एक अनजाना सफर और एक नया सफर.. जिसमें चल पड़ती हैं राधा .. राधा जिसकी उम्र 26 साल की हैं.., वे अपनी सौतेली मां के कहने पर एक अनजान सख्श से जबरदस्ती कर देती हैं शादी .. लेकिन उसी मंडप में वे कुछ ..,ऐसा होता हैं कि राधा को अपने भविष्य देखते हुए चिंता हो... एक अनजाना सफर और एक नया सफर.. जिसमें चल पड़ती हैं राधा .. राधा जिसकी उम्र 26 साल की हैं.., वे अपनी सौतेली मां के कहने पर एक अनजान सख्श से जबरदस्ती कर देती हैं शादी .. लेकिन उसी मंडप में वे कुछ ..,ऐसा होता हैं कि राधा को अपने भविष्य देखते हुए चिंता होने लगती है ..... । । एक नया शहर एक नई जगह .. जिसमें रहते हैं एक राजकुमार यानी कि राजघराने का एक लौटा राजकुमार केशवराज सिंह .. केशव को राधा ने पहली बार शादी के बाद देखा था .. लेकिन एक दिन राधा को केशव के बारे में ऐसा कुछ पता चलता हैं जो उसकी जिंदगी के लिए हार्मफुल हैं...
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|जय द्वारकाधीश|| जय श्री कृष्ण|| श्री गणेशाय नमः||
||ॐ नमः शिवाय|| जय श्री राम||
हर बंधन में तुम्हारा साथ चाहती हु ..
तुम्हे अपना बनाकर रखना चाहती हु ..
जिस बंधन की कल्पना नहीं की, ..
उसी बंधन से तुम्हे पाना चाहती हु ......
में सिर्फ तुम्हारी होना चाहती हु ...
सिर्फ तुम्हारी....
रात के १० बजे ..
ऋषिकेश...
ऋषिकेश एक ऐसा शहर जहां पर लोगों को आते ही शांति मिलती है .. जहां पर भगवान जी के होने का अहसास मिलता है ... जहां पर मंदिर के घंटियां सुनाई देती है .. लेकिन आज उसी पवित्र स्थान पर ... किसी के घर में उदासी छाई हुई है ,।।।।।।।
एक लड़की शादी का लाल जोड़ा पहनकर आईने के सामने बैठी हुई थी ...
. जिसकी आंखों में शादी की खुशी की बजाए आंखों में आसू थे .... उसका नाम राधा है .. राधा जो २६ साल की है .. दिखने में बेहद ही सिंपल लेकिन दिमाग से इंटेलीजेंस... लेकिन आज उसी लड़की के आंखों में आसू की धारा बह रही थी .....
तभी दरवाजा खुलता है ... ओर पीछे से उसके पापा अंडर आते हुए कहते है : बेटा ये क्या?? तुम्हारी आंखों में आसू??
ये सुनकर राधा अपनी पलकों से बह रहे आसू को साफ कर देती है .. ओर हस्ते हुए कहती है: नहीं पापा ये तो मेरी शादी होने वाली हैं और आप सब से बेहद ही दूर जाने वाली हु इसलिए मुझे रोना आ गया ....
राधा के पिता जी हरिकृष्ण जी उसके सिर पर हाथ रखते हुए कहते है: बेटा हमे पता हैं आप इस रिश्ते से खुश नहीं हैं.. .. में अभी भी आप को कह रहा हु .. अगर आप को ये शादी नहीं करनी हैं तो आप मत करिए ... हम आपकी जिंदगी ऐसे बर्बाद होते हुए नहीं देख सकते ....
राधा मुड़ते हुए अपने पापा के गले लग जाती है .. ओर रोते हुए कहती है: पापा मुझे सच में शादी नहीं करनी है .... लेकिन उसके अलावा कोई रास्ता भी नहीं है .. मुझे ये कदम उठाना ही पड़ेगा ....
हरिकृष्ण जी राधा के सामने देखते हुए कहते है: लेकिन बेटा तुमने अपने होने वाले पति को देखा भी नहीं है ... तो फिर तुम ....
राधा अपने पापा को चुप करते हुए कहती है: पापा आप फिकर मत करिए .. में सब कुछ संभाल लूंगी ...
इतना कहते हुए राधा अपने आप में कॉन्फिडेंस लाते हुए कहती है: पापा आप मेरी फिकर मत करिए बस आप अपना ख्याल रखना ......
दोनो बाप बेटी आपस में बात कर ही रहे थे .. तभी दरवाजा खुलने की आवाज सुनाई देती है .. ओर बाप बेटी को इमोशनल होते हुए देख सामने खड़ी राधा की सौतेली मां.. ताना मारते हुए कहती है: आप यह पर क्या कर रहे हो??? आप को दिखाई नहीं देता आज हमारी बेटी की शादी है .. उर्मिला जी अंडर आते हुए कहती है।।।।
उर्मिला जी को देख कर दोनों के चेहरे का रंग उद जाता है .. ओर हरिकृष्ण जी मुंह बनाते हुए कहते है: मेरी बेटी की हालत तुम्हारे वजह से ही खराब हो रही है .. तुमने मेरी बेटी के ऊपर दबाव किया हैं शादी करने के लिए ......
उर्मिला जी शरारत भरी हंसी हस्ते हुए कहती है: उसमें बड़ी बात क्या हो गई ??? वे हमारी सगी बेटी .. निहारिका के लिए रिश्ता लाए थे लेकिन मैने अपना दिल बड़ा रख कर इसे बिठा दिया मंडप पर ...
हरिकृष्ण जी उसे घूरते हुए कहते है: ये मेरी बेटी है ... मेरी सगी बेटी .... ओर हा.. तुम्हे निहारिका के बजाय राधा को क्यों बिठाया हैं मंडप पर में जानता हूं।।। इतना कह कर वे गुस्से चले जाते है ....
उनके जाने के बाद उर्मिला राधा की बालाएं लेते हुए कहती है: कितनी प्यारी लग रही है ... अभी तो तूने इतने ही आसू बहाए है .. ओर आगे जब बहाएगी तो कितनी प्यारी लगेगी ......
इतना कह कर वे भी वह से चली जाति है ... उन दोनो के जाने के बाद .. राधा कमरे की खिड़की से चमकते हुए तारे की ओर देख कर कहती है: मां कास आप जिंदा होती .. तो आज मेरी ये हालत ना हुई होती ... हर लड़की अपने शादी के दिन खुश होती है .. लेकिन में आज अपनी ही शादी के दिन दुखी हु ..... मुझे ये भी नहीं पता मेरी शादी किस्से होने वाली है ... बस वे एक रॉयल फैमिली से नाता रखता है.... इतना ही पता है ......
राधा ये सब सोच ही रही थी .. तभी निहारिका अंडर आते हुए कहती है: राधा ... राधा .. चल बारात आ गई ..
राधा ये सुनकर निहारिका की ओर मूड जाती है .... निहारिका जो दिखने में राधा से थोड़ी सुंदर है .. लेकिन इस सुंदरता का राज शायद उसके मुंह पर लगाया गया मेक अप है .. .. अपने चेहरे के सुंदर होने की वजह से वे अपने आप में बेहद ही घमंड वाली ... ओर अपने सामने सब को खुद को सब से ऊंचा मान। ने वाली .....
निहारिका की आंखों में एक अलग ही खुशी थी.. एक ऐसी खुशी जिसका वे सदियों से इंतेज़ार कर रही हो ... .. निहारिका अपने ही मन ही मन में बोलते हुए कहती हैं: इतने साल बाद मेरा एक ख्वाब पूरा होने वाला है .. तुम्हे इस घर से भागने वाला ख्वाब..... अब ये घर मेरा ओर मेरी मम्मी का होकर ही रहेगा ......... इतना सोचते हुए वे राधा की ओर देखने लगती है...
राधा उसे इशारा करते हुए कहती है: कहो क्या है ???
निहारिका हस्ते हुए कहती है: चलो तुम्हारा बुरा वक्त तुम्हे बुला रहा है ...... मेरा मतलब हैं कि तुम्हे सब नीचे बुला रहे है ... इतना कह कर वे राधा को पकड़ने की कोशिश करती है। लेकिन राधा अपने आप को छुड़ाते कहती है: ये तुम्हारा बहन वाला नाटक बंध करो ... में खुद से चल लूंगी ... इतना कह कर वे आगे चलने लगती है ..
निहारिका उसे जाते हुए देख कर कहती है: जैसी तुम्हारी इच्छा ...
राधा नीचे लाल लहंगे में उतर रही थी ..उसने अपने मुंह को घूंघट से लगाए रखा था ..
. वे सीढ़ियों से नीचे उतरकर आ रही थी .. ओर मंडप में सजी हुई चोली को देख कर उसके आंखों से लगातार आसू बहे जा रहे थे ....
राधा देखती हैं कि उसके सामने चोली में शहरा पहनकर रेड कलर की शेरवानी में कोई बैठा हुआ है ..जिसकी उम्र का अंदाजा उसे खुद नहीं था ... राधा उसके बाजू में बैठ जाति है ... ओर पंडित जी शादी के मंत्रों को बोलना शुरु कर देते है ......
जैसे ही पंडित जी के कहने पर राधा अपने हाथ को सामने वाले के हाथ पर रख देती है .. लेकिन आंखों से निकला हुआ आसू उस आदमी के हाथ पर गिर जाता है....
To be continued 💫 🦋 💙
शादी की रस्में अपने अंतिम चरण में थीं।
चारों ओर शहनाइयों की गूंज थी, पंडित की मंत्रों की आवाज़ बीच-बीच में हवा को चीर रही थी, और मेहमानों के चेहरों पर रस्मों की खुशी झलक रही थी।
लेकिन…
हर कोई खुश नहीं था।
जहाँ निहारिका और उर्मिला की आँखों में भावी सफल योजना की चमक थी, वहीं दूसरी ओर राधा के पिता हरिकृष्ण जी की आँखें नम थीं। उन आंसुओं में एक ऐसी पीड़ा थी, जिसे शब्दों में बयां करना मुश्किल था। ये सिर्फ बेटी की विदाई के आँसू नहीं थे, ये कुछ और गहरे थे… जैसे कोई छाया हो जो आने वाले तूफान का संकेत दे रही हो।
राधा की आँखें भी भीगी थीं… लेकिन उसके आँसू भावनाओं से ज़्यादा, डर और टूटन के थे।
अब सिर्फ मंगलसूत्र और सिंदूर की रस्म बाकी थी।
जैसे ही दूल्हा आगे बढ़ा और राधा के गले में मंगलसूत्र पहनाने के लिए हाथ बढ़ाया — राधा को उसके स्पर्श ने झकझोर दिया।
उस एक छुअन से उसके पूरे शरीर में एक सिहरन दौड़ गई… जैसे किसी ने बिजली का झटका दे दिया हो।
और तभी...
उसके कानों में एक गहरी, सर्द आवाज़ पड़ी — इतनी ठंडी कि जैसे आत्मा तक को जमा दे:
"फिक्र मत करो... ये शादी मेरे लिए सिर्फ एक सौदा है। ना तुमसे कोई लगाव है… और ना ही इस रिश्ते से कोई मतलब…"
ये सुनते ही राधा की आँखों से आँसू बहने लगे। अब वो उन्हें रोक नहीं पा रही थी।
उसी क्षण, उसके ज़हन में उर्मिला के कहे शब्द गूंज उठे —
"तुम्हें और भी आँसू बहाने होंगे..."
ये आवाज़ अब उसके दिमाग में गूंजती जा रही थी, जैसे एक शाप जो अभी शुरू ही हुआ हो।
इसी उथल-पुथल के बीच पंडित जी की आवाज़ गूंजी:
"शादी संपन्न हुई। आज से आप दोनों पति-पत्नी कहलाएंगे। यह रिश्ता सिर्फ इस जन्म का नहीं, बल्कि सात जन्मों का बंधन होगा।"
शब्द पवित्र थे… लेकिन राधा के लिए ये एक वज्र की तरह थे।
कुछ देर बाद बिदाई का वक्त आ गया।
राधा अपने पिता हरिकृष्ण के गले लग कर फूट-फूट कर रो पड़ी। वो उनसे अलग नहीं होना चाहती थी… लेकिन अब कोई विकल्प नहीं था।
हरिकृष्ण जी की आंखों से भी आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे।
उर्मिला पास आई, और बनावटी मुस्कान के साथ बोली:
"आप इतना मत रोइए… देखना, हमारी बेटी बहुत खुश रहेगी…"
इसके बाद वो राधा को धीरे से हरिकृष्ण से अलग करते हुए अपने गले से लगाती है… और कान में फुसफुसाती है:
"अपने पापा की फिक्र मत कर… वो ठीक रहेंगे।
अब अपनी चिंता कर… क्योंकि जो आने वाला है, उसके लिए मैंने पहले ही कहा था…
तुम खून के आँसू रोओगी,
और अब उस सफर की शुरुआत हो रही है…"
फिर वह राधा के हाथों को चूमकर पीछे हट जाती है।
राधा अब अंदर से पूरी तरह टूट चुकी थी, लेकिन बाहर कोई आवाज़ नहीं निकाल पा रही थी।
थोड़ी देर बाद, जब विदाई की रस्में खत्म हुईं —
राधा एक बड़ी, काली मर्सिडीज कार के सामने आकर खड़ी हो गई।
कार की चमक और साइज देखकर निहारिका की आंखों में चौंक उठी।
वह अपनी मां उर्मिला के कान में फुसफुसाई:
"मां… कहीं हमने इस गंवार की शादी किसी बहुत अमीर आदमी से तो नहीं कर दी?"
उर्मिला थोड़ी देर कार को गौर से देखती है और फिर संदेह भरे स्वर में बोली:
"कार से कुछ साबित नहीं होता…
सिर्फ सेहरे के पीछे क्या छिपा है, ये देखना ज़रूरी है…
शायद कोई बूढ़ा…
या कोई अधेड़ उम्र का आदमी…"
यह सुनते ही निहारिका के चेहरे पर एक तृप्त मुस्कान फैल गई।
उसे अपने षड्यंत्र की जीत दिखाई देने लगी थी।
पर किसी को ये नहीं पता था कि राधा की जिंदगी अब एक ऐसे रास्ते पर बढ़ चली थी…
जहाँ हर मोड़ पर दर्द था, हर साँस में सवाल…
राधा भारी कदमों से कार के भीतर बैठती है…
उसका चेहरा आँसुओं से भीगा हुआ, आँखें बस एक ही दिशा में टिकी थीं — अपने पापा हरिकृष्ण जी की ओर।
उनकी आँखों में पिता का स्नेह था… वो दर्द जो शब्दों में नहीं कहा जा सकता, और वो दुआएँ जो सिर्फ नज़र से दी जा सकती हैं।
राधा जैसे-जैसे दूर जा रही थी, उसकी नज़रें हर सेकंड अपने पापा को ही खोज रही थीं। मानो वो पल कभी ख़त्म न हो… वो दूरी कभी न बढ़े।
तभी, कार के दूसरे दरवाज़े से एक परछाईं अंदर आई।
एक अजनबी — अब उसका पति — आकर उसके बाजू में बैठ गया।
उसके बैठते ही कार ने तेज़ रफ्तार पकड़ ली।
राधा चौंकी नहीं, कुछ पूछना भी चाहा… लेकिन वो कुछ कह नहीं सकी।
वो बस उस अजनबी की ओर देखती रही — जो शांत था, रहस्यमय था… और पूरी तरह अनजान।
उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं थे, और उसकी मौजूदगी…
जैसे किसी पहाड़ी रात में जमी हुई हवा — ठंडी, रहस्यमय और भारी।
कार आगे बढ़ती रही… लेकिन राधा को ये नहीं पता था कि वो जा कहाँ रही है।
ना वो हवेली जानती थी, ना रास्ता, ना मंज़िल…
वो बस बैठी रही — दिल में डर, मन में अनिश्चितता और आँखों में अधूरी विदाई।
कुछ किलोमीटर आगे जाकर अचानक से कार रुक गई।
वो अजनबी आदमी — बिना राधा की ओर देखे — गहरी, गंभीर आवाज़ में ड्राइवर से बोला:
"इसे हवेली ले जाओ…"
इतना कहकर वो कार से उतर गया, और सामने खड़ी एक दूसरी, और भी लंबी और भव्य कार में जाकर बैठ गया — बिना कुछ कहे, बिना पीछे देखे।
राधा सकते में थी।
क्या सच में ये वही रिश्ता है, जिसके सपने हर लड़की बचपन से देखती है?
