दो दिल। दो कहानियाँ। दो दुनिया, जो प्यार से भाग रही हैं। आर्यन राजवंश — एक रईस और परफेक्शनिस्ट बिज़नेसमैन। उसकी ज़िंदगी में हर चीज़ एकदम परफेक्ट और कंट्रोल में होनी चाहिए। वह OCD की समस्या से जूझ रहा है, इस कदर कि उसे कोई भी गंदगी, उलझन या अ... दो दिल। दो कहानियाँ। दो दुनिया, जो प्यार से भाग रही हैं। आर्यन राजवंश — एक रईस और परफेक्शनिस्ट बिज़नेसमैन। उसकी ज़िंदगी में हर चीज़ एकदम परफेक्ट और कंट्रोल में होनी चाहिए। वह OCD की समस्या से जूझ रहा है, इस कदर कि उसे कोई भी गंदगी, उलझन या अव्यवस्था बर्दाश्त नहीं। उसकी शादी पहले ही टूट चुकी है और अब उसे लगता है कि प्यार जैसी चीज़ उसके लिए नहीं बनी। पर अचानक उसकी ज़िंदगी में आती है सानवी — एक मासूम, सादगीभरी और चुलबुली लड़की, जो हर चीज़ को उसकी तरह सख्त नज़रों से नहीं, बल्कि दिल से देखती है। आर्यन का दिल अनजाने में उसकी ओर खिंचने लगता है, मगर वह इसे कमज़ोरी मानकर स्वीकार नहीं करता। हालात तब बदलते हैं जब उसकी बहन की अचानक मौत हो जाती है। अपने भांजे की कस्टडी पाने के लिए, आर्यन को मजबूरी में शांति से कॉन्ट्रैक्ट मैरिज करनी पड़ती है। क्या यह शादी सिर्फ एक कानूनी समझौता बनकर रह जाएगी, या सानवी उसकी बंद, डरती हुई दुनिया को बदल पाएगी? कबीर अहमद मिर्ज़ा — एक परंपरागत मुस्लिम परिवार का बेटा। उसका सपना है बिज़नेस में ऊँचाइयाँ छूना, मगर परिवार का दबाव उसे अपनी कज़िन हिना वकार मिर्ज़ा से निकाह के लिए मजबूर कर देता है। कबीर को लगता है यह निकाह उसकी आज़ादी को खत्म कर देगा। हिना भी इस रिश्ते में प्यार नहीं देख पाती क्योंकि वह अपने सपनों को जीना चाहती है। क्या वक़्त दोनों की सोच बदल देगा? क्या यह रिश्ता एक अनकहे प्यार में बदल पाएगा? दो कहानियाँ। दो जुदा रास्ते। और एक सवाल — दिल की खामोशियाँ
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About Story:
दो नौजवान, दो कहानियाँ, दो अधूरे दिल...
आर्यन और कबीर — दोनों को शादी से डर लगता है।
कोई टूटे रिश्तों से भाग रहा है, और कोई परिवार की ज़िद में फंसकर अपने सपनों से समझौता कर रहा है।
फिर उनकी ज़िंदगी में आती हैं दो लड़कियाँ, जो उनकी दुनिया बदल देती हैं।
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दिल की खामोशियां – टीज़र
“कभी-कभी दिल में छुपी बातों को लफ़्ज़ों तक लाना आसान नहीं होता… और वहीं से शुरू होती हैं अनकही कहानियाँ।”
आर्यन और कबीर — दो अलग दुनिया के नौजवान।
दोनों के पास सब कुछ है, सिवाय प्यार की सच्ची समझ के।
किसी को रिश्तों से डर है, और कोई अपनी ज़िंदगी के फैसले खुद नहीं ले पा रहा।
फिर आती हैं उनकी ज़िंदगी में दो लड़कियाँ, जो उनके दिल की दीवारों को तोड़ने की हिम्मत रखती हैं।
क्या ये दोनों लड़कियाँ उन लड़कों की दुनिया बदल पाएंगी?
या फिर ये रिश्ते "दिल जो ना कह सका" की तरह अधूरे रह जाएंगे?
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दिल की खामोशियां" —
एक सीरीज़, जो मोहब्बत, गलतफहमियों, मजबूरियों और दिल की खामोशियों को बयां करेगी।
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जैसे ही हिना अपने कमरे से बाहर निकली, वो एकदम अचानक कबीर से टकरा गई।
कबीर—जो शायद बाहर से लौटा था, थका हुआ और किसी उलझन में डूबा हुआ—उसका चेहरा संजीदा और भरा-भरा लग रहा था। उसने हिना की तरफ एक तेज़, मगर बेमानी नज़र डाली — न नफरत, न अपनापन, बस एक थकी हुई बेरुख़ी थी उस आँखों में।
हिना का दिल एक पल को काँप उठा।
कबीर कुछ बोले बिना, सीधा ऊपर की ओर अपने कमरे की तरफ बढ़ गया।
हिना वहीं खड़ी रह गई... जैसे किसी ने उसके पैरों के नीचे से ज़मीन खींच ली हो।
उसके मन में हलचल सी उठी।
उसने धीरे से खुद से कहा,
"या अल्लाह... यही है वो शख़्स? जिससे मेरी शादी की बात चल रही है?
कुछ तो हो जाए... कोई वजह बन जाए... कि बात यहीं रुक जाए..."
उसकी आँखों में हल्का सा डर, हल्का सा गुस्सा और एक बेआवाज़ दुआ थी।
हिना ने दुपट्टा ठीक किया, और बिना किसी से कुछ कहे, बड़े से हाल से बाहर निकल गई।
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पूरी मिर्ज़ा फैमिली डाइनिंग रूम में, डाइनिंग टेबल पर एक साथ बैठी हुई थी।
टेबल के एक सिरे पर हाशमी मिर्ज़ा और उनकी बीवी — जिन्हें सब "दादी जान" कहकर पुकारते थे — अपनी आदत के मुताबिक़ ग़ौर से सबको देख रहे थे।
उनके साथ ही उनके तीनों बेटे बैठे थे —
सबसे बड़ा बेटा अहमद मिर्ज़ा,
उसके बाद सईद मिर्ज़ा,
और सबसे छोटा बेटा — वक़ार मिर्ज़ा।
अहमद मिर्ज़ा के दोनों बेटे —
बड़ा बेटा कबीर, और दूसरा बेटा आयान
उसकी बेटी साबिहा,
दोनों टेबल पर बैठे हुए थे।
सईद मिर्ज़ा का बड़ा बेटा शाहरुख़, जो शहर से बाहर था, वह आज मौजूद नहीं था।
उनका छोटा बेटा तैमूर, जो ग्रेजुएशन कर रहा है, वह टेबल पर बैठा हुआ था।
उनकी बेटी कहकशां, जो हिना के साथ ही कॉलेज में पढ़ती है, वह भी अपनी सीट पर थी।
वक़ार मिर्ज़ा की दोनों बेटियाँ —
हिना और हवा —
दोनों बैठी हुई थीं।
हवा ने हाल ही में कॉलेज जाना शुरू किया है, जबकि हिना फाइनल ईयर में है।
तीनों भाइयों की बीवियाँ —
सलीमा भाभी (कबीर की अम्मी),
शगुफ़्ता भाभी (हिना की अम्मी),
और रिहाना भाभी (तैमूर की अम्मी) —
तीनों औरतें खाने की सर्विंग में लगी हुई थीं।
जैसा हमेशा होता आया था, आज भी उन्होंने डाइनिंग टेबल पर परिवार के साथ बैठकर खाना नहीं खाया।
वो तीनों अपनी बेटियों और बच्चों को खाना परोसने में लगी थीं।
इस घर की एक परंपरा यही थी — मर्द और बच्चे पहले खाते हैं, और घर की औरतें बाद में, अलग से बैठकर खाना खाती हैं।
हालाँकि परिवार की बेटियों को टेबल पर बैठने की इजाज़त थी, मगर बहुएं अब तक उस जगह पर नहीं बैठी थीं।
सभी चुपचाप खाना खा रहे थे, क्योंकि सभी — छोटे हों या बड़े — दादा जान और दादी जान से डरते थे।
चाहे अब वे लोग बिजनेस शुरू कर चुके थे, और मॉडर्न सोच का हिस्सा बन चुके थे, मगर कुछ रवायतें अभी भी नहीं बदली थीं।
दादा हुज़ूर और दादी जान के सामने कोई भी ज़ोर से बोल नहीं सकता था।
न ही वह तीनों भाई कभी अपने मां-बाप की बातों का विरोध करते थे।
हाँ, इतना ज़रूर था कि बच्चों में नई सोच पनपने लगी थी — जो अब तक सिर्फ़ उनके कमरों के अंदर ही सीमित थी।
मिर्ज़ा साहब के सबसे छोटे बेटे वक़ार का स्वभाव अपने भाइयों से बिल्कुल अलग था।
उसका मिज़ाज शुरू से ही नरम और समझदार था।
उसका स्वभाव खुला हुआ था, और वह औरतों को आज़ादी देने के पक्ष में था।
मगर साथ ही वह अपने अम्मी और अब्बा हुज़ूर की बहुत इज़्ज़त करता था।
जैसे ही खाना खत्म हुआ और सभी अपनी-अपनी जगह से उठने लगे, दादा जान ने दादी जान की तरफ देखा।
फिर उन्होंने बड़े बेटे अहमद से कहा,
"अहमद, तुम तीनों भाई ज़रा मेरे कमरे में आना।"
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खाने के बाद तीनों भाई उठकर मिर्ज़ा साहब के कमरे में चले गए।
वैसे सबको पहले से ही अंदाज़ा था कि किस बारे में बात होने वाली है।
कमरे में पहुँचते ही दादा सरकार ने तीनों बेटों की तरफ देखा और गंभीर स्वर में कहा —
"मुझे लगता है कि अब कबीर और हिना — दोनों का रिश्ता तय कर देना चाहिए।"
अहमद मिर्ज़ा ने थोड़ी देर सोचा और फिर कहा,
"अब्बा हुज़ूर, मुझे कबीर से एक बार बात करनी होगी..."
वक़ार — जो हिना का अब्बा था — धीमे से बोला,
"और मुझे भी हिना से पूछना होगा..."
"तुम्हें हिना से पूछना होगा?"
सईद मिर्ज़ा ने थोड़ा हैरान होकर कहा,
"कबीर की बात तो मैं फिर भी समझता हूँ, मगर हिना...? तुम्हारा फैसला क्यों नहीं मानेगी भाई साहब?"
वक़ार ने बिना हिचकिचाहट के कहा,
"वक़्त बदल चुका है। अब बच्चे अपनी ज़िंदगी के फैसले खुद लेना चाहते हैं। मैं अपनी बेटी की राय लेना ज़रूरी समझता हूँ।"
"तुम दोनों एक बात भूल रहे हो..."
दादा सरकार ने सख़्त लहजे में कहा,
"इन दोनों की शादी तो बचपन में ही तय कर दी गई थी। और मुझे नहीं लगता कि अब वो बात टूटेगी। मैं तुम लोगों को पहले ही बता चुका हूँ — इस घर में सारी शादियाँ मेरी मर्ज़ी से होती हैं।"
तभी दादी जान बीच में बोल पड़ीं —
"ये तो बचपन में ही तय हो गया था... कबीर घर का बड़ा बेटा है, और हिना घर की बड़ी बेटी। तो इन दोनों की शादी ही होगी।"
कमरे में कुछ पल के लिए चुप्पी छा गई।
रात को वक़ार अपने कमरे में अपनी पत्नी शगुफ़्ता से बात कर रहा था।
"तो अब क्या करोगे?"
शगुफ़्ता ने अपने शौहर वक़ार से पूछा,
"अब हिना से तो बात करनी ही होगी।"
वक़ार ने धीमे स्वर में कहा,
"वैसे कबीर अच्छा लड़का है… ज़िम्मेदार भी है।"
शगुफ़्ता ने सिर हिलाते हुए कहा,
"वो तो ठीक है… मगर उसकी और हिना की सोच में बहुत फ़र्क है।
मेरी हिना हँसती है, मुस्कुराती है, शरारती है… और कबीर?
वो तो सिर्फ़ ज़रूरत की बात करता है। घर के सभी लड़के उसके सामने बोलते हुए झिझकते हैं।"
वक़ार ने हामी में सिर हिलाते हुए कहा,
"बात तो तुम्हारी सही है।
एक बात का और भी फ़र्क है… हिना जब ग्रेजुएशन पूरी कर लेगी, ।
और कबीर… उसने बिज़नेस तो बहुत अच्छे से संभाला है, मगर एजुकेशन दिमाग खोलती है।
वो जो बात पढ़ाई से आती है… वो कमी उसमें रहेगी।"
कबीर इस घर का बड़ा बेटा था, जिसने 12वीं तक की पढ़ाई की थी। वह ऐसा वक्त था जब वह अपने छोटे से कस्बे को छोड़कर इस बड़े शहर में आए थे। वहाँ पर उनकी जमीन थी, जो आज भी है। उन्होंने अपनी हवेली और जमीनें छोड़कर यहाँ पर कपड़ों का कारोबार शुरू किया। उस समय हालात ऐसे थे कि कबीर अपने अब्बा के साथ काम में लग गया था, और उनके घर में तब एजुकेशन की इतनी अहमियत नहीं थी।
मगर उसके बाद के सारे बच्चे पढ़े-लिखे थे। कबीर का छोटा भाई अयान, उसकी एम.कॉम. पूरी होने वाली थी और उसके बाद वह बिजनेस जॉइन करने वाला था। दूसरे भाई सैयद के बड़े बेटे शाहरुख ने बी.ए. किया था। वह हॉस्टल में रहकर पढ़ा था। तैमूर ग्रेजुएशन खत्म करने के बाद इसी शहर में एम.बी.ए. कर रहा था।
कबीर की बहन साहिबा, शाहरुख की बहन के कहकशां, और वकार मिर्जा की दोनों बेटियाँ — हवा और हिना — चारों कॉलेज जा रही थीं, मगर उन पर बहुत बंदिशें थीं। वे सीधा कॉलेज जातीं, घर से गाड़ी जाती थी और सीधा घर वापस आती थीं। घर की शादियाँ बड़े तय कर रहे थे।
कबीर जानता था कि उसकी शादी बचपन से हिना से तय है, मगर हिना को इस बारे में पता नहीं था। उसे अभी-अभी यह बात पता चली थी।
"तो अब आप क्या करेंगी, आपा?" हवा ने धीमे स्वर में अपनी बड़ी बहन हिना से पूछा।
दोनों बहनें अपने कमरे में थीं। उनका कमरा उनके अम्मी-अब्बू के कमरे से सटा हुआ था। मिर्ज़ा हाउस में बेटियों के सारे कमरे ज़मीन की मंज़िल पर थे, जबकि बेटों को ऊपरी मंज़िल पर कमरे मिले हुए थे।
हवा और हिना का कमरा सादा लेकिन खूबसूरत था, एक ही बेड पर दोनों बहनें आमने-सामने लेटी थीं। हवा ने अपनी ठोड़ी के नीचे हथेली टिकाकर बहन की ओर देखा। हिना की आँखों में गहराई थी, चिंता थी, और कहीं एक डर भी।
"तुम ही बताओ, मैं क्या कर सकती हूँ?" हिना की आवाज़ में बेबसी थी, "मैं सचमुच कबीर से शादी नहीं करना चाहती। तुम्हें अच्छे से पता है कि वह कैसा इंसान है।"
हवा ने हल्की-सी हामी में सिर हिलाया, "सही बात है आपा… मगर हम चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते। अब्बा ने तो कोशिश की थी दादाजान से बात करने की… मगर उन्होंने साफ़ मना कर दिया।"
"और पूछा तो कबीर भाईजान से भी नहीं गया होगा," हवा ने झुंझलाकर कहा, "उन्हें भी बस हुक्म सुना दिया गया होगा। इस घर में जब मर्दों की नहीं चलती तो औरतों की क्या चलेगी?"
हवा ने करवट बदली, और उल्टे लेटते हुए ठंडी साँस ली।
"आपकी पढ़ाई भी यहीं रुक जाएगी, है न?" हवा ने धीरे से पूछा।
हिना की आँखों में कुछ भीगे-से सपने थे। "हाँ, ग्रैजुएशन तो खत्म हो गया, लेकिन मैं मास्टर्स करना चाहती थी… तुम्हें तो पता है ना मुझे लिटरेचर में कितनी दिलचस्पी है।"
"कोई फ़ायदा नहीं आपा। कबीर भाई को कहाँ पढ़ाई की कद्र है। देख लेना, वह धीरे-धीरे दादाजान की तरह हो जाएंगे — सख्त मिज़ाज, औरतों को बस घर की चारदीवारी में रखने वाले, और सबसे पहले आप पर ही हुक्म चलाएँगे।"
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"मैं अपनी नई सीरीज़ शुरू कर रही हूँ। कृपया मुझे सपोर्ट करें, इसे पढ़ें और अपने कमेंट्स ज़रूर दें। बताइएगा, आपको यह कैसी लग रही है और इसे रेटिंग भी दें। उम्मीद है, यह कहानी आपको पसंद आएगी।"
"आपकी पढ़ाई भी यहीं रुक जाएगी, है न?" हवा ने धीरे से पूछा।
हिना की आँखों में कुछ भीगे-से सपने थे। "हाँ, ग्रैजुएशन तो खत्म हो गया, लेकिन मैं मास्टर्स करना चाहती थी… तुम्हें तो पता है ना मुझे लिटरेचर में कितनी दिलचस्पी है।"
"कोई फ़ायदा नहीं आपा। कबीर भाई को कहाँ पढ़ाई की कद्र है। देख लेना, वह धीरे-धीरे दादाजान की तरह हो जाएंगे — सख्त मिज़ाज, औरतों को बस घर की चारदीवारी में रखने वाले, और सबसे पहले आप पर ही हुक्म चलाएँगे।"
"क्यों डरा रही हो यार मुझे?" हिना ने नर्म लहजे में कहा।
"सच कह रही हूँ," हवा ने तड़पकर कहा, "आप उनकी बीवी बनेंगी, और इस घर की सबसे समझदार लड़की होने के बावजूद आपकी कोई सुनवाई नहीं होगी।"
हिना चुप रही। उसने करवट बदली और आंखें बंद कर लीं।
"सो जाओ आपा," हिना ने कहा, और खुद भी आंखें मूंद लीं। मगर नींद दोनों की आँखों से कोसों दूर थी।
हिना सोच रही थी... क्या वह कबीर को पसंद करती है?
कभी नहीं।
कबीर — गुस्से से भरा, एटीट्यूड वाला, सिर्फ अपनी चलाने वाला लड़का। उसने शायद ही कभी सूट पहना हो। घर में बाकी लड़के ट्राउज़र-शर्ट में रिलैक्स होते थे, मगर कबीर हमेशा पठानी सूट या पायजामा-कुर्ते में ही दिखाई देता था। ऑफिस भी वह जीन्स और शर्ट में जाता था, ऊपर से कभी-कभी जैकेट डाल लेता — मगर सूट? शायद ही कभी।
और शाहरुख…
हिना के ज़ेहन में जैसे उसकी तस्वीर उतर आई।
शाहरुख, कबीर से कोई तीन साल छोटा था, मगर बिल्कुल अलग। वह हॉस्टल में पढ़ता था, बहुत बातें करता, मुस्कुराता, हँसता — लड़कियाँ उसे पसंद करतीं, उसकी मौजूदगी से महफ़िल रौशन हो जाती।
हिना को शाहरुख में अपने अब्बा की झलक दिखती थी — खुले विचारों वाला, ज़िंदगी को समझने वाला लड़का।
काश…
काश वो अपनी पसंद से जी पाती। मगर इस घर में लड़की की पसंद का क्या मतलब?
किसी ने दरवाज़े पर दस्तक दी।
"आ जाओ," कबीर ने कहा, और वो वापस फाइल की तरफ देखने लगा।
अयान अंदर आ गया।
"भाईजान, कैसे हैं आप?" उसने मुस्कुराकर पूछा।
कबीर ने बिना मुस्कराए फाइल से नज़र उठाई और उसकी तरफ देखा, "काम बताओ," उसने सीधा कहा।
अयान थोड़ा मुस्कराया और कमरे के भीतर आकर बेड पर बैठ गया। कबीर की आँखों में ठंडी-सी नज़रें थीं।
"कुछ चाहिए था?" उसने रूखे लहजे में पूछा।
अयान हल्के से हँसा, "नहीं, बस मिलने चला आया… देखना था कि आप कैसे हैं।"
"जैसा हमेशा था, वैसा ही हूँ," कबीर ने नज़रें वापस फाइल पर टिकाईं, "अब बताओ, असल बात क्या है?"
