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Unknown relationship

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Zarna Parmar

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एक अनजाना सफर और एक नया सफर.. जिसमें चल पड़ती हैं राधा .. राधा जिसकी उम्र 26 साल की हैं.., वे अपनी सौतेली मां के कहने पर एक अनजान सख्श से जबरदस्ती कर देती हैं शादी .. लेकिन उसी मंडप में वे कुछ ..,ऐसा होता हैं कि राधा को अपने भविष्य देखते हुए चिंता हो...

Total Chapters (8)

Page 1 of 1

  • 1. Unknown relationship - Chapter 1

    Words: 1125

    Estimated Reading Time: 7 min

    |जय द्वारकाधीश|| जय श्री कृष्ण|| श्री गणेशाय नमः||

    ||ॐ नमः शिवाय|| जय श्री राम||

    हर बंधन में तुम्हारा साथ चाहती हु ..

    तुम्हे अपना बनाकर रखना चाहती हु ..

    जिस बंधन की कल्पना नहीं की, ..

    उसी बंधन से तुम्हे पाना चाहती हु ......

    में सिर्फ तुम्हारी होना चाहती हु ...

    सिर्फ तुम्हारी....

    रात के १० बजे ..

    ऋषिकेश...

    ऋषिकेश एक ऐसा शहर जहां पर लोगों को आते ही शांति मिलती है .. जहां पर भगवान जी के होने का अहसास मिलता है ...  जहां पर मंदिर के घंटियां सुनाई देती है .. लेकिन आज उसी पवित्र स्थान पर ... किसी के घर में उदासी छाई हुई है ,।।।।।।।

    एक लड़की शादी का लाल जोड़ा पहनकर आईने के सामने बैठी हुई थी ...

    . जिसकी आंखों में शादी की खुशी की बजाए आंखों में आसू थे .... उसका नाम राधा है .. राधा जो २६ साल की है .. दिखने में बेहद ही सिंपल लेकिन दिमाग से इंटेलीजेंस... लेकिन आज उसी लड़की के  आंखों में आसू की धारा बह रही थी .....

    तभी दरवाजा खुलता है ... ओर पीछे से उसके पापा अंडर आते हुए कहते है : बेटा ये क्या?? तुम्हारी आंखों में आसू??

    ये सुनकर राधा अपनी पलकों से बह रहे आसू को साफ कर देती है .. ओर हस्ते हुए कहती है: नहीं पापा ये तो मेरी शादी होने वाली हैं और  आप सब से बेहद ही दूर जाने वाली हु इसलिए मुझे रोना आ गया ....

    राधा के पिता जी हरिकृष्ण जी उसके सिर पर हाथ रखते हुए कहते है: बेटा हमे पता हैं आप इस रिश्ते से खुश नहीं हैं.. .. में अभी भी आप को कह रहा हु .. अगर आप को ये शादी नहीं करनी हैं तो आप मत करिए ... हम आपकी जिंदगी ऐसे बर्बाद होते हुए नहीं देख सकते ....

    राधा मुड़ते हुए अपने पापा के गले लग जाती है ..  ओर रोते हुए कहती है: पापा मुझे सच में शादी नहीं करनी है .... लेकिन उसके अलावा कोई रास्ता भी नहीं है .. मुझे ये कदम उठाना ही पड़ेगा ....

    हरिकृष्ण जी राधा के सामने देखते हुए कहते है: लेकिन बेटा तुमने अपने होने वाले पति को देखा भी नहीं है ... तो फिर तुम  ....

    राधा अपने पापा को चुप करते हुए कहती है: पापा आप फिकर मत करिए .. में सब कुछ संभाल लूंगी ...

    इतना कहते हुए राधा अपने आप में कॉन्फिडेंस लाते हुए कहती है: पापा आप मेरी फिकर मत करिए बस आप अपना ख्याल रखना ......

    दोनो बाप बेटी आपस में बात कर ही रहे थे .. तभी दरवाजा खुलने की आवाज सुनाई देती है .. ओर बाप बेटी को इमोशनल होते हुए देख सामने खड़ी राधा की सौतेली मां.. ताना मारते हुए कहती है: आप यह पर क्या कर रहे हो??? आप को दिखाई नहीं देता आज हमारी बेटी की शादी है .. उर्मिला जी अंडर आते हुए कहती है।।।।

    उर्मिला जी को देख कर दोनों के चेहरे का रंग उद जाता है .. ओर हरिकृष्ण जी मुंह बनाते हुए कहते है: मेरी बेटी की हालत तुम्हारे वजह से ही खराब हो रही है .. तुमने मेरी बेटी के ऊपर दबाव किया हैं शादी करने के लिए ......

    उर्मिला जी शरारत भरी हंसी हस्ते हुए कहती है: उसमें बड़ी बात क्या हो गई ??? वे हमारी सगी बेटी .. निहारिका के लिए रिश्ता लाए थे लेकिन मैने अपना दिल बड़ा रख कर इसे बिठा दिया मंडप पर ...

    हरिकृष्ण जी उसे घूरते हुए कहते है: ये मेरी बेटी है ... मेरी सगी बेटी .... ओर हा.. तुम्हे निहारिका के बजाय राधा को क्यों बिठाया हैं मंडप पर में जानता हूं।।। इतना कह कर वे गुस्से चले जाते है ....

    उनके जाने के बाद उर्मिला राधा की बालाएं लेते हुए कहती है: कितनी प्यारी लग रही है ... अभी तो तूने इतने ही आसू बहाए है .. ओर आगे जब बहाएगी तो कितनी प्यारी लगेगी ......

    इतना कह कर वे भी वह से चली जाति है ... उन दोनो के जाने के बाद .. राधा कमरे की खिड़की से चमकते हुए तारे की ओर देख कर कहती है: मां कास आप जिंदा होती .. तो आज मेरी ये हालत ना हुई होती ... हर लड़की अपने शादी के दिन खुश होती है .. लेकिन में आज अपनी ही शादी के दिन दुखी हु ..... मुझे ये भी नहीं पता मेरी शादी किस्से होने वाली है ... बस वे एक रॉयल फैमिली से नाता रखता है.... इतना ही पता है ......

    राधा ये सब सोच ही रही थी .. तभी निहारिका अंडर आते हुए कहती है: राधा ... राधा .. चल बारात आ गई ..

    राधा ये सुनकर निहारिका की ओर मूड जाती है .... निहारिका जो दिखने में राधा से थोड़ी सुंदर है .. लेकिन इस सुंदरता का राज शायद उसके मुंह पर लगाया गया मेक अप है ..  .. अपने चेहरे के सुंदर होने की वजह से वे अपने आप में बेहद ही घमंड वाली ... ओर अपने सामने सब को खुद को सब से ऊंचा मान। ने वाली .....

    निहारिका की आंखों में एक अलग ही खुशी थी.. एक ऐसी खुशी जिसका वे सदियों से इंतेज़ार कर रही हो ... .. निहारिका अपने ही मन ही मन में बोलते हुए कहती हैं: इतने साल बाद मेरा एक ख्वाब पूरा होने वाला है .. तुम्हे इस घर से भागने वाला ख्वाब..... अब ये घर मेरा ओर मेरी मम्मी का होकर ही रहेगा ......... इतना सोचते हुए वे राधा की ओर देखने लगती है...

    राधा उसे इशारा करते हुए कहती है: कहो क्या है ???

    निहारिका हस्ते हुए कहती है: चलो तुम्हारा बुरा वक्त तुम्हे बुला रहा है ...... मेरा मतलब हैं कि तुम्हे सब नीचे बुला रहे है ... इतना कह कर वे राधा को पकड़ने की कोशिश करती है।   लेकिन राधा अपने आप को छुड़ाते कहती है: ये तुम्हारा बहन वाला नाटक बंध करो ... में खुद से चल लूंगी ... इतना कह कर वे आगे चलने लगती है ..

    निहारिका उसे जाते हुए देख कर कहती है: जैसी तुम्हारी इच्छा ...

    राधा नीचे लाल लहंगे में उतर रही थी ..उसने अपने मुंह को घूंघट से  लगाए  रखा था ..

    . वे सीढ़ियों से नीचे उतरकर आ रही थी .. ओर मंडप में सजी हुई चोली को देख कर उसके आंखों से लगातार आसू बहे जा रहे थे ....

    राधा देखती हैं कि उसके सामने चोली में शहरा पहनकर  रेड कलर की शेरवानी में कोई बैठा हुआ है ..जिसकी उम्र का अंदाजा उसे खुद नहीं था ... राधा उसके बाजू में बैठ जाति है ...  ओर पंडित जी शादी के मंत्रों को बोलना शुरु कर देते है ......