क्या ये वही ससुराल है, जहाँ दिल बसते हैं… या फिर वो एक ऐसे अंधेरे की तरफ बढ़ रही है जहाँ रोशनी की कोई उम्मीद नहीं?
उसके भीतर जैसे सब कुछ डूबने लगा।
उसने अपना सिर पीछे टिका लिया और आँखें मूँद लीं।
और उस नींद में भी… बस सवाल थे…
"मैं कहाँ जा रही हूँ?"
"ये मेरा जीवन है… या किसी और की सजाई हुई कैद?"
"क्या मैंने सच में नर्क से ब्याह किया है?"
कार अंधेरे रास्ते से होती हुई हवेली की ओर बढ़ रही थी…
और राधा — उस रास्ते पर नींद और डर के बीच गुम होती जा रही थी।
To be continued 💫 🦋 💙
कहा सफर हैं राधा का ?? ओर क्या सच में उसकी जिंदगी नर्क से भरी है ???
इस कहानी में कमेंट ओर लाइक ( रिव्यू) देना मत भूलना
राधा की आंखों में धीरे-धीरे नींद उतर आई थी... लंबा सफर और मानसिक थकान उसे अपनी बाहों में समेट चुकी थी। लेकिन अब, हल्की-हल्की धूप की किरणें उसकी पलकों से टकरा रही थीं… जैसे कोई उसे नींद से बाहर खींच रहा हो।
उसकी पलकें थरथराईं… और धीरे-धीरे खुल गईं। उसने आंखें मिचमिचाते हुए खिड़की की ओर देखा — और अगले ही पल उसकी आंखें पूरी तरह खुल गईं।
वो दृश्य… वो नज़ारा… उसकी सांसें थमा देने वाला था।
कार एक ऊँचाई पर चल रही थी। चारों ओर ऊँचे-ऊँचे पहाड़ फैले हुए थे… जैसे किसी विशाल चित्रकार ने प्रकृति की सबसे खूबसूरत तस्वीर बना दी हो। ठंडी, सिहरन भरी हवा खिड़की के कांच से भीतर घुस रही थी, जिससे राधा की लटें उसके चेहरे पर उड़ने लगीं। कुछ दूरी पर, प्राचीन किलों की ऊँची दीवारें सूरज की रौशनी में चमक रही थीं — जैसे इतिहास खुद उसकी आंखों के सामने सांस ले रहा हो।
उसके माथे पर बल पड़ गए। ये सब देख कर उसके होंठों से बस एक फुसफुसाहट निकली —
"मैं जा कहां रही हूं?"
कन्फ्यूजन की हालत में उसने तेजी से सामने की सड़क पर नज़र डाली। तभी एक बड़ा-सा साइनबोर्ड उसकी नज़र में आया —
"राजस्थान - 50 KM"
ये पढ़ते ही उसकी आंखें और भी बड़ी हो गईं।
"राजस्थान? क्या मैं राजस्थान जा रही हूं?"
उसने खुद से सवाल किया — जैसे जवाब खुद उसे भी नहीं मालूम।
वो घबराकर अपना फोन ढूंढने लगी… लेकिन अगली ही पल उसे याद आया —
"फोन तो मैं पापा के पास ही भूल गई हूं…"
अब वो चाहकर भी किसी को कुछ बता नहीं सकती थी।
पर कुछ था उस रास्ते में… उन पहाड़ों में… उस बहती हवा में… जिसने उसे पलभर के लिए रोक लिया।
अब उसके पास सिर्फ दो चीजें थीं — ये अनजान सफर और सामने फैला हुआ वो अद्भुत, नजारा...
कुछ देर बाद वो 50 km वाला सफर तय कर लेती है ..ओर एक बड़ी सी हवेली में कार एंटर होती है .....
जो सफेद रंग से पत्थर से बनाई गई थी ..


हवेली हर कोने से बेहद ही ऊर्जा मय वातावरण अर्जित कर रही थी ... ड्राइवर कार को रोकते हुए कहता हैं: मैडम आप अभी यह पर उतर जाए .....
राधा ये सुनकर उतर जाती है...जब वे बाहर आती है! ओर इतनी मनमोहन करने वाली हवेली देखती हैं तो खुश हो जाती हैं... ओर एक पल के लिए वे सारे दुख दर्द भूल जाती है .. जिसकी उसे यह पर उम्मीद थी ....
तभी पीछे से दूसरी कार आती हैं जिसमें वे अंजान शख्स बैठा हुआ था.. जो अभी उसका पति है ..... वो नीचे उतरकर अपनी सख्त आवाज में नौकर को बुलाते हुए कहता है: मैडम को अंडर लेकर चलो ....
नौकर राधा के पास आते हुए उसे अंडर जाने का इशारा करने लगता है .... ओर राधा भी डरते हुए अंडर चलने लगती है ..... राधा हर तरफ नजर घुमा रही थी ..... वह पर हर कोना इसे बनाए गया था जैसे किसी सपने में होते है .....
ये देख कर राधा की आंखों में चमक भी थी ... तभी मैन दरवाजे के बाहर आकर खड़ी हो जाती है ... अंडर से दरवाजा खुलता है .. ओर सामने 40 साल की औरत खड़ी थी जिसके हाथों में आरती की थाली सजाई गई थी .. नीचे चावल का लौटा भी रखा गए था जिसे वे अपने शुभ कदम अंडर प्रवेश करे ....
सामने खड़ी औरत थोड़ा सा मुस्कुराती हैं.. ओर कहती है: बेटा यह पर खड़े रहो बीच में .... इतना कह कर वे पीछे आ रहे सख्श को देख कर कहती है! .... केशव बेटा .. तुम भी खड़े रहो ... इतना कह कर वो महिला उस सख्श को देखने लगती है .. उस सख्श का नाम केशव सिंह.......
ये नाम सुनकर राधा अपने मन ही।मन में बोली .. अच्छा तो इनका नाम केशव हैं.... इतना कह कर वे केशव की ओर देखने लगती है .... लेकिन केशव ने अभी भी अपना चेहरा छिपाया हुआ था ... ओर वे अपनी ही कड़क आवाज में कहता है: नहीं मां मुझे इन सब में आप शामिल मत करिए .... इतना कह कर वो अंडर चले जाता है ....
अभी भी राधा ने केशव का चेहरा देखा नहीं था .....
सामने खड़ी औरत केशव की मां थी .. केशव की मां वसुंधरा कहती है: बेटा आप अपना चेहरा तो हमे दिखाई .. लेकिन उसे पहले में ये कुछ रस्मे कर देती हैं... इतना कह कर वो आरती उतार देती है .. ओर अपने पैरों से उस चावल के लौटे को गिरा देती है .... ओर आगे रखी कुम कुम की थाली में पैर डालकर अपने कदम को आगे बढ़ा देती है ...
वसुंधरा जी राधा को सोफे पर बिठा कर कहती है ... अब में तुम्हारा चेहरा देख सकती हु क्या??
राधा कुछ नहीं कहती है ।।। वसुंधरा जी अपने हाथो से राधा के घूंघट को उठा लेती है .. जिसे ही वो घूंघट उठाती है .... उनकी आंखों में चमक आ जाती है .. ओर वे बलाई लेते हुए कहती है: कितनी प्यारी बच्ची हैं.... तुम्हे किसी की नजर न लगे ...
राधा वसुंधरा जी की बाते सुनकर स्माइल कर देती है .. उसे वसुंधरा जी की बाते दिल में घर कर रही थी .. ओर वे खुश हो गई थी .. वे अपनी नजर उठकर वसुंधरा जी की ओर देखती हैं तो सामने बेहद ही शांति मय चेहरा दिखाई देता है ... जिन्होंने सर पर घूंघट डाल रखा था ,।।।।।
राधा उनके पैर छुटे हुए कहती है: प्रणाम.. आगे वे बोलने से हिचकिचा रही थी . लेकिन तभी वसुंधरा कहती है: मां कहो मुझे ...
राधा: प्रणाम .. मा... इतना सुनकर वसुंधरा जी राधा को गले लगा देती है ।।।।।
लेकिन किसी कोने में खड़े होकर कोई उन दोनो पर नजर बनाए बैठा था ,।। ओर उन दोनो को पहली मुलाकात में अच्छी तरह से बात करते हुए देख उसकी आंखो में गुस्से की ज्वाला सामने आ जाती है .... ओर वो गुस्सा करते हुए अपने हाथो से मुट्ठी भींच लेता है ......
To be continued 💫 🦋 💙
क्या होगा आगे जान ने के लिए बने रहिए और मेरी कहानी को रेटिंग देना ओर कमेंट करना मत भूलना .....
वसुंधरा जी अब राधा से कोमल स्वर में कहती हैं:
"अब तुम थोड़ा आराम कर लो, राधा…"
इसके साथ ही वे अपने विश्वासपात्र और खास मासी, प्रेमा जी को बुलवाती हैं।
"प्रेमा, इसे तुम जानती ही हो… ये है राधा। राधा, ये हैं प्रेमा मासी। अगर तुम्हें किसी चीज़ की जरूरत हो, तो बेहिचक मुझे या इन्हें बताना।"
राधा धीरे से सिर हिलाकर मुस्कराने की कोशिश करती है।
इसके बाद वसुंधरा जी servants को निर्देश देकर राधा को ऊपर ले जाने को कहती हैं। प्रेमा जी उसे हवेली के उस हिस्से की ओर ले जाती हैं जहाँ केशव सिंह का कमरा था।
राधा की नजरें पूरे रास्ते भर हवेली के हर कोने को निहारती रहीं—दीवारों पर जड़े पुराने, ऐतिहासिक पेंटिंग्स, पत्थर की तराशी हुई मूर्तियाँ, और छतों पर लटके हुए भारी झूमर… हर चीज़ जैसे उसकी सांसें थामे जा रही थी।
कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर और एक लंबे गलियारे से गुजरने के बाद प्रेमा जी रुकती हैं और एक भारी लकड़ी के दरवाजे के सामने खड़ी होकर कहती हैं:
"ये है केशव बाबू का कमरा। अब तुम यहीं आराम कर सकती हो…"
राधा बस हल्के से सिर हिलाती है और कुछ नहीं कहती।
प्रेमा जी उसे वहीं छोड़ कर चली जाती हैं।
राधा एक पल के लिए ठिठक जाती है। अंदर जाने से उसके कदम थमने लगते हैं। दिल की धड़कनें जैसे कानों में गूंज रही थीं। किसी अनजाने भय ने उसे जकड़ लिया था… लेकिन विकल्प क्या था?
उसे तो यहीं रहना था।
अपने डर को दिल में दबाकर, वह धीरे-धीरे कमरे के अंदर कदम रखती है…
अंदर कदम रखते ही उसकी सांसें थम जाती हैं।
कमरा नहीं था, एक राजसी सपना था।
दीवारों पर रॉयल रेड और गोल्डन शेड्स में रिच वॉलपेपर, कांस्य की नक्काशीदार सजावट, भारी रेशमी परदे, और एक विशाल चारपाई बिस्तर जिसके ऊपर सुनहरे धागों से कढ़ा हुआ कंबल था। राधा ने अपने जीवन में ऐसा कोई दृश्य सिर्फ कल्पनाओं में देखा था… सपनों में भी नहीं।
उसके कदम धीरे-धीरे कमरे के बीचों-बीच आकर रुकते हैं।
तभी—
बाथरूम से पानी की आवाज आती है।
उसका दिल एक बार फिर धड़क उठता है। मतलब… केशव यहीं हैं… अंदर।
राधा की नजरें फिर कमरे में घूमती हैं। वहां भी दीवारों पर पेंटिंग्स थीं — कुछ में ओवल फ्रेम्स, कुछ में मोर की आकृतियाँ, जो कमरे को और भी जीवन्त बना रही थीं।
वह थोड़ी देर तक सबकुछ निहारती रही।
अपने सिर पर रखा घूंघट कब हटा, उसे भी खबर नहीं रही।
वह एक बड़े, चमकते आइने के सामने खड़ी होती है…
और खुद को देखती है।
लाल जोड़े में सजी राधा आज सचमुच सुंदर लग रही थी — एक राजकुमारी की तरह।
लेकिन उस मुस्कान के पीछे अपने पिता की याद जैसे हर रंग को फीका कर रही थी।
उसकी आंखों में नमी उतर आई थी…
तभी…
उस आइने में कुछ और दिखता है…
अपने प्रतिबिंब के साथ एक और छाया—एक उभरी हुई मस्कुलर बॉडी,
सिक्स पैक एब्स, गीले कंधों पर टपकता पानी,
चेहरे पर घनी राजघरानों जैसी मूंछें,
और वो भव्य, चार्मिंग लुक…
केशव सिंह।
राधा की आंखें उस अक्स को निहारने लगती हैं…
वो पलकें झपकाना भी भूल जाती है।
लेकिन जैसे ही उसकी नजर उसके अधनंगे बदन पर जाती है…
वो एक झटके से पीछे मुड़ती है और चीख उठती है —
"आप?!?"
केशव की नज़र जैसे ही राधा पर पड़ी, वो कुछ पल सन्न रह गया।
उसके चेहरे पर हल्की हैरानी थी… जैसे वो कुछ कहने ही वाला हो… लेकिन तभी वो संभलता है।
आवाज़ में सख़्ती घोलते हुए, वह कहता है:
“ये मेरा कमरा है, और यहां मैं ही रहूंगा…”
राधा जो अब भी उसकी ओर देखे जा रही थी, धीरे से बोल उठी —
“लेकिन… आप हैं कौन?”
(राधा ने अब तक केशव को देखा ही नहीं था, शादी की रस्मों में उसका चेहरा पूरी तरह ढंका रहा था)
केशव एक तिरछी मुस्कान के साथ जवाब देता है —
“मैं वही हूं… जिसके साथ तुमने कल रात शादी की थी…”
राधा का चेहरा एकदम ठहर जाता है।
उसके अंदर जैसे कुछ टूटता और कुछ जागता है।
मन ही मन बुदबुदाती है —
“क्या? ये है… केशव? लेकिन ये तो… ये तो… बेहद हैंडसम हैं…”
वो फिर से केशव की आंखों में देखने लगती है… मानो कहीं गुम हो गई हो…
लेकिन केशव था कि उसके नज़रों से बेअसर रहा।
उसका चेहरा अब पूरी तरह कठोर हो चुका था।
गुस्से में दहाड़ते हुए वह चिल्लाया:
“तुम्हें यहां आने की इजाज़त किसने दी? देखो, शादी भले ही हुई हो… लेकिन मैंने उसी रात साफ कह दिया था — मैं इस रिश्ते को नहीं मानता!
तो तुम्हें मेरे कमरे में आने का कोई हक नहीं है।
अब… निकलो यहां से। तुरंत!”
राधा ठिठक जाती है…
उसके चेहरे पर अपमान की एक लकीर उभरती है।
पर वो इतनी भी मासूम नहीं थी कि चुपचाप सब सुन ले।
अपने स्वर में ठहराव और तीखापन लाकर, वो जवाब देती है:
“मुझे भी आपको देखने में कोई रस नहीं है… केशव सिंह।”
इतना कहकर वह तेज़ी से पलटी और कमरे से बाहर निकल गई।
उसके कदम तेज़, आंखें गीली और मन गुस्से से भरा हुआ था।
वो हवेली के गलियारे में चलते हुए पास ही के एक बंद कमरे के दरवाज़े को खोलती है। अंदर घुप्प अंधेरा था।
राधा दीवार का स्विच दबाती है — हल्की सी रोशनी कमरे को भर देती है।
कमरा केशव के कमरे की तरह ही राजसी था — लाल और सुनहरे पर्दे, भारी फर्नीचर, और लकड़ी की सुगंध।
मगर एक फर्क था — यहां कोई नहीं रहता था।
फिर भी कमरा बिलकुल साफ़-सुथरा था… जैसे किसी के आने की तैयारी हो… या जैसे कोई अब भी उसका इंतज़ार कर रहा हो।
राधा दरवाज़ा बंद करती है, और भीतर गहरी सांस लेकर बिस्तर पर बैठ जाती है…
उसके होंठों पर अब सवाल थे,
और आंखों में अपमान का बादल…
To be continued 💫 🦋 💙
क्या राधा केशव के गुस्से को भूल।पाएगी?? या फिर याद रख कर उसे पेश करेगी अपनी ही अलग छवि ???? आगे क्या होगा?? ये सब जान ने के लिए मेरे साथ बने रहिए .. ओर पढ़ते रहिए ... ओर पसंद आय तो लाइक कमेंट करना मत भूलना ...
