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दुर्गमर्ग की अभेद्य पहाड़ियों के बीच दामनगढ़ का किला किसी देवशिल्पी के स्वप्न जैसा प्रतीत होता था। सूर्य की पहली किरणें जब उसके श्वेत संगमरमरी गुंबदों और मीनारों पर पड़तीं, तो वे सोने की तरह दमक उठते, जैसे आकाश से स्वयं देवताओं ने अपने मुकुट उतारकर धरती पर रख दिए हों। दीवारों पर की गई नक्काशी, फव्वारों से उठता संगीत और हवा में घुली चंदन की महक, सब मिलकर दामनगढ़ की भव्यता की कहानी कहते थे। किन्तु राजकुमार शौर्यक्षर्य के लिए यह भव्यता एक स्वर्ण पिंजरे से अधिक कुछ नहीं थी, जिसकी सलाखें सम्मान और परंपरा से बनी थीं और जो उसकी महत्वाकांक्षाओं का दम घोंट रही थीं।
शौर्यक्षर्य, दामनगढ़ के पाँच राजकुमारों में से बीच के थे। न तो ज्येष्ठ होने का गौरव, न ही कनिष्ठ होने का स्नेह। वह बीच में थे, एक ऐसी स्थिति में जहाँ उनकी उपस्थिति अक्सर अनदेखी कर दी जाती थी। उनके सबसे बड़े भाई, युवराज वीरभद्र, एक कुशल योद्धा और प्रजा के प्रिय थे। दूसरे, ज्ञानेंद्र, शास्त्रों और राजनीति के ज्ञाता थे। चौथे, प्रियदर्शन, कला और संगीत में निपुण थे, और सबसे छोटे, नवल, अपनी मासूमियत और चंचलता के लिए सबकी आँखों के तारे थे। और इन सबके बीच शौर्यक्षर्य थे—एक ऐसी परछाई जिसे हर कोई देखता था, पर कोई याद नहीं रखता था।
उनकी आँखों में एक अजीब सी तीव्रता थी, एक ऐसी आग जो अक्सर शांत दिखती थी, पर भीतर ही भीतर सुलगती रहती थी। यह राजगद्दी के प्रति उनकी तीव्र महत्वाकांक्षा और अपने ही भाइयों के प्रति गहरी ईर्ष्या की आग थी। हर बार जब वह अपने पिता, महाराज विक्रमसेन को युवराज वीरभद्र की प्रशंसा करते सुनते, तो उनके हृदय में एक कांटा सा चुभ जाता। हर बार जब सभा में ज्ञानेंद्र की बुद्धिमत्ता की सराहना होती, तो उनकी मुट्ठियाँ अपने आप भिंच जातीं। उन्हें लगता था जैसे उनके सारे गुण, उनकी सारी योग्यताएं उनके भाइयों की कीर्ति की छाया में दबकर रह गई हैं।
उस शाम, महल के मुख्य सभागार में एक भव्य उत्सव का आयोजन था। पड़ोसी राज्य के साथ एक सफल संधि के उपलक्ष्य में पूरा दामनगढ़ जश्न में डूबा था। संगीत और नृत्य का वातावरण था, किन्तु शौर्यक्षर्य एक स्तंभ के पीछे खड़े, अपने ही विचारों के अंधकार में खोए हुए थे। उनकी दृष्टि अपने पिता और बड़े भाइयों पर टिकी थी, जो मेहमानों के साथ हंस-बोल रहे थे। उन्हें यह अहसास किसी विषैले सर्प की तरह डस रहा था कि सामान्य तरीके से उन्हें यह सिंहासन कभी नहीं मिलेगा। वीरभद्र के जीवित रहते कोई उनकी ओर देखेगा भी नहीं। और यदि दुर्भाग्य से वीरभद्र को कुछ हो भी गया, तो भी ज्ञानेंद्र थे। राजगद्दी का मार्ग काँटों से भरा था, और वे काँटे उनके अपने ही भाई थे।
"सामान्य तरीके..." यह शब्द उनके मन में गूंज रहा था। यदि सामान्य मार्ग बंद हो, तो असामान्य मार्ग अपनाने में क्या हानि है? सत्ता किसी भी मूल्य पर प्राप्त की जानी चाहिए, चाहे वह मूल्य नैतिकता हो, संबंध हों, या फिर स्वयं की आत्मा। इसी विचार के साथ, उनकी आँखों में एक खतरनाक संकल्प ने जन्म लिया। उन्होंने फैसला कर लिया कि वह सत्ता के लिए किसी भी हद तक जाएँगे, हर उस सीमा को लांघ जाएँगे जिसे दुनिया धर्म और मर्यादा कहती है।
उनके इस संकल्प को दिशा तब मिली जब उन्होंने महल के अस्तबल में दो सैनिकों को फुसफुसाते हुए सुना। वे दुर्गमर्ग की काली घाटियों में रहने वाले एक कुख्यात तांत्रिक के बारे में बात कर रहे थे। एक ऐसा साधक जो काले जादू में माहिर था, जो आत्माओं से बात कर सकता था और जिसे प्रकृति की सबसे अंधकारमयी शक्तियों पर नियंत्रण प्राप्त था। सैनिकों की आवाज में भय था, किन्तु शौर्यक्षर्य के कानों में वे शब्द किसी आशा की किरण की तरह पड़े। एक ऐसा व्यक्ति जो नियमों और प्रकृति से परे जाकर कार्य कर सकता था, वही उनकी सहायता कर सकता था।
अगली ही रात, जब दामनगढ़ नींद की गहरी चादर ओढ़े सो रहा था, शौर्यक्षर्य ने अपने कीमती राजसी वस्त्र त्यागे। उन्होंने एक साधारण सैनिक का भेष धरा, खुरदुरे कपड़े पहने और चेहरे पर कपड़ा लपेट लिया ताकि कोई उन्हें पहचान न सके। एक घोड़े पर सवार होकर, वह महल के गुप्त द्वार से बाहर निकल गए, उस अंधकार की ओर जिसने उन्हें अपनी ओर बुलाया था।
दुर्गमर्ग की पहाड़ियाँ रात में और भी भयावह हो जाती थीं। हवा की सांय-सांय करती आवाजें जैसे किसी प्रेत का विलाप लगती थीं, और पेड़ों की शाखाएँ किसी कंकाल की उंगलियों की तरह आकाश की ओर उठी हुई थीं। शौर्यक्षर्य का हृदय धड़क रहा था, पर यह भय से अधिक उत्तेजना के कारण था। कई घंटों की कठिन यात्रा के बाद, वह उस स्थान पर पहुँचे जिसका वर्णन सैनिकों ने किया था—एक गहरी, अंधेरी गुफा, जिसके मुँह पर अजीब और भयानक प्रतीक खुदे हुए थे। हवा में सड़ी हुई मांस और किसी अज्ञात जड़ी-बूटी की तीव्र गंध थी। गुफा के भीतर से एक धीमी, मंत्र जैसी गुनगुनाहट आ रही थी।
शौर्यक्षर्य ने अपने घोड़े को बाहर ही छोड़ा और काँपते कदमों से गुफा के भीतर प्रवेश किया। अंदर का दृश्य और भी वीभत्स था। दीवारों पर जानवरों की खोपड़ियाँ लटकी थीं, और जमीन पर कोयले से बने जटिल चक्र और भयावह प्रतीक थे। गुफा के केंद्र में, एक धूनी जल रही थी, और उसके पास एक जटाधारी, कृशकाय व्यक्ति बैठा था। उसकी आँखें बंद थीं, किन्तु ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वह सब कुछ देख सकता है। वही कुख्यात तांत्रिक था।
शौर्यक्षर्य उसके सामने जाकर खड़े हो गए। उनकी उपस्थिति महसूस करते ही तांत्रिक ने अपनी धंसी हुई, अंगारे जैसी लाल आँखें खोलीं। उसकी दृष्टि इतनी तीक्ष्ण थी कि शौर्यक्षर्य को लगा जैसे वह उनके कपड़ों के पार, उनके मन के भीतर झाँक रही है।
"एक राजकुमार, सैनिक के भेष में," तांत्रिक की आवाज सूखी और कर्कश थी, जैसे सदियों से किसी कब्र में दबी हुई हो। "तुम्हारे हृदय में जो आग जल रही है, उसकी तपिश यहाँ तक महसूस हो रही है। बोलो, क्या चाहते हो?"
शौर्यक्षर्य हैरान थे कि तांत्रिक ने उन्हें पहचान लिया, पर उन्होंने अपना संयम नहीं खोया। उन्होंने अपनी इच्छा स्पष्ट शब्दों में व्यक्त की, "मुझे सत्ता चाहिए। दामनगढ़ का सिंहासन। मैं चाहता हूँ कि मेरे मार्ग के सभी काँटे हट जाएँ।"
तांत्रिक के झुर्रियों भरे चेहरे पर एक कुटिल मुस्कान फैल गई। उसने शौर्यक्षर्य की आँखों में सत्ता की उस अंधी भूख को स्पष्ट रूप से देखा, एक ऐसी भूख जो किसी भी बलिदान के लिए तैयार थी। "सिंहासन... एक ऐसी वस्तु जिसके लिए भाई, भाई का रक्त बहा देता है। मैं तुम्हारी सहायता करूँगा, राजकुमार।"
वह अपनी जगह से उठा। उसकी छाया दीवारों पर किसी विशालकाय राक्षस की तरह नाच रही थी। "मैं तुम्हें वह शक्ति प्रदान करूँगा जिससे तुम केवल मनुष्य ही नहीं, बल्कि आत्माओं को भी नियंत्रित कर सकोगे। अदृश्य शक्तियाँ तुम्हारे आदेश पर काम करेंगी। वे तुम्हारे शत्रुओं के लिए अदृश्य विष, अप्रत्याशित दुर्घटना और भयावह स्वप्न बन जाएँगी।"
शौर्यक्षर्य की आँखों में चमक आ गई। यही तो वह चाहते थे। एक ऐसी शक्ति जिस पर कोई संदेह न कर सके।
"किन्तु," तांत्रिक ने अपनी उंगली उठाई, "इस शक्ति को प्राप्त करने के लिए एक खतरनाक अनुष्ठान करना होगा। तुम्हें अपनी आत्मा का एक अंश अंधकार को समर्पित करना होगा। क्या तुम तैयार हो?"
"मैं किसी भी परिणाम के लिए तैयार हूँ," शौर्यक्षर्य ने बिना एक पल सोचे कहा। परिणामों की परवाह उसे कब थी? उसे तो बस अपना लक्ष्य दिखाई दे रहा था।
तांत्रिक उसकी दृढ़ता से प्रसन्न हुआ। उसने शौर्यक्षर्य को एक चक्र के बीच में बैठने का आदेश दिया और स्वयं मंत्रों का जाप करने लगा। उसकी आवाज धीरे-धीरे तीव्र होती गई, और गुफा की हवा ठंडी और भारी हो गई। शौर्यक्षर्य को लगा जैसे कोई अदृश्य शक्ति उसके शरीर में प्रवेश कर रही है, उसकी नसों में बर्फीले पानी की तरह दौड़ रही है। उसे एक मंत्र सिखाया गया—आत्माओं को बुलाने और उन्हें वश में करने का मंत्र। शब्द उसके कानों में फुसफुसाए गए, जैसे स्वयं अंधकार उससे बात कर रहा हो।
अनुष्ठान के अंत में, तांत्रिक ने उसे अपनी शक्ति का परीक्षण करने के लिए कहा। शौर्यक्षर्य ने आँखें बंद कीं और उस मंत्र का जाप किया। पहले तो कुछ नहीं हुआ, पर फिर उसे एक हल्की सी उपस्थिति महसूस हुई। एक छोटी, कांपती हुई आत्मा उसके सामने प्रकट हुई—शायद किसी डरे हुए जानवर की या किसी अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए बालक की।
शौर्यक्षर्य ने उसे अपने पास आने का आदेश दिया। आत्मा ने विरोध किया, किन्तु मंत्र की शक्ति के आगे वह विवश थी। वह धीरे-धीरे आगे बढ़ी और शौर्यक्षर्य के चरणों में झुक गई। यह पहली बार था जब शौर्यक्षर्य ने किसी को पूरी तरह से अपने वश में महसूस किया था, और यह एहसास किसी भी सांसारिक सुख से बढ़कर था। यह सफलता उसके अहंकार को और भी बढ़ा गई। वह अब केवल एक राजकुमार नहीं था; वह शक्तियों का स्वामी था।
उसके मन में तुरंत अपने बड़े भाइयों को रास्ते से हटाने की योजनाएँ बनने लगीं। युवराज वीरभद्र, जो अपनी वीरता पर गर्व करते थे, एक आकस्मिक दुर्घटना में मारे जा सकते थे। ज्ञानेंद्र, जो अपनी बुद्धि पर घमंड करते थे, पागलपन का शिकार हो सकते थे। रास्ते साफ थे, और अब उसके पास उन्हें साफ करने का साधन भी था।
जब शौर्यक्षर्य गुफा से जाने लगा, तो तांत्रिक ने उसे चेतावनी दी। "राजकुमार, स्मरण रखना। यह शक्ति दोधारी तलवार है। आत्माएँ शक्तिशाली होती हैं, और उनका दुरुपयोग विनाशकारी हो सकता है। जिस अंधकार को तुम अपना दास बना रहे हो, वही एक दिन तुम्हें अपना ग्रास बना लेगा।"
किन्तु शौर्यक्षर्य ने तांत्रिक की चेतावनी को अनसुना कर दिया। अहंकार और शक्ति के नशे में चूर, उसे कोई भय महसूस नहीं हो रहा था। उसने केवल अपने लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित किया।
वह अपनी नई और भयावह शक्ति के साथ महल में लौटा। बाहर से वह वही राजकुमार शौर्यक्षर्य था, किन्तु उसका हृदय अब बदल चुका था। उसका इरादा दुष्टतापूर्ण था। दामनगढ़ की भव्यता और शांति के नीचे, एक षड्यंत्र का अंधकार गहराने लगा था, और उस अंधकार का केंद्र स्वयं शौर्यक्षर्य था। उसके भीतर अब केवल सत्ता की भूख और प्रतिशोध की ठंडी, काली ज्वाला धधक रही थी।
दुर्गमर्ग की अभेद्य चोटियों के बीच, दामनगढ़ का किला सूर्य के प्रकाश में किसी स्वर्ण-जटित स्वप्न की भांति चमकता था। उसकी दीवारें सदियों की कहानियाँ कहती थीं और उसके बुर्ज आकाश से बातें करते प्रतीत होते थे। नीचे घाटी में, राज्य की प्रजा अपने राजा और उनके पाँच पुत्रों के गुणगान करती थी, जिनकी वीरता और न्याय की कथाएँ लोकगीतों का हिस्सा बन चुकी थीं। किंतु इस भव्यता के हृदय में, एक अंधकार अपनी जड़ें जमा रहा था—एक ऐसा अंधकार जो ईर्ष्या की मिट्टी में पनपता है और महत्वाकांक्षा के विष से सींचा जाता है। यह अंधकार राजकुमार शौर्यक्षर्य के भीतर रहता था।
महाराजा विक्रमसेन के पाँच पुत्रों में शौर्यक्षर्य का स्थान बीच में था। वह न तो ज्येष्ठ पुत्र युवराज विक्रमआदित्य की तरह प्रजा का प्रिय और भविष्य का शासक था, और न ही द्वितीय राजकुमार जयवर्धन की तरह सेना का अजेय सेनापति। वह सबसे छोटे जुड़वाँ राजकुमारों, नकुल और सहदेव की तरह सबका दुलारा भी नहीं था, जिनकी बाल-सुलभ क्रीड़ाएँ पूरे महल में हँसी बिखेरती थीं। शौर्यक्षर्य बीच में था—एक ऐसी स्थिति जो उसे लगभग अदृश्य बना देती थी। वह हमेशा परछाई में रहता, अपने भाइयों की उपलब्धियों के भव्य प्रकाश के ठीक पीछे।
आज भी राजसभा में यही हुआ था। रेशम और स्वर्ण से सजे दरबार में, जहाँ हर स्तंभ पर दामनगढ़ का गौरवशाली इतिहास उकेरा गया था, शौर्यक्षर्य एक अलंकृत खंभे के पास चुपचाप खड़ा था। उसके पिता, महाराजा विक्रमसेन, अपने भव्य सिंहासन पर विराजमान थे। उनके दाहिनी ओर युवराज विक्रमआदित्य खड़े थे, जो शांति और गंभीरता से किसी सीमा विवाद पर अपनी राय दे रहे थे। उनकी बातों में परिपक्वता और ज्ञान था, और सभासद प्रशंसा में सिर हिला रहे थे। बाईं ओर, जयवर्धन अपनी फौलादी वर्दी में तनकर खड़े थे, उनकी आँखों में युद्ध की आग और विजय का आत्मविश्वास चमक रहा था। उन्होंने हाल ही में विद्रोही सामंतों को कुचलने की अपनी योजना प्रस्तुत की थी, और महाराजा ने गर्व से उनकी पीठ थपथपाई थी।
शौर्यक्षर्य यह सब देख रहा था, उसके होठों पर एक फीकी, व्यर्थ की मुस्कान थी। उसकी नसों में ईर्ष्या का लावा खौल रहा था। उसे पता था कि वह अपने ज्येष्ठ भ्राता से अधिक चतुर और जयवर्धन से अधिक निर्दयी रणनीतिकार था। किंतु उसकी चतुराई षड्यंत्रों में प्रकट होती थी, और उसकी निर्दयता को कोई वीरता नहीं कहता था। उसे अवसर नहीं दिया जाता था, क्योंकि वह कतार में तीसरे स्थान पर था। जब तक उसके दो बड़े भाई जीवित थे, दामनगढ़ का सिंहासन उसके लिए एक दूर का सपना था, एक ऐसा फल जिसे वह देख तो सकता था, पर कभी चख नहीं सकता था।
सभा समाप्त होने के बाद जब सब चले गए, शौर्यक्षर्य अपने कक्ष में लौट आया। उसका कक्ष किसी भी राजकुमार की तरह भव्य था—दीवारों पर कीमती चित्र, फर्श पर नरम कालीन और खिड़की से दुर्गमर्ग की हरी-भरी घाटी का मनमोहक दृश्य। लेकिन शौर्यक्षर्य को यह सब एक स्वर्ण पिंजरे जैसा लगता था। उसने खिड़की से बाहर झाँका, उसकी उंगलियाँ संगमरमर की ठंडी चौखट पर कस गईं। उसे यह अहसास किसी वज्रपात की तरह हुआ, एक ठंडी, कठोर सच्चाई जिसने उसके दिल को जकड़ लिया। सामान्य तरीके से, धर्म और परंपरा के मार्ग पर चलकर, उसे सिंहासन कभी नहीं मिलेगा। उसे प्रतीक्षा करनी होगी—शायद दशकों तक—और तब भी, विक्रमआदित्य के पुत्र उसके और राजगद्दी के बीच खड़े होंगे।
"प्रतीक्षा..." वह फुसफुसाया, और यह शब्द उसके मुँह में कड़वा लगा। वह प्रतीक्षा करने के लिए पैदा नहीं हुआ था। वह शासन करने के लिए पैदा हुआ था।
उसी क्षण, उसके भीतर कुछ टूट गया। वर्षों से दबा हुआ धैर्य, समाज और परिवार द्वारा थोपी गई नैतिकता की पतली परत, सब कुछ चटक कर बिखर गया। उसकी आँखों में एक नई, भयावह चमक उभरी। यदि सीधा रास्ता बंद है, तो वह अपना रास्ता बनाएगा, चाहे वह कितना भी टेढ़ा और अंधकारमय क्यों न हो। उसने फैसला कर लिया—वह सत्ता के लिए किसी भी हद तक जाएगा। वह उन सभी को मिटा देगा जो उसके रास्ते में आएँगे, चाहे वे उसके अपने ही क्यों न हों।
इस दुष्ट संकल्प ने उसे एक अजीब सी शांति दी। अब वह लक्ष्यहीन नहीं था। उसके जीवन का एक उद्देश्य था, एक मिशन। लेकिन इस मिशन को पूरा करने के लिए उसे शक्ति की आवश्यकता थी—ऐसी शक्ति जो तलवारों और सेनाओं से परे हो। ऐसी शक्ति जो अदृश्य हो, घातक हो और जिसका कोई प्रमाण न छोड़ा जा सके।
यहीं से उसकी खोज शुरू हुई। उसने अपने विश्वसनीय गुप्तचरों को उन लोगों के बारे में पता लगाने के लिए भेजा जो पारंपरिक ज्ञान से परे की शक्तियों का दावा करते थे। कई दिनों की खोज के बाद, एक शाम, उसका एक बूढ़ा गुप्तचर, कांपते हुए, उसके पास एक सूचना लेकर आया। उसने महल के अस्तबल के पीछे, धीमी आवाज में फुसफुसाकर बताया—दुर्गमर्ग की सबसे अंधेरी और गहरी घाटियों में, जहाँ सूर्य का प्रकाश भी पहुँचने से डरता है, एक तांत्रिक रहता है। उसका नाम भैरवनाथ था, और कहा जाता था कि वह काले जादू का स्वामी है। वह आत्माओं से बात कर सकता था, उन्हें वश में कर सकता था और उनसे अपनी इच्छानुसार काम करवा सकता था।
शौर्यक्षर्य की आँखें चमक उठीं। यही वह शक्ति थी जिसकी उसे तलाश थी।
अगली रात, जब पूरा महल गहरी नींद में सो रहा था, शौर्यक्षर्य ने अपने रेशमी वस्त्रों को त्यागकर एक साधारण किसान के मैले-कुचैले, खुरदुरे कपड़े पहन लिए। उसने अपने चेहरे पर कालिख पोत ली और एक फटी हुई चादर से अपना सिर ढक लिया। वह महल के गुप्त मार्ग से बाहर निकल गया, एक परछाई की तरह, और उस अंधेरी घाटी की ओर बढ़ चला जिसका जिक्र गुप्तचर ने किया था।
यात्रा कठिन और भयावह थी। हवा ठंडी और नम थी, और रात के जीवों की अजीब आवाजें गूंज रही थीं। अंततः, कई घंटों की चढ़ाई के बाद, वह एक विशाल गुफा के मुहाने पर पहुँचा। गुफा का प्रवेश द्वार किसी दैत्य के खुले हुए मुँह जैसा लग रहा था, और उसके भीतर से एक सड़ी हुई, मीठी गंध आ रही थी—जैसे सूखे हुए फूल और बासी रक्त का मिश्रण। गुफा की दीवारों पर चाक और कोयले से भयानक प्रतीक बने हुए थे—उल्टे त्रिकोण, सर्पिल चक्र और ऐसी आकृतियाँ जिन्हें देखकर किसी का भी मन विचलित हो जाए।
शौर्यक्षर्य ने एक गहरी साँस ली और अंदर कदम रखा। गुफा के भीतर मशालों की टिमटिमाती रोशनी में, उसने उसे देखा। भैरवनाथ एक बाघ की खाल पर बैठा था, उसकी आँखें बंद थीं। वह अत्यंत कृशकाय था, उसकी त्वचा हड्डियों पर खिंची हुई थी, और उसकी लंबी, उलझी हुई जटाएँ फर्श को छू रही थीं। उसके चारों ओर मानव खोपड़ियाँ, जड़ी-बूटियों के ढेर और कई अजीब वस्तुएँ रखी थीं।
"राजकुमार शौर्यक्षर्य," तांत्रिक ने बिना आँखें खोले कहा, उसकी आवाज गुफा में गूंज उठी, जैसे चट्टानें स्वयं बोल रही हों। "तुम्हारा यहाँ आना अप्रत्याशित नहीं है।"
शौर्यक्षर्य चौंक गया, लेकिन उसने अपना संयम नहीं खोया। उसने अपने सिर से चादर हटाई और आगे बढ़ा। "आप जानते थे कि मैं आऊँगा?"