अयान ने गहरी साँस ली, फिर मुस्कराकर बोला, "पता है, आजकल घर में आपकी और हिना की शादी की बातें चल रही हैं।"
कबीर ने उसकी तरफ देखा नहीं, सिर्फ हल्का-सा सिर हिलाया, जैसे ये बात नई न हो।
अयान, जो भले ही कबीर से छोटा था, लेकिन हिना से उम्र में बड़ा था, थोड़ा रुककर बोला, "मैं सोच रहा था… आप दोनों साथ में कितने अच्छे लगेंगे।"
"तो सोचते रहो," कबीर ने सूखी आवाज़ में कहा, "लेकिन जहां से आए हो, वहाँ लौट जाओ।"
अयान को थोड़ी हैरानी हुई, "इतना भी क्या सख्त मिज़ाज होना, भाईजान? अब तो भाभी ही आपको सीधा करेंगी।"
इस पर कबीर ने पहली बार उसकी तरफ सीधी नज़र से देखा, उसकी नज़र तीखी थी, मगर अंदर कोई खामोशी भी थी।
"अब जो जहां से तुम्हारी बातें हो चुकी हैं…
अयान ने मुस्कुराते हुए सिर झुकाया, "ठीक है भाईजान, मैंने तो बस बात करने की कोशिश की थी।"
अयान चुपचाप उठकर कमरे से बाहर चला गया।
कबीर अहमद मिर्जा – मिर्जा खानदान का सबसे बड़ा बेटा
कबीर अहमद मिर्जा, मिर्जा खानदान का सबसे बड़ा बेटा था। लंबा-चौड़ा कद, सांवला रंग, बड़ी-बड़ी गहरी आँखें, और घने काले बाल — देखने में बेहद हैंडसम था। उसकी शख़्सियत में गहराई थी, और बोलचाल में गंभीरता। वह कम बोलता था, लेकिन जब भी बोलता, तो उसके हर शब्द में वजन होता।
कबीर का घर के कारोबार में अहम योगदान था। खानदान की तीनों कपड़ों की फैक्ट्रियाँ — जिनकी नींव उसके अब्बा और दोनों चाचाओं ने मिलकर रखी थी — उन्हें खड़ा करने और आगे बढ़ाने में कबीर ने सबसे ज़्यादा मेहनत की थी। जब खानदान ने अपने छोटे कस्बे से निकलकर शहर में बसने का फ़ैसला किया था, उस वक्त कबीर ननिहाल में पढ़ाई कर रहा था। गांव में अच्छी शिक्षा का अभाव था, इसलिए उसे बचपन से ही मामा के घर शहर भेज दिया गया था, जहाँ उसने प्लस टू तक की पढ़ाई की।
उसका पढ़ाई में मन लगता था, और वह हमेशा क्लास का होशियार छात्र माना जाता था। ननिहाल का शांत और अनुशासित माहौल उसके अपने घर से बिल्कुल अलग था। मामा के घर में नियम थे, और अनुशासन के साथ ज़िंदगी जीने की आदत पड़ी थी। उसके दो मामेरे भाई थे, जो उम्र में उससे बड़े थे और अपने-अपने करियर में व्यस्त रहते थे।
जब कबीर की प्लस टू की पढ़ाई पूरी हुई, तो वह वापस घर आ गया। उसी दौरान घर वालों ने शहर में बसने का फैसला किया। बाकी बच्चों की पढ़ाई कस्बे के स्कूल में ही जारी रही, लेकिन कबीर की स्कूली शिक्षा जिस स्तर की थी, वैसी किसी और को नहीं मिल सकी थी। यह बात और थी कि वह आगे की पढ़ाई नहीं कर सका। कभी कॉलेज जाने का मौका ही नहीं मिला।
उस वक्त उसके अब्बा और चाचा मिलकर फैक्ट्री शुरू करने की योजना बना रहे थे, और कबीर ने उनके साथ काम में जुट जाना ज़्यादा ज़रूरी समझा। किसी ने नहीं कहा कि वो पढ़ाई जारी रखे — क्योंकि उस समय पढ़ाई को इतनी अहमियत नहीं दी जाती थी। कबीर जानता था कि आगे चलकर उसे क्या खोना पड़ा है, लेकिन फिर भी उसने कभी शिकायत नहीं की।
कबीर को मालूम था कि घर में कई बार उसकी और हिना की शादी की बात की गई है। मगर इस रिश्ते के बारे में उसकी मोहब्बत बस उसके दिल में दबी रही — किसी को भनक तक नहीं थी। हिना उसके दिल के बहुत करीब थी, मगर वह कभी खुलकर सामने नहीं आया।
कबीर जानता था कि वह घर का सबसे बड़ा बेटा है, और इस नाते उससे एक संयमित व्यवहार की उम्मीद की जाती है। उसने हिना से हमेशा एक दूरी बनाकर रखी — ताकि वह उसकी पढ़ाई में कोई रुकावट न बने। वह नहीं चाहता था कि उसकी वजह से हिना की पढ़ाई छूट जाए या उस पर किसी तरह का सामाजिक दबाव पड़े। खुद भले ही पढ़ाई छोड़ चुका था, लेकिन वह अपने छोटे भाई-बहनों को आगे बढ़ते देखना चाहता था।
जब उसके शाहरुख ने प्लस टू पास किया, तो कबीर ने खुद दादा जान से बात की कि उसे आगे पढ़ने के लिए हॉस्टल भेजा जाए। दादा जान की इजाज़त लेना आसान नहीं था — उन्हें अपनी बात काटना बिल्कुल पसंद नहीं था — मगर कबीर ने हमेशा उन्हें अकेले में जाकर समझाया। धीरे-धीरे दादा जान को भी यकीन हो गया कि उनका कारोबार कबीर की मेहनत से चल रहा है, और यह लड़का सोच-समझकर फैसले करता है। इसीलिए कबीर की बात अक्सर मान ली जाती।
अब तो घर के बाकी लड़के-लड़कियाँ भी कॉलेज जाने लगे थे। उसका अपना छोटा भाई m.com कर रहा था, और छोटी बहन भी कॉलेज जाती थी।
कबीर की रुचि केवल कारोबार तक सीमित नहीं थी। उसे राजनीति में भी गहरी दिलचस्पी थी। वह अकसर राजनीति से जुड़े प्रोग्राम्स में हिस्सा लेता था। उसका एक खास दोस्त था — गौतम शर्मा — जो दिल्ली में राजनीतिक हलकों में भी काफी एक्टिव रहता था। कबीर जानता था कि बिजनेस को आगे बढ़ाने के लिए राजनीतिक कनेक्शन ज़रूरी होते हैं, और गौतम के ज़रिए उसकी पहुँच वहाँ तक बन चुकी थी।
हिना के लिए कबीर की मोहब्बत उसके दिल में थी — गहरी, लेकिन खामोश। जब उनकी शादी की बात दोबारा चली, तो कबीर को कोई ऐतराज़ नहीं था। उसके लिए तो यह रिश्ता दिल से कब का मंज़ूर हो चुका था।
मगर... सवाल यह था कि क्या हिना कबीर के बारे में कुछ जानती थी?
शायद नहीं।
उसे यह तक नहीं पता था कि कबीर कैसा इंसान है, वह कैसे सोचता है, उसे क्या पसंद है, और उसके दिल में हिना के लिए कितनी गहराई से मोहब्बत है। कबीर ने कभी जताया ही नहीं। शायद वक्त अब उसी रुख़ की ओर बढ़ रहा था जहाँ यह चुप मोहब्बत... हकीकत में बदलने वाली थी।
कबीर का छोटा भाई अयान, घर का सबसे शरारती लड़का था। जितनी शरारत वह करता था, उतनी घर का कोई भी और लड़का नहीं करता था। वह न सिर्फ शरारती था, बल्कि बिल्कुल बेपरवाह, हर बात खुलकर कहने वाला, मनमौजी किस्म का लड़का था।
जब घर की लड़कियाँ बड़ी हो जाती थीं, तो परिवार के नियमों के अनुसार बाकी लड़के उनसे एक दूरी बनाकर रखते थे — जैसा कि खानदान में पीढ़ियों से होता आया था। मगर अयान इस मामले में बिल्कुल अलग था। वह किसी से दूरी नहीं बनाता था, बल्कि अक्सर घर की लड़कियों से उसकी बहस और झगड़े होते रहते थे।
अयान और हवा के बीच तो खास दुश्मनी थी। जब तक घर के बड़े सदस्य आस-पास रहते, दोनों शांति से रहते थे। मगर जैसे ही कोई बड़ा सामने से हटा, उनकी बहस शुरू हो जाती ीं
कबीर की बहन सबिहा, बहुत प्यारी और समझदार लड़की थी। उसकी हिना और हवा के साथ खास दोस्ती थी। बल्कि, सिर्फ वही तीनों नहीं — घर की चारों लड़कियाँ, यानी हिना, हवा, कहकशा और सबिहा — आपस में बहनों से बढ़कर दोस्त थीं। चारों के बीच बहुत गहरा प्रेम था।
हिना और हवा एक ही कमरे में रहती थीं, जबकि सबिहा और कहकशा एक और कमरे में। चारों में से अगर किसी एक को भी कोई बात परेशान करती, तो वे सब उसे मिलकर सुलझाने की कोशिश करती थीं। उनके बीच का रिश्ता इतना गहरा था कि चाहे कोई भी बात हो, वो एक-दूसरे का पूरा साथ देती थीं — और घर के बाकी लोगों को भनक भी नहीं लगने देती थीं।
चारों बहनें एक साथ कॉलेज जाती थीं, और साथ ही लौटती थीं। उन्हें बस एक ही बात की चिंता सताती रहती थी — कि उनकी शादी इस घर में न हो। खासकर, इस घर के लड़कों से नहीं।
उनके मन में ये धारणा बन चुकी थी कि घर के सारे लड़के सख्त मिज़ाज के हैं — जो औरतों की इज़्ज़त नहीं करते, उन्हें दबाकर रखते हैं और बस अपनी चलाना जानते हैं। उनमें से उन्हें सबसे ज़्यादा डर कबीर से लगता था। उन्हें लगता था कि कबीर सबसे ज्यादा रुखा, गुस्सैल और मर्दवादी सोच रखने वाला है।
मगर सच क्या था — ये सिर्फ कबीर जानता था।
क्योंकि अगर आज इस घर की बेटियाँ कॉलेज तक पढ़ पा रही थीं, और उन्हें बाहर जाने की इजाज़त थी — तो वह सिर्फ और सिर्फ कबीर की वजह से था।
अब आगे क्या होगा?
क्या हिना कबीर को जान पाएगी?
क्या कबीर अपनी मोहब्बत का इज़हार कर पाएगा?
या फिर वक्त कुछ और ही मोड़ लेकर आएगा?
एक नई शुरुआत, एक नया सफर...
इस सीरीज़ के ज़रिए मैं दिल के उन जज़्बातों को शब्द देने जा रही हूं जिन्हें अक्सर हम महसूस तो करते हैं, मगर कह नहीं पाते।
उम्मीद है कि मेरी यह कोशिश आपके दिल को छू पाएगी।
प्लीज़ लाइक करें, कमेंट करें, और अपने सुझाव ज़रूर दें।
आपका साथ ही मेरा हौसला है। ❤️🙏
“अप्रैल का महीना था। मौसम में गर्मी की शुरुआत हो चुकी थी, और शहर की गलियों में सुबह की हवा भी अब तपिश लिए चलने लगी थी। चारों बहनों — को आज कॉलेज जाना था। फाइनल एग्ज़ाम से पहले कुछ क्लासेज की फाइल सबमिट करनी थी। फिर मई के पहले हफ्ते से उनके एग्ज़ाम शुरू होने थे, इसलिए ये कॉलेज के आखिरी चक्कर थे।
घर की लॉबी से निकलती हुई चारों बहनें किसी खूबसूरत गुलदस्ते जैसी लग रही थीं। चारों का अंदाज़, चाल और मुस्कराहटें — एक साथ बाहर आते ही ऐसा लगा जैसे घर में बहार आ गई हो। सबने हल्के गर्मियों के कपड़े पहने थे — स्काई ब्लू, गुलाबी और सफेद रंगों की लहरें उनके दुपट्टों में उड़ती जा रही थीं।
ड्राइवर गेट पर खड़ा पहले से ही गाड़ी के दरवाज़े के पास था। उसका नाम था रशीद चाचा — एक उम्रदराज़ और बेहद विनम्र शख़्स, जो बरसों से इस घर में ड्राइवर था। चारों बहनों की परवरिश को वह अपनी बेटियों जैसा मानता था।
रशीद चाचा ने गाड़ी का बोनट खोल रखा था और माथे पर परेशानी की लकीरें थीं। जैसे ही लड़कियां बाहर आईं, उन्होंने मुस्कुराकर कहा —
"बीबी, गाड़ी आज आपका साथ नहीं निभा सकेगी। इंजन में कुछ दिक्कत है, शायद मैकेनिक को दिखानी पड़ेगी।"
हवा ने रुककर पूछा, “क्या हो गया, चाचा?”
रशीद चाचा ने अपने चश्मे को ठीक करते हुए कहा,
"पता नहीं, सुबह से स्टार्ट नहीं हो रही। दो बार कोशिश कर चुका हूं... पर अब तो लगता है मिकैनिक ही देखेगा।"
चारों बहनों ने एक-दूसरे की तरफ देखा। सबको कॉलेज जाना ज़रूरी था — आख़िरी डेट थी फाइल सबमिट करने की।
"अब क्या करें?" हिना ने हल्के से कहा।
उसी पल सामने से कबीर आता दिखा — सफ़ेद स्काई ब्लू शर्ट और ब्लू डेनिम्स में, हमेशा की तरह बेपरवाह और ठंडी सी नज़रों वाला। गाड़ी की साइड में आकर उसने हालात को देखा। सबिहा ने उसे देखकर कहा,
“हमें कॉलेज जाना है, और गाड़ी…”
“ठीक है, देखता हूं,” उसने एक ही लाइन में कहा और गाड़ी के सामने जाकर झुककर इंजन की तरफ देखने लगा।
कबीर, जो अक्सर कम बोलता था, मगर जब कुछ कहता तो बात वहीं खत्म हो जाती।
चलो तुम लोगों को मैं छोड़ देता हूं "उसने कहा
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गाड़ी में बैठने की हलचल और बारिश की हल्की रिमझिम
सबिहा आगे वाली सीट पर कबीर के साथ बैठ गई थी, क्योंकि वह कबीर की छोटी बहन थी। पीछे की सीट पर हिना, हवा और कहकशां— तीनों — आराम से बैठ गईं।
"भाई जान, आज हमें अपनी फाइल सबमिट करनी है," सबिहा ने झिझकते हुए कहा।
"लास्ट डेट है," हवा ने भी धीरे से जोड़ा।
कबीर ने थोड़ा नाराज़ होते हुए कहा, "तो ये काम तो पहले ही हो जाना चाहिए था। इतनी लापरवाही अच्छी नहीं होती।"
उसकी बात सुनकर सभी चुप हो गईं।
"सॉरी भाई जान," सबकी ओर से सबिहा ने धीरे से कहा।
कबीर ने एक गहरी साँस ली और गाड़ी स्टार्ट कर दी। कुछ ही पलों में वे सब घर से निकल चुके थे।
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आईने के आरपार
हिना, जो कबीर की सीट के ठीक पीछे बैठी थी, बाहर की तरफ देख रही थी। बारिश की बूँदें खिड़की से टकरा रही थीं और उसका ध्यान उन्हीं में उलझा हुआ था। हवा बीच में बैठी थी और कहकशां खिड़की की ओर।
कबीर गाड़ी चला रहा था, लेकिन उसका ध्यान गाड़ी से ज़्यादा आईने पर था। उसने फ्रंट रियर व्यू मिरर में झाँका — हिना का चेहरा साफ़ नजर आ रहा था।
आज वह पिंक रंग के सूट में थी, उसका चेहरा उसके कपड़ों के साथ इस कदर मेल खा रहा था जैसे किसी पेंटिंग का टोन। उसकी बड़ी-बड़ी काली आँखों में काजल की गहराई थी। छोटी, तीखी सी नाक में बारीक सी नथनी चमक रही थी। होठों पर हल्की गुलाबी लिपस्टिक थी। उसके खुले बाल कंधों से नीचे तक बहते हुए, हल्की हवा में लहराते थे।
हिना को अंदाज़ा भी नहीं था कि कोई उसे आईने से इतनी तल्लीनता से देख रहा है। वह तो खिड़की के बाहर उस बारिश को निहार रही थी, जैसे उस भीगती दुनिया से कोई रिश्ता जोड़ना चाहती हो।
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कबीर जानता था कि उसके दिल में हिना के लिए हमेशा से एक जगह रही है। वह यह भी जानता था कि परिवार में सब यही मानते हैं कि उसकी शादी हिना से ही होगी। लेकिन जब कल रात यह रिश्ता पक्का हो गया, तो आज हिना को देखने का उसका नज़रिया बदल गया था।
उसे आज एक अजीब सा अधिकार महसूस हो रहा था — जैसे अब वह उसे पहले से ज़्यादा अपने दिल से देख सकता है।
आईने से वह लगातार हिना को देखे जा रहा था — उसकी हर मुस्कान, उसकी हर झलक उसे अपनी ओर खींच रही थी।
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कबीर इतना खोया हुआ था कि उसे सामने से आ रही एक कार का ध्यान ही नहीं रहा। गाड़ी की रफ़्तार भी थोड़ी तेज़ थी।
हवा, जो अब तक शांत बैठी थी, कबीर के चेहरे की तरफ देख रही थी। उसे तुरंत समझ में आ गया कि कबीर किसे और कैसे देख रहा है।
जैसे ही सामने से आती गाड़ी थोड़ी नज़दीक आई, हवा ने अचानक ज़ोर से चिल्लाया —
"कबीर भाई जान!"
कबीर की तंद्रा टूटी। उसने तुरंत ब्रेक मारा।
गाड़ी एक झटके के साथ रुक गई।
सभी एकदम से अपनी सीटों से थोड़ा आगे की तरफ झुक गए। सीट बेल्ट की वजह से उन्हें कोई चोट तो नहीं लगी, लेकिन पल भर के लिए गाड़ी के अंदर सन्नाटा छा गया।
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कबीर ने चुपचाप सामने देखा, फिर शीशे में। हिना अब भी चुपचाप बैठी थी, मगर अब उसकी निगाहें बाहर नहीं — सीधे सामने आईने की तरफ थीं।
हवा ने भी कुछ नहीं कहा। लेकिन उसके चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कान थी — वो मुस्कान, जो बहुत कुछ जानकर भी कुछ न कहे।
कबीर ने गाड़ी रोकने के बाद जैसे ही थोड़ा सिर घुमाया, उसकी नज़र हवा के चेहरे पर पड़ गई। हवा के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान थी — वही मुस्कान, जो बहुत कुछ कहती है, बिना कुछ बोले।
कबीर समझ गया था... हवा सब जान चुकी है।
उसी मुस्कान में जवाब छुपा था।
गाड़ी कॉलेज के सामने रुकी। जैसे ही लड़कियाँ उतरने लगीं, कबीर ने गाड़ी से उतरकर उन्हें जल्दी-जल्दी विदा किया।
"चलो, ध्यान से जाना। सबमिशन टाइम पर कर देना," उसने सामान्य लहजे में कहा, लेकिन उसकी आँखें हवा की ओर उठ गईं।
हवा, जो धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी, तब तक रुक गई।
कबीर थोड़ा पास आया और बहुत धीमे स्वर में सिर्फ उससे कहा —
"किसी को कुछ भी कहने की ज़रूरत नहीं है।"
हवा ने सिर हल्के से हिलाया। उसकी मुस्कान अब भी वहीं थी —
कबीर बिना और कुछ कहे वापस मुड़ा, अपनी थार की ड्राइविंग सीट पर बैठा, और एक हल्की साँस लेते हुए गाड़ी स्टार्ट कर दी।
गाड़ी ने मोड़ लिया था... लेकिन हवा की मुस्कान और हिना की वो बेखबर सी झलक — दोनों अब भी कबीर के दिल के आईने में साफ़ नज़र आ रही थीं।
चारों लड़कियाँ अपनी-अपनी क्लासेस में चली गई थीं।
हिना का फाइनल ईयर था,
कहकशां और साबिहा दोनों सेकंड ईयर में थीं,
जबकि हवा फर्स्ट ईयर में पढ़ती थी।
क्लासेस खत्म होने के बाद, उन्हें लेने के लिए राशिद चाचा आने वाले थे।
तब तक गाड़ी ठीक भी हो जानी थी।
वही कैंपस था जहाँ दो अलग-अलग ब्लॉक थे—एक Culinary Institute जहाँ सान्वी ट्रेनिंग ले रही थी, और बगल में फ्री होराइज़न कॉलेज (आर्ट्स/कॉमर्स) । दोनों ब्लॉकों के बीच फैला हरा लॉन लंच ब्रेक में मिलन-spot बन जाता था। कॉलेज में जो स्टूडेंट थे अब वहां हो फ्री होकर वहां घास पर जमा होने लगे थे
घास पर बिछी परछाइयों के बीच कृति अपनी सहेलियों के साथ बैठी थी। सान्वी उनके पास आकर बैठती है।
कृति: "आ गई महारानी! आज फिर लेट?"
सान्वी (मुस्कुराकर): "आज इंटरव्यू था न… काम मिल गया!"
पास ही बैठे हॉस्पिटैलिटी वाले बैच का लड़का राघव चौंक कर बोला—
"काम? कहाँ?"
सान्वी: "मिस्टर आर्यन राजवंश के घर। डिनर कुकिंग।"हिना भी अपनी फाइल सबमिट करने के बाद फ्री होकर लोन की तरफ आने लगती है। उसने दूर से सानवी भी को देख लिया था जो उसकी बहुत प्यारी सहेली थी।
"अच्छा… टाइम कैसे मैनेज करोगी? तुम्हें तो कॉलेज भी जाना होता है," हिना ने चिंतित होकर पूछा।
क्योंकि हिना ने उनकी बातें सुन ली थी।
सानवी ने मुस्कुराते हुए सिर हिलाया, "यही तो बात है… मुझे कॉलेज के बाद ही जाना होता है। काम सिर्फ डिनर तैयार करने का है, और ज़रूरत पड़ी तो लंच भी बनाना पड़ता है, वरना नहीं।"
"और पे?" हिना ने उत्सुकता से पूछा।
"पे बहुत अच्छी है," आसान ने नज़रें झुकाकर जवाब दिया, "मेरे रोज़मर्रा के खर्चे आसानी से निकल जाएंगे।"
"फिर तो ठीक ही है," हिना ने सहमति में सिर हिलाया।
"सबसे बड़ी बात तो ये है कि अब वैसे भी कॉलेज में छुट्टियाँ शुरू होने वाली हैं। एग्ज़ाम्स होंगे, उसके बाद काफी फ्री टाइम रहेगा। तो इन दो महीनों में मुझे कोई प्रॉब्लम नहीं होगी।"
हिना ने थोड़ी राहत की सांस ली, "तो चलो, अब तो तुमने फुल प्लानिंग कर ली है।"
आर्यन राजवंश कौन है? हम अब बात करते हैं सानवी और आर्यन राजवंश के बारे में
सूरज की हल्की किरणें काँच की बड़ी खिड़कियों से होकर "The Edge" के हॉल में फैल रही थीं। सामने समंदर का नज़ारा, किनारे से टकराती लहरों की आवाज़, और उस सन्नाटे में गूंजती ट्रेडमिल की धप-धप-धप।
आर्यन राजवंश — काले ट्रैक पैंट और ग्रे टी-शर्ट में — अपनी रनिंग पूरी कर रहा था। हर कदम घड़ी के सेकंड्स के साथ मैच करता हुआ। चेहरे पर पसीने की महीन बूंदें, लेकिन आँखों में वैसी ही सख़्त ठंडक।
अचानक उसने ट्रेडमिल रोका। उसकी नज़र दीवार पर पड़ी — एक पेंटिंग हल्की-सी टेढ़ी थी। शायद सफाई के दौरान हिल गई थी।
आर्यन धीरे-धीरे उतरा, तौलिया कंधे पर डाला, और उस पेंटिंग के पास जाकर उसे सीधा किया।
90 डिग्री। बिल्कुल परफेक्ट।
उसी वक्त उसकी उंगलियों पर हल्की धूल आई।
गहरी सांस ली... stay calm… stay calm…
लेकिन अगले ही सेकंड उसने फोन उठाया।
"देव..." उसकी आवाज़ ठंडी थी।
"जो सफाई वाला आज भेजा है, उसे दोबारा मत भेजना। उसकी उंगलियों के निशान दीवार पर रह गए हैं।"
फोन कट।
आर्यन ने एक नज़र किचन पर डाली। Salt Box हल्का सा टेढ़ा था। उसने जाकर सीधा किया।
डाइनिंग टेबल पर एक कुर्सी थोड़ी बाहर निकली थी — उसे सटीक जगह पर लगाया।
उसका OCD सिर्फ साफ-सफाई नहीं था — ये उसके दिमाग का नियम था। हर चीज़ अपने स्थान पर। कोई नियम तोड़े, तो आर्यन की दुनिया हिल जाती थी।
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गेट के बाहर
सुबह के लगभग नौ बजे।
The Edge के बड़े गेट पर एक लड़की खड़ी थी। जींस, हल्की नीली शर्ट, पैरों में स्पोर्ट्स शूज़, और बाल सलीके से बंधे हुए। चेहरे पर मासूमियत और आँखों में हल्की घबराहट।
उसने गेट की बेल बजाई।
गार्ड आया।
"जी?"
