककर उसने विश किया।
पहले ध्यान न देने वाले विहान की गुस्से भरी नज़र अब उसकी तरफ मुड़ी।
"आज सुबह मेरे कमरे से एक लड़की बाहर निकली। उसका सीसीटीवी फुटेज चाहिए मुझे।" बर्फ की तरह ठंडी आवाज़ में वह बोला।
मैनेजर हड़बड़ा गया। "सर... लेकिन प्राइवेसी पॉलिसी..."
"भाड़ में जाए तुम्हारी पॉलिसी। यह होटल किसके पैसे पर खड़ा है, भूल गए क्या? तुम्हारी पॉलिसी मैंने ही लिखी है। बीस मिनट में वह फुटेज मेरी स्क्रीन पर चाहिए।" उसकी आवाज़ की गरज़ सुनकर मैनेजर सुन्न पड़ गया था।
इतना कहकर विहान बाहर निकल गया। उसकी चाल में फिर से वही रोब आ गया था। मैनेजर उसे देखता रह गया। वह जानता था कि उसकी आज्ञा न मानने का अंजाम क्या होगा। वह फौरन काम पर लग गया।
गाड़ी में बैठते ही विहान ने नंबर मिलाया।
"यस बॉस?" अर्जुन, जो उसकी परछाई की तरह उसके साथ रहता था, उसका सिक्योरिटी हेड था। उसने फोन उठाया।
"अर्जुन, होटल ब्लू हेवन। कल रात साढ़े दस से दो के बीच बार के रूफटॉप पर जो कोई भी आया-गया, उनकी लिस्ट निकालो। चेहरों के स्कैन चाहिए। खासकर लड़कियों के।"
"ओके बॉस। कुछ खास चाहिए?" अर्जुन ने अपनी डायरी में कुछ लिखते हुए आगे पूछा। अगस्त्य शांत हो गया।
वह खिड़की से बाहर देख रहा था। बाहर बारिश हो रही थी और नज़ारा बेहद मनमोहक था, लेकिन उसकी आँखों में अभी भी वही एक पल अटका हुआ था।
"हाँ... एक चेहरा... जिसने मेरी रातों की नींद उड़ा दी है।" वह बुदबुदाया।
अर्जुन धीमी हँसी हँसा। विहान के कॉलेज के दिनों से वे दोनों साथ थे। उनके बीच काम से ज़्यादा दोस्ती थी। अर्जुन को विहान के हर दिन की खबर होती थी। और विहान मेहरा की नींद किसी ने उड़ाई है, तो वह लड़की ज़रूर कुछ खास होगी।
"ओके" कहकर उसने फोन रख दिया और काम पर लग गया।
बंगले पर पहुँचकर वह फ्रेश होकर अपनी ऑफिस रूम में बैठ गया। उसके पहुँचने से पहले ही होटल से फुटेज उसके पास पहुँच चुकी थी।
प्ले...
ऑफिस की बड़ी स्क्रीन पर वह फुटेज शुरू हुई। उसकी आँखें उन अनगिनत चेहरों पर तेज़ी से घूम रही थीं।
वही बार, वही छत... वही धीमी लाइट्स।
और फिर... वह आई।
ब्लैक सैटिन ड्रेस में। हाथ में ग्लास था... बाल खुले थे। उसकी चाल धीमी थी, लेकिन आत्मविश्वास से भरपूर। जैसे वह किसी खुमारी में हो।
उसने बार की तरफ देखा, और एक कोने की टेबल पर बैठ गई।
स्क्रीन देख रहे विहान की साँस उस पल के लिए थम गई।
वह कोई फिल्मी अभिनेत्री नहीं थी... बहुत खूबसूरत भी नहीं थी... सुंदरता के पारंपरिक मापदंडों में फिट नहीं बैठती थी। उसने इससे कहीं ज़्यादा खूबसूरत लड़कियाँ देखी थीं।
लेकिन फिर भी... उसकी आँखें उसी पर अटक गईं।
हाथ में पकड़े ग्लास को होठों से लगाते हुए वह खुद से ही कुछ बोल रही थी। उसके होंठ हिल रहे थे, और उसे पिछली रात के आवेशपूर्ण चुंबन की याद दिला रहे थे।
और फिर... वह उठी।
उसी की टेबल की तरफ आई। इसके बाद क्या हुआ, विहान को हर मिनट याद था।
फोन बजा तो उसे वास्तविकता का भान हुआ। अर्जुन का फोन था।
"बोलो।"
"फुटेज मिल गई है, लेकिन सब कुछ धुँधला दिख रहा है।"
"मैंने उसके चेहरे और कपड़ों की हर एक डिटेल तुम्हें भेज दी है। उसके चेहरे को स्कैन करो। सारे क्लब, होटल, इवेंट्स... जहाँ-जहाँ हम जुड़े हुए हैं, हर जगह ढूँढो।"
"बॉस, लेकिन चेहरा पता चल भी गया तो... अगर वह किसी अलग पहचान के साथ अंदर आई होगी तो?"
"मुझे बहाने नहीं चाहिए अर्जुन। मुझे बस वो चाहिए।"
फोन कट गया।
सिर्फ़ वो तीन शब्द हवा में गूँज रहे थे - "मुझे बस वो चाहिए।"
______
शाम हो गई थी, लेकिन तलाश अभी भी वहीं अटकी हुई थी। उसका चेहरा अब शांत दिख रहा था, लेकिन अंदर कुछ उबल रहा था। उसने इतनी शिद्दत से कभी किसी चीज़ का इंतज़ार नहीं किया था। उसका सब्र जवाब दे रहा था।
यह एक चीज़ उसके हाथ में नहीं थी... और यह एहसास उसे बेचैन कर रहा था।
उसने इंटरकॉम उठाया।
"रिया, इस हफ़्ते की सारी मीटिंग्स कैंसिल कर दो। मीडिया इंटरव्यूज़... सब रोक दो।" उसने सेक्रेटरी को ऑर्डर दिया।
"सर, लेकिन..."
"मुझे बस एक चीज़ चाहिए अभी। बाकी सब एक तरफ़ रखो।" उसने आँखें बंद करके गुस्से में कहा और इंटरकॉम पटक दिया। डरी हुई रिया दो मिनट तक खुद को संभालती हुई बैठी रही।
रात...
वह फिर से उसी होटल में, उसी कमरे में आया था।
वापस उसी कमरे में। जहाँ वह थी।
जिस कमरे में उस दिन मादक साँसों और आहों की गूँज थी, वह अब शांत था। वाइन की बोतल में थोड़ी सी वाइन बची थी, लेकिन अब उसका स्वाद बदल गया था। उसे बस उसके होठों का स्वाद चाहिए था।
उसने ग्लास उठाया, उस पर अंगूठा फेरा... जैसे उस रात उसकी कमर पर फेरा था। लेकिन ग्लास में वो नरमी नहीं थी। ग्लास का स्पर्श उसे उतना पागल नहीं कर रहा था, जितना उसके स्पर्श ने किया था।
धीरे-धीरे, लेकिन अधिकार से...
