छोटे से गांव की कहानी है जिसमें एक अतरंगी गुरुजी है जो कि बच्चों को अलग-अलग तरीके से शिक्षा देकर भविष्य के लिए तैयार कर रहे हैं बच्चों को सही गलत समझना बता रहे हैं जो कि यह गवर्नमेंट स्कूल में है जहां बच्चे काम आते पढ़ने के लिए बच्चों का मन नहीं लगता... छोटे से गांव की कहानी है जिसमें एक अतरंगी गुरुजी है जो कि बच्चों को अलग-अलग तरीके से शिक्षा देकर भविष्य के लिए तैयार कर रहे हैं बच्चों को सही गलत समझना बता रहे हैं जो कि यह गवर्नमेंट स्कूल में है जहां बच्चे काम आते पढ़ने के लिए बच्चों का मन नहीं लगता पढ़ने के लिए वहां हमारे गुरुजी अतरंगी अतरंगी तरीके से बच्चों को जीवन का पाठ पढ़ा रहे हैं और इसके साथ-साथ वह गांव वालों को भी शिक्षा के प्रति उत्साहित करते हैं एक छोटे से गांव की छोटी सी कहानी जिसमें वह सारे बच्चे और गुरुजी जो रोज सीखेंगे नए-नए और अतरंगी किस और कहानी
Arjun
Hero
Page 1 of 1
स्थान: ग्राम हरिपुर का सरकारी प्राथमिक विद्यालय
समय: मार्च का पहला सप्ताह, परीक्षा से कुछ दिन पहले
हरिपुर गाँव के इस सरकारी विद्यालय में जहाँ एक तरफ टूटे हुए बेंच, छत से झूलते पंखे और दीवारों पर धुंधले पोस्टर लगे थे, वहीं एक व्यक्ति था जो इन दीवारों से कहीं ज़्यादा रोशनी फैलाता था — महेश गुरुजी।
महेश गुरुजी को लोग प्यार से "अतरंगी गुरुजी" कहते थे, क्योंकि वे पढ़ाने के अजब-गजब तरीके अपनाते थे। कभी बच्चों को खेतों में ले जाते, कभी मंदिर की सफाई करवाते, और कभी पूरा स्कूल मैदान में बिठाकर कहानी सुनाते। और उनके इस अतरंगी व्यवहार से बच्चों को भी बहुत कुछ सीखने को मिलता है ऐसा कुछ जो शायद बच्चे पढ़ कर ना सीख पाए पर उसको प्रेक्टिकल करके सीख सकते हैं और महेश गुरूजी के पढ़ने का तरीका ही इतना मस्त होता है कि बच्चों को क्या साथ पढ़ने में मजा आता है।
आज सोमवार था। मार्च की सुबह हल्की गरम और खुशनुमा थी। आरव, सिया, चिंटू, नेहा और कबीर – पाँचों बच्चे अपनी अपनी सीट पर बैठे थे। लड़कियों ने दो चोटी रिबन बंदे और लड़की भी बिल्कुल स्कूल यूनिफॉर्म पर वाइट शर्ट ब्लू पेंट टाई बेल्ट और जूते सब अपनी-अपने जगह पर बैठे थे ओर घंटी बज चुकी थी, लेकिन गुरुजी अभी तक नहीं आए थे। यह थोड़ी अजीब बात थी, क्योंकि गुरुजी कभी देर नहीं करते थे। गुरुजी हमेशा वक्त के पाबंद रहे हैं।
तभी दरवाज़ा खुला और महेश गुरुजी हाथ में कुछ पकड़े हुए भीतर आए। महेश गुरूजी एकदम सिंपल सादे इंसान व्हाइट शर्ट ब्लैक पेंट एक हाथ में घड़ी माथे पर कुमकुम का टीका और हाथ में पड़े कुछ किताबें आंखों पर चश्मा काली आंखें दिखाने में जितने सीधे दिखते हैं उतने ही समझदार और दिमाग के तेज हमारे महेश गुरूजी।
“बच्चो…” उन्होंने गंभीर आवाज़ में कहा, “आज एक बहुत ही अनोखी चीज़ तुम्हारे साथ साझा करनी है।”
सबके कान खड़े हो गए। सब सोचने लगे आज क्या गुरुजी मजेदार सिखाने वाले हैं।
गुरुजी ने धीरे से अपनी जेब से एक सौ रुपये का नोट निकाला और हवा में लहराते हुए बोले, सब जानते हो क्या
“ये क्या है?”
