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Bachpan ka rang ek Prem kahani

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Abhinav Singh

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यह कहानी बचपन के प्यार, दोस्ती, सपनों और जिंदगी के उतार-चढ़ाव की यात्रा है। यह मासूमियत से शुरू होकर परिपक्वता तक की कहानी है, जिसमें प्यार, अलगाव, और फिर से मिलन की भावनाएँ हैं। मुख्य पात्र:अनिरुद्ध: एक संवेदनशील, सपने देखने वाला लड़का, ज...

Total Chapters (11)

Page 1 of 1

  • 1. Bachpan ka rang ek Prem kahani - Chapter 1

    Words: 2440

    Estimated Reading Time: 15 min

    उपन्यास: बचपन के रंग

    पार्ट1

    अध्याय :1 पहेली मुलाकात

    गर्मियों की दोपहर थी। सूरज आसमान में तप रहा था, और कस्बे की गलियों में गर्म हवा के झोंके मिट्टी की सोंधी खुशबू ला रहे थे। यह 1990 का भारत था, और सूरजपुर नाम का यह छोटा सा कस्बा अपनी सादगी और शांति के लिए जाना जाता था। पक्की सड़कों के बीच कच्चे रास्ते, पुराने बरगद और आम के पेड़, और बच्चों की हँसी से गूँजता यह कस्बा अनिरुद्ध के लिए उसका पूरा संसार था। अनिरुद्ध, जिसे सब प्यार से अनु बुलाते थे, अपने घर के छोटे से आँगन में बैठा था। वह बारह साल का था, दुबला-पतला, भूरी आँखों वाला, और हमेशा अपने ख्यालों में खोया रहता था। उसकी गोद में एक पुरानी कॉपी थी, जिसके किनारे फट चुके थे। वह उसमें अपनी कविता लिख रहा था। "बादल आए, बूँदें गिरीं, फिर दिल क्यों उदास है?" उसने लिखा और पेन को होठों के पास ले जाकर रुक गया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि अगली पंक्ति क्या हो। उसका ध्यान बार-बार सड़क की ओर जा रहा था, जहाँ कुछ हलचल मच रही थी। उसके घर के सामने वाली गली में एक पुराना ट्रक खड़ा था। ट्रक की छत पर बँधे सामान—लकड़ी का पलंग, एक पुरानी अलमारी, और रंग-बिरंगे बक्से—धीरे-धीरे उतारे जा रहे थे। अनिरुद्ध का घर एक छोटा सा मकान था, जिसके सामने एक छोटा आँगन और एक नीम का पेड़ था। उसकी माँ, सरला, एक स्कूल टीचर थीं, जो अकेले ही अनिरुद्ध को पाल रही थीं। अनिरुद्ध के पिता कई साल पहले एक दुर्घटना में चले गए थे, और तब से सरला ने अपने बेटे को अपने सपनों का सहारा बनाया था। "अनु! बाहर आ, देख नया पड़ोसी आया है!" सरला की आवाज़ घर के अंदर से गूँजी। वह रसोई में थीं, जहाँ से चाय की खुशबू आ रही थी। अनिरुद्ध ने अपनी कॉपी बंद की, पेन को जेब में डाला, और उत्सुकता से बाहर दौड़ा। उसने देखा कि सामने वाले घर, जो कई महीनों से खाली पड़ा था, अब जीवंत हो रहा था। कुछ मजदूर सामान उतार रहे थे, और एक अधेड़ उम्र का आदमी, शायद माया के पिता, उन्हें निर्देश दे रहा था। अनिरुद्ध गली के किनारे खड़ा होकर यह सब देख रहा था, तभी एक तेज़ आवाज़ ने उसका ध्यान खींचा। "हटो, हटो!" एक साइकिल तेज़ी से गली में दाखिल हुई। साइकिल पर एक लड़की थी, अनिरुद्ध की उम्र की, जिसके चेहरे पर बेफिक्री और उत्साह साफ झलक रहा था। उसकी चोटी हवा में लहरा रही थी, और उसने लाल रंग की फ्रॉक पहनी थी। साइकिल ट्रक के पास पहुँची, और वह रुकने की कोशिश में लड़खड़ा गई। अनिरुद्ध बिना सोचे दौड़ा और साइकिल को संभाला, जिससे लड़की जमीन पर गिरने से बच गई। "अरे, तू ठीक है?" अनिरुद्ध ने चिंता से पूछा, उसकी साँसें तेज़ थीं। लड़की ने अपनी चोटी ठीक की, धूल झाड़ी, और हँसते हुए बोली, "हाँ, मैं ठीक हूँ! तू कौन?" उसकी आँखों में शरारत थी, और उसकी हँसी में एक अजीब सा जादू था। "मैं... अनिरुद्ध। मगर सब अनु बुलाते हैं," उसने शर्माते हुए कहा। वह लड़कियों से ज्यादा बात नहीं करता था, और इस लड़की की बेफिक्री ने उसे थोड़ा असहज कर दिया। "मैं माया!" लड़की ने अपनी साइकिल उठाई और आँखों में चमक लाते हुए बोली, "चल, रेस लगाएँ?" अनिरुद्ध हैरान था। "रेस? अभी?" उसने हकलाते हुए पूछा। "हाँ, अभी! डर गया क्या?" माया ने चुनौती भरे अंदाज़ में कहा और अपनी साइकिल को गली के आखिरी छोर की ओर इशारा किया। अनिरुद्ध ने अपनी पुरानी साइकिल उठाई, जो नीम के पेड़ के पास खड़ी थी। उसकी साइकिल पुरानी थी, लेकिन अनिरुद्ध को उससे बहुत प्यार था। उसने कभी किसी से रेस नहीं लगाई थी, और अब एक लड़की उसे चुनौती दे रही थी। वह थोड़ा घबराया, लेकिन माया की हँसी ने उसे हिम्मत दी। "ठीक है, चल!" उसने कहा। दोनों गली के आखिरी छोर तक दौड़े। माया की साइकिल तेज़ थी, और वह अनिरुद्ध से आगे निकल गई। गली के अंत में एक पुराना बरगद का पेड़ था, जिसे फिनिश लाइन माना गया। माया ने जीत की खुशी में अपनी साइकिल हवा में उठाई और चिल्लाई, "हा! मैं जीत गई!" अनिरुद्ध हाँफते हुए रुका। उसे हार का गम नहीं था। वह माया की खुशी देखकर मुस्कुरा रहा था।..

    अध्याय: 2 स्कूल का पहला दिन

    सूरज पुर का सुबह का माहौल हमेशा जीवंत होता था। गलियों में मुर्गों की बाँग, मंदिर की घंटियों की आवाज़, और स्कूल जाने वाले बच्चों की चहल-पहल से कस्बा जाग उठता था। अनिरुद्ध अपनी पुरानी साइकिल पर स्कूल के लिए तैयार था। उसकी माँ, सरला, उसे टिफिन थमाते हुए बोलीं, "अनु, जल्दी कर, बस छूट जाएगी!" अनिरुद्ध ने जल्दी से अपनी कॉपी और पेन जेब में डाले और साइकिल लेकर बाहर निकला। उसका स्कूल, सूरजपुर मिडिल स्कूल, कस्बे के दूसरे छोर पर था, जहाँ तक जाने के लिए उसे गलियों और खेतों के बीच से गुजरना पड़ता था। कल की मुलाकात के बाद से अनिरुद्ध के मन में माया की हँसी गूँज रही थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह बार-बार उसी लाल फ्रॉक वाली लड़की के बारे में क्यों सोच रहा था। उसकी साइकिल की रेस में हार का गम नहीं था, लेकिन माया की बेफिक्री और उसकी आँखों की चमक ने उसे कुछ अजीब सा एहसास दिया था। वह सोच में डूबा हुआ साइकिल चला रहा था, तभी उसे एक परिचित आवाज़ सुनाई दी। "अरे, अनु! इतना धीमे क्यों चला रहा है? फिर हार जाएगा!" माया थी। वह अपनी नई साइकिल पर थी, जिसके हैंडल पर एक छोटी सी टोकरी थी, जिसमें उसने अपनी स्कूल बैग रखा था। अनिरुद्ध ने उसे देखा और अनायास ही मुस्कुरा दिया। "मैं हारने के लिए नहीं चला रहा, बस... सोच रहा था," अनिरुद्ध ने हँसते हुए कहा। "क्या सोच रहा था? अपनी कविता?" माया ने शरारत भरे अंदाज़ में पूछा। अनिरुद्ध थोड़ा शरमा गया। उसने कल माया को अपनी कविता के बारे में नहीं बताया था, लेकिन उसकी कॉपी आँगन में खुली पड़ी थी, शायद माया ने देख लिया था। "तुझे कैसे पता?" उसने पूछा। "मैंने तेरी कॉपी देखी थी। तू बादलों और बूँदों के बारे में लिख रहा था, ना?" माया ने साइकिल चलाते हुए कहा। उसकी आवाज़ में उत्साह था, जैसे वह अनिरुद्ध की हर बात को जानना चाहती हो। अनिरुद्ध को लगा कि माया उसकी कविताओं को समझती है। उसने हिम्मत जुटाकर कहा, "हाँ, मैं कविताएँ लिखता हूँ। पर अभी वो अधूरी हैं।" "मुझे पढ़कर सुना न!" माया ने उत्साह से कहा। अनिरुद्ध ने साइकिल रोकी और अपनी कॉपी निकाली। दोनों एक खेत के किनारे रुके, जहाँ एक पुराना कुआँ था। आसपास सरसों के पीले फूल लहरा रहे थे, और हवा में हल्की ठंडक थी। अनिरुद्ध ने अपनी कविता पढ़ी:

    "बादल आए, बूँदें गिरीं,

    दिल में कोई बात सही।

    खेत हरे, आसमान नीला,

    फिर भी मन का रंग अधूरा।"

    माया ने ताली बजाई। "वाह, अनु! तू तो बड़ा शायर है!" उसकी आँखें चमक रही थीं। "ये रंग अधूरा क्या है? तुझे क्या चाहिए?" अनिरुद्ध को जवाब नहीं सूझा। वह माया की आँखों में देखकर बस मुस्कुराया। उसे नहीं पता था कि उसका मन क्यों अधूरा सा लगता था, लेकिन माया की हँसी सुनकर उसे कुछ सुकून मिला। स्कूल की बस स्टॉप पर पहुँचते ही माया और अनिरुद्ध बस में चढ़े। अनिरुद्ध को आश्चर्य हुआ जब माया उसके पास वाली सीट पर बैठ गई। "तू हर दिन मेरे साथ बैठेगा, ठीक है?" माया ने कहा, जैसे यह कोई सवाल नहीं, बल्कि आदेश हो। अनिरुद्ध ने हामी भरी। स्कूल में पहला दिन था, और माया को उसी कक्षा में जगह मिली थी, जिसमें अनिरुद्ध पढ़ता था। कक्षा सातवीं थी, और मास्टरजी, जो गणित पढ़ाते थे, अपनी सख्ती के लिए मशहूर थे। अनिरुद्ध हमेशा पीछे की बेंच पर बैठता था, क्योंकि उसे खिड़की से बाहर का नज़ारा देखना पसंद था। माया ने भी उसी बेंच को चुना। "यहाँ से खेत दिखते हैं," उसने फुसफुसाते हुए कहा। पहला पीरियड गणित का था, लेकिन माया का ध्यान किताबों में कम और अनिरुद्ध की कॉपी में ज्यादा था। उसने चुपके से अनिरुद्ध की कॉपी खींची और उसमें कुछ लिखा। जब अनिरुद्ध ने देखा, तो उसमें एक छोटा सा चित्र बना था—एक साइकिल और दो बच्चे। नीचे लिखा था, "अनु और माया की रेस!" अनिरुद्ध ने उसे देखकर हँस दिया, लेकिन मास्टरजी की नज़र पड़ गई। "अनिरुद्ध! क्या बात कर रहे हो?" मास्टरजी ने डाँटा। "क... कुछ नहीं, सर," अनिरुद्ध ने हकलाते हुए कहा। माया ने अपनी हँसी दबाई और किताब में झाँकने लगी। स्कूल के बाद, माया और अनिरुद्ध साथ-साथ घर की ओर चले। रास्ते में माया ने अनिरुद्ध से पूछा, "तू हमेशा कविताएँ क्यों लिखता है? कुछ और नहीं करता?" अनिरुद्ध ने सोचा। "मुझे लगता है, कविताएँ मेरे मन की बात कह देती हैं। तुझे क्या अच्छा लगता है?" "मुझे साइकिल चलाना, गाना गाना, और... हाँ, तुझे तंग करना!" माया ने हँसते हुए कहा। अनिरुद्ध ने भी हँस दिया। "तू सचमुच शरारती है।" घर पहुँचते-पहुँचते दोनों की दोस्ती और गहरी हो गई। अनिरुद्ध की माँ ने माया को देखा और मुस्कुराईं। "ये माया है, ना? अच्छी लड़की है। अनु, इसे घर बुलाओ कभी!" माया ने कहा, "आंटी, मैं तो रोज़ आऊँगी! अनु को तो मैंने अपना दोस्त बना लिया है।" उस रात, अनिरुद्ध अपनी कॉपी में एक नई कविता लिखने बैठा। उसने लिखा:

    "हँसी तेरी, जैसे सावन की फुहार,

    दिल में जागे, बचपन का प्यार।"

    वह नहीं जानता था कि यह प्यार क्या है, लेकिन माया के साथ बिताया हुआ दिन उसे सबसे खूबसूरत लग रहा था।

    अध्याय 3: आम का पेड़

    सूरजपुर की गर्मियाँ अपने चरम पर थीं, लेकिन दोपहर के बाद जब सूरज ढलने लगता, तो हवा में एक हल्की ठंडक घुल जाती। अनिरुद्ध और माया स्कूल से लौटे थे, और उनकी साइकिलें अब गली के आखिरी छोर पर खड़ी थीं। स्कूल का पहला दिन अनिरुद्ध के लिए कुछ खास था। माया की शरारतों ने उसे हँसाया था, और उसकी कॉपी में बनाया गया छोटा सा चित्र—साइकिल और दो बच्चे—उसके मन में बस गया था। उसने उस चित्र को बार-बार देखा, और हर बार उसे माया की हँसी याद आती।

    "अनु, चल न, कहीं घूमने!" माया ने अपनी साइकिल को किक मारते हुए कहा। उसकी लाल फ्रॉक हवा में लहरा रही थी, और उसकी चोटी बार-बार कंधे से फिसल रही थी। अनिरुद्ध ने अपनी साइकिल उठाई और पूछा, "कहाँ?"

    "आम के पेड़ के पास!" माया ने उत्साह से कहा। "वहाँ सबसे अच्छे आम मिलते हैं। मैंने सुना है, उस पेड़ के आम सबसे मीठे हैं!"

    अनिरुद्ध ने हँसते हुए कहा, "तुझे कैसे पता? तू तो कल ही आई है!"

    "अरे, मैंने पड़ोस की आंटी से पूछा। वो बोलीं, सूरजपुर का वो पेड़ मशहूर है!" माया ने आँख मारकर जवाब दिया।

    दोनों साइकिल लेकर गली के बाहर निकले। सूरजपुर का पुराना आम का पेड़ कस्बे के बाहरी हिस्से में था, जहाँ खेतों की हरी-भरी क्यारियाँ शुरू होती थीं। रास्ते में दोनों ने आपस में बातें कीं। माया ने बताया कि उसके पिता एक सरकारी स्कूल में शिक्षक हैं, और उनकी नौकरी की वजह से उनका परिवार बार-बार एक जगह से दूसरी जगह जाता रहता है। "पहले हम लखनऊ में थे, फिर बनारस, और अब यहाँ," उसने कहा।

    "तुझे नहीं लगता कि बार-बार जगह बदलना मुश्किल है?" अनिरुद्ध ने पूछा।

    माया ने एक पल सोचा, फिर बोली, "हाँ, थोड़ा तो लगता है। पर मुझे नई जगहें देखना अच्छा लगता है। और अब तो तू मिल गया, तो ये जगह और मज़ेदार हो गई!"

    अनिरुद्ध शरमा गया। उसे समझ नहीं आया कि माया की बातों में इतनी आसानी से वह क्यों उलझ जाता था। उसने विषय बदलते हुए कहा, "चल, देखते हैं कि वो आम कितने मीठे हैं।"

    आम का पेड़ कस्बे का एक ऐतिहासिक निशान था। लोग कहते थे कि इसे सौ साल पहले किसी ने लगाया था, और तब से यह हर गर्मी में मीठे आम देता था। पेड़ की शाखाएँ इतनी फैली थीं कि उसकी छाया में पूरा आँगन बन जाता था। अनिरुद्ध और माया ने अपनी साइकिलें पेड़ के पास खड़ी कीं और ऊपर देखा। पेड़ पर हरे और पीले आम लटक रहे थे, जिनमें से कुछ इतने पके थे कि हल्का सा हिलाने पर गिरने को तैयार थे।

    "मैं चढ़ती हूँ!" माया ने बिना रुके कहा और पेड़ की सबसे निचली शाखा पर चढ़ने लगी। अनिरुद्ध घबरा गया। "अरे, माया! गिर जाएगी! रुक, मैं लाता हूँ!"

    "तू डरपोक है, अनु!" माया ने हँसते हुए कहा। उसने एक शाखा पकड़ी और चपलता से ऊपर चढ़ गई। अनिरुद्ध नीचे खड़ा उसे देखता रहा। माया की नन्ही सी फ्रॉक शाखाओं में उलझ रही थी, लेकिन वह बिना डरे आगे बढ़ी। उसने एक बड़ा सा आम तोड़ा और नीचे फेंका। "ले, पकड़!"

    अनिरुद्ध ने आम को लपका और हँस दिया। "तू सचमुच पागल है!"

    माया नीचे उतरी और दोनों पेड़ की छाया में बैठ गए। माया ने अपने बैग से एक छोटा सा चाकू निकाला और आम को काटने लगी। "ये ल, सबसे मीठा है!" उसने एक टुकड़ा अनिरुद्ध को दिया।

    अनिरुद्ध ने आम खाया और आँखें बंद कर लीं। "वाह, ये तो सचमुच मीठा

    "मैंने कहा था न!" माया ने गर्व से कहा। दोनों हँसते-हँसते लोटपोट हो गए। आम की मिठास उनके मुँह में घुल रही थी, और उस पल में दुनिया की सारी चिंताएँ गायब हो गई थीं।

    बैठे-बैठे माया ने अनिरुद्ध की कॉपी माँगी। "ज़रा अपनी कविता दिखा न!" उसने कहा। अनिरुद्ध ने थोड़ा हिचकिचाते हुए कॉपी दी। माया ने उसमें लिखी एक और कविता पढ़ी:

    "खेतों में लहराए हवा,

    सपनों का पीछा करे सदा।

    दिल में बसी एक छोटी सी बात,

    क्या है ये, जो देती है राहत?"

    "ये तूने मेरे लिए लिखी?" माया ने शरारत से पूछा।

    अनिरुद्ध का चेहरा लाल हो गया। "न... नहीं, बस यूँ ही!" माया ने हँसकर कहा, "झूठ बोल रहा है! मैं समझ गई।"

    उस दिन दोनों देर तक आम के पेड़ के नीचे बैठे रहे। माया ने अनिरुद्ध को अपनी पुरानी जगहों की कहानियाँ सुनाईं—कैसे उसने बनारस में गंगा के किनारे पतंग उड़ाई थी, और कैसे लखनऊ में उसने अपने दोस्तों के साथ चाट खाई थी। अनिरुद्ध ने भी अपनी कहानियाँ सुनाईं—कैसे वह अपनी माँ के साथ मेला जाता था, और कैसे उसे सूरजपुर की गलियों में साइकिल चलाना पसंद था।

    जब सूरज डूबने लगा, तो माया ने कहा, "अनु, ये आम का पेड़ हमारा खास जगह होगा, ठीक है? हम हर दिन यहाँ आएँगे।"

    अनिरुद्ध ने हामी भरी। "ठीक है। लेकिन तू हर बार आम चुराने मत चढ़ना!" "चुराना नहीं, लेना!" माया ने हँसते हुए कहा।

    घर लौटते वक्त अनिरुद्ध के मन में एक नई ताज़गी थी। उसे माया के साथ बिताया हर पल खास लग रहा था। उस रात, जब वह अपनी कॉपी में लिखने बैठा, तो उसने एक नई कविता शुरू की:

    "आम के पेड़ की छाँव में,

    दोस्ती की बातें नई बनीं।

    हँसी तेरी, जैसे सावन की बूँद,

    दिल को छू ले, बने अनघट जादू।"

    वह नहीं जानता था कि यह दोस्ती उसके जीवन को हमेशा के लिए बदल देगी।

  • 2. Bachpan ka rang ek Prem kahani - Chapter 2

    Words: 912

    Estimated Reading Time: 6 min

    शरारत का दिन

    सूरजपुर की गलियाँ सुबह की चहल-पहल के बाद अब दोपहर की शांति में डूबी थीं। स्कूल की छुट्टी हो चुकी थी, और अनिरुद्ध अपनी साइकिल पर माया के साथ गली में निकला था। उसकी नीली यूनिफॉर्म पर पसीने के दाग थे, और उसका बैग कंधे पर लटक रहा था। माया, हमेशा की तरह, अपनी साइकिल पर तेज़ी से आगे-पीछे हो रही थी, जैसे उसे कभी थकान छूती ही नहीं थी। उसकी चोटी हवा में लहरा रही थी, और वह बार-बार अनिरुद्ध को चिढ़ा रही थी। "अनु, तू इतना धीमे क्यों चलता है? क्या, स्कूल में मास्टरजी ने डाँट दिया?" माया ने हँसते हुए पूछा। अनिरुद्ध ने मुस्कुराकर जवाब दिया, "नहीं, बस तू इतनी तेज़ है कि मैं थक गया हूँ तेरा पीछा करते-करते!" माया ने साइकिल रोकी और आँखें सिकोड़कर कहा, "अच्छा? तो आज तुझे कुछ मज़ेदार दिखाती हूँ। चल, मेरे साथ!" "कहाँ?" अनिरुद्ध ने उत्सुकता से पूछा। माया की शरारतें उसे हमेशा आश्चर्य में डाल देती थीं। "बस, चुपचाप चल!" माया ने रहस्यमयी अंदाज़ में कहा और अपनी साइकिल को कस्बे के पुराने बाज़ार की ओर मोड़ लिया। अनिरुद्ध ने उसका पीछा किया। सूरजपुर का बाज़ार छोटा सा था, लेकिन रंग-बिरंगी दुकानों और लोगों की भीड़ से भरा हुआ। वहाँ सब्जी वाले अपनी टोकरियों में ताज़ी सब्जियाँ सजा रहे थे, और एक पुराना रेडियो कहीं दूर "रिमझिम गिरे सावन" बजा रहा था। माया ने अपनी साइकिल एक छोटी सी गली में रोकी, जहाँ एक पुरानी हवेली थी। यह हवेली कस्बे की सबसे पुरानी इमारतों में से एक थी, जिसके बारे में बच्चे कहते थे कि वहाँ भूत रहते हैं। हवेली का लकड़ी का दरवाज़ा टूटा हुआ था, और उसकी दीवारों पर बेलें चढ़ी हुई थीं। अनिरुद्ध ने घबराते हुए कहा, "माया, यहाँ क्यों लाई? ये तो वही भूतों वाली हवेली है!" माया ने हँसकर जवाब दिया, "अरे, डरपोक! भूत-वूत कुछ नहीं होता। मैंने सुना है, इस हवेली के पीछे एक बगीचा है, और वहाँ जंगली फल उगते हैं। चल, ढूँढते हैं!" अनिरुद्ध का मन डर रहा था, लेकिन माया की हिम्मत और उत्साह के सामने वह कुछ नहीं बोल सका। दोनों ने अपनी साइकिलें हवेली के बाहर खड़ी कीं और चुपके से अंदर दाखिल हुए। हवेली का आँगन धूल से भरा था, और पुराने खंभों पर कौवे बैठे काँव-काँव कर रहे थे। माया ने अनिरुद्ध का हाथ पकड़ा और फुसफुसाई, "डर मत, मैं हूँ न!" अनिरुद्ध का दिल तेज़ी से धड़क रहा था, लेकिन माया का हाथ पकड़कर उसे थोड़ा सुकून मिला। दोनों आँगन के पार एक छोटे से दरवाज़े तक पहुँचे, जो हवेली के पीछे के बगीचे में खुलता था। बगीचा जंगली झाड़ियों और पेड़ों से भरा था, लेकिन वहाँ सचमुच कुछ जंगली बेर के पेड़ थे। माया ने उत्साह से एक बेर तोड़ा और चखा। "वाह, अनु! ये तो खट्टा-मीठा है! ले, तू भी खा!" अनिरुद्ध ने बेर खाया और मुँह बनाया। "ये तो बहुत खट्टा है!" "खट्टा ही तो मज़ा है!" माया ने हँसते हुए कहा और एक और बेर तोड़ा। दोनों बगीचे में बैठ गए और बेर खाते हुए बातें करने लगे। माया ने बताया कि उसे ऐसी शरारतें करना बहुत पसंद है। "लखनऊ में मैं अपने दोस्तों के साथ एक पुराने किले में चली गई थी। वहाँ भी सब कहते थे कि भूत हैं, पर मुझे तो सिर्फ़ मज़ा मिला!" अनिरुद्ध ने हैरानी से पूछा, "तुझे डर नहीं लगता?" "डर? वो क्या होता है?" माया ने हँसकर जवाब दिया। "ज़िंदगी में अगर डर गए, तो मज़ा कैसे आएगा?"