"तुम ऐसा नहीं कर सकती... मुझे ऐसे तड़पता छोड़कर नहीं जा सकती तुम। कहीं भी छिपी हो, मैं तुम्हें खींचकर अपनी इस दुनिया में लाऊँगा, जहाँ से कोई वापसी नहीं। मेरी ज़िद बन गई हो तुम। मेरी तलब।"
वाइन का ग्लास धीरे-धीरे पीते हुए उसने खुद से कहा। उसकी आँखों में इस बार कुछ अलग ही भाव थे।
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आखिर कितना और इंतजार करना होगा विहान को ?
पाठ कैसा लगा कमेंट्स में बताइएगा।
and don't forget to follow me❤️
कैफे की खिड़की से सूरज की एक हल्की सी किरण उसके चेहरे पर पड़ रही थी। सूरज अभी पूरी तरह से ऊपर नहीं आया था, लेकिन उसका अस्तित्व वैसे ही महसूस हो रहा था, बिल्कुल दृढ़। उस रोशनी में उसकी आँखों के नीचे की थकान साफ दिख रही थी, लेकिन उसकी नज़र कहीं खोई हुई थी। चेहरा ऊपर से शांत था, इसलिए अंदर चल रहे तूफान की किसी को खबर नहीं लग रही थी।
कैफे में चहल-पहल थी। लेकिन वह उस सफेद टेबल पर अकेली बैठी थी। जिस आदमी ने उसे यहाँ बुलाया था, उसी ने यह टेबल बुक करवाया था। उसे सिर्फ एक मैसेज आया था, और वह फौरन आ गई थी। दुपट्टे का कोना उसने अपने दाहिने हाथ में मरोड़ रखा था, मानो वही उसे अंदर से टूटने से बचा रहा हो।
यादों का कोई झरोखा, जहाँ से उस रात के सारे पल फिर से अंदर आने की कोशिश कर रहे थे।
उसकी आँखें खुली थीं, लेकिन सामने लोगों की भीड़ को नहीं देख रही थीं। मन कहीं दूर खोया हुआ था।
जब विहानके हाथ धीरे-धीरे उसकी पीठ पर सरके थे... उस स्पर्श में न वासना थी, न बेचैनी, बस एक शांति थी, एक स्वीकार। एक पल का टूटा हुआ संयम, जो धीरे-धीरे उसके भीतर कहीं उतर रहा था।
उसका मन उलटे-सीधे विचार कर रहा था। वह खुद को समझा रही थी कि यह एक काम था... बस एक काम। उससे ज्यादा कुछ नहीं।
लेकिन शरीर... शरीर सिर्फ स्पर्श की भावना को समझता है। उसका शरीर भी उस बेखौफ़ और जंगली स्पर्श की, उन मोहक पलों की यादों में उलझ गया था।
उसकी साँसें, उसके हाथों की गर्मी, उसके सीने की धड़कन... वह सब अभी भी उसकी त्वचा पर कहीं खुदा हुआ था। जो दिखाई नहीं देता, लेकिन महसूस होता है। कोमल, लेकिन गहरा।
एक रात में उसके अंदर कुछ बदल गया था... वह अब पहले जैसी नहीं रही थी।
वह रात वह दूसरों से छुपा सकती थी... बहुत कोशिश करने पर वह उस स्पर्श को भी भूल सकती थी... लेकिन उस स्पर्श ने उसके अंदर एक तूफान खड़ा कर दिया था, और वही अब उसे सबसे ज़्यादा परेशान कर रहा था।
वह रात सिर्फ एक 'वन-नाइट स्टैंड' नहीं था... कम से कम उसके लिए तो नहीं था। वह उसके करीब आने वाला पहला पुरुष था। जो चीज़ उसने खुद के पास सँभाल कर रखी थी, वह उसने पहली बार किसी को दी थी। पहले मजबूरी में और फिर अपनी खुशी से।
और यही विचार उसे सबसे ज़्यादा डरा रहा था।
क्योंकि उसने उसकी कोई भी याद मन में न रखने का फैसला किया था।
लेकिन...
वह अभी भी उसके अंदर कहीं "बाकी" था।
"मिस मीरा जोशी।" एक खुरदुरी, लेकिन बेवजह सभ्य लगने वाली आवाज़ उसके कानों में गूँजी। वह हल्के से चौंकी, लेकिन आवाज़ पहचान कर उसने सिर ऊपर नहीं उठाया।
आर्यन खुराना उसके सामने आकर बैठ गया था।
पूरी जगह पर अपनी ही सत्ता है, ऐसा आत्मविश्वास लिए हुए। शरीर पर कसा हुआ परफेक्ट सूट, कसरत किया हुआ शरीर, आँखों में चुभने वाली पर्सनैलिटी। हावभाव, बैठने का तरीका, माथे की शिकनें—सब कुछ बिज़नेस क्लास था। लेकिन नज़र...
नज़र साँप जैसी थी। धीरे, लेकिन घातक।
उसकी आँखों में अहंकार भरा हुआ था।
वह कौन है, क्या करती है, उसे कोई फर्क नहीं पड़ता था। उसका अस्तित्व उसके गंदे खेल का एक मोहरा था, बस।
"मुझे यकीन है कि तुमने मेरा काम कर दिया होगा," उसने हाथ में सिगरेट के पैकेट पर उँगलियाँ फिराते हुए पूछा। शब्द शांत थे, लेकिन उनके पीछे एक धमकी छुपी हुई थी।
उसने अभी भी उसकी तरफ न देखकर सिर्फ सिर हिलाया।
"मतलब, उस रात तुम उसके पास गई थी।"
"हूँ।"
उसके हाँ कहने पर आर्यन ने मुस्कुराते हुए सिगरेट जलाई। वह उसे एकटक देख रहा था।
"गई तो थी, लेकिन वापस वहाँ से आ गई हो, ऐसा नहीं लगता।" सिगरेट का धुआँ उसकी तरफ छोड़ते हुए वह बोला।
उसके होंठ कस गए। आँखें एक पल के लिए बंद हो गईं। वह याद फिर से मन में उमड़ आई। वह खुद पर जैसे-तैसे काबू रख रही थी।
आर्यन आगे झुका। टेबल पर रखे ग्लास पर उसकी कर्कश आवाज़ गूँजी।
"उसने तुमसे क्या पूछा?"
वह अभी भी चुप थी।
"उस रात तुमने किन फाइल्स पर ध्यान दिया? फोन इस्तेमाल किया था क्या? किससे बात की उसने? तुम्हारी कितनी बात हुई?"