“नोट!” आरव ने सबसे पहले जवाब दिया।
“कितने रुपये का?” सिया ने पूछा।
“सौ रुपये का!” चिंटू चिल्लाया।
गुरुजी मुस्कराए, “ठीक है। अब ध्यान से देखो। और मुझे बताओ कि तुम्हें क्या दिख रहा है”
उन्होंने वह नोट सबको पास से दिखाया। नोट असली जैसा ही लग रहा था, लेकिन उसमें कुछ गड़बड़ थी – रंग थोड़ा हल्का था, गांधी जी की तस्वीर थोड़ी झुकी हुई थी, और नम्बरिंग की छपाई कुछ अलग।
“ये नोट नकली है।” गुरुजी बोले।
कक्षा में सन्नाटा छा गया। सब बच्चे विचार करने लगे यह क्या है यह क्या यह सच है ऐसा भी कुछ होता है हम बच्चों को क्या मालूम नकली और असली नोट भी होते हैं।
नेहा ने धीरे से पूछा, “गुरुजी, नकली नोट? आपके पास कैसे आया?”
गुरुजी ने मुस्कराते हुए कहा, “वही तो आज की कहानी है।”
साथ में तुम लोगों का इम्तिहान भी है और अब देखते हैं कौन-कौन इसमें सफल होता है तो तुम सब तैयार हो
“कल मैं बाजार गया था – किराने वाले शर्मा जी की दुकान पर। मैंने कुछ सामान लिया और जब भुगतान करने का समय आया, तो मैंने अपनी जेब से एक १०० रूपये का नोट निकाला और शर्मा जी को दिया।”
शर्मा जी :-
“उन्होंने कुछ देर नोट को देखा और मुस्करा दिए, लेकिन फिर कुछ गंभीर हो गए। उन्होंने नोट वापस मेरी तरफ़ बढ़ाया और कहा, ‘गुरुजी, ये नकली है।’ ” आप मुझे तक रहे हैं नकली नोट देखें आपसे यह उम्मीद नहीं थी।
बच्चे चौंक गए।
“फिर?” कबीर ने उत्सुकता से पूछा।
“मैंने नोट हाथ में लेकर गौर से देखा – और हाँ, वह नकली ही था। मगर मैंने कभी किसी से नकली नोट नहीं लिया था, फिर मेरे पास कैसे आया?” मैंने शर्मा जी को दूसरा नोट दिया और यह नोट अपने में जेब में रख लिया सच में यह नोट नकली है।
“क्या आपने पुलिस को बताया?” सिया ने पूछा।
“नहीं,” गुरुजी बोले, “मैंने सोचा, बच्चों को इस नोट की कहानी से एक बड़ा पाठ सिखाया जा सकता है – ईमानदारी का पाठ।”
तुम चलो आज हम लोग इस नोट की कहानी पड़ेंगे की कैसे यह नोट मेरे पास आया और कैसे हम नकली नोट से बच सकते हैं
पहले थोड़ा सा आप लोगों का ईमानदारी का टेस्ट ले लूं चलो चलते हैं एक अतरंगी सफर पर.......
गुरुजी ने बच्चों से कहा, “अब हम एक खेल खेलते हैं। मैं यह नकली नोट किसी एक बच्चे को देता हूँ, लेकिन यह गुप्त रूप से होगा। फिर हम चर्चा करेंगे – और जिसे मिला है, वह चाहे तो चुप रह सकता है या सच बोल सकता है।”
बच्चे थोड़ा सहमे, थोड़ा उत्साहित पीछे की चलो आज हमें कुछ और नया सीखने को मिलेगा गुरुजी जब भी कुछ नया लाते हैं तो मजा आता है कुछ नया भी सीखने को मिलता है।
गुरुजी ने अपनी आँखें बंद कीं, सब बच्चों को आँखें बंद करने को कहा, और धीरे से वह नोट एक छात्र की मेज के नीचे रख दिया।
फिर गुरुजी बोले, “अब सब आँखें खोलो। देखते हैं, क्या कोई खुद से बोलता है?”