राधा उस शांत कमरे में बैठी हुई थी, जब अचानक उसकी नज़र सामने दीवार पर टंगी एक विशाल पेंटिंग पर पड़ी। वह पेंटिंग एक रहस्यमयी लड़की की थी — एक चेहरा जिसे राधा ने आज तक इस हवेली में कभी नहीं देखा था।
अजीब सा खिंचाव महसूस हुआ उसे… जैसे वो पेंटिंग उसे अपने पास बुला रही हो।
राधा धीरे-धीरे उठकर पेंटिंग के करीब जाती है और खुद से बुदबुदाती है,
“ये कुछ... अलग ही है। पूरी हवेली में ढेरों पेंटिंग्स हैं, लेकिन इसमें कुछ है… कुछ ज़्यादा ही असली।”
उसकी आँखें उस लड़की की आँखों से जैसे जुड़ गई हों। हर रेखा, हर शेड, इतनी बारीकी से बनाई गई थी कि पेंटिंग देखने में नहीं, महसूस करने में आती थी। एक पल को राधा को ऐसा लगा मानो वो लड़की उसे कुछ कहना चाह रही हो।
तभी, उस रहस्यमयी माहौल को तोड़ते हुए दरवाज़े पर दस्तक हुई।
"मैडम... आपको केशव सर ने बुलाया है," बाहर से किसी की आवाज़ आई।
राधा चौक गई। भौंहें सिकोड़ते हुए, लगभग तंज में बोली,
“मुझे क्यों बुलाया? अब क्या ज़रूरत पड़ गई?”
बाहर खड़ी प्रेमा धीमे स्वर में बोली,
“हमें नहीं पता मैडम... लेकिन उन्होंने बुलाया है।”
फिर प्रेमा ने अपने हाथ ताली की तरह बजाए — एक इशारा — और अगले ही पल कुछ नौकर अंदर दाखिल हुए। उनके हाथों में अलग-अलग डिज़ाइन के, बेहद खूबसूरत परिधान थे — हर ड्रेस राधा के नाप की।
राधा हतप्रभ रह गई। उसकी आँखें हैरानी से फैल गईं।
“ये सब... क्या है?” उसने पूछा, जैसे खुद से ज़्यादा किसी और से जानना चाह रही हो।
प्रेमा मुस्कुराते हुए बोली,
“आपके लिए हैं, मैडम। कृपया जल्दी से तैयार हो जाइए और केशव बाबा के पास चलिए।”
इतना कहकर वे सभी एक-एक कर कमरे से बाहर निकल गए… लेकिन उनके सवाल राधा के दिल में एक तूफान की तरह गूंजते रह गए।
कुछ देर चुपचाप बैठने के बाद, राधा उठती है और फ्रेश होकर उस खूबसूरत सलवार कलेक्शन की ओर बढ़ती है, जो खास उसी के लिए मंगवाया गया था। रंग-बिरंगे कपड़ों की कतार में उसकी नजर एक पिंक कलर के सलवार सूट पर ठहर जाती है — हल्की कढ़ाई वाला, बेहद नर्म और रेशमी कपड़ा। राधा की आंखों में चमक आ जाती है।
“ये बहुत प्यारा है…” वह मन ही मन बुदबुदाती है और जैसे ही उसका हाथ उस पर रखती है, उसकी नजर टैग पर जाती है — ₹20,000 का दाम देखकर वो चौंक उठती है।
"इतने के तो मैंने तीन साल में भी कपड़े नहीं खरीदे होंगे… और ये एक ही सूट बीस हजार का!" वह हैरानी से सोचती है। लेकिन फिर खुद को समझाते हुए वह मुस्कुराती है और उस ड्रेस को पहन लेती है।
ड्रेस पहनने के बाद वह आइने के सामने खड़ी होती है — बाल खुले हुए, लहराते हुए उसके कंधों पर गिर रहे थे। होंठों पर हल्की पिंक लिपस्टिक, आंखों में काजल की काली परछाई, और माथे पर उसी रंग की एक छोटी सी बिंदी — उसकी सादगी में एक अनकहा आकर्षण था। वो बेहद प्यारी और शालीन लग रही थी — एकदम रॉयल, लेकिन अपनेपन वाली।
अपने आप को तैयार करने के बाद वह धीमे क़दमों से केशव के कमरे की ओर चल देती है।
कमरे का दरवाज़ा आधा खुला था। अंदर झांकते ही उसकी नज़र केशव पर पड़ती है — उसने गहरे लाल रंग का कुर्ता पहना हुआ था, जो उसकी गहरी आँखों और व्यक्तित्व पर खूब जँच रहा था। उसके बाल हल्के बिखरे हुए थे, और उसकी कलाई में एक पुरानी घड़ी चमक रही थी।
राधा ने एक पल के लिए उसकी ओर देखा — मानो कुछ देर के लिए उसकी नाराज़गी भी थम गई हो। लेकिन फिर वह खुद को संभालते हुए सोचती है —
"चाहे जितना भी अच्छा दिखे, पर मैं अभी उससे नाराज़ हूँ…"
केशव पीछे मुड़कर राधा की ओर देखता है, उसकी आंखों में एक बेरुखी सी झलकती है। ठंडी, सख्त आवाज़ में वह कहता है,
"भले ही हमारी शादी हो गई हो, लेकिन मैं इस रिश्ते को नहीं मानता। मैंने यह शादी सिर्फ दबाव में आकर की है… इसलिए तुम मुझसे किसी भी तरह की उम्मीद मत रखना। ये मैं आज आखिरी बार कह रहा हूं।"
राधा शांत खड़ी रहती है, उसके चेहरे पर न कोई हैरानी, न ही कोई आंसू। वो पहले भी ये शब्द सुन चुकी थी, इसलिए अब उनका असर ज़रा भी नहीं होता।
"हां, ये बात मुझे पता है… इसमें कुछ नया नहीं है," वह संयमित स्वर में जवाब देती है और पीछे मुड़कर जाने लगती है।
लेकिन तभी केशव की तीखी आवाज़ फिर गूंजती है,
"लेकिन एक बात सुन लो — हमें मां के सामने एक दिखावे की शादी निभानी होगी। फिक्र मत करो, वो नाटक सिर्फ मेरी मां के सामने होगा। मुझे उन्हें खुश देखना है, इसलिए मैं उनकी खुशी के लिए वो सब करूंगा जो वो चाहेंगी… लेकिन असल जिंदगी में हम दोनों के बीच कोई रिश्ता नहीं होगा। इसलिए कोई उम्मीद पालने की गलती मत करना!"
राधा इस बार भी चुपचाप सिर हिला देती है… जैसे मानो वो अब शब्दों की चोटों से परे जा चुकी हो।
केशव का लहजा और सख्त हो जाता है,
"और सुनो — तुम्हें मेरे कमरे में आकर किसी भी चीज़ को छूने की इजाज़त नहीं है। ये बात अपने दिमाग में बिठा लो। और हां, तुम जिस कमरे में अभी ठहरी हो, वो भी तुम्हें तुरंत खाली करना होगा। तुम वहां नहीं रह सकती…"
इतना कहकर वह एक सख़्त निगाह राधा पर डालता है।
अब तक चुप रहने वाली राधा भी आखिरकार तंग आ जाती है। उसकी आंखों में गुस्सा झलक उठता है।
"ठीक है, मैं आपके कमरे में नहीं आऊंगी… लेकिन कम से कम मुझे कहीं तो रहने दो! आखिर आपको मुझसे इतनी परेशानी है किस बात की? क्यों नहीं रह सकती मैं उस कमरे में? चलो, एक काम करो — लिस्ट बना दो कि क्या छूना है और क्या नहीं… ताकि आप भी खुश रहें और मैं भी चैन से जी सकूं!"
इतना कहकर वो गुस्से में मुंह फेर लेती है और तेज़ क़दमों से वहां से चली जाती है।
केशव उसे जाते हुए देखता है और एक गहरी, थकी हुई सांस छोड़ता है… जैसे दिल में बहुत कुछ दबा रखा हो, लेकिन ज़ुबान पर आने नहीं देता।
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क्या हैं उस कमरे का राज ?? क्यों मना कर रहा हैं केशव राधा को ठहरने के लिए ..
इन सारे सवालों के जवाब जान ने के लिए पढ़ते रहिए दीवानगी मंजूर हैं
राधा तेज़ क़दमों से गुस्से में नीचे की ओर चली जाती है और हवेली के पुराने बरामदे में जाकर चुपचाप एक कोने में बैठ जाती है। उसकी आँखों में आँसू थे, पर चेहरे पर गुस्से की लकीरें साफ़ नज़र आ रही थीं। वो खुद को सँभालने की कोशिश कर रही थी, लेकिन भीतर का दर्द और अपमान उसे तोड़ रहा था।
तभी अचानक उसकी पीठ पर एक कोमल स्पर्श होता है। वसुंधरा जी धीरे से उसके पास बैठती हैं और स्नेह से पूछती हैं,
"यहाँ क्यों बैठी हो, बेटा? सब ठीक है ना?"
वो बैठने ही वाली थीं कि उनकी नज़र राधा की नम आँखों पर पड़ती है। वो एक पल के लिए ठहर जाती हैं।
राधा भीतर ही भीतर खुद से कहती है—
"मैं आपको कुछ नहीं कह सकती, माँ… केशव जी ने मना किया है ....."
उसकी सोच कहीं खोने लगती है…
वसुंधरा जी उसका ध्यान खींचती हैं,
"क्या हुआ? कहाँ खो गई?"
राधा तुरंत होश में लौटती है और जबरन मुस्कान ओढ़ते हुए कहती है,
"कुछ नहीं माँ… बस पापा की याद आ रही थी..."
वसुंधरा जी हल्की मुस्कान के साथ उसका चेहरा थामते हुए कहती हैं,
"तो क्या हुआ? मैं हूँ न तुम्हारी माँ... जब भी तुम्हें पापा की याद आए, तो मुझे याद कर लिया करो... ठीक है?"
इतना कहकर वो राधा को अपने गले से लगा लेती हैं।
राधा को उनकी गोद में सिर रखते ही अपनी माँ की याद आ जाती है। वो भीगती आवाज़ में कहती है,
"माँ… आप हैं तो अब इतनी याद नहीं आएगी। बस आप हमेशा मेरे साथ रहना..."
दोनों के बीच का ये कोमल और स्नेहमय क्षण गहराता है। लेकिन तभी, दूर खड़े किसी अनजान व्यक्ति की कैमरा क्लिक की आवाज़ हवा में गूंजती है — कोई चोरी-छुपे उन दोनों की तस्वीर ले चुका होता है...
राधा खुद को वसुंधरा जी से अलग करते हुए कहती है,
"माँ, अब आप थोड़ा आराम कर लीजिए। मैं आपके लिए कुछ खाने के लिए बना देती हूँ।"
पर वसुंधरा जी मुस्कुरा कर उसका हाथ पकड़ते हुए कहती हैं,
"नहीं बेटा… अभी नहीं। आज रात हम पहली रसोई की रस्म करेंगे। तब तुम कुछ अच्छा सा बनाना।"
राधा उनकी बात सुनकर हल्का मुस्कुरा देती है। वसुंधरा जी उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरती हैं और धीरे-धीरे वहाँ से चली जाती हैं। पीछे छूट जाती है— एक बेटी, जो अब किसी की बहू भी है... लेकिन उस स्नेह में फिर से एक बार खुद को बेटी जैसा महसूस करती है।
कुछ घंटे बाद...
राधा अपने कमरे में आराम कर रही थी, लेकिन उसकी आंखों के सामने बार-बार वही रहस्यमयी पेंटिंग घूम रही थी।
“आखिर ये पेंटिंग किसकी है...? क्यों ये मुझे अंदर तक विचलित कर रही है?” — उसके मन में यही सवाल लगातार गूंज रहे थे।
तभी अचानक केशव की गुस्से से भरी आवाज पूरे हवेली में गूंजती है —
"राधा!.... राधा!"
राधा हड़बड़ा जाती है। उसके लिए ये आवाज न सिर्फ तीखी थी, बल्कि चेतावनी जैसी भी थी।
वो घबरा कर बुदबुदाती है —
"हे भगवान! वो मुझे इस कमरे में देख लेंगे तो फिर से नाराज़ हो जाएंगे। मुझे अभी यहां से निकलना होगा..."
जल्दी में वह दरवाजा खोलती है, लेकिन जैसे ही बाहर निकलती है — सीधा केशव से टकरा जाती है।
राधा गिरने ही वाली थी, लेकिन केशव वक्त रहते उसे थाम लेता है।
कुछ पल को सब थम जाता है — राधा की आंखें, केशव की गुस्से से भरी निगाहों से टकरा जाती हैं।
उसकी पकड़ में अब न सिर्फ उसका शरीर था, बल्कि उसकी सवालों से भरी आत्मा भी थी।
केशव (गंभीर और कठोर स्वर में):
"तुमने मेरी मां के साथ क्या किया है, राधा?"
राधा चौंक कर उसकी आंखों में देखती है —
"क्या...? मैंने...? क्या किया है मैंने?"
केशव (तेज स्वर में):
"इतनी मासूम मत बनो... मुझे सब पता है!"
राधा हैरानी से अपनी बड़ी-बड़ी आंखों को और फैलाकर केशव की ओर देखती है।
"आपको क्या पता है? और जब मैंने कुछ किया ही नहीं, तो मैं दिखावा क्यों करू?"
उसकी आवाज़ में इस बार केवल हैरानी नहीं, बल्कि गुस्से की हल्की सी झलक भी थी।
लेकिन जैसे उसके गुस्से को और चिंगारी देनी हो, केशव तीखे स्वर में बोल पड़ता है—
"तो फिर मां को क्या हुआ है?"
ये सुनकर राधा सन्न रह जाती है।
"क्या...? मां को...? क्या हुआ मां को?"
उसकी आवाज़ अब घबराहट से कांप रही थी — उसमें चिंता, भय और बेचैनी का मिलाजुला तूफान था।
केशव (कटाक्ष करते हुए):
"वाह! तुम्हें नहीं पता...?"
उसका व्यंग्य हँसी बनकर राधा के विश्वास को चीरता चला गया।
इतना कहकर केशव गुस्से में राधा की कलाई कसकर पकड़ लेता है।
उसकी पकड़ इतनी मजबूत थी कि राधा के चेहरे पर पीड़ा साफ दिखने लगी।
वो उसे खींचते हुए जबरन सीढ़ियों की ओर ले जाता है — राधा उसके पीछे-पीछे घिसटती हुई-सी चल रही थी।
सीढ़ियों पर पहुँचकर अचानक — बिना चेतावनी के — केशव उसका हाथ झटक देता है।
राधा का संतुलन बिगड़ता है, और वह सीढ़ियों से गिरने लगती है…
"पापा....!"
एक जोरदार चीख उसके गले से निकलती है — चीख इतनी असली थी कि हवेली की दीवारें भी सहम जाएं।
लेकिन तभी…
सबकुछ एक झटके में ठहर जाता है।
राधा बुरी तरह हांफती हुई अपनी नींद से जाग जाती है।
उसका शरीर पसीने से भीगा हुआ था, चेहरा डर से सफेद पड़ चुका था, और आंखों से आंसू बह रहे थे।
वो चारों ओर नज़र दौड़ाती है — और जैसे खुद को यकीन दिला रही हो, बुदबुदाती है:
"अच्छा... तो ये सपना था?"