    उसकी बात सुनकर अनिरुद्ध को हिम्मत मिली। उसने अपनी कॉपी निकाली और कहा, "माया, तू सुन, मैंने कल रात एक कविता लिखी थी।" माया ने उत्साह से कहा, "पढ़! जल्दी पढ़!" अनिरुद्ध ने अपनी कविता पढ़ी: "आम के पेड़ की छाँव में,

    दोस्ती की बातें नई बनीं।

    हँसी तेरी, जैसे सावन की बूँद,

    दिल को छू ले, बने अनघट जादू।"

    माया ने ताली बजाई। "अनु, तू तो कमाल है! ये कविता मेरे लिए है, ना?"

    अनिरुद्ध शरमा गया। "बस... यूँ ही लिखी।" "झूठ मत बोल!" माया ने हँसते हुए कहा। "मुझे पता है, तू मेरे बारे में सोचता है!" अनिरुद्ध ने जवाब नहीं दिया, लेकिन उसकी मुस्कान सब कुछ कह गई। तभी बगीचे में एक अजीब सी आवाज़ आई—शायद कोई टहनी टूटी थी। अनिरुद्ध घबरा गया। "माया, ये क्या था?" माया ने हँसकर कहा, "अरे, कुछ नहीं! शायद कोई बिल्ली होगी।" लेकिन उसकी आँखों में भी थोड़ा डर था। दोनों जल्दी से बगीचे से बाहर निकले और अपनी साइकिलों की ओर दौड़े। हवेली से बाहर निकलते ही दोनों ठहाका मारकर हँस पड़े। "अनु, तू तो सचमुच डर गया था!" माया ने चिढ़ाया। "और तू? तेरी आँखें भी तो डर से बड़ी हो गई थीं!" अनिरुद्ध ने पलटवार किया। दोनों हँसते-हँसते घर की ओर चल पड़े। रास्ते में माया ने कहा, "अनु, ये हमारा राज़ रहेगा, ठीक है? मम्मी-पापा को मत बताना।" "ठीक है," अनिरुद्ध ने वादा किया। घर पहुँचते ही अनिरुद्ध की माँ, सरला, ने पूछा, "अनु, इतनी देर कहाँ थे?" "बस, माया के साथ घूमने गए थे," अनिरुद्ध ने हल्के से जवाब दिया। सरला ने मुस्कुराकर माया की ओर देखा। "माया, तू अनु को बिगाड़ देगी!" "नहीं आंटी, मैं तो इसे मज़ेदार बनाऊँगी!" माया ने हँसते हुए कहा। उस रात, अनिरुद्ध अपनी कॉपी में बैठा और एक नई कविता लिखी:

    "हवेली पुरानी, बगीचे की बात,

    माया के संग बनी हर मुलाकात।

    डर भी लगा, पर हँसी न गई,

    दोस्ती की राह में हर पल नई।"

    उसके मन में माया की हँसी और उनकी शरारत बार-बार गूँज रही थी। उसे लग रहा था कि माया के साथ हर दिन एक नया रोमांच लाता है।

    continue.....✍🏻✍🏻✍🏻

  • 3. Bachpan ka rang ek Prem kahani - Chapter 3

    Words: 757

    Estimated Reading Time: 5 min

    स्कूल की शरारत :

    सूरजपुर में सुबह की शुरुआत हमेशा एक ताज़गी भरी हवा के साथ होती थी। सूरज अभी पूरी तरह उगा नहीं था, और गलियों में हल्की धुंध छाई थी। अनिरुद्ध अपने छोटे से कमरे में तैयार हो रहा था। उसकी नीली स्कूल यूनिफॉर्म पर माँ ने रात को इस्त्री की थी, और उसका बैग कविताओं की कॉपी और किताबों से भरा था। कल की हवेली वाली शरारत के बाद से अनिरुद्ध के मन में एक अजीब सी उमंग थी। माया की बेफिक्री और उसकी हँसी ने उसे कुछ ऐसा एहसास दिया था, जो पहले कभी नहीं हुआ था। वह अपनी कॉपी में लिखी नई कविता को बार-बार पढ़ रहा था:

    "हवेली पुरानी, बगीचे की बात,
    माया के संग बनी हर मुलाकात।"

    "अनु! जल्दी कर, स्कूल बस इंतज़ार नहीं करेगी!" उसकी माँ, सरला, की आवाज़ ने उसे ख्यालों से बाहर निकाला। अनिरुद्ध ने जल्दी से अपने जूते पहने और साइकिल लेकर बाहर निकला। गली के मोड़ पर माया पहले से ही अपनी साइकिल पर खड़ी थी, जैसे हमेशा की तरह उसका इंतज़ार कर रही हो। उसकी लाल फ्रॉक की जगह आज स्कूल यूनिफॉर्म थी, लेकिन उसकी चोटी और शरारती मुस्कान वही थी।

    "अनु, आज तू फिर धीमा है!" माया ने चिढ़ाते हुए कहा। "कल तो हवेली में डर गया था, आज क्या बहाना है?"

    अनिरुद्ध ने हँसकर जवाब दिया, "मैं डरा नहीं था, बस तू इतनी तेज़ थी कि मैं हैरान रह गया!"
    "अच्छा? तो आज तुझे और हैरान करती हूँ!" माया ने आँख मारकर कहा और साइकिल को तेज़ी से स्कूल की ओर भगाया। अनिरुद्ध ने उसका पीछा किया, और दोनों हँसते-हँसते स्कूल बस स्टॉप तक पहुँचे।
    सूरजपुर मिडिल स्कूल में आज कुछ खास था। स्कूल में सालाना खेलकूद प्रतियोगिता की तैयारियाँ चल रही थीं, और बच्चे उत्साह से भरे थे। मास्टरजी ने कक्षा में घोषणा की कि अगले हफ्ते दौड़, कबड्डी, और साइकिल रेस होगी। माया की आँखें चमक उठीं। उसने अनिरुद्ध की ओर देखा और फुसफुसाई, "अनु, हम साइकिल रेस में हिस्सा लेंगे!" "मैं? रेस में?" अनिरुद्ध ने घबराते हुए कहा। "माया, मेरी साइकिल तो पुरानी है। तू तो जीत जाएगी, लेकिन मैं?"

    "अरे, डरपोक! तुझे जीतने की ज़रूरत नहीं, बस मज़े के लिए दौड़!" माया ने हँसकर कहा।

    कक्षा के बाद, लंच के समय, माया और अनिरुद्ध स्कूल के मैदान में बैठे। माया ने अपने टिफिन से पराठा निकाला और अनिरुद्ध को दिया। "ले, मेरी मम्मी के हाथ का पराठा खा। तुझे हिम्मत मिलेगी!"
    अनिरुद्ध ने पराठा खाया और मुस्कुराया। "तेरी मम्मी इतना अच्छा खाना बनाती हैं। मेरी माँ को बोलूँगा, उनसे सीखें!"

    "हाँ, और मेरी मम्मी को बोलूँगी कि तुझे कविताएँ सिखाएँ!" माया ने चिढ़ाया।
    लंच के बाद, माया ने एक नया आइडिया निकाला। "अनु, चल, स्कूल के पीछे वाला तालाब देखने चलें। मैंने सुना है, वहाँ कमल के फूल खिलते हैं।"

    "अब? मास्टरजी पकड़ लेंगे!" अनिरुद्ध ने चिंता से कहा।

    "अरे, कुछ नहीं होगा। बस थोड़ा सा देखकर आ जाएँगे," माया ने आँखों में शरारत भरी।

    अनिरुद्ध माया की बातों में आ गया। दोनों चुपके से स्कूल के पीछे के रास्ते से निकले। स्कूल का पीछे वाला हिस्सा जंगल जैसा था, जहाँ घास और झाड़ियाँ उगी थीं। तालाब छोटा सा था, लेकिन उसमें सचमुच कमल के फूल तैर रहे थे। माया ने एक कमल का फूल तोड़ने की कोशिश की, लेकिन उसका पैर कीचड़ में फिसल गया। अनिरुद्ध ने उसे तुरंत पकड़ा।

    "माया, तू सचमुच पागल है!" अनिरुद्ध ने हँसते हुए कहा।
    "और तू मेरे बिना क्या करेगा?" माया ने कीचड़ साफ करते हुए जवाब दिया।
    तभी एक आवाज़ गूँजी। "कौन है वहाँ?" यह चौकीदार काका की आवाज़ थी। माया और अनिरुद्ध घबरा गए। माया ने अनिरुद्ध का हाथ पकड़ा और कहा, "भाग!"

    दोनों झाड़ियों के बीच से भागे और स्कूल के मैदान में वापस आए। उनकी साँसें फूल रही थीं, लेकिन दोनों हँस रहे थे। "अनु, ये मज़ा था!" माया ने कहा।

    उस दिन स्कूल के बाद, माया और अनिरुद्ध आम के पेड़ के नीचे बैठे। माया ने अपनी जेब से एक छोटा सा कमल का फूल निकाला, जो उसने चुपके से तोड़ा था। "ये तुझे," उसने अनिरुद्ध को देते हुए कहा।

    अनिरुद्ध ने फूल लिया और कहा, "माया, तू हर बार कुछ नया कर देती है।"

    "और तू हर बार मेरे साथ आ जाता है!" माया ने हँसकर जवाब दिया। उस रात, अनिरुद्ध ने अपनी कॉपी में एक नई कविता लिखी:
    "तालाब के किनारे, कमल की बात,
    माया के संग, हर पल अनघट।
    हँसी में छुपा, एक अनजाना रंग,
    दोस्ती ये, या कुछ और संग?"
    वह नहीं जानता था कि यह एहसास क्या था, लेकिन माया के साथ बिताया हर पल उसे खास लगता था।

    और आगे......✍🏻✍🏻✍🏻

  • 4. Bachpan ka rang ek Prem kahani - Chapter 4

    Words: 897

    Estimated Reading Time: 6 min

    रेस की तैयारी

    सूरजपुर में सुबह की शुरुआत हमेशा एक ताज़गी भरी हवा के साथ होती थी। सूरज अभी पूरी तरह उगा नहीं था, और गलियों में हल्की धुंध छाई थी। अनिरुद्ध अपने छोटे से कमरे में बैठा अपनी पुरानी साइकिल को देख रहा था। कल माया ने उसे स्कूल की साइकिल रेस में हिस्सा लेने के लिए मना लिया था, और अब वह सोच रहा था कि क्या उसकी पुरानी साइकिल इस रेस में टिक पाएगी। उसकी साइकिल के टायर घिस चुके थे, और चेन कभी-कभी अटक जाती थी। फिर भी, माया की बातों ने उसे हिम्मत दी थी। "मज़े के लिए दौड़," उसने कहा था, और अनिरुद्ध को माया की हर बात में एक अजीब सा जादू लगता था।

    कमल का फूल, जो माया ने उसे दिया था, अभी भी उसकी मेज पर रखा था। उसने उसे छुआ और मुस्कुराया। तभी उसकी माँ, सरला, की आवाज़ आई, "अनु, स्कूल के लिए देर हो रही है! जल्दी तैयार हो!"