लड़की ने मुस्कुराते हुए कहा —
"मुझे कुकिंग के लिए इंटरव्यू देना है।"
गार्ड ने नाम पूछा, फिर बोला —
"अंदर जाइए। थोड़ी देर में देव सर आ जाएंगे।"
लड़की अंदर बढ़ी। उसकी नज़र चारों तरफ घूम गई।
लॉन हरा-भरा, फूलों की कतार, और एक साइड में बैठने की खूबसूरत जगह — लकड़ी की मॉडर्न चेयरें, नीले कुशन।
लॉन के सामने बड़ा हॉल — और हॉल के उस पार किचन का एक दरवाज़ा।
तभी पीछे से आवाज़ आई —
"आप ही सान्वी शर्मा हैं?"
उसने पलटकर देखा। 40 साल के आसपास का एक शख़्स खड़ा था। फॉर्मल कपड़े, चेहरे पर गंभीरता।
"जी… हाँ।"
"मैं देव सिन्हा। मिस्टर आर्यन राजवंश का असिस्टेंट। आइए, किचन दिखा दूँ।"
सान्वी उसके पीछे चली। हॉल से होते हुए वो किचन में पहुँचे।
किचन देखकर उसकी आँखें चमक उठीं।
ग्लास शेल्व्स, ऑटोमैटिक चिमनी, मॉडर्न इंडक्शन, और सब कुछ spotless।
सान्वी ने सोचा — इतनी परफेक्ट किचन मैंने कभी नहीं देखी।
देव बोला —
"आपके बारे में मुझे आपके इंस्टिट्यूट से बताया गया था।"
सान्वी मुस्कुराई —
"जी, मैं शेफ का डिप्लोमा कर रही हूँ। मुझे हर तरह का खाना बनाना आता है।"
देव ने सिर हिलाया।
"ठीक है। वैसे खाना सिर्फ एक आदमी का बनाना होगा।"
सान्वी चौंकी।
"सिर्फ एक का?"
"हाँ। मिस्टर आर्यन राजवंश का।"
सान्वी को थोड़ा अजीब लगा। इतना बड़ा घर, इतनी जगह — और सिर्फ एक आदमी!
देव ने जैसे उसके मन की बात समझ ली।
"फिक्र मत करिए। आपको अच्छा पेमेंट मिलेगा। बस काम परफेक्ट होना चाहिए।"
सान्वी ने पूछा —
"टाइम क्या रहेगा?"
"ब्रेकफास्ट की चिंता मत करना। वो खुद लेते हैं। आपका काम डिनर है। और अगर कभी लंच चाहिए, तो टाइम फिक्स कर लेंगे।"
सान्वी ने हाँ में सिर हिलाया। उसके मन में खुशी थी। यह मौका छोटा नहीं था। उसे पैसों की सख़्त ज़रूरत थी।
क्योंकि वह मिडिल क्लास फैमिली से थी। कस्बे में उसके पापा की छोटी सी दुकान थी। दो बहनों में बड़ी होने के नाते उसकी जिम्मेदारियाँ थीं। मुंबई में रहना सस्ता नहीं था।
देव ने उसकी तरफ सख़्त नज़रों से देखा और बोला —
"एक बात याद रखना। आपको सिर्फ किचन में आना है। अपना काम करके सीधा बाहर निकलना है। बाकी कमरों में बिल्कुल नहीं जाना।"
सान्वी ने सिर हिलाया —
"जी, समझ गई।"
"और हाँ, अगर आपको खुद के लिए कुछ खाना-पीना हो तो बाहर स्टाफ किचन है। इस किचन से कुछ भी नहीं।"
"ठीक है सर।"
देव ने आखिरी बार कहा —
"ध्यान रखना… मिस्टर आर्यन को साफ-सफाई बेहद पसंद है। जरा सी गड़बड़ी… और आप यहाँ नहीं रहेंगी।"
सान्वी ने गहरी सांस ली।
“कोई बात नहीं। मेहनत की आदत है मुझे।”
फिर वह बाहर निकली।
कल से उसकी नई दुनिया शुरू होने वाली थी।
सान्वी, The Edge से निकलकर सीधी सड़क की ओर बढ़ी। बाहर की हवा में थोड़ी नमी थी, लेकिन उसके मन में हल्का-सा सुकून था — कम से कम काम तो पक्का हो गया था।
अब अगले पड़ाव की बारी थी। वह तेज़ कदमों से पास के बस स्टैंड पर पहुँची।
स्टॉप पर लोग पहले से खड़े थे — कुछ ऑफिस जा रहे थे, कुछ कॉलेज।
तभी दूर से धूल उड़ाती एक बस आती दिखी।
बस धीरे-धीरे रुकी, लेकिन उसमें पहले से ही तिल भर की जगह नहीं थी।
"भरी हुई है..." किसी ने पीछे से कहा, मगर सान्वी ने एक नज़र घड़ी पर डाली —
10:02 AM
वो लेट हो रही थी।
"कोई बात नहीं," उसने खुद से कहा और हिम्मत करते हुए भीड़ में घुस गई।
लोगों के बीच से रास्ता बनाते हुए किसी तरह उसने बस में पैर रखा।
भीड़ में एक हाथ से बैग संभालती, दूसरे से हैंडल पकड़ती हुई — वो खिड़की के पास जाकर खड़ी हो गई।
मुंबई की सुबह की भीड़ में वो एक साधारण लड़की, अपने सपनों को थामे… उस भीड़ का हिस्सा बन गई थी।
--इंस्टिट्यूट — शेफ की क्लास
सान्वी के इंस्टीट्यूट की इमारत सामने थी।
बस से उतरते ही वो भागती हुई कैंपस के अंदर दाखिल हुई।
क्लास शुरू हो चुकी थी।
शांत माहौल, बच्चों के सामने रेसिपी की शीट्स और किचन स्टेशन्स तैयार।
सान्वी हड़बड़ाती हुई अंदर आई। सफेद शेफ कोट पहने, बाल जूड़े में बंधे हुए, माथे पर पसीना।
"सॉरी सर... माफ़ कीजिए... मैं लेट हो गई। बस लेट थी, और..."
उसके शब्द अधूरे रह गए।
क्लास में सन्नाटा था।
शेफ अमरेश कपूर — 50 के करीब, तेज़ नजरों वाले इंस्ट्रक्टर — उसे देखते रहे।
फिर बोले,
"सान्वी, तुम्हें पता है ये प्रैक्टिकल कितनी अहम है। बहाने से नहीं, फोकस से आगे बढ़ोगी। जाओ, अपनी जगह लो।"
सान्वी ने सिर झुकाया और अपनी स्टेशन की तरफ चली गई।
उसकी सीट पर उसका केक का सामान रखा था — मैदा, बटर, एग्स, क्रीम और बाकी चीज़ें।
“अब हम सीखेंगे — सही मात्रा में कैसे केक बनता है,”
शेफ कपूर बोल रहे थे,
"हर चीज़ की माप ज़रूरी है। रेसिपी का मतलब ही होता है बैलेंस। अगर ज़रा भी इधर-उधर हुआ, तो स्वाद बिगड़ जाएगा।"
सान्वी ने बोल तो सुना, मगर उसकी आदत थी — चीज़ें अपने तरीके से करने की।
उसने एक कटोरी उठाई और अंदाज़े से मैदा डालने लगी। फिर बटर, फिर चीनी।
शेफ की नज़र उस पर पड़ी।
"ये क्या कर रही हो, सान्वी?"
उनकी आवाज़ सख़्त थी।
सान्वी थोड़ी घबराई, लेकिन फिर मुस्कुराते हुए बोली,
"सर… मैं केक बना रही हूँ..."
"और जो तुमने मैदा डाला, बटर डाला — वो कैसे मापा?"
"अंदाज़ से।" उसने झिझकते हुए कहा।
शेफ का चेहरा सख्त हो गया।
"अंदाज़ से?"
"जी... जब आदत हो जाती है, तो हाथ खुद सही माप डाल देते हैं... जल्दी भी हो जाता है।"
शेफ कपूर ने गहरी सांस ली।
"चलो, फिर बताओ — अभी जो डाला है, उसमें मैदा कितने ग्राम था?"
सान्वी चुप रही।
वो खुद नहीं जानती थी।
"देखा?" उन्होंने कहा,
"अगर तुम्हें अंदाज़ से काम करना है, तो ये प्रोफेशन नहीं है, ये घर की रसोई है। शेफ वही बनता है जो हर सामग्री को उतनी ही इज्ज़त देता है जितनी स्वाद को।"
सान्वी ने सिर झुका लिया।
वो जानती थी — गलती उसकी थी। लेकिन मन ही मन उसने ठान लिया —
"कल से मैं अपनी हर सामग्री नापकर डालूँगी, चाहे वक्त लगे — पर सीखना है, तो पूरी तरह।"
कैंपस लॉन, लंच ब्रेक
यह वही कैंपस था जहाँ दो अलग-अलग ब्लॉक थे—एक Culinary Institute जहाँ सान्वी ट्रेनिंग ले रही थी, और बगल में फ्री होराइज़न कॉलेज (आर्ट्स/कॉमर्स) जहाँ उसकी छोटी बहन कृति पढ़ती थी। दोनों ब्लॉकों के बीच फैला हरा लॉन लंच ब्रेक में मिलन-spot बन जाता था।
दोपहर का फ़्री पीरियड था। घास पर बिछी परछाइयों के बीच कृति अपनी सहेलियों के साथ बैठी थी। सान्वी उनके पास आकर बैठती है।
कृति: "आ गई महारानी! आज फिर लेट?"
सान्वी (मुस्कुराकर): "आज इंटरव्यू था न… काम मिल गया!"
पास ही बैठे हॉस्पिटैलिटी वाले बैच का लड़का राघव चौंक कर बोला—
"काम? कहाँ?"
सान्वी: "मिस्टर आर्यन राजवंश के घर। डिनर कुकिंग।"
राघव की आँखें फैल गईं।
"तुम वहाँ काम करोगी? अरे तुम तो टिक ही नहीं पाओगी! सुना है वो किसी को पसंद नहीं करते। स्टाफ दो दिन में भाग जाता है। गुस्सा… ओह माय गॉड!"
कृति ने हँसते हुए कहा—
"राघव, मेरी दीदी किसी से नहीं डरती। काम है, करेगी। और वैसे भी… पैसे चाहिए!"
सान्वी ने कंधे उचकाए।
"देखो, डील साफ है। मैं कॉलेज के बाद जाऊँगी। उस वक्त वो ऑफिस में होंगे। मैं डिनर बनाकर रख दूँगी और वो आने से पहले निकल जाऊँगी।"
राघव ने बीच में टोका—
"पर कभी तो सामने पड़ोगी?"
सान्वी: "अगर कभी लंच चाहिए होगा तो मैसेज आएगा। वरना सीधा डिनर। सामने पड़ना जरूरी नहीं।"
लॉन की घास पर बैठे सब अब और करीब खिसक आए थे। बात घूमते-घूमते फिर उसी पर आ टिकती—आर्यन राजवंश।
कृति (भौं चढ़ाकर): “वैसे दीदी… वो तुम्हें काम से निकाल भी सकता है ना? मैंने सुना है ज़रा-सी बात पर स्टाफ बदल देता है।”
सान्वी (हँसते हुए, पर व्यंग्य के साथ): “बिल्कुल निकाल सकता है! और अगर हम आमने-सामने आए तो शायद लड़ाई भी हो जाए। सुना है ना—बहुत खड़ूस है। हर चीज़ अपनी जगह… एक इंच भी इधर-उधर नहीं। मुझे तो लगता है सब कुछ scale से नापकर रखता होगा!”
कृति ने झट से जोड़ा,
“हा! और मुझे तो लगता है कोई बूढ़ा, गुस्सैल आदमी होगा—क्योंकि बुढ़ापे में ही लोग इतने चिड़चिड़े हो जाते हैं।”
पास ही बैठा राघव यह सुनकर अंदर ही अंदर मुस्कुराया और थोड़ा चौंका भी। उसकी जानकारी के हिसाब से आर्यन राजवंश कोई बूढ़ा नहीं, बल्कि यंग बिज़नेस टायकून था—मीडिया में तस्वीरें देखी थीं उसने। वह बोलना चाहता था, पर रुक गया। शायद सही समय नहीं था।
सान्वी ने अपनी घुटनों पर कोहनी टिकाकर आगे झुकते हुए कहा:
“देख, वहाँ रोज़ मेरे लिए लिस्ट तैयार मिलेगी—क्या बनाना है, कितनी मात्रा, किस टाइम पर। उसी हिसाब से मैं खाना बना दूँगी। बस।”
अच्छा… टाइम कैसे मैनेज करोगी? तुम्हें तो कॉलेज भी जाना होता है," हिना ने चिंतित होकर पूछा।
क्योंकि हिना ने उनकी बातें सुन ली थी।
सानवी ने मुस्कुराते हुए सिर हिलाया, "यही तो बात है… मुझे कॉलेज के बाद ही जाना होता है। काम सिर्फ डिनर तैयार करने का है, और ज़रूरत पड़ी तो लंच भी बनाना पड़ता है, वरना नहीं।"
"और पे?" हिना ने उत्सुकता से पूछा।
"पे बहुत अच्छी है," आसान ने नज़रें झुकाकर जवाब दिया, "मेरे रोज़मर्रा के खर्चे आसानी से निकल जाएंगे।"
"फिर तो ठीक ही है," हिना ने सहमति में सिर हिलाया।
"सबसे बड़ी बात तो ये है कि अब वैसे भी कॉलेज में छुट्टियाँ शुरू होने वाली हैं। एग्ज़ाम्स होंगे, उसके बाद काफी फ्री टाइम रहेगा। तो इन दो महीनों में मुझे कोई प्रॉब्लम नहीं होगी।"
हिना ने थोड़ी राहत की सांस ली, "तो चलो, अब तो तुमने फुल प्लानिंग कर ली है।"
फिर उसने मज़बूत आवाज़ में जोड़ा:
“मुझे बस में धक्के खाने से परवाह नहीं। शहर है—चल जाएगा। पर अगर काम सिस्टमैटिक मिला तो ठीक, नहीं तो एक मिनट नहीं लगाऊँगी छोड़ने में।”
कृति ने तालियाँ बजाकर उसे चिढ़ाया—
“देखना, तू ही उस खड़ूस को लाइन पर ला देगी!”
तीनों हँस पड़े। पर हँसी के पीछे एक सच्चाई थी—सान्वी के लिए यह सिर्फ नौकरी नहीं, उसकी पढ़ाई, बहन की फीस और घर की ज़िम्मेदारियों का सवाल था।
घंटी फिर बजी। सब उठने लगे।
राघव जाते-जाते मुड़ा और धीरे से बोला:
“सान्वी… मज़ाक अलग, पर सच में—उनके घर की चीज़ें मत हिलाना। और… अगर कभी सामने पड़ जाएँ, तो बस ‘सॉरी, नेक्स्ट टाइम बेटर’ बोल देना। बुरे आदमी नहीं हैं—बस… अलग हैं।”
सान्वी ने सिर हिलाया।
अलग लोग ही तो कहानियाँ बनाते हैं।
प्लीज मेरी सीरीज पर कमेंट करें साथ में रेटिंग भी दे आपको मेरी सीरीज कैसी लग रही है कमेंट में बताएं मुझे फॉलो करना और भी देना यादरखें।
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काम खत्म करके जब वे सब वापस घर आईं, तो हवा बहुत खुश थी।
आज पहली बार, उसने अपनी बहन के लिए कबीर की आँखों में जो मोहब्बत देखी, वो उसके दिल को छू गई थी।
अचानक ही, जिससे अब तक हवा डरती थी —
कबीर — वही अब उसे अच्छा लगने लगा था।
उसे लग रहा था कि कबीर उसकी बहन को बहुत खुश रखेगा।
हालाँकि कबीर ने उसे साफ कह दिया था,
"किसी से कुछ मत कहना,"
मगर हवा…
हवा ही क्या जो चुप रह जाए!
घर की सबसे शरारती लड़की थी वो।
रात के खाने के बाद, दोनों बहनें लान में टहल रही थीं।
वैसे तो ये चारों बहनें अक्सर साथ टहलती थीं,
लेकिन आज सिर्फ हिना और हवा साथ थीं।
चारों के बीच बहुत प्यार था —
एक-दूसरे की आँखों से सब समझने वाला रिश्ता।
मगर आज हवा, अपनी बात हिना तक पहुँचाना चाहती थी।
"मैं तुम्हें एक बात बताऊँ?" हवा ने धीरे से कहा।
हिना ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया,
"अगर मैं ना कहूंगी, तो क्या तू चुप रह जाएगी ।बोल ना, क्या हुआ?"
हवा ने आँखें चमकाते हुए कहा,
"आज मैंने कुछ देखा है।"
हिना हँसते हुए बोली,
"मुझे तो लगता है जब से तेरा जन्म हुआ है,
तब से तू हर चीज़ ‘देखती’ ही आ रही है!"
"अच्छा, ये तो बता — तुझे पता है, आज एक्सीडेंट क्यों हुआ था?"
हवा ने थोड़ा गंभीर होकर कहा।
हिना चौंकी, "क्यों हुआ था?"
"क्योंकि… भाई ने अचानक ब्रेक मारा था।
सामने से गाड़ी आ रही थी, और उन्हें ध्यान ही नहीं रहा!"
"और क्या! फिर?"
"ये पूछो… ध्यान क्यों नहीं रहा?"
"अब वो मुझे क्यों पूछना है? मुझे उनकी कोई बात नहीं करनी!"
हिना गुस्से से बोली।
अब भी वो कबीर से निकाह की बात पर नाराज़ थी।
"प्लीज़, कम से कम कुछ पूछो तो सही," हवा ने जिद की।
"अच्छा, बताती हूँ,"
हवा ने आँखें चमकाते हुए कहा,
"वो फ्रंट मिरर से आपको देख रहे थे।
उनकी आँखों में… आपके लिए प्यार था, बहुत प्यार।
मुझे लगता है, वो आपको बहुत खुश रखेंगे…"
"हो गया तेरा? चल, अब अंदर चलते हैं!"
हिना ने झल्लाते हुए कहा।
"क्या यार! मैं तो तुमसे कुछ अहम बात कर रही हूँ,
और तुम हो कि उसे नज़रअंदाज़ कर रही हो।"
"देख हवा, मेरा दिमाग पहले ही बहुत खराब है।
मैं जानती हूँ तू मेरी टेंशन कम नहीं कर सकती,
कम से कम उसे बढ़ा मत!"
"क्या आपकी ज़िंदगी का रुख़ा-सूखा होना इतना ही ज़रूरी है?"
हवा ने तंज़ कसते हुए कहा।
"देख लेना, कबीर भाई आपको बहुत खुश रखेंगे!"
"लगता है तेरे एग्ज़ाम की टेंशन में तेरा दिमाग खराब हो गया है,"
हिना ने गुस्से में कहा और कमरे की ओर चली गई।
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हवा हाथ कमर पर रखे खड़ी थी और बोली,
"इसका कुछ नहीं हो सकता! इसे तो कबीर भाई ही ठीक करेंगे!"
उसी वक्त, उसकी नज़र ऊपर गई —
कबीर की बालकनी की तरफ।
कबीर वहीं खड़ा था,
दोनों हाथ बांधे, और उनके बीच की सारी बातें सुन रहा था।
जैसे ही हवा की नज़र उस पर पड़ी,
वो कमरे की तरफ भाग गई।
कबीर ने उसकी हरकत देख कर हल्की मुस्कान ली।
फिर खुद से बुदबुदाया,
"अजीब बात है… जिसे ये बात नहीं जाननी चाहिए थी,
वो जान गई कि मैं उसे चाहता हूँ।
मगर जिसे जाननी चाहिए थी —
उसे अब तक कोई फर्क ही नहीं पड़ा!"