    जैसे ही पंडित जी के कहने पर राधा अपने हाथ को सामने वाले के हाथ पर रख देती है .. लेकिन आंखों से निकला हुआ आसू उस आदमी के  हाथ पर गिर जाता है....

    To be continued 💫 🦋 💙

  • 2. Unknown relationship - Chapter 2

    Words: 1059

    Estimated Reading Time: 7 min

    शादी की रस्में अपने अंतिम चरण में थीं।

    चारों ओर शहनाइयों की गूंज थी, पंडित की मंत्रों की आवाज़ बीच-बीच में हवा को चीर रही थी, और मेहमानों के चेहरों पर रस्मों की खुशी झलक रही थी।

    लेकिन…

    हर कोई खुश नहीं था।

    जहाँ निहारिका और उर्मिला की आँखों में भावी सफल योजना की चमक थी, वहीं दूसरी ओर राधा के पिता हरिकृष्ण जी की आँखें नम थीं। उन आंसुओं में एक ऐसी पीड़ा थी, जिसे शब्दों में बयां करना मुश्किल था। ये सिर्फ बेटी की विदाई के आँसू नहीं थे, ये कुछ और गहरे थे… जैसे कोई छाया हो जो आने वाले तूफान का संकेत दे रही हो।

    राधा की आँखें भी भीगी थीं… लेकिन उसके आँसू भावनाओं से ज़्यादा, डर और टूटन के थे।

    अब सिर्फ मंगलसूत्र और सिंदूर की रस्म बाकी थी।

    जैसे ही दूल्हा आगे बढ़ा और राधा के गले में मंगलसूत्र पहनाने के लिए हाथ बढ़ाया — राधा को उसके स्पर्श ने झकझोर दिया।

    उस एक छुअन से उसके पूरे शरीर में एक सिहरन दौड़ गई… जैसे किसी ने बिजली का झटका दे दिया हो।

    और तभी...

    उसके कानों में एक गहरी, सर्द आवाज़ पड़ी — इतनी ठंडी कि जैसे आत्मा तक को जमा दे:

    "फिक्र मत करो... ये शादी मेरे लिए सिर्फ एक सौदा है। ना तुमसे कोई लगाव है… और ना ही इस रिश्ते से कोई मतलब…"

    ये सुनते ही राधा की आँखों से आँसू बहने लगे। अब वो उन्हें रोक नहीं पा रही थी।

    उसी क्षण, उसके ज़हन में उर्मिला के कहे शब्द गूंज उठे —
    "तुम्हें और भी आँसू बहाने होंगे..."

    ये आवाज़ अब उसके दिमाग में गूंजती जा रही थी, जैसे एक शाप जो अभी शुरू ही हुआ हो।

    इसी उथल-पुथल के बीच पंडित जी की आवाज़ गूंजी:

    "शादी संपन्न हुई। आज से आप दोनों पति-पत्नी कहलाएंगे। यह रिश्ता सिर्फ इस जन्म का नहीं, बल्कि सात जन्मों का बंधन होगा।"

    शब्द पवित्र थे… लेकिन राधा के लिए ये एक वज्र की तरह थे।

    कुछ देर बाद बिदाई का वक्त आ गया।

    राधा अपने पिता हरिकृष्ण के गले लग कर फूट-फूट कर रो पड़ी। वो उनसे अलग नहीं होना चाहती थी… लेकिन अब कोई विकल्प नहीं था।
    हरिकृष्ण जी की आंखों से भी आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे।

    उर्मिला पास आई, और बनावटी मुस्कान के साथ बोली:

    "आप इतना मत रोइए… देखना, हमारी बेटी बहुत खुश रहेगी…"

    इसके बाद वो राधा को धीरे से हरिकृष्ण से अलग करते हुए अपने गले से लगाती है… और कान में फुसफुसाती है:

    "अपने पापा की फिक्र मत कर… वो ठीक रहेंगे।
    अब अपनी चिंता कर… क्योंकि जो आने वाला है, उसके लिए मैंने पहले ही कहा था…
    तुम खून के आँसू रोओगी,
    और अब उस सफर की शुरुआत हो रही है…"

    फिर वह राधा के हाथों को चूमकर पीछे हट जाती है।

    राधा अब अंदर से पूरी तरह टूट चुकी थी, लेकिन बाहर कोई आवाज़ नहीं निकाल पा रही थी।

    थोड़ी देर बाद, जब विदाई की रस्में खत्म हुईं —
    राधा एक बड़ी, काली मर्सिडीज कार के सामने आकर खड़ी हो गई।

    कार की चमक और साइज देखकर निहारिका की आंखों में चौंक उठी।

    वह अपनी मां उर्मिला के कान में फुसफुसाई:

    "मां… कहीं हमने इस गंवार की शादी किसी बहुत अमीर आदमी से तो नहीं कर दी?"

    उर्मिला थोड़ी देर कार को गौर से देखती है और फिर संदेह भरे स्वर में बोली:

    "कार से कुछ साबित नहीं होता…
    सिर्फ सेहरे के पीछे क्या छिपा है, ये देखना ज़रूरी है…
    शायद कोई बूढ़ा…
    या कोई अधेड़ उम्र का आदमी…"

    यह सुनते ही निहारिका के चेहरे पर एक तृप्त मुस्कान फैल गई।

    उसे अपने षड्यंत्र की जीत दिखाई देने लगी थी।

    पर किसी को ये नहीं पता था कि राधा की जिंदगी अब एक ऐसे रास्ते पर बढ़ चली थी…
    जहाँ हर मोड़ पर दर्द था, हर साँस में सवाल…



    राधा भारी कदमों से कार के भीतर बैठती है…
    उसका चेहरा आँसुओं से भीगा हुआ, आँखें बस एक ही दिशा में टिकी थीं — अपने पापा हरिकृष्ण जी की ओर।

    उनकी आँखों में पिता का स्नेह था… वो दर्द जो शब्दों में नहीं कहा जा सकता, और वो दुआएँ जो सिर्फ नज़र से दी जा सकती हैं।

    राधा जैसे-जैसे दूर जा रही थी, उसकी नज़रें हर सेकंड अपने पापा को ही खोज रही थीं। मानो वो पल कभी ख़त्म न हो… वो दूरी कभी न बढ़े।

    तभी, कार के दूसरे दरवाज़े से एक परछाईं अंदर आई।
    एक अजनबी — अब उसका पति — आकर उसके बाजू में बैठ गया।

    उसके बैठते ही कार ने तेज़ रफ्तार पकड़ ली।

    राधा चौंकी नहीं, कुछ पूछना भी चाहा… लेकिन वो कुछ कह नहीं सकी।
    वो बस उस अजनबी की ओर देखती रही — जो शांत था, रहस्यमय था… और पूरी तरह अनजान।

    उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं थे, और उसकी मौजूदगी…
    जैसे किसी पहाड़ी रात में जमी हुई हवा — ठंडी, रहस्यमय और भारी।

    कार आगे बढ़ती रही… लेकिन राधा को ये नहीं पता था कि वो जा कहाँ रही है।
    ना वो हवेली जानती थी, ना रास्ता, ना मंज़िल…

    वो बस बैठी रही — दिल में डर, मन में अनिश्चितता और आँखों में अधूरी विदाई।

    कुछ किलोमीटर आगे जाकर अचानक से कार रुक गई।

    वो अजनबी आदमी — बिना राधा की ओर देखे — गहरी, गंभीर आवाज़ में ड्राइवर से बोला:
    "इसे हवेली ले जाओ…"

    इतना कहकर वो कार से उतर गया, और सामने खड़ी एक दूसरी, और भी लंबी और भव्य कार में जाकर बैठ गया — बिना कुछ कहे, बिना पीछे देखे।

    राधा सकते में थी।

    क्या सच में ये वही रिश्ता है, जिसके सपने हर लड़की बचपन से देखती है?

    क्या ये वही ससुराल है, जहाँ दिल बसते हैं… या फिर वो एक ऐसे अंधेरे की तरफ बढ़ रही है जहाँ रोशनी की कोई उम्मीद नहीं?

    उसके भीतर जैसे सब कुछ डूबने लगा।
    उसने अपना सिर पीछे टिका लिया और आँखें मूँद लीं।

    और उस नींद में भी… बस सवाल थे…

    "मैं कहाँ जा रही हूँ?"
    "ये मेरा जीवन है… या किसी और की सजाई हुई कैद?"
    "क्या मैंने सच में नर्क से ब्याह किया है?"