तांत्रिक ने धीरे से अपनी आँखें खोलीं। उसकी आँखें कोयले की तरह काली थीं, और उनमें एक ऐसी प्राचीनता और ज्ञान था जो किसी सामान्य मनुष्य का नहीं हो सकता था। "मैं महत्वाकांक्षा की गंध को मीलों दूर से पहचान लेता हूँ, राजकुमार। यह मेरे लिए सबसे मधुर सुगंध है। तुम्हारे हृदय में सत्ता की जो भूख है, वह किसी भूखे भेड़िये की तरह है। बताओ, तुम क्या चाहते हो?"
शौर्यक्षर्य ने बिना किसी हिचकिचाहट के कहा, "मैं दामनगढ़ का सिंहासन चाहता हूँ। और मैं चाहता हूँ कि मेरे रास्ते में आने वाली हर बाधा हट जाए।"
तांत्रिक के पतले होठों पर एक मुस्कान उभरी, जो किसी भी तरह से सुखद नहीं थी। वह खड़ा हुआ और शौर्यक्षर्य के चारों ओर एक चक्कर लगाया, उसे ऐसे देख रहा था जैसे कोई व्यापारी किसी कीमती घोड़े का निरीक्षण कर रहा हो। "तुम्हारी आँखों में दृढ़ संकल्प है। तुम्हारे इरादों में कोई संदेह नहीं है। मैं तुम्हारी मदद करूँगा।"
वह एक कोने में गया और एक पुरानी, चमड़े की जिल्द वाली किताब उठाई। "मैं तुम्हें आत्माओं को नियंत्रित करने की शक्ति प्रदान करूँगा। तुम उन्हें बुला सकोगे, उन्हें आदेश दे सकोगे, और वे तुम्हारे लिए वो काम करेंगी जो जीवित मनुष्य नहीं कर सकते। वे तुम्हारे अदृश्य खंजर और तुम्हारे मौन विष होंगे।"
"इसके लिए मुझे क्या करना होगा?" शौर्यक्षर्य ने पूछा, उसकी आवाज में उत्सुकता थी।
"एक खतरनाक अनुष्ठान," तांत्रिक ने कहा, उसकी आँखें शौर्यक्षर्य के चेहरे पर टिकी थीं। "तुम्हें अपने रक्त का एक अंश देना होगा, अपनी आत्मा का एक टुकड़ा इस अंधकार को समर्पित करना होगा। एक बार जब तुम इस मार्ग पर चल पड़ोगे, तो वापसी का कोई रास्ता नहीं होगा। क्या तुम तैयार हो?"
शौर्यक्षर्य ने एक पल के लिए भी नहीं सोचा। सिंहासन के लिए वह कोई भी कीमत चुकाने को तैयार था। "मैं तैयार हूँ," उसने दृढ़ता से कहा, परिणामों की परवाह किए बिना।
अगले कुछ घंटे किसी भयानक सपने की तरह थे। तांत्रिक ने एक विशाल चक्र बनाया और शौर्यक्षर्य को उसके केंद्र में बैठने के लिए कहा। उसने अजीब, कर्ण-कटु मंत्रों का जाप शुरू किया, जो किसी प्राचीन, मृत भाषा के शब्द लगते थे। उसने शौर्यक्षर्य की उंगली में एक चांदी के चाकू से चीरा लगाया और उसके रक्त की सात बूंदें एक खोपड़ी में इकट्ठा कीं। अनुष्ठान के चरम पर, गुफा का तापमान गिर गया और हवा में फुसफुसाहटें गूंजने लगीं। शौर्यक्षर्य को लगा जैसे सैकड़ों अदृश्य आँखें उसे घूर रही हैं।
फिर तांत्रिक ने उसे आत्माओं को बुलाने और उन्हें वश में करने का मंत्र सिखाया। शब्द उसके होठों पर अजीब और अप्राकृतिक लग रहे थे, लेकिन उसने उन्हें दोहराया।
"अब प्रयास करो," तांत्रिक ने आदेश दिया। "किसी छोटी, कमजोर आत्मा को बुलाओ।"
शौर्यक्षर्य ने अपनी आँखें बंद कीं और मंत्र पर ध्यान केंद्रित किया। उसने एक चूहे की आत्मा के बारे में सोचा जो कुछ दिन पहले महल की रसोई में मारा गया था। उसने अपनी सारी इच्छाशक्ति उस पर केंद्रित की। कुछ क्षणों की खामोशी के बाद, उसके सामने हवा में एक धुंधला, कांपता हुआ प्रकाश प्रकट हुआ—एक छोटी, भयभीत आत्मा।
"इसे आदेश दो," तांत्रिक फुसफुसाया।
"उस कोने में रखे पत्थर को उठाओ," शौर्यक्षर्य ने धीरे से आदेश दिया।
आत्मा कांपी, लेकिन फिर वह उस छोटे से कंकड़ की ओर बढ़ी और उसे हवा में उठा लिया।
यह एक छोटी सी सफलता थी, लेकिन शौर्यक्षर्य के लिए यह ब्रह्मांड पर विजय पाने जैसी थी। शक्ति का एक नशीला प्रवाह उसकी नसों में दौड़ गया। उसके चेहरे पर एक विजयपूर्ण और क्रूर मुस्कान फैल गई। यह काम करता था। यह सच में काम करता था।
यह सफलता उसके अहंकार को और बढ़ा गई। अब उसे कोई नहीं रोक सकता था। उसके दिमाग में तुरंत योजनाएँ बनने लगीं। उसका पहला निशाना उसका सबसे बड़ा भाई, युवराज विक्रमआदित्य होगा।
"इस शक्ति का दुरुपयोग विनाशकारी हो सकता है, राजकुमार," तांत्रिक ने उसे चेतावनी दी, उसकी आवाज में कोई भावना नहीं थी। "हर आत्मा का अपना स्वभाव होता है। यदि तुम किसी शक्तिशाली और प्रतिशोधी आत्मा को नियंत्रित करने का प्रयास करोगे, तो वह पलटवार कर सकती है।"
शौर्यक्षर्य ने तांत्रिक की चेतावनी को अनसुना कर दिया, जैसे कोई नशे में धुत्त व्यक्ति किसी शुभचिंतक की सलाह को अनसुना कर देता है। विनाश? वह तो स्वयं विनाश बनने जा रहा था। वह अपने भाइयों के लिए विनाश बनेगा।
वह तांत्रिक को धन्यवाद दिए बिना ही गुफा से बाहर निकल गया। जब वह महल में लौटा, तो सुबह की पहली किरणें दामनगढ़ के बुर्जों को चूम रही थीं। महल हमेशा की तरह शांत और भव्य लग रहा था, लेकिन शौर्यक्षर्य के लिए अब यह एक शिकार का मैदान था। वह अपने कक्ष की बालकनी पर खड़ा हुआ और उस दिशा में देखा जहाँ युवराज विक्रमआदित्य का कक्ष था।
उसकी आँखों में अब कोई ईर्ष्या या निराशा नहीं थी। वहाँ सिर्फ एक ठंडा, गणनात्मक इरादा था—एक शिकारी का इरादा जो अपने पहले शिकार पर नजरें गड़ाए हुए है। पहला मोहरा गिरने के लिए तैयार था।
शौर्यक्षर्य महल में एक प्रेत की भांति लौटा था—बाहर से वही राजकुमार, किन्तु भीतर से एक ऐसा अंधकार जिसने उसकी आत्मा को निगल लिया हो। उसके भीतर अब तांत्रिक द्वारा दी गई शक्ति किसी शांत, गहरे सागर की तरह हिलोरें ले रही थी, अपनी विनाशकारी क्षमता के प्रकट होने की प्रतीक्षा में। वह अपने भाइयों को देखता, उनके साथ भोजन करता, और दरबार में बैठता, पर उसकी आँखें अब उन्हें भाई के रूप में नहीं, बल्कि सिंहासन के मार्ग में बिछे काँटों के रूप में देखती थीं।
उसका पहला लक्ष्य स्पष्ट था: युवराज वीरभद्र। सबसे बड़ा, सबसे शक्तिशाली और प्रजा का सबसे प्रिय। जब तक वीरभद्र जीवित थे, शौर्यक्षर्य केवल एक परछाई बना रह सकता था। उसे हटाने की योजना भी उतनी ही सूक्ष्म और विषैली होनी थी जितनी स्वयं उसकी महत्वाकांक्षा। एक ऐसी मृत्यु जो किसी की कल्पना में भी हत्या न लगे।
एक अमावस की रात, जब महल के गलियारे खामोशी में डूबे थे और मशालों की लौ भी कांप रही थी, शौर्यक्षर्य अपने कक्ष के एकांत में बैठा। उसने आँखें बंद कीं और उस मंत्र का जाप किया जो अब उसकी जिह्वा पर रच-बस गया था। हवा ठंडी हो गई, और कमरे के कोनों से साये खिंचकर उसके सामने एकत्रित होने लगे। एक आकारहीन, धुंधली आकृति प्रकट हुई—एक आत्मा, जो अब उसकी इच्छा की दासी थी। शौर्यक्षर्य ने उसे मानसिक आदेश दिया, शब्दहीन, किन्तु स्पष्ट।
"शाही बगीचे में सबसे विषैला सर्प ढूंढो। उसे युवराज के शयनकक्ष में ले जाओ और उनके बिस्तर पर छोड़ दो। सुनिश्चित करो कि उसका दंश घातक हो।"
वह आत्मा एक ठंडे झोंके की तरह दीवारों के पार होती हुई गायब हो गई। शौर्यक्षर्य अपनी जगह पर बैठा रहा, उसकी हृदय गति स्थिर थी। उसे कोई अपराध बोध नहीं था, केवल एक सर्द प्रत्याशा थी। उसने उस आत्मा की यात्रा को अपने मन की आँखों से देखा। आत्मा ने बगीचे के घने पत्तों के नीचे सोए हुए एक काले नाग को जगाया, उसे अपनी शक्ति से वश में किया और महल के अनगिनत गलियारों से होते हुए युवराज के कक्ष तक ले गई।
वीरभद्र का कक्ष उनकी वीरता का प्रतीक था। दीवारों पर ढालें और तलवारें टंगी थीं, और एक कोने में उनका भारी कवच रखा था, जो चाँदनी में चमक रहा था। वीरभद्र गहरी निद्रा में थे, उनके चेहरे पर एक योद्धा की शांति थी। आत्मा ने धीरे से उस काले, मृत्यु समान नाग को रेशमी चादर पर छोड़ दिया। सर्प कुछ पल के लिए स्थिर रहा, फिर धीरे-धीरे रेंगता हुआ युवराज की गर्दन के पास पहुँच गया। एक क्षणिक, तीव्र गति और फिर सब कुछ शांत। आत्मा अपना कार्य पूरा करके लौट आई।
अगली सुबह का सूरज दामनगढ़ के लिए प्रलय लेकर आया। एक दासी का चीत्कार पूरे महल में गूंज गया। जब लोग युवराज के कक्ष में पहुँचे, तो उन्होंने उन्हें बिस्तर पर निश्चल पाया। उनका शरीर नीला पड़ चुका था और पास ही वह काला नाग कुंडली मारे बैठा था, जैसे अपनी विजय का उत्सव मना रहा हो। पूरे राज्य में शोक की लहर दौड़ गई। राजवैद्यों ने इसे एक आकस्मिक और दुर्भाग्यपूर्ण मृत्यु घोषित कर दिया। किसी ने सोचा भी नहीं कि एक सर्प महल के सबसे सुरक्षित कक्ष तक कैसे पहुँच सकता है। इसे केवल नियति का क्रूर खेल माना गया।
शौर्यक्षर्य सबके सामने दुख का दिखावा करने में सबसे आगे था। उसने अपने पिता, महाराज विक्रमसेन को संभाला, अपनी माँ, महारानी वसुंधरा के आँसू पोंछे और प्रजा के सामने एक टूटे हुए भाई की भूमिका इतनी कुशलता से निभाई कि किसी को उस पर लेशमात्र भी संदेह नहीं हुआ। किन्तु जब वह अकेला होता, तो उसके होठों पर एक क्रूर मुस्कान तैर जाती। chessboard का पहला और सबसे शक्तिशाली मोहरा हट चुका था।
अब उसकी दृष्टि अपने दूसरे भाई, ज्ञानेंद्र पर थी, जो एक कुशल शिकारी होने के साथ-साथ एक प्रखर बुद्धिजीवी भी थे। शौर्यक्षर्य जानता था कि ज्ञानेंद्र को एक साधारण दुर्घटना में मारना कठिन होगा, क्योंकि वह हमेशा सतर्क रहते थे। इसलिए, उसने उनके सबसे बड़े जुनून, शिकार को ही उनका काल बनाने का फैसला किया।
कुछ सप्ताह बाद, जब युवराज की मृत्यु का शोक कुछ कम हुआ, तो महाराज ने अपने मन को बहलाने के लिए एक शाही शिकार का आयोजन किया। ज्ञानेंद्र, जो स्वयं भी अपने भाई की मृत्यु के दुख से उबरने की कोशिश कर रहे थे, इस शिकार का नेतृत्व करने के लिए तैयार हो गए। जंगल की हरियाली और शिकार का रोमांच शायद उनके घावों पर मरहम लगा सके, उन्होंने सोचा। उन्हें क्या पता था कि उनका छोटा भाई उनके लिए एक और गहरा घाव तैयार कर रहा था।
शिकार के दौरान, जब सभी राजकुमार और सामंत जंगल में फैल गए, शौर्यक्षर्य थोड़ा पीछे रह गया। उसने फिर से एक आत्मा को बुलाया, इस बार एक अधिक शक्तिशाली और हिंसक आत्मा को। उसने उसे जंगल के सबसे बड़े और जंगली सूअर को भड़काने का आदेश दिया।
"उसकी आँखों में क्रोध भर दो। उसकी शक्ति को दस गुना बढ़ा दो और उसे ज्ञानेंद्र की ओर निर्देशित करो। वह बचकर नहीं जाना चाहिए।"
जंगल के दूसरे छोर पर, वह जंगली सूअर, जो शांति से कंद-मूल खा रहा था, अचानक उन्मत्त हो गया। उसकी आँखें खून की तरह लाल हो गईं, और उसके मुँह से झाग निकलने लगा। वह किसी पागल दानव की तरह चिंघाड़ता हुआ सीधे ज्ञानेंद्र के घोड़े की ओर दौड़ा। ज्ञानेंद्र, जो एक हिरण का पीछा कर रहे थे, इस अप्रत्याशित हमले के लिए तैयार नहीं थे। इससे पहले कि वह अपना भाला संभाल पाते, सूअर ने उनके घोड़े को टक्कर मारकर गिरा दिया। ज्ञानेंद्र जमीन पर गिरे और सूअर ने अपने नुकीले दांतों से उन पर हमला कर दिया। एक ही क्षण में सब कुछ समाप्त हो गया। जब तक दूसरे शिकारी वहाँ पहुँचे, ज्ञानेंद्र की मौके पर ही मौत हो चुकी थी और वह सूअर जंगल में गायब हो गया था।
इस घटना को भी एक भयानक दुर्घटना के रूप में देखा गया। शिकार में ऐसी घटनाएँ असामान्य नहीं थीं। राजा और रानी अपने दूसरे बेटे की मृत्यु से पूरी तरह टूट गए। दो जवान बेटों को कुछ ही हफ्तों के अंतराल में खो देना किसी भी माता-पिता के लिए असहनीय था। महल की भव्यता अब एक विशाल मकबरे की खामोशी में बदल गई थी।
शौर्यक्षर्य का आत्मविश्वास और उसकी क्रूरता अब अपनी चरम सीमा पर थी। उसे अपनी शक्ति पर अटूट विश्वास हो गया था। वह अब केवल एक हत्यारा नहीं था, बल्कि एक कलाकार था जो मृत्यु की ऐसी रचनाएँ कर रहा था जिन पर कोई सवाल नहीं उठा सकता था। उसका मन अब पूरी तरह से काले जादू के प्रभाव में था, और उसे अपने किए पर कोई पछतावा नहीं था। वह अपने माता-पिता के आँसुओं को एक उदासीन भाव से देखता, जैसे वे किसी और के माता-पिता हों।
अब केवल दो बाधाएँ बची थीं—उसके दोनों छोटे भाई, प्रियदर्शन और नवल। वे दोनों सिंहासन के लिए कोई वास्तविक खतरा नहीं थे, पर शौर्यक्षर्य कोई भी जोखिम नहीं लेना चाहता था। वह चाहता था कि वह एकमात्र उत्तराधिकारी हो, निर्विवाद, अकेला। उन्हें रास्ते से हटाने के लिए, उसने एक और भी भयावह योजना बनाई। एक ऐसी योजना जो उसकी विकृत हो चुकी मानसिकता को दर्शाती थी। वह उन्हें केवल मारना नहीं चाहता था; वह उन्हें एक-दूसरे के हाथों मरवाना चाहता था।
एक रात, जब प्रियदर्शन और नवल अपने-अपने कक्षों में सो रहे थे, शौर्यक्षर्य ने दो सबसे भयानक आत्माओं को उनके सपनों में भेजा। उसने उन आत्माओं को आदेश दिया कि वे उनके मन के सबसे गहरे डर को कुरेदें और उन्हें एक-दूसरे का शत्रु बना दें।
प्रियदर्शन के सपने में, नवल एक राक्षस के रूप में आया जो उसकी कलाकृतियों को नष्ट कर रहा था। नवल के सपने में, प्रियदर्शन एक हत्यारे के रूप में आया जो उसे मारने की कोशिश कर रहा था। उन आत्माओं ने उनके सपनों को इतना वास्तविक बना दिया कि जब वे चीखते हुए जागे, तो वे सपने और हकीकत के बीच का अंतर भूल चुके थे।
डर के मारे पागल, दोनों अपने कक्षों से बाहर भागे और गलियारे में एक-दूसरे से टकराए। उस अर्ध-अंधकार में, उन्हें एक-दूसरे का चेहरा नहीं, बल्कि अपने सपने का वह भयानक राक्षस और हत्यारा दिखाई दिया।
"तुम! तुम मुझे मारने आए हो!" प्रियदर्शन चिल्लाया और पास में रखी एक भारी मशाल उठा ली।
"नहीं! तुम मुझे मार डालोगे!" नवल रोया और अपनी कमर में लटकी छोटी कटार निकाल ली।
एक भयानक लड़ाई शुरू हो गई। वे एक-दूसरे पर हमला नहीं कर रहे थे, बल्कि उन भयावह आत्माओं द्वारा बनाए गए भ्रम पर हमला कर रहे थे। उनकी चीखें गलियारों में गूंज रही थीं, लेकिन इससे पहले कि कोई पहरेदार वहाँ पहुँचता, बहुत देर हो चुकी थी। प्रियदर्शन की मशाल नवल के सीने में धंस गई, और नवल की कटार प्रियदर्शन के पेट में। दोनों लहूलुहान होकर एक-दूसरे पर गिरे। अंतिम क्षणों में, जैसे ही आत्माओं का प्रभाव हटा, उन्होंने एक-दूसरे को पहचाना। उनकी आँखों में अविश्वास और भयावह पीड़ा थी, और फिर वे हमेशा के लिए शांत हो गए।
महल में अब केवल शौर्यक्षर्य ही एकमात्र उत्तराधिकारी बचा था। उसके मार्ग के सभी चार काँटे हट चुके थे। जब उसने अपने दोनों छोटे भाइयों के शवों को देखा, तो उसकी आँखों में एक भी आँसू नहीं था। वहाँ केवल विजय की एक ठंडी चमक थी। वह अपने लक्ष्य के इतने करीब पहुँचकर एक अजीब सी शांति का अनुभव कर रहा था।