वो अपनी तेज़ धड़कनों को काबू में लाने की कोशिश करते हुए, माथे पर आया पसीना पोंछती है।
कुछ देर गहरी सांसें लेने के बाद खुद को संयत करती है।
लेकिन तभी... वसुंधरा जी का चेहरा उसकी आंखों में कौंध जाता है —
"मां...? मां को कुछ हुआ तो नहीं?"
ये सोचते ही वो तुरंत बिस्तर से उठती है और नीचे की ओर भागती है।
वो वसुंधरा जी के कमरे की ओर दौड़ती है, और जैसे ही वहां पहुंचती है, राहत की सांस लेती है।
वसुंधरा जी खिड़की के सामने बैठी थीं — धूप की हल्की किरण उनके चेहरे पर पड़ रही थी, और वे अपनी दवाइयां लेने में व्यस्त थीं।
राधा उन्हें सही-सलामत देख कर भीतर ही भीतर मुस्कुरा उठती है… लेकिन उस सपने का डर अब भी उसकी सांसों में अटका हुआ था।
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राधा ने जैसे ही वसुंधरा जी को खिड़की के पास बैठा देखा — एक पल के लिए राहत की सांस ली।
वो वापस मुड़ने ही वाली थी कि तभी वसुंधरा जी की शांत लेकिन स्नेहभरी आवाज़ उसे रोक देती है —
"बेटा, रुको... कुछ कम था क्या? और तुम इतनी परेशान क्यों लग रही हो?"
राधा पलटती है। उनके चेहरे पर चिंता साफ झलक रही थी।
वसुंधरा जी के बुलावे पर वह धीरे-धीरे उनके कमरे की ओर बढ़ती है।
वसुंधरा जी का कमरा किसी राजमहल जैसा भव्य था — नीला और सुनहरा रंग उसमें ऐसी आभा भर रहे थे जैसे किसी पुराने राजघराने की विरासत अब भी जीवित हो।
जैसे ही राधा अंदर आती है, उसकी नजर सामने दीवार पर लगी एक विशाल पेंटिंग पर टिक जाती है।
पेंटिंग में एक रौबदार लेकिन शांत चेहरे वाला व्यक्ति था — जिनकी आंखों में गहराई और चेहरे पर अधिकार की झलक थी।
राधा मन ही मन सोचती है,
"शायद यही... केशव के पिता होंगे..."
उसकी उलझन को पढ़ती हुई वसुंधरा जी कहती हैं —
"ये वंशराज हैं... केशव के पिता। कार एक्सीडेंट में... मारे गए थे।"
वो ठहरती हैं — फिर अपनी बात को दोहराती हैं —
"या फिर... मर गए... ये अब तक साफ़ नहीं हो पाया है।"
वो राधा की ओर गहरी नजरों से देखती हैं।
राधा (चौंकते हुए):
"क्या मतलब? मारे गए?"
वसुंधरा जी (धीरे-धीरे बताती हैं):
"हमारा परिवार एक रजवाड़े से है। वंशराज के एक छोटे भाई थे — मनराज। उनकी नजर हमेशा से इस संपत्ति पर थी।"
वो अतीत की गलियों में उतरती चली जाती हैं...
**"जब वंशराज के पिता यानी केशव के दादा बीमार पड़े, तब उन्होंने सारी वसीयत वंशराज के नाम कर दी। राजस्थान के बाहर की जो थोड़ी बहुत ज़मीन थी, वो मनराज को दी गई... लेकिन वो संतुष्ट नहीं हुआ। उसे तो पूरी जागीर चाहिए थी।
उसे जुए की लत थी — बुरी आदतों में डूबा हुआ था।
वंशराज ने उसे मना कर दिया — नफरत से नहीं, बल्कि डर से कि कहीं वो सब कुछ जुए में न गंवा दे।**
"और फिर एक दिन..."
वो आवाज़ धीमी करती हैं —
"मुझे खबर मिली कि वंशराज का कार एक्सीडेंट हो गया है..."
"तब केशव बस 12 साल का था।"
"लेकिन..."
वो रुकती हैं,
"राजघराने की असली विरासत केशव को ही मिली — क्योंकि वही असली वारिस था। चाचा को वो मिलती, अगर वंशराज का बेटा न होता..."
राधा उस कहानी को ध्यान से सुनती है — जैसे इतिहास के किसी भारी रहस्य से सामना हो रहा हो।
राधा (धीरे से):
"फिर मां...? चाचा ने कुछ किया नहीं?"
वसुंधरा जी (गहरी सांस लेकर):
"नहीं। उसके बाद वो कभी दिखा ही नहीं। जैसे हवा में ग़ायब हो गया हो। ना कोई पता, ना कोई खबर।"
राधा (आश्चर्य से):
"तो उनके बीवी-बच्चे?"
वसुंधरा जी:
"उसने कभी शादी ही नहीं की थी। अकेला आया था, और अकेला ही चला गया..."
कमरे में एक गहरी चुप्पी छा जाती है — जैसे किसी पुरानी कहानी की परछाइयां अब भी वहां मंडरा रही हों।
वसुंधरा जी ने राधा की ओर देख कर मुस्कुराते हुए कहा —
"बेटा, ये सब अब अतीत की बातें हैं। मैंने तुम्हें अपनी बेटी समझकर ये सब कुछ बताया, ताकि तुम्हें अपने नए परिवार के बारे में सब जानने का अधिकार हो..."
राधा के चेहरे पर भावों की लहर दौड़ रही थी — कहीं अपनापन, कहीं संवेदना और कहीं गहराती समझ।
अभी दोनों बातों में डूबी ही थीं कि अचानक राजमहल की घंटी गूंज उठती है।
उसकी तीव्र आवाज़ सन्नाटे को चीरती हुई कमरे में गूंजती है।
राधा एकदम चौंक जाती है। उसकी आंखों में घबराहट झलकती है।
वो सवाल भरी नजरों से वसुंधरा जी की ओर देखती है।
वसुंधरा जी हल्के से मुस्कुराकर उसे आश्वस्त करती हैं —
"बेटा, घबराओ मत... ये तो बस समय का संकेत है। अभी सात बज गए हैं..."
"क्या...? सात बज गए?" — राधा आश्चर्य से पूछती है।
वसुंधरा जी हँसते हुए कहती हैं —
"हाँ, और बातों में पता ही नहीं चला कि वक्त कैसे बीत गया... सालों में पहली बार ऐसा लगा कि कोई मेरे साथ बैठ कर दिल से बात कर रहा हो..."
राधा मुस्कुराते हुए कहती है —
"माँ, चलिए... अब मैं रसोई में जाकर खाना बनाना शुरू कर देती हूँ।"
वसुंधरा जी थोड़ा चौंकती हैं —
"अभी से?"
राधा सादगी से जवाब देती है —
"हम घर पर तो इतने ही बजे खाना खा लेते हैं..."
यह कहते-कहते उसके चेहरे पर हल्का सा भावुकपन उतर आता है — उसे अपने पापा की याद सताने लगती है।
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दृश्य परिवर्तन — ऋषिकेश, गंगा घाट
गंगा की शांत लहरें धीरे-धीरे किनारे से टकरा रही थीं।
शाम का वक्त था — आरती की घंटियाँ दूर कहीं बज रही थीं।
हरिकृष्ण जी घाट की सीढ़ियों पर बैठे गहरी सोच में डूबे थे।
उनकी नजरें गंगा की धार में नहीं, बल्कि अपनी स्मृतियों में अटकी हुई थीं।
हर जगह उन्हें राधा की छवि नजर आ रही थी — कभी बचपन में गंगा में खेलती हुई, कभी उनके कंधों पर बैठी हुई।
तभी पीछे से एक पुरानी और अपनापन भरी आवाज़ आती है —
"अपनी बेटी को याद कर रहे हो, हरि?"
हरिकृष्ण जी मुड़ते हैं — वो उनके पुराने और घनिष्ठ मित्र थे।
हरिकृष्ण जी की आंखें भीग जाती हैं —
"कैसे न याद करूं...? उसे अपने हाथों में पाला है मैंने... मेरी राधा... आज भी जब आंखें बंद करता हूं, तो वही छोटी-सी बच्ची दिखाई देती है..."
एक ठहराव के बाद वो और भी गहराई से कहते हैं —
"मुझे नहीं पता मेरी बेटी अब किस जगह पर है... लगता है जैसे मैं उससे पूरी तरह वंचित हो गया हूँ..."
मित्र ने उनका हाथ थामते हुए ढांढस बंधाया —
"देखना हरि, तुम्हारी बेटी जहाँ गई है, वहाँ रानी की तरह रहेगी। एक दिन वो पूरे राजघराने पर राज करेगी — गर्व से सिर उठाकर!"
हरिकृष्ण जी की आंखें उस क्षण चमक उठती हैं।
वे हल्के से मुस्कुराकर कहते हैं —
"अगर ऐसा है... तो मैं सच में बहुत खुश होऊंगा। मेरी राधा को जो सम्मान, जो स्नेह और जो अधिकार मिले — वही मेरी असली खुशी होगी..."
गंगा की लहरें जैसे इस पिता के आशीर्वाद को अपने साथ बहाकर राधा तक पहुँचाने चल पड़ी थीं...
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रात के ठीक नौ बजे जैसे ही हवेली की घड़ी ने टन टन किया, केशव अपने कमरे से बाहर निकला। डाइनिंग एरिया की ओर बढ़ने से पहले वह हमेशा की तरह अपनी माँ को साथ लेने उनके कमरे की ओर चला गया। लेकिन आज वहाँ सन्नाटा था… माँ वहाँ नहीं थीं।
अभी वो कुछ सोच ही रहा था कि तभी सामने से प्रेमा मासी आती हैं। उनके चेहरे पर हमेशा की तरह एक प्यारी सी मुस्कान थी।
प्रेमा मासी, हँसते हुए बोलीं:
"आप वसुंधरा जी को ढूंढ रहे हो बाबा?"
केशव हल्का मुस्कुराते हुए सिर हिलाता है:
"हाँ… माँ कहाँ हैं?"
प्रेमा मासी ने हँसते हुए बताया:
"अभी तो वो रसोड़े में हैं, बहू के साथ…"
केशव चौंकते हुए दोहराता है:
"रसोड़ा?"
बिना कुछ कहे वह भी रसोड़े की ओर बढ़ जाता है।
जैसे ही वह अंदर पहुँचता है, एक अलग ही दृश्य उसकी आंखों के सामने होता है। उसकी माँ – वसुंधरा जी – और राधा, दोनों ही मुस्कुराते हुए बातों में मशगूल थीं। माँ के चेहरे पर एक अलग ही रौनक थी… इतनी उजली, इतनी हल्की, जैसी केशव ने पहले कभी नहीं देखी थी। वह ठहरकर बस उन्हें निहारता रहा… और फिर उसकी नजर राधा पर पड़ी।
राधा, खिलखिलाते हुए पूछ रही थी:
"फिर क्या हुआ माँ? बाद में?"
वसुंधरा जी ने हँसते हुए जवाब दिया:
"बाद में क्या! वो तो नीचे गिर गया…!"
इसके बाद दोनों ज़ोर से हँसने लगती हैं। उस सहज हँसी और गर्मजोशी से भरे माहौल को देखकर केशव एक पल को ठहर सा जाता है। मन ही मन वह सोचता है — "ये लोग किसकी बात कर रहे हैं?"
तभी वसुंधरा जी उसे देख लेती हैं।
वसुंधरा जी:
"अरे बेटा! तुम आ गए? चलो, आज तो बहू ने ऐसा स्वादिष्ट खाना बनाया है कि उंगलियाँ चाटते रह जाओगे!"
केशव की नजर फिर से राधा पर जाती है… लेकिन राधा अब भी उससे पूरी तरह अनजान, सिर्फ अपनी माँ की बातों में ही मग्न थी। शायद… शायद वह उससे अब भी डरी हुई थी।
केशव मन ही मन बुदबुदाता है:
"शायद मैंने इसे कुछ ज़्यादा ही डरा दिया है…"
वसुंधरा जी मुस्कराते हुए कहती हैं:
"आओ केशव, खाना लग गया है। चलो बैठो।"
डाइनिंग हॉल की बड़ी, नक्काशीदार शाही टेबल पर सभी बैठते हैं। राधा एक के बाद एक बाउल और परोसने की थालियाँ लाकर लगाती है—गुलाब जामुन, आलू की सब्ज़ी, पूरी और मूँग की दाल का शुद्ध देसी सिरा।
रसोई से आती खुशबू केशव की सांसों में घुल रही थी… वो खुशबू, जिसमें अब घर जैसा अपनापन भी शामिल था।
राधा उसके सामने आकर धीरे-धीरे थाली में परोसने लगती है। केशव की आँखें, राधा के उस शांत चेहरे पर टिक जाती हैं।
आज का खाना शायद स्वाद से कहीं ज्यादा… भावनाओं से भरा था।
जैसे ही केशव पूरी के साथ सब्जी का पहला निवाला लेता है, उसकी आंखें अपने आप बंद हो जाती हैं… मानो स्वाद की गहराई ने उसे किसी पुराने, मीठे पल में लौटा दिया हो। उस एक पल में, वह फिर से वही बच्चा बन जाता है जिसे उसकी मां अपने हाथों से खाना खिलाया करती थी। उस स्वाद में बचपन की यादें घुली हुई थीं।
राधा, चुपचाप वसुंधरा जी की ओर देखती है, मानो उनकी प्रतिक्रिया जानना चाहती हो। वसुंधरा जी हल्की मुस्कान के साथ राधा को आंखों ही आंखों में चुप रहने का इशारा करती हैं।
तभी केशव मूंग दाल का एक चम्मच लेता है। जैसे ही वह दाल उसके होंठों को छूती है, उसकी आंखें फिर से बंद हो जाती हैं। वो धीमे स्वर में कहता है,
"मां... ये स्वाद मुझे बचपन में खींच लाया... आपके हाथों का स्वाद आज भी वैसा ही है..."
इतना कहकर वो मुस्कुराते हुए वसुंधरा जी की ओर देखने लगता है।
पर तभी वसुंधरा जी उसके पास आती हैं, और प्यार से उसके माथे पर हाथ फेरते हुए कहती हैं,
"बेटा, ये खाना मैंने नहीं… राधा ने बनाया है। बताओ, कैसा लगा तुम्हें?"
ये सुनते ही केशव की मुस्कान एक पल में गायब हो जाती है। चेहरे से भाव तो मिट जाते हैं, लेकिन स्वाद अब भी उसके मन को छू रहा होता है। वो कुछ नहीं बोलता।
वातावरण को सहज बनाने के लिए वसुंधरा जी राधा की ओर देखकर कहती हैं,
"बेटा, तुम भी बैठ जाओ... चलो साथ में खाना खाते हैं।"
इतना कहकर वह भी बैठ जाती हैं।
राधा थोड़ी झिझक के साथ बैठती है, लेकिन जब वह अपने हाथ की बनी पूरी का स्वाद लेती है, तो उसके चेहरे पर संतोष और आत्मविश्वास की एक मधुर झलक आ जाती है।
वसुंधरा जी मुस्कुराते हुए कहती हैं:
"बेटी, तुम्हारे हाथों में तो साक्षात अन्नपूर्णा का वास है..."
इतना कहकर वह परंपरा अनुसार राधा को 'सगुण' के पैसे भी देती हैं — मानो न केवल स्वाद, बल्कि राधा के अपनापन और कर्तव्य को भी सम्मानित कर रही हों।
रात का खाना खत्म होने के बाद राधा जैसे ही अपने कमरे की ओर बढ़ती है, अचानक उसके चेहरे पर हल्की चिंता की लकीरें उभर आती हैं। उसे याद आता है — "मैंने गैस बंद की या नहीं?"
यही सोचते हुए वो तुरंत पीछे मुड़ती है और रसोई की ओर कदम बढ़ाती है।
लेकिन जैसे ही वो मुड़ती है, वो सीधे केशव से टकरा जाती है।
एक पल के लिए सब कुछ ठहर सा जाता है।
केशव झट से उसे थाम लेता है और अपने मजबूत हाथों से संभालते हुए कहता है,
"ध्यान से..."