    कार अंधेरे रास्ते से होती हुई हवेली की ओर बढ़ रही थी…
    और राधा — उस रास्ते पर नींद और डर के बीच गुम होती जा रही थी।

    To be continued 💫 🦋 💙

    कहा सफर हैं राधा का ?? ओर क्या सच में उसकी जिंदगी नर्क से भरी है ???

    इस कहानी में कमेंट ओर लाइक ( रिव्यू) देना  मत भूलना

  • 3. Unknown relationship - Chapter 3

    Words: 1020

    Estimated Reading Time: 7 min

    राधा की आंखों में धीरे-धीरे नींद उतर आई थी... लंबा सफर और मानसिक थकान उसे अपनी बाहों में समेट चुकी थी। लेकिन अब, हल्की-हल्की धूप की किरणें उसकी पलकों से टकरा रही थीं… जैसे कोई उसे नींद से बाहर खींच रहा हो।

    उसकी पलकें थरथराईं… और धीरे-धीरे खुल गईं। उसने आंखें मिचमिचाते हुए खिड़की की ओर देखा — और अगले ही पल उसकी आंखें पूरी तरह खुल गईं।

    वो दृश्य… वो नज़ारा… उसकी सांसें थमा देने वाला था।

    कार एक ऊँचाई पर चल रही थी। चारों ओर ऊँचे-ऊँचे पहाड़ फैले हुए थे… जैसे किसी विशाल चित्रकार ने प्रकृति की सबसे खूबसूरत तस्वीर बना दी हो। ठंडी, सिहरन भरी हवा खिड़की के कांच से भीतर घुस रही थी, जिससे राधा की लटें उसके चेहरे पर उड़ने लगीं। कुछ दूरी पर, प्राचीन किलों की ऊँची दीवारें सूरज की रौशनी में चमक रही थीं — जैसे इतिहास खुद उसकी आंखों के सामने सांस ले रहा हो।

    उसके माथे पर बल पड़ गए। ये सब देख कर उसके होंठों से बस एक फुसफुसाहट निकली —
    "मैं जा कहां रही हूं?"

    कन्फ्यूजन की हालत में उसने तेजी से सामने की सड़क पर नज़र डाली। तभी एक बड़ा-सा साइनबोर्ड उसकी नज़र में आया —
    "राजस्थान - 50 KM"

    ये पढ़ते ही उसकी आंखें और भी बड़ी हो गईं।

    "राजस्थान? क्या मैं राजस्थान जा रही हूं?"
    उसने खुद से सवाल किया — जैसे जवाब खुद उसे भी नहीं मालूम।

    वो घबराकर अपना फोन ढूंढने लगी… लेकिन अगली ही पल उसे याद आया —
    "फोन तो मैं पापा के पास ही भूल गई हूं…"

    अब वो चाहकर भी किसी को कुछ बता नहीं सकती थी।

    पर कुछ था उस रास्ते में… उन पहाड़ों में… उस बहती हवा में… जिसने उसे पलभर के लिए रोक लिया।

    अब उसके पास सिर्फ दो चीजें थीं — ये अनजान सफर और सामने फैला हुआ वो अद्भुत, नजारा...

    कुछ देर बाद वो 50 km वाला सफर तय कर लेती है ..ओर एक बड़ी सी हवेली में कार एंटर होती है .....

    जो सफेद रंग से पत्थर से बनाई गई थी ..






    हवेली हर कोने से बेहद ही ऊर्जा मय वातावरण अर्जित कर रही थी ... ड्राइवर कार को रोकते हुए कहता हैं: मैडम आप अभी यह पर उतर जाए .....

    राधा ये सुनकर उतर जाती है...जब वे बाहर आती है! ओर इतनी मनमोहन करने वाली हवेली देखती हैं तो खुश हो जाती हैं... ओर एक पल के लिए वे सारे दुख दर्द भूल जाती है .. जिसकी उसे यह पर उम्मीद थी ....

    तभी पीछे से दूसरी कार आती हैं जिसमें वे अंजान शख्स बैठा हुआ था.. जो अभी उसका पति है ..... वो नीचे उतरकर अपनी सख्त आवाज में नौकर को बुलाते हुए कहता है: मैडम को अंडर लेकर चलो ....

    नौकर राधा के पास आते हुए उसे अंडर जाने का इशारा करने लगता है .... ओर राधा भी डरते हुए अंडर चलने लगती है ..... राधा हर तरफ नजर घुमा रही थी ..... वह पर हर कोना इसे बनाए गया था जैसे किसी सपने में होते है .....

    ये देख कर राधा की आंखों में चमक भी थी ... तभी मैन दरवाजे के बाहर आकर खड़ी हो जाती है ... अंडर से दरवाजा खुलता है .. ओर सामने 40 साल की औरत खड़ी थी जिसके हाथों में आरती की  थाली सजाई गई थी .. नीचे चावल का लौटा भी रखा गए था जिसे वे अपने शुभ कदम अंडर प्रवेश करे ....

    सामने खड़ी औरत थोड़ा सा मुस्कुराती हैं.. ओर कहती है:  बेटा यह पर खड़े रहो बीच में .... इतना कह कर वे पीछे आ रहे सख्श को देख कर कहती है! .... केशव बेटा .. तुम भी खड़े रहो ... इतना कह कर वो महिला उस सख्श को देखने लगती है .. उस सख्श का नाम केशव सिंह.......

    ये नाम सुनकर राधा अपने मन ही।मन में बोली .. अच्छा तो इनका नाम केशव हैं.... इतना कह कर वे केशव की ओर देखने लगती है .... लेकिन केशव ने अभी भी अपना चेहरा छिपाया हुआ था ... ओर वे अपनी ही कड़क आवाज में कहता है: नहीं मां मुझे इन सब में आप शामिल मत करिए .... इतना कह कर वो अंडर चले जाता है ....

    अभी भी राधा ने केशव का चेहरा देखा नहीं था .....

    सामने खड़ी औरत केशव की मां थी .. केशव की मां वसुंधरा कहती है: बेटा आप अपना चेहरा तो हमे दिखाई .. लेकिन उसे पहले में ये कुछ रस्मे कर देती हैं... इतना कह कर वो आरती उतार देती है .. ओर अपने पैरों से उस चावल के लौटे को गिरा देती है .... ओर आगे रखी कुम कुम की थाली में पैर डालकर अपने कदम को आगे बढ़ा देती है ...

    वसुंधरा जी राधा को सोफे पर बिठा कर कहती है ... अब में तुम्हारा चेहरा देख सकती हु क्या??

    राधा कुछ नहीं कहती है ।।। वसुंधरा जी अपने हाथो से राधा के घूंघट को उठा लेती है .. जिसे ही वो घूंघट उठाती है .... उनकी आंखों में चमक आ जाती है .. ओर वे बलाई लेते हुए कहती है: कितनी प्यारी बच्ची हैं.... तुम्हे किसी की नजर न लगे ...

    राधा वसुंधरा जी की बाते सुनकर स्माइल कर देती है .. उसे वसुंधरा जी की बाते दिल में घर कर रही थी .. ओर वे खुश हो गई थी .. वे अपनी नजर उठकर वसुंधरा जी की ओर देखती हैं तो सामने बेहद ही शांति मय चेहरा दिखाई देता है ... जिन्होंने सर पर घूंघट डाल रखा था ,।।।।।

    राधा उनके पैर छुटे हुए कहती है: प्रणाम.. आगे वे बोलने से हिचकिचा रही थी . लेकिन तभी वसुंधरा कहती है: मां कहो मुझे ...

    राधा: प्रणाम .. मा... इतना सुनकर वसुंधरा जी राधा को गले लगा देती है ।।।।।

    लेकिन किसी कोने में खड़े होकर कोई उन दोनो पर नजर बनाए बैठा था ,।। ओर उन दोनो को पहली मुलाकात में अच्छी तरह से बात करते हुए देख उसकी आंखो में गुस्से की ज्वाला सामने आ जाती है .... ओर वो गुस्सा करते हुए अपने हाथो से मुट्ठी भींच लेता है ......

    To be continued 💫 🦋 💙

    क्या होगा आगे जान ने के लिए बने रहिए और मेरी कहानी को रेटिंग देना ओर कमेंट करना मत भूलना .....