    उसने अपनी कॉपी खोली और उसमें लिखी नई कविता पढ़ी:

    "तालाब के किनारे, कमल की बात,

    माया के संग, हर पल अनघट।"

    अनिरुद्ध ने जल्दी से अपनी यूनिफॉर्म पहनी और साइकिल लेकर बाहर निकला। गली के मोड़ पर माया पहले से ही खड़ी थी, अपनी साइकिल पर हल्के-हल्के उछल रही थी। उसकी चोटी आज भी हवा में लहरा रही थी, और उसने अपनी यूनिफॉर्म की जेब में एक छोटा सा रूमाल रखा था, जिस पर फूलों की कढ़ाई थी।

    "अनु, आज तू तैयार है न रेस की प्रैक्टिस के लिए?" माया ने उत्साह से पूछा।

    "प्रैक्टिस? अभी से?" अनिरुद्ध ने हैरानी से कहा। "माया, मेरी साइकिल तो..."

    "अरे, कोई बहाना नहीं!" माया ने बीच में ही टोक दिया। "तेरी साइकिल ठीक है। बस तुझे थोड़ा जोश चाहिए। चल, स्कूल में प्रैक्टिस करते हैं!" दोनों साइकिल लेकर स्कूल की ओर निकले। रास्ते में माया ने अनिरुद्ध को साइकिल रेस के गुर सिखाने शुरू किए।

    "देख, अनु, तेज़ी से पैडल मार, लेकिन साँस को कंट्रोल रख। और मोड़ पर साइकिल को थोड़ा झुका दे, वरना फिसल जाएगी!"

    अनिरुद्ध ने हँसते हुए कहा, "तू तो कोच बन गई!"

    "हाँ, और तू मेरा स्टार खिलाड़ी!" माया ने हँसकर जवाब दिया।

    सूरजपुर मिडिल स्कूल में आज का दिन खास था। खेलकूद प्रतियोगिता की तैयारियाँ जोरों पर थीं। स्कूल का मैदान बच्चों की चहल-पहल से भरा था। कुछ बच्चे दौड़ की प्रैक्टिस कर रहे थे, कुछ कबड्डी खेल रहे थे, और कुछ साइकिल रेस के लिए मैदान के चारों ओर चक्कर लगा रहे थे। मास्टरजी, जो खेल के आयोजन की देखरेख कर रहे थे, बच्चों को निर्देश दे रहे थे।

    माया और अनिरुद्ध ने अपनी साइकिलें मैदान में लाईं। माया ने तुरंत अपनी साइकिल पर चढ़कर एक चक्कर लगाया, और उसकी तेज़ी देखकर बाकी बच्चे ताली बजाने लगे। अनिरुद्ध ने थोड़ा हिचकिचाते हुए अपनी साइकिल पर चढ़ा। उसकी साइकिल की चेन थोड़ा शोर कर रही थी, लेकिन वह रुका नहीं। माया ने उसे चिढ़ाया, "अनु, तू तो बस चल रहा है! दौड़, दौड़!"

    अनिरुद्ध ने पूरी ताकत से पैडल मारे, और उसकी साइकिल तेज़ी से आगे बढ़ी। माया उसके साथ-साथ दौड़ रही थी, और दोनों हँसते-हँसते मैदान के चक्कर लगा रहे थे। तभी अनिरुद्ध की साइकिल का टायर एक छोटे से गड्ढे में फँस गया, और वह गिरते-गिरते बचा। माया ने तुरंत अपनी साइकिल रोकी और उसके पास आई। "अनु, ठीक है?"

    "हाँ, बस टायर फँस गया," अनिरुद्ध ने हाँफते हुए कहा।

    माया ने उसकी साइकिल देखी और कहा, "ये टायर तो सचमुच पुराना है। चल, स्कूल के बाद इसे ठीक करवाते हैं। मेरे पापा जानते हैं एक अच्छे मैकेनिक को।"

    अनिरुद्ध ने हामी भरी, लेकिन उसे थोड़ा बुरा लगा। उसकी माँ की कमाई इतनी नहीं थी कि वह नई साइकिल ले सके, और यह पुरानी साइकिल उसके लिए बहुत कीमती थी। माया ने शायद उसकी उदासी भाँप ली। उसने हल्के से उसका कंधा थपथपाया और कहा, "अरे, साइकिल पुरानी हो या नई, तू तो मेरा दोस्त है। हम जीतें या हारें, मज़ा तो करेंगे न!"

    उसकी बात सुनकर अनिरुद्ध का मन हल्का हो गया। उसने मुस्कुराकर कहा, "हाँ, मज़ा तो करेंगे!"

    स्कूल के बाद, माया और अनिरुद्ध साइकिल लेकर बाज़ार की ओर गए। वहाँ एक छोटी सी दुकान थी, जहाँ रामू चाचा साइकिलें ठीक करते थे। रामू चाचा ने अनिरुद्ध की साइकिल देखी और कहा, "बेटा, ये तो अभी चल जाएगी। बस टायर बदल दो और चेन को तेल डाल दो।"

    माया ने अपनी जेब से कुछ पैसे निकाले और कहा, "चाचा, जल्दी ठीक कर दो। ये मेरे दोस्त की साइकिल है!"

    अनिरुद्ध ने मना किया, "माया, मैं पैसे दे दूँगा।"

    "अरे, तू बाद में दे देना। अभी तो रेस की प्रैक्टिस करनी है!" माया ने हँसकर कहा।

    साइकिल ठीक होने के बाद, दोनों आम के पेड़ के नीचे रुके। माया ने अपनी जेब से एक छोटा सा पत्थर निकाला, जिस पर उसने कुछ नक्काशी की थी। "ये तुझे," उसने अनिरुद्ध को देते हुए कहा। "ये मेरा लकी चार्म है। रेस में इसे साथ रखना।"

    अनिरुद्ध ने पत्थर लिया और मुस्कुराया। "तू हर बार कुछ नया दे देती है।"

    "और तू हर बार कविता लिखता है!" माया ने जवाब दिया। उस रात, अनिरुद्ध ने अपनी कॉपी में एक नई कविता लिखी:

    "रेस की राह में, दोस्ती का जोर,

    माया के संग, हर पल है और।

    चेहरा तेरा, दिल में बस्ता,

    सपनों का रंग, अब और रंगीला।"

    वह सोच रहा था कि माया के साथ बिताया हर पल उसे कुछ नया सिखा रहा था—हिम्मत, हँसी, और दोस्ती का असली मतलब।

    और आगे..... ✍🏻✍🏻✍🏻

  • 5. Bachpan ka rang ek Prem kahani - Chapter 5

    Words: 896

    Estimated Reading Time: 6 min

    साइकिल रेस का दिन

    सूरजपुर में सुबह का माहौल उत्साह से भरा था। आज स्कूल की सालाना खेलकूद प्रतियोगिता का दिन था, और सूरजपुर मिडिल स्कूल का मैदान बच्चों, शिक्षकों, और कुछ अभिभावकों की भीड़ से गुलज़ार था। मैदान के एक कोने में रंग-बिरंगे झंडे लगाए गए थे, और एक पुराना लाउडस्पीकर "जय हो" गाना बजा रहा था। अनिरुद्ध अपने छोटे से कमरे में तैयार हो रहा था। उसकी नीली स्कूल यूनिफॉर्म के साथ आज उसने एक सफेद टी-शर्ट पहनी थी, जो खेलकूद के लिए दी गई थी। उसकी साइकिल, जिसे रामू चाचा ने कल ठीक किया था, अब पहले से बेहतर चल रही थी। फिर भी, अनिरुद्ध के मन में एक हल्की सी घबराहट थी।

    "मैं रेस में जीत पाऊँगा?" उसने अपनी माँ, सरला, से पूछा, जो उसे टिफिन पैक करके दे रही थीं।

    सरला ने उसके सिर पर हाथ फेरा और मुस्कुराईं। "अनु, जीतना ज़रूरी नहीं। तूने कोशिश की, यही बड़ी बात है। और माया तो तेरे साथ है न?"

    अनिरुद्ध ने हामी भरी और अपनी जेब में माया का दिया हुआ लकी चार्म—वह छोटा सा नक्काशीदार पत्थर—छुआ। उस पत्थर ने उसे हिम्मत दी। उसने अपनी साइकिल उठाई और गली के मोड़ की ओर बढ़ा, जहाँ माया हमेशा की तरह उसका इंतज़ार कर रही थी।
    माया आज खास तौर पर उत्साहित थी। उसने अपनी साइकिल के हैंडल पर रंग-बिरंगे रिबन बाँधे थे, और उसकी चोटी में एक लाल रिबन चमक रहा था। "अनु, तैयार है? आज हम रेस में धूम मचाएँगे!" उसने चिल्लाकर कहा।

    अनिरुद्ध ने हँसते हुए जवाब दिया, "तू तो पहले ही जीत गई है, माया! तेरी साइकिल तो चमक रही है!"

    "हाँ, और तू भी चमकेगा!" माया ने आँख मारकर कहा। "चल, स्कूल चलें। आज मज़ा आएगा!"

    दोनों साइकिल लेकर स्कूल की ओर निकले। रास्ते में माया ने अनिरुद्ध को हौसला दिया। "देख, अनु, रेस में बस अपने मज़े पर ध्यान दे। जीत-हार बाद की बात है।"

    अनिरुद्ध ने मुस्कुराकर कहा, "तू बोल रही है, तो ठीक है। लेकिन अगर तू जीती, तो मुझे अपनी ट्रॉफी में हिस्सा चाहिए!"

    "हा! ठीक है, आधा-आधा!" माया ने हँसकर वादा किया।
    स्कूल पहुँचते ही मैदान का नज़ारा देखकर अनिरुद्ध की आँखें चमक उठीं। मैदान में रेस का ट्रैक तैयार था, और बच्चे अपनी साइकिलों के साथ लाइन में खड़े थे। मास्टरजी माइक पर नियम बता रहे थे।
    "साइकिल रेस में तीन चक्कर लगाने होंगे। कोई धक्का-मुक्की नहीं, और सबको मज़े से दौड़ना है!"
    माया और अनिरुद्ध ने अपनी साइकिलें स्टार्टिंग लाइन पर खड़ी कीं। माया की साइकिल चमक रही थी, और अनिरुद्ध की साइकिल, भले ही पुरानी थी, लेकिन अब उसकी चेन और टायर ठीक थे। अनिरुद्ध ने अपनी जेब में लकी चार्म को छुआ और मन ही मन कहा, "माया, ये तेरे लिए है।"
    रेस शुरू होने से पहले, माया ने अनिरुद्ध की ओर देखा और कहा, "अनु, तू मेरे साथ दौड़ेगा, ठीक है? हम एकसाथ फिनिश लाइन पार करेंगे!"
    अनिरुद्ध ने हामी भरी। उसका डर अब कम हो रहा था, और माया की हिम्मत ने उसे जोश से भर दिया।
    जैसे ही मास्टरजी ने सीटी बजाई, रेस शुरू हुई। बच्चे तेज़ी से पैडल मारने लगे। माया ने शुरुआत में ही बढ़त बना ली, और अनिरुद्ध उसके ठीक पीछे था। मैदान में बच्चों और दर्शकों की तालियाँ गूँज रही थीं। अनिरुद्ध ने पूरी ताकत से पैडल मारे, और उसकी साइकिल तेज़ी से आगे बढ़ी। माया ने पीछे मुड़कर देखा और चिल्लाई, "अनु, और तेज़!"
    पहला चक्कर पूरा होने पर माया पहले स्थान पर थी, और अनिरुद्ध तीसरे स्थान पर। दूसरा चक्कर शुरू हुआ, और अनिरुद्ध ने अपनी सारी हिम्मत जुटाई। उसकी साइकिल की चेन अब सुचारू रूप से चल रही थी, और उसे माया का लकी चार्म अपनी ताकत दे रहा था। उसने माया को पकड़ लिया, और अब दोनों बराबर चल रहे थे।
    तीसरे चक्कर में एक दूसरा लड़का, रमेश, जो स्कूल का मशहूर साइकिल रेसर था, माया से आगे निकल गया। माया ने हार नहीं मानी। उसने अनिरुद्ध की ओर देखा और कहा, "अनु, अब बस मज़ा कर!"
    अनिरुद्ध ने हँसकर जवाब दिया, "हाँ, माया!" दोनों ने एकसाथ पैडल मारे, और फिनिश लाइन के पास पहुँचे। रमेश पहले स्थान पर रहा, लेकिन माया और अनिरुद्ध ने एकसाथ फिनिश लाइन पार की। दर्शकों ने तालियाँ बजाईं, और मास्टरजी ने माया और अनिरुद्ध की पीठ थपथपाई। "शाबाश, तुम दोनों ने अच्छा दौड़ा!"
    रेस के बाद, माया और अनिरुद्ध मैदान के किनारे बैठे। दोनों हाँफ रहे थे, लेकिन उनके चेहरों पर मुस्कान थी। माया ने कहा, "देखा, अनु? मैंने कहा था न, मज़ा आएगा!"
    "हाँ, और तेरा लकी चार्म सचमुच काम कर गया!" अनिरुद्ध ने पत्थर को जेब से निकालकर दिखाया।
    माया ने हँसकर कहा, "वो पत्थर नहीं, हमारी दोस्ती काम कर गई!"
    उस दिन स्कूल के बाद, दोनों आम के पेड़ के नीचे बैठे। माया ने एक आम तोड़ा और अनिरुद्ध को दिया। "ये तुझे, मेरे स्टार खिलाड़ी!"
    अनिरुद्ध ने आम खाया और कहा, "माया, तूने मुझे हिम्मत दी। मैं तो डर रहा था।"
    "अरे, डरपोक! मेरे साथ डरने की क्या ज़रूरत?" माया ने हँसकर कहा।