उसकी आवाज़ अब बर्फ़ जैसी ठंडी थी... और आँखों में आग।
उसकी साँस थोड़ी तेज़ हो गई। होंठ काँपने लगे। उसकी आवाज़ एकदम चली गई थी। उसे आर्यन से डर लग रहा था। वह पछता रही थी कि वह इस काम के लिए क्यों तैयार हुई।
"कुछ... ज़्यादा नहीं हुआ..." वह आखिर में बोली।
लेकिन वह 'नहीं' आर्यन को कम और खुद को ज़्यादा समझाने की कोशिश कर रही थी।
"ज़्यादा नहीं?" आर्यन की आवाज़ हथौड़े की तरह गूँजी। "मतलब थोड़ा कुछ हुआ।"
उसका सिर नीचे झुक गया। उसे शब्द नहीं सूझ रहे थे।
वह अपने मन में चल रहे द्वंद्व के बारे में इस आदमी को नहीं बता सकती थी। ऐसा कोई रिश्ता नहीं था। वह बस उसकी भावनाएँ थीं... और उसे उन्हें अपने तक ही रखना था।
लेकिन आर्यन ने जो काम कहा था, वह? उसे सच बताने का मन नहीं कर रहा था, और झूठ बताने में डर लग रहा था।
"अपनी पहचान तो नहीं बताई न उसे?" उसका अगला सवाल आया।
"वह... बहुत पूछ रहा था..." वह आखिर में बोली। "लेकिन मैंने ज़्यादा कुछ नहीं बताया।"
आर्यन हँसा। लेकिन वह हँसी सिर्फ होंठों पर थी। आँखों में वही ज़हर था। वह हँसी उसे ज़हर जैसी लगी।
"और मैंने जो सामान बताया था?"
वह अब नज़र टेबल पर टिकाकर बैठी थी। उसका दिमाग उलझ गया था। उसे तब काम-वाम कुछ याद नहीं था... उसे याद था तो उस रात का उसका स्पर्श, उसका विश्वास, उसका शांति से सुनना, और उसमें बोले गए उसके अपने शब्द...
उसकी आवाज़ फुसफुसाते हुए निकली, "माफ करना... मैंने कोशिश की... लेकिन-"
"लेकिन क्या? भावनाएँ आड़े आ गईं?" आर्यन की ठंडी निगाह से उसे सिहरन हुई। उसने कोई जवाब नहीं दिया।
"मोहब्बत वगैरह हो गई क्या उससे?" यह सवाल कटार की तरह उसके मन में गहराई तक उतर गया। वह हल्के से काँप उठी। आर्यन ने वह कंपन देखा और फिर हँसा।
"एक रात का खेल था वह। लेकिन तुम उलझ गई। कच्ची खिलाड़ी निकली तुम।" उसने चिमटी में पकड़ी हुई आधी बुझी सिगरेट एशट्रे में डाली और कुर्सी पर पीछे झुक गया।
"नहीं... जैसा आप सोच रहे हैं, वैसा कुछ नहीं है। मुझे सही मौका नहीं मिला। बस यही।"
"हम्म। वैसे भी लड़कियाँ उसके पीछे पड़ी रहती हैं। क्या है उस साले में इतना, पता नहीं।" आर्यन गुस्से में बुदबुदाया।
"मेरा काम अधूरा है। और मुझे अधूरी चीज़ें पसंद नहीं हैं। तुम्हें भी पैसे आधे ही मिलेंगे।"
"अरे लेकिन..."
"मुँह मत चलाओ मेरे सामने।" उसने उसे बोलने ही नहीं दिया।
उसकी आँखों में आँसू भरने लगे। लेकिन वह उन्हें बहने नहीं दे रही थी।
"मैं... मैं वापस जाऊँगी उसके पास," उसने हिम्मत बटोर कर कहा। उसे पैसों की बहुत ज़रूरत थी। यह इम्तिहान उसे देना ही पड़ेगा।
"वापस जाएगी? मुँह पर पट्टी बाँध कर थी क्या उसके साथ? पहली नज़र में पहचान लेगा तुझे वह।" वह झुँझलाया।
"न... नहीं। आपने जो गोली दी थी... मैंने उसके ड्रिंक में डाल दी थी। उसे मेरा चेहरा याद नहीं होगा।" उसने कहा।
आर्यन का चेहरा एक बार फिर से शून्य हो गया।
"ठीक है... एक और मौका देता हूँ तुम्हें। दुगने पैसे मिलेंगे। इस बार, भावनाओं को अंदर रखो, और काम पूरा करो... वरना, तुम्हारा भाई... और तुम्हारा खूबसूरत, छोटा सा परिवार—"
"नहींSSS" वह ज़ोर से बोली। उसने उसका वाक्य अधूरा छोड़ दिया।
"मैं करती हूँ। जो कहोगे, वह करती हूँ। लेकिन उन्हें हाथ मत लगाना।"
वह कुटिलता से हँसा और उठ गया। एक पैकेट उसके सामने फेंका। फिर वहाँ खामोशी छा गई। वह बाहर निकल गया। उसके जूतों की आवाज़ वहाँ गूँजती रही।
वह कुर्सी पर सुन्न बैठी रही। आँखों से आँसू बहने लगे। उसने कुर्सी के नीचे रखा बैग खोला और देखा। उस रात विहान के नशे में होने पर उसने उसकी बैग से चुपके से निकाले गए वे पेपर्स थे। आर्यन ने यही काम करने को कहा था, और उसने वह पूरा करके भी उसे नहीं बताया था।
एक रात में उसे उससे प्यार हो गया था, और उसके लिए आज उसने इतना बड़ा खतरा उठाया था। सिर्फ़ उसके लिए...
अगर आर्यन को यह पता चल गया, तो वह उसकी जान लेने से भी पीछे नहीं हटेगा... लेकिन उसकी यही जान और दिल अब विहान पर आ गया था। उसे बाकी किसी की परवाह नहीं थी।
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*
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*
कहानी जारी है।
पाठ कैसा लगा बताइएगा और मुझे follow भी कर लीजिएगा।
©® Writer Tanu ✍🏻
उसके विशाल केबिन की बड़ी कांच की खिड़की से मुंबई की शाम की रोशनी छनकर अंदर आ रही थी। सूरज क्षितिज को छू रहा था, शाम का समय था। और उसका मन भी इस शाम की तरह ही उदास और अँधेरा हो गया था।
एक पल के लिए ऐसा लग रहा था, जैसे वह रोशनी ऑफिस के कोने-कोने में छिपी हर छाया में कुछ उजागर करने का इंतज़ार कर रही हो। एक हल्की, लेकिन गहरी खामोशी हवा में तैर रही थी... जैसे कोई राज, जो अभी तक सुलझा नहीं है, लेकिन बहुत करीब है। तनाव नहीं था, लेकिन हवा में एक हल्की बेचैनी थी।
विहान मेहरा... शहर का सबसे शांत स्वभाव का, लेकिन सामने वाले को अपनी नज़रों से ही जला देने वाला इंसान। वह खिड़की पर खड़े होकर बाहर का नज़ारा देख रहा था। उसके डेस्क के सामने अर्जुन खड़ा था, जिसने सावधानी से अपने हाथ में एक फ़ाइल पकड़ रखी थी। वह बहुत देर से बस खड़ा था। उसके चेहरे पर उसके मन की उथल-पुथल साफ दिख रही थी।
"बॉस..." उसकी आवाज़ थोड़ी रुखी, लेकिन दृढ़ थी। वह दुविधा में था कि बोले या नहीं।
"बोलो अर्जुन... मैं कब से इंतज़ार कर रहा हूँ। तुम कुछ बताते ही नहीं।" उसने पीछे मुड़े बिना कहा।
"बॉस... मीरा जोशी... पच्चीस साल की। मुंबई यूनिवर्सिटी से एलएलएम। माँ की एक दुर्घटना में मौत हो गई थी, और पिता बहुत बीमार रहते हैं। मीरा की फाइनल एग्ज़ाम्स हो चुकी हैं और कॉलेज के साथ-साथ वह छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती थी... घर की सारी ज़िम्मेदारी उसने अकेले उठा रखी है। एक भाई है जो सिर्फ घर में पैसा देता है... बाकी उसका खास ध्यान नहीं रहता घर पर। भाई की कॉर्पोरेट प्रोफाइल देखने पर पता चला कि... उम..."