  • 4. Unknown relationship - Chapter 4

    Words: 1008

    Estimated Reading Time: 7 min

    वसुंधरा जी अब राधा से कोमल स्वर में कहती हैं:
    "अब तुम थोड़ा आराम कर लो, राधा…"

    इसके साथ ही वे अपने विश्वासपात्र और खास मासी, प्रेमा जी को बुलवाती हैं।
    "प्रेमा, इसे तुम जानती ही हो… ये है राधा। राधा, ये हैं प्रेमा मासी। अगर तुम्हें किसी चीज़ की जरूरत हो, तो बेहिचक मुझे या इन्हें बताना।"

    राधा धीरे से सिर हिलाकर मुस्कराने की कोशिश करती है।

    इसके बाद वसुंधरा जी servants को निर्देश देकर राधा को ऊपर ले जाने को कहती हैं। प्रेमा जी उसे हवेली के उस हिस्से की ओर ले जाती हैं जहाँ केशव सिंह का कमरा था।

    राधा की नजरें पूरे रास्ते भर हवेली के हर कोने को निहारती रहीं—दीवारों पर जड़े पुराने, ऐतिहासिक पेंटिंग्स, पत्थर की तराशी हुई मूर्तियाँ, और छतों पर लटके हुए भारी झूमर… हर चीज़ जैसे उसकी सांसें थामे जा रही थी।

    कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर और एक लंबे गलियारे से गुजरने के बाद प्रेमा जी रुकती हैं और एक भारी लकड़ी के दरवाजे के सामने खड़ी होकर कहती हैं:
    "ये है केशव बाबू का कमरा। अब तुम यहीं आराम कर सकती हो…"

    राधा बस हल्के से सिर हिलाती है और कुछ नहीं कहती।

    प्रेमा जी उसे वहीं छोड़ कर चली जाती हैं।

    राधा एक पल के लिए ठिठक जाती है। अंदर जाने से उसके कदम थमने लगते हैं। दिल की धड़कनें जैसे कानों में गूंज रही थीं। किसी अनजाने भय ने उसे जकड़ लिया था… लेकिन विकल्प क्या था?
    उसे तो यहीं रहना था।

    अपने डर को दिल में दबाकर, वह धीरे-धीरे कमरे के अंदर कदम रखती है…

    अंदर कदम रखते ही उसकी सांसें थम जाती हैं।

    कमरा नहीं था, एक राजसी सपना था।

    दीवारों पर रॉयल रेड और गोल्डन शेड्स में रिच वॉलपेपर, कांस्य की नक्काशीदार सजावट, भारी रेशमी परदे, और एक विशाल चारपाई बिस्तर जिसके ऊपर सुनहरे धागों से कढ़ा हुआ कंबल था। राधा ने अपने जीवन में ऐसा कोई दृश्य सिर्फ कल्पनाओं में देखा था… सपनों में भी नहीं।

    उसके कदम धीरे-धीरे कमरे के बीचों-बीच आकर रुकते हैं।

    तभी—
    बाथरूम से पानी की आवाज आती है।

    उसका दिल एक बार फिर धड़क उठता है। मतलब… केशव यहीं हैं… अंदर।

    राधा की नजरें फिर कमरे में घूमती हैं। वहां भी दीवारों पर पेंटिंग्स थीं — कुछ में ओवल फ्रेम्स, कुछ में मोर की आकृतियाँ, जो कमरे को और भी जीवन्त बना रही थीं।

    वह थोड़ी देर तक सबकुछ निहारती रही।
    अपने सिर पर रखा घूंघट कब हटा, उसे भी खबर नहीं रही।

    वह एक बड़े, चमकते आइने के सामने खड़ी होती है…
    और खुद को देखती है।

    लाल जोड़े में सजी राधा आज सचमुच सुंदर लग रही थी — एक राजकुमारी की तरह।

    लेकिन उस मुस्कान के पीछे अपने पिता की याद जैसे हर रंग को फीका कर रही थी।
    उसकी आंखों में नमी उतर आई थी…

    तभी…
    उस आइने में कुछ और दिखता है…

    अपने प्रतिबिंब के साथ एक और छाया—एक उभरी हुई मस्कुलर बॉडी,
    सिक्स पैक एब्स, गीले कंधों पर टपकता पानी,
    चेहरे पर घनी राजघरानों जैसी मूंछें,
    और वो भव्य, चार्मिंग लुक…
    केशव सिंह।

    राधा की आंखें उस अक्स को निहारने लगती हैं…
    वो पलकें झपकाना भी भूल जाती है।

    लेकिन जैसे ही उसकी नजर उसके अधनंगे बदन पर जाती है…

    वो एक झटके से पीछे मुड़ती है और चीख उठती है —
    "आप?!?"




    केशव की नज़र जैसे ही राधा पर पड़ी, वो कुछ पल सन्न रह गया।
    उसके चेहरे पर हल्की हैरानी थी… जैसे वो कुछ कहने ही वाला हो… लेकिन तभी वो संभलता है।

    आवाज़ में सख़्ती घोलते हुए, वह कहता है:

    “ये मेरा कमरा है, और यहां मैं ही रहूंगा…”



    राधा जो अब भी उसकी ओर देखे जा रही थी, धीरे से बोल उठी —

    “लेकिन… आप हैं कौन?”



    (राधा ने अब तक केशव को देखा ही नहीं था, शादी की रस्मों में उसका चेहरा पूरी तरह ढंका रहा था)

    केशव एक तिरछी मुस्कान के साथ जवाब देता है —

    “मैं वही हूं… जिसके साथ तुमने कल रात शादी की थी…”



    राधा का चेहरा एकदम ठहर जाता है।
    उसके अंदर जैसे कुछ टूटता और कुछ जागता है।

    मन ही मन बुदबुदाती है —

    “क्या? ये है… केशव? लेकिन ये तो… ये तो… बेहद हैंडसम हैं…”



    वो फिर से केशव की आंखों में देखने लगती है… मानो कहीं गुम हो गई हो…

    लेकिन केशव था कि उसके नज़रों से बेअसर रहा।

    उसका चेहरा अब पूरी तरह कठोर हो चुका था।
    गुस्से में दहाड़ते हुए वह चिल्लाया:

    “तुम्हें यहां आने की इजाज़त किसने दी? देखो, शादी भले ही हुई हो… लेकिन मैंने उसी रात साफ कह दिया था — मैं इस रिश्ते को नहीं मानता!
    तो तुम्हें मेरे कमरे में आने का कोई हक नहीं है।
    अब… निकलो यहां से। तुरंत!”



    राधा ठिठक जाती है…
    उसके चेहरे पर अपमान की एक लकीर उभरती है।

    पर वो इतनी भी मासूम नहीं थी कि चुपचाप सब सुन ले।

    अपने स्वर में ठहराव और तीखापन लाकर, वो जवाब देती है:

    “मुझे भी आपको देखने में कोई रस नहीं है… केशव सिंह।”



    इतना कहकर वह तेज़ी से पलटी और कमरे से बाहर निकल गई।

    उसके कदम तेज़, आंखें गीली और मन गुस्से से भरा हुआ था।

    वो हवेली के गलियारे में चलते हुए पास ही के एक बंद कमरे के दरवाज़े को खोलती है। अंदर घुप्प अंधेरा था।
    राधा दीवार का स्विच दबाती है — हल्की सी रोशनी कमरे को भर देती है।

    कमरा केशव के कमरे की तरह ही राजसी था — लाल और सुनहरे पर्दे, भारी फर्नीचर, और लकड़ी की सुगंध।
    मगर एक फर्क था — यहां कोई नहीं रहता था।

    फिर भी कमरा बिलकुल साफ़-सुथरा था… जैसे किसी के आने की तैयारी हो… या जैसे कोई अब भी उसका इंतज़ार कर रहा हो।

    राधा दरवाज़ा बंद करती है, और भीतर गहरी सांस लेकर बिस्तर पर बैठ जाती है…

    उसके होंठों पर अब सवाल थे,
    और आंखों में अपमान का बादल…

    To be continued 💫 🦋 💙

    क्या राधा केशव के गुस्से को भूल।पाएगी?? या फिर याद रख कर उसे पेश करेगी अपनी ही अलग छवि ???? आगे क्या होगा?? ये सब जान ने के लिए मेरे साथ बने रहिए .. ओर पढ़ते रहिए ... ओर पसंद आय तो लाइक कमेंट करना मत भूलना ...