आरव, सिया, चिंटू, नेहा, कबीर – सभी एक-दूसरे को देखने लगे। कोई कुछ नहीं बोला।
गुरुजी मुस्कराए, “अच्छा, एक सुराग दूँगा – जिसके पास है, अगर वह सच बोले, तो उसे ईमानदारी का इनाम मिलेगा। अगर नहीं बोलेगा, तो कल पूरा दिन स्कूल की सफाई करनी होगी।”
कुछ क्षण चुप्पी रही… फिर धीरे से नेहा ने हाथ उठाया।
“गुरुजी... शायद आपने नोट मेरी मेज के नीचे रखा है।”
गुरुजी मुस्कराए, “शायद?”
नेहा ने सिर झुकाया, “हाँ गुरुजी, नोट मेरी मेज के नीचे है। मैं झूठ नहीं बोल सकती।”
गुरुजी ने तालियाँ बजाईं, “शाबाश नेहा! यही होती है सच्ची ईमानदारी – जब डर के बावजूद इंसान सच बोलने का साहस करे।”
बाकी बच्चे नेहा की तरफ देखने लगे – कुछ प्रेरित, कुछ सोच में पड़े। अब आगे क्या होगा
---
(जारी है… अगले भाग में: गुरुजी ने नकली नोट को लेकर पूरे गाँव में एक प्रयोग किया — और एक चौंकाने वाली सच्चाई सामने आई!)
तैयार रहिए अगला पाठ पढ़ाने के लिए जो कि शायद कल आए...
नेहा के बाद गुरुजी ने सब बच्चों से कहा,
“बच्चों, क्या तुम जानते हो कि सिर्फ स्कूल ही नहीं, बल्कि पूरे समाज को ईमानदारी की ज़रूरत होती है?”
सबने सिर हिलाया।
“तो क्यों न हम इस नकली नोट का उपयोग करके पूरे गाँव में एक सच्चाई की परीक्षा करें?”
कबीर ने पूछा, “कैसे गुरुजी?”
गुरुजी बोले, “अब ध्यान दो। हम नकली नोट को एक प्रयोग के रूप में उपयोग करेंगे। मैं इसे गाँव की चार दुकानों पर दूँगा — लेकिन मैं पहले से दुकानदार को नहीं बताऊँगा कि यह नकली है। हम देखेंगे कौन दुकानदार ईमानदारी से इसे वापस करता है और कौन नहीं।”
सभी बच्चे चकित हो गए।
चिंटू थोड़े घबराए स्वर में बोला, “लेकिन गुरुजी, अगर पकड़े गए तो?”
गुरुजी मुस्कराए, “मैं अपनी पहचान छिपाकर जाऊँगा — जैसे एक आम ग्राहक। फिर तुम्हें पूरी रिपोर्ट दूँगा। यह हमारा समाजिक प्रयोग होगा — ताकि हम जान सकें कि गाँव में कितनी ईमानदारी बची है।”
🏪 पहला दुकानदार – रमेश किराना
अगले दिन गुरुजी साधारण कपड़ों में, बिना अपनी पहचान बताए, रमेश किराने की दुकान पर पहुँचे।
“भाई साहब, एक साबुन दीजिए,” गुरुजी बोले।
रमेश ने मुस्कराते हुए साबुन दिया। गुरुजी ने नकली सौ रुपये का नोट आगे बढ़ाया।
रमेश ने नोट देखा, हल्का सा सिकुड़ा, फिर बोला — “थोड़ा रुकिए…”
वह नोट को रौशनी में ले गया, गौर से देखा, फिर वापस लाकर गुरुजी को पकड़ाते हुए बोला,
“माफ़ कीजिए, यह नोट असली नहीं लगता।”
गुरुजी के चेहरे पर सच्ची मुस्कान फैल गई।
“आपने ठीक किया,” गुरुजी बोले और असली नोट देकर सामान लिया।
बाहर निकलते ही उन्होंने अपनी डायरी में लिखा —
रमेश किराना: ✅
🧃 दूसरा दुकानदार – सुरेश पान वाला
दोपहर को गुरुजी गाँव के कोने में पान की दुकान पर पहुँचे। वहाँ भीड़ कम थी।
“एक पान लगाइए, मीठा वाला,” गुरुजी बोले।
सुरेश पान बनाकर लाया। गुरुजी ने फिर वही नकली नोट बढ़ाया।
सुरेश ने नोट देखा, मुस्कराया, और बिना कुछ बोले नोट जेब में डाल लिया।
गुरुजी को झटका लगा। “भैया, ठीक तो है न?”