"कि क्या??"
"...कि वह आर्यन खुराना के अंडर काम करता है..."
अर्जुन को लगा था कि अब विहान का गुस्सा फूटेगा। लेकिन विहान ने कुछ न बोलते हुए बस अपनी कॉफी का एक सिप लिया। उसने अभी भी अर्जुन की तरफ नहीं देखा था, लेकिन उसकी आँखों में एक हल्का सा कंपन आ गया था। जैसे अंदर कहीं बहुत गहरा कुछ टूटा हो।
"रुक क्यों गए? बोलते रहो..." उसने शांत, लेकिन सीधे शब्दों में कहा।
अर्जुन ने घूँट निगला। क्योंकि अगला वाक्य उसके लिए आसानी से कहना मुमकिन नहीं था। कुछ देर चुप रहा और फिर आगे बोला...
"उस रात... जब वह आपसे मिली, तो उसका चेहरा साफ नहीं दिख रहा था। सीसीटीवी फुटेज में वह जानबूझकर अंधेरे में खड़ी थी। बार के कोने में... ठीक उसी जगह जहाँ कैमरे का एंगल नहीं पहुँच रहा था। हमें लगा था कि वह वहाँ गलती से आई थी।"
विहान ने अभी भी कुछ नहीं कहा था। आखिरकार, विहान ने अपनी नज़र खिड़की के बाहर से हटाकर टेबल पर रखी एक तस्वीर पर टिका दी। वह उसी की तस्वीर थी... गहरी आँखों वाली, होंठों पर अधूरी मुस्कान लिए... मीरा।
"चेहरा मैच होने के बाद यकीन हो गया... कि वह वही है," अर्जुन ने कहा। उसकी आवाज़ अब साफ थी, लेकिन उसमें एक अनकहा अपराधबोध था।
"वह आपको उस रात बार में मिली थी, बॉस... और..."
वह थोड़ा रुका। शब्दों का चुनाव कर रहा था। क्योंकि विहान को इतना शांत उसने पहले कभी नहीं देखा था।
"...एकदम प्लान बनाकर मिलने आयी थी।" उसने आगे कहा।
वे शब्द पानी की एक-एक बूँद की तरह आए... शांत। लेकिन विहान के कानों पर टकराकर उसके मन में लहरें उठा गए।
वह धीरे से उसकी तस्वीरों को देख रहा था...
एक-एक जगह, जहाँ वह गई थी, उसका शेड्यूल, उसकी हँसी, उसे देखना, और वह पल—जब उसने उसे छुआ था...
अनजाने में? या जानबूझकर?
"कब?" उसकी आवाज़ धीमी, लेकिन पैनी थी।
"आपके लंदन से लौटने के दूसरे दिन। शाम को बार में... आप अकेले थे, सिक्योरिटी ढीली थी... और... वह वहाँ पहुँची..."
विहानने कुछ नहीं कहा...
"उसका नाम झूठा था। उस रात उसने जो ड्रेस पहनी थी, उस पर लगे परफ्यूम को ब्रांड्स से वेरिफाई करवाया गया है—वह ब्रांड आर्यन खुराना की गिफ्टिंग लाइन का है। बिल्कुल लिमिटेड एडिशन... जो मुंबई में अभी लॉन्च भी नहीं हुआ था।"
अब जाकर विहान की आँखों में हल्की सी जलन अर्जुन को दिखी।
"यानी यह सिर्फ एक इत्तेफाक नहीं था..." उसने धीरे से कहा।
"नहीं बॉस," अर्जुन ने जवाब दिया।
"उसे आपके पास भेजा गया था।"
अर्जुन बोलकर रुक गया। केबिन में एक पल के लिए सन्नाटा छा गया। खिड़की के बाहर की शाम की रोशनी भी अब फीकी लग रही थी। अर्जुन को पता था कि विहान उसे ढूँढने के लिए जी-तोड़ कोशिश कर रहा था। इससे पहले उन्होंने किसी भी लड़की की जानकारी इतनी बेसब्री से नहीं निकलवाई थी, जिसके साथ उन्होंने रात बिताई थी। और अर्जुन इस बात से खुश था कि उसे सच में नाजुक भावनाओं का एहसास हुआ था। लेकिन यह तो कुछ और ही सामने आ गया था।
विहान ने उसकी तस्वीर को हल्के हाथों से अलग किया। उसकी आँखों में देखा। उस तस्वीर में मीरा अभी भी एक रहस्य लग रही थी—न पूरी तरह निर्दोष, न पूरी तरह गुनहगार। लेकिन अब, उस नज़र की कोमलता के पीछे वह कुछ छुपा रही है, ऐसा उसे लगने लगा था। मुलायम रेशमी ड्रेस, बालों से बाहर निकली हुई लटें, और वह मुस्कान—
निर्दोष, लेकिन नाप-तौलकर दी गई।
और फिर... उसकी आँखें।
आँखों में जो दर्द था, वह उस वक्त उसे असली लगा था। लेकिन अब?
अब वह दर्द था... या एक रणनीति?
"मेरी ज़िंदगी में मुझे जो भी सच लगा... वह सब झूठ निकला।" उसकी आवाज़ खुद से बुदबुदाने जैसी थी, लेकिन अर्जुन ने उसे सुन लिया।
उसे भी बुरा लगा।
विहानने तस्वीर के कोने पर अपना अँगूठा फिराया।
"मीरा जोशी..."
"बॉस, और उस रात आपके ड्रिंक में..."
"उस रात उसने मेरे ड्रिंक में कुछ डालकर मेरे बैग से पेपर्स लिए थे..."