  • 5. Unknown relationship - Chapter 5

    Words: 1062

    Estimated Reading Time: 7 min

    राधा उस शांत कमरे में बैठी हुई थी, जब अचानक उसकी नज़र सामने दीवार पर टंगी एक विशाल पेंटिंग पर पड़ी। वह पेंटिंग एक रहस्यमयी लड़की की थी — एक चेहरा जिसे राधा ने आज तक इस हवेली में कभी नहीं देखा था।

    अजीब सा खिंचाव महसूस हुआ उसे… जैसे वो पेंटिंग उसे अपने पास बुला रही हो।
    राधा धीरे-धीरे उठकर पेंटिंग के करीब जाती है और खुद से बुदबुदाती है,
    “ये कुछ... अलग ही है। पूरी हवेली में ढेरों पेंटिंग्स हैं, लेकिन इसमें कुछ है… कुछ ज़्यादा ही असली।”

    उसकी आँखें उस लड़की की आँखों से जैसे जुड़ गई हों। हर रेखा, हर शेड, इतनी बारीकी से बनाई गई थी कि पेंटिंग देखने में नहीं, महसूस करने में आती थी। एक पल को राधा को ऐसा लगा मानो वो लड़की उसे कुछ कहना चाह रही हो।

    तभी, उस रहस्यमयी माहौल को तोड़ते हुए दरवाज़े पर दस्तक हुई।
    "मैडम... आपको केशव सर ने बुलाया है," बाहर से किसी की आवाज़ आई।

    राधा चौक गई। भौंहें सिकोड़ते हुए, लगभग तंज में बोली,
    “मुझे क्यों बुलाया? अब क्या ज़रूरत पड़ गई?”

    बाहर खड़ी प्रेमा धीमे स्वर में बोली,
    “हमें नहीं पता मैडम... लेकिन उन्होंने बुलाया है।”

    फिर प्रेमा ने अपने हाथ ताली की तरह बजाए — एक इशारा — और अगले ही पल कुछ नौकर अंदर दाखिल हुए। उनके हाथों में अलग-अलग डिज़ाइन के, बेहद खूबसूरत परिधान थे — हर ड्रेस राधा के नाप की।

    राधा हतप्रभ रह गई। उसकी आँखें हैरानी से फैल गईं।
    “ये सब... क्या है?” उसने पूछा, जैसे खुद से ज़्यादा किसी और से जानना चाह रही हो।

    प्रेमा मुस्कुराते हुए बोली,
    “आपके लिए हैं, मैडम। कृपया जल्दी से तैयार हो जाइए और केशव बाबा के पास चलिए।”



    इतना कहकर वे सभी एक-एक कर कमरे से बाहर निकल गए… लेकिन उनके सवाल राधा के दिल में एक तूफान की तरह गूंजते रह गए।

    कुछ देर चुपचाप बैठने के बाद, राधा उठती है और फ्रेश होकर उस खूबसूरत सलवार कलेक्शन की ओर बढ़ती है, जो खास उसी के लिए मंगवाया गया था। रंग-बिरंगे कपड़ों की कतार में उसकी नजर एक पिंक कलर के सलवार सूट पर ठहर जाती है — हल्की कढ़ाई वाला, बेहद नर्म और रेशमी कपड़ा। राधा की आंखों में चमक आ जाती है।

    “ये बहुत प्यारा है…” वह मन ही मन बुदबुदाती है और जैसे ही उसका हाथ उस पर रखती है, उसकी नजर टैग पर जाती है — ₹20,000 का दाम देखकर वो चौंक उठती है।

    "इतने के तो मैंने तीन साल में भी कपड़े नहीं खरीदे होंगे… और ये एक ही सूट बीस हजार का!" वह हैरानी से सोचती है। लेकिन फिर खुद को समझाते हुए वह मुस्कुराती है और उस ड्रेस को पहन लेती है।

    ड्रेस पहनने के बाद वह आइने के सामने खड़ी होती है — बाल खुले हुए, लहराते हुए उसके कंधों पर गिर रहे थे। होंठों पर हल्की पिंक लिपस्टिक, आंखों में काजल की काली परछाई, और माथे पर उसी रंग की एक छोटी सी बिंदी — उसकी सादगी में एक अनकहा आकर्षण था। वो बेहद प्यारी और शालीन लग रही थी — एकदम रॉयल, लेकिन अपनेपन वाली।

    अपने आप को तैयार करने के बाद वह धीमे क़दमों से केशव के कमरे की ओर चल देती है।

    कमरे का दरवाज़ा आधा खुला था। अंदर झांकते ही उसकी नज़र केशव पर पड़ती है — उसने गहरे लाल रंग का कुर्ता पहना हुआ था, जो उसकी गहरी आँखों और व्यक्तित्व पर खूब जँच रहा था। उसके बाल हल्के बिखरे हुए थे, और उसकी कलाई में एक पुरानी घड़ी चमक रही थी।

    राधा ने एक पल के लिए उसकी ओर देखा — मानो कुछ देर के लिए उसकी नाराज़गी भी थम गई हो। लेकिन फिर वह खुद को संभालते हुए सोचती है —
    "चाहे जितना भी अच्छा दिखे, पर मैं अभी उससे नाराज़ हूँ…"


    केशव पीछे मुड़कर राधा की ओर देखता है, उसकी आंखों में एक बेरुखी सी झलकती है। ठंडी, सख्त आवाज़ में वह कहता है,
    "भले ही हमारी शादी हो गई हो, लेकिन मैं इस रिश्ते को नहीं मानता। मैंने यह शादी सिर्फ दबाव में आकर की है… इसलिए तुम मुझसे किसी भी तरह की उम्मीद मत रखना। ये मैं आज आखिरी बार कह रहा हूं।"

    राधा शांत खड़ी रहती है, उसके चेहरे पर न कोई हैरानी, न ही कोई आंसू। वो पहले भी ये शब्द सुन चुकी थी, इसलिए अब उनका असर ज़रा भी नहीं होता।
    "हां, ये बात मुझे पता है… इसमें कुछ नया नहीं है," वह संयमित स्वर में जवाब देती है और पीछे मुड़कर जाने लगती है।

    लेकिन तभी केशव की तीखी आवाज़ फिर गूंजती है,
    "लेकिन एक बात सुन लो — हमें मां के सामने एक दिखावे की शादी निभानी होगी। फिक्र मत करो, वो नाटक सिर्फ मेरी मां के सामने होगा। मुझे उन्हें खुश देखना है, इसलिए मैं उनकी खुशी के लिए वो सब करूंगा जो वो चाहेंगी… लेकिन असल जिंदगी में हम दोनों के बीच कोई रिश्ता नहीं होगा। इसलिए कोई उम्मीद पालने की गलती मत करना!"

    राधा इस बार भी चुपचाप सिर हिला देती है… जैसे मानो वो अब शब्दों की चोटों से परे जा चुकी हो।

    केशव का लहजा और सख्त हो जाता है,
    "और सुनो — तुम्हें मेरे कमरे में आकर किसी भी चीज़ को छूने की इजाज़त नहीं है। ये बात अपने दिमाग में बिठा लो। और हां, तुम जिस कमरे में अभी ठहरी हो, वो भी तुम्हें तुरंत खाली करना होगा। तुम वहां नहीं रह सकती…"

    इतना कहकर वह एक सख़्त निगाह राधा पर डालता है।

    अब तक चुप रहने वाली राधा भी आखिरकार तंग आ जाती है। उसकी आंखों में गुस्सा झलक उठता है।
    "ठीक है, मैं आपके कमरे में नहीं आऊंगी… लेकिन कम से कम मुझे कहीं तो रहने दो! आखिर आपको मुझसे इतनी परेशानी है किस बात की? क्यों नहीं रह सकती मैं उस कमरे में? चलो, एक काम करो — लिस्ट बना दो कि क्या छूना है और क्या नहीं… ताकि आप भी खुश रहें और मैं भी चैन से जी सकूं!"

    इतना कहकर वो गुस्से में मुंह फेर लेती है और तेज़ क़दमों से वहां से चली जाती है।

    केशव उसे जाते हुए देखता है और एक गहरी, थकी हुई सांस छोड़ता है… जैसे दिल में बहुत कुछ दबा रखा हो, लेकिन ज़ुबान पर आने नहीं देता।

    To be continued 💫 🦋 💙

    क्या हैं उस कमरे का राज ?? क्यों मना कर रहा हैं केशव राधा को ठहरने के लिए ..