कबीर की आँखों में एक ठहराव था।
उसने गहरी साँस ली और फिर कहा:
"कोई बात नहीं… एक बार निकाह होकर आने दो।
फिर देखना, मैं कैसे तुम्हें दिखाता हूँ
कि मैं तुम्हें कितना चाहता हूँ…"
थोड़ी देर बाद, हिना अपनी किताब लेकर लौन में आकर बैठ गई।
वहाँ पर काफी रोशनी थी, और वातावरण एकदम शांत।
एक चेयर पर वह खुद बैठी थी, और दूसरी पर उसने अपने पाँव टिकाए हुए थे।
लौन का यह कोना ऐसा था जहाँ कोई नौकर भी नहीं आता था।
यह हिस्सा सिर्फ चारों लड़कियों के कमरों,
हिना के अम्मी अब्बू का कमरा भी इसी तरफ खुलता था।
इसलिए, यहाँ वे चारों लड़कियाँ पूरी आज़ादी से घूमती थीं —
बिना दुपट्टे, आरामदेह कपड़ों में,
और कभी किसी अजनबी या घर के मर्द के आने का डर नहीं होता था।
वकार साहब का स्वभाव भी बहुत नरम और समझदार था।
वो कभी छोटी-छोटी बातों पर बच्चियों को डाँटते नहीं थे।
इसीलिए चारों लड़कियाँ उनके साथ बहुत कम्फर्टेबल रहती थीं।
उन्हें न दादा से डर लगता था,
और न ही किसी बंदिश का एहसास होता था।
---
ऊपर वाले हिस्से में कबीर का कमरा था,
जिसकी बालकनी सीधा लौन की तरफ खुलती थी।
उसके साथ ही अयान का कमरा था,
जिसकी बालकनी भी इसी दिशा में खुलती थी।
बाकी घर के सभी बेडरूम की बालकनियाँ दूसरी तरफ थीं।
कबीर, जो अक्सर काम में व्यस्त रहता था,
बहुत कम मौकों पर घर पर आराम करता था।
और जैसा कि हवा घर की सबसे शरारती लड़की थी,
वैसे ही अयान घर का सबसे शरारती और प्यारा लड़का था।
वो बिल्कुल अपने चाचा वकार पर गया था।
अयान भी कभी घर की औरतों से ऊँची आवाज़ में बात नहीं करता था,
बल्कि सबका चहेता था।
हाँ, एक बात जरूर थी —
हवा और अयान की आपस में बिल्कुल नहीं बनती थी।
---
घर के बड़े-बुज़ुर्गों के सामने तो वो दोनों बहुत शरीफ बनकर रहते थे,
मगर जैसे ही अकेले होते, उनकी लड़ाई शुरू हो जाती।
शायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो
जब वे आपस में ना झगड़ते हों।
मज़े की बात ये थी कि इस 'छुपी दुश्मनी' के बारे में
सिर्फ चारों लड़कियाँ और हवा के अम्मी-अब्बू जानते थे।
बाकी घर के सदस्य उन्हें एकदम सुलझा हुआ और सभ्य मानते थे।
सच्चाई ये थी — जहाँ हवा जाती, अयान वहाँ कोई न कोई बहाना बना कर आ जाता।
और जहाँ अयान होता, हवा उससे चिढ़ने का कोई मौक़ा नहीं छोड़तं।
हर कोई अपने-अपने कमरों में जा चुका था।
मगर हिना की आँखों में नींद नहीं थी... बस किताबें थीं।
वो अपनी किताबें लेकर आहिस्ता से लौन में चली आई।
लौन के उस कोने में जहाँ एक पीली सी वॉर्म लाइट जल रही थी —
न ज़्यादा तेज़, न बहुत हल्की।
बस इतनी कि किताब पढ़ी जा सके
लौन उस वक़्त बहुत शांत था।
ठंडी हवा पेड़ों की पत्तियों से खेल रही थी,
चाँदनी कहीं छुपती और कहीं उभरती,
और उस सबके बीच हिना एक चेयर पर बैठी,
पैर दूसरी चेयर पर टिकाए,
अपनी किताब में डूबी हुई थी।
वैसे तो अप्रैल का महीने में गर्मी शुरू हो जाती है मगर दिन को बारिश की वजह से रात को हल्की-हल्की ठंड होने लगी इसीलिए उसने ऊपर एक हल्की शॉल ले रखी थी,
बाल खुले थे, और माथे पर कुछ लटें बिखरी थीं
जिन्हें वो बार-बार किताब से न हटते हुए
हौले से कान के पीछे कर देती।
---
उसे नहीं पता था कि ऊपर से कोई उसे देख रहा है।
कबीर, अपनी बालकनी में खड़ा था —
एक बार फिर, चुपचाप।
वो कोई आवाज़ नहीं करता,
बस देखता था।
और हर बार की तरह,
आज भी उसकी नज़रें सिर्फ हिना पर टिकी थीं।
"रात की इस तन्हाई में सिर्फ एक चीज़ जिंदा लग रही है — ये लड़की,"
उसने मन ही मन कहा।
"कैसे कोई इतना सादा होकर इतना खूबसूरत हो सकता है?"
हिना पढ़ रही थी, मगर उसे पढ़ना
कबीर के लिए खुद को समझने जैसा था।
वो जब पन्ना पलटती,
कबीर को लगता कोई अहसास उसकी छाती पर दस्तक दे रहा है।
वो जब पल भर के लिए कुछ सोचती और नज़रें उठाकर सामने देखती,
कबीर का दिल धक-से रह जाता।
कबीर की नज़रें उससे नहीं हटती थीं — और हिना को इसका बिल्कुल एहसास नहीं था।
---
"चाँद के साए में, इश्क़ की ख़ामोशियाँ"
रात गहराती जा रही थी।
अब लौन में सिर्फ हिना थी —
और ऊपर बालकनी में, बस कबीर।
कभी-कभी हवा उसके पन्नों को हिला देती,
कभी उसकी शॉल उड़ जाती,
और कबीर अपने होंठों पर हल्की मुस्कान के साथ
उसकी हर हरकत को वैसे देखता जैसे कोई इबादत को देखता है।
"काश... ये मेरी किताब होती।
जिसे वो यूँ पलटती, छूती, गहराई से पढ़ती।
काश, उसे पता होता…
कि एक शख़्स उसे देखता है जैसे ज़िन्दगी की आख़िरी उम्मीद को देखा जाता है।"
---
"कुछ अहसास शब्दों के मोहताज नहीं होते"
हिना पढ़ती रही…
समझती रही…
और धीरे-धीरे उसने किताब बंद की।
अपने चारों तरफ देखा,
और एक गहरी साँस ली।
शायद अब वह उठने वाली थी,
मगर जाने से पहले उसने आसमान की तरफ देखा।
चाँद को, तारों को।
वहीं खड़ा कबीर भी आसमान की तरफ देखने लगा…
मगर उसकी नज़र चाँद पर नहीं,
हिना के चेहरे पर थी।
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🌅 सीन: सुबह का फ्लैट
सुबह-सुबह अलार्म चिल्लाया।
सान्वी ने आँखें मींचकर फोन उठाया, अलार्म ऑफ किया… फिर खुद से बोली,
“चलो शांति—उठना ही होगा।”
(“शांति” उसका खुद से बात करने का छोटा-सा मज़ाकिया तरीका था; जब खुद को समझाना हो, तो नाम बदल लेती।)
वह बिस्तर से उठी, जल्दी-जल्दी दाँत ब्रश किए, और किचन में आकर ब्रेकफ़ास्ट की तैयारी में लग गई। आज उसने अंडे, थोड़ा सब्ज़ियों वाला पोहा और चाय बनाने का सोचा था—क्योंकि उसकी सुबह अच्छा नाश्ता बना लेने से ही सेट होती थी।
गैस पर कड़ाही चढ़ते ही खुशबू फैलने लगी। तभी पीछे से नींद भरी आवाज़:
“इतनी अच्छी खुशबू… तुम्हारे रहते मुझे कभी खाना बनाना नहीं पड़ता। कितनी लकी हूँ मैं!”
यह रिया थी—बाल उलझे हुए, टी-शर्ट में, और बिना झिझक किचन स्लैब पर चढ़कर बैठ गई।
---
उनका घर
तीनों लड़कियों ने एक छोटी-सी पुरानी बिल्डिंग में किराए पर फ्लैट लिया था—
दो छोटे बेडरूम,
एक मिनी किचन,
एक कॉम्पैक्ट लिविंग एरिया जिसमें एक पुराना सोफ़ा और फोल्डिंग टेबल।
जगह कम थी, पर साथ रहने के फायदे बड़े थे—रेंट बँटता था, अकेलापन नहीं लगता था, और मुश्किल दिनों में एक-दूसरे का साथ मिलता था।
---
कृति भी नींद से घिसटते हुए किचन में पहुँची। उसने रिया को स्लैब पर बैठे देखा और हँसकर कहा:
“तुम बहुत नाशुक्रेपन से बोलती हो! दीदी तुम्हारे लिए इतना करती है।”
रिया ने तुरंत पलटवार किया:
“अरे मिस कृति मैडम, तुम्हारी दीदी हम सब के लिए करती है—थोड़ा शुक्रिया सीखो!”
कृति ने होंठ सिकोड़ते हुए कहा:
“अभी तक किया ही क्या है मैंने? मैं तो अभी पढ़ रही हूँ…”
सान्वी ने दोनों को रोकते हुए स्पैटुला हवा में उठा दिया:
“प्लीज़, सुबह-सुबह युद्ध मत छेड़ो। पहले नाश्ता करो—फिर लड़ लेना।”
---
रिया ने प्लेटें निकालते हुए कहा:
“वैसे आज तुम्हें काम पर भी जाना है, याद है? मिस्टर राजवंश का घर!”
रिया ने फैशन और ड्रेस डिज़ाइन का कोर्स किया था और पार्ट-टाइम बुटीक पर काम कर रही थी। पैसों की जरूरत ज्यादा थी इसलिए सानवी और रिया दोनों वेट्रेस का काम भी कर लेती थी। उसके पीछे परिवार नहीं था; इसलिए सान्वी और रिया के बीच गहरा अपनापन था।
---
रिया ने प्लेटें रखते हुए आधी मुस्कान में कहा:
“अच्छा हुआ काम मिल गया। वरना ये मकान मालिक तो रोज़ की तरह किराए की रट लगाने पहुँच जाता… 'मैडम, डेट मिस मत करना!'”
तीनों हँस पड़ीं, लेकिन बात सच थी—रेंट महीने की पहली तारीख़ को चाहिए, और देर पर पेनल्टी।
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कृति ने चाय के कप टेबल पर रखे और अचानक गंभीर होकर बोली:
“दीदी, हम कोई ऐसा काम क्यों नहीं करते जिसमें ज़्यादा पैसे मिलें? मुझे ये हाथ-तंग वाली ज़िंदगी बिल्कुल पसंद नहीं।”
सान्वी ने उसकी ओर देखा, फिर धीरे से कहा:
“कृति, पैसे मेहनत से आते हैं। शॉर्टकट लेकर कुछ दिन जी लेंगे, लेकिन टिकेगा नहीं। अभी पढ़ाई करो। कमाई मैं कर लूँगी।”
रिया ने सिर हिलाकर समर्थन दिया:
“हाँ, और अब दीदी को नया कुकिंग जॉब मिल गया है। बस ध्यान से करना—वो आदमी साफ़-सुथरे काम का पक्का है।”
सान्वी ने गहरी साँस ली। उसे देव सिन्हा की चेतावनी याद आई: “गड़बड़ की तो… नौकरी गई।”
लेकिन उसने मुस्कुराकर कहा:
“देखना, संभाल लूँगी। सुबह इंस्टिट्यूट, फिर शाम को वहाँ—सब मैनेज होगा। अभी खाओ, नहीं तो ठंडा हो जाएगा।”
---
कृति ने अपनी प्लेट उठाई और धीरे से कहा:
“सॉरी… मैं बस थक गई हूँ इस खिंच-तनाव से।”
सान्वी ने उसका कंधा छुआ।
“थकना मत। हम साथ हैं न। आज से कुछ बदलेगा।”
रिया ने मज़ाक में चम्मच उठाकर सलामी दी:
“जय हिंद! मिशन मुंबइया सर्वाइवल—ऑन!”
तीनों हँस पड़ीं। नाश्ता शुरू हुआ। एक दिन और जीतना था।
🌆 सीन: कॉलेज के बाद, पहली शिफ़्ट — The Edge (आर्यन राजवंश का घर)
क्लास खत्म होते ही सान्वी ने अपना बैग उठाया और सीधे ऑटो पकड़ा। आज उसका पहला दिन था—आर्यन राजवंश के लिए खाना बनाने का। रास्ते भर उसे देव सिन्हा की चेतावनियाँ याद आती रहीं: “गलत जगह कुछ रखा तो काम गया।”
गेट पर सिक्योरिटी ने उसे पहचान लिया। अंदर लॉन पार करते हुए वह किचन के दरवाज़े तक पहुँची, जहाँ देव पहले से इंतज़ार कर रहा था—फाइल और डिजिटल टैबलेट हाथ में।
---
📄 लिस्ट
देव ने उसे एक टैबलेट थमाया।
“आपको आज सिर्फ वही बनाना है जो इस लिस्ट में लिखा है। कुछ जोड़ना-घटाना नहीं।"
सान्वी ने सिर हिलाया।
“ठीक है, सर।”
वह बोलकर लौटने ही वाला था, फिर रुका।
"चलते-चलते एक बार फिर समझा दूँ—जब तक आप राजवंश साहब की लिस्ट और उनके रूल्स पर अमल करती रहेंगी, आपको कोई प्रॉब्लम नहीं होगी।"
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देव ने सांस लेकर कहा:
“पिछले एक साल में यहाँ कई कुक आए। सबसे लंबा… शायद एक महीना रहा। कुछ तो अगली सुबह ही चले गए।”
सान्वी हल्की मुस्कान के साथ बोली:
“चिंता मत कीजिए, मैं काम नहीं छोड़ूँगी। मैं समझदार लड़की हूँ।”
देव ने उसे सीधे देखा।
“आप गलत समझ रही हैं। उन्होंने काम छोड़ा नहीं था… निकाल दिए गए थे।”
सान्वी की मुस्कान अटक गई। उसने पहली बार इस नौकरी की असली सख़्ती महसूस की।
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देव (धीरे, पर साफ़):
“इस घर की किसी भी चीज़ को हिलाना नहीं।”
“आपका रिश्ता सिर्फ किचन से है।”
“जहाँ से आती हैं, वहीं से जाएँ।”
“घर के बाकी कमरों में जाना मना है।”
“हर चीज़ वापस उसी निशान पर—एक दाना भी उड़कर इधर-उधर नहीं होना चाहिए।”
सान्वी: “जी, समझ गई।”
देव ने हल्का सिर झुकाकर कहा:
“मूबारक हो। आपका पहला दिन है।”
सान्वी: “थैंक यू, सर।”
वह मुड़ गया, फिर दोबारा रुका।
“और सुनिए… जितना कम इंटरैक्शन, उतना अच्छा। मिस्टर राजवंश प्राइवेसी को लेकर बहुत स्ट्रिक्ट हैं। अपने काम से काम रखें।”
सान्वी: “जैसा आपने कहा, वैसा ही करूँगी।”
देव ने संतोष में सिर हिलाया:
---
🍲 सान्वी अकेली किचन में
दरवाज़ा बंद।
किचन शांत।
सामने स्टेनलेस स्टील का काउंटर, प्रीसाइज़ लेबल्ड जार, डिजिटल वज़न मशीन, इमर्सन ओवन, वैक्यूम-सील बैग्स, और काउंटर पर रखा Prep Kit जिसमें आज के मेन्यू के लिए मापे हुए इंग्रीडिएंट पैकेट्स थे।
स्क्रीन पर मेन्यू झिलमिलाया:
आज का डिनर – आर्यन राजवंश
1. Zucchini & Bell Pepper Clear Soup (Low sodium)
2. Grilled Lemon-Herb Fish / Alternate: Paneer Steak (यदि नॉन-वेज mood cancel हो)
3. Quinoa Kale Bowl (Olive oil drizzle – 5ml max)
4. Baked Sweet Potato Coin (No added sugar)
नीचे नोट: “All plating chilled white crockery set #3. Fork 2 cm from plate edge. Napkin fold: Tri-lock.”
सान्वी ने अनायास हँसी रोक ली।
“सही सुना था—स्केल से नापते हैं ये लोग।”
उसने हाथ धोए, एप्रन बाँधा, डिजिटल स्केल ऑन किया… और पहली बार माप देखकर मिक्सिंग शुरू की—आज उसे अपने शेफ इंस्टीट्यूट वाली बात याद थी: अंदाज़ नहीं, सटीकता।
---
स्टोव पर सूप बेस धीमी आँच पर चढ़ा।
फ्रिज में मैरीनेटेड फिश रखी।
काउंटर पर वापस रखे हर जार का मुँह ठीक से बंद… लेबल सामने… कोनों संरेखित।
वह पीछे हटकर देखने लगी—किचन वैसा ही था जैसा उसने पाया था, बस अब उसमें उसके हाथ की खुशबू थी।
दूर से लॉन पर आती हल्की हवा काँच से टकराई।
आज पहली बार इस घर ने उसके कदमों की आवाज़ सुनी थी।
---
🎧
सान्वी ने वॉशरूम के शीशे में अपना चेहरा देखा। बालों को कसकर ऊँचे पोनी में बाँधा—किचन में झूलते बाल उसे सहन नहीं। फिर अपना साफ़ एप्रन पहना, फ्रंट पॉकेट में मोबाइल सरकाया और धीमी आवाज़ में अपना पसंदीदा प्लेलिस्ट ऑन कर लिया।
“मूड सेट. चलो, शुरू करें।”
किचन की ठंडी रोशनी में स्टील काउंटर चमक रहे थे। देव सर की दी हुई मेन्यू-लिस्ट टैबलेट पर खुली थी। उसने एक-एक आइटम चेक किया—
वेज/नॉन-वेज ऑप्शन
सूप का लो-सोडियम बेस
क्विनोआ का सही वॉटर रेशियो
स्विट पोटैटो को ओवन में जाने से पहले हल्का जैतून तेल ब्रश
सान्वी जब खाना बनाती थी, तो दुनिया से कट जाती थी। म्यूज़िक की हल्की धुन, सब्ज़ियों की कटाई की टक-टक, सूप की भाप, मसालों की खुशबू—ये सब उसकी अपनी लय थी। काम उसके लिए नौकरी नहीं, जुनून था। फैशन किसी और का पैशन हो सकता था; उसका फैशन फ्लेवर्स थे।
वह कभी-कभी खुद से बात कर रही थी:
“सही माप… सही आँच… देव सर का नियम नंबर एक: ‘कुछ इधर-उधर नहीं।’ चलो जी, देखते हैं कितने दिन टिकते हैं हम!”
---
उसने ज़ूकिनी को पतले स्लाइस में काटा, एकदम बराबर—ताकि उबाल बराबर हो।
क्विनोआ धुलते हुए टाइमर लगाया: exact 15 minutes soak.
मछली मैरीनेट करते हुए उसने टहनी उठाई—“नहीं, पाँच मिली से ज़्यादा ऑलिव ऑयल नहीं!” (टैबलेट पर नोट था।)
प्लेटिंग के लिए सफ़ेद सर्विंग सेट #3 चुना; बर्तनों को पहले से लाइनअप किया—हैंडल्स एक सीध में, लैंथ मार्कर स्ट्रिप के साथ।
हर स्टेप के बाद वह झुककर काउंटर पोंछती—कहीं कोई दाग न रह जाए। उसे देव की बात याद थी: “एक दाना भी इधर-उधर नहीं होना चाहिए।”
मगर फिर भी ऐसा सामान था जो सानवी काउंटर पर ही छोड़ गई—एक स्लिम बोतल एक्स्ट्रा वर्जिन ओलिव ऑयल की, ट्रफल-इन्फ़्यूज़्ड विनेगर, ऑर्गैनिक हनी का जार और आर्टिजन आल्मंड बटर। वो कहती थी, "जो रोज़ काम आता है, उसे हाथ की पहुँच में होना चाहये
---सान्वी ने गहरी साँस ली।
“मिशन फ़र्स्ट डे—डन।”
नोट – आज का डिनर
सान्वी की ओर से
1. सूप – ज़ुकिनी और शिमला मिर्च
• कंटेनर: काँच का जार, फ्रिज की ऊपर वाली शेल्फ पर।
• गरम करने का तरीका:
गैस पर: पतीले में डालें, हल्की आंच पर 2–3 मिनट तक गरम करें। उबालें नहीं।
माइक्रोवेव में: ढक्कन आधा खोलकर, 40 सेकंड मीडियम। हिलाएँ, फिर 20 सेकंड और।
• स्वाद के लिए नमक और काली मिर्च का छोटा पैकेट साथ रखा है, चाहें तो डाल लें।
2. मुख्य डिश – नींबू और हर्ब से ग्रिल्ड फिश
• ट्रे: फॉयल में लिपटी हुई, फ्रिज की बीच वाली शेल्फ पर।
• गरम करने का तरीका:
ओवन में: 160° पर 5 मिनट गरम करें। आखिरी 1 मिनट फॉयल हटाकर रखें।
तवे पर: नॉन-स्टिक तवे पर थोड़ा सा रस डालकर दोनों तरफ 2-2 मिनट हल्की आंच पर गरम करें।
• साथ में नींबू का टुकड़ा छोटा डिब्बा डोर रैक में रखा है।
(अगर नॉन-वेज नहीं खाना है)
• पनीर स्टेक – ट्रे में रखा है। फिश की तरह ही गरम करें।
3. किनोआ और हरी पत्तियों का सलाद
• कंटेनर: पारदर्शी डिब्बा, हरा क्लिप।
• गरम करने का तरीका:
माइक्रोवेव: 40 सेकंड।
या काँच की कटोरी में भाप पर 1 मिनट रखें।
• परोसते समय ऊपर से ऑलिव ऑयल की शीशी (छोटी) डाल दें।
4. शकरकंद के बेक्ड स्लाइस
• कंटेनर: सफेद डिब्बा, नीला निशान।
• गरम करने का तरीका:
एयर फ्रायर में: 180° पर 3 मिनट।
या ओवन में: 4–5 मिनट 180° पर।
• चाहें तो स्मोक्ड पपरिका का पैकेट ऊपर से छिड़कें (साथ रखा है)।
अगर स्वाद, नमक या किसी चीज़ में बदलाव चाहिए तो देव सर को बता दें। अगली बार उसी हिसाब से करूँगी।
धन्यवाद,
सान्वी
खाना बनाने के बाद सानवी को वापस जाना था। किचन का एक दरवाज़ा सीधे लॉन में खुलता था, और वहीं से बाहर निकलना सबसे आसान था।
लेकिन… उसके मन में एक ख्याल आया—
इतना खूबसूरत घर… थोड़ा तो देखना चाहिए।
उसने हल्के कदमों से इधर-उधर देखा। पूरे घर में सन्नाटा था। वैसे भी जो लोग यहाँ रहते थे—स्टाफ, सिक्योरिटी—उनके लिए बाहर क्वार्टर्स बने हुए थे। और फरीद के मुताबिक़, इस घर का मालिक अपने प्राइवेट स्पेस में किसी का दख़ल बिल्कुल पसंद नहीं करता था।
फिर भी, जहाँ कोई नहीं था, सानवी धीरे-धीरे लॉबी की तरफ बढ़ गई।
लॉबी में कदम रखते ही उसने एक झलक में कई चीज़ें नोटिस कीं—लकड़ी के पैनल, ऊँची छत पर झूमर, और एक बड़ी-सी तस्वीर, ठीक सामने की दीवार पर टंगी हुई।
वह तस्वीर देखते ही उसके क़दम ठिठक गए।
करीब जाकर उसने गौर से देखा—यह तस्वीर लगभग सत्तर साल पुराने अंदाज़ की लग रही थी। एक शाही व्यक्तित्व वाला आदमी, सफ़ेद दाढ़ी-मूँछ, आँखों में गहरी सख़्ती।
वो फुसफुसाई,
"अच्छा… तो आप हैं आर्यन राजवंश।"
उसे लगा शायद यह आर्यन की तस्वीर है। एक पल के लिए उसने सोचा—
इतना रॉयल लुक… लगता है ये ख़ानदान कहानियों से कम नहीं।
खाना बनाकर सानवी राजवंश हाउस से निकल आई। सानवी अभी घर पहुंची ही थी उसके फोन पर "माँ" फ्लैश हुआ। उसने जल्दी से कॉल उठाई।
माँ: "सानवी… मैंने सुना तुमने कोई जॉब शुरू की है? कहाँ हो तुम? सब ठीक है न?"