    उस रात, अनिरुद्ध ने अपनी कॉपी में एक नई कविता लिखी:

    "रेस की राह में, दोस्ती का रंग,
    माया के संग, हर पल अनघट संग।
    लकी चार्म तेरा, दिल में बस्ता,
    सपनों का रास्ता, अब और रंगीला।"
    वह सोच रहा था कि माया के साथ बिताया हर पल उसे न सिर्फ़ हिम्मत दे रहा था, बल्कि उसके दिल में कुछ नया जगा रहा था—एक ऐसा एहसास, जिसे वह अभी समझ नहीं पा रहा था।
    और आगे ✍🏻✍🏻✍🏻✍🏻✍🏻✍🏻

  • 6. Bachpan ka rang ek Prem kahani - Chapter 6

    Words: 857

    Estimated Reading Time: 6 min

    नदी किनारे की सैर

    सूरजपुर में गर्मियों की दोपहरें अब धीरे-धीरे ठंडी होने लगी थीं। सूरज अभी आधा आसमान में था, और हल्की हवा में सरसों के खेतों की खुशबू तैर रही थी। अनिरुद्ध अपनी साइकिल के साथ गली के मोड़ पर खड़ा था, जहाँ वह हर दिन माया का इंतज़ार करता था। साइकिल रेस के बाद से उसका आत्मविश्वास बढ़ गया था। माया की हिम्मत और उसका लकी चार्म—वह छोटा सा नक्काशीदार पत्थर—अब भी उसकी जेब में था। हर बार उसे छूने पर उसे माया की हँसी याद आती थी।

    उसकी कॉपी में लिखी नई कविता अभी भी अधूरी थी:
    "रेस की राह में, दोस्ती का रंग,
    माया के संग, हर पल अनघट संग।"
    वह सोच रहा था कि माया के साथ बिताया हर पल उसे कुछ नया सिखा रहा था। तभी माया की साइकिल की घंटी की आवाज़ ने उसे ख्यालों से बाहर निकाला। माया अपनी साइकिल पर तेज़ी से आई और रुकते-रुकते बोली, "अनु, आज तू फिर सपनों में खोया है! चल, आज कुछ नया करते हैं!"
    "नया? अब तू क्या करने वाली है?" अनिरुद्ध ने हँसते हुए पूछा। माया की शरारतें उसे अब डराने की बजाय उत्साहित करती थीं।

    "चल, नदी किनारे चलते हैं!" माया ने उत्साह से कहा। "मैंने सुना है, वहाँ एक पुराना पुल है, और वहाँ से सूरज डूबने का नज़ारा बहुत खूबसूरत है।"

    "नदी? वो तो कस्बे से बाहर है, माया। अगर मम्मी को पता चला, तो..." अनिरुद्ध ने चिंता से कहा।
    "अरे, डरपोक! बस थोड़ी देर के लिए जाएँगे। सूरज डूबने से पहले लौट आएँगे!" माया ने आँख मारकर कहा।

    अनिरुद्ध उसकी बातों में आ गया। दोनों ने अपनी साइकिलें उठाईं और कस्बे के बाहरी रास्ते की ओर बढ़े। सूरजपुर के पास एक छोटी सी नदी बहती थी, जिसे लोग "सोना नदी" कहते थे, क्योंकि सूरज की किरणें उसमें पड़ने पर पानी सुनहरा चमकता था। रास्ते में खेतों के बीच से गुजरते हुए माया ने अनिरुद्ध को अपनी पुरानी कहानियाँ सुनाईं।

    "लखनऊ में एक बार मैं अपने दोस्तों के साथ नदी किनारे गई थी। हमने कागज़ की नाव बनाई थी। तूने कभी बनाई?"
    "नाव? नहीं, मैं तो बस कविताएँ लिखता हूँ," अनिरुद्ध ने शरमाते हुए कहा।

    "तो आज तुझे सिखाऊँगी!" माया ने हँसकर जवाब दिया।


    नदी किनारे पहुँचते ही दोनों ने अपनी साइकिलें एक पेड़ के पास खड़ी कीं। नदी का पानी शांत था, और किनारे पर घास और जंगली फूल उगे थे। पुराना पुल लकड़ी और पत्थर का बना था, जो थोड़ा जर्जर था, लेकिन उसका नज़ारा खूबसूरत था। सूरज की किरणें पानी पर पड़ रही थीं, और आसमान में नारंगी रंग बिखर रहा था।
    माया ने अपनी जेब से एक पुरानी कॉपी निकाली और कहा, "चल, कागज़ की नाव बनाते हैं!" उसने कॉपी से एक पन्ना फाड़ा और उसे मोड़ने लगी। अनिरुद्ध ने उसे देखा और कोशिश की। उसकी पहली नाव टेढ़ी-मेढ़ी बनी, और माया हँस पड़ी। "अनु, ये तो नाव कम, कागज़ का टुकड़ा ज़्यादा लग रहा है!"

    "तू सिखा न!" अनिरुद्ध ने हँसते हुए कहा।

    माया ने धीरे-धीरे उसे नाव बनाने का तरीका सिखाया। दोनों ने मिलकर दो नावें बनाईं—एक माया की, जिस पर उसने "माया की नाव" लिखा, और दूसरी अनिरुद्ध की, जिस पर उसने "अनु का सपना" लिखा। दोनों ने अपनी नावें नदी में छोड़ीं। माया की नाव तेज़ी से आगे बढ़ी, लेकिन अनिरुद्ध की नाव एक पत्थर से टकराकर डूब गई।

    "अरे, अनु! तेरा सपना तो डूब गया!" माया ने चिढ़ाया।

    "हाँ, लेकिन तेरा सपना तो तैर रहा है!" अनिरुद्ध ने हँसकर जवाब दिया।
    दोनों पुल पर बैठ गए और सूरज डूबने का नज़ारा देखने लगे। माया ने कहा, "अनु, तुझे क्या लगता है, सपने सच होते हैं?"

    अनिरुद्ध ने एक पल सोचा। "पता नहीं। मेरी माँ कहती हैं, अगर मेहनत करो, तो सपने सच हो सकते हैं। तेरा क्या सपना है?"
    माया ने आसमान की ओर देखा और कहा, "मैं बड़ा होकर बहुत सारी जगहें घूमना चाहती हूँ। दुनिया देखना चाहती हूँ। तू?"

    "मैं... शायद एक बड़ा कवि बनूँ। अपनी कविताओं से लोगों के दिल छूना चाहता हूँ," अनिरुद्ध ने शरमाते हुए कहा।

    माया ने ताली बजाई। "वाह, अनु! तू तो सचमुच शायर बन जाएगा! मेरे लिए भी एक कविता लिखना, ठीक है?"

    अनिरुद्ध ने हँसकर वादा किया। "ठीक है, लिखूँगा।"

    सूरज डूबने के बाद, दोनों घर की ओर लौटे। रास्ते में माया ने अनिरुद्ध को एक छोटा सा कंकड़ दिया। "ये भी मेरा लकी चार्म है। रख ले, तुझे हिम्मत देगा।"
    अनिरुद्ध ने कंकड़ लिया और मुस्कुराया। "तू हर बार कुछ न कुछ दे देती है।"

    "और तू हर बार कविता लिखता है!" माया ने हँसकर जवाब दिया।
    घर पहुँचते ही अनिरुद्ध की माँ ने पूछा, "अनु, इतनी देर कहाँ थे?"
    "बस, माया के साथ नदी किनारे गए थे," अनिरुद्ध ने हल्के से जवाब दिया।
    सरला ने मुस्कुराकर कहा, "माया अच्छी लड़की है, पर तुम दोनों शरारतें कम करो!"
    उस रात, अनिरुद्ध ने अपनी कॉपी में एक नई कविता लिखी:
    "नदी किनारे, सूरज की बात,
    माया के संग, हर पल अनघट।
    नाव कागज़ की, सपनों का रंग,
    दोस्ती ये, बना दे हर पल संग।"

    वह सोच रहा था कि माया के साथ बिताया हर पल उसे न सिर्फ़ हँसी दे रहा था, बल्कि उसके सपनों को भी नई उड़ान दे रहा था।

    और आगे ✍🏻 ✍🏻 ✍🏻 ✍🏻 ✍🏻

  • 7. Bachpan ka rang ek Prem kahani - Chapter 7

    Words: 902

    Estimated Reading Time: 6 min

    मेला और मासूमियत

    सूरजपुर में गर्मियों का मौसम अब धीरे-धीरे बदल रहा था। सुबह की हवा में हल्की ठंडक थी, और आसमान में बादल इधर-उधर तैर रहे थे। अनिरुद्ध अपने छोटे से कमरे में बैठा अपनी कॉपी में कुछ लिख रहा था। नदी किनारे की सैर और माया के साथ कागज़ की नाव बनाने की यादें अभी भी उसके मन में ताज़ा थीं। उसकी कॉपी में लिखी नई कविता अधूरी थी:
    "नदी किनारे, सूरज की बात,
    माया के संग, हर पल अनघट।"

    वह माया के दिए हुए कंकड़ को अपनी मेज पर रखे हुए बार-बार देखता था। उस कंकड़ में कुछ खास था—शायद माया की बेफिक्री और उसकी दोस्ती का जादू। अनिरुद्ध को लग रहा था कि माया के साथ बिताया हर पल उसे कुछ नया सिखा रहा था।

    "अनु, तैयार हो जा! आज मेला है!" उसकी माँ, सरला, की आवाज़ ने उसे ख्यालों से बाहर निकाला। सूरजपुर में हर साल गर्मियों के अंत में एक छोटा सा मेला लगता था, जहाँ कस्बे के लोग इकट्ठा होते थे। मेला रंग-बिरंगी दुकानों, झूलों, और मिठाइयों की खुशबू से भरा होता था। अनिरुद्ध को मेला बहुत पसंद था, लेकिन इस बार उसका उत्साह दोगुना था—क्योंकि माया भी साथ थी।

    अनिरुद्ध ने जल्दी से अपनी पसंदीदा नीली शर्ट और पतलून पहनी, और अपनी साइकिल लेकर गली के मोड़ पर पहुँचा। माया वहाँ पहले से खड़ी थी। उसने आज अपनी स्कूल यूनिफॉर्म की जगह एक हल्की हरी फ्रॉक पहनी थी, और उसकी चोटी में एक पीला रिबन बंधा था। "अनु, तू तो देर से आया! मेला शुरू हो गया होगा!" माया ने चिढ़ाते हुए कहा।

    "अरे, तू तो हमेशा जल्दी में रहती है!" अनिरुद्ध ने हँसकर जवाब दिया। "चल, जल्दी चलते हैं!"

    दोनों साइकिल लेकर मेला मैदान की ओर निकले। मेला मैदान कस्बे के बाहर एक खुले मैदान में था, जहाँ रंग-बिरंगे तंबू लगे थे। हवा में जलेबी और भुट्टे की खुशबू तैर रही थी, और बच्चे झूलों पर चिल्ला रहे थे। मेला में एक छोटा सा मंच भी था, जहाँ रात को नाटक और गाने का आयोजन होता था। अनिरुद्ध और माया ने अपनी साइकिलें एक पेड़ के पास खड़ी कीं और मेले की भीड़ में घुस गए।

    "पहले क्या करें?" माया ने उत्साह से पूछा।
    "पहले जलेबी खाते हैं!" अनिरुद्ध ने हँसकर कहा।

    दोनों एक जलेबी की दुकान पर रुके। दुकानदार ने गरम-गरम जलेबी तली और उन्हें कागज़ की प्लेट में दी। माया ने जलेबी का एक टुकड़ा मुँह में डाला और आँखें बंद कर लीं। "वाह, अनु! ये तो जादू है!"