राधा की सांसें एक पल को रुक सी जाती हैं। उसके दिल की धड़कन जैसे कानों में सुनाई देने लगती है।
केशव बड़ी सहजता से उसे ठीक से खड़ा कर देता है और बिना किसी और बात के आगे बढ़ने लगता है।
लेकिन कुछ कदम चलने के बाद रुकते हुए, बिना उसकी ओर देखे, हल्की और नरम आवाज़ में कहता है —
"वैसे... आज खाना अच्छा बनाया था..."
इतना कहकर वो बिना मुड़े, सीधा आगे बढ़ जाता है।
उसके लहजे में जो सच्चाई और नरमी थी, वो राधा के दिल तक उतर जाती है।
उसके चेहरे पर अनायास ही एक प्यारी-सी मुस्कान खिल उठती है — वो मुस्कान जो पहली बार किसी उम्मीद की तरह आई हो।
To be continued 💫🦋💙
अगली सुबह...
राधा की आंखें एक गहरी और सुकून भरी नींद के बाद खुलती हैं। उस सुबह में एक अलग ही शांति समाई थी — जैसे मन के भीतर बरसों से पसरा हुआ कोलाहल किसी ने एक पल में शांत कर दिया हो। यह वही शांति थी जिसकी उसने केवल कल्पना की थी, जिसे वह अब तक खुद से दूर समझती थी। लेकिन कल रात जब केशव ने उसके लिए वो एक मीठी सी तारीफ की, तो उसे पहली बार लगा... शायद उसे भी स्वीकार किया जा सकता है।
वो मुस्कुराती हुई बिस्तर से उठती है, अपने आप में हल्की और प्रसन्न। फ्रेश होकर जल्दी ही नीचे आ जाती है, जहां वसुंधरा जी पहले से ही लॉन के किनारे बैठी होती हैं। राधा उनके पास बैठ जाती है, और दोनों मां-बेटी की तरह धीरे-धीरे बातचीत में डूब जाती हैं।
कुछ ही देर बाद राधा खुद उठती है और किचन में चली जाती है — वसुंधरा जी को अपने हाथों से बनी चाय पिलाने का उसका खास इरादा था। साथ ही, उसने आज नाश्ता भी खुद से तैयार किया। केशव की कल की बातों ने उसे एक नई उम्मीद दे दी थी — शायद आज वो उससे थोड़ी विनम्रता से पेश आए। शायद।
जब वो नाश्ता और चाय लेकर वापस आती है, तो वसुंधरा जी मुस्कराते हुए पूछती हैं,
वसुंधरा जी: "आज बड़ी खुश लग रही हो राधा... कोई खास बात है क्या?"
राधा झेंपते हुए हल्की मुस्कान के साथ कहती है,
राधा: "कुछ नहीं मां... बस ऐसे ही..."
हालाँकि राधा को इस घर में आए अभी केवल दो ही दिन हुए थे, परंतु उसके और वसुंधरा जी के बीच का अपनापन मानो वर्षों पुराना लगने लगा था। वह रिश्ता अब औपचारिक नहीं, आत्मीय हो चला था।
राधा प्यार से चाय और नाश्ता परोसती है।
वसुंधरा जी (ममता भरे स्वर में): "इतना काम मत किया करो, बेटा... थक जाओगी।"
राधा: "मां, पूरे दिन तो वैसे भी कुछ खास करना नहीं होता मुझे... इतना काम कर लेना अच्छा लगता है।"
इतना कहते हुए वो मुस्कुराते हुए चाय उनके हाथ में थमाती ही है कि तभी सीढ़ियों से किसी के तेज़ कदमों की आवाज़ आती है। सामने से केशव उतर रहा था — तेज़ी से, जैसे वक्त के पीछे भाग रहा हो। उसने ब्लैक कलर का फॉर्मल सूट पहना था, बाल सलीके से सेट थे, लेकिन उसकी भौंहे तनी हुई थीं — आंखों में गुस्से की परछाईं साफ़ झलक रही थी।
उसे देखते ही वसुंधरा जी आवाज़ देती हैं:
वसुंधरा जी: "बेटा, आ जा... नाश्ता कर ले। देख, बहू ने आज बहुत अच्छे से बनाया है सब कुछ..."
लेकिन केशव बिना रुके, तल्ख़ लहजे में कहता है,
केशव: "नहीं मां, अभी नहीं। मुझे अर्जेंट मीटिंग में निकलना है।"
राधा को कुछ अच्छा नहीं लगता। वो सहजता से, थोड़ी हल्की फुर्सत में बोल देती है:
राधा: "लेकिन... काम पर जाने से पहले कुछ खा लेना चाहिए, नहीं तो सारा दिन उलझन होती है..."
उसके यह शब्द हवा में कुछ पल के लिए ठहर जाते हैं। वसुंधरा जी तुरंत उसकी ओर देखती हैं — एक ऐसी नज़र जो मानो यह चेतावनी दे रही हो कि केशव को ऐसे टोका जाना बिल्कुल पसंद नहीं।
राधा चुप हो जाती है, लेकिन मन के भीतर एक अनकहा भाव रह जाता है — क्या उसने कुछ गलत कहा?
राधा की कही हुई बात अभी हवा में थमी ही थी कि केशव जैसे झटक कर उस वाक्य को तोड़ देता है। उसकी आंखें एकदम बड़ी हो जाती हैं — गुस्से से भरी हुई, जैसे भीतर कुछ ज्वालामुखी फूटने को हो। वह पलटकर तीखे स्वर में चिल्लाता है:
केशव (गुस्से में):
"नहीं खाना है मुझे! मैंने कहा था न! और ये क्या सगुन-अपशगुन की बातें कर रही हो तुम?
तुम जानती हो… मैंने तो ये शादी ही अपशगुन वाले मुहूर्त में की थी!
मालूम था मुझे — ये नहीं करनी चाहिए थी… वरना कोई बला इस घर में आ जाती।
या शायद… आ ही चुकी है..."
उसकी आवाज़ में जो तिरस्कार था, उसने राधा के अंदर तक छेद दिया।
केशव (तेज स्वर में):
"और हां, कल रात मैंने तुम्हारे खाने की तारीफ कर दी थी — इसका ये मतलब नहीं है कि अब तुम रोज़ मेरे लिए खाना बनाने लगो!
समझी तुम?
मुझे कुछ नहीं खाना… नहीं खाना तुम्हारे हाथों से कुछ भी!"
वो एक पल ठहरता है, उसकी आंखों में अब गुस्से के साथ घृणा भी घुल गई थी।
"बस! मुझे अब जाने दो!"
इतना कहकर वह तेज़ क़दमों से बाहर निकल जाता है, जैसे उस घर से भी भाग जाना चाहता हो।
उसके जाते ही एक गहरा सन्नाटा छा जाता है। राधा कुछ पल वहीं खड़ी रह जाती है — अवाक, अपमानित और टूट चुकी। उसकी आंखों से आसू गिरने लगते है ....
राधा की तेज़ क़दमों से जाती हुई परछाई को वसुंधरा जी चुपचाप देखती रह गईं। उस पल उनके दिल में एक अजीब सी कसक उठी — जैसे किसी माँ का दिल बेटे की बदलती भावनाओं को भांप चुका हो।
वो कुछ पल वहीं खड़ी रहीं, लेकिन फिर गहरी सांस लेते हुए हवेली के हॉल में आ गईं। उन्होंने लकड़ी के पुराने टेलीफोन टेबल पर रखा लैंडलाइन रिसीवर उठाया और एक नंबर डायल किया...
कुछ सेकंड की घंटी के बाद कॉल उठाया गया।
दूसरी ओर से एक शांत और प्रोफेशनल सी आवाज़ आई —
"हेलो, रीटा बोल रही हूं... जी कहिए मैम..."
(रीटा कोई और नहीं बल्कि केशव सिंह की पर्सनल सेक्रेटरी थी।)
वंशज हेरिटेज & प्राइवेट लिमिटेड — एक शाही पहचान, एक विरासत का नाम — भारत ही नहीं, विदेशों में भी अपनी छाप छोड़ चुका था। वंशज ग्रुप पुराने राजमहलों को भव्य रिसॉर्ट्स में बदलकर, रॉयल टूरिज़्म की दुनिया में क्रांति ला चुका था। उनके रिसॉर्ट्स, पारंपरिक स्थापत्य कला और आधुनिक सुविधाओं का अद्भुत संगम माने जाते थे।
राजस्थान से लेकर यूरोप तक, "वंशज हेरिटेज" अब न सिर्फ़ एक ब्रांड था बल्कि एक गर्व, एक इतिहास बन चुका था।
वसुंधरा जी ने धीरे से पूछा,
"रीटा, क्या कंपनी में कोई गड़बड़ चल रही है? कोई प्रॉब्लम?"
रीटा ने ज़रा हैरानी से कहा,
"नहीं मैडम, ऐसी कोई बात नहीं है... सब कुछ बिल्कुल सामान्य है। कुछ हुआ क्या?"
वसुंधरा जी थोड़ी झिझक के साथ बोलीं,
"नहीं... वो दरअसल अभी घर से बहुत गुस्से में निकला है... मुझे लगा शायद कुछ ऑफिस में..."
"नहीं मैम, ऑफिस में तो सब ठीक चल रहा है,"
रीटा ने सहजता से जवाब दिया।
"अच्छा, फिर ठीक है..."
इतना कहकर वसुंधरा जी ने कॉल काट दिया, लेकिन उनका दिल अब भी बेचैन था।
उन्होंने फोन नीचे रखा और गहरी सोच में डूब गईं...
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> "आख़िर केशव के दिल में ऐसा क्या तूफ़ान चल रहा है... जो वो राधा को इतनी कठोरता से जवाब देने पर मजबूर हो गया?"
आप मेरी कहानी पढ़ जरूर रहे हैं लेकिन आप समीक्षा करके मुझे प्रोत्साहन नहीं कर रहे हैं.. देखिए मेरे प्यारे रीडर्स आपकी एक एक समीक्षा मेरे लिए ओर मेरी कहानी के लिए एक मोटिवेशन बन सकती है .. में आशा करती हु की आप मेरे इस एपिसोड में समीक्षा दे ...ताकि उसे हर राजे लिखने में मुझे आनंद मिल सके
................….
वसुंधरा जी केशव की चिंता में एक कोने में जाकर चुपचाप बैठ गई थीं। उनके चेहरे पर बेचैनी की लकीरें साफ झलक रही थीं, मानो उनका दिल किसी अनहोनी की आहट महसूस कर रहा हो।
दूसरी ओर, घने जंगलों को चीरती हुई एक काली कार बेहद तेज़ रफ्तार से दौड़ रही थी। वह कोई और नहीं बल्कि केशव की कार थी। उसके चेहरे पर गुस्से की ऐसी परत चढ़ी थी मानो वह किसी को सबक सिखाने या किसी का काम तमाम करने जा रहा हो।
कुछ देर बाद कार आखिरकार जंगल के बीचोंबीच एक सुनसान जगह पर आकर रुकी। चारों ओर घना अंधेरा पसरा था, इतने पेड़-पौधे थे कि यह बिल्कुल भी नहीं लग रहा था कि दोपहर का समय है। जगह पर सन्नाटा ऐसा था कि पत्तों की सरसराहट भी साफ सुनाई दे रही थी।
जंगल के बीच एक टूटी-फूटी सी झोपड़ी खड़ी थी, जिसकी पुरानी दीवारों पर समय की मार साफ नज़र आ रही थी। केशव तेजी से कार से उतरता है और बिना समय गंवाए झोपड़ी के भीतर चला जाता है।
अंदर कदम रखते ही हल्की-सी बाहर की रोशनी दरारों से भीतर आ रही थी, लेकिन पूरा कमरा अंधेरे में डूबा हुआ था। उसी अंधेरे में, काले कपड़े में लिपटा एक आदमी पैरों को मोड़कर बैठा हुआ था। उसके हाथ में बीड़ी थी, जिसकी हल्की-सी लाल तपिश अंधेरे में चमक रही थी। वह धीमे से कस खींचते हुए मुस्कुराकर बोला—
"तुम आ गए…"
केशव गुस्से में भड़क उठा। वह तेजी से आगे बढ़ा और उस आदमी की कॉलर पकड़कर गुर्राता हुआ बोला—
"तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरे घर के लोगों को नुकसान पहुंचाने की???"
उसकी आंखों में गुस्सा तो था ही, लेकिन उनमें एक और अजीब-सी चमक थी… मानो कोई छुपा हुआ राज वहां दबा बैठा हो।
वह आदमी शांत भाव से बोला—
"क्या हुआ? तुम इतने गुस्से में क्यों हो?"
केशव जोर से चिल्लाया—
"मेरे प्यारे… चाचा जी!!! आपकी इतनी हिम्मत???"
अब रोशनी में उसका चेहरा साफ दिखने लगा। वह कोई और नहीं बल्कि मनराज था—केशव का चाचा, जो उसके पिता का सगा भाई था। मनराज की नजरें हमेशा से ही केशव की दौलत पर थीं।
मनराज हंस पड़ा और तानेभरे स्वर में बोला—
"वाह… क्या एक्टिंग करते हो तुम! मुझे तुम्हारी यही बात पसंद है। तुम अपने किरदार में ऐसे घुल जाते हो जैसे सच में तुम… असली केशव हो।"
यह सुनते ही केशव की आंखों का गुस्सा एक ठंडी मुस्कान में बदल गया। उसने गहरी सांस लेते हुए कहा—
"यही तो मेरी खासियत है… पापा। देखो, अब तो मैं बिल्कुल केशव जैसा ही लग रहा हूं, है ना?"
मनराज ने अचानक हंसी में ही केशव को अपनी बाहों में भर लिया। उसकी पकड़ में एक अजीब-सी बनावटी मोहब्बत झलक रही थी।
"बिल्कुल मेरे प्यारे बेटे…" वह धीमे से फुसफुसाया।
केशव भी मुस्कुराता हुआ उसके गले लग गया। दोनों की यह झूठी आत्मीयता उस अंधेरे कमरे में एक खतरनाक साज़िश की गूंज पैदा कर रही थी।
कुछ पल बाद केशव ने एक कदम पीछे हटते हुए कहा—
"पापा, रुको… मैं आपके लिए कुछ खास लेकर आया हूं।"
वह तेजी से बाहर कार की ओर गया और कुछ देर में एक भारी-भरकम ब्रीफकेस लेकर लौटा। मनराज की आंखों में पहले से ही लालच की चमक तैरने लगी थी।
केशव ने ब्रीफकेस उसके सामने रखा और धीरे-धीरे उसे खोला। जैसे ही ब्रीफकेस का ढक्कन उठा, सोने की अंगूठियां, मोटी चेनें और पैसों की गड्डियां उसकी आंखों के सामने चमकने लगीं।
मनराज के चेहरे पर हवस भरी मुस्कान फैल गई। वह आगे बढ़ा, झुककर उस ब्रीफकेस में रखी दौलत को सूंघने लगा, जैसे उसमें कोई नशा हो।
"वाह… ये राजघराने की बात ही अलग है!" उसने ठंडी सांस खींचते हुए कहा।
वह सोने की अंगूठियां और चेनें अपने हाथों में भर-भरकर देखने लगा, उन्हें अपनी उंगलियों में पहनकर निहारने लगा। फिर पैसों की मोटी गड्डियां उठाकर अपने सीने से लगा लीं।
"यही फायदा है तुम्हारा उस घर के अंदर रहने का!" मनराज हंस पड़ा। उसकी हंसी धीमे-धीमे पूरे कमरे में गूंजने लगी, और कुछ ही पल बाद केशव भी उसी हंसी में शामिल हो गया।
मनराज ने केशव की ओर देखकर ताने भरे स्वर में कहा—
"बिचारी भाभी… उसे तो यह तक पता नहीं कि जिसके बेटे के रूप में वह जी-जान से मोह करती है, वो वास्तव में मेरा केशव… यानी मेरा असली वंश है! वो कब से उस घर में रह रहा है, ये सोचकर ही मज़ा आ रहा है!"