सानवी ने साँस काबू में की।
सानवी: "अरे नहीं मम्मी, टेंशन मत लीजिए। एक छोटे से रेस्टोरेंट में काम मिला है। बहुत अच्छे लोग हैं वहाँ। मैं सुरक्षित हूँ।"
माँ की आवाज़ थोड़ा ढीली पड़ी।
माँ: "अच्छा… लेकिन कृति मेरा फोन क्यों नहीं उठा रही?"
सानवी: "सुना नहीं होगा, मम्मी। अभी बहुत पढ़ रही है। अगले हफ़्ते एग्ज़ाम हैं—दिन-रात पढ़ाई चल रही है। वो आपको बाद में कॉल कर लेगी।"
माँ: "ठीक है… पापा को कब कॉल करोगी?"
सानवी: "आप मेरा नमस्ते कहना। मैं शाम को फिर बात करूँगी।"
कॉल कटते ही सानवी ने राहत की लंबी साँस ली।
पास बैठी कृति खिलखिलाई:
कृति: "क्या बात है दीदी! कितने आराम से झूठ बोल लेती हो!"
सानवी मुस्कुरा भी नहीं पाई।
सानवी: "क्या करूँ? उन्हें सच बताऊँ कि मैं किसी के घर खाना बनाती हूँ? उन्हें लगेगा मैं मेड बन गई। उन्हें अच्छा नहीं लगेगा। और तुम्हारे बारे में भी झूठ बोलना पड़ा—अब जाकर पढ़ाई करो!"
पास बैठी रिया दोनों को देख मुस्कुरा रही थी।
कृति उठकर छोटी-सी लॉबी से कमरे की ओर गई। जाते-जाते सानवी ने पुकारा:
"मम्मी को फोन ज़रूर कर लेना!"
कृति ने बिना मुड़े हाथ हिलाया। घर में कुछ पल के लिए हल्की हँसी और चिंता साथ-साथ तैर गए।
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रात गहरा चुकी थी। राजवंश हाउस के विशाल गेट पर सिक्योरिटी लाइट्स जल उठीं, क्योंकि ड्राइववे से काली Rolls-Royce अंदर घुस रही थी—आर्यन राजवंश की सिग्नेचर कार।
गार्ड ने सलामी दी और इंटरकॉम पर कहा:
"सर आ गए—गैरेज ओपन।"
इलेक्ट्रॉनिक दरवाज़े उठे। अंदर लंबी पंक्ति में ग्यारह गाड़ियों का निजी कलेक्शन दमक रहा था—कवर में स्पोर्ट्स कार, पर्ल-व्हाइट SUV, विंटेज क्लासिक… सब कुछ करीने से, नंबर वाली बे में।
आर्यन ने गाड़ी को उसकी निर्धारित जगह (Bay-01) पर धीरे-धीरे रिवर्स किया। इंजन ऑफ़। दरवाज़ा बंद। फिर—उसका रूटीन:
लॉक बीप सुना या नहीं?
टायर लाइन मार्क पर हैं?
फ्रंट ग्रिल पर पानी की बूंद तो नहीं?
छोटी से छोटी बात में भी उसे परफ़ेक्शन चाहिए था। उसकी आँखें तेज़ थीं—जैसे थोड़ी-सी ग़लत एंगल भी उसे सोने न दे।
सब कुछ ठीक पाकर उसने हल्के से सिर हिलाया और गैरेज से बाहर निकल आया। उसके कदमों में वही नियंत्रित शाही ठहराव था—जो लोग देखते हैं, याद रखते हैं।
आर्यन घर के अंदर आया। सबसे पहले अपने कमरे में गया, शॉवर लेकर फ्रेश हुआ और नए कपड़े पहनकर बाहर निकला। हल्की ठंडक लिए मार्बल फ्लोर पर उसके कदमों की आवाज़ गूँज रही थी।
वह सीधे किचन की ओर बढ़ा—कुछ पीने का मन था। लेकिन जैसे ही किचन में दाख़िल हुआ, उसकी भौंहें सिकुड़ गईं।
---मगर फिर भी ऐसा सामान था जो सानवी काउंटर पर ही छोड़ गई—एक स्लिम बोतल एक्स्ट्रा वर्जिन ओलिव ऑयल की, ट्रफल-इन्फ़्यूज़्ड विनेगर, ऑर्गैनिक हनी का जार और आर्टिजन आल्मंड बटर। वो कहती थी, "जो रोज़ काम आता है, उसे हाथ की पहुँच में होना चाहये
उसकी नज़र अचानक ओवन के ऊपर गई। वहाँ एक छोटा-सा कागज़ चिपका था, जिस पर सलीके से लिखा था:
"क्या गर्म करना है और कितने मिनट तक गर्म करना है।"
सानवी की लिखावट साफ-सुथरी थी, लेकिन आर्यन का गुस्सा अब आसमान छू चुका था। उसने तुरंत मोबाइल निकाला और देव का नंबर डायल किया।
आर्यन (सख़्त आवाज़ में):
"घर के लिए नया कुक ढूंढो।"
देव, जो उसके नेचर से भली-भांति वाक़िफ़ था, सिर्फ़ बोला:
"ठीक है सर।"
बहस का तो सवाल ही नहीं था।
फोन कटते ही आर्यन ने गहरी साँस ली। वह बस कॉफ़ी बनाने वाला था—क्योंकि डिनर में अभी वक़्त था। लेकिन तभी किचन में से आती खाने की खुशबू ने उसका इरादा तोड़ दिया।
मन न होते हुए भी उसने फ्रिज से खाना निकाला, माइक्रोवेव में डाला और प्लेट में सजाया। फिर वह किचन के डाइनिंग टेबल पर बैठ गया।
पहला कौर लेते ही उसका चेहरा बदल गया।
"अमेज़िंग..."
शब्द उसके होंठों से अनचाहे निकल गए।
स्वाद लाजवाब था—इतना कि उसने धीरे-धीरे पूरा खाना ख़त्म कर दिया। खाली प्लेट देखते हुए उसकी आँखों में एक हल्की-सी सोच चमकी—
"जिसने भी बनाया है… कमाल कर दिया।"
सुबह आर्यन अपने ऑफिस पहुँचा। हमेशा की तरह सब कुछ व्यवस्थित—कांच की दीवार, लंबी मेज, दो स्क्रीन, और सटीक समय पर मीटिंग्स।
देव भी वहाँ था। वह आधिकारिक तौर पर "फुल-टाइम पर्सनल स्टाफ" तो नहीं था, लेकिन practically आर्यन की आधी जिंदगी वही संभालता था—शेड्यूल, घर, कार डिटेल, किचन स्टाफ तक।
दोपहर की मीटिंग खत्म होते ही आर्यन ने फाइल बंद की और कहा:
उस नई कुक को को निकाल दिया क्या।
"नहीं,आज दोपहर के बाद घर जाऊंगा। उस कुक को एक दिन की तनख्वाह देकर मना कर दूंगा।"
"नहीं ,उसे मत निकलना खाना अच्छा बनाती है। मगर हां उसे समझा देना
हाँ, और किचन यूँही बिखरा छोड़ गई। मुझे नोट लिखकर चिपका गई—कितना क्या गर्म करना है। मुझे घर में किसी का ‘ख़त’ नहीं चाहिए। कोई स्लिप नहीं। बस खाना बनाओ और जाओ।"
आर्यन ने कुर्सी से पीछे झुकते हुए साँस छोड़ी।
"किचन साफ़ रखे तो रहे। मुझे निर्देशों की ज़रूरत नहीं।"
देव ने सिर हिलाया।
"ठीक है। मैं कह दूँगा।
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सुबह लड़कियों को कॉलेज नहीं जाना था। जब तक एग्ज़ाम शुरू नहीं होते, उन्हें घर पर ही रहकर पढ़ाई करनी थी। इसलिए उन्होंने सोचा था कि आज थोड़ा देर से उठेंगी। मगर हवेली के नियम इतने ढीले नहीं थे कि कोई भी मर्ज़ी से उठे और अपनी सहूलियत से नीचे आए।
हवेली का एक सख़्त निज़ाम था — चाहे लड़कियाँ कॉलेज जाएं या न जाएं, उन्हें नहा-धोकर, पूरी तरह तैयार होकर ही डाइनिंग टेबल पर पहुँचना होता था। नाइट सूट में बाहर आना बिल्कुल भी स्वीकार नहीं था। भले ही वे दिनभर अपने कमरों में आराम करें, लेकिन नाश्ते के वक़्त सबका एकसाथ हाज़िर होना बेहद ज़रूरी था।
घर के लड़के — चाहे कबीर हों, तैमूर हो — उन्हें यह छूट थी कि वे बिना नहाए, नाइट सूट में ही पूरे घर में घूम सकते थे। लेकिन लड़कियाँ नाश्ते से पहले तैयार होकर ही अपने कमरे से बाहर आती थीं। खाना खाकर ही वे रिलैक्सिंग कपड़ों में वापस बदलतीं, जब यकीन हो जाता कि उन्हें बाहर नहीं जाना है।
घर की औरतें — तीनों भाभियाँ, सलीमा भाभी (कबीर की अम्मी), शगुफ़्ता भाभी (हिना की अम्मी), और रिहाना भाभी (तैमूर की अम्मी) — सुबह-सुबह डाइनिंग टेबल पर नाश्ता सजा रही थीं।
मुस्लिम घराने का पारंपरिक नाश्ता तैयार किया जा रहा था: हलकी सी तले हुए पराठे, खमीरी रोटियाँ, पनीर की भुर्जी, उबले अंडे, बेसन का हलवा, और साथ में दारचिनी वाली चाय। साथ ही, मेज़ पर खजूर और बिस्किट भी रखे गए थे। चाय के साथ ज़ाफ़रानी दूध और शीरमाल भी रखे गए थे।
इस सुबह की बात कुछ और ही थी। घर में एक खास मेहमान मौजूद थीं — फरीदा बानो, दादा जान और दादी जान की इकलौती बेटी, और तीनों भाइयों की बहन।
फरीदा बानो मिर्जा अहमद, वकार मिर्जा और सईद मिर्जा की बहन थी।
उम्र में वह मिर्जा अहमद से छोटी थीं, लेकिन वकार और सईद दोनों से बड़ी थीं।
उनके साथ उनके पति भी आए थे — रईस हुसैन। वह एक सुलझे हुए, शांत स्वभाव के और धार्मिक रुझान रखने वाले व्यक्ति थे, जिन्हें पूरे खानदान में इज़्ज़त और मोहब्बत से देखा जाता था।
डाइनिंग टेबल पर सभी इकट्ठा हो चुके थे — दादा जान, दादी जान, मिर्जा साहब, तीनों बहुएँ, कुछ लड़कियाँ और लड़के। फरीदा बानो को देखकर दादी जान की आँखों में चमक थी, और दादा जान का चेहरा भी बेहद सुकून से भरा हुआ था। उनकी बेटी उनके सामने बैठी थी।
दादी जान ने प्यार से उसका हाथ थामा और पूछा,
"कैसी हो मेरी बच्ची?"
फरीदा बानो ने मुस्कुरा कर जवाब दिया,
"अम्मी, जैसे आपके पास आ जाती हूँ, सब कुछ अच्छा लगने लगता है।"
थोड़ी देर सबने साथ में नाश्ता किया। घर की रौनक मानो दोगुनी हो गई थी। चाय के कप के साथ हल्की बातचीत चल रही थी। इतने में फरीदा बानो ने अपना कप नीचे रखा और बोलीं:
"आज मैं आप सबसे कुछ माँगने आई हूँ…"
उनकी बात सुनकर पूरा घर शांत हो गया। सबकी नज़रें उनकी तरफ़ उठीं — दादा जान ने भौंहें थोड़ी चढ़ाईं, और मिर्जा साहब ने हैरानी से पूछा,
"क्या बात है, फरीदा?"
फरीदा बानो कुछ पल चुप रहीं। उनकी आँखों में संजीदगी थी, आवाज़ में मोहब्बत और विनम्रता।
फरीदा बानो, मिर्जा साहब की इकलौती बेटी थी, इसी शहर में रहती थीं। उनका ससुराल एक पढ़ा-लिखा और संभ्रांत खानदान था। उनके शौहर राहीस हुसैन एक बहुत ही समझदार और शिक्षित व्यक्ति थे, जिनका अपना बड़ा और सफल कारोबार था। वह व्यापार के साथ-साथ समाजिक दृष्टिकोण से भी काफी खुले विचारों वाले इंसान माने जाते थे।
हुसैन साहब का घर का माहौल, मिर्जा साहब के घर की तुलना में थोड़ा ज़्यादा खुला और आधुनिक था। दोनों घरों की परवरिश और माहौल में अंतर तो था, मगर रिश्ता अब भी वैसा ही मजबूत था जैसा एक भाई-बहन के परिवारों में होता है।
फरीदा और हुसैन के दो बच्चे थे —
बेटा: अरहान हुसैन रिज़वी
बेटी: मेहरूनिसा रिज़वी
अरहान ने बिज़नेस मैनेजमेंट की पढ़ाई की थी और अब अपने पिता के साथ कारोबार में हाथ बँटा रहा था। मेहरूनिसा भी कॉलेज में पढ़ रही थ।
आज फरीदा बानो मिर्जा हाउस आई थीं — एक खास मक़सद के साथ। वह चाहती थीं कि उनका बेटा अरहान, मिर्जा साहब की किसी पोती से निकाह करे, और उनकी बेटी मेहरूनिसा के लिए भी वह इसी खानदान से रिश्ता तय करना चाहती थीं।
सच कहें तो यह बात दादी जान से पहले ही हो चुकी थी।
इस घर में जो दादी जान कह देती थीं, वही आख़िरी फ़ैसला माना जाता था।
फरीदा का स्वभाव थोड़ा तेज़ और मुखर था।
अपने बच्चों के लिए वह सबसे अच्छा ही चाहती थीं — और यह "सबसे अच्छा" उन्हें अपने मायके में ही नज़र आया था।
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पूरी फै़मिली डाइनिंग टेबल पर मौजूद थी।
तीनों भाभियाँ — सलीमा, शगुफ़्ता और रिहाना — नाश्ता सर्व कर रही थीं।
कबीर, अयान, और तैमूर के साथ बैठे थे।
घर की सारी बेटियाँ — हिना, हवा , कहकशां और साबिहा— भी वहाँ मौजूद थीं।
तीनों भाई — अहमद, सईद और वकार — और खुद मिर्जा साहब व दादी जान भी टेबल पर मौजूद थे। माहौल गरम चाय और हल्की-फुल्की बातों से भरा हुआ था।
तभी फरीदा बानो ने धीमे मगर साफ़ लहजे में कहा,
"आज मैं आप सबसे कुछ माँगने आई हूँ..."
उनकी इस बात पर कुछ पल को सन्नाटा सा छा गया।
अहमद मिर्जा ने हल्के से मुस्कराते हुए, मगर थोड़ा चौंक कर कहा:
"क्या चाहिए तुम्हें, फरीदा? और माँगने की ज़रूरत क्या है? यह घर तुम्हारा ही है।"
उसका मानना था कि अगर वह अपने बेटे की शादी इसी घर में करेगी, तो वह लड़की उसके नियंत्रण में रहेगी।
बाहर से आई हुई लड़की के स्वभाव और परवरिश के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता — न जाने कै seसी हो, कौन से माहौल से आई हो।
लेकिन इस घर की लड़की उसके सामने पली-बढ़ी है, उसे अच्छे से जानती है, लिहाज़ करना जानती है — और सबसे बड़ी बात, उसे वह संभाल सकती है।
उसी तरह, वह अपनी बेटी की शादी भी अपने किसी भतीजे के साथ करना चाहती थी।
उसे पूरा विश्वास था कि उसकी अम्मी और अब्बा उसकी बेटी का उसी प्यार और देखभाल से ख्याल रखेंगे।
उसे यह भी लगता था कि इस घर का माहौल उसकी बेटी के लिए सबसे सुरक्षित और सम्मानजनक रहेगा।
"मैं चाहती हूं कि मेरी बेटी मेहरुन्निसा का रिश्ता शाहरुख से तय हो जाए।"
फ़रीदा बानो ने यह बात कहते हुए मिर्जा साहब और अपने भाई सईद मिर्जा की तरफ देखा।
वैसे भी यह बात पहले कई बार चर्चा में आ चुकी थी,
और उन्हें पूरा यकीन था कि यह रिश्ता अब पक्का हो ही जाएगा।
उनकी बेटी को भी शाहरुख पसंद था।
फरीदा बानो ने हमेशा अपनी बेटी से राय लेकर ही ये कदम उठाया था।
उनकी बात सुनकर दादी जान हल्के से मुस्कुराईं।
"बिल्कुल… जैसे कबीर और हिना का रिश्ता तय किया, वैसे ही इन दोनों की भी सगाई जल्द कर देंगे,"
उन्होंने कहा।
सभी लोग एक-दूसरे को मुबारकबाद देने लगे।
लेकिन तभी कबीर ने कहा,
"मुझे लगता है, एक बार शाहरुख से भी बात करनी चाहिए। वह घर पर ही है..."
सैयद साहब ने तुरंत जवाब दिया,
"वो मेरी बात मानेगा। जो मैं तय कर दूं, वही होगा।"
उनकी बात सुनकर कबीर चुप हो गया।
सहसा हिना की नज़रें झुक गईं।
इस पूरे माहौल में सबसे ज़्यादा असर हिना पर पड़ रहा था।
उसे अंदर ही अंदर दुख हो रहा था।
वह खुद शाहरुख को कहीं न कहीं दिल से पसंद करती थी।
शाहरुख खुले विचारों वाला, मॉडर्न सोच रखने वाला लड़का था।
इसीलिए हिना ही नहीं, घर की कई लड़कियाँ उसकी ओर आकर्षित थीं।
अब कबीर का यह कहना कि
"एक बार शाहरुख से पूछ लेना चाहिए"
हिना के दिल में एक टीस जगा गया।
कबीर की अपनी शादी के वक़्त तो कभी उससे नहीं पूछा गया था।
इसीलिए कबीर आप ऐसा कह रहा था।
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इस माहौल में सबके चेहरे पर मुस्कान थी, लेकिन हिना की मुस्कान सबसे झूठी थी।
तभी रईस साहब ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा,
"अभी बात पूरी नहीं हुई। हमें आपसे एक और रिश्ता भी चाहिए..."
"किसका?" सैयद साहब ने पूछा।
"अपने बेटे अरहान के लिए। हमें आपकी बेटी सबिहा का रिश्ता चाहिए। वह हमारे घर आएगी।
शादियां अपने खानदान में होनी चाहिए।
बाहर की लड़कियों का क्या भरोसा..."
फरीद ने बड़ी दृढ़ता से कहा।
उसे पूरा यकीन था कि यह रिश्ता कोई मना नहीं करेगा —
क्योंकि उसका बेटा अरहान न सिर्फ पढ़ा-लिखा और हैंडसम था,
वो एकलौता बेटा, छोटा परिवार — सब कुछ अनुकूल था।
जैसे ही साबिहा की शादी की बात चली, वह तुरंत उठकर वहाँ से चली गई। इस घर का नियम था कि जब भी बेटियों की शादी का ज़िक्र हो, वे बातचीत में शामिल न रहें।
सुविधा चुपचाप चली गई—क्योंकि उसके मन में साफ़ था कि वह इस वक़्त शादी नहीं करना चाहती। उसका सपना था अपनी पढ़ाई पूरी करना।
मगर क्या किसी ने उससे उसकी राय पूछी?
इस बात की उम्मीद उसे बिल्कुल नहीं थी।
"तीनों की सगाई एक साथ कर देंगे,"
दादी जान ने फिर से कहा।
लेकिन तभी कबीर बीच में बोल पड़ा,
"बिल्कुल नहीं! अभी तो सबिहा से भी पूछना होगा..."
सैयद साहब नाराज़ हो उठे,
"अब उससे भी पूछना है क्या?
साबिहा अभी बहुत छोटी है। उसकी शादी की बात करना अभी सही नहीं है।
कबीर ने कहा।
और जब हम बड़े बैठे हैं, तो तुम्हारा बीच में बोलना क्या ठीक है?"
दादा हाशमी मिर्जा को यह बात नागवार गुज़री कि कबीर ने बड़ों की बातचीत में टोक दिया।
कमरे में बैठे सबकी नज़र एक साथ अहमद मिर्जा पर गई (वे कबीर के अब्बा थे)।
सैयद साहब ने बात आगे बढ़ाने की कोशिश की:
“भाईजान, आप ही कुछ कहिए।”
अहमद मिर्जा ने पहले अपने वालिद हाशमी मिर्जा की तरफ देखा, फिर कबीर की ओर मुड़े।
धीरे से बोले:
“मेरी राय भी कबीर जैसी है। पहले घर के दोनों बेटों की शादियाँ कर लेते हैं, फिर बेटियों की बात करेंगे। ‘साबिहा अभी छोटी है—मुझे लगता है उसे पहले ग्रेजुएशन कर लेने देना चाहिए।”
(यह नहीं था कि रिश्ता हमें पसंद नहीं; पर वे कभी अपने बेटे कबीर के खिलाफ न जाते।)
तभी फ़रीदा ने ज़रा ऊँची आवाज़ में पूछा:
“तो मतलब? रिश्ता पक्का हुआ या नहीं?”