सुरेश बोला, “हाँ-हाँ... नया नोट है, छपाई अलग लग रही है।”
गुरुजी ने वहीं खड़े होकर कहा,
“अगर ये नकली है, तो आप क्या करेंगे?”
सुरेश थोड़ी देर चुप रहा, फिर बोला,
“अब तो ले लिया है... आगे देखा जाएगा।”
उसने उसे अपना नोट वापस मागा फिर
गुरुजी ने गहरी साँस ली और बिना कुछ कहे वहाँ से चल दिए।
डायरी में लिखा गया:
सुरेश पान वाला: ❌ फेल
📚 तीसरा दुकानदार – गीता दीदी की स्टेशनरी
गुरुजी अब गाँव की स्कूल के पास वाली दुकान पर पहुँचे — जहाँ गीता दीदी स्टेशनरी की छोटी दुकान चलाती थीं।
गुरुजी ने कहा, “एक पेंसिल और रबर दीजिए।”
गीता दीदी ने सामान दिया। गुरुजी ने नकली नोट थमाया।
गीता दीदी ने देखा, मुस्कराईं, फिर बोलीं,
“गुरुजी, यह नोट तो थोड़ा अजीब लग रहा है। आपने ध्यान नहीं दिया क्या?”
गुरुजी ने कहा, “क्या फर्क पड़ता है?”
गीता दीदी ने गंभीरता से कहा,
“ईमानदारी हर जगह ज़रूरी है, चाहे ग्राहक हो या दुकानदार।”
गुरुजी ने चुपचाप असली नोट दिया और मुस्कराते हुए बोले,
“आप पास हो गईं। मैं महेश गुरुजी हूँ — यह एक सामाजिक प्रयोग था।”
गीता दीदी थोड़ा शर्माईं लेकिन गर्व से मुस्कराईं भी।
डायरी में लिखा गया:
गीता स्टेशनरी: ✅ पास
🍪 चौथा दुकानदार – बबलू बेकरी
अंत में गुरुजी पहुँचे बबलू बेकरी पर — गाँव का सबसे नया स्टोर।
गुरुजी ने कहा, “एक ब्रेड दीजिए।”
बबलू ने ब्रेड दी, और गुरुजी ने नकली नोट बढ़ाया।
बबलू ने नोट को जल्दी से देखा और सामान थमा दिया।
गुरुजी ने पूछा, “आपने नोट को ठीक से नहीं देखा?”
बबलू ने हँसते हुए कहा,
“गाँव के लोग तो सब भरोसे के हैं, देखने की ज़रूरत क्या?”
गुरुजी थोड़ी देर चुप रहे। फिर बोले,
“लेकिन अगर मैं जानबूझकर आपको नकली नोट देता तो?”
बबलू थोड़ा घबराया,
“तो… तो? आप नकली दे रहे हैं क्या?”
गुरुजी ने गंभीर स्वर में कहा, “आपको हर लेन-देन में सावधानी और ईमानदारी दोनों बरतनी चाहिए।”
बबलू सिर झुकाकर बोला, “गलती हो गई गुरुजी।”
डायरी में लिखा गया:
बबलू बेकरी: ⚠️ चेतावनी
अगले दिन सुबह गुरुजी क्लास में एक बड़ी डायरी और एक नकली नोट के साथ आए।
“बच्चों,” उन्होंने कहा, “कल मैं गाँव के चार दुकानदारों के पास गया और उन्हें यह नकली नोट देने का प्रयास किया। अब मैं तुम्हें बताता हूँ क्या हुआ।”
बच्चे उत्सुकता से सुनने लगे।
गुरुजी ने बड़े ही रंगीन ढंग से पूरा घटनाक्रम सुनाया — कैसे रमेश किराना वाले ने नोट लौटा दिया, कैसे सुरेश पान वाला ले गया, गीता दीदी ने नोट पहचान लिया और बबलू बेकरी वाले ने लापरवाही की।
नेहा बोली, “गुरुजी, इसका मतलब गाँव में कुछ लोग ईमानदार हैं और कुछ नहीं?”