    इन सारे सवालों के जवाब जान ने के लिए पढ़ते रहिए दीवानगी मंजूर हैं

  • 6. Unknown relationship - Chapter 6

    Words: 1045

    Estimated Reading Time: 7 min

    राधा तेज़ क़दमों से गुस्से में नीचे की ओर चली जाती है और हवेली के पुराने बरामदे में जाकर चुपचाप एक कोने में बैठ जाती है। उसकी आँखों में आँसू थे, पर चेहरे पर गुस्से की लकीरें साफ़ नज़र आ रही थीं। वो खुद को सँभालने की कोशिश कर रही थी, लेकिन भीतर का दर्द और अपमान उसे तोड़ रहा था।

    तभी अचानक उसकी पीठ पर एक कोमल स्पर्श होता है। वसुंधरा जी धीरे से उसके पास बैठती हैं और स्नेह से पूछती हैं,
    "यहाँ क्यों बैठी हो, बेटा? सब ठीक है ना?"

    वो बैठने ही वाली थीं कि उनकी नज़र राधा की नम आँखों पर पड़ती है। वो एक पल के लिए ठहर जाती हैं।
    राधा भीतर ही भीतर खुद से कहती है—
    "मैं आपको कुछ नहीं कह सकती, माँ… केशव जी ने मना किया है ....."
    उसकी सोच कहीं खोने लगती है…

    वसुंधरा जी उसका ध्यान खींचती हैं,
    "क्या हुआ? कहाँ खो गई?"

    राधा तुरंत होश में लौटती है और जबरन मुस्कान ओढ़ते हुए कहती है,
    "कुछ नहीं माँ… बस पापा की याद आ रही थी..."

    वसुंधरा जी हल्की मुस्कान के साथ उसका चेहरा थामते हुए कहती हैं,
    "तो क्या हुआ? मैं हूँ न तुम्हारी माँ... जब भी तुम्हें पापा की याद आए, तो मुझे याद कर लिया करो... ठीक है?"
    इतना कहकर वो राधा को अपने गले से लगा लेती हैं।

    राधा को उनकी गोद में सिर रखते ही अपनी माँ की याद आ जाती है। वो भीगती आवाज़ में कहती है,
    "माँ… आप हैं तो अब इतनी याद नहीं आएगी। बस आप हमेशा मेरे साथ रहना..."

    दोनों के बीच का ये कोमल और स्नेहमय क्षण गहराता है। लेकिन तभी, दूर खड़े किसी अनजान व्यक्ति की कैमरा क्लिक की आवाज़ हवा में गूंजती है — कोई चोरी-छुपे उन दोनों की तस्वीर ले चुका होता है...

    राधा खुद को वसुंधरा जी से अलग करते हुए कहती है,
    "माँ, अब आप थोड़ा आराम कर लीजिए। मैं आपके लिए कुछ खाने के लिए बना देती हूँ।"

    पर वसुंधरा जी मुस्कुरा कर उसका हाथ पकड़ते हुए कहती हैं,
    "नहीं बेटा… अभी नहीं। आज रात हम पहली रसोई की रस्म करेंगे। तब तुम कुछ अच्छा सा बनाना।"

    राधा उनकी बात सुनकर हल्का मुस्कुरा देती है। वसुंधरा जी उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरती हैं और धीरे-धीरे वहाँ से चली जाती हैं। पीछे छूट जाती है— एक बेटी, जो अब किसी की बहू भी है... लेकिन उस स्नेह में फिर से एक बार खुद को बेटी जैसा महसूस करती है।



    कुछ घंटे बाद...

    राधा अपने कमरे में आराम कर रही थी, लेकिन उसकी आंखों के सामने बार-बार वही रहस्यमयी पेंटिंग घूम रही थी।
    “आखिर ये पेंटिंग किसकी है...? क्यों ये मुझे अंदर तक विचलित कर रही है?” — उसके मन में यही सवाल लगातार गूंज रहे थे।

    तभी अचानक केशव की गुस्से से भरी आवाज पूरे हवेली में गूंजती है —

    "राधा!.... राधा!"

    राधा हड़बड़ा जाती है। उसके लिए ये आवाज न सिर्फ तीखी थी, बल्कि चेतावनी जैसी भी थी।
    वो घबरा कर बुदबुदाती है —
    "हे भगवान! वो मुझे इस कमरे में देख लेंगे तो फिर से नाराज़ हो जाएंगे। मुझे अभी यहां से निकलना होगा..."

    जल्दी में वह दरवाजा खोलती है, लेकिन जैसे ही बाहर निकलती है — सीधा केशव से टकरा जाती है।

    राधा गिरने ही वाली थी, लेकिन केशव वक्त रहते उसे थाम लेता है।

    कुछ पल को सब थम जाता है — राधा की आंखें, केशव की गुस्से से भरी निगाहों से टकरा जाती हैं।
    उसकी पकड़ में अब न सिर्फ उसका शरीर था, बल्कि उसकी सवालों से भरी आत्मा भी थी।

    केशव (गंभीर और कठोर स्वर में):
    "तुमने मेरी मां के साथ क्या किया है, राधा?"

    राधा चौंक कर उसकी आंखों में देखती है —
    "क्या...? मैंने...? क्या किया है मैंने?"

    केशव (तेज स्वर में):
    "इतनी मासूम मत बनो... मुझे सब पता है!"


    राधा हैरानी से अपनी बड़ी-बड़ी आंखों को और फैलाकर केशव की ओर देखती है।

    "आपको क्या पता है? और जब मैंने कुछ किया ही नहीं, तो मैं दिखावा क्यों करू?"
    उसकी आवाज़ में इस बार केवल हैरानी नहीं, बल्कि गुस्से की हल्की सी झलक भी थी।

    लेकिन जैसे उसके गुस्से को और चिंगारी देनी हो, केशव तीखे स्वर में बोल पड़ता है—
    "तो फिर मां को क्या हुआ है?"

    ये सुनकर राधा सन्न रह जाती है।
    "क्या...? मां को...? क्या हुआ मां को?"
    उसकी आवाज़ अब घबराहट से कांप रही थी — उसमें चिंता, भय और बेचैनी का मिलाजुला तूफान था।

    केशव (कटाक्ष करते हुए):
    "वाह! तुम्हें नहीं पता...?"
    उसका व्यंग्य हँसी बनकर राधा के विश्वास को चीरता चला गया।

    इतना कहकर केशव गुस्से में राधा की कलाई कसकर पकड़ लेता है।
    उसकी पकड़ इतनी मजबूत थी कि राधा के चेहरे पर पीड़ा साफ दिखने लगी।
    वो उसे खींचते हुए जबरन सीढ़ियों की ओर ले जाता है — राधा उसके पीछे-पीछे घिसटती हुई-सी चल रही थी।

    सीढ़ियों पर पहुँचकर अचानक — बिना चेतावनी के — केशव उसका हाथ झटक देता है।

    राधा का संतुलन बिगड़ता है, और वह सीढ़ियों से गिरने लगती है…

    "पापा....!"
    एक जोरदार चीख उसके गले से निकलती है — चीख इतनी असली थी कि हवेली की दीवारें भी सहम जाएं।

    लेकिन तभी…

    सबकुछ एक झटके में ठहर जाता है।

    राधा बुरी तरह हांफती हुई अपनी नींद से जाग जाती है।
    उसका शरीर पसीने से भीगा हुआ था, चेहरा डर से सफेद पड़ चुका था, और आंखों से आंसू बह रहे थे।

    वो चारों ओर नज़र दौड़ाती है — और जैसे खुद को यकीन दिला रही हो, बुदबुदाती है:
    "अच्छा... तो ये सपना था?"

    वो अपनी तेज़ धड़कनों को काबू में लाने की कोशिश करते हुए, माथे पर आया पसीना पोंछती है।
    कुछ देर गहरी सांसें लेने के बाद खुद को संयत करती है।

    लेकिन तभी... वसुंधरा जी का चेहरा उसकी आंखों में कौंध जाता है —
    "मां...? मां को कुछ हुआ तो नहीं?"