अहमद ने संयम रखा:
“पहले दोनों भाइयों का निकाह होने दो, फिर सोचेंगे।
वो अभी छोटी है—घर कैसे संभालेगी? और मैं नहीं चाहता कि उसकी पढ़ाई बीच में रह जाए।” कबीर फिर बोला।
फ़रीदा ने चुटकी ली:
“कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम्हें अपने न पढ़ पाने का दुख है, इसलिए बहन को पढ़ाना चाहते हो?”
कबीर उठ खड़ा हुआ।
“मैं कॉलेज नहीं जा सका तो क्या हुआ? मेरे बाकी भाई-बहन तो पढ़ रहे हैं न! हाँ, मैं अपनी पढ़ाई पूरी न कर पाया—लेकिन मेरी बहन ज़रूर करेगी।”
पलभर सन्नाटा रहा।
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ऐसा कहते हुए कबीर ने एक नज़र हिना पर डाली। हिना सिर झुकाए अपनी प्लेट में चम्मच से खेल रही थी। जब उसकी शादी की बात चली थी, तब किसी ने नहीं कहा था कि वह पहले पढ़ाई पूरी कर ले। अब कबीर अपनी छोटी बहन साबिहा के लिए पढ़ाई की बात कर रहा था—यह बात हिना को अच्छी भी लगी और कहीं न कहीं चुभी भी।
उधर शाहरुख की शादी मेहरुन्निसा से तय होने की चर्चा चल रही थी। हिना के मन में हल्का-सा कसाव था—। हिना बाहर से चुप थी, पर भीतर सुन रही थी—सब कुछ, बहुत ध्यान से।
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कबीर उठ खड़ा हुआ
अचानक कबीर उठा।
“मैं गौतम के साथ दिल्ली जा रहा हूँ। शायद कल तक लौटूँ,” उसने कहा और अपने कमरे की तरफ चला गया—शायद कुछ सामान लेने।
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फ़रीदा का ग़ुस्सा
कबीर के जाते ही फ़रीदा रुकी नहीं। ग़ुस्से में बोली:
“मैं तो अरहान के लिए साबिहा का रिश्ता मांगने आई थी—इतना अच्छा लड़का, इसी घर का दामाद बन जाता! लेकिन अब? इस बेइज़्ज़ती के बाद मैं दूसरी बार रिश्ता लेकर नहीं आऊँगी!”
रईस साहब ने धीरे से समझाया:
“कोई बात नहीं… अपना ही बच्चा है।”
पर बात फ़रीदा को लग चुकी थी।
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दादी-जान को अच्छा नहीं लगा—उन्हें लगा उनकी बेटी (फ़रीदा) का दिल दुख गया।
उन्होंने दादा-जान की ओर देखा:
“आप घर के बड़े हैं। जो आप कहेंगे वही होगा…
बाद में बात कर लेंगे।”
दादा-जान ने बात सँभालना चाहा। वे जानते थे—कबीर की बात पूरी तरह नज़रअंदाज़ करना आसान नहीं। वह सीधे बोलता है, पर घर की आर्थिक रीढ़ भी वही है। काम सब करते हैं, पर असली ज़िम्मेदारी उसी पर है—और उसका गुस्सा भी कम नहीं।
घर की बहुएँ चुप थी।तीनों भाइयों की बीवियाँ —
सलीमा भाभी (कबीर की अम्मी),
शगुफ़्ता भाभी (हिना की अम्मी),
और रिहाना भाभी (तैमूर की अम्मी) —
तीनों औरतें खाने की सर्विंग में लगी हुई थीं।
वे जानती थीं कि दादा-जान और दादी-जान के सामने उनकी चलती नहीं। ऊपर से नंद फ़रीदा भी आई हुई थी—इसलिए बेहतर समझा कि परिवार के बुज़ुर्ग ही फ़ैसला लें।
कबीर अपना सामान लेकर जैसे ही कमरे से बाहर हॉल में आया, उसने सुना कि हॉल के अंदर कुछ बातचीत हो रही थी। वह धीरे-धीरे आगे बढ़ा। हॉल में प्रवेश करने से पहले ही उसकी कानों में बुआ की आवाज़ पड़ी।
फुफ्फो हिना से कह रही थीं,
"वैसे है ना, तुम्हारे तो नसीब पहले से ही हाथ के हैं। जो लड़का घर के बड़ों की नहीं मानता, कल को शादी के बाद तुम्हारी क्या सुनेगा? और हाँ, अरहान के लिए तो मुझे तुम ही पसंद हो, मगर मैं यह भी जानती हूँ कि तुम्हारी शादी तो बचपन से कबीर से तय है। उसकी नेचर कैसी है, यह तो घर में सबको पता ही है।"
कबीर यह सब सुनकर ठिठक गया। उसे बिल्कुल अच्छा नहीं लगा कि उसको लेकर बातें हो रही हैं और हिना को बीच में लाया जा रहा है।
वह गुस्से में हॉल के अंदर गया और डाइनिंग टेबल के पास पहुंचकर सख़्त लहजे में बोला,
"फुफ्फो, आप इस सब के बीच हिना को मत लाएँ। इस निकाह के लिए मैंने आपसे मना किया था। तो फिर आप इसे बीच में क्यों ला रही हैं?"
कबीर की अचानक मौजूदगी और उसके सख़्त लहजे से हिना चौंक गई। उसने कबीर की तरफ देखा, लेकिन कुछ कहा नहीं।
"चलो ठीक है, मेरी बात सुनो," उसके दादा जान ने कहा। "मैं तुम दोनों भाइयों की सगाई और निकाह की तारीख निकलवा लूंगा। जैसे ही तुम दिल्ली से वापस आओ, फिर सगाई और निकाह की तैयारी करेंगे।"
कबीर ने सख़्ती से जवाब दिया,
"मैं सिर्फ सगाई करूंगा। शादी अभी नहीं कर सकता।"
"क्यों?" दादा जान ने गुस्से में पूछा।
कबीर के अब्बा, अहमद साहब, भी अपनी जगह से खड़े हो गए। अब सबकी निगाहें कबीर पर थीं। हर किसी के चेहरे पर सवाल था, क्योंकि कबीर हर बात के लिए मना कर रहा था। जबकि सैयद साहब की बात का विरोध करने की हिम्मत किसी में नहीं थी।
अयान, तैमूर और हवा—तीनों टेबल पर बैठे हुए एक-दूसरे को देख रहे थे। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि क्या कहें। वे जानते थे कि घर के बड़ों की बातों में बीच में बोलना उनका हक नहीं है।
घर की तीनों बहुंए—शफुगुप्ता, रिहाना और सलीम—भी चुप थीं। वे जानती थीं कि अगर उन्होंने बीच में कुछ कहा, तो दादा जान और दादी जान को गुस्सा आ जाएगा।
कबीर का चेहरा अब भी गुस्से से लाल था। उसने धीमे स्वर में कहा,
"आप लोग जानते हैं कि मैं अभी शादी के लिए तैयार नहीं हूँ।"
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शाहरुख अभी-अभी जिम से लौटकर हॉल में आया ही था कि उसने देखा, शाहरुख अंदर प्रवेश कर रहा है। शाहरुख सीधा अपनी फूफी फरीदा और उनके शौहर फूफा जान रईस हुसैन के पास गया।
मुलाक़ात पर उसने झुककर कहा,
"अस्सलामु अलैकुम, फूफी जान... फूफा जान."
फरीदा ने मुस्कुराकर जवाब दिया,
"वअलैकुम अस्सलाम, बेटा शाहरुख!"
फरीदा शाहरुख को देखकर बहुत खुश हुईं। उन्होंने उसके हाथ थामकर कहा,
"मैं तो तुम्हारा ही इंतज़ार कर रही थी! तुम्हारे लिए बहुत बड़ी खुशख़बरी है!"
शाहरुख थोड़ा उलझन में था। उसने एक-एक कर सभी के चेहरों की तरफ देखा। तभी सैयद साहब बोले,
"बेटा, तुम्हारा मेहरुन्निसा के साथ रिश्ता तय हो गया है। जल्दी ही सगाई और फिर निकाह होगा।"
शाहरुख कुछ कह पाता, उससे पहले फरीदा ने उत्साह से जोड़ दिया,
"और सुनो—तुम अपनी खुद की फैक्ट्री लगाना चाहते थे न? तुम्हारे फूफा इसमें तुम्हारी मदद करेंगे। तुम्हारी खुद की कपड़ों की फैक्ट्री होगी! हमें पता है, यह तुम्हारा सपना है।"
यह सुनते ही शाहरुख की आँखों में चमक आ गई। वह सचमुच अपनी फैक्ट्री शुरू करना चाहता था, लेकिन पैसों का इंतज़ाम नहीं हो पा रहा था। घर वाले मदद करने को तैयार तो थे, मगर पूरा निवेश उनके लिए मुश्किल था। अब फूफा जान के सहारे उसका सपना सच होने की उम्मीद जग उठी।
हॉल में अभी-अभी खुशियों की हल्की चमक उभरी थी—फूफी फरीदा की बात सुनकर सबके चेहरे खिल उठे थे। सबसे ज़्यादा चमक तो शाहरुख के चेहरे पर थी। पर यह खुशी ज़्यादा देर टिक नहीं पाई; जैसे ही बात निकाह, रुख़सती और बिज़नेस पर आई, माहौल धीरे-धीरे भारी होने लगा।
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दादा जान ने सीधे कबीर से कहा,
"जब तुम सगाई के लिए तैयार हो, तो निकाह में देर क्यों? अगर तुम चाहो तो रुख़सती बाद में कर देंगे। मगर निकाह तो हो जाना चाहिए, बेटा।"
कबीर ने बिना झिझक जवाब दिया,
"मैं अभी सिर्फ सगाई करूंगा। निकाह और सगाई के बीच मुझे टाइम चाहिए।"
दादा जान भड़क उठे।
"क्यों? आखिर देरी किस बात की?"
कबीर ने नज़रें मिलाईं, आवाज़ स्थिर रखते हुए कहा,
"मुझे काम सँभालना है। सब कुछ एक साथ नहीं हो पाएगा।"
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दादी जान ने बात संभालने की कोशिश की।
"अरे, हिना का क्या? उसका तो यह एग्ज़ाम देकर ग्रेजुएशन पूरा हो जाएगा। कबीर ने दादी जान की ओर देखा—
आगे से मास्टर्स भी कर सकती है। वैसे भी उसे लिटरेचर में दिलचस्पी है…"
हिना को हैरानी हुई कि कबीर को हिना की पढ़ाई और शौक़ का इतना पता है। हिना भी डाइनिंग टेबल पर चुप बैठी थी, मन में हज़ारों सवाल लिए। कबीर की ये बातें सुनकर उसने धीमे से उसकी तरफ़ देखा—क्या सच में वह निकाह टाल रहा है… उसके लिए? या अपने लिए?
दादी जान फिर बोलीं,
"ठीक है, रुख़सती मत करो। मगर निकाह तो हो जाए?"
कबीर ने गहरी सांस ली।
"दादी जान, एक बार निकाह हो गया तो आप सब रुखसती के लिए दबाव डालेंगं।
"मैं जा रहा हूँ। गौतम मुझे लेने पहुँचने ही वाला है," कबीर ने बात लगभग ख़त्म करने के अंदाज़ में कहा।
दादा जान ने उसे रोका,
"ऐसा क्या ज़रूरी काम है कि अभी जाना पड़ रहा है?"
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सैयद साहब ने मेज़ पर बैठे वक़ार (हिना के अब्बा) की तरफ़ देखा।
"वक़ार, तुम तो बेटी के अब्बा हो—कुछ तो कहो। निकाह होना चाहिए, नहीं?"
वक़ार साहब ने भारी सांस ली।
"अगर कबीर टाइम माँग रहा है, तो देना चाहिए। तब तक हिना अपनी मास्टर्स कर लेगी। वो आगे पढ़ना चाहती है।"
उन्होंने बात यहीं रोक दी; वो अपनी बेटी के मन की बात जानते थे—वह जल्दीबाज़ी में निकाह नहीं करना चाहते थे।
दादा जान अभी भी नहीं पिघले थे।
"कौन सा काम है जिसके लिए इतना टाइम चाहिए?"
कबीर ने हल्की मुस्कान के साथ कहा,
"आप लोगों को पता ही है—शहर में जो फाइव-स्टार होटल सेल पर है… मैं उसे खरीदना चाहता हूँ। अगर डील हो गई तो उसे खड़ा करने में जी जान लगानी पड़ेगी। साथ ही मैं राजनीति में भी किस्मत आज़मा रहा हूँ, और कारोबार भी देखना है। मैं चाहता हूँ कि शादी से पहले थोड़ा सेटल हो जाऊँ।"
हॉल में सन्नाटा-सा छा गया।
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पैसा कहाँ से आएगा?
सैयद साहब ने याद दिलाया, "पर उस होटल की डील तो कैंसिल हो गई थी…पैसों का इंतजाम करना मुश्किल था"
कबीर बोला,
"पैसों का इंतज़ाम करने ही तो जा रहा हूँ। शायद लोन सैंक्शन हो जाए। तब हम होटल खरीद सकेंगे।"
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फूफी फरीदा की चिंता
फूफी फरीदा ने बेचैनी से अपने भाई (सैयद/मिर्ज़ा साहब—परिवार के बड़े) की ओर देखा।
"इतना बड़ा क़र्ज़? और अगर होटल नहीं चला तो? सारा बोझ पूरे खानदान पर पड़ेगा! तुम कोई सीधा-सादा काम नहीं कर सकते क्या?"
फूफा जान रईस हुसैन ने तुरंत टोका,
"फरीदा, तुम हर घरेलू मामले में मत कूदो।"
फरीदा चुप कहाँ होने वाली थीं।
"मेरी बेटी को इस घर में आना है! मैं नहीं चाहती कि किसी और की ग़लती का असर मेरी बेटी और उसके दामाद की ज़िंदगी पर पड़े। जो करना है करो—मगर अपने दम पर करो।"
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सईद मिर्जा ने सख़्ती से कहा,
"अगर लोन लेना है तो अपनी ज़मीन गिरवी (रेहन) रखो—पूरे खानदान की नहीं। मैं इस जोखिम में शामिल नहीं। वक़ार से पूछो—उसकी दो बेटियाँ हैं। उसे भी सोचना पड़ेगा।"
माहौल अब बहस में बदल चुका था। कबीर को पहली बार लगा कि घर एक मिनट में कितनी तेज़ी से बाँट सकता है।
फरीदा ने कहा,
"मैं तो कहती हूँ, अब्बा जान, जो घर का बिज़नेस है—उसका बंटवारा तीनों भाइयों में कर दो। जिसे जैसा अच्छा लगे, अपना काम बढ़ाए।"
रईस हुसैन ( हल्का गुस्सा लेकर) बोले,
"फरीदा, तुम क्या-क्या कह रही हो?"
"मैं बिल्कुल सही कह रही हूँ," फरीदा अड़ी रहीं।
सैयद साहब ने अब बात को आकार दिया:
"हमारी तीन फैक्ट्रियाँ हैं। तो तीन हिस्से करो—तीनों भाइयों में बाँट दो। कपड़ों की दुकानें, दूसरी प्रॉपर्टीज—सबका हिसाब हो। अब्बा जान और अम्मी जान के हिस्से अलग रहें। बाकी हम लोग अपने-अपने बिज़नेस संभालें। कोई होटल में जाएगा, कोई फैक्ट्री देखेगा—कम से कम एक आदमी की वजह से सब डूबेंगे नहीं।"
मिर्ज़ा साहब (घर के मुखिया) चुप बैठे सब सुनते रहे। उन्हें महसूस हुआ कि बहस अब आगे बढ़ती तो रिश्तों में दरार पक्की हो जाती। उन्होंने गहरी आवाज़ में कहा:
"ठीक है… जैसा तुम लोग चाहते हो, वैसा ही होगा। बंटवारा कर देंगे। लेकिन घर—घर हमारा एक ही रहेगा। कोई अलग-अलग मकानों में जाकर जिए, यह मैं नहीं चाहता।"
वक़ार ने धीमे से पूछा,
"अब्बा जान, बंटवारा… कैसा?"
"हिस्से के काग़ज़ बनेंगे," सैयद साहब ने कहा। "सबका हिस्सा साफ़ होगा।"
फिर उन्होंने चेतावनी दी,
"और सुनो, यह जो कबीर कर रहा है—कहीं ऐसा न हो कि कल तुम लोगों को भी रिश्ता तोड़ना पड़े।"
"भाई जान, यह क्या कह रहे हो आप!" वक़ार ने विरोध किया।
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दादा जान ने आख़िरी कोशिश की:
"कबीर, रुक जाओ। आज ही बातें साफ़ कर लेते हैं।"
कबीर ने बैग उठाया।
"जो आपको करना है, आप कर सकते हैं। मेरा स्टे यहाँ ख़त्म। गौतम गेट पर पहुँच चुका होगा। मैं दिल्ली जा रहा हूँ।"
वह मुड़ा, एक बार सबकी तरफ़ देखा—और वह चला गया।
दादा जान ने लगभग विनती के लहजे में कहा,
"कबीर, रुक जाओ। आज ही बातें साफ़ कर लेते हैं।"
कबीर ने अपना बैग उठाया। उसकी आँखों में थकान और जिद दोनों थीं।
"जो आपको करना है, आप कर सकते हैं। मेरा स्टे यहाँ ख़त्म। गौतम गेट पर पहुँच चुका होगा। मैं दिल्ली जा रहा हूँ।"
वह दरवाज़े तक आया, ठहरा, एक नज़र पूरे घर पर — दादा जान, अब्बा, चाचाजान, फूफी, सब पर — और फिर चुपचाप बाहर निकल गया। ऐसा लगा जैसे हवेली की साँस कुछ पल के लिए अटक गई हो।
---
गौतम पहले से बाहर कार के पास खड़ा था। उसने कबीर को आते ही भाँप लिया — चेहरा बुझा हुआ, आँखों के नीचे थकी लकीरें।
गौतम: "क्या बात है? तुम्हारा मूड काफ़ी ऑफ़ लग रहा है।"
कबीर (लंबी साँस लेकर): "चलो, रास्ते में बताऊँगा। जो हुआ… वो होना नहीं चाहिए था।"
कार स्टार्ट हुई। हवेली पीछे छूटती चली गईं।
---
कुछ किलोमीटर ख़ामोशी रही। फिर गौतम ने हल्के अंदाज़ में बात छेड़ी ।
तुम्हारा मूड क्यों खराब है।
"घर पर फ़रीदा फूफ़ा आई हुई हैं," कबीर ने बताया। "वो वह शाहरुख का रिश्ता अपनी बेटी से करना चाहती है और — और अहमर के लिए साबिहा का हाथ मांगा है।"
गौतम ने तुरंत टोका:
" साबिहा का हाथ अहमर के लिए?"
कबीर: "हाँ। परिवार ठीक है, पढ़े-लिखे लोग हैं —बिजनेस भी बहुत अच्छा है उनका। खुला माहौल भी है। पर अहमर की कुछ हरकतें... मैं अनदेखी नहीं कर सकता। मैंने उसे कई बार लड़कियों के साथ — मतलब ऐसी जगहों पर देखा है जहाँ परिवार का कोई लड़का नहीं होना चाहिए। मुझे पता है वो उनके लिए ठीक नहीं रहेगा।"
गौतम ने लंबी सी 'हूँऽऽ' की आवाज़ निकाली।
"तो तुमने साफ़ मना कर दिया?"
"हाँ, मैंने मना कर दिया।"
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"शाहरुख को ये रिश्ता बहुत पसन्द आया है, साथ में मेरी और हिना की सगाई और निकाह की बात हो रही है," कबीर ने जोड़ा। "
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गौतम: "तो क्या बोल दिया तुमने?"
कबीर: "सगाई की बात पर हाँ कर दी… मगर निकाह के लिए टाइम माँगा है। अभी शादी नहीं।"
गौतम (छेड़ते हुए): "क्यों? भाभी को इंतज़ार कराओगे? कोई और लाइन में तो नहीं?"
कबीर: "गौतम!"
दोनों हँस पड़े। तनाव थोड़ा हल्का हुआ।
गौतम (शरारती मुस्कान के साथ, हल्का कंधा ठेलते हुए):
"वैसे एक बात कहूँ? जब मैं हिना भाभी का नाम लेता हूँ ना, तुम्हारे चेहरे पर एकदम ऑन आ जाता है। गाड़ी में बैठे-बैठे जो सड़ा हुआ मूड था न, बस नाम लेते ही बदल गया!"
कबीर (माथा टेढ़ा, पर होंठों पर दबती मुस्कान):
"छेड़ क्यों रहे हो?"
गौतम: "अरे क्यों न छेड़ूँ! आखिर तुम्हारी सगाई हो रही है — आगे चलकर निकाह भी तो होगा। बहुत चाहते हो उसे, मान लो ना!"
कबीर: "तुम्हें सब पता है, फिर पूछ क्यों रहे हो?"
गौतम (जोर देकर): "क्योंकि उसे नहीं पता! बता दो उसे — कितना चाहते हो, कितना सोचते हो उसके बारे में। वो रंग जो उसे पसंद हैं, वही तुम्हारे फ़ेवरिट बन गए हैं। उसका हर प्लान तुम याद रखते हो। ये सब कहोगे तो वो कितनी खुश हो जाएगी, अंदाज़ा है?"
कबीर कुछ पल चुप रहा। बाहर सड़क की लाइटें उसके चेहरे पर आती-जाती रहीं।
कबीर (गंभीर स्वर):
"अभी समय नहीं आया, गौतम। तुम हमारे घर का माहौल नहीं जानते। जो दूरी अभी है, वो ज़रूरी है — खासकर हिना के लिए। अगर मैं ज़्यादा खुल गया तो सगाई के साथ निकाह भी तुरंत करवाने की ज़िद शुरू हो जाएगी… और फिर रुखसती भी?"