गुरुजी मुस्कराए, “हर इंसान में ईमानदारी होती है, लेकिन कई बार लालच, डर या आदतें उसे दबा देती हैं।”
🎨 एक नई गतिविधि – “ईमानदारी की दीवार”
गुरुजी ने कक्षा की एक दीवार पर सफेद पेपर चिपकाया और ऊपर लिखा –
“ईमानदारी की दीवार”
फिर बोले, “अब हर बच्चा एक घटना लिखे जब उसने ईमानदारी दिखाई हो — भले ही वह छोटी हो।”
बच्चों ने उत्साह से अपने-अपने अनुभव लिखे —
चिंटू ने लिखा कि उसने खोया हुआ रबर वापस किया।
सिया ने लिखा कि उसने गलती से अधिक मिली टॉफी दुकानदार को लौटा दी।
आरव ने लिखा कि उसने क्रिकेट खेलते समय गलत आउट देने पर विरोध नहीं किया।
गुरुजी ने दीवार पर सबके अनुभव चिपकाए और कहा,
“यह है सच्ची दीवार — ईंट-पत्थर नहीं, बल्कि हमारे कर्मों की दीवार।”
दिन के अंत में गुरुजी बोले, “अब मैं आज की सबसे सच्ची छात्रा को एक पुरस्कार देना चाहता हूँ।”
सबने नेहा की ओर देखा।
गुरुजी ने एक छोटा-सा लकड़ी का फ्रेम निकाला। उस पर लिखा था:
“सच्चाई की रौशनी वही है जो अंधेरे को चीरकर रास्ता दिखाए।”
नेहा की आँखें भर आईं। वह मुस्कराई और गुरुजी से पुरस्कार लिया।
गुरुजी बोले, “नेहा, तुमने न केवल सच बोला, बल्कि कक्षा के बाकी बच्चों को भी प्रेरित किया।”
बाकी बच्चों ने तालियाँ बजाईं।
---
🧠 सीख की चर्चा
गुरुजी ने बच्चों से पूछा, “अब बताओ — नकली नोट का सबसे बड़ा पाठ क्या था?”
सिया बोली, “कि ईमानदारी हर जगह ज़रूरी है, चाहे स्कूल हो या बाज़ार।”
कबीर ने कहा, “और यह कि हर काम में सोच-समझकर निर्णय लेना चाहिए।”
आरव ने कहा, “ईमानदारी डर से नहीं, भीतर की आवाज़ से आती है।”
गुरुजी ने सिर हिलाते हुए कहा,
“सही कहा। नकली नोट नकली पैसा नहीं, एक नकली परिस्थिति थी — जिसने असली चरित्र को उजागर किया।”
---
🔚 अध्याय का अंत — पर असली शुरुआत
गुरुजी ने अंत में कहा,
“इस विद्यालय में हम सिर्फ किताबों से नहीं, बल्कि ज़िंदगी से सीखते हैं। नकली नोट की तरह ज़िंदगी में कई मौके आएँगे जहाँ तुमसे ईमानदारी की अपेक्षा होगी — तब याद रखना आज का यह दिन।”
बच्चे एकदम शांत थे — जैसे आज वे कुछ गहरा समझ गए हों।
गुरुजी ने मुस्कराते हुए कहा,
“चलो अब... अगला पाठ कल। और याद रखना – सच्चा बनना सबसे बड़ा प्रमाण पत्र है जो कोई भी स्कूल नहीं दे सकता।”
---
📘 अध्याय 1 समाप्त
मुख्य सीख:
ईमानदारी डर से ऊपर होती है।
हर छोटी परिस्थिति में सच बोलना अभ्यास है, जो बड़े मौकों पर हमारी रक्षा करता है।
समाज में बदलाव की शुरुआत स्कूल से हो सकती है।
गर्मी की शुरुआत हो चुकी थी। आनंदपुर गाँव का सूरज कुछ ज्यादा ही तेज़ चमक रहा था। स्कूल की पीली दीवारें गर्म हवा से तप रही थीं। लेकिन एक चीज़ हमेशा इस गर्मी को ठंडी बनाती थी – महेश गुरुजी की कक्षा।