मनराज की आंखों में लालच और क्रूरता का अजीब-सा संगम था। उसकी बातों में छिपी जीत की खुशी हवा को और भारी बना रही थी, मानो यह राजघराना अब उनके हाथों की कठपुतली बन चुका हो।
झोपड़ी के भीतर लालटेन की हल्की रोशनी कमरे की दीवारों पर डरावने साए बना रही थी। अंधेरे और खामोशी के बीच वंश—जो दुनिया के सामने केशव बनकर जी रहा था—शांत स्वर में बोला,
"पापा, आप फिक्र मत कीजिए… मैं हूं न। जब तक पूरी जायदाद हमारे हाथ में नहीं आ जाती, मैं चैन से नहीं बैठूंगा।"
इतना कहकर वंश लकड़ी की पुरानी खटिया पर बैठ गया। उसकी आंखों में योजनाओं की एक ठंडी चमक थी। कुछ पल रुकने के बाद उसने धीमे स्वर में पूछा—
"लेकिन पापा… उस राधा का क्या?"
वंश का सवाल सुनते ही मनराज का चेहरा गंभीर हो गया। वह ब्रीफकेस में रखी दौलत पर हाथ फेरते हुए बोला,
"बेटा, तुम्हें उसे जिस तरह रखना है, रखो। चाहे प्यार दिखाकर या डराकर… कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन ध्यान रहे, उसे तनिक भी चोट नहीं आनी चाहिए।"
मनराज ने आंखें सिकोड़ते हुए आगे कहा,
"तुम्हें तो पता ही है… उस लड़की का इस खेल में कितना बड़ा रोल है। उसकी वजह से ही हमारी यह पूरी चाल कामयाब हो सकती है। वह मेरी दौलत तक पहुंचने की चाबी है।"
वंश ने हल्की-सी मुस्कान के साथ सिर हिलाया।
"आप बिल्कुल चिंता मत करें पापा… अब देखिए, शादी तो हो ही चुकी है। कुछ ही दिनों में मैं उसे तलाक भी दे दूंगा।"
उसने होंठों पर एक व्यंग्यात्मक मुस्कान खींचते हुए कहा,
"क्योंकि मुझे उस गंवार के साथ नहीं रहना। मेरी आज़ादी ही मेरी असली पत्नी है, पापा… वही मेरी जिंदगी है। राधा तो बस हमारे प्लान का हिस्सा है।"
वंश की आवाज़ में इतनी ठंडक थी कि कमरे का माहौल और भारी हो गया। मनराज के चेहरे पर संतोष की एक क्रूर मुस्कान उभर आई। उनकी योजना धीरे-धीरे सफल हो रही थी।
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क्या कभी इस वसुंधरा जी जान पाएंगे केशव के रूप में छिपे हुए वंश को??? आखिर राधा कैसे हैं चाबी???
अगर ये वंश हैं तो असली केशव हैं कहा?? आगे क्या राजघनारा हैं खतरे में ?? क्या होगा?? इन सभी सवाल के जवाब जान के के लिए पढ़ते रहिए
आपके रेटिंग मेरे लिए महत्व हैं मुझे आशा हैं कि आप मुझे रेटिंग दीजिए और कमेंट करते हुए बताए कि ये कहानी कैसी लग रही हैं आप को ????
वंश अपने पिता से मिलते हुए ठंडी सी आवाज़ में कहता है,
"पापा... बस एक बात ध्यान में रखिए, बीच-बीच में कॉल मत किया कीजिए। जब समय होगा, मैं खुद आपसे बात कर लूंगा।"
इतना कहकर वो अपने पिता को हल्के से गले लगाता है और वहां से निकल पड़ता है।
जैसे ही वो अपनी कार में बैठता है, उसका फोन बज उठता है। स्क्रीन पर नाम चमकता है—रीटा।
वंश फोन देखते ही बड़बड़ाता है,
"ये रीटा भी न... हर बार जैसे मुसीबत लेकर ही आती है!"
फिर कॉल रिसीव करते हुए सामान्य स्वर में कहता है,
"हाँ बोलो रीटा, क्या बात है?"
रीटा एक गंभीर आवाज़ में बताती है कि उसे एक हाई-प्रोफाइल पार्टी से मीटिंग करनी है—जो देश की एक नामी पॉलिटिकल पार्टी है—और ये मीटिंग कंपनी के एक बड़े कॉन्ट्रैक्ट से जुड़ी है।
वंश थोड़ा सोचते हुए कहता है,
"ठीक है... तुम उन्हें कह दो कि तीन बजे हमारी ऑफिस में आ जाएं।"
लेकिन रीटा फौरन मना कर देती है,
"सर, वो लोग ऑफिस नहीं आएंगे। आपको ही वहाँ जाना पड़ेगा।"
वंश थोड़ी देर चुप रहता है फिर गहरी सांस लेकर कहता है,
"ठीक है, पता भेजो। मैं समय पर पहुंच जाऊंगा।"
इसके बाद सीन में एक ट्रांज़िशन होता है—अब स्क्रीन पर "केशव" नज़र आता है।
केशव, काम में इतना खोया हुआ होता है कि लगता है जैसे उसकी रगों में वंश नहीं, खुद केशव ही बह रहा हो। वो जैसे ही मीटिंग लोकेशन पर पहुंचता है, वहाँ मौजूद लोग उसे देखकर खड़े हो जाते हैं।
मीटिंग शुरू होती है और हर सवाल का जवाब, हर डॉक्यूमेंट का क्लैरिफिकेशन—केशव इतनी सहजता और आत्मविश्वास से देता है कि सामने वाले इंप्रेस हुए बिना नहीं रहते।
मीटिंग खत्म होते ही केशव अपना फोन उठाता है और रीटा को कॉल करके कहता है,
"मीटिंग हो गई है... और हाँ, डील भी पक्की हो चुकी है।"
रीटा की आवाज़ में खुशी साफ झलक रही थी।
"Congratulations, sir!"
इतना कहकर वो कॉल काट देती है।
अब ऑफिस में उसका कोई खास काम नहीं बचा था, इसलिए वंश सीधा हवेली लौटने का निर्णय लेता है।
हवेली में जैसे ही वो प्रवेश करता है, उसकी नजर सामने के गार्डन पर पड़ती है। वहां, धूप की हल्की किरणों के बीच, राधा गुलाब का फूल हाथ में लिए खड़ी थी।
उसका चेहरा... जैसे उस गुलाब से भी ज्यादा कोमल और खिला हुआ था। हल्की हवा उसके बालों को छू रही थी, और वो नज़ारा वंश की धड़कनों को कुछ पल के लिए थाम देता है।
उस एक पल में वंश को लगा जैसे वक्त थम गया हो… और राधा उसकी आँखों का केन्द्र बन गई हो।
वंश धीमे क़दमों से कार से उतरता है और बिना कुछ कहे सीधे गार्डन की ओर बढ़ता है। उसकी नज़रें लगातार राधा पर टिकी थीं, मानो वो कोई सपना हो जिसे छूने की इच्छा हो लेकिन डर हो कि वो टूट न जाए।
राधा को अपनी ओर आता देख वह चौंकती नहीं, लेकिन उसकी नज़रें फूल से हटकर वंश की ओर चली जाती हैं।
वंश उसके पीछे धीरे-धीरे चलता है… लेकिन तभी उसके पैर के नीचे कुछ आता है—
वंश के पैर के नीचे अचानक कुछ आता है — वो नीचे झुककर देखता है, तो पता चलता है कि राधा का दुपट्टा गार्डन की एक छोटी झाड़ी में उलझ गया है।
राधा जैसे ही चलने के लिए कदम बढ़ाती है, उसका दुपट्टा खिंच जाता है और वो लड़खड़ाकर गिरने ही वाली होती है...
लेकिन ठीक उसी पल, वंश तेज़ी से आगे बढ़ता है और राधा को अपनी बाँहों में थाम लेता है।
राधा के होंठों पर एक अधूरी चीख अटक जाती है, और उसकी साँसें जैसे थम सी जाती हैं। वो खुद को वंश की पकड़ में पाती है — उसके बेहद करीब।
कुछ पल के लिए समय जैसे थम सा जाता है...
राधा की आंखें वंश की आंखों से टकराती हैं — और उसी पल दोनों की दुनिया जैसे सिमट कर एक-दूसरे की आंखों में समा जाती है।
कोई शब्द नहीं, कोई हरकत नहीं... बस आंखों की खामोश जुबान थी जो सब कह रही थी।
हवा की धीमी सरसराहट, गुलाब की भीनी खुशबू, और दोनों की धड़कनों की गूंज… सब मिलकर एक अद्भुत माहौल रच रहे थे।
वंश की पकड़ थोड़ी ढीली पड़ती है, लेकिन उसकी नजरें राधा से हटी नहीं।
राधा भी उसकी आंखों में एक अजीब सी गहराई महसूस करती है — जैसे वो नफरत नहीं, बल्कि कोई दबी हुई चाहत की परछाईं हो।
कुछ पल बाद राधा खुद को सँभालती है और झेंपते हुए अपनी नजरें झुका लेती है।
वंश हल्के से मुस्कुराता है... लेकिन वो मुस्कान खुद उसे भी अजनबी सी लगती है।
राधा खुद को वंश की बांहों से अलग करते हुए झट से खड़ी हो जाती है। उसे तुरंत सुबह की बात याद आ जाती है — वही कड़वे शब्द, वही तिरस्कार… और उसका चेहरा एक पल में फिर से कठोर हो उठता है।
वो तेज़ी से पलटती है और बिना कुछ कहे वहां से निकल जाती है।
वंश उसे इस तरह जाते हुए देखता है तो उसके चेहरे पर हल्की उलझन उभर आती है।
वो मन ही मन बड़बड़ाता है,
"इसे अचानक क्या हो गया? अभी तो सब ठीक था..."
फिर कुछ सोच में डूब ही रहा होता है कि उसे कोई ज़रूरी काम याद आ जाता है… और वो भी अपने रास्ते बढ़ जाता है।
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अगली सुबह...
राधा सुबह-सुबह उठ चुकी थी। आज का सूरज जैसे उसके चेहरे पर थोड़ी सी शांति लेकर आया था।
वो हवेली के लिविंग एरिया में वसुंधरा जी के साथ बैठी थी, और दोनों के बीच घरेलू बातों की प्यारी सी बातचीत चल रही थी।
राधा के चेहरे पर एक सादगी भरी मुस्कान थी — और वसुंधरा जी के चेहरे पर एक माँ जैसी रौनक।
तभी वहां केशव की एंट्री होती है।
भले ही अब वह ‘वंश’ के नाम से जाना जाता हो, लेकिन वसुंधरा जी के लिए उसके मन में हमेशा वही आदर और स्नेह रहा — जो एक बेटे का अपनी माँ के लिए होता है।
केशव (वंश) लिविंग एरिया में आते ही आदरपूर्वक कहता है,
"गुड मॉर्निंग, मम्मीजी।"
वसुंधरा जी उसकी ओर देखकर मुस्कुराती हैं और आशीर्वाद देती हैं।
राधा चुपचाप बैठी, तिरछी नज़रों से वंश की ओर देखती है — जैसे उसे पढ़ना चाहती हो, जानना चाहती हो कि उसके दिल में क्या चल रहा है।
लेकिन वंश की आंखें एक पल के लिए भी राधा पर नहीं टिकतीं।
वो सहज भाव से आकर एक कुर्सी खींचता है और अखबार उठाने लगता है।
राधा मन ही मन कुढ़ती है —
"ये इंसान है या पहेली? कभी तो ऐसा लगता है जैसे बस मेरे लिए ही बना हो... और कभी ऐसे अनजान बन जाता है जैसे जानता ही न हो। एकदम ठंडा, बर्फ जैसा... क्या पागल है ये!"
वो उसकी ओर देखती है... और उसके अंदर एक अजीब सी कशमकश चलती रहती है —
नफ़रत, जिज्ञासा, और शायद… एक कोमल सी चाहत भी।
To be continued 💫🦋💙
सुबह का माहौल हल्का तनावपूर्ण था, लेकिन वसुंधरा जी ने उस सुबह एक फैसला ले लिया था। केशव की ओर देखकर वे मुस्कराते हुए बोलीं,
"बेटा, हमारी बहू ने अभी तक हमारे एंटरप्राइज़ को देखा ही नहीं है... मैन ऑफिस भी नहीं। तो आज तुम उसे सब कुछ दिखाने ले जाओगे।"
राधा यह सुनकर चौंक गई।
"मैं? क्या?" — उसके लबों से अनायास ही निकल पड़ा।
वसुंधरा जी ने उसकी ओर देखकर स्नेह से कहा,
"क्यों नहीं? मेरी एक ही बहू हो, और वो हो तुम... तो तुम्हें ही कहूंगी न।"
वे मुस्कुराईं, जैसे पहले से ही सब तय कर रखा हो।
केशव, जो अब तक चुप था, मजबूरन हामी भरता है। वो हल्की तिरछी नजर से राधा को देखते हुए कहता है,
"ठीक है, एक घंटे में रेडी रहना। चलना है।"
मगर भीतर से वह उलझन में था।
“मैंने अपनी शादी की बात दुनिया से छिपा रखी है… अब इसे ऑफिस कैसे ले जाऊं?” — ये सोचते हुए उसकी नजर मां पर पड़ी, लेकिन वह कुछ बोला नहीं।
वसुंधरा जी उसकी खामोशी भांप गईं।
"क्या सोच रहा है?" — उन्होंने पूछा।
"कुछ नहीं, मैं चलता हूं… एक घंटे में मिलता हूं।" — यह कहकर वह वहां से चला गया।
राधा भी चुपचाप वसुंधरा जी से विदा लेकर तैयार होने चली गई।
वसुंधरा जी के चेहरे पर हल्की, रहस्यमयी मुस्कान उभर आई।
एक घंटे बाद…
केशव कार में उसका इंतज़ार कर रहा था। तभी वह दूर से आती दिखाई दी—येलो कलर की लॉन्ग ड्रेस में, खुले बाल, आंखों में सजी काजल की सिम्पल लकीरें, उसकी खूबसूरती एक पल को केशव को भी अटकने पर मजबूर कर देती है।
लेकिन वो खुद को संभालते हुए आंखें फेरकर ड्राइविंग पर ध्यान देता है।
राधा चुपचाप पीछे की सीट पर बैठ जाती है। कार तेज़ी से चल पड़ती है… बिना किसी बात के।
कुछ देर बाद, वे वंशज हेरिटेज प्राइवेट लिमिटेड के सामने खड़े थे।
राधा की आंखें हैरानी से फैल जाती हैं।
"वाह! ये कितनी बड़ी जगह है…" — वह खुद-ब-खुद बोल पड़ती है।
केशव थोड़ा व्यंग्य से कहता है,
"तो क्या सोचा था, हमारी कंपनी गली की दुकान है?"