    अनिरुद्ध ने भी जलेबी खाई और हँस दिया। "हाँ, मेला का जादू!"

    जलेबी खाने के बाद, माया ने अनिरुद्ध का हाथ पकड़ा और उसे एक झूले की ओर खींच लिया। झूला ऊँचा था, और बच्चे उस पर चढ़कर चिल्ला रहे थे। अनिरुद्ध ने थोड़ा हिचकिचाते हुए कहा, "माया, ये तो बहुत ऊँचा है!"

    "अरे, डरपोक! मेरे साथ डरने की क्या ज़रूरत?" माया ने हँसकर कहा और उसे झूले पर खींच लिया। जैसे ही झूला शुरू हुआ, अनिरुद्ध का दिल तेज़ी से धड़कने लगा। माया हँस रही थी, और उसकी हँसी हवा में गूँज रही थी। अनिरुद्ध ने आँखें बंद कर लीं, लेकिन माया ने उसका हाथ थाम रखा था। "अनु, आँखें खोल! देख, कितना मज़ा है!"

    अनिरुद्ध ने आँखें खोलीं और मेले का नज़ारा देखा। रंग-बिरंगे तंबू, बच्चों की हँसी, और दूर तक फैले खेत—सब कुछ जादुई लग रहा था। झूला रुकने के बाद, अनिरुद्ध ने हँसकर कहा, "माया, तू सचमुच पागल है!"

    "और तू मेरा पागल दोस्त!" माया ने जवाब दिया।

    मेले में घूमते हुए, दोनों एक छोटी सी दुकान पर रुके, जहाँ रंग-बिरंगे कंगन और खिलौने बिक रहे थे। माया ने एक छोटा सा कांच का कंगन उठाया और कहा, "अनु, ये मेरे लिए ले!"
    अनिरुद्ध ने अपनी जेब टटोली। उसकी माँ ने उसे थोड़े पैसे दिए थे, लेकिन वह सोच रहा था कि क्या यह कंगन ले पाएगा। माया ने उसकी हिचकिचाहट देखी और हँसकर कहा, "अरे, मज़ाक कर रही हूँ! ये ल, तुझे देती हूँ।" उसने अपनी जेब से एक छोटा सा लकड़ी का खिलौना निकाला—एक छोटी सी चिड़िया, जो रस्सी खींचने पर चहचहाती थी।

    अनिरुद्ध ने खिलौना लिया और मुस्कुराया। "तू हर बार कुछ न कुछ दे देती है, माया।"

    "और तू हर बार कविता लिखता है!" माया ने हँसकर जवाब दिया।

    रात होने पर मेले में नाटक शुरू हुआ। बच्चे और बूढ़े मंच के सामने जमा हो गए। नाटक एक पुरानी लोककथा पर आधारित था, जिसमें एक राजकुमार और राजकुमारी की कहानी थी। माया और अनिरुद्ध भीड़ में बैठे और नाटक देखने लगे। माया ने फुसफुसाकर कहा, "अनु, तू भी तो कविताएँ लिखता है। कभी मेरे लिए ऐसी कहानी लिखेगा?"

    अनिरुद्ध ने शरमाते हुए कहा, "हाँ, लिखूँगा। लेकिन तुझे राजकुमारी बनाऊँगा!"

    माया ने हँसकर जवाब दिया, "और तू मेरा राजकुमार!"

    नाटक खत्म होने के बाद, दोनों घर की ओर लौटे। रास्ते में माया ने अनिरुद्ध से पूछा, "अनु, तुझे मेला कैसा लगा?"

    "सबसे अच्छा, क्योंकि तू थी," अनिरुद्ध ने बिना सोचे जवाब दिया, और फिर शरमा गया।

    माया ने हँसकर कहा, "अच्छा, शायर! अब जा, कविता लिख!"
    घर पहुँचते ही अनिरुद्ध की माँ ने पूछा, "अनु, मेला कैसा था?"
    "बहुत मज़ा आया, माँ!" अनिरुद्ध ने उत्साह से कहा।

    उस रात, अनिरुद्ध ने अपनी कॉपी में एक नई कविता लिखी:
    "मेले की रौनक, दोस्ती का रंग,
    माया के संग, हर पल अनघट संग।
    चिड़िया की चहक, दिल में बसी,
    सपनों की राह, अब और रंगीली।"

    वह सोच रहा था कि माया के साथ बिताया हर पल उसके दिल में एक नया रंग भर रहा था।
    और आगे...✍🏻✍🏻✍🏻✍🏻✍🏻

  • 8. Bachpan ka rang ek Prem kahani - Chapter 8

    Words: 1226

    Estimated Reading Time: 8 min

    मंच पर पहला कदम
    सूरजपुर में सुबह की शुरुआत हमेशा एक ताज़गी भरी हवा के साथ होती थी। सूरज की किरणें कस्बे के पुराने घरों पर पड़ रही थीं, और गलियों में बच्चों की चहल-पहल शुरू हो चुकी थी। अनिरुद्ध अपने छोटे से कमरे में बैठा अपनी कॉपी में कुछ लिख रहा था। मेले की यादें अभी भी उसके मन में ताज़ा थीं—माया की हँसी, झूले का रोमांच, और वह छोटी सी चिड़िया का खिलौना, जो माया ने उसे दिया था। वह खिलौना अब उसकी मेज पर रखा था, और हर बार उसे देखकर अनिरुद्ध के चेहरे पर मुस्कान आ जाती थी।

    उसकी कॉपी में लिखी नई कविता अधूरी थी:
    "मेले की रौनक, दोस्ती का रंग,
    माया के संग, हर पल अनघट संग।"

    वह सोच रहा था कि माया के साथ बिताया हर पल उसे कुछ नया सिखा रहा था—हिम्मत, हँसी, और ज़िंदगी को मज़े से जीने का तरीका। तभी उसकी माँ, सरला, की आवाज़ गूँजी, "अनु, स्कूल के लिए तैयार हो जा! आज तुम्हारा सांस्कृतिक कार्यक्रम है, ना?"

    अनिरुद्ध को याद आया कि आज स्कूल में एक छोटा सा सांस्कृतिक कार्यक्रम था, जिसमें बच्चे नाटक, गीत, और कविता पाठ कर रहे थे। माया ने उसे कविता पाठ के लिए मना लिया था, और अनिरुद्ध अब भी थोड़ा घबरा रहा था। "मैं मंच पर कविता पढ़ूँगा? अगर भूल गया तो?" उसने अपनी माँ से पूछा।
    सरला ने उसके सिर पर हाथ फेरा और मुस्कुराईं। "अनु, तू अपने दिल से लिखता है। बस वही मंच पर बोल दे। और माया तो तेरे साथ है, ना?"

    अनिरुद्ध ने हामी भरी और अपनी जेब में माया का दिया हुआ लकी चार्म—वह नक्काशीदार पत्थर—छुआ। उसने अपनी साइकिल उठाई और गली के मोड़ की ओर बढ़ा, जहाँ माया उसका इंतज़ार कर रही थी। माया आज अपनी स्कूल यूनिफॉर्म में थी, लेकिन उसने अपनी चोटी में एक नीला रिबन बाँधा था, जो हवा में लहरा रहा था।

    "अनु, तैयार है? आज तू अपनी कविता से सबको हैरान कर देगा!" माया ने उत्साह से कहा।

    "माया, मैं तो डर रहा हूँ। अगर भूल गया तो?" अनिरुद्ध ने चिंता से कहा।

    "अरे, डरपोक! तू अपनी कविता पढ़ेगा, और मैं ताली बजाऊँगी!" माया ने हँसकर जवाब दिया। "और हाँ, मैं भी एक गाना गा रही हूँ। तू सुनना, ठीक है?"
    अनिरुद्ध ने मुस्कुराकर हामी भरी। "ठीक है, लेकिन तू पहले गा, ताकि मुझे हिम्मत मिले!"

    दोनों साइकिल लेकर स्कूल की ओर निकले। रास्ते में माया ने अनिरुद्ध को अपनी गाने की प्रैक्टिस सुनाई। उसने एक पुराना हिंदी गाना चुना था—"रिमझिम गिरे सावन"—जो उसकी माँ का पसंदीदा था। माया की आवाज़ में एक मासूम मिठास थी, और अनिरुद्ध उसे सुनकर खो सा गया। "माया, तू तो सचमुच अच्छा गाती है!" उसने तारीफ की।

    "हाँ, और तू सचमुच अच्छा लिखता है!" माया ने हँसकर जवाब दिया।

    सूरजपुर मिडिल स्कूल में आज का दिन खास था। स्कूल का प्रांगण रंग-बिरंगे कागज़ों और फूलों से सजा था। एक छोटा सा मंच बनाया गया था, और सामने कुर्सियाँ लगी थीं, जहाँ बच्चे और कुछ अभिभावक बैठे थे। मास्टरजी माइक पर बच्चों को निर्देश दे रहे थे। "सब बच्चे अपनी-अपनी प्रस्तुति के लिए तैयार रहें। कोई शोर नहीं, और सबको ताली बजाकर हौसला देना है!"
    माया और अनिरुद्ध मंच के पीछे खड़े थे। माया ने अनिरुद्ध का हाथ पकड़ा और कहा, "अनु, तू बस अपनी कविता के बारे में सोच। बाकी सब मैं संभाल लूँगी!"


    पहले माया का गाना था। जैसे ही उसका नाम पुकारा गया, वह मंच पर चली गई। उसकी नीली यूनिफॉर्म और चोटी में बंधा रिबन मंच पर चमक रहा था। उसने "रिमझिम गिरे सावन" गाना शुरू किया, और उसकी आवाज़ में ऐसी मिठास थी कि सारा प्रांगण शांत हो गया। अनिरुद्ध मंच के पीछे खड़ा उसे देख रहा था। माया की हिम्मत और उसकी बेफिक्री ने उसे हैरान कर दिया। गाना खत्म होने पर सबने ज़ोरदार तालियाँ बजाईं। माया ने मंच से उतरते हुए अनिरुद्ध की ओर देखा और आँख मारी। "अब तेरी बारी, शायर!"

    अनिरुद्ध का दिल तेज़ी से धड़क रहा था। उसने अपनी कॉपी खोली और मंच पर चढ़ा। सामने बैठे बच्चों और शिक्षकों को देखकर उसकी साँसें तेज़ हो गईं। उसने माया की ओर देखा, जो सामने की पंक्ति में बैठी ताली बजा रही थी। उसने अपनी जेब में लकी चार्म को छुआ और कविता पढ़ना शुरू किया:
    "खेतों में लहराए हवा,
    सपनों का पीछा करे सदा।
    दिल में बसी एक छोटी सी बात,
    क्या है ये, जो देती है राहत?
    माया की हँसी, जैसे सावन की बूँद,
    हर पल में छुपा, एक अनघट जादू।"

    जैसे ही अनिरुद्ध ने अपनी कविता खत्म की, प्रांगण में तालियों की गड़गड़ाहट गूँजी। माया ने सामने की पंक्ति से ज़ोर-ज़ोर से ताली बजाई और आँख मारकर उसे हौसला दिया। अनिरुद्ध ने मंच से उतरते हुए एक गहरी साँस ली। उसका दिल अभी भी तेज़ी से धड़क रहा था, लेकिन माया की मुस्कान और तालियों की आवाज़ ने उसे सुकून दिया। वह मंच के पीछे गया, जहाँ माया उसका इंतज़ार कर रही थी।

    "अनु, तूने तो कमाल कर दिया!" माया ने उत्साह से कहा और उसे गले लगा लिया। "तेरी कविता ने सबके दिल छू लिए!"

    अनिरुद्ध शरमा गया। "सचमुच? मुझे तो लगा, मैं भूल जाऊँगा!"