महेश गुरुजी आज थोड़ा अलग अंदाज़ में स्कूल पहुँचे। सिर पर सफेद साफ़ सिली हुई पगड़ी, बदन पर हल्की नारंगी धोती और आसमानी रंग का कुर्ता। उनकी आँखों में आज कोई गहरा विचार था, और चाल में वह पुरानी चंचलता थोड़ी कम थी – मानो वे किसी बड़े निर्णय की तैयारी कर चुके हों।
कक्षा शुरू होने से पहले ही बच्चों में कानाफूसी शुरू हो गई थी।
> “आज गुरुजी थोड़े गंभीर लग रहे हैं,”
“जरूर कुछ अतरंगी करने वाले हैं,”
“कहीं फिर से हमसे स्कूल साफ़ न करवाएँ…”
बच्चों का समूह – आरव, सिया, चिंटू, नेहा और कबीर – हमेशा सबसे पहले पहुँचा करता था। उनके अलावा आज की विशेष उपस्थिति में थे:
गुड्डू यादव – हरि यादव का भतीजा, जो हर काम में आगे रहता था लेकिन पढ़ाई से दूर।
बबली चौधरी – चौधरी साहब की बेटी, सुंदर और स्वाभिमानी, पढ़ाई में तेज़ लेकिन खेत से दूर।
राजा हलवाई – मिठाई की दुकान में काम करता, गरीब लेकिन मज़दूरी में निपुण।
मोहन सेन – हाल ही में शहर से लौटा लड़का, जो बात कम करता और किताबें ज़्यादा पढ़ता था।
गुरुजी ने जैसे ही प्रार्थना खत्म होने के बाद मंच पर चढ़कर बोलना शुरू किया, सब शांत हो गए।
“बच्चों,” उन्होंने धीरे से कहा, “कभी सोचा है कि किताबों से ज़्यादा ज़िंदगी किससे सिखाती है?”
सबने एक-दूसरे की ओर देखा।
“मिट्टी से,” गुरुजी ने उत्तर दिया, “जो हमें अन्न देती है, जो हमें कड़ा बनाती है, और जो हमें विनम्र बनाती है।”
बच्चे अभी भी कुछ समझ नहीं पा रहे थे।
गुरुजी बोले, “इस बार की शिक्षा खेत में दी जाएगी। अगले दस दिन तक हमारी कक्षा होगी – हरि यादव के खेत मे
आरव ने फुसफुसाया, “ये तो मज़दूरी है, पढ़ाई कहाँ है इसमें?”
चिंटू हँसा, “गुरुजी तो अब हल भी चलवाएँगे लगता है।”
सिया गंभीर हो गई, “अगर गुरुजी कह रहे हैं तो सीख ज़रूर छिपी होगी।”
नेहा थोड़ी सहम गई, “मैंने कभी खेत में कदम भी नहीं रखा।”
कबीर शांत था, उसकी आँखों में सवाल नहीं – स्वीकृति
गुरुजी ने बच्चों को खेत की लोकेशन बताई – “हरि यादव का खेत – जो भोंसलेपारा और बंजारा बस्ती के बीच है।”
बबली ने अचानक मुँह बनाया, “गुरुजी! मैं वहाँ कैसे जाऊँ? वो तो… गंदी बस्ती के पास है।”
राजा का चेहरा सख्त हो गया, लेकिन उसने कुछ नहीं कहा।
गुरुजी ने कहा कुछ नहीं, बस बबली को एक क्षण देखा। फिर बोले, “मिट्टी सबकी एक होती है, चाहे उसके ऊपर चौधरी चले या मजदूर।”
गुरुजी ने सबको अगले दिन सुबह 6 बजे तक स्कूल बुलाया, पुराने कपड़ों और एक पानी की बोतल के साथ।
""तैयार रहना – ये कक्षा सिर्फ शरीर की नहीं, मन की परीक्षा भी होगी।”
बच्चों के घरों की हलचल शुरू हो चुकी थी।
आरव के पिता ने उसे टोका, “क्या स्कूल अब खेत बन गया है?”