वह गहरी साँस लेता है।
"फिर उसकी पढ़ाई रह जाएगी। और मेरे पास अभी शादी सँभालने का वक़्त नहीं — बिज़नेस, होटल प्रोजेक्ट, सब लाइन में है। मैं निकाह तब करूँगा तब तक उसे बिना रुके आगे पढ़ने दूँ। अभी नहीं।"
कबीर गंभीर हुआ।
"तुम जानते हो ना — हिना पढ़ना चाहती है। मौका मिला तो वो अपनी मास्टर्स करेगी। और मैं… मेरा सपना है बिज़नेस बड़ा करना। वो फ़ाइव-स्टार होटल प्रोजेक्ट याद है? और थोड़ा राजनीति में भी आना है। ये दो साल बहुत काम के हैं। अगर अभी निकाह कर लिया तो घर वाले हिना को पढ़ने भी नहीं देंगे। फिर उसकी पढ़ाई रुक जाएगी — और मैं उसे वो ज़िन्दगी नहीं दे पाऊँगा जिसकी वो हक़दार है।"
गौतम: "तो साफ़-साफ़ बोल दो सबको — 'मैं हिना से निकाह करूँगा, मगर तब जब मैं उसे पूरी दुनिया दे सकूँ!'"
कबीर: "बिल्कुल यही तो कहा… किसी ने सुना नहीं।"
---
सिग्नल पर कार रुकी। गौतम ने मुस्कुराकर कहा:
"वैसे, मैं हिना भाभी से पूछ लूँ क्या— कि वो मास्टर्स के बाद दिल्ली शिफ़्ट होगी या तुम उसके कॉलेज के पास फ़ाइव-स्टार बनाओगे?"
कबीर ने सीट से पीछे सिर टिका लिया।
"तू चुप रहेगा या नहीं?"
दोनों फिर हँस पड़े। हवा हल्की हो गई।
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हिना कमरे में बैठी हुई थी। उसके साथ हवा भी थी। तभी उसके अब्बा वकार मिर्जा कमरे में आते हैं।
हिना ने आगे बढ़कर कहा,
"आप परेशान लग रहे हैं, अब्बा। कोई बात?"
उन्होंने धीरे से मुस्कुराने की कोशिश की।
"नहीं बेटा, तुम अपने कमरे में जाओ।"
हिना रुकी नहीं।
"कबीर ने निकाह के लिए टाइम माँगा है। अगर अभी सिर्फ़ सगाई हो जाए और निकाह कुछ देर बाद… तो मैं अपनी पढ़ाई जारी रख पाऊँगी। आप क्यों इतना परेशान हो रहे हैं?"
अब्बा ने आँखें झुका लीं।
"मैं इस बात से परेशान नहीं हूँ कि निकाह अभी नहीं हो रहा। असली परेशानी तो ये बँटवारे की बात है… जो शुरू हो गई है।"
उन्होंने धीमे से जोड़ा,
"घर बाँटने की बातें घर तोड़ देती हैं, बेटा।
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बाहर सड़क पर कार दिल्ली की तरफ़ बढ़ रही थी।
अंदर हवेली में बँटवारे के काग़ज़ों से पहले, रिश्तों की रेखाएँ खिंच रही थीं।
"तेरे साये में छुप जाने का अरमाँ है मुझे,
फ़ासलों को मिटा देने का इरादा है मुझे।
तू खामोश है मगर आँखें बयान करती हैं,
तेरे लफ़्ज़ों में छुपी मोहब्बत पहचानता हूँ मैं।
तेरा होना ही मेरी हर दुआ का जहाँ है मुझे।"
“आप अपना दिल छोटा मत करें। वकार मिर्जा के पीछे उनकी बीवी शफुगता पीछे आई ।
सब ठीक हो जाएगा।”
“मुझे नहीं लगता कि सब ठीक होगा,” वकार मिर्जा ने धीमे से कहा।
“फरीदा ने अच्छा नहीं किया। उसने घर का माहौल बिगाड़ दिया।
मगर कबीर भी बिना सोचे समझे बोलता है,” हिना ने कहा।
वह कहना नहीं चाहती थी, मगर कह दिया।
“बात तो तुम्हारी सही है बेटा। बेकार । मगर सलाह कौन करता? अगर कबीर नहीं बोलता, तो सिर्फ हुक्म ही सुनाया जाना था।”
वकार को अपने अब्बा हाशमी मिर्ज़ा के बारे में पता था, सभी जानते थे।
“हाँ, साबिहा छोटी हैं। उसकी शादी ऐसे ही नहीं की जा सकती,” हिना की अम्मी ने कहा।
वकार मिर्ज़ा इस पक्ष में था कि लड़कियों को पढ़ना चाहिए, इसलिए किसी की ज़बरदस्ती शादी कराना उसे भी पसंद नहीं था।
“जो होना है, वो होकर रहेगा। फरीदा आपा को तो हम जानते ही हैं।”
हिना की अम्मी इस बात को यहीं खत्म करना चाहती थीं, वह नहीं चाहती थीं कि इस मुद्दे पर फिर चर्चा हो।
वकार मिर्ज़ा की दो ही बेटियाँ थीं, कोई बेटा नहीं था। इस बात को लेकर फरीदा कितनी बार चर्चा कर चुकी थीं। जहाँ तक बात थी, वह अपने भाई की दूसरी शादी करवाना चाहती थीं।
आज हालात चाहे शगुफ़्ता पक्ष में थे, मगर वो दिन उस के लिए बहुत बुरे थे।वकार मिर्ज़ा अपनी बीवी से बहुत मोहब्बत करता था और अपनी बेटियों को लेकर भी बेहद फिक्रमंद था। उसने ने दूसरी शादी नहीं की। उसने अपनी बेटियों को ही अपना सब कुछ माना। समय बीतने के साथ उसके ताल्लुकात फरीदा के साथ पहले जैसे मज़बूत नहीं रहे थे।तभी हवा कमरे में आई।
“क्या हो रहा है?” उसने सभी के चेहरे देखते हुए पूछा।
“तुम लोगों के एग्ज़ाम हैं, जाकर पढ़ाई करो,” उनकी अम्मी ने दोनों बहनों को कमरे से भेज दिया।
वो दोनों अपने कमरे में आईं।
“इतनी उदास क्यों हो?” हवा ने पूछा।
“ कबीर भाईजान के चले जाने से…इसलिए आप इतनी उदास हैं” हवा ने कहा।
“सीरियसली हवा, घर में इतने मसले हैं और तुम्हें ये सब सूझ रहा है। और देख लेना, तुम्हारे कबीर भाईजान के कारण घर के बंटवारे की बात हो रही है।”
“मगर उन्होंने तो अपनी बहन के पक्ष में बोला था ना। वो तो आपसे भी छोटी है, और उसकी शादी उसकी पढ़ाई के बीच में करना क्या सही था?”
हिना ने ठंडी सांस ली।
“बिलकुल नहीं। शादी तो मैं भी अभी नहीं करना चाहती। वो तो मुझसे भी छोटी है,” हिना ने कहा।
इसीलिए तो कबीर भाईजान को आपकी फिक्र है। वो जल्दी निकाह नहीं करना चाहते। आप अपनी मास्टर्स कर लेंगी, वो अपना बिज़नेस सेट कर लेंगे, फिर आपका निकाह होगा और रुख़सती,” हवा ने मुस्कुराते हुए कहा।
हवा खिड़की के पास जाकर बोली,
“पता है, रुख़सती में इस कमरे से उसी कमरे तक ही तो जाना है। मुझे नीचे वाला कमरा पूरा मिल जाएगा, और आप कबीर भाईजान के कमरे पर कब्ज़ा कर लेना।”
"सीरीज़ पर कमेंट नहीं आ रहे, तो मेरा लिखने का मन भी नहीं करता। प्लीज़, अगर आपको यह पसंद है तो कमेंट करें, वरना मैं इस सीरीज़ को यहीं रोक दूँगी। मुझे नहीं लगता कि यह किसी को पसंद आ रही है।" ❤️
हिना (हल्की चिंता के साथ):
“तू मेरी और कबीर के निकाह की बात करके इतनी खुश हो जाती है, मगर तूने सोचा है, हवा—मैं कैसे निभाऊँगी उसके साथ? दादा जान और कबीर दोनों एक जैसे हैं! कबीर मिर्ज़ा तो हाशमी मिर्ज़ा का दूसरा रूप लगता है। जैसे दादा जान हर वक्त हुक्म चलाते हैं, वैसे ही वो भी। न दादा जान कभी अपनी बात से पीछे हटते हैं, न कबीर!”
हवा (हँसते हुए, कमरे में गोल-गोल घूमते हुए):
“अरे, दादा जान दादी जान की तो मानते ही हैं ना! हमारे दादा जान कितने गुस्से वाले हैं, पर दादी जान की बात पर हार मान लेते हैं—कितना ख़याल रखते हैं उनका! तो जैसे हमारे घर में दादा जान की चलती है पर दादी जान उनका दिल संभाल लेती हैं, वैसे ही कबीर की चलेगी और तुम दादी जान की तरह अपने सारे हुक्म चलाना!”
हिना (धीमे से, यादों में जाती हुई):
“तुम्हें पता है ना, दादा जान ने दूसरा निकाह किया था।उनकी पहली बीवी को कोई औलाद नहीं हुई, तो दादी जान—यानी उनकी पहली बीवी की छोटी बहन—से निकाह कर लिया गया। वरना सुनते हैं कि दादा जान उस बेचारी को पूछते भी नहीं थे… उसकी हालत बहुत बुरी थी उस वक़्त।”
हवा (गंभीर होकर, दिल से बोलते हुए):
“मैं तुमसे एक बात कहूँ? चाहे जो हो जाए, कबीर भाईजान की आँखों में उस दिन जो मैंने देखा… वो तुम्हारे क़दमों में पूरी दुनिया रख देंगे। तुम बहुत खुश रहोगी। वो तुमसे सच में बहुत प्यार करेंगे। उनका गुस्सा तुम्हारे लिए नहीं होगा—यक़ीन करो।”
हिना (आँखें झुका कर, हल्की मुस्कान के साथ):
“सचमुच? काश ऐसा ही हो… आमीन।”
फरीदा बानो और राइस हुसैन वापस घर जाते हुए गाड़ी में एक दूसरे के साथ बात कर रहे हैं।
फरीदा बानो (धीमे पर बेचैन स्वर में): "मैंने ठीक किया ना?"
उन्होंने रईस की ओर मुड़कर पूछा।
रईस हुसैन: "और कोई रास्ता भी तो नहीं था," उन्होंने थके लहजे में कहा। "अहमर की हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही है। किसी की बात सुनता ही नहीं। अभी तक ख़ानदान में किसी को पता भी नहीं चला... और मुझे लगा था कि वे लोग साबिहा का रिश्ता मान लेंगे।"
रईस ने अपनी दिल की बात आगे बढ़ाई। "मुझे तो यक़ीन था कि कोई हमारी बात नहीं मानेगा—मगर सैयद भाई तो मान गए, है ना? उन्होंने तो रिश्ते पर हामी भर दी।"
फरीदा (झुंझलाहट से): "इसलिए तो मैंने कबीर के जाते ही बात कर ली। कबीर जहाँ भी जाता है अपनी टांग अड़ाता है!"
उनके चेहरे पर ग़ुस्सा था।
रईस (सोचते हुए): "शायद कबीर को अहमर के बारे में कुछ पता है..."
फरीदा (तुरंत बेटे की तरफ़दारी करते हुए): "ऐसा भी क्या कर दिया मेरे बेटे ने? अमीर घरों के बच्चों के शौक तो होते ही हैं!" वह अपने बेटे अहमर के बारे में कोई सुनना नहीं चाहती थीं।
कुछ पल की खामोशी के बाद वह फिर बोलीं, आवाज़ में जल्दबाज़ी साफ़ थी:
"मैं अभी वापस जाकर सैयद भाई को फोन करती हूँ। कबीर के लौटने से पहले ही सगाई और निकाह—दोनों की तारीख़ निकलवा लेती हूँ। फिर कोई कबीर की बात नहीं सुनेगा!"
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कबीर के घर से जाते ही, अंदर ही अंदर बहुत बातें हुईं। कबीर ने जब साबिहा का रिश्ता साफ़ मना कर दिया, तो उसी समय का फ़ायदा उठाकर फरीदा बानो ने सैयद मिर्ज़ा से कहकशां के लिए रिश्ता माँग लिया।
परिवार में एक और रिश्ते की चर्चा भी थी—शाहरुख़ ख़ान और तैमूर की छोटी बहन थी ।वो साबिहा की क्लास में पढ़ती है। वह साबिहा से कुछ महीने छोटी है। इसी वजह से सबसे पहले फरीदा बानो ने साबिहा का रिश्ता माँगना सही समझा था। अब वे दोनों बच्चों के सगाई और निकाह की तैयारी जल्दी निपटा देना चाहती हैं, ताकि कबीर—की गुंजाइश न रहे।
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दोपहर के लंच टाइम में आर्यन एक रेस्टोरेंट में अपने दोस्त की दोस्त शिव मेहता के साथ बैठा था। शिव उसके ऑफिस में भी काम करता था और शायद उसका बिज़नेस पार्टनर भी था। दोनों लंच कर रहे थे, तभी उस ने आर्यन से मुस्कुराते हुए पूछा — ‘क्या हुआ, कोई नया कुक मिल गया खाना बनाने के लिए?’"
शिव को पता था कि इस महीने घर में कितने कुक बदले जा चुके थे। हाई-प्रोफ़ाइल होटलों में काम कर चुके कुक भी घर पर रखे गए, लेकिन किसी का भी बना खाना आर्यन राजवंश को पसंद नहीं आया। अगर खाना पसंद आ भी जाता, तो उनका काम करने का तरीक़ा (या किचन में अनुशासन) उन्हें नहीं भाता।
कई बेचारे तो उनकी OCD जैसी आदतों से डरकर खुद ही छोड़कर चले गए। शिव और आर्यन कई सालों से साथ हैं।
शिव ने पूछा,
"कोई आदमी है या औरत?"
"कोई औरत है,।
मुझे लगता है, थोड़ी बड़ी उम्र की औरत होगी,
क्योंकि जिस तरीके से खाना बना था,
सचमुच अच्छा था।
खाने में सिर्फ़ प्रोफेशनल टेस्ट नहीं था,
थोड़ा अलग था," आर्यन राजवंश शांति के खाने की तारीफ़ कर रहा था।
"उसका खाना बनाने का टेस्ट मुझे पसंद आया,
मगर उसने किचन को बिल्कुल चेंज कर दिया।
तुम जानते हो, मुझे किचन का सामान
इधर-उधर रखने वाले लोग पसंद नहीं।
वह मेरा घर है और हर चीज़
मेरे तरीके से होगी," आर्यन शिव से कह रहा था।
"अगर उसने अपनी आदतें नहीं बदलीं
तो मैं उसे निकाल दूंगा।
उसने मेरे लिए नोट भी छोड़कर लिखा रखा है
कि खाना कैसे गर्म करना है।"
सांनवी कॉलेज के बाद खाना बनाने के लिए घर आती है।
उस वक्त तक देव भी घर आ चुका था।
देव किसी औरत से हॉल में रुककर बात कर रहा था।
तभी संवि भी किचन में जाने के लिए हॉल के अंदर एंटर करती है।
देव उसे कहता है,
"शांति... ये शिवानी है।
घर की डस्टिंग और कमरों को मैनेज करना इसका काम है।"
असल में, घर में साफ-सफाई करने के लिए जो आदमी था,
वह स्टाफ क्वार्टर्स में रहता था,
जो घर के एक साइड पर बने हुए थे।
वही फर्श की सफाई करता था,
लॉन की सफाई करता था,
यानि बाकी सारे काम वही करता था।
लेकिन आर्यन को डस्टिंग के लिए
अलग मेड चाहिए होती थी,
जो उसकी रखी हुई हर चीज़ को
वैसे ही परफेक्ट रखे।
पिछली मेड निकाली जा चुकी थी,
तो आज नहीं आई थी।
देव ने कहा,
"तुम दोनों का अपना-अपना काम है।
ध्यान से करना।"
देव उन दोनों को समझाता हुआ
वहाँ से चला गया।
और शिवानी को भी
कल से आना था।
---
देव हॉल से बाहर निकलते हुए फिर वापस आए।
"सानवी, ध्यान रखना—कोई नोट नहीं छोड़ना इस बार।"
एक बार तो शिवानी उसकी बात सुनकर कन्फ्यूज़ हुई,
फिर उसे याद आया कि उसने खाना गर्म करने के बारे में एक नोट लिखा था।
"ठीक है, जैसा आप कहें," शांति ने मुस्कुरा कर कहा।
"हमें उन्हें कुछ भी बताने की ज़रूरत नहीं। खाना बना और चली जाओ।"
सानवी देव से बात करने के बाद किचन में आती है।
अभी वह आर्यन को पूरी तरह से जानती नहीं थी।
---आदमी है! मैंने तो उसी के लिए नोट छोड़ा था,"
यह भी उसे बुरा लगा।
वह किचन में आई,
उसका रखा हुआ काउंटर का सामान वहाँ पर नहीं था।
जैसे ही उसने फ़्रिज खोला,
वही सामान फ़्रिज में पड़ा हुआ था।
"हे भगवान! इसको फ़्रिज में कौन रखता है?"
तभी एक बच्चा हॉल के अंदर एंटर करता है।
वह ड्राइवर राम के साथ था।
राम आर्यन का ही नहीं बल्कि उसकी पूरी फैमिली के काफ़ी नज़दीक था।
वह ड्राइविंग के साथ-साथ घर के पर्सनल काम भी देखता था
और एक बहुत ही भरोसेमंद आदमी था।
जब वे हॉल के अंदर आते हैं,
तो उन्हें किचन के अंदर से कोई आवाज़ सुनाई देती है।
"अंकल, ज़रा धीरे... लगता है कोई किचन में है।
हम उसे डरा सकते हैं,"
आरव ने शरारत के साथ कहा।
बच्चे ने देखा कि सानवी फ्रिज से कुछ निकाल रही है।
वह पीछे आकर उसके कंधे पर हाथ रखकर उसे डरा देता है।
एकदम डर के उछल जाती है,
क्योंकि उसके हिसाब से तो वह वहाँ अकेली थी।
"आप लोग कौन हैं?"
वह अपनी सांस ठीक करते हुए पूछती है।
राम ने जवाब दिया,
"ये जय राजवंश साहब की बहन का बेटा है।
इसका कोई टॉय हॉल में रह गया था,
तो इसे वही लेने आना पड़ा।
और मैं राम हूँ।
मैं आर्यन राजवंश सब के लिए काम करता हूँ।
उनके लिए ड्राइविंग भी करता हूँ,
घर का भी काम देख लेता हूँ,
और जब ऑफिस में ज़रूरत होती है,
तो वहाँ भी काम करता हूँ।"
राम ने अपना पूरा परिचय दे दिया था।
तभी जय मासूमियत से बोला,
"क्या आप मेरा टॉय ला देंगे?
वो हॉल में रह गया था।"
नहीं," सानवी ने जवाब दिया।
"मुझे किचन सिर्फ किचन में ही आना अलाउड है।
मैं घर में और नहीं घूम सकती।"
"दीदी, आपको अगर वॉशरूम जाना हो
तो जाने से कोई नहीं रोकेगा।"
सानवी को समझ आ गया
कि वह उससे बातों में नहीं जीत सकती।
प्लीज़ बेटा, तुम खुद ही ले आओ।"
उसे को पता था
कि वह घर में कहीं और नहीं जा सकती।
"चलो बेटा, हम ही ले लेते हैं,"
राम ने कहा।
"अपना खिलौना लो और चलो।"
"ये आदमी है! मैंने तो उसी के लिए नोट छोड़ा था,"
यह भी उसे बुरा लगा।
वह किचन में आई,
उसका रखा हुआ काउंटर का सामान वहाँ पर नहीं था।
जैसे ही उसने फ़्रिज खोला,
वही सामान फ़्रिज में पड़ा हुआ था।
"हे भगवान! इसको फ़्रिज में कौन रखता है?"
तभी एक बच्चा हॉल के अंदर एंटर करता है।
वह ड्राइवर राम के साथ था।
राम आर्यन का ही नहीं बल्कि उसकी पूरी फैमिली के काफ़ी नज़दीक था।
वह ड्राइविंग के साथ-साथ घर के पर्सनल काम भी देखता था
और एक बहुत ही भरोसेमंद आदमी था।
जब वे हॉल के अंदर आते हैं,
तो उन्हें किचन के अंदर से कोई आवाज़ सुनाई देती है।
"अंकल, ज़रा धीरे... लगता है कोई किचन में है।
हम उसे डरा सकते हैं,"
आरव ने शरारत के साथ कहा।
बच्चे ने देखा कि सानवी फ्रिज से कुछ निकाल रही है।
वह पीछे आकर उसके कंधे पर हाथ रखकर उसे डरा देता है।
वो एकदम डर के उछल जाती है,
क्योंकि उसके हिसाब से तो वह वहाँ अकेली थी।
"आप लोग कौन हैं?"
वह अपनी सांस ठीक करते हुए पूछती है।
राम ने जवाब दिया,
"ये जय राजवंश साहब की बहन का बेटा है।
इसका कोई टॉय हॉल में रह गया था,
तो इसे वही लेने आना पड़ा।
और मैं राम हूँ।
मैं आर्यन राजवंश सब के लिए काम करता हूँ।
उनके लिए ड्राइविंग भी करता हूँ,
घर का भी काम देख लेता हूँ,
और जब ऑफिस में ज़रूरत होती है,
तो वहाँ भी काम करता हूँ।"
राम ने अपना पूरा परिचय दे दिया था।
तभी जय मासूमियत से बोला,
"क्या आप मेरा टॉय ला देंगे?
वो हॉल में रह गया था।"
"नहीं," सानवी ने जवाब दिया।
"मुझे किचन सिर्फ किचन में ही आना अलाउड है।
मैं घर में और नहीं घूम सकती।"
"दीदी, आपको अगर वॉशरूम जाना हो
तो जाने से कोई नहीं रोकेगा।"
सानवी को समझ आ गया
कि वह उससे बातों में नहीं जीत सकती।
"प्लीज़ बेटा, तुम खुद ही ले आओ।"
उसे को पता था
कि वह घर में कहीं और नहीं जा सकती।
"चलो बेटा, हम ही ले लेते हैं,"
राम ने कहा।
"अपना खिलौना लो और चलो।"
"अब मैं जहां आया हूँ,
तो कुछ गेम्स भी खेल लेता हूँ,"
जय ने शरारती अंदाज़ में कहा।
उसे सानवी अच्छी लगी थी,
इसलिए उसने कहा,
"दीदी, अगर आप चाहें
तो मेरे साथ खेल सकती हैं।
मेरा मन हो रहा है
आपके साथ खेलने का।"
वो मुस्कुराई,
"मैं ज़रूर चलती तुम्हारे साथ खेलने,
मगर मेरा काम कौन करेगा?