उसकी आवाज़ धीमी, लेकिन पूरी तरह होश में थी। मानो वह अपने विचारों के साथ कोई लेन-देन कर रहा हो।
अर्जुन उसकी तरफ मुड़कर देख रहा था। थोड़ा हैरान, थोड़ा बेचैन।
"बॉस... आपको याद है???" अर्जुन को हैरानी हुई। क्योंकि जिसने वह गोली ली होगी, वह इंसान सब कुछ भूल जाता था।
विहान के होंठों पर एक हल्की, और अफसोस भरी मुस्कान आई।
"मेरा कंट्रोल किसने लिया है, यह मैं नींद में भी जानता हूँ अर्जुन।" उसकी आवाज़ में घमंड नहीं था, बल्कि एक भेदक स्थिरता थी।
"लेकिन मैंने उस रात जानबूझकर नज़रअंदाज़ किया।"
अर्जुन शांत हो गया। हाथ में फ़ाइल बिना हिलाए, वह बस उसे देखता रहा।
"लेकिन बॉस... वे पेपर्स ज़्यादा ज़रूरी नहीं थे," वह आखिर में बोला।
"तकनीकी रूप से... कोई नुकसान नहीं हुआ।"
विहान आँखें खोलकर ही तस्वीर समेत पीछे झुक गया।
"इन्सान की हर हरकत मुझे कुछ सिखाती है, अर्जुन। उन पेपर्स को चुराकर उसने जो हासिल किया, उससे मेरा नुकसान नहीं हुआ... लेकिन उसने अपनी सच्चाई दिखा दी।" उसने कहा।
"बॉस... अभी बहुत कुछ पता नहीं है। लेकिन यह साफ है कि वह अकेले काम नहीं कर रही थी।"
अर्जुन ने आगे जानकारी दी और विहान की आँखों में अंगारे उतर आए। हाथ में पकड़ी तस्वीर में जो लड़की थी, उसके लिए उसे इतने दिनों से तड़प थी।
लेकिन आज सिर्फ गुस्सा था।
अपने साथ हुए धोखे का गुस्सा।
"सब कुछ ढूँढो। शुरुआत से खोजो। और अर्जुन..." विहान की अब पूरी नज़र उस पर टिक गई थी।
"इस बार गलती की कोई गुंजाइश नहीं है।" अपनी हमेशा की पैनी आवाज़ में वह बोला, और अर्जुन को और इससे ज्यादा शब्दों की ज़रूरत नहीं थी।
"गॉट इट बॉस।" कान पर फोन लगाते हुए वह केबिन से बाहर निकल गया।
अगस्त्य ने हाथ में पकड़ी तस्वीर को देखकर एक शैतानी मुस्कान दी।
"मीरा जोशी... तुमने विहान मेहरा की भावनाओं के साथ खेलकर बहुत बड़ा गुनाह किया है। और इस गुनाह की सज़ा मैं तुम्हें खुद अपने हाथों से दूँगा..."
बेहद गुस्से में उसने कहा और उस तस्वीर को पीछे दीवार पर लगे बोर्ड पर पिन कर दिया।
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अब इंतकाम का खेल शुरू होगा 🔥🔥
आपको कहानी पसंद आ रही है तो मुझे फॉलो करना ना भूले🩷
©® Writer Tanu ✍🏻
कमज़ोर छत का पंखा कर्र-कर्र की आवाज़ के साथ घूम रहा था। उस आवाज़ के अलावा घर में एक खालीपन वाला सन्नाटा पसरा हुआ था। बाहर सुबह की पहली किरणें धीरे से पर्दों से छनकर घर में झाँक रही थीं। सुबह दूसरों के लिए एक नई उम्मीद लाती है, लेकिन इस घर की उम्मीद जैसे खत्म हो चुकी थी। यह घर नहीं, एक पुरानी इमारत का पुराना फ्लैट था, जिसे कभी शौक से खरीदा गया था, लेकिन पैसों की कमी ने इसे बदहाल कर दिया था।
सोफे पर उसके पिताजी लेटे हुए थे, उनके चेहरे पर बीमारी की थकान साफ दिख रही थी। चारपाई के बगल में एक कोने में ऑक्सीजन सिलेंडर रखा था। उनके सीने पर रखी ऑक्सीजन मशीन की ट्यूब धीरे-धीरे ऊपर-नीचे हो रही थी। उनकी हर साँस के साथ वह भी धीरे से हिल रही थी।
उस ट्यूब का हर उतार-चढ़ाव मीरा को अपने पिता के जीवन-संघर्ष और अपनी बेबसी की याद दिलाता था। उनके सूखे होंठों, कमजोर होती साँसों और आँखों के नीचे पड़े काले घेरों पर एक नज़र पड़ते ही, मीरा के मन में एक गहरा दर्द उठता था। इसी दर्द की वजह से उसने वह फैसला लिया था, जो आज उसे फिर से एक अग्निपरीक्षा से गुजरने पर मजबूर कर रहा था।
मीरा रसोई में सुबह का दूध गर्म कर रही थी। गैस पर रखे बर्तन से धीरे-धीरे भाप ऊपर उठ रही थी, लेकिन उसका ध्यान उस पर नहीं था। उसकी आँखें बस दीवार पर लगी पुरानी घड़ी की सुइयों पर टिकी थीं। टिक-टिक-टिक... हर सेकंड के साथ उसके दिल की धड़कन बढ़ रही थी। आज का दिन अलग था, बहुत अलग।
पिछली रात से उसके मन में एक ही विचार घूम रहा था। आर्यन खुराना के प्लान के मुताबिक, उसे आज विहान मेहरा के ऑफिस में इंटरव्यू के लिए जाना था। यह सिर्फ एक इंटरव्यू नहीं था, बल्कि उसकी ज़िंदगी को एक अलग मोड़ देने वाला समय था; उसके लिए एक नया, उलझा हुआ अध्याय शुरू होने वाला था।
मन ही मन वह विहान का चेहरा याद कर रही थी, जिसे वह उस रात के बाद से भूल नहीं पाई थी। वह शांत स्वभाव, उसकी आँखों में वह सच्चाई... और उसी पल उसके पेट में डर का एक गोला उठ रहा था।
कुछ दिन पहले की वह रात उसकी आँखों के सामने घूम रही थी।
वह रात, जब वह आर्यन के कहने पर विहान की ज़िंदगी में एक 'रात की मेहमान' बनकर गई थी। एक वन-नाइट स्टैंड, जिसका मकसद सिर्फ कुछ कॉन्फिडन्शियल कागज़ात हासिल करना था। उसने वे कागज़ात हासिल कर भी लिए थे, और सुबह होने से पहले वह उसकी ज़िंदगी से चली गई थी।
उसने वे कागज़ात आर्यन को नहीं दिए, क्योंकि उसी एक रात में, विहान के शांत और मासूम व्यवहार ने उसे उसके प्रति एक अनजान आकर्षण पैदा कर दिया था... शायद प्यार??