सिया की माँ ने उसका गमछा बाँधा, “बेटी, ध्यान रखना मिट्टी से डरना नहीं।”
चिंटू की अम्मा ने कहा, “आज पहली बार तुझे पसीना बहाते देखेंगे।”
बबली को तो चौधरी साहब ने मना ही कर दिया था, “तू उन मजदूरों के साथ क्यों जाएगी?” लेकिन बबली ने जिद पकड़ ली – शायद गुरुजी की नज़रों का असर था।
कबीर ने अपने भाई की पुरानी जीन्स और टीशर्ट पहन ली – तैयार था, पूरे मन से।
गुरुजी खेत तक बच्चों के साथ पैदल चलकर पहुँचे। रास्ते में पेड़, कंकड़, बैलगाड़ी, और सूरज की धीमी किरणें बच्चों के मन में एक नई कक्षा का दृश्य उकेर रही थीं।
गुरुजी ने चलते-चलते एक बात कही, जो हर बच्चे के दिल में उतर गई:
“जब तुम किताब पढ़ते हो तो शब्दों को समझते हो… लेकिन जब मिट्टी में काम करते हो, तो खुद को समझते हो।"
गुरुजी ने सबको पंक्ति में चलने को कहा। सफर था लगभग दो किलोमीटर का – स्कूल से हरि यादव के खेत तक।
रास्ते में कई दृश्य बच्चों के लिए नए थे। आरव पहली बार इतना लंबा पैदल चला था।
“गाड़ी नहीं है क्या?” उसने फुसफुसाया।
सिया ने झिड़का, “गाड़ी से खेत नहीं, ज़िंदगी नहीं समझ आती।”
मोहन धीरे-धीरे चलते हुए पेड़ों के नाम बता रहा था – “ये बबूल है… ये नीम… वो पलाश।”
राजा हलवाई सबसे आगे चल रहा था – उसकी चाल में आत्मविश्वास था। शायद वह इस धरती को पहले से जानता था।
बबली थोड़ा पीछे थी, हर कदम सोच-समझकर रख रही थी – कीचड़ से डरते हुए।
गुरुजी ने बीच में रुककर कहा:
> “ध्यान से देखो – रास्ते में जो धूल है, वही मिट्टी बाद में भोजन बनती है।”
-
हरि यादव पहले से वहाँ मौजूद थे। लंबा गठीला शरीर, सिर पर गमछा, और चेहरा तेज़ धूप से झुलसा हुआ – लेकिन आँखों में अपनापन।
> “राम-राम, महेश भैया! देखो आज खेत में कितने फूल आए हैं।”
बच्चे धीरे-धीरे खेत में घुसे – चारों तरफ हरियाली, बीच-बीच में सूखी मिट्टी, कहीं-कहीं गड्ढे और एक किनारे बैल बाँधे गए थे।
गुरुजी ने बच्चों को गोल घेरा बनाने को कहा। सब बैठ गए।
नमन भूमि। इस धरती को प्रणाम करो जो तुम्हें खाना देती है। आज से अगले दस दिन तक यही तुम्हारी माँ है, यही गुरु।”
बच्चों ने झुककर मिट्टी को छुआ। कुछ के मन में श्रद्धा थी, कुछ में संशय।
गुरुजी ने हाथ में एक झाड़ू उठाई और कहा:
> “आज का पहला कार्य – खेत के कोनों से पन्नी, पत्थर, और कूड़ा-कचरा हटाना।”
बच्चों को झटका लगा।
> “ये क्या पढ़ाई है?” चिंटू ने कान में कहा।
> “गुरुजी झाड़ू पकड़ा रहे हैं?” आरव ने मुँह बनाया।
राजा हलवाई ने झुककर सबसे पहले एक टूटी बाल्टी उठाई और एक थैली में रख दी।
कबीर ने बिना कुछ बोले पन्नियाँ इकट्ठा करना शुरू किया।
बबली खड़ी रही, उसकी आँखें इधर-उधर घूमती रहीं।