राधा मुंह बनाती है, लेकिन फिर भी मुस्कुराकर कहती है,
"नहीं सच में बहुत बड़ी है…"
वह कार से निकलने लगती है, तभी केशव की आवाज तेज़ होती है,
"रुको! एक बात सुन लो। यहां किसी को भी मेरी शादी के बारे में नहीं पता… सिक्योरिटी रीजन है। अगर कोई कुछ पूछे, तो कुछ भी बोल देना—but ये मत कहना कि तुम मेरी बीवी हो।"
राधा एक पल के लिए चौंक जाती है। उसकी नजर अपने गले के मंगलसूत्र पर जाती है।
केशव की आंखें भी उसी ओर घूमती हैं।
"इसे यहीं उतार दो…" — वह कहता है, थोड़ा सख्ती से।
राधा शांत लेकिन दृढ़ स्वर में जवाब देती है,
"नहीं… इसे मैं नहीं उतार सकती।"
उसकी आंखों में हल्की जिद थी। फिर उसने अपने दुपट्टे को सावधानी से इस तरह गले पर डाल लिया कि मंगलसूत्र ढक जाए।
"अब ठीक है? दिख तो नहीं रहा न?" — वह तंज कसती है और मुंह बनाते हुए बाहर निकल जाती है।
राधा के जाते ही केशव गहरी सांस लेकर बुदबुदाता है,
“अगर पापा ने इसे 'अच्छी तरह से रखने' को न कहा होता, तो ये अब तक मेरे कटु शब्दों की आग में जल चुकी होती…”
केशव कुछ कर भी नहीं सकता था… इसलिए वो बस चुपचाप कुछ देर तक वहीं बैठा रहा। मन भले ही अशांत था, लेकिन चेहरा बिल्कुल निर्विकार। थोड़ी देर बाद वह चुपचाप कार की चाबी उठाता है और निकल पड़ता है।
दूसरी ओर, राधा उस आलीशान कंपनी के बाहर खड़ी होकर उसे निहार रही थी, जैसे किसी भूखे ने पहली बार थाली में खाना देखा हो। उसकी आंखें इधर-उधर हर चीज़ को जिज्ञासा से देख रही थीं—बड़े-बड़े ग्लास डोर्स, चमकते ऑफिस बोर्ड्स, आने-जाने वालों की फॉर्मल ड्रेस और पूरे माहौल की तेज़ चमक उसे चकित कर रही थी।
तभी एक सिक्योरिटी गार्ड उसके पास आता है और रुकने का इशारा करता है।
गार्ड सख्ती से कहता है:
"मैम, आप अंदर नहीं जा सकतीं।"
राधा थोड़ी अकड़ में बोलती है:
"आप मुझे जानते नहीं हैं... मैं कौन हूँ। मुझे जाने दीजिए।"
गार्ड थोड़ी नरमी से जवाब देता है:
"नहीं मैडम, मैं आपको नहीं जानता… इसलिए माफ कीजिए, बिना परमिशन के आप अंदर नहीं जा सकतीं।"
राधा कुछ कह ही रही थी कि तभी पीछे से एक जानी-पहचानी आवाज आती है—
केशव की गंभीर आवाज गूंजती है:
"ये मेरे साथ आई हैं... मेरी रिलेटिव हैं।"
सिक्योरिटी गार्ड तुरंत सतर्क मुद्रा में खड़ा हो जाता है और दोनों को अंदर जाने देता है।
केशव आगे बढ़ते हुए कहता है:
"अगर कोई पूछे तो बस यही कहना कि तुम मेरी रिश्तेदार हो… और कुछ नहीं। ज्यादा बोलने की ज़रूरत नहीं है।"
इतना कह कर वह लिफ्ट की ओर बढ़ जाता है। राधा चुपचाप उसके पीछे चलने लगती है।
कुछ ही पलों में लिफ्ट आ जाती है। दोनों अंदर दाखिल होते हैं और जैसे ही दरवाजे बंद होते हैं, एक पल के लिए समय जैसे थम जाता है।
केशव की निगाह राधा की गहरी काली पलकों पर टिक जाती है। उन पलकों में न जाने कितनी भावनाएं छिपी थीं — डर, जिज्ञासा, और थोड़ी सी मासूम जिद।
कुछ ही मिनटों बाद, लिफ्ट पाँचवी मंज़िल पर पहुंचती है। दोनों बाहर निकलकर केशव के केबिन की ओर बढ़ते हैं।
लेकिन तभी सामने से एक आवाज आती है —
"केशव सर!"
दोनों रुक जाते हैं और सामने देखते हैं।
वह रीटा थी — केशव की पर्सनल असिस्टेंट। हाथ में फाइल्स लिए वह कुछ कहने ही वाली थी...
जैसे ही केशव और राधा उसके सामने आते हैं, रीटा की नजर सीधी राधा पर जाती है। एक पल के लिए वह ठिठक जाती है।
राधा की सादगी में जो कशिश थी, वो रीटा की स्टाइलिश और प्रोफेशनल लुक को भी फीका कर रही थी।
उसकी आंखों में हल्की-सी जलन चमक उठती है। चेहरा थोड़ा बिगड़ता है, और वो बेमन से पूछती है:
"सर… ये कौन हैं?"
रीटा का टोन और उसके चेहरे की अभिव्यक्ति देखकर राधा को साफ़ समझ में आ गया कि यह औरत उसे पसंद नहीं कर रही।
राधा कुछ नहीं कहती, बस हल्के से केशव की ओर देखने लगती है — जवाब देने की ज़िम्मेदारी अब उसी पर थी।
केशव संयमित स्वर में जवाब देता है:
"ये मेरी रिश्तेदार हैं।…
और हाँ, इन दोनों के लिए कॉफी लेकर आओ — मेरे लिए और इनके लिए भी।"
रीटा ने सिर तो हिलाया, लेकिन उसके दिल में जलन की आग और तेज हो गई।
‘केशव सर के लिए कॉफी लाना तो ठीक है… लेकिन इस लड़की के लिए? क्यों?’
उसका मन कुढ़ रहा था।
वो अंदर ही अंदर बुदबुदाई:
"सर की रिश्तेदार? या फिर कोई और रिश्ता...? क्या ये उनकी गर्लफ्रेंड तो नहीं? नहीं… नहीं ऐसा नहीं हो सकता! केशव सर को मैं पसंद करती हूं… और कोई उन्हें मुझसे नहीं छीन सकता।"
जब वह उन दोनों को साथ-साथ आगे जाते देखती है, तो अपनी जलन पर काबू नहीं रख पाती और उन्हें रोकते हुए कहती है:
"सर… जिस कंपनी की मीटिंग के लिए आप गए थे, उनके ओनर यहाँ आए हुए हैं… आपसे फाइनल डिस्कशन करने।"
केशव तुरंत चौकन्ना होता है:
"कहाँ हैं वो?"
रीटा जवाब देती है:
"आपके केबिन में ही बैठे हैं, सर।"
यह सुनते ही केशव का चेहरा गुस्से से तन जाता है। वह तीखे लहजे में बोलता है:
"कितनी बार कहा है… जब तक मैं खुद ना कहूं, तब तक किसी को केबिन में मत आने दो। लेकिन तुम्हें ये बात समझ ही नहीं आती!"
इतना कहकर वो तेज़ी से केबिन की ओर बढ़ जाता है।
राधा, जो अब तक शांत खड़ी थी, रीटा की ओर एक नज़र डालती है — जिसमें न घमंड था, न डर… बस साफ़-साफ़ समझने वाली नजर थी।
वो भी चुपचाप केशव के पीछे केबिन की ओर बढ़ जाती है।
रीटा खीज जाती है…
"मेरे सामने ही डांट दिया… और वो भी उसी लड़की के सामने जिसे वो रिश्तेदार कह रहे हैं? ये क्या चल रहा है?"
उसका दिल अभी भी धधक रहा था…
जिस आवाज़ को वह अब तक वसुंधरा जी के सामने मुलायम और सम्मानित समझती थी, उसी के पीछे एक चालाक और सख्त चेहरा छिपा बैठा था — और उस चेहरे के करीब अब कोई और आ रहा था… जिसे वह सह नहीं पा रही थी।
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रीटा धीमे क़दमों से कॉफी कप लिए केशव के केबिन में दाखिल हुई। सामने केशव बैठा था, अपने क्लाइंट के साथ गहराई से चर्चा में डूबा हुआ। राधा पास के सोफे पर शांत बैठी थी, आँखों में जिज्ञासा और चेहरे पर सादगी का सुकून।
रीटा बिना कुछ बोले कॉफी का मग टेबल पर रख देती है और कुछ कदम पीछे जाकर खड़ी हो जाती है। राधा उसकी झिझक भरी खामोशी को देख मुस्कराती है और इशारे से उसे अपने पास बैठने को कहती है।
ये देख केशव की नजर अनायास उन दोनों पर चली जाती है। उसके मन में एक बेचैनी सी उठती है — "बस… ये कोई ऐसी हरकत न कर दे जिससे लोगों को पता चल जाए कि ये मेरी बीवी है…"
अचानक क्लाइंट की तेज़ आवाज़ उसकी तंद्रा तोड़ देती है — “केशव जी! आप कहाँ खो गए?”
केशव झेंपते हुए तुरंत जवाब देता है, “नहीं… कुछ नहीं। तो फिर… इस डील को पक्का मानें?”
क्लाइंट मुस्कराते हुए सिर हिलाता है, “बिलकुल, ये डील पक्की है।” इतना कह कर वो खुद ही उठता है और निकलते हुए कहता है, “आप अपनी कॉफी का आनंद लीजिए, हम चलते हैं।”
जैसे ही क्लाइंट बाहर जाता है, रीटा तुरंत राधा के बगल में आ बैठती है। उसके चेहरे पर संतोष था, आँखों में चमक — “फाइनली सर! हमें डीलरशिप मिल गई… और वो भी इतना बड़ा ऑर्डर। अब हमारी कंपनी उड़ान भरने के लिए तैयार है!”
केशव सौम्यता से मुस्कराकर सिर हिलाता है — "इस कंपनी को नहीं… बल्कि मुझे और मेरे पापा को अब एक नई उड़ान मिलने वाली है…"
राधा हल्के से मुस्कराती है, लेकिन वो ब्लैक कॉफी उसे रास नहीं आ रही थी। वो उठती है, धीरे से बाहर जाने लगती है। तभी रीटा एक चालाकी से अपना पैर थोड़ा आगे कर देती है। राधा का पैर उससे टकरा जाता है और उसका संतुलन बिगड़ता है।
अगले ही पल…
कॉफी का मग राधा के हाथ से छूटता है और गर्म ब्लैक कॉफी सीधे केशव के कीमती ब्लैक सूट पर गिर जाती है।
एक पल के लिए कमरे में सन्नाटा छा जाता है।
केशव की आँखों में गुस्से की चिंगारी चमक उठती है। उसे अपनी चीज़ों में परफेक्शन चाहिए होता है — न कोई धब्बा, न कोई खोट। और अब उसके सूट पर वह दाग… उसके धैर्य की सीमा को तोड़ देता है।
उसकी आवाज गूंज उठती है — “रा—धा!! ये तुमने क्या किया??”
राधा सिहर उठती है। उसने केशव को पहले कभी इतना ऊँची आवाज़ में बोलते नहीं सुना था। वो घबरा कर कहती है, “सॉरी… मुझसे गलती हो गई…”
लेकिन केशव रुकता नहीं — “गलती? तुम्हें पता है न, मुझे अपनी चीज़ें खराब होना बिल्कुल पसंद नहीं!”
राधा कांपती आवाज़ में बोलती है, “पर मैंने जानबूझकर नहीं किया… ये तो रीटा—”
लेकिन उसके शब्द अधूरे रह जाते हैं, क्योंकि रीटा तुरंत बीच में बोल पड़ती है — “राधा की कोई गलती नहीं है सर। शायद चलते वक्त उनका बैलेंस बिगड़ गया होगा। आइए… मैं आपका सूट साफ कर देती हूं।”
फिर वो अपनी तिरछी नज़रों से राधा को ऐसे देखती है, जैसे किसी खेल में चाल जीत ली हो
केशव का चेहरा गुस्से से लाल हो गया था। वह राधा की ओर उँगली उठाते हुए चीख पड़ा —
"तुम्हारी ही गलती है, फिर भी देखो… रीटा कितनी समझदारी से संभाल रही है सब कुछ!"
रीटा, जो एक चालाक मुस्कान के साथ केशव का कोर्ट उठाकर केबिन से बाहर निकल चुकी थी, अपने पीछे एक बार फिर राधा को दोषी साबित करके गई थी।
जैसे ही वह बाहर निकली, केशव राधा की ओर तेज़ी से बढ़ा। उसकी आँखों में झलकता गुस्सा अब राधा पर फट पड़ने को तैयार था। उसने राधा का बाजू झटके से पकड़ते हुए कहा —
"तुम जब से मेरी ज़िंदगी में आई हो, कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा! ये सुंदरता किस काम की, जब तुम एक मामूली चीज़ भी नहीं संभाल सकती!"
उसका पकड़ना इतना ज़ोरदार था कि राधा की आँखों से आंसू बहने लगे। दर्द उसके चेहरे पर साफ़ था, पर शब्द फिर भी उसने कहे —
"मुझे दर्द हो रहा है..."
उसके शब्दों ने जैसे कुछ पल के लिए केशव की चेतना को झकझोर दिया। उसने देखा — राधा की त्वचा पर उसकी उँगलियों के गहरे निशान पड़ गए थे। बाजू लाल हो चुका था। उसकी पकड़ ढीली पड़ी और फिर वो चुपचाप पीछे हट गया।
राधा कुछ पल उसे देखती रही — शायद जवाब की उम्मीद थी या शायद खुद से ताक़त जुटा रही थी। फिर बिना कुछ कहे वो धीमे कदमों से बाहर चली गई।
थोड़ी देर बाद रीटा बाथरूम से लौटती है। कोर्ट साफ कर चुकी थी। वह मुस्कराते हुए केशव को कोर्ट पकड़ाती है, और जल्दी ही नोटिस करती है — राधा अब वहाँ नहीं है। उसके चेहरे पर एक हल्की सी संतुष्ट मुस्कान तैर जाती है।
वक़्त कब बीत गया, किसी को पता ही नहीं चला।
शाम के छह बज चुके थे।
केशव ने घड़ी पर नज़र डाली और कुर्सी से पीछे झुकते हुए एक लंबी साँस ली। उसके चेहरे पर सोच और पछतावे की परछाइयाँ थीं।
"मैंने राधा से बहुत ज़्यादा कह दिया..." — उसने मन ही मन स्वीकारा।
चारों ओर निगाहें दौड़ाईं — लेकिन राधा कहीं नहीं थी।
तभी उसे याद आया… दोपहर में जब राधा केबिन से बाहर गई थी, उसके बाद से वह कभी लौटी ही नहीं।
केशव ने घड़ी की ओर एक बार फिर देखा — शाम के छह बज चुके थे। राधा की गैरमौजूदगी अब उसके भीतर एक अजीब सी बेचैनी घोल रही थी। उसे खुद समझ नहीं आ रहा था कि ये बेचैनी क्यों है, लेकिन उसका मन बार-बार बस यही कह रहा था — "राधा को ढूंढो।"
बिना एक पल गँवाए, केशव तेज़ी से अपने केबिन से बाहर निकला। एक-एक माले पर दौड़ते हुए उसकी नज़रें हर कोने में राधा को तलाश रही थीं। हर लिफ़्ट, हर कॉरिडोर, हर खिड़की के पास — लेकिन राधा कहीं नहीं थी। जैसे वो इस इमारत से गायब ही हो गई हो।
अब उसके भीतर घबराहट ने जड़ें जमा ली थीं। वह सीधा बिल्डिंग के बाहर आया और सिक्योरिटी कार्ड पर नज़र टिकाते हुए पूछा,
"जो लड़की सुबह मेरे साथ आई थी... क्या वो यहां से बाहर गई है?"
सिक्योरिटी गार्ड ने हल्की सी हामी में सिर हिलाते हुए कहा,
"हाँ साहब, थोड़ी देर पहले वो बाहर निकली थीं… राइट साइड की ओर गई थीं।"
केशव के मन में एकदम से खटका उठा —
"राइट साइड तो जंगल की ओर है..."
उसने तुरंत अपनी कार निकाली और तेज़ रफ्तार में सड़क पर दौड़ाने लगा। लेकिन इस बार उसकी आंखें सड़क पर नहीं थीं — वो हर पेड़, हर मोड़, हर परछाईं में राधा को ढूंढ रहा था।
तेज हवा के बीच, पेड़ों की शाखाएं झूल रही थीं, सूरज ढल रहा था, और एक सन्नाटा पूरे रास्ते पर बिखरा था। तभी उसकी नज़र सड़क के एक किनारे पर जाती है...
एक लड़की…
जो धीमी चाल से, बिना पीछे देखे, खामोशी से चल रही थी।
उसके कंधे पर रखा पीला दुपट्टा हवा में लहरा रहा था।
उसकी चाल में थकावट थी, और सन्नाटा उसके आसपास चुपचाप चल रहा था।
केशव की साँसें रुक गईं।
उसने धीमे स्वर में, अपने आप से कहा —
"राधा..."
उस पल, जैसे उसके दिल की धड़कनें उस लड़की के कदमों की गति से जुड़ गई थीं।
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केशव की आँखों ने जैसे ही सामने चलती लड़की को पहचाना, उसके मुंह से बस एक ही शब्द निकला—"राधा..."