उसका मन, जो पैसों की ज़रूरत की वजह से कठोर हो गया था, वह उस एक रात में पिघल गया था। वह स्वभाव से अच्छी थी, लेकिन अपने पिता की बीमारी और पैसों की ज़रूरत ने उसे यह सब करने पर मजबूर किया था। अब फिर से उसी रास्ते पर जाने का समय आ गया था, और इस बार उसे विहान के भरोसे को फिर से तोड़ना था—उसके ही ऑफिस में काम करके, उसके ही करीब रहकर।
तभी, हॉल के दरवाज़े से एक कर्कश आवाज़ आई और वह खुला। उसका भाई आदित्य घर के अंदर आया। कान पर मोबाइल लगाए वह फोन पर बात कर रहा था। एक हाथ में फोन पर और दूसरा हाथ जेब में डाले वह बेफिक्र होकर अंदर आया। उसके चेहरे पर एक अहंकार, एक तरह का गर्व था, जो उसने आर्यन खुराना के यहाँ काम करके कमाया था। अगर आर्यन कहता तो आदित्य उसके तलवे चाटने में भी कोई कसर नहीं छोड़ता। वह भी उसकी इस गंदी साजिश का हिस्सा था। उसे सिर्फ अपनी नौकरी प्यारी थी और प्रमोशन चाहिए था, और इसके लिए वह अपनी बहन को भी इस दलदल में खींचने को तैयार था।
"मैंने कहा न, वे फाइलें मैं आज ही भेज रहा हूँ... प्रमोशन तो कन्फर्म है रे!... तू देख।" हँस-हँस कर फोन पर बात करता हुआ वह मीरा को देखकर चुप हो गया।
"बाद में करता हूँ तुझे फोन।" उसने कहकर फोन रखा और उसकी आँखें मीरा पर टिकीं। चेहरे के भाव तुरंत बदल गए, और एक कड़वे स्वर में वह बोला,
"तू अभी तक यहीं है?... इंटरव्यू था न तेरा?... या जाने का इरादा बदल दिया?... मतलब मैं ही अकेला कमा रहा हूँ इस घर में। बाकी किसी को कुछ करना ही नहीं है।" उसकी आवाज़ में एक धार थी, जैसे मीरा की मौजूदगी ही उसे खटक रही हो।
मीरा ने कुछ नहीं कहा। उसने बस बर्तन के नीचे की गैस नॉब बंद कर दी। उसकी खामोशी में एक असाधारण संयम था, लेकिन आदित्य की आँखों ने उसे नहीं देखा, क्योंकि उसे सिर्फ अपने स्वार्थ की भाषा सुननी थी। उसे पता था कि अब बहस करने का कोई फायदा नहीं, क्योंकि उसे जो कहना था, वह तो वह कहकर ही रहेगा।
उसके मन में फिलहाल एक ही विचार था...
आज मुझे विहान के सामने जाना है... और इस बार मैं उसे दुख पहुँचाए बिना अपना काम करूँगी। लेकिन यह इतना आसान नहीं था। उसकी ही कंपनी में रहकर उसे धोखा देना, मतलब उसे दुख पहुँचाना ही था। इसका एक फायदा यह था कि उसे मीरा का चेहरा याद नहीं था... मतलब, वो तो फिलहाल यही मानकर चल रही थी।
उसी पल, अपनी बात सुनकर भी उसके अनसुना कर देने से आदित्य को गुस्सा आया।
वह उसके पास आया, उसकी आवाज़ में पहले की चिड़चिड़ाहट से ज़्यादा कड़वापन था।
"कोई काम-धंधा नहीं करना है तुझे?... पिता जी का इलाज सिर्फ तेरे नखरे वाले स्वभाव से होगा क्या?"
उसके शब्द उसके दिल पर घाव कर रहे थे।
'नखरे वाला स्वभाव'?
उसे याद आया, जब पिता जी के इलाज के लिए पैसे कम पड़ रहे थे, तो आदित्य ने "मैं इतना ही दे सकता हूँ" कहकर कैसे मुँह मोड़ लिया था।
उस मुश्किल समय में, आर्यन खुराना ने मदद का हाथ बढ़ाया था - लेकिन उसके पीछे एक अनदेखी कीमत थी, जो उसे उस रात अपना सब कुछ देकर चुकानी पड़ी थी। आगे भी विहान के यहाँ काम करके उसे यह कीमत चुकानी पड़ेगी। पिता जी की खत्म हो चुकी दवाइयों का बिल आँखों के सामने दिख रहा था। पैसे कहीं से भी लाने ही पड़ेंगे।
मीरा थोड़ी देर चुप रही। उसके मन में विचारों का बवंडर उठा था। वह अपनी भावनाओं को रोक रही थी। आदित्य उसकी तरफ न देखते हुए, कुर्सी पर बैठकर अपने जूते उतारने लगा। उसकी यह लापरवाही मीरा को और भी परेशान कर रही थी। वह ऐसा दिखा रहा था, जैसे घर की सारी ज़िम्मेदारी उसी अकेले पर हो।
"यह सब मैं ही संभाल रहा हूँ... और तू अभी भी ऐटिट्यूड दिखा रही है?" उसने जूते एक तरफ रखते हुए, अब सीधे उसकी तरफ देखा। उसकी आँखों में एहसान जताने की भावना और अधिकार की अकड़ थी।
"आर्यन सर ने तुझे मौका दिया है, वह क्या ऐसे ही नही दिया.. एक मौका तो तूने पहले ही गँवा दिया है। तुझे क्या लगता है, यह सब पापा के लिए नहीं है क्या? तू आज इंटरव्यू पर जाएगी, यह तय है।" उसके हर शब्द में एक तरह का दबाव था, एक बंधन था।
'आर्यन सर ने मौका दिया है' यह शब्द सुनकर मीरा के मन में एक गहरा दर्द उठा। यह मौका नहीं था, यह तो एक जाल था, जिससे बाहर निकलने का रास्ता उसे दिख नहीं रहा था।
वह मुड़कर उसकी तरफ देखती है। उसकी आँखों में शांति थी, लेकिन अंदर कुछ उबल रहा था – एक अनजान आग, एक प्रबल निश्चय। वह आग थी अपने पिता की सेहत की चिंता की, विहान के लिए उसके मन में उमड़ी भावनाओं की, और आदित्य की स्वार्थपरता की।
उसने आँखें बंद कीं, एक गहरी साँस ली और खुद को शांत किया। उसकी आवाज़ में कोई कंपन नहीं था। आवाज़ संयमित, लेकिन बहुत दृढ़ थी।
"मैं जाऊँगी।" उसने कहा। यह वाक्य सिर्फ आदित्य को जवाब देने के लिए नहीं था, बल्कि खुद को दिया गया एक वादा था।
वह हँसा, एक क्रूर, जीत गए आदमी की तरह हँसा।
"देख-देख, मैंने कहा था न वही हुआ... आखिरकार, मैं ही इस घर को चला रहा हूँ। तुझे मौका भी मैंने ही दिलवाया... थोड़ा तो एहसान मान।"
उसके शब्द उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुँचा रहे थे। वह उसे लगातार याद दिला रहा था कि वह कितनी लाचार है। फिर उसने और भी कड़वाहट से ताना मारा,
"और याद रखना। आर्यन सर ने तुझे फिर से एक चांस दिया है। उस रात तो तुझसे कुछ नहीं हुआ। अब तो मिले हुए मौके का फायदा उठा ले। इसके बदले तुझे बहुत पैसा और मुझे प्रमोशन मिलेगा... खुशकिस्मत है कि आर्यन सर ने तुझे इस काम के लिए चुना।"
मीरा को उसके विचारों से घिन आ गई। उसके इन शब्दों ने मीरा के मन में आर्यन खुराना और उसकी साजिश की याद को और गहरा कर दिया। यह मौका दिया गया था, लेकिन इसकी कीमत कितनी बड़ी थी, यह मीरा को पता था। उसकी मजबूरी न होती, तो वह यह गंदा काम सपने में भी स्वीकार नहीं करती।
मीरा शांत होकर उसकी तरफ देखती रही। उसके चेहरे के भाव स्थिर थे। उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, क्योंकि उसे पता था, इस पल उसके शब्दों की कोई कीमत नहीं है। उसने बस अपना दुपट्टा ठीक किया, बैग कंधे पर डाली, और दरवाज़े की तरफ बढ़ी। हर कदम के साथ उसका निश्चय और दृढ़ हो रहा था।
दरवाज़ा खोलते हुए वह रुकी। बिना मुड़े, बिना आवाज़ ऊँची किए, उसकी आँखों से उसके मन की भावनाओं का सैलाब शांति से बाहर निकला।
"मेरा शांत रहना मेरी कमजोरी नहीं है... और यह मौका देकर तुमने कोई तीर नहीं मारा है, ऐसा बिल्कुल मत सोचना। जब तुम अपनी ही बहन को सिर्फ एक प्रमोशन के मौके के लिए बेचते हो... तब तुम भी सिर्फ 'कमाने वाले' नहीं रहते। मालिक के तलवे चाटने वाले और कुर्सी के लिए झुके हुए एक लाचार इंसान बन जाते हो..." आवाज़ धीमी रखकर ही वह आँखों में दृढ़ता लिए बोली और दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल गई।
उसके शब्द हवा में घुल गए, लेकिन उनकी धार आदित्य के दिल में गहराई तक धँस गई।
वह शांति से घर से बाहर निकली। बाहर की दुनिया की हलचल उसे अब अपने अंदर के तूफान से कम ही लग रही थी।
अंदर, उसका भाई वैसे ही बैठा रहा - एक सेकंड, दो सेकंड... वह अवाक था। मीरा के शब्दों ने उसे धक्का पहुँचाया था, उसके आत्मसम्मान पर एक अप्रत्याशित वार हुआ था।
पीछे फिर से पिता जी की खाँसी की आवाज़ आई... जो उसके दिल में पनप रहे अपराधबोध की छाया को और गहरा कर गई।
जारी...