उसका मन अब पूरी तरह से काला जादू के प्रभाव में था, इतना कि उसे अपने भाइयों की हत्याएँ अपने ही कर्म नहीं, बल्कि सिंहासन तक पहुँचने की आवश्यक सीढ़ियाँ लगती थीं। वह रात में दामनगढ़ की राजगद्दी पर बैठने का सपना देखने लगा, उस सुनहरे मुकुट को अपने सिर पर महसूस करने लगा। वह यह नहीं जानता था कि हर हत्या के साथ, उसने अपनी आत्मा का एक और टुकड़ा अंधकार को बेच दिया था, और उसका पतन बहुत पहले ही शुरू हो चुका था। वह जीत के इतने करीब था, फिर भी अपनी अंतिम हार से पूरी तरह अनजान था।
दामनगढ़ का सिंहासन अब खाली नहीं था। शौर्यक्षर्य, अपने सभी भाइयों की चिताओं की राख पर चलकर, अंततः उस स्थान पर पहुँच गया था जिसके लिए उसने अपनी आत्मा तक बेच दी थी। उसका राज्याभिषेक पूरी भव्यता के साथ हुआ। सोने और रेशम से सजे हाथी सड़कों पर चल रहे थे, प्रजा फूल बरसा रही थी, और ब्राह्मणों के मंत्रोच्चार से आकाश गूंज रहा था। शौर्यक्षर्य ने स्वर्ण मुकुट धारण किया, और उसकी आँखों में विजय की एक ऐसी चमक थी जो सूर्य के प्रकाश को भी मात दे रही थी। किंतु इस सारी भव्यता और उत्सव के पीछे, प्रजा के दिलों में एक अनजाना, अव्यक्त डर था। महल, जो कभी जीवन और उल्लास का केंद्र था, अब एक उदास खामोशी में डूबा रहता था। चार राजकुमारों की रहस्यमयी और आकस्मिक मृत्यु ने हवा में एक अशुभ फुसफुसाहट घोल दी थी।
शौर्यक्षर्य को इन फुसफुसाहटों से कोई फर्क नहीं पड़ता था। वह अपनी शक्तियों पर और भी अधिक अहंकारी हो गया था। राजगद्दी पर बैठकर, वह अक्सर अपनी आँखें बंद कर लेता और उन आत्माओं को महसूस करता जो अब उसकी एक आज्ञा की प्रतीक्षा में थीं। शासन चलाने में उसकी रुचि कम होती जा रही थी। मंत्रियों की सलाह उसे उबाऊ लगती थी, और न्याय की गुहार लगाने वाली प्रजा उसे एक बोझ लगती थी। उसका ध्यान शासन से हटकर अपनी शक्तियों के प्रदर्शन पर केंद्रित हो गया था।
वह अब आत्माओं का उपयोग छोटे-छोटे, तुच्छ कामों के लिए करने लगा था, केवल अपने मनोरंजन के लिए। वह एक आत्मा को आदेश देता कि वह मुख्य रसोइये के खाने में नमक ज्यादा डाल दे, और फिर रसोइये को डांट खाते देख मन ही मन हँसता। वह दूसरी आत्मा को भेजता कि वह कोषाध्यक्ष के बही-खातों के पन्ने इधर-उधर कर दे, और फिर उसकी घबराहट का आनंद लेता। यह उसकी विकृत हो चुकी मानसिकता का प्रमाण था। जिस शक्ति का उपयोग उसने सिंहासन पाने के लिए किया था, अब वह उसके लिए केवल एक खिलौना बनकर रह गई थी, एक ऐसा खिलौना जिससे वह अपनी ऊब मिटाता था।
उसका अहंकार उसे एक और खतरनाक कदम की ओर ले गया। वह अब छोटी-मोटी, कमजोर आत्माओं से संतुष्ट नहीं था। वह एक ऐसी आत्मा को वश में करना चाहता था जो बहुत शक्तिशाली और प्रतिशोधी हो, एक ऐसी आत्मा जिसे नियंत्रित करना लगभग असंभव हो। उसे अपनी शक्तियों पर इतना घमंड हो गया था कि उसे लगता था कि ब्रह्मांड की कोई भी शक्ति उसका सामना नहीं कर सकती।
उसने अपने गुप्तचरों के माध्यम से ऐसी ही एक आत्मा के बारे में पता लगाया। यह एक युवा लड़की की आत्मा थी, जिसका नाम लावण्या था। वह एक गाँव की नर्तकी थी, जिसकी सुंदरता और कला की चर्चा दूर-दूर तक थी। कुछ महीने पहले, दामनगढ़ के कुछ अत्याचारी सैनिकों ने नशे में धुत होकर उसके साथ दुर्व्यवहार किया और फिर उसकी हत्या कर दी थी। उसकी मृत्यु इतनी क्रूर और अन्यायपूर्ण थी कि उसकी आत्मा को शांति नहीं मिली। वह प्रतिशोध की आग में जलती हुई भटक रही थी। उसने उन सैनिकों में से दो को अपनी भयानक उपस्थिति से डरा-डराकर पागल कर दिया था। उसकी शक्ति की कहानियाँ लोगों में भय पैदा करती थीं।
शौर्यक्षर्य के लिए, यह एक आदर्श चुनौती थी। एक शक्तिशाली, क्रोधित और प्रतिशोधी आत्मा। उसे वश में करना उसकी शक्तियों की सर्वोच्च परीक्षा होगी। एक रात, उसने उस स्थान पर ध्यान केंद्रित किया जहाँ लावण्या की हत्या हुई थी, एक पुराने, वीरान मंदिर के पास। उसने अपने सबसे शक्तिशाली मंत्रों का जाप शुरू किया।
कुछ ही क्षणों में, हवा में एक असहनीय ठंडक फैल गई और मंदिर के खंडहरों से एक तेज विलाप की ध्वनि आई। लावण्या की आत्मा उसके सामने प्रकट हुई। वह पारदर्शी थी, लेकिन उसका क्रोध इतना तीव्र था कि वह लगभग ठोस प्रतीत हो रही थी। उसकी आँखें जलते हुए अंगारों की तरह थीं, और उसके लंबे बाल हवा में किसी काले सर्प की तरह लहरा रहे थे।
"किसने मुझे बुलाने का दुस्साहस किया?" उसकी आवाज़ में सैकड़ों टूटे हुए काँच के टुकड़ों की खनक थी।
शौर्यक्षर्य ने अहंकार भरी मुस्कान के साथ कहा, "मैंने, दामनगढ़ के महाराज शौर्यक्षर्य ने। मैं तुम्हें अपने वश में करने आया हूँ।"
लावण्या की आत्मा उस पर हँसी, एक ऐसी हँसी जिसमें दर्द और घृणा का मिश्रण था। "एक नश्वर मुझे वश में करेगा? तुम नहीं जानते कि तुम किसके साथ खेल रहे हो, महाराज। मेरे हत्यारे अभी भी जीवित हैं। जब तक मैं उनसे बदला नहीं ले लेती, मुझे कोई नियंत्रित नहीं कर सकता।"
लेकिन शौर्यक्षर्य ने तांत्रिक से जो सीखा था, वह साधारण काला जादू नहीं था। उसने अपनी पूरी शक्ति उस आत्मा पर केंद्रित की। एक भयंकर मानसिक युद्ध शुरू हो गया। आत्मा ने अपनी पूरी घृणा और क्रोध से शौर्यक्षर्य पर प्रहार किया, लेकिन शौर्यक्षर्य के मंत्रों ने एक अदृश्य ढाल बना रखी थी। घंटों तक यह संघर्ष चलता रहा। अंत में, मंत्रों की शक्ति के आगे आत्मा का क्रोध कमजोर पड़ गया। वह कांपने लगी और धीरे-धीरे शौर्यक्षर्य के नियंत्रण में आ गई।
शौर्यक्षर्य विजयी हुआ। उसने एक अत्यंत शक्तिशाली आत्मा को अपने वश में कर लिया था। लेकिन यहीं उसने अपनी सबसे बड़ी और अंतिम गलती की। उसने लावण्या की आत्मा को उसके हत्यारों से बदला लेने से रोक दिया। वह उस शक्तिशाली आत्मा को अपने निजी मनोरंजन के लिए इस्तेमाल करना चाहता था। वह चाहता था कि वह उसके दरबार में अदृश्य रूप से नृत्य करे, केवल उसके देखने के लिए। वह उसकी पीड़ा और क्रोध का आनंद लेना चाहता था। यह उसकी क्रूरता की पराकाष्ठा थी।
लावण्या की आत्मा, जो अब उसकी दासी थी, उसकी इस क्रूरता से और भी क्रोधित हो गई। उसका प्रतिशोध अब केवल अपने हत्यारों तक सीमित नहीं रहा; वह अब शौर्यक्षर्य से घृणा करने लगी, एक ऐसी घृणा जो उसके पिछले क्रोध से हजार गुना अधिक शक्तिशाली थी। वह बाहर से शांत और नियंत्रित दिखती थी, लेकिन अंदर ही अंदर वह अपनी पूरी शक्ति लगाकर शौर्यक्षर्य के नियंत्रण से मुक्त होने की कोशिश कर रही थी। वह सही समय का इंतजार कर रही थी।
और वह समय आया एक पूर्णिमा की रात। वह शरद पूर्णिमा की रात थी, जब चंद्रमा अपनी पूरी शक्ति और सौंदर्य के साथ आकाश में चमकता है, और जब अलौकिक शक्तियों का प्रभाव चरम पर होता है। उस रात, शौर्यक्षर्य अपने शयनकक्ष में अकेला था, मदिरा पी रहा था और लावण्या की आत्मा को अपने मनोरंजन के लिए पीड़ा दे रहा था।
अचानक, लावण्या की आत्मा ने कांपना बंद कर दिया। वह स्थिर हो गई, और उसकी आँखों में एक भयानक, अंतिम संकल्प की चमक दिखाई दी। पूर्णिमा के चंद्रमा की शक्ति ने उसे शौर्यक्षर्य के मंत्रों के बंधन को एक पल के लिए तोड़ने की शक्ति दे दी थी। और वह एक पल ही काफी था।
उसका क्रोध चरम पर पहुँच गया। उसने अपनी सारी एकत्रित ऊर्जा, अपनी सारी पीड़ा, और अपनी सारी घृणा को एक साथ मिलाकर एक भयानक श्राप का रूप दिया। उसकी आवाज अब केवल एक आत्मा की आवाज नहीं थी, बल्कि सैकड़ों प्रताड़ित आत्माओं का सामूहिक विलाप थी जो पूरे महल में गूंज उठी।
"सुन, अहंकारी राजा! तूने मेरी पीड़ा का उपहास किया है! तूने मुझे मेरे न्याय से वंचित किया है! तुझे अपनी सुंदरता और शक्ति पर बहुत घमंड है, है न? तो सुन मेरा श्राप! जिसे अपनी सुंदरता और अमरता का शौक है, वह कुरूप और जर्जर होकर हमेशा के लिए इस महल में भटकेगा! तेरा सुंदर चेहरा विकृत हो जाएगा और तेरा शरीर गलने लगेगा, फिर भी तुझे मृत्यु नहीं मिलेगी! तू अमर रहेगा, अपनी कुरूपता और अपने पश्चाताप के साथ!"
श्राप यहीं नहीं रुका। उसकी आवाज और भी तीव्र हो गई।
"और सुन! तुझे कभी मुक्ति नहीं मिलेगी! तू इस महल में कैद रहेगा, ठीक उसी तरह जैसे तूने मुझे कैद करने की कोशिश की! यह महल अब तेरा स्वर्ण पिंजरा नहीं, बल्कि एक श्रापित मकबरा होगा! और जो कोई भी तुझसे सहानुभूति दिखाएगा, जो कोई भी तेरी मदद करने की कोशिश करेगा, उसका भी वही हश्र होगा! वह भी इस श्राप का भागी बनेगा!"
श्राप का असर तुरंत होने लगा। जैसे ही आखिरी शब्द उसके मुँह से निकला, लावण्या की आत्मा एक तेज प्रकाश में विलीन हो गई, अपनी सारी ऊर्जा श्राप में लगाकर। शौर्यक्षर्य का मदिरा का प्याला हाथ से छूटकर गिर गया। उसने अपने चेहरे पर एक असहनीय जलन महसूस की। पूरा महल कांपने लगा, जैसे कोई भूकंप आया हो। दीवारों पर लगी मशालें बुझ गईं, और फव्वारों का पानी खून की तरह लाल हो गया। महल की सारी चमक और भव्यता एक ही पल में फीकी पड़ गई।
शौर्यक्षर्य दर्द से चीखा, एक ऐसी चीख जो किसी इंसान की नहीं, बल्कि एक प्रताड़ित जानवर की लग रही थी। उसका सुंदर, राजसी चेहरा विकृत होने लगा था। उसकी त्वचा पर गहरे, सड़ते हुए घाव बनने लगे, और उसका मजबूत शरीर जर्जर होने लगा। श्राप ने अपना काम शुरू कर दिया था। दामनगढ़ का सूरज अस्त हो चुका था, और एक अंतहीन, काली रात की शुरुआत हो गई थी।
श्राप की प्रतिध्वनि अभी भी महल के गलियारों में गूंज रही थी, जब शौर्यक्षर्य का शरीर पूरी तरह से बदल गया। उसका राजसी मुख, जिस पर कभी दामनगढ़ की स्त्रियाँ मोहित होती थीं, अब एक भयावह दृश्य में तब्दील हो चुका था। उसकी त्वचा पर गहरे, सड़न भरे घाव बन गए थे, जो एक अंतहीन पीड़ा का प्रतीक थे। उसकी आँखें, जो कभी सत्ता की भूख से चमकती थीं, अब गहरे गड्ढों में धंस गई थीं, जिनमें केवल भय और पश्चाताप का अंधकार था। उसका रेशमी राजसी वस्त्र अब उसके जर्जर होते शरीर पर चीथड़ों की तरह लग रहा था।
उसने कांपते हाथों से अपने चेहरे को छुआ और अपनी उंगलियों के नीचे उस विकृत मांस को महसूस कर कराह उठा। पास ही दीवार पर एक बड़ा सा दर्पण टंगा था, जिसमें कभी वह गर्व से अपना प्रतिबिंब निहारता था। आज हिम्मत करके उसने उस दर्पण में देखा। जो कुछ उसे दिखा, उससे उसकी आत्मा तक कांप गई। आईने में खड़ा व्यक्ति वह नहीं था, वह कोई और था—एक दानव, एक प्रेत, एक ऐसी সত্তা जिसे देखकर कोई भी डर जाए। वह भयभीत होकर पीछे हटा और जमीन पर गिर पड़ा। उसकी चीखें अब शब्दों में नहीं, बल्कि एक अमानवीय घुरघुराहट में बदल गई थीं।
महल में मची उथल-पुथल और शौर्यक्षर्य की दर्दनाक चीखों को सुनकर महाराज विक्रमसेन और महारानी वसुंधरा अपने कक्ष से भागे हुए आए। जब वे शौर्यक्षर्य के कक्ष के द्वार पर पहुँचे, तो उन्होंने जो दृश्य देखा, उससे उनके पैरों तले जमीन खिसक गई। उनका एकमात्र बचा हुआ पुत्र, उनका उत्तराधिकारी, एक ऐसे रूप में जमीन पर पड़ा था जिसकी उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी।
"शौर्य!" महारानी वसुंधरा का चीत्कार महल की दीवारों से टकराकर लौट आया। वह अपने बेटे की ओर दौड़ीं, लेकिन उसकी भयानक कुरूपता देखकर वहीं ठिठक गईं। उनकी आँखों में अविश्वास और असहनीय पीड़ा थी। यह उनके लिए अंतिम प्रहार था। चार पुत्रों को पहले ही खो चुकी माँ के लिए अपने पाँचवें और अंतिम पुत्र की यह दुर्दशा देखना मृत्यु से भी बदतर था। वह वहीं बेहोश होकर गिर पड़ीं।
राजा विक्रमसेन, जो अब तक किसी तरह खुद को संभाले हुए थे, अपने बेटे की हालत और अपनी पत्नी की बेहोशी देखकर पूरी तरह टूट गए। उन्हें श्राप की भयावहता का अहसास हो गया था। हवा में अभी भी लावण्या के शब्द गूंज रहे थे—"यह महल अब एक श्रापित मकबरा होगा।" उन्हें समझ आ गया कि यह महल अब रहने लायक नहीं है। इसकी हर ईंट, हर पत्थर अब उस श्राप की ऊर्जा से संतृप्त हो चुका था। यहाँ रहना मतलब धीरे-धीरे मौत को गले लगाना था।
जब महारानी को होश आया, तो उनकी आँखों में केवल एक ही निर्णय था—एक माँ का निर्णय जो अपने राज्य और अपनी प्रजा को इस भयानक श्राप से बचाना चाहती थी। उन्होंने कांपती आवाज में राजा से कहा, "स्वामी, हमें यह महल छोड़ना होगा। अभी, इसी क्षण। यह जगह अब अपवित्र हो चुकी है। हम अपनी प्रजा को इस श्राप की छाया में नहीं रहने दे सकते।"
राजा, अपने राज्य और प्रजा को बचाने के अपने कर्तव्य से बंधे हुए, इस कठोर निर्णय से सहमत हो गए। उनके पास कोई और विकल्प नहीं था। उन्होंने भारी मन से महल खाली करने का आदेश दिया। शौर्यक्षर्य, जो अब कुछ होश में आया था, अपने माता-पिता के निर्णय को सुनकर घबरा गया। वह घिसटता हुआ उनके पैरों के पास पहुँचा और किसी बच्चे की तरह रोते हुए भीख माँगने लगा।
"नहीं... पिताजी... माता... मुझे छोड़कर मत जाइए! मुझे अकेला मत छोड़िए!" उसकी आवाज फटी हुई और दर्दनाक थी। "मैंने गलती की... मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गई... मुझे क्षमा कर दीजिए!"
लेकिन श्राप का डर किसी भी प्रेम या मोह से बड़ा था। लावण्या के शब्द उनके कानों में गूंज रहे थे—"जो कोई भी तुझसे सहानुभूति दिखाएगा, उसका भी वही हश्र होगा।" वे उसे वहीं छोड़ने पर मजबूर थे, अपने ही बेटे को, अपने ही खून को, उस श्रापित महल में अकेले सड़ने के लिए। यह उनके जीवन की सबसे बड़ी पीड़ा थी, लेकिन उनके पास कोई और रास्ता नहीं था।
शौर्यक्षर्य को अपनी गलती का अहसास अब पूरी तरह से हो चुका था। उसका सारा अहंकार टूटकर चूर-चूर हो गया था। उसे समझ आ गया था कि उसने अपनी सत्ता की भूख में क्या खो दिया है। उसने अपनी आँखें बंद कीं और उस आत्मा से, लावण्या से, माफी माँगने की कोशिश की, लेकिन वह जानता था कि आत्मा जा चुकी है, अपनी अंतिम ऊर्जा श्राप में लगाकर।
निराशा और हताशा में, वह उसी तांत्रिक के पास वापस गया जिसने उसे यह विनाशकारी शक्तियाँ दी थीं। वह भेष बदलकर, रात के अंधेरे में, उसी अंधेरी गुफा में पहुँचा। तांत्रिक उसे देखकर चौंका नहीं, जैसे उसे इसके होने का अंदेशा पहले से ही था। शौर्यक्षर्य उसके पैरों में गिर पड़ा और मुक्ति का मार्ग पूछने लगा।
तांत्रिक ने अपनी गहरी, रहस्यमयी आँखों से उसे देखा और कहा, "मैंने तुम्हें चेतावनी दी थी, राजकुमार। इस शक्ति का दुरुपयोग विनाशकारी होता है। यह श्राप एक प्रतिशोधी आत्मा की पूरी शक्ति से बना है। इसे तोड़ना लगभग असंभव है।"
"कोई तो मार्ग होगा!" शौर्यक्षर्य गिड़गिड़ाया। "कुछ भी... मैं कुछ भी करने को तैयार हूँ!"