    ये सोचते ही वो तुरंत बिस्तर से उठती है और नीचे की ओर भागती है।
    वो वसुंधरा जी के कमरे की ओर दौड़ती है, और जैसे ही वहां पहुंचती है, राहत की सांस लेती है।

    वसुंधरा जी खिड़की के सामने बैठी थीं — धूप की हल्की किरण उनके चेहरे पर पड़ रही थी, और वे अपनी दवाइयां लेने में व्यस्त थीं।

    राधा उन्हें सही-सलामत देख कर भीतर ही भीतर मुस्कुरा उठती है… लेकिन उस सपने का डर अब भी उसकी सांसों में अटका हुआ था।

    To be continued 💫 🦋 💙

  • 7. Unknown relationship - Chapter 7

    Words: 1020

    Estimated Reading Time: 7 min

    राधा ने जैसे ही वसुंधरा जी को खिड़की के पास बैठा देखा — एक पल के लिए राहत की सांस ली।
    वो वापस मुड़ने ही वाली थी कि तभी वसुंधरा जी की शांत लेकिन स्नेहभरी आवाज़ उसे रोक देती है —

    "बेटा, रुको... कुछ कम था क्या? और तुम इतनी परेशान क्यों लग रही हो?"

    राधा पलटती है। उनके चेहरे पर चिंता साफ झलक रही थी।
    वसुंधरा जी के बुलावे पर वह धीरे-धीरे उनके कमरे की ओर बढ़ती है।

    वसुंधरा जी का कमरा किसी राजमहल जैसा भव्य था — नीला और सुनहरा रंग उसमें ऐसी आभा भर रहे थे जैसे किसी पुराने राजघराने की विरासत अब भी जीवित हो।
    जैसे ही राधा अंदर आती है, उसकी नजर सामने दीवार पर लगी एक विशाल पेंटिंग पर टिक जाती है।

    पेंटिंग में एक रौबदार लेकिन शांत चेहरे वाला व्यक्ति था — जिनकी आंखों में गहराई और चेहरे पर अधिकार की झलक थी।

    राधा मन ही मन सोचती है,
    "शायद यही... केशव के पिता होंगे..."

    उसकी उलझन को पढ़ती हुई वसुंधरा जी कहती हैं —
    "ये वंशराज हैं... केशव के पिता। कार एक्सीडेंट में... मारे गए थे।"
    वो ठहरती हैं — फिर अपनी बात को दोहराती हैं —
    "या फिर... मर गए... ये अब तक साफ़ नहीं हो पाया है।"
    वो राधा की ओर गहरी नजरों से देखती हैं।

    राधा (चौंकते हुए):
    "क्या मतलब? मारे गए?"

    वसुंधरा जी (धीरे-धीरे बताती हैं):
    "हमारा परिवार एक रजवाड़े से है। वंशराज के एक छोटे भाई थे — मनराज। उनकी नजर हमेशा से इस संपत्ति पर थी।"

    वो अतीत की गलियों में उतरती चली जाती हैं...

    **"जब वंशराज के पिता यानी केशव के दादा बीमार पड़े, तब उन्होंने सारी वसीयत वंशराज के नाम कर दी। राजस्थान के बाहर की जो थोड़ी बहुत ज़मीन थी, वो मनराज को दी गई... लेकिन वो संतुष्ट नहीं हुआ। उसे तो पूरी जागीर चाहिए थी।

    उसे जुए की लत थी — बुरी आदतों में डूबा हुआ था।
    वंशराज ने उसे मना कर दिया — नफरत से नहीं, बल्कि डर से कि कहीं वो सब कुछ जुए में न गंवा दे।**

    "और फिर एक दिन..."
    वो आवाज़ धीमी करती हैं —
    "मुझे खबर मिली कि वंशराज का कार एक्सीडेंट हो गया है..."

    "तब केशव बस 12 साल का था।"

    "लेकिन..."
    वो रुकती हैं,
    "राजघराने की असली विरासत केशव को ही मिली — क्योंकि वही असली वारिस था। चाचा को वो मिलती, अगर वंशराज का बेटा न होता..."

    राधा उस कहानी को ध्यान से सुनती है — जैसे इतिहास के किसी भारी रहस्य से सामना हो रहा हो।

    राधा (धीरे से):
    "फिर मां...? चाचा ने कुछ किया नहीं?"

    वसुंधरा जी (गहरी सांस लेकर):
    "नहीं। उसके बाद वो कभी दिखा ही नहीं। जैसे हवा में ग़ायब हो गया हो। ना कोई पता, ना कोई खबर।"

    राधा (आश्चर्य से):
    "तो उनके बीवी-बच्चे?"

    वसुंधरा जी:
    "उसने कभी शादी ही नहीं की थी। अकेला आया था, और अकेला ही चला गया..."

    कमरे में एक गहरी चुप्पी छा जाती है — जैसे किसी पुरानी कहानी की परछाइयां अब भी वहां मंडरा रही हों।



    वसुंधरा जी ने राधा की ओर देख कर मुस्कुराते हुए कहा —

    "बेटा, ये सब अब अतीत की बातें हैं। मैंने तुम्हें अपनी बेटी समझकर ये सब कुछ बताया, ताकि तुम्हें अपने नए परिवार के बारे में सब जानने का अधिकार हो..."

    राधा के चेहरे पर भावों की लहर दौड़ रही थी — कहीं अपनापन, कहीं संवेदना और कहीं गहराती समझ।

    अभी दोनों बातों में डूबी ही थीं कि अचानक राजमहल की घंटी गूंज उठती है।
    उसकी तीव्र आवाज़ सन्नाटे को चीरती हुई कमरे में गूंजती है।

    राधा एकदम चौंक जाती है। उसकी आंखों में घबराहट झलकती है।
    वो सवाल भरी नजरों से वसुंधरा जी की ओर देखती है।

    वसुंधरा जी हल्के से मुस्कुराकर उसे आश्वस्त करती हैं —
    "बेटा, घबराओ मत... ये तो बस समय का संकेत है। अभी सात बज गए हैं..."

    "क्या...? सात बज गए?" — राधा आश्चर्य से पूछती है।

    वसुंधरा जी हँसते हुए कहती हैं —
    "हाँ, और बातों में पता ही नहीं चला कि वक्त कैसे बीत गया... सालों में पहली बार ऐसा लगा कि कोई मेरे साथ बैठ कर दिल से बात कर रहा हो..."

    राधा मुस्कुराते हुए कहती है —
    "माँ, चलिए... अब मैं रसोई में जाकर खाना बनाना शुरू कर देती हूँ।"

    वसुंधरा जी थोड़ा चौंकती हैं —
    "अभी से?"

    राधा सादगी से जवाब देती है —
    "हम घर पर तो इतने ही बजे खाना खा लेते हैं..."

    यह कहते-कहते उसके चेहरे पर हल्का सा भावुकपन उतर आता है — उसे अपने पापा की याद सताने लगती है।


    ---

    दृश्य परिवर्तन — ऋषिकेश, गंगा घाट

    गंगा की शांत लहरें धीरे-धीरे किनारे से टकरा रही थीं।
    शाम का वक्त था — आरती की घंटियाँ दूर कहीं बज रही थीं।
    हरिकृष्ण जी घाट की सीढ़ियों पर बैठे गहरी सोच में डूबे थे।

    उनकी नजरें गंगा की धार में नहीं, बल्कि अपनी स्मृतियों में अटकी हुई थीं।

    हर जगह उन्हें राधा की छवि नजर आ रही थी — कभी बचपन में गंगा में खेलती हुई, कभी उनके कंधों पर बैठी हुई।

    तभी पीछे से एक पुरानी और अपनापन भरी आवाज़ आती है —

    "अपनी बेटी को याद कर रहे हो, हरि?"

    हरिकृष्ण जी मुड़ते हैं — वो उनके पुराने और घनिष्ठ मित्र थे।

    हरिकृष्ण जी की आंखें भीग जाती हैं —
    "कैसे न याद करूं...? उसे अपने हाथों में पाला है मैंने... मेरी राधा... आज भी जब आंखें बंद करता हूं, तो वही छोटी-सी बच्ची दिखाई देती है..."

    एक ठहराव के बाद वो और भी गहराई से कहते हैं —
    "मुझे नहीं पता मेरी बेटी अब किस जगह पर है... लगता है जैसे मैं उससे पूरी तरह वंचित हो गया हूँ..."

    मित्र ने उनका हाथ थामते हुए ढांढस बंधाया —
    "देखना हरि, तुम्हारी बेटी जहाँ गई है, वहाँ रानी की तरह रहेगी। एक दिन वो पूरे राजघराने पर राज करेगी — गर्व से सिर उठाकर!"

    हरिकृष्ण जी की आंखें उस क्षण चमक उठती हैं।
    वे हल्के से मुस्कुराकर कहते हैं —
    "अगर ऐसा है... तो मैं सच में बहुत खुश होऊंगा। मेरी राधा को जो सम्मान, जो स्नेह और जो अधिकार मिले — वही मेरी असली खुशी होगी..."