अगले भाग में देखेंगे कि इंटरव्यू के दौरान क्या होता है।
अपडेट के लिए फॉलो कर लीजिएगा|
©® Writer Tanu✍🏻
मीरा घर से बाहर निकली, लेकिन उसके कदम जैसे मन के खिलाफ चल रहे थे। मन में एक तरह की अनिश्चितता थी, जैसे उसका मन और शरीर दो अलग-अलग दिशाओं में खींचे जा रहे थे। बाहर दोपहर की कड़ी धूप थी, लेकिन अंदर से उसे एक भयानक ठंडक जकड़ रही थी। अपराधबोध, डर और विहान के लिए एक समझ से परे खिंचाव... सारी भावनाएं उसके मन में एक साथ उमड़ आई थीं।
सड़क पर गाड़ियों का शोर, लोगों की भागदौड़ और दुकानदारों की आवाजें सुनाई दे रही थीं, लेकिन मीरा के लिए यह सब बस एक पतला पर्दा था। उसका ध्यान कहीं नहीं था। मन में बस एक ही सवाल घूम रहा था...
"क्या वह मुझे पहचान लेगा?"
उसके मन में खयालों का बवंडर मचा हुआ था।
"शायद वह भूल गया होगा," वह खुद को समझा रही थी।
"उसके जैसे आदमी के लिए, वो सिर्फ एक रात थी... उससे ज्यादा कुछ नहीं। ऐसी कितनी ही रातें उसकी जिंदगी में आई होंगी।" वो खुदसे बोली l
लेकिन उसके दिल की धड़कन कुछ और ही कह रही थी। एक छोटी सी उम्मीद मन में झाँक रही थी...
"लेकिन अगर वह भूला न हो तो? अगर उसने मुझे पहचान लिया तो?"
उसी सोच में उसने एक टैक्सी पकड़ी। कंपनी का ऑफिस ज्यादा दूर नहीं था। पंद्रह मिनट का सफर और वह अब उस इमारत के सामने खड़ी थी।
मीरा टैक्सी से उतरी और उसकी नज़र सामने मेहरा एंटरप्राइजेज की इमारत पर अटक गई। वह सिर्फ एक इमारत नहीं थी, बल्कि एक अलग, आलीशान दुनिया का प्रवेश द्वार लग रही थी।
वह 30-मंजिला कांच की इमारत सुबह की धूप में चमक रही थी, लेकिन उस चमक में कोई गर्माहट नहीं थी। वह एक तरह का ठंडा, प्रभावशाली 'स्टेटस' था। इमारत के पॉलिश किए हुए शीशों में मीरा को अपनी धुंधली परछाई दिखी... छोटी, अस्पष्ट और कुछ हद तक बिखरी हुई।
बाहर की दीवारों पर कंपनी का नाम " MEHRA GLOBAL LEGAL & INFRASTRUCTURE" सोने के अक्षरों में खुदा हुआ था। ऊपर देखते हुए गर्दन में दर्द होने लगे इतनी ऊँची इमारत... उसके मन में एक अनजान डर और उसके साथ ही कुछ हासिल करने की तीव्र इच्छा, इन भावनाओं ने तूफान मचा रखा था।
अब यह अगला कदम उसे कहाँ ले जाएगा, इसकी उसे कोई कल्पना नहीं थी।
मन में अतीत की घटनाओं का एक चक्र चल रहा था...
उसकी आँखों के सामने विहान का चेहरा बार बार आ रहा था। उस रात का उसका शांत स्पर्श उसे याद आ रहा था। मीरा के मन में कहीं वो गहराई से बैठ गया था l विहान के साथ वो रिश्ता उसके लिए सिर्फ एक रात का नहीं था। मन की ये उथल-पुथल और उसके कदमों की दिशाहीनता, इन सबके बीच वो एक बड़े संघर्ष का सामना कर रही थी - अपनी भावनाओं और अतीत की उलझनों के साथ।
जैसे ही गार्ड ने दरवाज़ा खोला, सामने का लंबा, घूमता हुआ दरवाज़ा देखकर मीरा एक पल के लिए ठिठक गई। उसे वह दरवाज़ा किसी राक्षस के मुँह जैसा लगा, जो उसके जैसे साधारण इंसान को आसानी से निगल लेगा। लेकिन फिर भी उसने हिम्मत करके अंदर कदम रखा।
अंदर घुसते ही वह लॉबी देखकर दंग रह गई। इतनी शांति थी कि उसे अपनी ही साँसों की आवाज़ सुनाई दे रही थी। हॉल में हर जगह सफेद संगमरमर लगा था, जो आँखों और मन को एक अजीब सी शांति दे रहा था। हवा में एक हल्की और महंगी खुशबू फैली हुई थी, जो उस जगह की भव्यता को और बढ़ा रही थी।
उसने चारों ओर देखा। कुछ लोग यहाँ-वहाँ आ-जा रहे थे और उनकी चाल में एक बात साफ दिख रही थी... वह थी मालिकाना हक़। जैसे यहाँ काम करना मतलब खुद पर बहुत गर्व करना था। उस माहौल में मीरा को अपनी छोटी होने का एहसास हुआ... लेकिन साथ ही उसे यकीन हो गया कि अगर उसे अपना मकसद यहाँ पूरा करना है, तो उसे इन लोगों में घुलमिल कर काम करना होगा।
"मिस. मीरा जोशी?" रिसेप्शनिस्ट ने अपॉइंटमेंट लेटर देखते हुए मुस्कुराकर उसका नाम पूछा। उसने हाँ में सिर हिलाया।
"14th Floor. HR Suite B. Elevator 2." उसने बताया और मीरा लिफ्ट की तरफ चल दी।
मीरा लिफ्ट से बाहर निकली।
14वाँ फ्लोर – HR Suite B.