तांत्रिक ने कुछ देर अपनी आँखें बंद रखीं, जैसे भविष्य में झाँक रहा हो। फिर उसने कहा, "एक मार्ग है, पर वह बहुत लंबा और कठिन है। तुम्हें 700 वर्षों की घोर तपस्या करनी होगी। अपने इसी कुरूप और जर्जर शरीर में, बिना मृत्यु के, तुम्हें इस महल में 700 साल तक पश्चाताप की अग्नि में जलना होगा।"
उसने आगे कहा, "तपस्या के बाद, उसी श्राप देने वाली आत्मा का एक वंशज आएगा, एक ऐसा लड़का जिसके दिल में तुम्हारे लिए घृणा नहीं, बल्कि करुणा होगी। उस लड़के को अपनी मर्जी से इस महल में आना होगा और अपनी इच्छा से तुम्हारी मदद करने का फैसला करना होगा। केवल उसका निस्वार्थ प्रेम ही इस श्राप को तोड़ सकता है।"
यह सुनकर शौर्यक्षर्य को एक क्षण के लिए आशा की किरण दिखी, लेकिन तांत्रिक के अगले शब्दों ने उसे फिर से निराशा में धकेल दिया। "तब तक के लिए, इस महल को दुनिया की नजरों से ओझल कर दिया जाएगा। यह यहीं रहेगा, पर किसी को दिखाई नहीं देगा। और तुम्हें एक ताबूत में बंद कर दिया जाएगा, ताकि तुम अपने इस श्रापित रूप में और कोई नुकसान न कर सको। तुम्हारी शक्तियाँ तुमसे छीन ली जाएँगी, केवल तुम्हारी चेतना जीवित रहेगी, 700 वर्षों तक उस अंधेरे ताबूत में कैद।"
यह सुनकर शौर्यक्षर्य कांप गया। 700 साल एक ताबूत में? यह मृत्यु से भी भयानक सजा थी।
इस बीच, महल में कुछ वफादार परिचारक और सेवक, जो शौर्यक्षर्य के प्रति अपनी निष्ठा नहीं छोड़ सके, उन्होंने महल में ही रुकने का फैसला किया। वे अपने राजकुमार को अकेला नहीं छोड़ सकते थे, चाहे परिणाम कुछ भी हो। जैसे ही राजपरिवार ने महल से अंतिम कदम बाहर रखा, श्राप ने उन पर भी अपना प्रभाव दिखाया। वे मरे नहीं, लेकिन उनकी आत्माएँ उनके शरीर से अलग होकर उसी महल में फंस गईं। वे आत्माएँ बन गए, जो न तो जीवित थीं और न ही मृत, अपने राजकुमार के साथ, 700 वर्षों तक मुक्ति की प्रतीक्षा में उस श्रापित महल में कैद हो गए।
तांत्रिक अपने मंत्रों से शौर्यक्षर्य को एक भारी, काले पत्थर के ताबूत की ओर ले गया। शौर्यक्षर्य ने कोई विरोध नहीं किया। उसने अपनी नियति को स्वीकार कर लिया था। जैसे ही वह ताबूत में लेटा, उसकी आँखों से पश्चाताप का आखिरी आँसू गिरा। तांत्रिक ने ताबूत को भारी जंजीरों और मंत्रों से बांध दिया।
और फिर, जैसे ही सूर्य की पहली किरण ने दामनगढ़ की धरती को छुआ, पूरा महल कांपने लगा और धीरे-धीरे अदृश्य होने लगा। वह एक विशाल भ्रम में बदल गया, जो केवल पूर्णिमा की रात को ही कुछ क्षणों के लिए प्रकट हो सकता था। दामनगढ़ का भव्य महल अब इतिहास और किंवदंतियों का हिस्सा बन चुका था, अपने भीतर एक श्रापित राजकुमार और कई फंसी हुई आत्माओं का रहस्य समेटे हुए, 700 वर्षों की लंबी प्रतीक्षा की शुरुआत करते हुए।
सात सौ साल एक लंबा अर्सा होता है। समय की नदी में साम्राज्य बनते और बिगड़ते हैं, पीढ़ियाँ आती हैं और धूल में मिल जाती हैं, और किंवदंतियाँ या तो भुला दी जाती हैं या कहानियों में बदल जाती हैं। दामनगढ़ का श्रापित महल और उसके राजकुमार की कहानी भी अब केवल बूढ़े-बुजुर्गों की सुनाई जाने वाली एक डरावनी कथा बनकर रह गई थी, जिस पर कोई विश्वास नहीं करता था। दुनिया बदल चुकी थी। घोड़े और हाथियों की जगह अब तेज रफ्तार कारें दौड़ती थीं, और महलों की जगह गगनचुंबी इमारतें ले चुकी थीं।
इसी वर्तमान समय में, दिल्ली के एक प्रतिष्ठित कॉलेज के विशाल परिसर में, आर्यवर्य अपनी ही दुनिया में खोया हुआ था। बीस साल का आर्यवर्य, एक अमीर और प्रभावशाली परिवार का इकलौता बेटा था, लेकिन उसकी आँखों में एक अजीब सा खालीपन था, एक ऐसी उदासी जो उसकी महंगी घड़ी और ब्रांडेड कपड़ों के पीछे छिप नहीं पाती थी। उसकी कहानी बाहर से जितनी चमकदार दिखती थी, अंदर से उतनी ही टूटी हुई थी।
जब वह केवल आठ साल का था, तब उसकी माँ की एक लंबी बीमारी के बाद मृत्यु हो गई थी। वह अपनी माँ के बहुत करीब था, और उनका जाना उसके बाल मन पर एक गहरा घाव छोड़ गया। उसके पिता, जो अपने बिजनेस में बेहद व्यस्त रहते थे, ने एक साल के भीतर ही दूसरी शादी कर ली। उसकी सौतेली माँ, रमोला, बाहर से तो बहुत मीठा बोलती थी, लेकिन अंदर से वह एक चालाक और स्वार्थी महिला थी। वह आर्यवर्य से प्यार करने का दिखावा करती थी, लेकिन असल में वह उसे अपने रास्ते का कांटा समझती थी। जल्द ही, उसके दो बच्चे हुए—एक बेटा और एक बेटी—और आर्यवर्य अपने ही घर में एक अजनबी बन गया।
बचपन से ही उसे उन गलतियों के लिए डांटा जाता था जो उसने कभी की ही नहीं। अगर उसके सौतेले भाई-बहन कोई चीज तोड़ देते, तो इल्जाम आर्यवर्य पर आता। अगर वे पढ़ाई में कमजोर होते, तो कहा जाता कि आर्यवर्य उन पर बुरा असर डाल रहा है। उसके पिता, अपनी दूसरी पत्नी को खुश रखने की कोशिश में, अक्सर बिना सोचे-समझे आर्यवर्य पर ही गुस्सा निकालते। धीरे-धीरे, आर्यवर्य ने खुद को एक खोल में बंद कर लिया। वह अपने परिवार से भावनात्मक रूप से इतना दूर हो गया कि अब उसे किसी बात से फर्क ही नहीं पड़ता था।
जैसे ही उसे मौका मिला, वह कॉलेज के लिए शहर से दूर चला आया और हॉस्टल में रहने लगा। वह अब छुट्टियों में भी घर नहीं जाता था। वह अपनी छुट्टियाँ भारत के अलग-अलग कोनों में अकेले घूमने में बिताता था, नई जगहों की खोज में, शायद खुद को खोजने की कोशिश में। उसके पिता को अपनी गलती का अहसास था, इसलिए वह अपराध बोध में चुपके से उसके बैंक अकाउंट में ढेर सारे पैसे और उसे महंगे गैजेट्स भेजते रहते थे, यह सोचकर कि शायद यह चीजें उनके प्यार की कमी को पूरा कर देंगी। आर्यवर्य के पास वह सब कुछ था जो कोई भी नौजवान चाहता है—पैसा, आजादी, अच्छी शक्ल—सिवाय प्यार और अपनेपन के।
कॉलेज में भी उसका अकेलापन उसका पीछा नहीं छोड़ता था। वह चुपचाप रहता और किसी से ज्यादा बात नहीं करता था। इसी अकेलेपन ने उसे तृषा की नजरों में ला दिया। तृषा, कॉलेज की सबसे खूबसूरत और लोकप्रिय लड़कियों में से एक थी। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें और मीठी मुस्कान किसी को भी अपना दीवाना बना सकती थी, लेकिन उसकी खूबसूरती एक मुखौटा थी। उसकी आदत पैसे वाले, सीधे-सादे लड़कों को अपने जाल में फंसाने की थी। उसने आर्यवर्य का अकेलापन और उसकी आँखों में प्यार की तलाश को तुरंत भांप लिया।
उसने आर्यवर्य की दोस्त बनने का नाटक शुरू किया। वह उससे घंटों बातें करती, उसकी झूठी तारीफें करती, और उसे यह महसूस कराती कि वह दुनिया का सबसे खास इंसान है। आर्यवर्य, जिसने कभी किसी से इतना अपनापन और ध्यान नहीं पाया था, उसके इस जाल में आसानी से फंस गया। वह उसके प्यार में पूरी तरह से पड़ गया, यह देखे बिना कि तृषा की नजरें हमेशा उसके महंगे फोन, उसकी बाइक और उसके क्रेडिट कार्ड पर रहती थीं।
आर्यवर्य की इस अंधी भक्ति को केवल एक ही इंसान देख पा रहा था—उसकी बचपन की दोस्त, अनाया। अनाया, आर्यवर्य के बिल्कुल विपरीत थी। वह एक टॉमबॉय थी, जो जींस और टी-शर्ट में रहती थी, छोटे बाल रखती थी और किसी से भी भिड़ने में डरती नहीं थी। वह आर्यवर्य की माँ की एक दूर की रिश्तेदार की बेटी थी और बचपन से ही उसकी सबसे अच्छी और एकमात्र सच्ची दोस्त थी। वह आर्यवर्य के परिवार की सच्चाई जानती थी और हमेशा उसकी ढाल बनकर खड़ी रहती थी।
अनाया ने पहली नजर में ही तृषा की असलियत को पहचान लिया था। उसने आर्यवर्य को कई बार चेतावनी देने की कोशिश की। "आर्य, आँखें खोलकर देख! वह लड़की सिर्फ तेरे पैसों के लिए तेरे साथ है! जब तू उसके आसपास नहीं होता, तो वह दूसरे लड़कों के साथ घूमती है।"
लेकिन आर्यवर्य, जो प्यार की कमी का मारा था, सुनने को तैयार नहीं था। उसे लगता था कि अनाया उसकी खुशी से जलती है। वह कहता, "तुम हमेशा नकारात्मक क्यों रहती हो, अनाया? पहली बार मुझे कोई मिला है जो मुझे समझता है, जो मुझसे प्यार करता है, और तुम उसे भी मुझसे दूर करना चाहती हो।"
अनाया जानती थी कि बहस करने का कोई फायदा नहीं है। प्यार में अंधा हुआ इंसान कुछ नहीं देख पाता। लेकिन वह अपने दोस्त को इस तरह धोखे में जीते हुए भी नहीं देख सकती थी। उसने मन ही मन फैसला किया कि वह अब बोलेगी नहीं, बल्कि दिखाएगी। वह तृषा का असली चेहरा आर्यवर्य के सामने लाकर रहेगी, चाहे इसके लिए उसे कुछ भी क्यों न करना पड़े। वह सही मौके का इंतजार करने लगी, यह नहीं जानते हुए कि यह मौका उन सबको एक ऐसी रहस्यमयी और खतरनाक दुनिया की ओर ले जाएगा जिसकी उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी।
शरद ऋतु की हल्की ठंडक हवा में घुलने लगी थी, और कॉलेज में सेमेस्टर ब्रेक की छुट्टियाँ शुरू हो गई थीं। आर्यवर्य के दोस्तों के समूह ने शहर के शोर-शराबे से दूर, पास की दुर्गमर्ग पहाड़ियों में पिकनिक और कैंपिंग पर जाने की योजना बनाई। तृषा, जो अब आर्यवर्य की परछाईं की तरह उसके साथ रहती थी, इस योजना को सुनकर तुरंत तैयार हो गई। उसके लिए यह आर्यवर्य की महंगी एसयूवी कार में घूमने और इंस्टाग्राम के लिए खूबसूरत तस्वीरें खिंचवाने का एक और मौका था।
अनाया ने भी इस यात्रा पर जाने का फैसला किया, हालांकि उसका मकसद पिकनिक मनाना नहीं था। वह जानती थी कि यह तृषा का सच सामने लाने का एक सुनहरा अवसर हो सकता है। शहर से दूर, एक सुनसान जगह पर, लोगों के असली चेहरे अक्सर सामने आ जाते हैं। वह अपनी नजरें बाज की तरह तृषा पर गड़ाए रखने वाली थी।
पिकनिक स्पॉट वाकई में बेहद खूबसूरत था। चारों ओर हरे-भरे पेड़, ऊंची-नीची चट्टानें और बीच में एक शांत झील। यह जगह जितनी खूबसूरत थी, उतनी ही सुनसान भी थी। उन्होंने झील के किनारे अपना कैंप लगाया। आर्यवर्य, तृषा के लिए हर छोटी-बड़ी चीज का ध्यान रख रहा था—उसके बैठने के लिए कुर्सी लगाना, उसके लिए कोल्ड ड्रिंक लाना, उसे धूप से बचाने के लिए छाता पकड़ना। वह प्यार में इतना डूबा हुआ था कि उसे कुछ और दिखाई ही नहीं दे रहा था।
दोपहर के समय, जब सब लोग खा-पीकर आराम कर रहे थे, तृषा ने एक बहाना बनाया। "आर्य, मुझे थोड़ा सिरदर्द हो रहा है। मैं सोच रही हूँ कि थोड़ी देर अकेले टहल कर आती हूँ, ताजी हवा में शायद अच्छा लगे।" आर्यवर्य ने फिक्र से कहा, "मैं साथ चलूँ?" लेकिन तृषा ने मीठी मुस्कान के साथ मना कर दिया, "नहीं, मैं बस थोड़ी देर में आती हूँ। तुम यहीं रहो।"
वह कैंप से निकलकर पहाड़ी के पीछे की ओर जाने वाले एक छोटे से रास्ते पर चल पड़ी। अनाया, जो इसी मौके का इंतजार कर रही थी, चुपके से उसके पीछे हो ली। वह पेड़ों और चट्टानों की आड़ लेती हुई, उससे एक सुरक्षित दूरी बनाए हुए थी। तृषा कुछ दूर चलकर एक घने पेड़ों के झुंड के पास रुकी और अपने फोन पर किसी को मैसेज किया। कुछ ही मिनटों में, एक बाइक की आवाज सुनाई दी, और कॉलेज का एक दूसरा बिगड़ैल लड़का, रोहन, वहाँ आ पहुँचा। रोहन अपनी बुरी आदतों और लड़कियों को परेशान करने के लिए बदनाम था।
अनाया एक बड़ी सी चट्टान के पीछे छिप गई। उसने जो देखा, उससे उसका खून खौल उठा। तृषा, रोहन को देखते ही उसकी बाहों में झूल गई और दोनों बहुत करीब आ गए। अनाया ने तुरंत अपना फोन निकाला। उसने छिपकर उनकी बातें सुनने की कोशिश की।
तृषा हंसते हुए रोहन से कह रही थी, "बस कुछ दिन और, रोहन। एक बार यह आर्यवर्य मुझे अपनी नई स्पोर्ट्स बाइक गिफ्ट कर दे, फिर मैं इस बोरिंग लड़के को हमेशा के लिए छोड़ दूँगी। सच कहूँ तो, उसके साथ रहना बहुत मुश्किल है। हर समय बस इमोशनल बातें करता रहता है।"
रोहन ने उसे अपनी ओर खींचते हुए कहा, "मुझे तो यकीन नहीं होता कि तुम उसके साथ रह भी कैसे लेती हो। वह तो किसी बच्चे की तरह है।"
"पैसों के लिए कुछ भी करना पड़ता है, बेबी," तृषा ने बेशर्मी से जवाब दिया। "वैसे भी, उसका इस्तेमाल करने में मजा आता है।"
यह सुनकर अनाया का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया। अब पानी सिर से ऊपर जा चुका था। उसने फैसला किया कि अब वह आर्यवर्य को सच दिखाकर रहेगी, चाहे उसका दिल कितना भी क्यों न टूटे। उसने चुपके से अपने फोन के कैमरे से उन दोनों की कई आपत्तिजनक तस्वीरें खींच लीं, जिसमें वे एक-दूसरे को चूम रहे थे और गले लग रहे थे। तस्वीरें इतनी साफ थीं कि कोई भी उन्हें नकार नहीं सकता था।
लेकिन सिर्फ तस्वीरें दिखाना काफी नहीं था। वह चाहती थी कि आर्यवर्य अपनी आँखों से यह धोखा देखे। उसे एक योजना सूझी। उसने तृषा के फोन पर एक नजर डाली, जो उसने एक पत्थर पर रखा था। जब तृषा और रोहन अपनी ही दुनिया में मशगूल थे, अनाया ने चुपके से उसका फोन उठा लिया। उसने जल्दी से आर्यवर्य के नंबर पर एक मैसेज टाइप किया: "आर्य, जल्दी से पहाड़ी के पीछे वाली पुरानी झोंपड़ी के पास आओ। तुम्हारे लिए एक सरप्राइज है।"
मैसेज भेजकर उसने फोन वापस वहीं रख दिया। कुछ ही मिनटों बाद, आर्यवर्य का उत्साहित चेहरा दिखाई दिया। वह लगभग दौड़ता हुआ उस सुनसान झोंपड़ी की ओर आ रहा था, यह सोचकर कि तृषा ने उसे किसी रोमांटिक सरप्राइज के लिए बुलाया है।
जैसे ही वह झोंपड़ी के पास पहुँचा, उसके कदम वहीं जम गए। उसकी आँखों के सामने जो दृश्य था, उसने उसके दिल को एक झटके में तोड़कर रख दिया। तृषा, उसकी तृषा, रोहन की बाहों में थी, और वे दोनों एक-दूसरे में खोए हुए थे।
तृषा और रोहन ने जैसे ही आर्यवर्य को देखा, वे चौंककर अलग हो गए। तृषा का चेहरा डर से सफेद पड़ गया था। आर्यवर्य की आँखों में अविश्वास और असहनीय पीड़ा थी। उसे एक पल में अहसास हो गया कि अनाया सही थी। उसका प्यार, उसका भरोसा, उसका पहला खूबसूरत अनुभव, सब कुछ एक भयानक धोखे में बदल गया था। उसके कानों में तृषा के शब्द नहीं, बल्कि उसके टूटे हुए दिल के टुकड़ों के गिरने की आवाज गूंज रही थी।
समय जैसे वहीं ठहर गया था। आर्यवर्य उस दृश्य को देखता रहा, उसकी आँखों में अविश्वास धीरे-धीरे एक गहरे, असहनीय दर्द में बदल रहा था। उसका दिल, जो कुछ पल पहले तक तृषा के नाम से धड़कता था, अब शीशे की तरह टूटकर बिखर चुका था, और उसके नुकीले टुकड़े उसकी अपनी ही आत्मा को छलनी कर रहे थे। एक खामोशी थी, इतनी गहरी कि उसमें तीन धड़कते हुए दिलों का शोर साफ सुना जा सकता था—एक टूटा हुआ, और दो डर से काँपते हुए।
आखिरकार, आर्यवर्य की खामोशी टूटी। उसकी आवाज में गुस्सा नहीं, बल्कि एक गहरी निराशा थी, जैसे किसी ने उसकी पूरी दुनिया ही छीन ली हो। "क्यों?" वह बस इतना ही पूछ सका, उसकी आवाज काँप रही थी। "तुमने ऐसा क्यों किया, तृषा?"
तृषा, जो अब पकड़ी जा चुकी थी, ने अपने चेहरे से डर का नकाब उतारकर बेशर्मी का नकाब ओढ़ लिया। शायद वह जानती थी कि अब माफी माँगने या बहाने बनाने का कोई फायदा नहीं है। उसने तिरस्कार से होंठ सिकोड़कर कहा, "क्यों? क्योंकि तुम बहुत बोरिंग हो, आर्यवर्य! बहुत ज्यादा चिपचिपे! तुम्हारे साथ रहना एक सजा जैसा है। हर समय बस इमोशनल बातें, फिक्र, प्यार... उफ्फ!" उसने नाटकीय ढंग से आँखें घुमाईं। "तुम्हारे पास पैसा है, मानता हूँ, लेकिन तुम्हें कोई प्यार नहीं कर सकता। तुम प्यार करने के लायक ही नहीं हो।"
ये शब्द किसी जहरीले तीर की तरह आर्यवर्य के दिल में जा चुभे। "तुम्हें कोई प्यार नहीं कर सकता।" यह वही डर था जो बचपन से उसके अंदर पल रहा था, वही असुरक्षा जिसे उसकी सौतेली माँ और परिवार ने उसके मन में बोया था। आज तृषा ने उस घाव पर नमक छिड़क दिया था। वह वहीं खड़ा रह गया, जैसे पत्थर का बन गया हो। उसने तृषा से सारे रिश्ते खत्म करने के लिए कुछ कहा नहीं, उसकी खामोशी और उसकी आँखों का दर्द ही सबसे बड़ा जवाब था। वह चुपचाप मुड़ा और वहाँ से चला गया, अपने पीछे अपने टूटे हुए सपनों का मलबा छोड़कर।
अनाया, जो दूर से यह सब देख रही थी, दौड़कर उसके पीछे गई। उसने उसके कंधे पर हाथ रखा, "आर्य, रुको..."