    गंगा की लहरें जैसे इस पिता के आशीर्वाद को अपने साथ बहाकर राधा तक पहुँचाने चल पड़ी थीं...

    To be continued 💫🦋💙

  • 8. Unknown relationship - Chapter 8

    Words: 1002

    Estimated Reading Time: 7 min

    रात के ठीक नौ बजे जैसे ही हवेली की घड़ी ने टन टन किया, केशव अपने कमरे से बाहर निकला। डाइनिंग एरिया की ओर बढ़ने से पहले वह हमेशा की तरह अपनी माँ को साथ लेने उनके कमरे की ओर चला गया। लेकिन आज वहाँ सन्नाटा था… माँ वहाँ नहीं थीं।

    अभी वो कुछ सोच ही रहा था कि तभी सामने से प्रेमा मासी आती हैं। उनके चेहरे पर हमेशा की तरह एक प्यारी सी मुस्कान थी।

    प्रेमा मासी, हँसते हुए बोलीं:

    "आप वसुंधरा जी को ढूंढ रहे हो बाबा?"

    केशव हल्का मुस्कुराते हुए सिर हिलाता है:

    "हाँ… माँ कहाँ हैं?"

    प्रेमा मासी ने हँसते हुए बताया:

    "अभी तो वो रसोड़े में हैं, बहू के साथ…"

    केशव चौंकते हुए दोहराता है:

    "रसोड़ा?"

    बिना कुछ कहे वह भी रसोड़े की ओर बढ़ जाता है।

    जैसे ही वह अंदर पहुँचता है, एक अलग ही दृश्य उसकी आंखों के सामने होता है। उसकी माँ – वसुंधरा जी – और राधा, दोनों ही मुस्कुराते हुए बातों में मशगूल थीं। माँ के चेहरे पर एक अलग ही रौनक थी… इतनी उजली, इतनी हल्की, जैसी केशव ने पहले कभी नहीं देखी थी। वह ठहरकर बस उन्हें निहारता रहा… और फिर उसकी नजर राधा पर पड़ी।

    राधा, खिलखिलाते हुए पूछ रही थी:

    "फिर क्या हुआ माँ? बाद में?"

    वसुंधरा जी ने हँसते हुए जवाब दिया:

    "बाद में क्या! वो तो नीचे गिर गया…!"

    इसके बाद दोनों ज़ोर से हँसने लगती हैं। उस सहज हँसी और गर्मजोशी से भरे माहौल को देखकर केशव एक पल को ठहर सा जाता है। मन ही मन वह सोचता है — "ये लोग किसकी बात कर रहे हैं?"

    तभी वसुंधरा जी उसे देख लेती हैं।

    वसुंधरा जी:

    "अरे बेटा! तुम आ गए? चलो, आज तो बहू ने ऐसा स्वादिष्ट खाना बनाया है कि उंगलियाँ चाटते रह जाओगे!"

    केशव की नजर फिर से राधा पर जाती है… लेकिन राधा अब भी उससे पूरी तरह अनजान, सिर्फ अपनी माँ की बातों में ही मग्न थी। शायद… शायद वह उससे अब भी डरी हुई थी।

    केशव मन ही मन बुदबुदाता है:

    "शायद मैंने इसे कुछ ज़्यादा ही डरा दिया है…"

    वसुंधरा जी मुस्कराते हुए कहती हैं:

    "आओ केशव, खाना लग गया है। चलो बैठो।"

    डाइनिंग हॉल की बड़ी, नक्काशीदार शाही टेबल पर सभी बैठते हैं। राधा एक के बाद एक बाउल और परोसने की थालियाँ लाकर लगाती है—गुलाब जामुन, आलू की सब्ज़ी, पूरी और मूँग की दाल का शुद्ध देसी सिरा।

    रसोई से आती खुशबू केशव की सांसों में घुल रही थी… वो खुशबू, जिसमें अब घर जैसा अपनापन भी शामिल था।

    राधा उसके सामने आकर धीरे-धीरे थाली में परोसने लगती है। केशव की आँखें, राधा के उस शांत चेहरे पर टिक जाती हैं।

    आज का खाना शायद स्वाद से कहीं ज्यादा… भावनाओं से भरा था।

    जैसे ही केशव पूरी के साथ सब्जी का पहला निवाला लेता है, उसकी आंखें अपने आप बंद हो जाती हैं… मानो स्वाद की गहराई ने उसे किसी पुराने, मीठे पल में लौटा दिया हो। उस एक पल में, वह फिर से वही बच्चा बन जाता है जिसे उसकी मां अपने हाथों से खाना खिलाया करती थी। उस स्वाद में बचपन की यादें घुली हुई थीं।

    राधा, चुपचाप वसुंधरा जी की ओर देखती है, मानो उनकी प्रतिक्रिया जानना चाहती हो। वसुंधरा जी हल्की मुस्कान के साथ राधा को आंखों ही आंखों में चुप रहने का इशारा करती हैं।

    तभी केशव मूंग दाल का एक चम्मच लेता है। जैसे ही वह दाल उसके होंठों को छूती है, उसकी आंखें फिर से बंद हो जाती हैं। वो धीमे स्वर में कहता है,

    "मां... ये स्वाद मुझे बचपन में खींच लाया... आपके हाथों का स्वाद आज भी वैसा ही है..."

    इतना कहकर वो मुस्कुराते हुए वसुंधरा जी की ओर देखने लगता है।

    पर तभी वसुंधरा जी उसके पास आती हैं, और प्यार से उसके माथे पर हाथ फेरते हुए कहती हैं,

    "बेटा, ये खाना मैंने नहीं… राधा ने बनाया है। बताओ, कैसा लगा तुम्हें?"

    ये सुनते ही केशव की मुस्कान एक पल में गायब हो जाती है। चेहरे से भाव तो मिट जाते हैं, लेकिन स्वाद अब भी उसके मन को छू रहा होता है। वो कुछ नहीं बोलता।

    वातावरण को सहज बनाने के लिए वसुंधरा जी राधा की ओर देखकर कहती हैं,

    "बेटा, तुम भी बैठ जाओ... चलो साथ में खाना खाते हैं।"

    इतना कहकर वह भी बैठ जाती हैं।

    राधा थोड़ी झिझक के साथ बैठती है, लेकिन जब वह अपने हाथ की बनी पूरी का स्वाद लेती है, तो उसके चेहरे पर संतोष और आत्मविश्वास की एक मधुर झलक आ जाती है।

    वसुंधरा जी मुस्कुराते हुए कहती हैं:

    "बेटी, तुम्हारे हाथों में तो साक्षात अन्नपूर्णा का वास है..."

    इतना कहकर वह परंपरा अनुसार राधा को 'सगुण' के पैसे भी देती हैं — मानो न केवल स्वाद, बल्कि राधा के अपनापन और कर्तव्य को भी सम्मानित कर रही हों।

    रात का खाना खत्म होने के बाद राधा जैसे ही अपने कमरे की ओर बढ़ती है, अचानक उसके चेहरे पर हल्की चिंता की लकीरें उभर आती हैं। उसे याद आता है — "मैंने गैस बंद की या नहीं?"

    यही सोचते हुए वो तुरंत पीछे मुड़ती है और रसोई की ओर कदम बढ़ाती है।

    लेकिन जैसे ही वो मुड़ती है, वो सीधे केशव से टकरा जाती है।

    एक पल के लिए सब कुछ ठहर सा जाता है।

    केशव झट से उसे थाम लेता है और अपने मजबूत हाथों से संभालते हुए कहता है,

    "ध्यान से..."

    राधा की सांसें एक पल को रुक सी जाती हैं। उसके दिल की धड़कन जैसे कानों में सुनाई देने लगती है।

    केशव बड़ी सहजता से उसे ठीक से खड़ा कर देता है और बिना किसी और बात के आगे बढ़ने लगता है।

    लेकिन कुछ कदम चलने के बाद रुकते हुए, बिना उसकी ओर देखे, हल्की और नरम आवाज़ में कहता है —

    "वैसे... आज खाना अच्छा बनाया था..."

    इतना कहकर वो बिना मुड़े, सीधा आगे बढ़ जाता है।

    उसके लहजे में जो सच्चाई और नरमी थी, वो राधा के दिल तक उतर जाती है।

    उसके चेहरे पर अनायास ही एक प्यारी-सी मुस्कान खिल उठती है — वो मुस्कान जो पहली बार किसी उम्मीद की तरह आई हो।

    To be continued 💫🦋💙