गलियारे में टैन रंग का कालीन बिछा था, जो कदमों की हल्की आवाज़ को भी दबा रहा था। दरवाज़ों पर नंबर लगे थे...
"सूट बी," उसने धीरे से पढ़ा। दो गहरी साँसें लीं और धीरे से दरवाज़ा खोला। अंदर क्या होगा, कौन मिलेगा, इसकी उसे कोई कल्पना नहीं थी, लेकिन उसके मन में एक तरह की उत्सुकता और डर दोनों थे।
मीरा ने दरवाज़ा खोला और सामने का कमरा देखकर हैरान रह गई। भव्य और बड़ी कांच की दीवारों से घिरा वह कमरा बहुत आधुनिक था। एक कोने में छोटा कैक्टस और सेंटेड कैंडल्स रखे थे, जबकि सामने एक लंबी कॉन्फ्रेंस टेबल थी। कमरे में एक तरह की ठंडक थी... शायद एसी की वजह से।
उस शांत, खूबसूरत कमरे में एक सलीकेदार महिला टेबल के उस पार बैठी थी - सामने नेमप्लेट थी... अनया बत्रा।
उसकी नज़रों में वही कॉर्पोरेट प्रोफेशनलिज्म था, लेकिन उसकी आवाज़ में कोमलता थी।
"मिस मीरा जोशी?"
"हाँ... नमस्कार," मीरा धीरे से मुस्कुराई। उसकी आवाज़ हल्की थी, लेकिन मन में चल रहा तनाव उसने अच्छी तरह छिपा लिया था।
"आइए बैठिए," अनया ने कुर्सी की तरफ इशारा किया। मीरा एक छड़ी की तरह सीधी होकर बैठ गई।
"मैंने आपकी प्रोफाइल पढ़ी है, बहुत स्ट्रॉन्ग बैकग्राउंड है। एलएलएम किया है, है ना?" अनया ने फाइल पलटते हुए पूछा।
"हाँ, कॉन्ट्रैक्ट लॉ में स्पेशलाइजेशन किया है," मीरा ने जवाब दिया।
"हमारे पास कॉन्फिडेंशियलिटी-हैवी प्रोजेक्ट्स होते हैं। क्या आप उन्हें संभाल पाएँगी?" अनया ने अगला सवाल किया।
मीरा ने थोड़ी देर सोचा।
"प्रेशर संभालना ही मेरी असली खूबी है," उसने हल्का सा जवाब दिया।
"अच्छा है। मुझे बताइए - क्या आपको टीम में काम करना पसंद है, या आप एक इंडिपेंडेंट डिसीजन-मेकर हैं?" अनया ने पूछा।
"थोड़ा-सा दोनों। ज़रूरत पड़ने पर, मैं अकेले ज़िम्मेदारी लेती हूँ... और जब समय आता है, तो मैं टीम पर भरोसा भी करती हूँ," मीरा ने आत्मविश्वास से बताया।
"इम्प्रेसिव आंसर," अनया ने एक नोट कर लिया।
मीरा अब थोड़ी रिलैक्स हो गई थी। उसके मन में विचार आया... वह यहाँ नहीं है। मतलब... इंटरव्यू आसानी से हो जाएगा। और फिर मैं वापस चली जाऊँगी। उस रात की याद उसके मन में हल्के से दब गई। उसे बस एक बार उसे देखने की इच्छा थी। लेकिन इस बार शायद वह योग नहीं था।
"आप खुद को अगले पाँच सालों में कहाँ देखती हैं?" अनया ने सवाल किया। और वह अगस्त्य के विचारों से बाहर आई।
जवाब देने के लिए मीरा ने मुँह खोला... और तभी दरवाजे पर दस्तक हुई और दरवाजा खुला। अनया ने सामने देखा और मीरा ने तुरंत पलटकर पीछे देखा।
क्योंकि इस परफ्यूम की खुशबू उसके लिए बहुत जानी-पहचानी थी... और दरवाज़े पर खड़े इंसान को देखकर उसकी आँखें बड़ी हो गईं।
शांत, लेकिन बेहद दृढ़ कदम रखते हुए वह अंदर आया... काले रंग की परफेक्ट इस्त्री की हुई शर्ट और उस पर एक महंगा ब्लेज़र। चाल में रुतबा... चेहरे पर आत्मविश्वास और नज़रों में... एक अजीब सा भाव।
वो विहान मेहराही था...
उसका चेहरा पूरी तरह स्थिर था, लेकिन उसकी नज़र थोड़ी गुस्से वाली लग रही थी। जैसे उसे सब कुछ पता हो, फिर भी वह अभी कुछ न बताने का खेल खेल रहा हो।
मीरा उठने वाली थी, लेकिन उसकी कुर्सी के हैंडल पर उसकी उँगलियाँ अपने आप कस गईं। एक पल के लिए उसकी साँस रुक गई। उसे वह रात, उस स्पर्श का एहसास और उसकी आँखें... वही आँखें याद आ गईं, जो अब उसके सामने थीं। वह कुछ भी नहीं बोल पाई। अब वह सिर्फ साँस ले रही थी... वह भी बहुत धीमी और भारी। उसे चक्कर आ जाएगा, ऐसा लग रहा था। 'कहीं उसने मुझे पहचान तो नहीं लिया', यह डर उसके मन में गहरा गया।
विहान की नज़र उस पर रुकी। सिर्फ एक सेकंड के लिए। और फिर, शांति से अनया की तरफ मुड़ गई।
"इंटरव्यू चल रहा है क्या? या मैं बाद में आऊँ?" उसकी आवाज़ में एक बेरुखी थी...
लेकिन उसके पीछे कुछ छिपा है, यह मीरा को साफ महसूस हो रहा था। वह बैठी हुई ही जम गई। वह उसे नहीं देख रहा था। और उसकी नज़र उसके चेहरे से हट नहीं रही थी। उसका चौड़ा माथा, गाल पर हल्का सा तिल, और होंठों पर वह जानी-पहचानी लकीर...
सब कुछ वैसा ही था, जैसा उस रात उसने पहली बार देखा था।
विहान उसके सामने फिर एक बार आ गया था। और अनया के सवाल का जवाब शायद उसे ज़्यादा बेहतर पता था...
कहानी जारी है....
कहानी कैसी लगी, कमेंट्स में ज़रूर बताएँ ❤️
और मुझे फॉलो करना न भूलें 🥰
©®Writer Tanu✍🏻