आर्यवर्य एक झटके से मुड़ा। उसका सारा दर्द और गुस्सा अब अनाया पर फूट पड़ा। "क्यों नहीं रहने दिया मुझे धोखे में?" वह उस पर चिल्लाया। "अगर तुम सब जानती थीं तो चुप क्यों नहीं रही? कम से कम कुछ दिन तो मैं खुश था! कुछ दिन तो मुझे लगा कि कोई है जो मुझे अपना समझता है! तुमने मेरा वह भ्रम भी तोड़ दिया! क्यों?" वह उसे दोष दे रहा था, यह जानते हुए भी कि वह गलत था, लेकिन इस समय उसे अपना दर्द निकालने के लिए कोई कंधा चाहिए था।
अनाया ने उसकी आँखों में दर्द का समंदर देखा। वह समझ गई कि इस समय उसे बहस की नहीं, बल्कि अकेलेपन की जरूरत है। वह चुप रही, उसके गुस्से को सहती रही। फिर नरमी से बोली, "ठीक है। मैं तुम्हें कुछ देर अकेला छोड़ देती हूँ। जब मन शांत हो जाए तो वापस कैंप में आ जाना।"
आर्यवर्य बिना कुछ कहे एक अनजान रास्ते पर आगे बढ़ता चला गया। वह चलता रहा, बिना यह देखे कि वह कहाँ जा रहा है, जब तक कि वह एक ऊँची चट्टान के किनारे पर नहीं पहुँच गया। वह वहीं बैठ गया, अकेला और उदास, अपनी किस्मत को कोसता हुआ। आसमान भी जैसे उसके दर्द में शरीक हो गया था। अचानक, नीले आसमान पर काले बादल तेजी से छाने लगे। सूरज बादलों के पीछे छिप गया और दिन में ही रात जैसा अंधेरा हो गया। तेज हवाएँ चलने लगीं और कुछ ही पलों में मूसलाधार बारिश शुरू हो गई।
बिजली जोर-जोर से कड़कने लगी, उसकी गड़गड़ाहट आर्यवर्य के दिल के तूफान से होड़ ले रही थी। रात गहराने लगी थी। यह शरद पूर्णिमा की रात थी—वही रात जब 700 साल से अदृश्य एक श्रापित दुनिया अपनी कैद से बाहर झाँकती है। वह रात, जब अदृश्य और दृश्य के बीच का पर्दा सबसे कमजोर होता है।
बारिश से बचने के लिए आर्यवर्य ने आस-पास कोई जगह ढूँढनी शुरू की। तभी उसकी नजर पहाड़ी की सबसे ऊँची चोटी पर बनी एक विशाल, पुराने महल पर पड़ी। उसका ढाँचा बादलों और धुंध में लिपटा हुआ था, और बिजली की चमक में वह एक भयानक सिल्हूट की तरह दिख रहा था। वह हैरान हो गया। वे लोग यहाँ पिछले दस दिनों से कैंपिंग कर रहे थे, लेकिन उसने यह महल पहले कभी नहीं देखा था। उसे यकीन था कि यहाँ कोई महल नहीं था। लेकिन इस समय, सोचने-समझने की हालत में वह नहीं था। उसे बस बारिश से बचने के लिए एक छत चाहिए थी।
वह बिना सोचे-समझे, भारी बारिश में भीगता हुआ, उस रहस्यमयी महल की ओर कदम बढ़ाने लगा। वह इस बात से पूरी तरह अनजान था कि उसके टूटे हुए दिल और निराशा ने उसे एक ऐसी दुनिया के दरवाजे पर ला खड़ा किया था, जहाँ समय रुका हुआ था और आत्माएँ अपनी मुक्ति का इंतजार कर रही थीं। उसका हर कदम उसे उसके भाग्य की ओर ले जा रहा था, एक ऐसा भाग्य जो 700 साल पहले लिखा जा चुका था।
आर्यवर्य भारी बारिश की बौछारों को झेलता, कीचड़ और पत्थरों से भरे रास्ते पर लड़खड़ाता हुआ, आखिरकार उस विशालकाय महल के दरवाजे तक पहुँच गया। दरवाजा किसी पुराने देवदार की लकड़ी का बना था, जिस पर लोहे की भारी कीलें और जटिल नक्काशी की गई थी। समय और मौसम की मार ने उसे जर्जर बना दिया था, लेकिन उसकी भव्यता अभी भी बाकी थी। हैरानी की बात थी कि दरवाजा थोड़ा सा खुला हुआ था, जैसे कोई सदियों से उसके आने का इंतजार कर रहा हो। एक अनजानी सी कशिश उसे अंदर खींच रही थी।
उसने काँपते हाथों से दरवाजे को थोड़ा और धकेला। भारी चरमराहट की आवाज के साथ दरवाजा खुल गया। अंदर घना, अभेद्य अंधकार और एक गहरी, कानफोड़ू खामोशी थी। हवा में सीलन, धूल और किसी भूली-बिसरी याद की गंध घुली हुई थी। वह धीरे से अंदर दाखिल हुआ और एक कोने में दीवार के सहारे बैठ गया। उसके गीले कपड़ों से पानी टपक रहा था और ठंड से उसका शरीर काँप रहा था, लेकिन उसके अंदर चल रहे दर्द के तूफान के आगे यह शारीरिक तकलीफ कुछ भी नहीं थी।
उसके मन में अभी भी तृषा के शब्द गूंज रहे थे—"तुम्हें कोई प्यार नहीं कर सकता।" वह अपनी किस्मत को कोस रहा था। क्यों हमेशा उसके साथ ही ऐसा होता है? क्यों उसे कभी सच्चा अपनापन नहीं मिला? वह अपने दुख में इतना डूबा हुआ था कि उसे इस बात का अहसास ही नहीं हुआ कि रात के ठीक बारह बज चुके हैं।
जैसे ही घड़ी की सुइयों ने बारह का आँकड़ा छुआ, बाहर आसमान में शरद पूर्णिमा का चाँद काले बादलों के घने पर्दे को चीरकर बाहर निकला। चाँद की दूधिया, चमकीली रोशनी महल की ऊँची खिड़कियों से छनकर अंदर आई और सीधे उस जगह पर पड़ी जहाँ आर्यवर्य बैठा था।
और फिर, एक जादू हुआ।
चाँद की रोशनी पड़ते ही, महल जैसे गहरी नींद से जाग उठा। दीवारों पर लगी मशालें और छत से लटकते विशाल झाड़-फानूस बिना किसी मानवीय स्पर्श के खुद-ब-खुद जल उठे। उनकी सुनहरी रोशनी ने एक पल में पूरे हॉल को जगमगा दिया, और महल की खोई हुई भव्यता फिर से जीवंत हो उठी। धूल भरी दीवारें अब कीमती पर्दों और शानदार पेंटिंग्स से सजी थीं। टूटे हुए फर्नीचर की जगह अब मखमल से मढ़े सोफे और नक्काशीदार मेजें थीं।
आर्यवर्य यह सब देखकर बुरी तरह चौंक गया। उसकी आँखें अविश्वास से फटी रह गईं। उसे लगा कि शायद वह सपना देख रहा है, या दुख के कारण उसका दिमाग खराब हो गया है। उसे लगा कि शायद इस महल में कोई रहता है, कोई ऐसा जो बहुत अमीर और सनकी है।
डर और जिज्ञासा का एक मिला-जुला भाव उसके दिल में उठा। वह धीरे-धीरे खड़ा हुआ और महल के अंदरूनी हिस्सों की ओर कदम बढ़ाने लगा। उसे क्या पता था कि उसके इस कदम के साथ ही, महल की सैकड़ों अदृश्य आत्माएँ भी जाग उठी थीं, जो 700 सालों से इसी एक पल का इंतजार कर रही थीं।
दीवारों के पार, आत्माओं के बीच एक फुसफुसाहट की लहर दौड़ गई, जो इंसानी कानों के लिए अश्रव्य थी।
एक बूढ़ी आत्मा, जो कभी महल की मुख्य परिचारिका थी, ने काँपती हुई आवाज में कहा, "वह आ गया है। हमारी मुक्ति का रास्ता।"
दूसरी आत्माओं ने संदेह व्यक्त किया। एक युवा सैनिक की आत्मा ने कहा, "पहले भी कई भटके हुए मुसाफिर यहाँ आए और डरकर चले गए। यह भी वैसा ही होगा।"
लेकिन बूढ़ी आत्मा को एक मजबूत अहसास हो रहा था। "नहीं, यह लड़का अलग है। देखो, उसके दिल में कितना दर्द है। केवल एक टूटा हुआ दिल ही दूसरे टूटे हुए दिलों को समझ सकता है।"
आर्यवर्य को दीवारों से आती हल्की फुसफुसाहटें सुनाई दे रही थीं, लेकिन उसने उन्हें हवा की आवाज समझ लिया। वह एक बड़ी, घुमावदार सीढ़ी से ऊपर की ओर चढ़ने लगा, जो लाल कालीन से ढकी हुई थी। उसकी हर हरकत पर सैकड़ों अदृश्य आँखें उसे देख रही थीं—उम्मीद से, डर से, और 700 साल की लंबी प्रतीक्षा से।
महल ने 700 साल बाद अपने चुने हुए मेहमान का स्वागत किया था, एक ऐसा मेहमान जो अपनी दुनिया से भागा था, यह जाने बिना कि वह किसी और की दुनिया को आजाद कराने आया है। उसका सफर अभी शुरू ही हुआ था, और महल के रहस्य परत-दर-परत उसके सामने खुलने वाले थे।
आर्यवर्य अभी भी उस भव्यता में खोया हुआ था, जब उसे एक फुसफुसाहट सुनाई दी। यह आवाज किसी एक दिशा से नहीं, बल्कि जैसे चारों ओर की हवा से ही आ रही थी—एक महीन, लगभग संगीतमय, लेकिन उदासी से भरी आवाज।
"इस महल में हर बार एक रोने वाला परिंदा आता है।"
आर्यवर्य चौंककर चारों ओर देखने लगा। "कौन है?" उसने थोड़ी ऊँची आवाज में पूछा, उसकी आवाज विशाल हॉल में गूँजकर खो गई।
उसे फिर वही आवाज सुनाई दी, थोड़ी और साफ। "अगर तुम हमारे लिए कुछ नहीं कर सकते, तो चले जाओ।"
आर्यवर्य को अब यकीन हो गया कि कोई उससे बात कर रहा है। उसे लगा कि शायद यह महल का कोई नौकर है जो उससे मजाक कर रहा है। तभी, एक दूसरी आवाज गूँजी। यह आवाज पहली वाली से बिल्कुल अलग थी—भारी, शाही, और गहरी थकान से भरी हुई, जैसे किसी ने सदियों का बोझ अपनी आवाज में समेट लिया हो।
"चले जाओ यहाँ से। यह परेशान लोगों की जगह नहीं है।"
इस आवाज में एक अधिकार था, एक आदेश था। आर्यवर्य को अब पूरा यकीन हो गया कि यह महल के मालिक की आवाज है, कोई सनकी अमीर जो दुनिया से छिपकर यहाँ रहता है। उसे उस आवाज में छिपे दर्द और अकेलेपन का भी अहसास हुआ। उसका गुस्सा और अक्खड़पन जाग उठा। कौन होता है यह उसे यहाँ से जाने के लिए कहने वाला, जबकि यह महल खुद उसे यहाँ खींचकर लाया है? उसने फैसला किया कि वह इस रहस्यमयी मालिक का पता लगाकर रहेगा।
वह उस भारी आवाज की दिशा में आगे बढ़ा। भव्य सीढ़ियों को छोड़कर, वह एक संकरे, पत्थर के रास्ते पर चलने लगा जो नीचे की ओर जा रहा था। हवा ठंडी और नम होती जा रही थी, और दीवारों से पानी रिसने की गंध आ रही थी। यह रास्ता उसे एक विशाल तहखाने के दरवाजे पर ले आया। आवाज अब और भी साफ थी, जैसे दरवाजे के ठीक पीछे से आ रही हो।
उसने दरवाजा धकेला और अंदर कदम रखा। तहखाना बहुत बड़ा था, और छत से आती चाँद की एक अकेली किरण ठीक बीच में रखी एक चीज पर पड़ रही थी। वह चीज एक बड़ा, भारी ताबूत था।
यह किसी आम ताबूत जैसा नहीं था। यह काले, अज्ञात लकड़ी से बना था, जो समय के साथ और भी गहरा हो गया था। उस पर मोटी-मोटी, जंग लगी जंजीरों को कसकर लपेटा गया था, और उन जंजीरों पर अजीब, चमकते हुए मंत्र खुदे हुए थे। ताबूत के ढक्कन पर हर कुछ इंच की दूरी पर लंबी, मोटी कीलें बेरहमी से ठोंकी गई थीं। लकड़ी पर भी कई अजीब निशान और प्रतीक बने हुए थे, जो किसी भूली-बिसरी, भयावह भाषा के लग रहे थे।
आर्यवर्य, जो इन सब अंधविश्वासी बातों पर विश्वास नहीं करता था, को यह सब एक क्रूर सजा जैसा लगा। उसे लगा कि किसी ने किसी बेचारे इंसान को जिंदा या मुर्दा इस ताबूत में कैद कर रखा है। वह आवाज, वह दर्द भरी आवाज, निश्चित रूप से इसी ताबूत के अंदर से आ रही थी। उसके आधुनिक, तर्कसंगत मन ने उसे यकीन दिलाया कि यह कोई मध्ययुगीन बर्बरता है और उसे इस "कैदी" को आजाद करना चाहिए।
वह ताबूत के पास गया और उसे ध्यान से देखने लगा। उसने पास पड़े एक लोहे के सरिये को उठाया और उसे एक कील के नीचे फँसाकर अपनी पूरी ताकत से खींचने लगा। लकड़ी के चरमराहट की एक दर्दनाक आवाज के साथ पहली कील बाहर निकली। फिर दूसरी, फिर तीसरी। वह एक-एक करके कीलों और जंजीरों को हटाने लगा, उसका दिल उस अनजान व्यक्ति के लिए सहानुभूति से भरा था।
जैसे ही उसने आखिरी कील पर सरिया लगाया और उसे खींचकर बाहर निकाला, एक प्रलयंकारी घटना घटी।
आसमान में एक भयानक गड़गड़ाहट के साथ बिजली कड़की, जिसकी रोशनी ने पूरे तहखाने को एक पल के लिए सफेद कर दिया। पूरा महल किसी भयानक भूकंप की तरह कांपने लगा। छत से धूल और पत्थर गिरने लगे। ऊपर हॉल में लटक रहे झाड़-फानूस पागलपन की हद तक जोर-जोर से हिलने लगे, उनकी क्रिस्टल की लड़ियाँ आपस में टकराकर एक भयावह संगीत पैदा कर रही थीं। एक अनजानी चीख, जैसे हजारों आत्माएँ एक साथ चिल्ला रही हों, दीवारों से गूँजने लगी।
आर्यवर्य लड़खड़ाते हुए खुद को संभालने की कोशिश कर रहा था, उसका दिल डर के मारे उसके सीने से बाहर निकलने को हो रहा था।
और फिर, अचानक, सब कुछ शांत हो गया। इतनी गहरी खामोशी कि उसे अपने कानों में खून के बहाव की आवाज भी सुनाई देने लगी।
उसने काँपते हुए अपनी नजरें उठाईं और ताबूत की तरफ देखा। ताबूत का ढक्कन टूटा हुआ था, जैसे किसी ने उसे अंदर से तोड़ा हो। और वह... खाली था।
उसी पल, आर्यवर्य को अहसास हुआ कि उसने किसी कैदी को आजाद नहीं किया है। उसे अहसास हुआ कि उसने कोई बहुत बड़ी, भयानक और अक्षम्य गलती कर दी है।
जिस पल आर्यवर्य को अपनी भयानक गलती का अहसास हुआ, उसके शरीर में डर की एक बर्फीली लहर दौड़ गई। वह अभी कुछ सोच पाता, इससे पहले ही तहखाने का भारी, पत्थर का दरवाजा एक गगनभेदी धमाके के साथ अपने आप बंद हो गया। वह पूरी तरह से कैद हो चुका था।
"खोलो! कोई है! दरवाजा खोलो!" वह पागलों की तरह दरवाजा पीटने लगा, उसकी आवाज तहखाने की दीवारों से टकराकर एक खोखली गूँज में बदल रही थी। लेकिन कोई जवाब नहीं आया। उसकी सारी हिम्मत जवाब दे चुकी थी। वह मदद के लिए चिल्लाने लगा, उसकी आवाज में अब गुस्सा नहीं, बल्कि शुद्ध आतंक था।
उसने अपनी पूरी ताकत लगाकर दरवाजे पर धक्का दिया। शायद यह उसका डर था या एड्रेनालाईन का असर, लेकिन किसी तरह दरवाजा थोड़ा सा खुल गया। वह उस छोटी सी जगह से खुद को बाहर निकालकर ऊपर की ओर भागा। उसका एकमात्र लक्ष्य अब महल के मुख्य दरवाजे तक पहुँचना और इस भयावह जगह से दूर भाग जाना था।
वह मुख्य हॉल में पहुँचा, लेकिन विशाल दरवाजा, जो पहले थोड़ा खुला था, अब कसकर बंद हो चुका था। उसने उसे खोलने की बहुत कोशिश की, लेकिन वह टस से मस नहीं हुआ। वह पूरी तरह से फंस चुका था। हताशा और लाचारी ने उसे घेर लिया।
तभी, उसे अपने पीछे से एक शांत, लेकिन सिहरन पैदा कर देने वाली आवाज सुनाई दी।
"बहुत इंतजार किया तुम्हारा।"
आर्यवर्य का दिल एक पल के लिए जैसे धड़कना बंद हो गया। उसने डरते हुए, धीरे-धीरे पीछे मुड़कर देखा।
हवा में, जमीन से कुछ फुट ऊपर, एक लड़का तैरता हुआ दिखाई दिया। उसने पुराने जमाने के, शाही धोती-कुर्ता पहने थे। उसका शरीर लगभग पारदर्शी था, और उसके चारों ओर एक हल्की, नीली आभा थी। लेकिन सबसे भयानक चीज उसका चेहरा था। उसके खूबसूरत, राजसी चेहरे पर गहरे घाव के निशान बने हुए थे, जैसे किसी ने उसे बेरहमी से नोचा हो। लेकिन उन घावों से खून नहीं, बल्कि एक काला, धुआँ जैसा पदार्थ निकल रहा था। वह शौर्यक्षर्य था, अपने श्रापित, भयानक रूप में।
आर्यवर्य उसे देखकर बुरी तरह डर गया। उसके मुँह से एक चीख निकली जो उसके गले में ही घुटकर रह गई।
आर्यवर्य की आँख एक झटके से खुली। सूरज की पहली किरणें उसकी बंद पलकों को भेदकर सीधे उसके दिमाग पर हथौड़े की तरह पड़ रही थीं। उसका सिर भारी था, और शरीर की हर हड्डी में एक अजीब सी अकड़न थी। वह एक कठोर, ठंडी सतह पर लेटा हुआ था। उसने धीरे-धीरे उठने की कोशिश की, उसकी आँखों को तेज रोशनी की आदत डालने में कुछ पल लगे।
वह खुद को उसी चट्टान पर बैठा हुआ पाया, जहाँ कल रात बारिश से पहले वह तृषा के धोखे का मातम मना रहा था। सुबह हो चुकी थी, आसमान बिल्कुल साफ और नीला था, जैसे कल रात की घनघोर बारिश और बिजली की कड़कड़ाहट कभी हुई ही न हो। उसके कपड़े अभी भी थोड़े नम थे, और सुबह की ठंडी हवा उसे कंपकंपा रही थी।
उसने हैरानी से चारों तरफ देखा। सब कुछ सामान्य था। दूर उनका कैंपसाइट दिखाई दे रहा था, जहाँ से धुएँ की एक पतली लकीर उठ रही थी। पक्षियों के चहचहाने की आवाज आ रही थी। सब कुछ इतना शांत, इतना वास्तविक था।
उसने अपनी नजरें पहाड़ी की चोटी की ओर उठाईं, और उसका दिल एक पल के लिए रुक गया।
वहाँ कुछ भी नहीं था।
कोई विशाल, पुराना महल नहीं। कोई डरावना दरवाजा नहीं। सिर्फ नंगी चट्टानें, झाड़ियाँ और खुला आसमान। वह घबराकर खड़ा हो गया, उसकी आँखें अविश्वास से उस जगह को घूर रही थीं। यह कैसे हो सकता है? वह महल... वह अंधेरा... वह खाली ताबूत... और वह... वह भयानक, घावों से भरा चेहरा।
"यह सब एक सपना था?" उसने खुद से फुसफुसाकर पूछा। एक भयानक, जीवंत सपना। एक ऐसा सपना जो इतना असली था कि उसे अभी भी अपनी नसों में दौड़ता हुआ डर महसूस हो रहा था। उसने अपने हाथ-पैर देखे, कहीं कोई खरोंच या चोट का निशान नहीं था। उसके कपड़े सिर्फ बारिश से भीगे थे, किसी तहखाने की धूल या मकड़ी के जालों से सने हुए नहीं थे।
उसके तर्कसंगत मन ने उसे यकीन दिलाने की कोशिश की कि यह सब उसके दुखी और थके हुए दिमाग का खेल था। तृषा का धोखा, परिवार से मिला अकेलापन, और इस सुनसान जगह का माहौल—इन सबने मिलकर उसके अवचेतन में एक भयावह कहानी बुन दी थी। हाँ, यही हुआ होगा। यह एक सपना ही था।
उसने एक गहरी साँस ली, खुद को शांत करने की कोशिश करते हुए। लेकिन वह उस चेहरे को अपने दिमाग से नहीं निकाल पा रहा था। वह पारदर्शी शरीर, वह शाही पोशाक, और वे आँखें... उन आँखों में सदियों की पीड़ा और एक अजीब सी उदासी थी।
"पागल हो रहा हूँ मैं," उसने बुदबुदाते हुए अपने बाल खींचे और अपने दोस्तों के पास वापस लौटने का फैसला किया। वह इस "सपने" के बारे में किसी को नहीं बताएगा। वे उसे पागल समझेंगे।
जब वह लड़खड़ाते कदमों से कैंपसाइट पर पहुँचा, तो सबसे पहले उसे अनाया ने देखा। उसके चेहरे पर चिंता और राहत के मिले-जुले भाव थे। वह दौड़कर उसके पास आई।
"आर्यवर्य! भगवान का शुक्र है तुम ठीक हो! कहाँ थे तुम रात भर? हम सब कितने परेशान थे!" उसकी आवाज में सच्ची फिक्र थी।
आर्यवर्य ने उसकी आँखों में देखने से बचते हुए कहा, "मैं... मैं बस अकेले घूम रहा था। फिर बारिश होने लगी तो एक चट्टान के नीचे बैठ गया और... और शायद वहीं सो गया।" यह एक कमजोर बहाना था, लेकिन इस वक्त उसके पास इससे बेहतर कुछ नहीं था।
अनाया ने उसे शक की नजर से देखा, लेकिन उसकी हालत देखकर उसने और सवाल करना ठीक नहीं समझा। "जाओ, फ्रेश हो जाओ। हम वापस निकलने की तैयारी कर रहे हैं।"
वे सब वापस अपने कॉलेज हॉस्टल के लिए निकल पड़े। गाड़ी में बैठते ही आर्यवर्य ने एक बार फिर उस पहाड़ी की चोटी की ओर देखा। सूरज की रोशनी में वह बिल्कुल सामान्य लग रही थी, चट्टानों का एक साधारण ढेर। कोई महल नहीं, कोई रहस्य नहीं। उसके मन को थोड़ा सुकून मिला। यह वाकई एक बुरा सपना ही था। उसने अपनी आँखें बंद कर लीं, उस सपने को और उसके भयानक पात्रों को हमेशा के लिए अपने दिमाग से निकालने का फैसला करते हुए।
***
लेकिन पहाड़ी की चोटी पर, उस दुनिया की नजरों से ओझल, श्रापित महल अभी भी अपनी जगह पर खड़ा था। और उसके तहखाने में, टूटा हुआ ताबूत इस बात का एकमात्र, मूक गवाह था कि जो कुछ भी हुआ, वह हकीकत थी।
शौर्यक्षर्य ने अपनी बची हुई शक्ति का एक बड़ा हिस्सा उपयोग करके आर्यवर्य की स्मृतियों को एक बुरे सपने में बदल दिया था। उसने उस लड़के की आँखों में जो आतंक देखा था, वह उसे सहन नहीं कर पाया था। 700 साल के पश्चाताप ने उसकी क्रूरता को कुंद कर दिया था, और किसी निर्दोष को अपनी वजह से इस तरह तड़पते देखना उसके लिए असहनीय था।
महल की आत्माएँ निराश और बेचैन थीं। उनका मुक्तिदाता, जिसकी उन्होंने सदियों प्रतीक्षा की थी, आया और चला गया। वे अदृश्य रूप में मुख्य हॉल में इकट्ठा थीं, उनकी फुसफुसाहटें हवा में एक उदास सरगोशी की तरह तैर रही थीं।
"वह चला गया," एक युवा आत्मा ने कहा, जिसकी आवाज में निराशा थी।
"हमारी मुक्ति का एकमात्र रास्ता... और हमने उसे खो दिया," एक दूसरी आत्मा ने विलाप किया।
उनकी निराशा जल्द ही गुस्से में बदल गई, और वे सभी शौर्यक्षर्य से सवाल करने लगीं, जो चुपचाप अपने धूल भरे सिंहासन पर बैठा था।
"आपने उसे जाने क्यों दिया, राजकुमार?" एक अधेड़ उम्र की आत्मा ने, जो कभी उसकी मंत्री हुआ करती थी, साहस करके पूछा। "हम उसे कैद कर सकते थे। उसे मजबूर कर सकते थे हमारी मदद करने के लिए।"
शौर्यक्षर्य ने अपनी गहरी, थकी हुई आँखें उठाईं। उसके चेहरे पर अब घाव के निशान नहीं थे; वह अपने सामान्य, श्रापित रूप में था, लेकिन उसकी आँखों में दर्द पहले से कहीं ज्यादा था।
"कैद?" उसने धीरे से कहा, उसकी आवाज में एक कड़वी हँसी थी। "क्या हम सब यहाँ पहले से ही कैद नहीं हैं? मैं किसी और को उसकी इच्छा के विरुद्ध इस नरक में नहीं धकेल सकता। मैंने अपने जीवन में बहुत पाप किए हैं, लेकिन अब और नहीं।"
यह सुनकर आत्माओं में एक असंतोष की लहर दौड़ गई। "लेकिन हमारी मुक्ति का क्या? क्या हम और 700 साल इंतजार करेंगे?"