    "अरे, डरपोक! तूने तो मास्टरजी को भी ताली बजाने पर मजबूर कर दिया!" माया ने हँसकर कहा।

    कार्यक्रम के बाद, बच्चे और शिक्षक प्रांगण में इकट्ठा हो गए। कुछ बच्चे नाटक प्रस्तुत कर रहे थे, तो कुछ नृत्य की प्रस्तुति दे रहे थे। अनिरुद्ध और माया ने एक कोने में बैठकर बाकी प्रस्तुतियाँ देखीं। माया ने अपने टिफिन से एक बिस्किट निकाला और अनिरुद्ध को दिया। "ले, ये तेरी जीत का इनाम!" उसने चिढ़ाते हुए कहा।

    अनिरुद्ध ने हँसकर बिस्किट लिया और कहा, "और तेरा गाना? वो तो सबसे अच्छा था!"

    "हाँ, पर तूने मेरे लिए कविता पढ़ी, ये मेरा इनाम है!" माया ने जवाब दिया।

    स्कूल के बाद, दोनों अपनी साइकिलों पर सवार होकर आम के पेड़ के नीचे गए। यह उनकी खास जगह बन चुकी थी, जहाँ वे अपने दिन की बातें साझा करते थे। माया ने एक आम तोड़ा और उसे काटकर अनिरुद्ध को दिया। "अनु, तुझे पता है, तू आज मंच पर बहुत अच्छा था। तू सचमुच एक बड़ा शायर बनेगा!"

    अनिरुद्ध ने शरमाते हुए कहा, "और तू? तू तो गायिका बन सकती है!"
    माया ने हँसकर जवाब दिया, "हम दोनों मिलकर कुछ बड़ा करेंगे, अनु। तू कविता लिखेगा, और मैं गाऊँगी!"

    दोनों हँसते-हँसते आम खाने लगे। सूरज धीरे-धीरे ढल रहा था, और पेड़ की छाया में बैठकर उनकी बातें अनवरत चल रही थीं। माया ने अनिरुद्ध से पूछा, "अनु, तुझे क्या लगता है, हमारी दोस्ती हमेशा ऐसी ही रहेगी?"

    अनिरुद्ध ने एक पल सोचा। "पता नहीं, माया। लेकिन मुझे लगता है, तू जहाँ भी होगी, मैं तेरे लिए कविता लिखता रहूँगा।"

    माया ने ताली बजाई। "वाह, शायर! ये बात मुझे पसंद आई!"
    उस दिन, जब अनिरुद्ध घर लौटा, तो उसकी माँ ने पूछा, "अनु, तेरा कविता पाठ कैसा रहा?"
    "माँ, बहुत अच्छा! माया ने मेरा बहुत हौसला बढ़ाया," अनिरुद्ध ने उत्साह से कहा।

    सरला ने मुस्कुराकर कहा, "माया अच्छी लड़की है। उसे संभालकर रखना।"
    उस रात, अनिरुद्ध अपनी कॉपी में बैठा और एक नई कविता लिखी:

    "मंच की रोशनी, दोस्ती का आलम,
    माया की हँसी, जैसे सावन का सलम।
    कविता मेरी, तेरा गीत अनघट,
    दोस्ती ये, हर पल बनाए रंग।"
    वह सोच रहा था कि माया के साथ बिताया हर पल उसके दिल में एक नया रंग भर रहा था। उसे नहीं पता था कि यह रंग उसकी ज़िंदगी को हमेशा के लिए बदल देगा।
    और आगे.... ✍🏻✍🏻✍🏻

  • 9. Bachpan ka rang ek Prem kahani - Chapter 9

    Words: 657

    Estimated Reading Time: 4 min

    बारिश का पहला दिन

    सूरजपुर में गर्मियों का मौसम अब धीरे-धीरे सावन की ओर बढ़ रहा था। सुबह आसमान में काले बादल छाए थे, और हवा में बारिश की सोंधी खुशबू तैर रही थी। अनिरुद्ध अपने छोटे से कमरे में खिड़की के पास बैठा बाहर देख रहा था। उसे बारिश हमेशा से पसंद थी—उसकी कविताएँ बारिश के मौसम में और गहरी हो जाती थीं। उसकी मेज पर माया का दिया हुआ चिड़िया का खिलौना और लकी चार्म अभी भी रखा था। वह उन्हें देखकर मुस्कुराया। कल का सांस्कृतिक कार्यक्रम अभी भी उसके मन में ताज़ा था। माया की आवाज़ और उसकी तालियाँ उसे बार-बार याद आ रही थीं।

    उसने अपनी कॉपी खोली और एक नई कविता शुरू की:

    "बादल आए, बूँदें गिरीं,
    दिल में माया की बात सही।"

    वह सोच रहा था कि माया के साथ बिताया हर पल उसे न सिर्फ़ हँसी दे रहा था, बल्कि उसके सपनों को भी नई उड़ान दे रहा था। तभी उसकी माँ, सरला, ने उसे पुकारा, "अनु, स्कूल के लिए तैयार हो जा! बारिश शुरू होने से पहले निकल ले।"

    अनिरुद्ध ने जल्दी से अपनी यूनिफॉर्म पहनी और साइकिल उठाकर गली के मोड़ की ओर बढ़ा। माया वहाँ पहले से खड़ी थी, लेकिन आज उसने एक रेनकोट पहना था, और उसकी चोटी में एक हरा रिबन बंधा था। "अनु, आज बारिश होगी! तू तैयार है?" उसने उत्साह से पूछा।
    "हाँ, माया! तुझे तो बारिश में मज़ा आता होगा!" अनिरुद्ध ने हँसकर जवाब दिया।

    "हाँ, और आज हम स्कूल में कुछ खास करेंगे!" माया ने रहस्यमयी अंदाज़ में कहा।

    दोनों साइकिल लेकर स्कूल की ओर निकले। रास्ते में हल्की-हल्की बूँदें गिरने लगीं। माया ने अपनी साइकिल रोकी और आसमान की ओर देखा। "अनु, बारिश में साइकिल चलाने का मज़ा ही अलग है!" उसने चिल्लाकर कहा और तेज़ी से साइकिल चलाने लगी। अनिरुद्ध ने उसका पीछा किया, और दोनों हँसते-हँसते स्कूल पहुँचे।
    स्कूल में बारिश की वजह से बच्चे प्रांगण में इकट्ठा नहीं हुए थे। मास्टरजी ने कक्षा में ही बच्चों को इकट्ठा किया और कहा, "आज बारिश है, तो हम कक्षा में कुछ मज़ेदार करेंगे। हर कोई अपनी पसंदीदा कहानी या कविता सुना सकता है।"

    माया ने तुरंत हाथ उठाया। "मास्टरजी, मैं एक कहानी सुनाऊँगी!" उसने उत्साह से कहा। अनिरुद्ध ने मुस्कुराकर उसकी ओर देखा। माया ने एक पुरानी लोककथा सुनाई—एक छोटे से गाँव की कहानी, जहाँ एक लड़की ने अपने गाँव को सूखे से बचाने के लिए एक जादुई तालाब खोजा। उसकी कहानी में इतना जादू था कि सारी कक्षा खामोश होकर सुन रही थी।
    कहानी खत्म होने पर, मास्टरजी ने कहा, "शाबाश, माया! अब कोई और?"
    माया ने अनिरुद्ध की ओर देखा और फुसफुसाई, "अनु, अब तू!"
    अनिरुद्ध ने हिचकिचाते हुए अपनी कॉपी खोली और एक नई कविता पढ़ी:

    "बूँदें गिरीं, बादल गाए,
    दिल में सपने नए आए।
    माया की बात, जैसे बारिश की फुहार,
    हर पल में बस्ता, दोस्ती का प्यार।"

    कक्षा में तालियाँ गूँजीं। माया ने ज़ोर-ज़ोर से ताली बजाई और कहा, "अनु, तू तो कमाल है!"

    स्कूल के बाद, बारिश तेज़ हो गई थी। माया और अनिरुद्ध आम के पेड़ के नीचे रुके, जहाँ बारिश की बूँदें पत्तों से टपक रही थीं। माया ने कहा, "अनु, बारिश में यहाँ बैठने का मज़ा ही अलग है।"

    अनिरुद्ध ने हँसकर जवाब दिया, "हाँ, और तेरी कहानी ने तो आज सबको खामोश कर दिया!"

    माया ने एक छोटा सा कागज़ का टुकड़ा निकाला, जिस पर उसने एक छोटा सा चित्र बनाया था—दो बच्चे बारिश में नाचते हुए। "ये तुझे," उसने अनिरुद्ध को देते हुए कहा।
    अनिरुद्ध ने चित्र लिया और मुस्कुराया। "तू हर बार कुछ नया दे देती है, माया।"
    "और तू हर बार कविता लिखता है!" माया ने हँसकर जवाब दिया।

    उस रात, अनिरुद्ध ने अपनी कॉपी में एक नई कविता लिखी:
    "बारिश की बूँदें, दोस्ती का रंग,
    माया के संग, हर पल अनघट संग।
    कहानी तेरी, कविता मेरी,
    सपनों की राह, अब और रंगीली।"

    वह सोच रहा था कि माया के साथ बिताया हर पल उसके दिल में एक नया रंग भर रहा था।
    और आगे..... ✍🏻✍🏻✍🏻✍🏻

  • 10. Bachpan ka rang ek Prem kahani - Chapter 10

    Words: 856

    Estimated Reading Time: 6 min

    मंदिर की घंटियाँ

    सूरजपुर में सावन का मौसम अब पूरी तरह छा चुका था। सुबह आसमान में हल्के बादल छाए थे, और हवा में बारिश की बूँदों की सोंधी खुशबू तैर रही थी। अनिरुद्ध अपने छोटे से कमरे में खिड़की के पास बैठा अपनी कॉपी में कुछ लिख रहा था। कल बारिश में माया के साथ बिताया दिन और उसकी कहानी अभी भी उसके मन में गूँज रही थी। माया का दिया हुआ कागज़ का चित्र—दो बच्चे बारिश में नाचते हुए—उसकी मेज पर रखा था। वह उसे देखकर मुस्कुराया।

    उसकी कॉपी में लिखी नई कविता अभी अधूरी थी:
    "बारिश की बूँदें, दोस्ती का रंग,
    माया के संग, हर पल अनघट संग।"

    वह सोच रहा था कि माया के साथ बिताया हर पल उसे न सिर्फ़ हँसी दे रहा था, बल्कि उसके दिल में एक नया रंग भर रहा था। तभी उसकी माँ, सरला, की आवाज़ गूँजी, "अनु, आज मंदिर चलना है। तैयार हो जा!"

    सूरजपुर के बाहरी छोर पर एक छोटा सा मंदिर था, जो भगवान शिव को समर्पित था। सावन के महीने में वहाँ हर रविवार को छोटा सा उत्सव होता था, जहाँ कस्बे के लोग इकट्ठा होकर पूजा करते और भजन गाते थे। अनिरुद्ध को मंदिर जाना पसंद था, क्योंकि वहाँ की घंटियों की आवाज़ और शांत माहौल उसे सुकून देता था।

    उसने अपनी नीली शर्ट और पतलून पहनी, और अपनी साइकिल लेकर गली के मोड़ की ओर बढ़ा। माया वहाँ पहले से खड़ी थी, अपनी साइकिल पर हल्के-हल्के उछल रही थी। उसने आज एक सफेद सलवार-कमीज़ पहनी थी, और उसकी चोटी में एक लाल रिबन बंधा था। "अनु, तू तो आज बहुत जल्दी आया!" माया ने चिढ़ाते हुए कहा।
    "हाँ, क्योंकि तू हमेशा जल्दी में रहती है!" अनिरुद्ध ने हँसकर जवाब दिया। "तू मंदिर चल रही है?"
    "हाँ! मेरी मम्मी ने कहा कि सावन में मंदिर जाना शुभ होता है। और तुझे पता है, वहाँ एक पुराना कुआँ है। मैंने सुना है, उसमें सिक्का डालने से मन की मुराद पूरी होती है!" माया ने उत्साह से कहा।
    अनिरुद्ध ने हँसकर पूछा, "तू क्या माँगने वाली है?"

    "वो तो मंदिर पहुँचकर बताऊँगी!" माया ने रहस्यमयी अंदाज़ में कहा।
    मंदिर पहुँचते ही दोनों ने अपनी साइकिलें बाहर खड़ी कीं। मंदिर का प्रांगण फूलों और अगरबत्तियों की खुशबू से भरा था। घंटियों की आवाज़ हवा में गूँज रही थी, और कुछ लोग भजन गा रहे थे। अनिरुद्ध और माया ने मंदिर में प्रवेश किया और पूजा की। माया ने एक छोटा सा फूल शिवलिंग पर चढ़ाया और आँखें बंद करके कुछ माँगा। अनिरुद्ध ने भी एक फूल चढ़ाया और मन ही मन अपनी माँ की खुशी और माया की दोस्ती के लिए प्रार्थना की।

    पूजा के बाद, माया ने अनिरुद्ध को मंदिर के पीछे ले जाया, जहाँ पुराना कुआँ था। कुआँ पत्थरों से बना था, और उसकी दीवारें समय के साथ काई से ढक गई थीं। माया ने अपनी जेब से एक सिक्का निकाला और कहा, "अनु, तू भी सिक्का डाल। मन की मुराद पूरी होती है!"