मुझे डिनर बनाना है।
तुम आराम से अंकल के साथ जाओ।"
---
उधर ऑफिस में मीटिंग चल रही थी।
मीटिंग में आर्यन राजवंश के अलावा
उसकी बहन अनन्या राठौर,
उसका बहनोई जगत राठौर,
और आर्यन का बिज़नेस पार्टनर व दोस्त
शिव मेहता भी थे।
मीटिंग में बात करते हुए
जगत राठौर ने कहा,
"तुम्हारा प्लान हमेशा बहुत अच्छा होता है।
जैसा तुम सोचते हो,
वैसा कर देते हो।"
आर्यन ने मुस्कुराते हुए कहा,
"और तुम्हें कैसा लगता है?"
आर्यन ने अपनी बहन से पूछा।
अनन्या ने जवाब दिया,
"मैं भी सहमत हूँ तुम्हारी बात से।"
"डील तो फ़ाइनल है। इसकी पूरी बात से हम सभी सहमत हैं। मगर एक और प्रॉब्लम है,"अनन्या ने कहा।
वो अपनी जगह से खड़ी हुई और जहाँ पर आर्यन बैठा हुआ था वहाँ जाकर उसके गले में बाँहें डाल दीं।
"दीदी, क्या प्रॉब्लम है?" आर्यन ने पूछा।
अनन्या ने जगत की तरफ देखा और फिर शिव मेहता की तरफ।
"संडे को हम लोग ब्रेकफ़ास्ट पर मॉम के यहाँ इकट्ठा हो रहे हैं। मॉम कितने दिनों से हम सबको बुला रही है। मेरे पास भी उनका फ़ोन आया था," अनन्या ने कहा।
शिव ने कहा,
"आंटी ग़ुस्सा हो रही थीं। अगर नहीं आना, तो साफ-साफ कह दो कि तुम नहीं आ रहे।"
अनन्याने आर्यन से कहा,
"मैं मॉम से कह दूँगी, ठीक है? संडे को लंच हम लोग वहीं करेंगे।"
"ठीक है," आर्यन राजवंश ने कहा।
असल में, आर्यन इतना बिज़ी रहता था कि उसे पर्सनल लाइफ़ के लिए टाइम ही नहीं था।
उसकी मॉम, जो एक अलग घर में रहती थीं, कितने दिनों से उसे बुला रही थीं।
"बहुत अच्छा, भाई!"अनन्या ने खुशी से कहा।
"अब तुम लोग अपना प्लान आगे बढ़ाओ। मैं यहाँ से जा रही हूँ," कहते हुए आर्या वहाँ से खड़ी हो गई।
आप सिर्फ़ वहाँ पर आ रहे हैं ही रह गए थे।
---
"दीदी, मुझे जूस चाहिए!"
हॉल में बैठे हुए जय ने ज़ोर से सानवी को आवाज़ लगाई।
सानवी जो काम कर रही थी, उसने अपना काम छोड़ते हुए कहा,
"आ रही हूँ!"
वह आर्यन के लिए जूस लेकर जाती है।
जैसे ही वह जय के पास जूस लेकर आती है,
वह देखती है कि वहाँ पड़े हुए सोफ़े के कुशन नीचे गिरे हुए हैं,
और वहाँ टॉयज़ बिखरे हुए थे।
"अगर तुम्हारे मामा ने देख लिया तो मुझे ही नौकरी से निकाल देगा!
चलो, पहले हम ये ठीक करते हैं।"
"ठीक है, दीदी,"
वह अपनी गेम छोड़कर उठ गया।
दोनों मिलकर लिविंग रूम के सोफ़े के कुशन सब ठीक करते हैं।
टॉयज़ एक साइड पर रख देते हैं।
"कुछ खाओगे तुम?"
उसके बाद शिवानी ने पूछा।
"नहीं दीदी, मुझे घर जाना है।
मॉम घर आती होगी, उससे पहले मुझे घर पहुँचना है।"
"तो क्या तुम मॉम से पूछ कर नहीं आए थे?"
"नहीं, वहाँ पर मेरा कंप्यूटर खराब हो गया था।
मैं गेम नहीं खेल सकता था, इसलिए यहाँ चला आया,"
उसने मुस्कुराकर कहा—शरारती बच्चा।
हँसते हुए शिवानी ने उसका चेहरा चूम लिया।
इन थोड़े ही पलों में दोनों में बहुत अच्छी बॉन्डिंग हो गई थी।
जय राम के साथ घर चला गया था।
---
सानवी ने अपना खाना बनाया।
और नोट तो उसने आज भी छोड़ा था—
"इस डिश में जो सूप डालना है, वह मैंने बनाकर फ़्रिज में रखी है।
खाते समय निकाल लीजिए।"
उसने माइक्रोवेव पर चिपकाया और चली गई।
शाम को आर्यन घर वापस आया।
हमेशा की तरह फ़्रेश होकर चेंज करके वह किचन में पहुँचा।
वह अपने लिए ब्लैक कॉफ़ी बनाना चाहता था।
काउंटर पर वही सामान की बोतलें, इंग्लिश में लिखे लेबल के साथ,
सब सामान पड़ा था—और साथ ही नोट, जो माइक्रोवेव पर चिपका हुआ था।
उसने यह सब देखकर ठंडी साँस ली और उसे ग़ुस्सा भी आया।
उसने वह नोट निकाला और डस्टबिन में फेंक दिया।
फिर उसने अपनी ब्लैक कॉफ़ी बनाई।
डिनर के वक़्त जब उसने खाना खाया,
तो उसे खाना खाकर बहुत अच्छा लगा।
उसने काउंटर पर रखा हुआ सारा सामान हटाया,
फिर खाना खाया।
उसका जो ग़ुस्सा था—
कि काउंटर पर सामान क्यों है? नोट क्यों छोड़ा?—
वह भी ग़ायब हो गया था।
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अगले दिन जब सानवी आई,
तो काउंटर बिल्कुल क्लीन था।
उस पर एक भी चीज़ नहीं थी।
"हे भगवान! मैं इस आदमी का क्या करूँ?
कोई भी मेरा रखा सामान क्यों नहीं छोड़ता!"
उस को ग़ुस्सा आया।
मगर वो जानती थी
कि उसे इसकी आदत डाल लेनी चाहिए।
ऐसे ही काम चलने लगा था।
वो खाना बनाती, और नोट ज़रूर चिपकाती।
जब आर्यन आता—उसे फेंक देता।
अब तो वह उसका नोट पढ़कर मुस्कुराने भी लगा था।
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जब सानवी कोई नई डिशट्राई करती,
तो नोट चिपका कर जाती थी—
"मैंने फ्रेश बनाया है।
जो आप बाज़ार से लेकर आए हैं,
उसे भी बहुत टेस्टी बनाया है।
खा कर देखिए और कभी कहती मैं काउंटर पर जो दही जमाया है ।
उसे बिल्कुल भी नहीं छेड़ना, वरना दही नहीं जमेगा।"
आर्यन उस स्लिप को पढ़ता,
फिर डस्टबिन में फेंक देता,
और उसकी बनाई हुई रेसिपी ट्राई करता।
मगर अब आर्यन की सबसे बड़ी प्रॉब्लम यह हो गई थी
कि उसे काउंटर की सफ़ाई पसंद नहीं थी।
फ्रिज में भी उसका डाला हुआ सामान बिखरा रहता था।
तो अब आर्यन राजवंश भी नोट छोड़ने लगा—
"फ्रिज को साफ़ रखो
और काउंटर को भी।"
जैसे ही सानवी को यह नोट पड़ा,
उसके चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई।
"लगता है इस भी मुझ पर असर होने लगा है,"
उसने सोचा।
शिवानी की नज़र में
आर्यन राजवंश एक बुजुर्ग,
एक बड़ी उम्र का आदमी था।
और ऐसे ही आर्यन की नज़र में
शिवानी कोई बड़ी उम्र की औरत थी,
जो उसके घर में कुक का काम करती थी।
इसी तरह दिना बीतने लगे थे।
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कबीर को दिल्ली गए हुए एक हफ़्ता हो चुका था। असल में वह किसी के साथ पार्टनरशिप के बारे में सोच रहा था और दिल्ली में उसी सिलसिले में किसी से बात करनी थी। इसके अलावा उसका राजनीतिक गलियारों में भी कुछ काम था। वह गुस्से में घर से निकला था और जाते समय उसने किसी को फोन नहीं किया।
घर से उसकी अम्मी उसे बार-बार फोन करती रहीं, लेकिन कबीर ने किसी से ज़्यादा बात नहीं की।
जब एक हफ़्ते बाद कबीर घर लौटा, तो बहुत कुछ बदल चुका था। उसकी सोच से कहीं बड़े फैसले हो चुके थे। शायद कुछ बातों का उसे पहले ही अंदाज़ा था, क्योंकि घर का बिज़नेस और फैक्ट्रियों का बंटवारा होने वाला था। उनकी बाकी की प्रॉपर्टी का भी हिसाब-किताब तय किया जा रहा था। सबसे बड़ी बात कबीर और हिना की सगाई के साथ दोनों का निकाह भी होना था।
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जब एक हफ़्ते बाद कबीर घर लौटा, तो बहुत कुछ बदल चुका था। उसकी सोच से कहीं बड़े फैसले हो चुके थे। शायद कुछ बातों का उसे पहले ही अंदाज़ा था, क्योंकि घर का बिज़नेस और फैक्ट्रियों का बंटवारा होने वाला था। उनकी बाकी की प्रॉपर्टी का भी हिसाब-किताब तय किया जा रहा था। सबसे बड़ी बात कबीर और हिना की सगाई के साथ दोनों का निकाह भी होना था।
कबीर एक हफ्ते के बाद घर पहुँचा। शाम ढल चुकी थी। गौतम उसे मुख्य गेट तक छोड़कर चला गया। बिज़नेस की उलझनों से घिरा, वह सीधे अंदर बढ़ा। जिस काम के लिए वह बाहर गया था—एक दिल्ली के बिजनेसमैन के साथ होटल पार्टनरशिप—वह बीच में अटका पड़ा था; न पूरी हाँ हुई थी, न साफ़ इनकार।
घर के बड़े हाल में कदम रखते ही वह ठिठक गया। पूरी फैमिली वहाँ इकट्ठी थी! आम तौर पर इस समय घर के मर्द काम पर बाहर होते हैं और देर शाम लौटते हैं, मगर आज सब मौजूद थे—अब्बा अहमद मिर्ज़ा, दोनों चाचा जान, अम्मी, दोनों चचियाँ, शाहरुख, तैमूर, सबीहा, कहकशा, हिना, हवा… सब।
“लो, भाईजान आ गए!” शाहरूख ने मुस्कराकर कहा।
कबीर ने हल्का सा सलाम किया। दादा जान ने पास की सोफ़ा-सीट थपथपाई। “आओ, बैठो।”
कबीर बैठा तो धीमे से बोला, “आज सब लोग काम पर नहीं गए? कुछ हुआ क्या?… कहीं बँटवारे का प्रोग्राम कैंसल तो नहीं हो गया?”
सईद चाचा ने कहा, “काम पर गए थे, बेटा… लेकिन तैयारी भी करनी है। तीन-तीन दिन में शादियाँ हैं घर में!”
कबीर हँस पड़ा। “तीन नहीं—दो ही तो हैं! शाहरूख और मेहरुन्निसा… हमारी तो बस सगाई है।” उसने हिना की तरफ देखा। लड़की ने सिर झुका रखा था।
तैमूर ने मुस्कुराकर कहा, “यही तो सरप्राइज़ है आपके लिए!”
“सरप्राइज़? क्या मतलब?”
“मतलब ये कि—शाहरूख भाई और मेहरुन्निसा भाभी की शादी पक्की। अहमर और कहकशा आपा का निकाह। और…” उसने नाटकीय विराम लिया, “आपका और हिना का निकाह भी साथ में!”
कबीर का चेहरा सख़्त हो गया। एक ही साथ इतने फैसले?
“कहकशा का निकाह… अहमर के साथ?!” (उसे यक़ीन न हुआ—उसने सईद चाचा की ओर देखा।)
सईद बोले, “देखो कबीर, बुरा मत मानना। तुमने साबिहा के लिए पहले मना कर दिया था, तो तो यह रिश्ता कहकशां के लिए आ गया… और घर-बार बहुत अच्छा है। मैंने हाँ कह दी।”
“लेकिन उसकी पढ़ाई?” कबीर ने टोका।
“अरे, अपनी पढ़ाई की चिंता तुम बाद में करना,” किसी ने बात बदल दी।
मगर मुझे अभी निकाह नहीं करना, मैंने टाइम मांगा था आपसे। कबीर ने थोड़े गुस्से से कहा
कबीर ने अब्बा की ओर देखा। अहमद मिर्ज़ा ने नज़र से ही समझा दिया—मान लो।
दादा जान ने नरमी से कहा, “बेटा, तुम घर के सबसे बड़े हो, और हिना सबसे बड़ी बेटी। जब तक तुम दोनों का निकाह नहीं होगा, छोटों का कैसे करेंगे? रुख़सती बाद में रखना—तुम्हारी मर्ज़ी। लेकिन निकाह ज़रूरी है।”
कबीर ने लगभग फुसफुसाकर कहा, “मुझे थोड़ा टाइम चाहिए था…”
पर वह जानता था—इतने लोगों के बीच उसकी बात नहीं चलेगी। अब्बा की आँखों के इशारे ने फैसला पक्का कर दिया।
“ठीक है,” वह उठते हुए बोला, “आप लोग जैसा सही समझें। मैं बहुत थक गया हूँ… ज़रा फ्रेश हो लूँ?” और वह हाल से बाहर चला गया।
सिर्फ एक हफ़्ता बचा था सगाई और निकाह में। उधर बिज़नेस डील अटकी हुई। अपनी शादी वह दो साल बाद करना चाहता था, और यहाँ सब कुछ तुरंत!
एक दिन सानवी जब खाना बनाने के लिए घर आई,
तो देव साहब परेशानी में इधर-उधर घूम रहे थे।
उसने सानवी को देखा।
"सानवी, तुम्हारी नज़र में कोई ऐसी औरत होगी
जो घर की अच्छे से डस्टिंग कर सके
और कोई चोरी भी ना करती हो
और सामान इधर-उधर रखने की ज़रूरत भी न पड़े?"
"क्यों? जो शिवानी काम करती थी उसका क्या हुआ?"
"उसे मैंने निकाल दिया,"
देव ने ठंडी सांस लेते हुए कहा।
थोड़ा सोचने के बाद सानवी बोली,
"हाँ, है एक।"
"तो उसे बुला लो। मैं उससे बात करता हूँ,"
देव ने कहा।
"मैं हूँ ना, ,"
सानवी ने कहा।
"देखो, मैं खाना बनाने तो आती ही हूँ,
डस्टिंग भी कर दिया करूँगी।
आपका घर इतना बड़ा भी नहीं है।
मुझे कोई प्रॉब्लम नहीं है।"
"असल में, सानवी को पैसों की बहुत ज़रूरत थी।
उसकी छोटी बहन कृति के लिए भी उसे पैसे चाहिए थे।
और फिर मकान का किराया और सारे खर्चे..."
देव ने कुछ पल सोचकर कहा,
"पक्का कर लोगी ना?"
,
वो कितने दिनों से टिकी हुई थी।
वरना सब लोग काम छोड़कर जल्दी भाग जाते थे।
और आर्यन ने उसे खुद भी नहीं निकाला था।"देव ने सोचा।
देव से बात करने के बाद सानवी किचन में पहुँचती है।
उसे एक नोट मिलता है, जिस पर लिखा हुआ था—
"आज मैं रात को खाना घर पर नहीं खाऊँगा, तो खाना मत बनाना।"
स्लिप पढ़कर वह खुश हो जाती है।
क्या आज उसकी छुट्टी है?
"क्या बात है, आज तुम जल्दी घर आ गई?" रिया ने सानवी को घर पर देखा तो हैरानी से पूछा।
"आज खाना बनाने से छुट्टी मिल गई क्या?"
सानवी ने हल्की सी मुस्कान दी और बोली, "नहीं, जब मैं वहाँ गई तो उन्होंने मना कर दिया।"
"तो आज तुम फ्री हो?" रिया ने पूछा।
"नहीं," सानवी ने सिर हिलाया, "क्यों, क्या हुआ?"
रिया पास आ गईं और सानवी से बोलीं, "एजेंसी से कॉल आई थी। आज शाम को एक बड़ी पार्टी है। उन्हें कुछ काम करने वाले लोगों की ज़रूरत है। कुछ लोग मना कर चुके हैं, तो तुम चलोगी हमारे साथ?"
सानवी थोड़ी असमंजस में बोली, "मगर मैं तो बहुत थकी हुई हूँ। पहले वहाँ गई थी, फिर वापस आई। अब मैं रेस्ट करना चाहती हूँ।"
"थका देने वाली बात नहीं है," रिया ने उसे समझाते हुए कहा, "बहुत बड़े लोगों की पार्टी है। अच्छे पैसे मिलने वाले हैं। हमारे खर्च भी निकल आएँगे।"
"चलो ना, थोड़े घंटो का तो काम है।"
रिया ने मुस्कुराते हुए कहा, "तुम बस तैयार हो जाओ।"
"देखो ना, तुम्हारे फ़ोन की कंडीशन क्या हो गई है! बात करते-करते बंद हो जाता है," रिया ने झुंझलाकर कहा।
फिर उसने गहरी साँस लेकर जोड़ दिया, "हमारी ज़िंदगी में कितने मसले हैं… सब पैसों की वजह से अटके पड़े हैं।"
रिया की यह बात सच थी। वो लड़कियाँ तंगी से गुज़र रही थीं, लेकिन हार मानना उनमें से किसी को नहीं आता था। पढ़ाई, छोटे-मोटे जॉब्स, और सपनों को पकड़े रहना—यही उनका रोज़ का संघर्ष था, अपने कल को बेहतर बनाने की कोशिश में।
"ठीक है यार, क्यों दुखी बातें करती हो? चलो, चलते हैं," सानवी ने माहौल हल्का करने की कोशिश की।
आख़िरकार, बहुत मनाने के बाद वो भी जाने के लिए तैयार हो गई।
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"हम कृति को भी साथ ले लेते हैं? उन्हें तीन लोग चाहिए," रिया ने सुझाव दिया।
"कोई फायदा नहीं," सानवी ने सिर हिलाया। "तुम जानती हो वो नहीं जाएगी। हम दोनों ही चलें—काम हो जाएगा।"
दोनों उस जगह पहुँचीं जहाँ शाम की बड़ी पार्टी थी—एक आलीशान फार्महाउस जैसा वेन्यू, रोशनी से जगमगाता हुआ। गाड़ियों की लंबी कतार, बाहर स्टाफ की भागदौड़, और अंदर से आती हल्की म्यूज़िक की धुन।
"लगता है हम लेट हो गए," रिया ने घड़ी देख कर कहा।
"कहीं इन्होंने हमें अंदर ही न घुसने दिया तो?" संवि को हल्की चिन्ता हुई।
"आराम से! चलो आगे," रिया बोली।
रास्ते में सानवी ने चुटकी ली, "तुम तैयार होने में इतना टाइम क्यों लगाती हो?"
रिया हँसी, "हाँ मानती हूँ, पर क्या ऐसे ही उठकर आ जाती? थोड़ी तो शक्ल बनानी पड़ती है!"
उसी वक़्त रिया का फ़ोन बज उठा। उसने स्क्रीन देखी और कहा, "तुम लोग अंदर जाओ, मैं आ रही हूँ।"
सानवी भीतर चली गई। रिया थोड़ी दूर हटकर कॉल पर बात करने लगी—एजेंसी वाले थे, आख़िरी मिनट की ड्यूटी डिटेल्स कन्फ़र्म कर रहे थे।
कॉल खत्म करते ही रिया तेज़ी से ग्लास वाले एंट्रेंस की ओर बढ़ी। उसने हड़बड़ी में दरवाज़ा धक्का देकर खोला—उसी पल अंदर से कोई बाहर आ रहा
रिया हल्का सा पीछे लड़खड़ा गई। सामने एक लंबा, व्यवस्थित सूट पहने लड़का—शिव मेहता—जो अभी-अभी हॉल से बाहर निकल रहा था।
"सॉरी!" रिया ने तुरंत कहा।
"नो, आय एम सॉरी," शिव मेहता ने विनम्रता से जवाब दिया, फिर मुस्कुराकर बोला, "आप ठीक हैं?"
रिया की धड़कन अभी भी तेज़ थी—शायद टक्कर से ज़्यादा उसकी हड़बड़ी और घबराहट की वजह से। अंदर पार्टी चल रही थी; बाहर उसकी शिफ़्ट शुरू होने वाली थी; और सामने खड़ा था कोई ऐसा इंसान जिसे वह अभी तक जानती नहीं थी—लेकिन शायद यह मुलाक़ात यूँ ही अनदेखी होकर नहीं जाएगी।
रिया जल्दी से अंदर चली गई, मगर शिव मेहता की नज़रें उसी पर ठहरी रह गईं। वह कुछ देर वहीं खड़ा रहा, जैसे उस खूबसूरत सी लड़की की झलक उसके दिल में कोई हलचल पैदा कर गई हो।
"कौन है ये?" उसके मन में सवाल आया।
वो जींस और शर्ट में थी, और किसी भी तरह से वेट्रेस नहीं लग रही थी। शिव हल्की मुस्कान के साथ सोचता हुआ वहाँ से बाहर चला गया।
यह पार्टी एक आलीशान होटल में, समंदर के किनारे ओपन-एरिया में आयोजित थी। चारों ओर शानदार डेकोरेशन, क्रिस्टल जैसी जगमगाती लाइट्स, और महंगे परिधानों में सजे लोग।
टेबल्स खुले आसमान के नीचे सजे थे, और हवा में महंगे इत्र की खुशबू के साथ समंदर की नमकीन ठंडक थी।
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पाठकों से गुज़ारिश
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