तभी, एक बूढ़ी आत्मा, जो कभी शौर्यक्षर्य की मुख्य परिचारिका और धाय माँ थी, आगे आई। उसके चेहरे पर झुर्रियाँ थीं, लेकिन उसकी आँखों में अभी भी ज्ञान की चमक थी। उसने शांत, लेकिन दृढ़ आवाज में कहा, "शांत हो जाओ सब। राजकुमार ने जो किया, सही किया। जबरदस्ती से पाई हुई मुक्ति कभी सच्ची नहीं हो सकती।"
उसने अपनी धुंधली नजरें शौर्यक्षर्य पर डालीं और कहा, "उस लड़के के दिल में बहुत दर्द है, लेकिन उसमें अच्छाई भी है। वह डरा हुआ था, लेकिन भागा नहीं। उसने रोते हुए भी हमारा सामना किया। अगर वह हमारी किस्मत में है, तो वह वापस जरूर आएगा। अपनी मर्जी से।"
उसकी बातों में एक अजीब सा विश्वास था, जिसने बाकी आत्माओं को चुप करा दिया। वे धीरे-धीरे हवा में विलीन हो गईं, अपने-अपने कोनों में लौटकर फिर से इंतजार करने के लिए।
शौर्यक्षर्य अकेला रह गया। वह चुपचाप अपने सिंहासन पर बैठा रहा, उसकी आँखों के सामने बार-बार आर्यवर्य का वह डरा हुआ, आँसुओं से भरा चेहरा घूम रहा था। उसने उस चेहरे में सिर्फ डर नहीं देखा था। उसने एक गहरी पीड़ा, एक अकेलापन देखा था, जो उसे अजीब तरह से अपना सा लगा। 700 सालों में पहली बार, उसे किसी दूसरे के दर्द से जुड़ाव महसूस हुआ था। और यह अहसास उसे मुक्ति की लालसा से भी ज्यादा परेशान कर रहा था।
आर्यवर्य की आँखें खुलीं तो सबसे पहले उसे कठोरता का अहसास हुआ। उसके सिर के नीचे कोई मुलायम तकिया नहीं, बल्कि एक ठंडा, खुरदरा पत्थर था। सुबह की पहली कोमल किरणें उसकी पलकों को भेदकर अंदर आ रही थीं, और चिड़ियों के चहचहाने की मधुर ध्वनि उसके कानों में पड़ रही थी। एक पल के लिए वह भ्रमित रहा, यह समझ नहीं पा रहा था कि वह कहाँ है। हवा में ताज़गी थी, बारिश से धुली हुई पत्तियों की सौंधी महक और गीली मिट्टी की गंध। यह सब कुछ इतना सामान्य, इतना वास्तविक था।
और फिर, उसे सब कुछ याद आया।
यादों का एक भयानक सैलाब उसके दिमाग में उमड़ पड़ा। वह ताबूत। वे जंजीरें। वह भयानक, चीर देने वाली गड़गड़ाहट। हवा में तैरता हुआ वह लड़का, जिसके चेहरे पर घाव के निशान थे और आँखों में सदियों की पीड़ा। उसके चारों ओर मंडराती पारदर्शी आत्माएँ, जिनके चेहरे पर जख्म थे और आँखों में एक अनकही उम्मीद। वह डर, वह आतंक, वह लाचारी...
वह झटके से उठकर बैठ गया, उसका दिल किसी डरे हुए जानवर की तरह उसके सीने में उछल रहा था। उसने हाँफते हुए चारों ओर देखा। वह उसी चट्टान पर बैठा था, जहाँ वह बारिश से बचने से पहले उदास बैठा था। रात की बारिश के बाद पूरा जंगल नहाया हुआ और साफ लग रहा था। सूरज की सुनहरी किरणें पेड़ों के बीच से छनकर आ रही थीं और ओस की बूँदों पर छोटे-छोटे इंद्रधनुष बना रही थीं।
उसने काँपते हुए हाथों से पहाड़ी की उस चोटी की ओर देखा जहाँ उसने उस विशाल, डरावने महल को देखा था।
लेकिन वहाँ कुछ भी नहीं था।
सिर्फ चट्टानें थीं, आसमान को छूने की कोशिश करती हुईं। कुछ झाड़ियाँ और जंगली पेड़ हवा में धीरे-धीरे झूल रहे थे। कोई महल नहीं, कोई विशाल दरवाजा नहीं, कोई मीनारें नहीं। कुछ भी नहीं। वह जगह बिल्कुल वैसी ही थी जैसी दस दिनों से थी—सुनसान, खूबसूरत, और खाली।
"एक सपना... यह सिर्फ एक सपना था," उसने खुद से फुसफुसाकर कहा, लेकिन उसकी आवाज में यकीन कम और खुद को समझाने की कोशिश ज्यादा थी। उसने अपने शरीर को देखा। उसके कपड़े अभी भी थोड़े नम थे, और उसके शरीर में चट्टान पर सोने के कारण दर्द हो रहा था। "तृषा का धोखा... अकेलापन... और फिर यह भयानक तूफान... इन सबने मिलकर मेरे दिमाग में यह भयानक सपना पैदा कर दिया।" उसने खुद को तर्क दिया। यह सबसे आसान और सबसे सुरक्षित व्याख्या थी। इसका कोई और मतलब निकालना पागलपन होता।
वह खड़ा हुआ और अपने कपड़े झाड़े। उसके सिर में अभी भी एक भारीपन था, जैसे किसी बुरे स्वप्न का अवशेष। वह अपने दोस्तों के पास वापस लौटने लगा। जब वह पिकनिक स्थल पर पहुँचा, तो सब लोग जाग चुके थे और नाश्ते की तैयारी कर रहे थे।
अनाया उसे देखते ही दौड़कर उसके पास आई। उसके चेहरे पर चिंता की गहरी लकीरें थीं। "आर्यवर्य! तुम कहाँ थे रात भर? हम सब कितने डर गए थे! तुम्हारा फोन भी नहीं लग रहा था।"
आर्यवर्य ने उसकी आँखों में देखने से परहेज किया। वह कैसे बताता कि उसने एक श्रापित महल में रात गुजारी है और एक 700 साल पुराने राजकुमार की आत्मा को आजाद किया है? वे उसे पागल समझते। "मैं... मैं बस अकेले घूम रहा था। फिर बारिश तेज हो गई और मैं एक चट्टान के नीचे सो गया। मुझे पता ही नहीं चला कि कब सुबह हो गई।" उसने एक सपाट आवाज में झूठ कहा।
अनाया ने उसे शक की नजरों से देखा, लेकिन कुछ कहा नहीं। वह जानती थी कि तृषा की वजह से वह बहुत परेशान है, शायद उसे सच में अकेलेपन की जरूरत थी। "चलो, जल्दी से तैयार हो जाओ। हमें वापस हॉस्टल के लिए निकलना है," उसने बस इतना ही कहा।
आर्यवर्य ने सिर हिलाया और चुपचाप अपना सामान पैक करने लगा। उसने उस "सपने" के बारे में किसी को कुछ नहीं बताया। उसने उसे अपने दिमाग के किसी अंधेरे कोने में बंद कर दिया, एक ऐसी याद जिसे वह दोबारा कभी नहीं खोलना चाहता था।
वे सब वापस अपनी गाड़ी में बैठ गए और कॉलेज हॉस्टल की ओर निकल पड़े। गाड़ी जैसे ही पहाड़ी रास्ते से मुड़ी, आर्यवर्य ने एक आखिरी बार उस पहाड़ी की चोटी की ओर देखा। सूरज की तेज रोशनी में चट्टानें चमक रही थीं। वहाँ कोई महल नहीं था। उसके दिल को एक अजीब सी राहत मिली, और उसके यकीन को और बल मिला कि जो कुछ भी हुआ, वह बस एक भयानक, बहुत ही वास्तविक लगने वाला सपना था। उसने अपनी आँखें बंद कर लीं, उस बुरे सपने को हमेशा के लिए पीछे छोड़ने की कोशिश करते हुए।
***
किंतु हर सपना सच का प्रतिबिंब नहीं होता, और हर सच एक सपना नहीं बन सकता।
जिस समय आर्यवर्य की गाड़ी पहाड़ी से दूर जा रही थी, उसी समय उस अदृश्य महल के अंदर एक भारी खामोशी छाई हुई थी। महल अब अपनी भव्यता खो चुका था और वापस अपने धूल भरे, अंधकारमय अस्तित्व में लौट आया था। मशालें बुझ चुकी थीं, और झाड़-फानूस खामोश लटक रहे थे। तहखाने में, टूटा हुआ ताबूत इस बात का एकमात्र और अकाट्य सबूत था कि पिछली रात जो कुछ भी हुआ, वह हकीकत थी।
शौर्यक्षर्य ने अपनी बची-खुची शक्ति का एक बड़ा हिस्सा आर्यवर्य की यादों को एक सपने में बदलने के लिए इस्तेमाल कर लिया था। उसने उस लड़के के मन में बैठे आतंक को देखा था, उसकी काँपती हुई आत्मा को महसूस किया था। 700 साल के अकेलेपन ने उसे इतना कठोर नहीं बनाया था कि वह किसी निर्दोष को अपनी पीड़ा का भागीदार बना सके। उसे आजाद करना एक बात थी, लेकिन उसे इस श्राप में घसीटना दूसरी।
महल की आत्माएँ निराश थीं। वे अदृश्य रूप में हॉल में इकट्ठा थीं, उनकी फुसफुसाहटों में सदियों की हताशा और अब एक ताजा गुस्सा था।
"तुमने उसे जाने क्यों दिया, राजकुमार?" एक तेज, अधीर आत्मा ने पूछा। यह एक युवा योद्धा की आत्मा थी जो अपनी मुक्ति के लिए सबसे ज्यादा बेचैन था। "वह यहाँ था! हमारी मुक्ति का रास्ता हमारे सामने था, और तुमने उसे जाने दिया!"
"वह डर गया था," शौर्यक्षर्य ने धीरे से कहा। वह अपने टूटे हुए सिंहासन पर बैठा था, उसकी आँखें उस खाली दरवाजे पर टिकी थीं जहाँ से आर्यवर्य भागा था। "तुम सबने उसकी हालत देखी थी। वह डर के मारे लगभग मर चुका था। मैं किसी को जबरदस्ती यहाँ कैद नहीं कर सकता।"
"कैद?" दूसरी आत्मा ने ताना मारा। "हम उसे कैद नहीं कर रहे थे! हम उससे मदद मांग रहे थे! 700 साल! हमने पूरे 700 साल इंतजार किया है इस एक मौके के लिए!"
शौर्यक्षर्य की आँखों में एक पल के लिए क्रोध की एक काली ज्वाला भड़की। "और अगले 700 साल भी इंतजार करूँगा, लेकिन किसी निर्दोष की जिंदगी बर्बाद करके अपनी मुक्ति नहीं खरीदूँगा!" उसकी आवाज में एक शाही अधिकार था जिसने सभी आत्माओं को चुप करा दिया।
तभी, एक बूढ़ी, शांत आत्मा आगे आई। यह महल की मुख्य परिचारिका की आत्मा थी, जो शौर्यक्षर्य के जन्म से ही उसके साथ थी। वह उन कुछ लोगों में से थी जिन्होंने अंत तक उसका साथ नहीं छोड़ा था। उसकी आवाज में निराशा तो थी, लेकिन गुस्सा नहीं।
"राजकुमार सही कह रहे हैं," उसने धीरे से कहा। "हम उस लड़के को उसकी इच्छा के विरुद्ध नहीं रोक सकते थे। श्राप की शर्तों में यह साफ था कि उसे अपनी मर्जी से हमारी मदद करनी होगी।"
उसने एक गहरी, ठंडी साँस ली और फिर अपनी धुंधली आँखों से शौर्यक्षर्य को देखते हुए कहा, "अगर वह हमारी किस्मत में है, तो वह वापस जरूर आएगा।"
उसकी इस बात में एक अजीब सा यकीन था, एक भविष्यवाणी जैसी। बाकी आत्माएँ शांत हो गईं, इस एक छोटी सी उम्मीद की किरण को पकड़े हुए।
शौर्यक्षर्य ने कुछ नहीं कहा। वह चुपचाप अपने सिंहासन पर बैठा रहा, उसकी आँखें अब भी खाली थीं। लेकिन उसके मन में उस लड़के का चेहरा घूम रहा था। उसकी डरी हुई आँखें, उसके होंठों से निकली काँपती हुई चीख, और उसका वह आधुनिक, तर्कसंगत मन जो इस अकल्पनीय सच को स्वीकार नहीं कर पा रहा था। शौर्यक्षर्य ने सदियों में पहली बार किसी जीवित इंसान के इतने करीब से संपर्क किया था, और उस संपर्क ने उसके अंदर कुछ ऐसा जगा दिया था जिसे वह खुद भी नहीं समझ पा रहा था। यह सिर्फ मुक्ति की आशा नहीं थी, यह कुछ और था... कुछ गहरा, और शायद कहीं ज्यादा खतरनाक।
कॉलेज के हॉस्टल की चारदीवारी में वापस आकर, आर्यवर्य ने अपनी सामान्य, उबाऊ जिंदगी की पटरी पर लौटने की एक निष्फल कोशिश की। दिन के उजाले में, वह एक साधारण कॉलेज छात्र था, किताबों और असाइनमेंट्स के बोझ तले दबा हुआ। लेकिन जैसे ही रात का अंधेरा गहराता, उसका मन उस डरावनी हकीकत की ओर लौट जाता जिसे वह एक बुरा सपना मानकर भूल जाना चाहता था।
तृषा के धोखे का दर्द अब भी उसके दिल के किसी कोने में एक सुलगते अंगारे की तरह मौजूद था। जब भी वह कैंपस में किसी हँसते हुए जोड़े को देखता, तो एक कड़वाहट उसके मुँह में घुल जाती। लेकिन यह दर्द अब सतही लगता था, एक छोटी सी चोट की तरह जिसे एक गहरे, नासूर घाव ने अपनी पीड़ा में ढक लिया हो। उस "सपने" की यादें, उस श्रापित महल की भयावहता, उसके दिल और दिमाग पर कहीं ज्यादा हावी थी।
वह सपना नहीं था, यह उसका दिल जानता था, लेकिन उसका तर्कसंगत दिमाग इसे मानने से इनकार कर रहा था। सपने की हर एक डिटेल, हर एक बारीक से बारीक बात, उसे इतनी स्पष्ट रूप से याद थी जैसे वह अभी-अभी वहाँ से लौटा हो। तहखाने की सीलन भरी गंध, मशालों की टिमटिमाती नारंगी रोशनी, ताबूत पर लगे जंग लगे कील, और सबसे बढ़कर... शौर्यक्षर्य का वह भयानक, घावों से भरा चेहरा और उसकी आत्मा को भेदती हुई उदास आँखें। यह सब कुछ एक फिल्म की तरह उसके दिमाग में बार-बार चलता रहता।
वह अक्सर क्लास में खोया-खोया रहता। प्रोफेसर की आवाज उसे दूर से आती हुई किसी भिनभिनाहट की तरह लगती। उसकी नोटबुक के पन्नों पर कैलकुलस के समीकरणों की जगह टूटे हुए मुकुट और भयावह चेहरों के अनजाने स्केच बनने लगे थे। वह रात-रात भर जागता, छत को घूरता रहता, और जब कभी नींद आती भी, तो उसे वही बंद होते दरवाजे और हवा में तैरती पारदर्शी आकृतियाँ दिखाई देतीं।
अनाया उसकी यह हालत देखकर बेहद चिंतित थी। वह उसके सबसे करीबी दोस्त थी और उसे इस तरह टूटते हुए नहीं देख सकती थी। एक दिन वह लाइब्रेरी में उसके पास बैठी और धीरे से बोली, "आर्यवर्य, क्या बात है? जब से हम पिकनिक से लौटे हैं, तुम तुम नहीं रहे। तुम हर वक्त खोए रहते हो। तृषा की वजह से...?"
आर्यवर्य ने अपनी किताब से नजरें उठाए बिना जवाब दिया, "मैं ठीक हूँ, अनाया। बस थोड़ी थकान है।"
"यह थकान नहीं है," अनाया ने जोर देकर कहा। "यह कुछ और है। तुम मुझसे बात कर सकते हो, तुम जानते हो।"
आर्यवर्य उसे कैसे बताता? वह कैसे कहता कि उसे लगता है कि उसने एक 700 साल पुराने श्रापित राजकुमार की आत्मा को आजाद कर दिया है? वह उसे पागल समझती। इसलिए वह चुप रहा, अपने रहस्य के बोझ तले और भी दबता हुआ।
दिन गुजरते गए, और उसकी बेचैनी बढ़ती गई। अब वह सिर्फ यादों के भरोसे नहीं रह सकता था। उसे सबूत चाहिए थे, या तो इस बात का कि वह पागल हो रहा है, या इस बात का कि जो हुआ वह सच था। एक रात, जब पूरा हॉस्टल सो रहा था, वह अपने लैपटॉप पर बैठा। अँधेरे कमरे में सिर्फ स्क्रीन की सफेद रोशनी उसके चेहरे पर पड़ रही थी। काँपती उँगलियों से उसने सर्च बार में टाइप किया: "दामनगढ़"।
सैकड़ों परिणाम सामने आए—टूरिस्ट ब्लॉग, होटल बुकिंग साइट्स, स्थानीय समाचार। उसने अपनी खोज को और संकुचित किया: "दामनगढ़ का पुराना इतिहास," "दामनगढ़ की किंवदंतियाँ"।
कई पन्नों को खंगालने के बाद, उसे एक पुराने, लगभग भुला दिए गए इतिहास ब्लॉग पर एक छोटा सा लेख मिला। शीर्षक था: "दामनगढ़ के खोए हुए महल की किंवदंती"।
उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। उसने लेख पढ़ना शुरू किया। उसमें एक घमंडी राजकुमार का जिक्र था, जिसने सत्ता के लिए अपने भाइयों की हत्या कर दी थी। किंवदंती में बताया गया था कि उसे एक भयानक श्राप मिला और उसका खूबसूरत महल दुनिया की नजरों से हमेशा के लिए ओझल हो गया। कुछ स्थानीय लोगों का मानना था कि पूर्णिमा की रात को वह महल आज भी उस पहाड़ी पर दिखाई देता है। जानकारी बहुत अस्पष्ट और लोककथा जैसी थी, जिसमें तारीखों या ठोस तथ्यों का कोई उल्लेख नहीं था। लेकिन उसमें एक नाम था जिसने आर्यवर्य के शरीर में सिहरन दौड़ा दी—राजकुमार शौर्यक्षर्य।
उसका संदेह अब एक भयानक यकीन में बदलने लगा था। यह सपना नहीं था। यह सब सच था।
वह अब और इंतजार नहीं कर सकता था। उसे वापस जाना था। उसे अपनी आँखों से एक बार फिर देखना था।
अगली रात, उसने किसी को कुछ नहीं बताया। उसने चुपचाप अपनी कार की चाबियाँ उठाईं और हॉस्टल से निकल गया। शहर की रोशनी को पीछे छोड़ते हुए, उसकी कार उसी अँधेरे, सुनसान पहाड़ी इलाके की ओर दौड़ने लगी। उसका मन विचारों के तूफान से जूझ रहा था। क्या वह मूर्खता कर रहा है? क्या वह एक कहानी के पीछे भाग रहा है? लेकिन उस नाम ने, शौर्यक्षर्य, उसके सारे तर्कों को खारिज कर दिया था।
घंटों की ड्राइव के बाद, वह उसी जगह पहुँचा। चाँद आसमान में एक पतली हँसिया की तरह लटका हुआ था; आज पूर्णिमा की रात नहीं थी। उसने कार रोकी और बाहर निकला। ठंडी हवा उसके चेहरे से टकराई। उसने अपनी नजरें पहाड़ी की चोटी पर टिका दीं।
वहाँ कुछ भी नहीं था। वही शांत, निर्जन चट्टानें। कोई महल नहीं।
एक पल के लिए, उसे गहरी निराशा ने घेर लिया। उसे लगा कि वह वाकई पागल हो गया है। शायद वह लेख सिर्फ एक संयोग था, और उसका दिमाग किंवदंती और उसके अपने डर को मिलाकर एक कहानी बुन रहा था। वह कितना बड़ा मूर्ख था। यह मानकर कि वह वाकई एक सपना था, उसने एक हारी हुई साँस छोड़ी और वापस जाने के लिए मुड़ा।
तभी, उसकी नजर जमीन पर पड़ी एक चीज पर गई। पत्तों और मिट्टी के बीच कुछ धातु जैसा चमक रहा था।
उसने झुककर उसे उठाया। यह एक मोमबत्ती स्टैंड था। भारी, पुराने पीतल का बना हुआ, जिस पर जटिल नक्काशी थी। उसकी सतह पर पिघले हुए मोम के पुराने दाग थे।
जैसे ही उसने उसे अपने हाथ में पकड़ा, एक बिजली का झटका सा उसके पूरे शरीर में दौड़ गया। उसने इस स्टैंड को पहले पकड़ा था। उसे इसका वजन, इसका ठंडा स्पर्श, सब कुछ याद था। यह वही मोमबत्ती स्टैंड था जिसे उसने उस "सपने" में अपनी रक्षा के लिए उठाया था, जब वह तहखाने से बाहर भागा था।
वह उसे हाथ में लिए बुरी तरह चौंक गया। उसके पैर काँप रहे थे। उसका दिमाग सुन्न हो गया था। भौतिक सबूत। एक ठोस, वास्तविक वस्तु जो उसके हाथ में थी, यह चीख-चीख कर कह रही थी कि जो कुछ भी हुआ, वह हकीकत थी।
उसने काँपते हुए फिर से पहाड़ी की चोटी की ओर देखा। अगर यह सब सच था, तो महल कहाँ था? वह कहाँ गायब हो गया? इस सवाल का जवाब उसके पास नहीं था, लेकिन अब वह जानता था कि वह पागल नहीं है। और यह अहसास किसी भी डर से कहीं ज्यादा भयानक था।
आर्यवर्य के हाथ में वह भारी, पीतल का मोमबत्ती स्टैंड एक अकाट्य सत्य की तरह मौजूद था, जो उसके सारे तर्कों और शंकाओं को एक ही पल में ध्वस्त कर रहा था। उसका दिल किसी युद्ध के नगाड़े की तरह बज रहा था, हर धड़कन के साथ एक ही सवाल गूँज रहा था—अगर यह सब सच है, तो वह महल कहाँ है? वह उसे क्यों नहीं देख पा रहा था?