उसे यकीन था, वही है। वह बिना कुछ सोचे कार से बाहर कूद पड़ता है।
उसने देखा कि राधा एक तेज़ ट्रक की सीधी लाइन में खड़ी थी, जो लगातार हॉर्न बजाए चला आ रहा था। लेकिन राधा की आँखें कहीं और थीं—जैसे वो होश में ही नहीं थी।
केशव को एक पल भी गंवाना मंज़ूर नहीं था। उसने दौड़कर राधा का हाथ थामा और उसे अपनी ओर खींच लिया। ट्रक उनकी बेहद नज़दीक से निकल गया, और उस खिंचाव में दोनों सड़क पर गिर पड़े—रोल होते हुए, संभलते हुए। कभी राधा ऊपर थी, तो कभी केशव।
दोनों की रफ्तार एक पेड़ के पास आकर थमी। मिट्टी से सने चेहरे, उलझे हुए बाल और धड़कनों की तेज़ आवाज़ों के बीच केशव चीख पड़ा:
"तुम पागल हो गई हो क्या? इस तरह से सड़क पर चलती है कोई? तुम्हारा ध्यान कहाँ था?"
राधा कुछ नहीं बोली। बस उसे एकटक देखती रही। उसकी खामोशी केशव को बेचैन कर रही थी।
केशव ने झुंझलाकर चुटकी बजाई—
"राधा, ध्यान कहाँ है तुम्हारा?"
राधा जैसे किसी गहरे ट्रान्स से बाहर आई और फिर उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। उसने टूटे स्वर में कहा:
"क्यों रोका आपने मुझे? अगर मेरी मौजूदगी आपकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी परेशानी है... तो मर जाने देते न मुझे। आपने मुझे बचाकर अपनी उसी परेशानी को फिर से जिंदा कर दिया है।"
वो रोती रही... और अपनी तकलीफ़ कहती रही... पर अचानक उसकी आवाज़ रुक गई।
कुछ पल के लिए सब कुछ थम सा गया।
उसने महसूस किया... अपने होठों पर केशव के होठों का गहरा, स्थिर, और गर्म स्पर्श।
केशव के होठ लगातार राधा के होठों में उलझते जा रहे थे ..राधा भी उसे रोकती नहीं थी ..ये उसकी जिंदगी का पहला किस्स था जो उसे महसूस कर रही थी ...
धीरे-धीरे राधा को होश आने लगता है। उसकी पलकें थरथराती हैं, और सामने का धुंधला दृश्य साफ़ होने लगता है। वो खुद को केशव की बाँहों में सिमटा हुआ पाती है — जैसे कोई तूफ़ान उन्हें बहाकर इस एक पल में ले आया हो, जहाँ सारा संसार रुक गया हो।
चारों ओर घना सन्नाटा था। पेड़ों की सरसराहट, मिट्टी की सौंधी महक, और उन दोनों के धड़कते दिल… यही इस पल की गवाही दे रहे थे।
राधा धीरे से उठती है और कांपती आवाज़ में कहती है,
"शायद… हमें अब लौट चलना चाहिए…"
केशव उसकी बात सुनता है, मगर उसकी आँखों में कोई और ही कहानी चल रही थी। उस नज़रों में गहराई थी… एक बेचैन जज़्बा… जो अब रुकने को तैयार नहीं था।
वो कुछ नहीं कहता, बस उसे और करीब खींच लेता है — जैसे वो इस पल को कुछ और देर जी लेना चाहता हो।
राधा उसकी बाँहों में थी — एकदम शांत, लेकिन उसका दिल एक अजीब सी गर्मी से धड़क रहा था।
बिना कुछ कहे, केशव उसे अपनी बाहों में उठाकर कार तक लाता है। राधा उसका चेहरा देखती है — उसकी आँखों में अब कोई झिझक नहीं थी, सिर्फ़ अपनापन था… अधिकार था… और उस अधिकार के नीचे कहीं न कहीं एक बेज़ुबान मोहब्बत भी।
कार फिर से चल पड़ती है — इस बार ऑफिस की ओर।
रास्ते भर राधा चुप थी, लेकिन उसकी चुप्पी में हज़ारों सवाल थे। केशव उसका हाथ थामे हुए था… और उसके हाथों की गर्माहट राधा की रूह तक पहुंच रही थी।
ऑफिस पहुंचते ही केशव उसे अपने प्राइवेट रास्ते से अंदर ले जाता है। चारों ओर अंधेरा फैला था, लेकिन लिफ्ट में हल्की रोशनी थी — और उन दोनों की परछाइयाँ एक-दूसरे में घुलती जा रही थीं।
लिफ्ट के भीतर, केशव राधा के और करीब आता है। उसकी सांसें राधा की गर्दन को छूने लगती हैं। राधा की पलकों में कंपन होता है… वो कुछ कहती नहीं, लेकिन उसकी आँखें सब कुछ कह रही थीं।
केशव उसके होठों को अपने होठों से छूता है — धीरे, सहेजकर।
जैसे वो हर उस अधूरी बात को चूम लेना चाहता हो, जो अब तक राधा के दिल में दबी हुई थी।
राधा कांपती है, लेकिन विरोध नहीं करती।
उसके अंदर की सारी दीवारें अब पिघल चुकी थीं… और वो खुद को रोकने की कोशिश नहीं करती।
दरवाज़ा खुलता है, और वो दोनों केशव के केबिन में चले जाते हैं। वहां सिर्फ़ खामोशी थी, और उनके बीच की बढ़ती हुई दूरी अब पूरी तरह से मिट चुकी थी।
केशव उसे अपने पास बैठाता है… और फिर, बिना किसी जल्दबाज़ी के… हर पल को जीते हुए, वो उसके बेहद करीब आता है।
राधा उसकी हर हरकत में सिर्फ़ एक ही चीज़ महसूस करती है — प्यार।
धीरे-धीरे, वो पल… वो रात… वो ख्वाहिशें… सब कुछ एक-दूसरे में घुलते चले गए।
जैसे दो अधूरी रूहें आज पहली बार पूरी हो रही थीं।
वो रात… जो उनकी सुहागरात को नहीं आई थी… आज चुपचाप उनके बीच उतर चुकी थी।
कुछ घंटों बाद, जब रात धीरे-धीरे अपने आख़िरी पहर की ओर बढ़ रही थी, राधा की पलकों में हलचल होती है। उसकी आँखें धीरे से खुलती हैं — और सामने का दृश्य उसे कुछ पल के लिए ठहर जाने पर मजबूर कर देता है।
वो केशव की बाहों में थी — उसकी मजबूत बाँहें उसके चारों ओर एक सुकून भरी दीवार की तरह फैली हुई थीं।
राधा ने गहरी सांस ली… और जाने क्यों, आज पहली बार उसे सब कुछ हल्का महसूस हुआ।
जैसे उसके अंदर का हर डर… हर बोझ… हर उलझन — कहीं पीछे छूट चुकी थी।
उसने नज़रे केशव के शांत चेहरे पर टिका दीं। उसके होठों पर अब भी नींद में एक हल्की सी मुस्कान थी… जैसे वो कोई मीठा सपना देख रहा हो।
राधा का दिल एक अजीब सी शांति से भर गया।
वो धीरे से उठने की कोशिश करती है, लेकिन तभी पेट में एक तीव्र दर्द की लहर दौड़ती है।
“उह्ह... आह...”
उसके होंठों से अनचाहे एक कराह निकल जाती है। उसका चेहरा दर्द से सिकुड़ जाता है।
अचानक आए इस दर्द ने उसे हिलाकर रख दिया।
उसने धीरे से पेट पर हाथ रखा और अपनी सांसों को नियंत्रित करने की कोशिश की।
उसका शरीर थका हुआ था, पर ये दर्द कुछ अलग था — असहज और अनजाना।
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राधा की आँखें अचानक खुलती हैं। नींद से जागते ही वह अपने बदन में अजीब-सा दर्द महसूस करती है, एक बेचैनी-सी जिसे वो समझ नहीं पा रही थी। हड़बड़ाकर उठती है, और तभी उसे एहसास होता है कि वो किसी की बाहों में है… केशव की बाहों में।
राधा के चेहरे पर एक हल्की-सी शांति थी… मानो किसी तूफान के बाद आई ठंडी हवा उसे सुकून दे रही हो। उसकी आँखों में हल्की-सी चमक थी, लेकिन जैसे ही केशव की आँखें खुलती हैं, वहाँ सिर्फ अजनबीयत होती है — ठंडी, बेरुखी और असमंजस से भरी हुई।
केशव की नजर राधा पर पड़ते ही वो घबरा जाता है। उसकी आँखों में हलचल थी — वो हैरान था, उलझा हुआ था। खुद को उसके इतना करीब देखकर वो झल्ला उठता है।
"ये क्या... तुम यहाँ? मेरी बाहों में क्या कर रही हो?"
केशव झटके से पीछे हटता है, जैसे खुद से भी दूरी बना रहा हो।
राधा उसकी प्रतिक्रिया से आहत होती है। उसकी नजरें झुक जाती हैं, और वो धीमे से कहती है,
"अपने ही तो..."
लेकिन केशव उसकी बात को बीच में ही काटते हुए कहता है —
"मुझे नहीं पता मैंने क्या किया, क्यों किया… लेकिन आगे से मेरे करीब मत आना। ये लो अपने कपड़े… हम अभी के अभी निकल रहे हैं।"
इतना कह कर केशव बाथरूम की ओर चला जाता है, और दरवाजा बंद कर लेता है।
राधा कुछ देर वैसे ही बैठी रह जाती है। उसकी आँखें कुछ कह रही थीं, जो शब्दों में नहीं ढल पा रही थीं। धीरे से वो खुद से बुदबुदाती है:
"पता नहीं, इस जिंदगी का रूह किस डोर से बंधा है… कभी सुकून देता है, कभी टूट कर रख देता है..."
वो चुपचाप कपड़े पहनने लगती है। केशव के साथ बिताए वो कुछ पल अभी भी उसके ज़ेहन में ताजे थे, लेकिन उन लम्हों पर केशव के शब्दों ने जैसे पानी फेर दिया हो।
कुछ देर बाद, जब वो कमरे से बाहर निकलती है, उसकी आंखें जमीन पर गड़ी थीं। उसी पल सामने से आ रही रीटा से उसकी टक्कर हो जाती है।
"देख कर नहीं चल सकती क्या?" रीटा चिढ़ते हुए कहती है, फिर राधा को गौर से देखती है और सवाल उठाती है,
"तुम अभी तक यहाँ क्या कर रही हो?"
रीटा की नज़र राधा के उलझे बालों और गले पर पड़े एक लाल निशान पर जाती है। वो ठिठक जाती है। उसे अंदाज़ा हो गया था कि रात को यहाँ क्या हुआ होगा।
राधा कुछ नहीं कहती, बस चुपचाप आगे बढ़ जाती है। लेकिन रीटा वहीं खड़ी रह जाती है। उसके मन में शक की आग भड़क उठती है। वो सोचती है — "राधा किसी और के साथ थी… और शायद..."
इसी बेचैनी में वो जेब से अपना मोबाइल निकालती है और बड़बड़ाते हुए कहती है:
"मैं सबूत लेकर रहूंगी… इसी केबिन में कुछ छिपा है।"
वो केबिन के भीतर दाखिल होती है और चुपचाप अपने मोबाइल का कैमरा ऑन कर लेती है। लेकिन जैसे ही वो अंदर बढ़ती है, उसके हाथों से फोन छूट कर जमीन पर गिर जाता है…
सामने आईने के सामने खड़ा केशव, अपने कोर्ट की सिलवटें ठीक कर रहा था। उसका चेहरा गंभीर था — भावशून्य और सख्त। उसकी नजरें आईने में खुद को टटोल रही थीं, जैसे खुद से कुछ पूछ रही हों।
तभी उसकी नजर पीछे गिरी एक हलचल पर पड़ती है।
रीटा।
उसके हाथों से फोन गिर चुका था, और उसकी आँखों में डर और झिझक थी।
केशव बिना पीछे मुड़े, आईने में ही उसकी ओर घूरते हुए सख्त लहजे में कहता है —
"क्या कर रही हो तुम यहाँ? किसने दी तुम्हें इस केबिन में आने की इजाज़त… वो भी बिना परमिशन?"
उसकी आवाज में रोष था… और एक ऐसा दबाव, जिससे रीटा का चेहरा फक पड़ गया।
रीटा कुछ बोल नहीं पाई। बस सिर झुकाते हुए "सॉरी सर…" कहती है और जल्दी-से अपना फोन उठाकर वहाँ से बाहर निकल जाती है।
बाहर आकर वह एक गहरी साँस लेती है — घबराई हुई, भीतर से थरथराती। उसके मन में कई सवाल उठ खड़े हुए थे। खुद से बुदबुदाती है —
"इसका मतलब… राधा और केशव सर…!"
उसके चेहरे पर आश्चर्य और ईर्ष्या की मिलीजुली झलक थी।
"क्या हो गया है? इतनी भी क्या मजबूरी थी सर की? क्या जवानी याद आ रही थी?"
फिर होंठों पर एक तिरछी मुस्कान लाते हुए व्यंग्य से कहती है —
"मुझे कह देते… मैं तो रेडी ही थी। उनसे कहीं बेहतर… और मज़ा भी अच्छा आता…!"
उसकी आँखों में जलन साफ झलक रही थी। एक खामोश आग, जो राधा के खिलाफ जल रही थी।
दूसरी ओर…
राधा के नीचे, कार के पास खड़ी थी — शांत, लेकिन भीतर ही भीतर कई भावनाओं से उलझी हुई। उसका चेहरा उतरा हुआ था और आँखें ज़मीन पर जमीं थीं।
कुछ ही पल बाद, केशव आता है।
लेकिन राधा उसकी ओर नहीं देखती — जैसे वो चाहती ही नहीं कि उसकी नज़रों से कोई सवाल उठे।
और केशव भी, बिना कुछ कहे कार की ड्राइविंग सीट पर बैठ जाता है।
दोनों ने एक-दूसरे के साथ बिताए कुछ खास पलों को जैसे मन से मिटा दिया था।
उनके बीच की खामोशी इतनी गहरी थी, कि शब्द उसके सामने बौने लगते।
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कुछ देर बाद... हवेली।
जैसे ही कार हवेली के दरवाज़े के सामने आकर रुकती है, वसुंधरा जी दरवाज़े पर पहले से खड़ी थीं।
राधा जैसे ही कार से नीचे उतरती है, उनके अनुभवी नज़रें उसके चेहरे पर टिक जाती हैं — खासकर उसके होंठों के कोने पर पड़े उस हल्के से नीले निशान पर।
"बेटा ये तुम्हें क्या हुआ? और तुम दोनों पूरी रात कहां थे?"
वसुंधरा जी की आवाज़ में चिंता थी, लेकिन स्वर में ममता भी थी।
केशव कुछ बोलने ही वाला था कि राधा उससे पहले बोल पड़ी —
"मां, हम दोनों ऑफिस में ही थे। थोड़ा काम लंबा हो गया… और वैसे भी मेरा कुछ काम वहीं बाकी था, तो मैं वहीं रुक गई।"
वो हल्की मुस्कान देने की कोशिश करती है, फिर कहती है —
"और ये जो निशान है… वो दरअसल बाथरूम में लग गया। मुझे पता ही नहीं चला, शायद कोई तेज धार वाली चीज़ थी… टकरा गई।"
एक पल ठहरकर राधा ने वसुंधरा जी की आंखों में देखा और कहा —
"मां… क्या मैं थोड़ी देर आराम कर लूं?"
वसुंधरा जी उसकी थकी हुई आंखों को देख मुस्कुरा उठती हैं —
"हां बेटा… क्यों नहीं। जाओ, आराम करो।"
राधा बिना एक पल रुके सीधी अपने कमरे की ओर बढ़ जाती है —
ना पीछे मुड़ती है, ना कुछ और कहती है।
केशव वहीं खड़ा था… चुप…
वो राधा की बातों को सुनकर हैरान था।
कैसे उसने इतने सहज अंदाज़ में हर चीज़ को संभाल लिया… जैसे कुछ हुआ ही न हो।
उसकी आवाज़, उसकी चाल, और उसकी कहानी — सबकुछ इतना संयमित था कि केशव एक पल को खुद से भी सवाल करने लगा।
To be continued 💫🦋💙