    अनिरुद्ध ने अपनी जेब टटोली और एक सिक्का निकाला। दोनों ने एकसाथ सिक्के कुएँ में डाले। सिक्के पानी में गिरे, और एक छोटी सी छपाक की आवाज़ हुई। "तूने क्या माँगा?" माया ने उत्सुकता से पूछा।
    "बस, अपनी माँ की खुशी और... हमारी दोस्ती," अनिरुद्ध ने शरमाते हुए कहा।
    माया ने ताली बजाई। "वाह, शायर! मैंने भी यही माँगा—हमारी दोस्ती हमेशा बनी रहे!"
    दोनों हँसते-हँसते मंदिर के प्रांगण में वापस आए। वहाँ कुछ बच्चे भजन गा रहे थे, और माया ने अनिरुद्ध से कहा, "चल, हम भी कुछ करें। तू अपनी कविता पढ़!"

    "मैं? यहाँ?" अनिरुद्ध ने घबराते हुए कहा।
    "हाँ, यहाँ! डर मत, मैं तेरे साथ हूँ!" माया ने हौसला दिया।

    अनिरुद्ध ने हिम्मत जुटाई और मंदिर के पुजारी से इजाज़त माँगी। पुजारी ने मुस्कुराकर हामी भरी। अनिरुद्ध ने अपनी कॉपी खोली और एक कविता पढ़ी:
    "घंटियाँ बजतीं, मंदिर की बात,
    दिल में बसी, दोस्ती की सौगात।
    माया की हँसी, जैसे सावन की फुहार,
    हर पल में बस्ता, एक अनघट प्यार।"
    लोगों ने तालियाँ बजाईं, और माया ने ज़ोर-ज़ोर से ताली बजाकर अनिरुद्ध का हौसला बढ़ाया। पुजारी ने अनिरुद्ध की पीठ थपथपाई और कहा, "बेटा, तेरा दिल साफ है। ये कविता भगवान तक पहुँचेगी।"
    मंदिर से लौटते वक्त, माया ने अनिरुद्ध को एक छोटा सा तिलक लगाया, जो उसने मंदिर से लिया था। "ये तुझे, मेरे शायर दोस्त!" उसने हँसकर कहा।

    अनिरुद्ध ने तिलक लिया और मुस्कुराया। "तू हर बार कुछ नया दे देती है, माया।"

    "और तू हर बार कविता लिखता है!" माया ने जवाब दिया।

    घर पहुँचते ही अनिरुद्ध की माँ ने पूछा, "अनु, मंदिर कैसा था?"
    "माँ, बहुत अच्छा! माया ने मुझे कविता पढ़ने को कहा, और सबने ताली बजाई!" अनिरुद्ध ने उत्साह से कहा।

    सरला ने मुस्कुराकर कहा, "माया तुझे बहुत कुछ सिखा रही है, अनु। उसे संभालकर रखना।"

    उस रात, अनिरुद्ध ने अपनी कॉपी में एक नई कविता लिखी:
    "मंदिर की घंटियाँ, दोस्ती का रंग,
    माया के संग, हर पल अनघट संग।
    सिक्का कुएँ में, सपनों की बात,
    दोस्ती ये, हर पल की सौगात।"
    वह सोच रहा था कि माया के साथ बिताया हर पल उसके दिल में एक नया रंग भर रहा था। उसे लग रहा था कि यह दोस्ती उसके जीवन का सबसे अनमोल खज़ाना बन रही थी।

    और आगे........ ✍🏻✍🏻✍🏻✍🏻

  • 11. Bachpan ka rang ek Prem kahani - Chapter 11

    Words: 983

    Estimated Reading Time: 6 min

    तालाब का रहस्य

    सूरजपुर में सावन का मौसम अब अपने पूरे रंग में था। सुबह आसमान में काले बादल छाए थे, और हल्की-हल्की बारिश की बूँदें कस्बे की गलियों को भिगो रही थीं। अनिरुद्ध अपने छोटे से कमरे में खिड़की के पास बैठा बारिश को देख रहा था। उसे बारिश की आवाज़ और उसकी सोंधी खुशबू हमेशा से पसंद थी। उसकी मेज पर माया का दिया हुआ चिड़िया का खिलौना, नक्काशीदार पत्थर, और कागज़ का चित्र रखा था। मंदिर की घंटियों और माया की हँसी की यादें अभी भी उसके मन में ताज़ा थीं।
    उसने अपनी कॉपी खोली और उसमें लिखी अधूरी कविता पढ़ी:
    "मंदिर की घंटियाँ, दोस्ती का रंग,
    माया के संग, हर पल अनघट संग।"

    वह सोच रहा था कि माया के साथ बिताया हर पल उसके दिल में एक नया रंग भर रहा था। माया की बेफिक्री और उसकी हँसी उसे हर बार कुछ नया करने की हिम्मत देती थी। तभी उसकी माँ, सरला, की आवाज़ गूँजी, "अनु, स्कूल के लिए तैयार हो जा! बारिश में छाता ले जाना!"

    अनिरुद्ध ने जल्दी से अपनी नीली स्कूल यूनिफॉर्म पहनी, अपनी कॉपी और माया का लकी चार्म जेब में डाला, और साइकिल लेकर गली के मोड़ की ओर बढ़ा। माया वहाँ पहले से खड़ी थी, अपने रेनकोट में, जिसके ऊपर बारिश की बूँदें मोतियों की तरह चमक रही थीं। उसकी चोटी में आज एक पीला रिबन बंधा था, और वह अपनी साइकिल पर हल्के-हल्के उछल रही थी।

    "अनु, आज बारिश में मज़ा आएगा!" माया ने उत्साह से कहा। "स्कूल के बाद कुछ खास करते हैं!"

    "क्या खास?" अनिरुद्ध ने उत्सुकता से पूछा। माया की शरारतें उसे अब डराने की बजाय उत्साहित करती थीं।
    "चल, स्कूल के पीछे वाले तालाब पर फिर से जाएँ!" माया ने रहस्यमयी अंदाज़ में कहा। "मैंने सुना है, वहाँ एक पुराना रहस्य है। कुछ लोग कहते हैं कि तालाब में एक जादुई मछली रहती है!"

    "जादुई मछली?" अनिरुद्ध ने हँसकर कहा। "माया, तू कहानियाँ बनाना कब बंद करेगी?"

    "अरे, ये कहानी नहीं, सच है!" माया ने हँसकर जवाब दिया। "चल, स्कूल के बाद देखते हैं!"
    दोनों साइकिल लेकर स्कूल की ओर निकले। बारिश की बूँदें उनके चेहरों पर पड़ रही थीं, और माया बार-बार गाना गुनगुनाने लगती थी। "रिमझिम गिरे सावन..." उसकी आवाज़ हवा में तैर रही थी, और अनिरुद्ध उसे सुनकर मुस्कुरा रहा था।
    सूरजपुर मिडिल स्कूल में आज का माहौल थोड़ा शांत था। बारिश की वजह से बच्चे कक्षा में ही रहे, और मास्टरजी ने गणित का एक नया पाठ पढ़ाया। माया और अनिरुद्ध पीछे की बेंच पर बैठे थे। माया ने चुपके से अनिरुद्ध की कॉपी में एक छोटा सा चित्र बनाया—एक मछली, जिसके चारों ओर बुलबुले थे। नीचे उसने लिखा, "अनु और माया की जादुई मछली!"
    अनिरुद्ध ने चित्र देखकर हँस दिया। "तू सचमुच पागल है, माया!"
    "और तू मेरा पागल दोस्त!" माया ने फुसफुसाकर जवाब दिया।

    स्कूल की छुट्टी के बाद, बारिश थोड़ी कम हो गई थी, लेकिन आसमान अभी भी बादलों से भरा था। माया और अनिरुद्ध अपनी साइकिलें लेकर स्कूल के पीछे वाले तालाब की ओर निकले। तालाब वही था, जहाँ वे पहले कमल का फूल देखने गए थे। आज तालाब का पानी बारिश की वजह से और भरा हुआ था, और कमल के फूल हल्के-हल्के लहरा रहे थे।

    माया ने अपनी साइकिल एक पेड़ के पास खड़ी की और तालाब के किनारे बैठ गई। "अनु, देख! पानी कितना साफ है। शायद जादुई मछली यहीं कहीं है!" उसने उत्साह से कहा।

    अनिरुद्ध ने हँसकर कहा, "माया, तुझे सचमुच लगता है कि कोई जादुई मछली होगी?"

    "क्यों नहीं? अगर तू कविताएँ लिख सकता है, तो मैं जादुई मछली क्यों नहीं ढूँढ सकती?" माया ने पलटकर जवाब दिया।
    दोनों तालाब के किनारे बैठकर पानी को देखने लगे। माया ने अपनी जेब से एक छोटा सा बिस्किट निकाला और पानी में फेंका। "शायद मछली इसे खाने आए!" उसने हँसकर कहा।

    तभी पानी में एक छोटी सी हलचल हुई। एक चमकीली मछली, जिसके रंग सुनहरे और नीले थे, पानी की सतह पर आई और बिस्किट के टुकड़े को खा गई। माया ने ताली बजाई। "देखा, अनु! ये जादुई मछली है!"

    अनिरुद्ध ने हैरानी से मछली को देखा। "ये तो सचमुच खूबसूरत है!"
    माया ने अपनी जेब से एक और सिक्का निकाला और कहा, "चल, तालाब में सिक्का डालते हैं। शायद ये मछली हमारी मुराद पूरी कर दे!"
    दोनों ने एकसाथ सिक्के तालाब में डाले। सिक्के पानी में डूबे, और मछली फिर से सतह पर आई, जैसे उनकी मुराद को सुन रही हो। माया ने हँसकर कहा, "अनु, मैंने माँगा कि हमारी दोस्ती हमेशा ऐसी ही रहे!"
    "और मैंने माँगा कि तू हमेशा मेरे साथ शरारतें करती रहे!" अनिरुद्ध ने हँसकर जवाब दिया।

    दोनों तालाब के किनारे देर तक बैठे रहे। माया ने अनिरुद्ध से कहा, "अनु, तुझे क्या लगता है, जादुई मछली सचमुच होती है?"

    अनिरुद्ध ने सोचा और कहा, "पता नहीं, माया। लेकिन तेरे साथ हर चीज़ जादुई लगती है।"

    माया ने ताली बजाई। "वाह, शायर! अब जा, इसके लिए कविता लिख!"
    घर लौटते वक्त, माया ने अनिरुद्ध को एक छोटा सा पत्थर दिया, जिस पर उसने "जादुई मछली" लिखा था। "ये तुझे, मेरे शायर दोस्त!" उसने हँसकर कहा।

    अनिरुद्ध ने पत्थर लिया और मुस्कुराया। "तू हर बार कुछ नया दे देती है, माया।"
    "और तू हर बार कविता लिखता है!" माया ने जवाब दिया।
    घर पहुँचते ही अनिरुद्ध की माँ ने पूछा, "अनु, इतनी देर कहाँ थे?"

    "माया के साथ तालाब गए थे, माँ। वहाँ एक खूबसूरत मछली देखी!" अनिरुद्ध ने उत्साह से कहा।

    सरला ने मुस्कुराकर कहा, "माया तुझे बहुत कुछ सिखा रही है, अनु। उसे संभालकर रखना।"

    उस रात, अनिरुद्ध ने अपनी कॉपी में एक नई कविता लिखी:
    "तालाब की मछली, दोस्ती का रंग,
    माया के संग, हर पल अनघट संग।
    सिक्का डूबा, सपनों की बात,
    दोस्ती ये, हर पल की सौगात।"

    वह सोच रहा था कि माया के साथ बिताया हर पल उसके दिल में एक नया रंग भर रहा था। उसे लग रहा था कि यह दोस्ती उसके जीवन का सबसे अनमोल खज़ाना बन रही थी।
    और आगे... ✍🏻✍🏻✍🏻