उसने स्टैंड को कसकर पकड़ रखा था, उसकी उंगलियाँ ठंडे धातु पर सफेद पड़ रही थीं। यह स्टैंड उस रहस्यमयी दुनिया और उसकी अपनी वास्तविक दुनिया के बीच का एकमात्र पुल था। एक पल के लिए उसके मन में विचार आया कि इसे लेकर वापस चला जाए, एक सबूत के तौर पर, शायद किसी को दिखाए, किसी से मदद माँगे। लेकिन वह किसे दिखाता? वह क्या कहता? कि उसे एक गायब हो चुके महल का मोमबत्ती स्टैंड मिला है?
नहीं, यह उसकी अपनी लड़ाई थी, उसका अपना रहस्य।
उसने एक गहरी साँस ली, अपनी घबराहट पर काबू पाने की कोशिश करते हुए। वह स्टैंड को वापस उसी चट्टान पर रख दिया, ठीक उसी जगह जहाँ से उसे वह मिला था। यह एक अनकहा सम्मान था, एक संकेत कि वह उस दुनिया की चीजों को अपनी दुनिया में नहीं ले जाना चाहता। जैसे ही उसने अपने कदम पीछे हटाए, एक और अविश्वसनीय घटना घटी।
स्टैंड पर लगी पुरानी, सूखी मोमबत्ती की बत्ती में एक छोटी सी लौ अपने आप जल उठी।
आर्यवर्य के कदम वहीं जम गए। उसने पलटकर देखा। हवा बिल्कुल शांत थी, लेकिन वह छोटी सी, सुनहरी लौ बिना हिले-डुले जल रही थी, जैसे रात के अंधेरे में एक अकेला सितारा टिमटिमा रहा हो। उसकी रोशनी सौम्य थी, लेकिन उसकी उपस्थिति में एक अलौकिक शक्ति थी, जो आर्यवर्य को अपनी ओर खींच रही थी।
वह मंत्रमुग्ध सा उस लौ को देख रहा था। और फिर, एक और चमत्कार हुआ। जिस चट्टान पर स्टैंड रखा था, वह धीरे-धीरे चमकने लगी। पहले एक हल्की, दूधिया रोशनी, फिर वह तेज होती गई, जैसे चट्टान के अंदर से कोई सूरज निकल रहा हो। रोशनी इतनी तेज थी कि आर्यवर्य को अपनी आँखें सिकोड़नी पड़ीं।
देखते ही देखते, वह नंगी, कठोर चट्टान एक भव्य, विशाल महल में बदलने लगी। यह एक धीमी, जादुई प्रक्रिया थी। पत्थर की दीवारें उभरने लगीं, मीनारें आसमान की ओर उठने लगीं, और नक्काशीदार खिड़कियाँ अपनी जगह पर प्रकट होने लगीं। यह वही महल था, लेकिन इस बार यह डरावना और भयावह नहीं लग रहा था। यह शांत, राजसी और अविश्वसनीय रूप से खूबसूरत लग रहा था, जैसे किसी भूली हुई कहानी का एक पन्ना फिर से जीवंत हो गया हो।
आर्यवर्य का मुँह आश्चर्य से खुला रह गया था। उसके रोंगटे खड़े हो गए थे, लेकिन इस बार डर से नहीं, बल्कि एक अजीब से रोमांच और विस्मय से। वह अपनी आँखों के सामने एक असंभव को घटित होते देख रहा था।
महल का परिवर्तन पूरा हो चुका था। वह अब चुपचाप, पूरी शान के साथ पहाड़ी की चोटी पर खड़ा था। आर्यवर्य काँपते कदमों से, लगभग एक समाधि की अवस्था में, उस विशाल, नक्काशीदार दरवाजे के पास पहुँचा। पिछली बार की तरह, यह दरवाजा भी थोड़ा सा खुला हुआ था, एक निमंत्रण की तरह।
उसने धीरे-धीरे अपना हाथ आगे बढ़ाया और लकड़ी के ठंडे, खुरदुरे दरवाजे को छुआ।
उसके छूते ही, महल का भारी दरवाजा बिना किसी आवाज के, अपने आप अंदर की ओर खुलने लगा। एक सौम्य हवा का झोंका बाहर आया, जिसमें सूखी लकड़ी, पुरानी किताबों और किसी अनजान फूल की हल्की सी महक घुली हुई थी।
आर्यवर्य ने एक पल के लिए झिझक महसूस की। क्या उसे अंदर जाना चाहिए? पिछली बार का अनुभव उसके दिमाग में अभी भी ताजा था। लेकिन इस बार कुछ अलग था। इस बार डर नहीं, बल्कि एक तीव्र जिज्ञासा उसे खींच रही थी। उसे जवाब चाहिए थे।
उसने धीरे-धीरे अपने कदम अंदर बढ़ाए। इस बार उसने एक हाथ से दरवाजे को पकड़ लिया, इस डर से कि कहीं वह पिछली बार की तरह बंद न हो जाए और वह फिर से कैद न हो जाए। लेकिन दरवाजा अपनी जगह पर स्थिर रहा, खुला हुआ।
अंदर का नजारा उसके "सपने" से बिल्कुल अलग था। घना अंधेरा और खामोशी नहीं थी। हॉल में कई मशालें जल रही थीं, जिनकी गर्म रोशनी सुनहरे पत्थर की दीवारों पर नाच रही थी। हर चीज साफ-सुथरी और व्यवस्थित थी। हवा में धूल की जगह एक भीनी-भीनी सुगंध थी। सब कुछ आलीशान, शांत और स्वागत करने वाला लग रहा था। कोई डरावनी चीज नहीं थी, कोई भयावह फुसफुसाहट नहीं थी।
वह हॉल के बीच में खड़ा होकर चारों ओर देख रहा था, तभी उसे अहसास हुआ कि वह अकेला नहीं है। उसे सैकड़ों अदृश्य आँखें खुद पर महसूस हो रही थीं। लेकिन इस बार उन आँखों में शत्रुता या डर नहीं था, बल्कि एक उम्मीद और खुशी की झलक थी।
अदृश्य आत्माएँ उसे देख रही थीं, और उनकी सामूहिक चेतना में एक खुशी की लहर दौड़ गई थी।
"वह लौट आया," एक आत्मा ने दूसरी से फुसफुसाकर कहा।
"देखा, मैंने कहा था न," एक और आत्मा ने उत्साह से जवाब दिया, "अगर हम महल को सजा देंगे, तो यह नहीं डरेगा। पिछली बार हमारा स्वागत बहुत रूखा था।"
वे समझ गए थे कि उसका दोबारा आना एक संकेत है। यह कोई संयोग नहीं था। उसने डर के बावजूद वापस आने का फैसला किया था, जिसका मतलब था कि वह उनकी मदद करना चाहता था।
आर्यवर्य ने एक गहरी साँस ली। उसे नहीं पता था कि आगे क्या होने वाला है, लेकिन वह जानता था कि वह सही जगह पर है। उसने दरवाजे को छोड़ा और महल के रहस्यमयी, लेकिन अब स्वागत करते हुए गलियारों की ओर अपने कदम बढ़ा दिए। वह जवाब खोजने आया था, और उसे अहसास हो रहा था कि उसकी जिंदगी हमेशा के लिए बदलने वाली है।
तहखाने की ओर जाने वाली सीढ़ियाँ अब अँधेरी और भयावह नहीं थीं। दीवारों पर लगी मशालों की रोशनी हर कदम पर उसका मार्गदर्शन कर रही थी। आर्यवर्य के कदम सधे हुए थे, उसका दिल अब भी तेजी से धड़क रहा था, लेकिन इस बार डर से नहीं, बल्कि एक अजीब प्रत्याशा से। वह जानना चाहता था कि पिछली बार का वह भयावह तहखाना, वह जंजीरों से जकड़ा ताबूत, क्या वह भी एक भ्रम था, या इस नए, खूबसूरत महल के नीचे अभी भी मौजूद था।
वह तहखाने के भारी, लकड़ी के दरवाजे के पास पहुँचा। उसने अपना हाथ दरवाजे की ठंडी, धातु की कुंडी पर रखा और धीरे-धीरे उसे खोला।
अंदर का दृश्य देखकर उसकी आँखें आश्चर्य से चौड़ी हो गईं। सीलन और मौत की गंध वाला तहखाना गायब था। उसकी जगह एक खूबसूरत, आलीशान बेडरूम था। कमरे के बीच में एक विशाल, चारपाई वाला बिस्तर था, जिस पर रेशम की चादरें और मखमल के तकिये रखे थे। एक कोने में शीशम की लकड़ी की एक नक्काशीदार मेज और कुर्सी थी, और दूसरी तरफ एक विशाल अलमारी। दीवारों पर सुंदर पेंटिंग्स लटकी हुई थीं, जिनमें से कुछ में शांत परिदृश्य थे और कुछ में राजसी युद्ध के दृश्य। हवा में चंदन और गुलाब की मिली-जुली सुगंध थी।
यह इतना बड़ा और अप्रत्याशित बदलाव था कि आर्यवर्य को एक पल के लिए लगा कि वह गलत जगह आ गया है। उसने पलटकर सीढ़ियों की ओर देखा, यह सुनिश्चित करने के लिए कि वह वहीं है जहाँ उसने सोचा था। हाँ, यह वही रास्ता था।
उसकी नजर कमरे में रखी कुछ पुरानी, चमड़े की जिल्द वाली किताबों पर पड़ी। वह उनकी ओर बढ़ा और एक किताब उठाई। उसके पन्ने पुराने और पीले पड़ चुके थे, लेकिन उन पर बने चित्र अभी भी स्पष्ट और जीवंत थे। ये पौराणिक कथाओं के चित्र थे—देवताओं और असुरों के बीच युद्ध, भव्य हवन और यज्ञ, और राजदरबारों के दृश्य। उसने कुछ पन्ने पलटे और फिर किताब को वापस उसकी जगह पर रख दिया।
उस कमरे में कुछ भी भयावह नहीं था। वह टूटा हुआ, खाली ताबूत कहीं नजर नहीं आ रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे महल ने अपने सारे काले राज एक खूबसूरत पर्दे के पीछे छिपा लिए हों।
आर्यवर्य कमरे से बाहर आया और अब वह महल में बिना किसी डर के घूमने लगा। वह एक बच्चे की तरह हर चीज को कौतूहल से देख रहा था। उसे ऐसा लग रहा था जैसे वह किसी जादुई दुनिया में आ गया है, जिसे उसने केवल कहानियों में पढ़ा था। पिछली बार के डर और दहशत के बजाय, वह इस बार बहुत खुश और उत्साहित था। वह लंबे गलियारों से गुजरा, ऊँची छतों और जटिल नक्काशी को निहारता हुआ। उसे अहसास हुआ कि यह महल श्रापित होने के बावजूद, अविश्वसनीय रूप से सुंदर था।
उसकी हर हरकत पर, महल की अदृश्य आत्माएँ उसे देख रही थीं, और उनकी फुसफुसाहटों में एक जश्न का माहौल था।
"वह खुश है," एक युवा आत्मा ने चहककर कहा। "उसे हमारा नया घर पसंद आया।"
"चुप रहो," एक बूढ़ी आत्मा ने उसे डाँटा, "कहीं वह हमें सुन न ले। अभी हमें अदृश्य ही रहना है।"
एक आत्मा दौड़कर महल के ऊपरी हिस्से में बने एक भव्य कमरे की ओर गई। उस कमरे की बड़ी सी खिड़की पर शौर्यक्षर्य खड़ा था, बाहर अँधेरे आसमान को घूर रहा था। उसका रूप अभी भी वही घावों से भरा और भयावह था, लेकिन उसकी आँखों में अब एक नई हलचल थी।
"राजकुमार," आत्मा ने हाँफते हुए कहा, "वह लड़का लौट आया है। और इस बार वह डरा हुआ नहीं है। वह महल में घूम रहा है और मुस्कुरा रहा है।"
यह सुनकर शौर्यक्षर्य चौंक गया। उसने कभी नहीं सोचा था कि वह लड़का वापस आएगा। उसने तो उसे कमजोर और डरपोक समझा था। उसके मन में एक विरोधाभास पैदा हुआ। एक तरफ, लड़के की वापसी ने 700 साल पुरानी मुक्ति की उम्मीद को फिर से जगा दिया था। दूसरी तरफ, उसे यह विश्वास नहीं हो रहा था कि यह डरपोक सा दिखने वाला लड़का उनकी मदद कर पाएगा।
तभी बूढ़ी आत्मा, जो शौर्यक्षर्य की मुख्य परिचारिका हुआ करती थी, वहाँ आई। उसके चेहरे पर समझदारी और धैर्य का भाव था। उसने कहा, "राजकुमार, मैंने कहा था न। वह हमारी किस्मत में है। वह हमें मुक्ति दिलाएगा।"
शौर्यक्षर्य ने तिरस्कार से कहा, "मुक्ति? वह लड़का तो खुद अपनी परछाई से डरता है। पिछली बार उसकी हालत देखी थी तुमने? वह तो रोने लगा था।" उसे लगा कि आर्यवर्य का आत्मविश्वास एक धोखा है, और जैसे ही उसे फिर से कोई डरावनी चीज दिखेगी, वह भाग जाएगा। उसने उसे फिर से डराकर हमेशा के लिए भगाने का फैसला किया।
वह अपने भयावह रूप में आर्यवर्य के सामने प्रकट होने के लिए तैयार हुआ, लेकिन बूढ़ी आत्मा ने उसका रास्ता रोक लिया।
"नहीं, राजकुमार," उसने दृढ़ता से कहा। "यह गलती दोबारा मत करना। डर से किसी का भरोसा नहीं जीता जा सकता। हमने उसे डराकर देख लिया है, और नतीजा यह हुआ कि वह भाग गया। इस बार हमें उसे विश्वास दिलाना होगा।"
शौर्यक्षर्य ने गुस्से से उसकी ओर देखा। "तो तुम क्या चाहती हो? मैं उसके सामने नाचूँ?"
"नहीं," बूढ़ी आत्मा ने शांति से जवाब दिया। "उसे डराने के बजाय, उसे सुरक्षित महसूस कराओ। उसे यह अहसास दिलाओ कि यह महल अब उसका भी घर है। विश्वास और सुरक्षा से ही हम उसे यहाँ रहने के लिए मना सकते हैं। और जब वह अपनी मर्जी से यहाँ रहने का फैसला कर लेगा, तभी हमारी मुक्ति का रास्ता खुलेगा।"
शौर्यक्षर्य ने उसकी बातों पर विचार किया। उसे बूढ़ी आत्मा की सलाह में तर्क नजर आया। उसने 700 साल इंतजार किया था, वह कुछ और दिन इंतजार कर सकता था। उसने एक गहरी साँस ली और अपना फैसला बदल दिया। इस बार, वह डर का नहीं, विश्वास का खेल खेलेगा।
बूढ़ी आत्मा की सलाह शौर्यक्षर्य के अहंकारी मन में किसी तरह घर कर गई। उसने अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति, जो डराने और हावी होने की थी, को दबा दिया और एक अलग रास्ता अपनाने का फैसला किया। वह अदृश्य रूप में, हवा में तैरता हुआ, उस दालान की ओर बढ़ा जहाँ आर्यवर्य महल की दीवारों पर लगी तस्वीरों को निहार रहा था।
आर्यवर्य महल की सुंदरता और उसके रहस्य में पूरी तरह खोया हुआ था। तृषा का धोखा, परिवार का अकेलापन, बाहरी दुनिया की सारी चिंताएँ उसके मन से धुल चुकी थीं। उसके चेहरे पर एक शुद्ध, बच्चों जैसी खुशी थी, एक ऐसी खुशी जो शौर्यक्षर्य ने सदियों से किसी के चेहरे पर नहीं देखी थी। वह इतना खुश और चिंतामुक्त लग रहा था कि शौर्यक्षर्य की कठोर नजरें उस पर ठहर गईं। 700 साल के पश्चाताप और अकेलेपन के बाद, यह दृश्य उसके लिए किसी ठंडे झरने जैसा था।
आर्यवर्य तस्वीरों को देखता हुआ, अनजाने में, बिल्कुल शौर्यक्षर्य के सामने आ गया। दोनों के बीच कुछ इंच का फासला भी नहीं था, लेकिन आर्यवर्य उसे देख या महसूस नहीं कर सकता था। शौर्यक्षर्य के लिए यह एक अजीब अनुभव था। वह आर्यवर्य की साँसों की गर्मी महसूस कर सकता था, उसकी आँखों में चमक देख सकता था। इतने करीब, फिर भी मीलों दूर।
आर्यवर्य ने अपना हाथ आगे बढ़ाया, शायद एक तस्वीर को छूने के लिए, लेकिन उसका हाथ शौर्यक्षर्य के अदृश्य शरीर के आर-पार हो गया। आर्यवर्य को कुछ महसूस नहीं हुआ, लेकिन शौर्यक्षर्य के पूरे शरीर में एक सिहरन दौड़ गई। यह एक ऐसा अहसास था जिसे केवल वह और बाकी आत्माएँ महसूस कर सकती थीं—एक जीवित प्राणी का स्पर्श, जो उनके लिए अब एक भूली हुई स्मृति थी।
आर्यवर्य ने एक गहरी, संतुष्ट साँस ली और मन ही मन, लगभग फुसफुसाते हुए कहा, "काश... काश मैं हमेशा यहीं रह पाता।"
यह वाक्य, जो उसने खुद से कहा था, महल की खामोशी में गूँज गया और हर आत्मा के कानों तक पहुँच गया। यह वही वाक्य था जिसका वे सदियों से इंतजार कर रहे थे।
यह सुनकर बूढ़ी आत्मा और बाकी सभी आत्माएँ खुशी से झूम उठीं। उनकी फुसफुसाहटों में एक जश्न का स्वर था। शौर्यक्षर्य हैरान रह गया। उसे अपनी कानों पर विश्वास नहीं हुआ। यह लड़का, जिसे वह डरपोक समझ रहा था, वह इस श्रापित महल में हमेशा के लिए रहना चाहता था? यह कैसे संभव था?
महल को श्राप से मुक्त करने की पहली और सबसे महत्वपूर्ण शर्त यही थी—उसी श्राप देने वाली आत्मा के वंशज को अपनी स्वतंत्र इच्छा से, बिना किसी दबाव के, महल में रहने का फैसला करना होगा। आर्यवर्य ने अनजाने में ही सही, वह पहली शर्त पूरी कर दी थी।
जैसे ही यह शर्त पूरी हुई, महल के विशाल प्रवेश द्वार धीरे-धीरे, एक भारी गड़गड़ाहट के साथ अपने आप बंद होने लगे।
आर्यवर्य ने दरवाजे की ओर देखा, लेकिन उसे कोई फर्क नहीं पड़ा। उसे बाहर की दुनिया में वापस जाने की कोई इच्छा नहीं थी। वह तो इस जादुई दुनिया में और भी गहराई तक जाना चाहता था।
वह एक बड़े से भोजन कक्ष में पहुँचा। लंबी मेज पर तरह-तरह के पकवान रखे थे—गर्म पूरियाँ, सुगंधित सब्जियाँ, खीर और कई तरह के फल। ऐसा लग रहा था जैसे अभी-अभी किसी ने एक भव्य दावत तैयार की हो। उसे अचानक अहसास हुआ कि उसे बहुत तेज भूख लगी है। उसने बिना किसी झिझक के एक कुर्सी खींची और खाना खाने लगा।
खाना खाते हुए उसने मुस्कुराकर कहा, "अगर यह सपना है, तो यह कभी न टूटे।"
खाना खाकर, वह महल के एक और हिस्से में पहुँचा जहाँ एक आलीशान शयनकक्ष था। उसने अपने जूते उतारे और एक बच्चे की तरह उस बड़े से बिस्तर पर चढ़कर कूदने लगा। वह हँस रहा था, उछल रहा था, अपनी सारी परेशानियों को भूलकर।
उसकी इन बच्चों जैसी हरकतों को देखकर, अदृश्य रूप में खड़े शौर्यक्षर्य के होठों पर 700 साल में पहली बार एक हल्की सी मुस्कान आई। उसे अपनी हँसी पर खुद ही आश्चर्य हुआ, और उसने तुरंत अपनी भावनाओं को छुपाकर फिर से कठोर मुखौटा पहन लिया।
बूढ़ी आत्मा, जो उसके पास खड़ी थी, ने धीरे से कहा, "शायद यह अपनी पुरानी जिंदगी से बहुत परेशान है। शायद यह महल उसके लिए जेल नहीं, बल्कि एक पनाहगाह है।"
शौर्यक्षर्य ने कोई जवाब नहीं दिया। वह चुपचाप अपने कमरे में चला गया, उसका मन विचारों के एक बवंडर में फँसा हुआ था।
थककर, आर्यवर्य उसी आलीशान बिस्तर पर लेट गया और कुछ ही पलों में गहरी नींद में सो गया। उसके चेहरे पर एक सुकून भरी मुस्कान थी, जैसे उसे बरसों बाद अपना घर मिल गया हो।
जब आर्यवर्य गहरी नींद में सो गया, तो महल की चहल-पहल शांत हो गई। आत्माएँ चुपचाप अपने-अपने कोनों में सिमट गईं, इस नए मेहमान को कोई तकलीफ नहीं देना चाहती थीं। लेकिन शौर्यक्षर्य के मन में शांति नहीं थी। वह अपने भव्य, लेकिन ठंडे कमरे में बेचैनी से टहल रहा था। आर्यवर्य का मुस्कुराता हुआ, शांत चेहरा बार-बार उसकी आँखों के सामने आ रहा था।
अंत में, अपनी जिज्ञासा और एक अनजाने खिंचाव के आगे हारकर, वह चुपके से उस कमरे में गया जहाँ आर्यवर्य सो रहा था।
वह बिस्तर के पास खड़ा हो गया और उसे शांति से सोते हुए देखने लगा। चाँद की रोशनी खिड़की से छनकर आ रही थी और आर्यवर्य के चेहरे पर पड़ रही थी। नींद में उसका चेहरा बिल्कुल मासूम लग रहा था, दुनिया की किसी भी चालाकी और धोखे से अनछुआ। शौर्यक्षर्य को उसके चेहरे पर एक अजीब सी पवित्रता नजर आई, एक ऐसी शुद्धता जो उसने सदियों से नहीं देखी थी।
एक अनियंत्रित आवेग में, उसने अपना हाथ आगे बढ़ाया, उसके गाल को छूने के लिए। उसके घावों से भरे, ठंडे हाथ आर्यवर्य की गर्म त्वचा से कुछ इंच की दूरी पर रुक गए। वह डर गया। कहीं उसके स्पर्श से आर्यवर्य की नींद न टूट जाए। कहीं आर्यवर्य उसका भयावह रूप देखकर फिर से डर न जाए। उसने गहरी साँस ली और अपना हाथ पीछे खींच लिया।
उसे अहसास हो रहा था कि यह लड़का, जिसे वह कुछ घंटे पहले तक एक डरपोक और कमजोर इंसान समझ रहा था, उसके पत्थर हो चुके दिल में कहीं गहरी जगह बना रहा है। यह अहसास उसके लिए नया और परेशान करने वाला था।
शौर्यक्षर्य ने अपनी भावनाओं को परे झटक दिया और अपनी जादुई शक्तियों का उपयोग करने का फैसला किया, लेकिन इस बार किसी को डराने के लिए नहीं। उसने हवा में धीरे से हाथ घुमाया। कमरे का तापमान थोड़ा और आरामदायक हो गया। हवा में ताजे जंगली फूलों की एक भीनी-भीनी खुशबू भर गई। बिस्तर का गद्दा और भी मुलायम हो गया, तकिये और भी नरम। उसने यह सब इसलिए किया ताकि आर्यवर्य को लगे कि वह बादलों पर सोया है, ताकि जब वह जागे तो तरोताजा और खुश महसूस करे।
यह सब करके, वह चुपचाप कमरे से बाहर निकल आया।
बाहर दालान में, महल की सभी प्रमुख आत्माएँ उम्मीद भरी नजरों से उसे देख रही थीं। उनकी आँखों में एक ही सवाल था: "अब आगे क्या?"
शौर्यक्षर्य ने अपनी भावनाओं को छिपाते हुए, कठोरता का दिखावा करते हुए कहा, "यह तो यहाँ आते ही सो गया। तुम्हें लगता है यह हमें आजाद कराएगा? यह तो खुद एक बच्चा है।"
एक अधेड़ उम्र की आत्मा, जो कभी उसकी मंत्री हुआ करती थी, ने शरारत से कहा, "बच्चा हो या बड़ा, राजकुमार... तुम भी जानते हो वह सोते हुए कितना सुंदर लग रहा है। क्यों न हम उसे यहीं रख लें, हमेशा के लिए?"
शौर्यक्षर्य ने उसे गुस्से से घूरा। "नहीं!" उसने लगभग चिल्लाते हुए कहा। "हम किसी की जिंदगी बर्बाद नहीं कर सकते। वह अपनी मर्जी से आया है, और अपनी मर्जी से ही जाएगा।" वह जानता था कि मुक्ति का रास्ता आसान नहीं है। उसे सात खतरनाक चुनौतियों का सामना करना होगा, जिसमें जान का खतरा भी हो सकता है। वह आर्यवर्य जैसे मासूम को उस खतरे में नहीं धकेलना चाहता था।
उसने आदेश दिया, "जैसे ही उसकी नींद खुले, उसे विनम्रता से जाने के लिए कह देना। उसे बताना कि दरवाजा अब खुल जाएगा।"
यह सुनकर सभी आत्माएँ निराश हो गईं। वे 700 साल बाद मिले इस सुनहरे मौके को खोना नहीं चाहती थीं। उन्होंने विरोध करने की कोशिश की, लेकिन शौर्यक्षर्य के गुस्से के आगे किसी की हिम्मत नहीं हुई।
शौर्यक्षर्य वापस अपने कमरे में चला गया और खिड़की के पास खड़ा हो गया, एक गहरी दुविधा में फँसा हुआ। एक तरफ उसका कर्तव्य था, इन सभी आत्माओं को मुक्ति दिलाना, जिन्होंने उसकी वजह से अपनी आजादी खो दी थी। दूसरी तरफ, आर्यवर्य के लिए एक अनजाना खिंचाव था, उसे सुरक्षित रखने की एक तीव्र इच्छा।
तभी बूढ़ी परिचारिका उसके कमरे में आई। उसने शौर्यक्षर्य के कंधे पर हाथ रखा और शांत आवाज में कहा, "राजकुमार, मैं जानती हूँ कि तुम क्या सोच रहे हो। लेकिन अपनी भावनाओं को अपने कर्तव्य के आड़े मत आने दो। हमने 700 साल इंतजार किया है। यह लड़का हमारी एकमात्र उम्मीद है। अगर तुम उसे जाने दोगे, तो शायद हमें और 700 साल इंतजार करना पड़े।"
उसकी बातें शौर्यक्षर्य के दिल में तीर की तरह चुभ गईं। उसे अपनी जिम्मेदारी का अहसास हुआ। उसका व्यक्तिगत सुख इन सैकड़ों आत्माओं की स्वतंत्रता से बड़ा नहीं हो सकता था। उसने एक कठोर निर्णय लिया।
अंत में, अपनी व्यक्तिगत भावनाओं पर काबू पाते हुए, शौर्यक्षर्य ने महल की आत्माओं के भले के लिए आर्यवर्य की मदद लेने का फैसला किया। वह जानता था कि यह स्वार्थ है, लेकिन उसके पास कोई और रास्ता नहीं था। उसने फैसला किया कि वह आर्यवर्य से मिलेगा, उसे सब कुछ सच-सच बताएगा, और फिर फैसला उस पर छोड़ देगा। यह सबसे सही और सम्मानजनक तरीका था।
सुबह की पहली किरण जब महल की खिड़कियों से छनकर आर्यवर्य के चेहरे पर पड़ी, तो उसकी नींद खुली। वह एक पल के लिए भ्रमित हुआ, उसे समझ नहीं आया कि वह कहाँ है। फिर उसे सब कुछ याद आया—पहाड़ी, रहस्यमयी महल, भव्य भोजन और बच्चों की तरह बिस्तर पर कूदना। उसे लगा कि वह अब तक का सबसे खूबसूरत सपना देख रहा है। वह मुस्कुराया, लेकिन तभी उसके कानों में रसोई की दिशा से कुछ बर्तनों के खटकने की आवाजें आईं।
वह चौंककर बिस्तर से उठा। "क्या इस महल में कोई और भी है?" उसने सोचा। जिज्ञासा और थोड़ी घबराहट के साथ, वह आवाज की दिशा में चल पड़ा।
रसोई का दृश्य देखकर वह हैरान रह गया। वहाँ एक लड़का खड़ा था, जिसकी पीठ उसकी तरफ थी। उसने आधुनिक कपड़े पहने हुए थे—एक काले रंग की स्लिम-फिट शर्ट और काली पैंट। वह बहुत ही सलीके से नाश्ता तैयार कर रहा था। यह लड़का कौन था? क्या वह भी उसकी तरह यहाँ फँस गया था?
आर्यवर्य ने धीरे से खाँसकर अपनी उपस्थिति का अहसास कराया और पूछा, "तुम... तुम कौन हो?"
लड़का मुड़ा, और उसे देखते ही आर्यवर्य की साँसें अटक गईं। यह वही लड़का था जो उसे "सपने" में दिखा था—वही तीखे नैन-नक्श, वही गहरी काली आँखें। लेकिन एक बहुत बड़ा अंतर था। उसके चेहरे पर अब कोई घाव नहीं थे। उसका चेहरा बिल्कुल खूबसूरत और बेदाग था। वह किसी राजकुमार की तरह लग रहा था। यह शौर्यक्षर्य था, जिसने आर्यवर्य से मिलने के लिए अपना रूप बदल लिया था।
शौर्यक्षर्य ने एक शांत मुस्कान के साथ कहा, "मेरा नाम शौर्य है। और मैं भी तुम्हारी तरह... इस दुनिया में फँस गया हूँ।" उसने जानबूझकर झूठ बोला ताकि आर्यवर्य को सहज महसूस हो।
यह सुनकर आर्यवर्य के चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गई। उसे लगा कि उसे इस जादुई जगह पर एक साथी मिल गया है। वह उत्साह से बोला, "फँस गए हो? अरे, मैं तो यहाँ फँसकर बहुत खुश हूँ! मैं तो कभी वापस ही नहीं जाना चाहता।"
शौर्यक्षर्य यह सुनकर एक बार फिर हैरान हुआ, लेकिन उसने अपनी हैरानी छिपाई। उसने फैसला किया कि अब आर्यवर्य को पूरी सच्चाई बताने का समय आ गया है। उसने नाश्ते की प्लेटें मेज पर लगाईं और आर्यवर्य को बैठने के लिए कहा।
दोनों आमने-सामने बैठ गए। आर्यवर्य ने सवालों की झड़ी लगा दी— "यह महल कहाँ है? यह असली है या कोई सपना? तुम यहाँ कब से हो?"
शौर्यक्षर्य ने उसे शांत किया और कहा, "मैं तुम्हें सब कुछ बताऊँगा, लेकिन पहले तुम्हें यह जानना होगा कि तुम जहाँ हो, वह कोई आम जगह नहीं है।"
उसने बताना शुरू किया, "यह महल एक अलग आयाम में मौजूद है। इसे 700 साल पहले एक श्राप के कारण दुनिया की नजरों से छिपा दिया गया था।"
"श्राप?" आर्यवर्य ने अविश्वास से पूछा।
"हाँ," शौर्यक्षर्य ने कहा। "और इस महल में हम सिर्फ दो लोग नहीं हैं।"
उसके इतना कहते ही, उसने हवा में एक इशारा किया। पलक झपकते ही, भोजन कक्ष में सैकड़ों लोग प्रकट हो गए। वे सभी खूबसूरत, राजसी पोशाकों में थे, जैसे किसी ऐतिहासिक फिल्म के पात्र हों। पुरुष, महिलाएँ, बच्चे—सब मुस्कुराते हुए आर्यवर्य को देख रहे थे। ये महल की वही आत्माएँ थीं, लेकिन अब वे अपने सजे-धजे, मानवीय रूप में थीं।
आर्यवर्य सैकड़ों लोगों को अचानक प्रकट होते देखकर अपनी कुर्सी से लगभग गिर ही गया था। वह बुरी तरह चौंक गया।
शौर्यक्षर्य ने उसे शांत करते हुए कहा, "डरो मत। ये सब इस महल के निवासी हैं, जो मेरे साथ यहाँ कैद हैं।"
फिर उसने आर्यवर्य को वह सच बताया जिसे वह छुपा रहा था। "पिछली बार जो तुमने देखा था," उसने धीरे से कहा, "वह सच था। मेरे चेहरे पर लगे घाव, ये आत्माएँ जो तुम्हें डरा रही थीं... वह सब सच था। लेकिन हमने तुम्हें डराने के लिए ऐसा नहीं किया था, बल्कि तुम्हें सच्चाई दिखाने के लिए किया था। यह खूबसूरत महल, यह स्वादिष्ट भोजन, यह सब सिर्फ एक भ्रम है, जो तुम्हें सहज महसूस कराने के लिए बनाया गया है।"
उसके इतना कहते ही, महल का भ्रम एक पल के लिए हटा। दीवारों पर दरारें और जाले दिखने लगे, खूबसूरत कपड़ों में सजी आत्माओं के चेहरों पर फिर से वही पुराने घाव और उदासी नजर आने लगी, और शौर्यक्षर्य के चेहरे पर भी एक पल के लिए वही भयानक निशान उभरे और गायब हो गए।
आर्यवर्य ने यह सब अपनी आँखों से देखा। उसका दिल तेजी से धड़क रहा था। उसे अब पूरी तरह से यकीन हो गया था कि वह किसी सपने में नहीं, बल्कि एक बहुत ही अजीब और रहस्यमयी हकीकत में है।
आमतौर पर, इस तरह की भयावह सच्चाई जानने के बाद कोई भी इंसान डर के मारे काँप उठता और वहाँ से भागने की हर संभव कोशिश करता। लेकिन आर्यवर्य की प्रतिक्रिया अप्रत्याशित थी। उसने एक गहरी साँस ली, मेज पर रखे सेब को उठाया और उसे खाते हुए लापरवाही से कहा, "तो? क्या फर्क पड़ता है कि यह महल श्रापित है या भ्रम है? मेरी असली दुनिया इस श्रापित महल से भी ज्यादा खतरनाक और झूठी है।"
उसकी इस बात ने न केवल शौर्यक्षर्य को, बल्कि वहाँ मौजूद सभी आत्माओं को स्तब्ध कर दिया।
आर्यवर्य ने अपनी कहानी बताना शुरू किया। उसने अपनी आवाज में दर्द और कड़वाहट के साथ बताया कि कैसे उसकी अपनी दुनिया स्वार्थी लोगों से भरी है, जहाँ प्यार का दिखावा किया जाता है और भावनाओं का सौदा होता है। उसने तृषा के धोखे का जिक्र किया, अपने परिवार में मिले अकेलेपन और उपेक्षा के बारे में बताया। उसने कहा, "उस दुनिया में लोग चेहरे पर मुखौटे पहनकर घूमते हैं। यहाँ कम से 'तुम लोग' तो ईमानदार हो। तुम जैसे दिखते हो, वैसे ही हो—दुखी, कैद और मुक्ति की तलाश में। मैं उस खोखली दुनिया में वापस नहीं जाना चाहता।"
उसकी बातें सुनकर सभी आत्माएँ भावुक हो गईं। उन्होंने अपने 700 साल के जीवन में पहली बार किसी इंसान को इतनी गहराई से समझते हुए देखा था। उन्हें आर्यवर्य की पीड़ा में अपनी पीड़ा की झलक दिखाई दी। एक-एक करके, वे उसके पास आए और दोस्ती का हाथ बढ़ाया। आर्यवर्य ने मुस्कुराकर उन सब से दोस्ती कर ली। उसे लग रहा था जैसे उसे वह परिवार मिल गया है जिसे वह हमेशा से चाहता था।
यह सब देखकर शौर्यक्षर्य के दिल में एक अजीब सी हलचल हुई। उसे आर्यवर्य के लिए सम्मान और सहानुभूति महसूस हुई। लेकिन उसे अपनी जिम्मेदारी भी याद थी।
तभी शौर्यक्षर्य ने एक और सच सामने रखा, जो शायद आर्यवर्य का मन बदल सकता था। उसने कहा, "आर्यवर्य, तुम्हारी दोस्ती के लिए हम सब आभारी हैं। लेकिन एक और सच है जो तुम्हें जानना चाहिए। अगर तुम यहाँ रहने का फैसला करते हो, तो यह महल तुम्हें अपनी मर्जी से बाहर नहीं जाने देगा। तुम हमेशा के लिए यहीं कैद हो जाओगे।"
आर्यवर्य ने एक पल सोचा और फिर लापरवाही से कंधे उचकाते हुए कहा, "ठीक है। मुझे वैसे भी बाहर जाकर करना ही क्या है? बस, मुझे मेरे कॉलेज के एग्जाम के समय कुछ दिनों के लिए बाहर जाना होगा। क्या यह संभव है?"
उसका यह जवाब सुनकर सभी आत्माओं की आँखों में चमक आ गई। अब आर्यवर्य इस महल की पूरी कहानी जानना चाहता था। वह शौर्यक्षर्य से पूछने ही वाला था कि यह श्राप क्या है और वे सब यहाँ क्यों फंसे हैं, तभी बूढ़ी परिचारिका ने शौर्यक्षर्य को इशारे से रोक दिया।
बूढ़ी आत्मा को डर था कि अगर आर्यवर्य को मुक्ति की खतरनाक चुनौतियों के बारे में पता चला, तो वह शायद डरकर भाग जाएगा। वह यह जोखिम नहीं लेना चाहती थी। उसने फैसला किया कि वह आर्यवर्य को कहानी अपने तरीके से बताएगी, जिसमें खतरों को छुपा लिया जाएगा।
वह आगे आई और एक दुखी आवाज में बोली, "बेटा, यह एक बहुत लंबी और दुखद कहानी है। हम सब एक बड़े षड्यंत्र का शिकार हुए थे और 700 सालों से इस महल में कैद होकर मुक्ति की प्रतीक्षा कर रहे हैं।" उसने बड़ी चालाकी से शौर्यक्षर्य की गलतियों और श्राप के असली कारण को छुपा लिया।
उसने आर्यवर्य की आँखों में देखते हुए कहा, " prophecies के अनुसार, 700 साल बाद एक शुद्ध हृदय वाला इंसान आएगा जो हमें इस श्राप से मुक्त कराएगा। हमें विश्वास है कि वह इंसान तुम हो। सिर्फ तुम ही हमें मुक्ति दिला सकते हो।"
आर्यवर्य को यह सब सुनकर बहुत रोमांच महसूस हुआ। उसे लगा जैसे वह किसी फंतासी फिल्म का हीरो बन गया हो। उसने उत्साह से पूछा, "मुझे क्या करना होगा?"
बूढ़ी आत्मा ने उसे सात चुनौतियों के बारे में बताया, लेकिन उसने खतरों का कोई जिक्र नहीं किया। उसने चुनौतियों को ऐसे प्रस्तुत किया जैसे वे कोई रोमांचक खेल हों। "पहली चुनौती है जादुई आईने को ढूंढना," उसने कहा। "दूसरी चुनौती है रेगिस्तान के नीचे से अमृत जल लाना।"
आर्यवर्य को यह सब एक एडवेंचर गेम जैसा लगा। वह हँसकर बोला, "यह तो बहुत आसान लगता है। आज की टेक्नोलॉजी के साथ, मैं रेगिस्तान में पानी आसानी से खोज सकता हूँ। ठीक है, मैं तुम्हारी मदद करूँगा। लेकिन बदले में, मुझे भी कुछ चाहिए।"
"क्या चाहिए, बेटा?" आत्माओं ने एक साथ पूछा।
आर्यवर्य ने शरारत से मुस्कुराते हुए कहा, "मेरे अगले सेमेस्टर के सारे क्वेश्चन पेपर्स।"
उसकी इस बात पर सभी आत्माएँ हँस पड़ीं। एक आत्मा, जो शायद कोई विद्वान रही होगी, ने पलक झपकते ही हवा से कागज का एक बंडल निकाला और आर्यवर्य के हाथ में रख दिया। उस पर उसके कॉलेज का नाम और अगले एग्जाम के सारे प्रश्न लिखे हुए थे।
आर्यवर्य यह देखकर हैरान रह गया। अब वह उनकी मदद करने के लिए पूरी तरह से तैयार और उत्साहित था। उसे बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था कि वह जिस खेल को रोमांचक समझ रहा है, वह असल में मौत का खेल है।