गुरुजी धीरे-धीरे उसकी ओर आए और बोले:
> “जब खेत साफ़ होता है, तभी उसमें अनाज उपजता है। जब मन साफ़ होता है, तभी ज्ञान आता है।”
यह सुनते ही बबली झुकी और झाड़ू उठा ली।
एक कोना था जहाँ पानी रुक जाता था – वही खेत का छोटा नाला था। वहाँ घास, कीचड़ और काई जमा हो चुकी थी।
गुरुजी ने समझाया, “यदि पानी का रास्ता साफ़ नहीं होगा तो खेत सूख जाएगा।”
सिया, नेहा और मोहन ने मिलकर कीचड़ निकालना शुरू किया। शुरू में सिया को उबकाई आई, लेकिन फिर कबीर ने उसका हाथ थामा और दोनों ने साथ मिलकर काम पूरा किया।
आरव ने पहले मुँह बनाया, लेकिन फिर हरि यादव की एक बात ने उसे छू लिया:
“बेटा, तेरा जूता गंदा नहीं होगा, तो दिल कैसे साफ़ होगा?”
दस बजे तक सूरज तेज हो चुका था। बच्चों के चेहरे पसीने से भीग चुके थे। गुरुजी ने सबको एक पेड़ की छाँव में बुलाया।
सभी ने अपनी-अपनी पानी की बोतलें निकालीं। कुछ ने रोटियाँ लाईं थीं, कुछ ने नहीं।
राजा हलवाई ने अपना छोटा डब्बा खोला – उसमें गुड़ और मोटी रोटी थी।
> “गुरुजी, बच्चों में बाँट दूँ?” उसने मुस्कराकर पूछा।
गुरुजी ने सिर हिलाया।
राजा ने बबली की ओर देखा और रोटी की एक टुकड़ी उसकी ओर बढ़ाई।
बबली ने थोड़ी झिझक के बाद ले ली – शायद आज उसके संस्कार मिट्टी से भिड़ रहे थे।
भोजन के बाद, गुरुजी ने सबको ध्यान से बैठाया और बोले:
> “आज तुमने मेहनत की, पसीना बहाया – अब बताओ, क्या समझा इस पहले दिन से?”
सिया ने कहा, “धरती को साफ़ रखना ज़रूरी है – जैसे मन को।”
मोहन ने कहा, “मिट्टी के बिना जीवन नहीं – और उसे समझे बिना पढ़ाई अधूरी है।”
आरव चुप था। पहली बार, उसे शब्द नहीं मिले।
नेहा ने धीरे से कहा, “गुरुजी, मुझे लगा था मैं खेत में नहीं टिक पाऊँगी। लेकिन मैं कर सकी। शायद मैं खुद को कम समझती थी।”
बबली ने कुछ नहीं कहा – बस गुरुजी की ओर देखा। गुरुजी ने उसकी आँखों में संतोष देखा – और पश्चाताप भी।
गुरुजी ने सभी को खड़ा किया।
> “आज का पाठ खत्म नहीं, शुरू हुआ है। जो मिट्टी से जुड़ता है, वही जीवन को समझता है।”
“कल की कक्षा में – हल चलाना और बीज बोना। लेकिन उससे पहले – मन का हल चलाना ज़रूरी है।”
बच्चे लौटते समय शांत थे – कोई कानाफूसी नहीं, कोई हँसी नहीं। सबकी आँखों में एक नए अनुभव की छाया थी।
पहला दिन कठिन था, लेकिन शिक्षाप्रद। यह सिर्फ खेत की मिट्टी से नहीं, उनके भीतर की ज़मीन से भी जुड़ाव की शुरुआत थी। और यही महेश गुरुजी का मकसद था – बच्चों को किताबों से नहीं, जीवन से जोड़ना।
कक्षा का दूसरा दिन खेत में
गुरुजी ने सबको कार्य बाँटा –
आरव और राजा को नहर से पानी खींचने का काम
सिया और नेहा को खेत की मेंड़ पर झाड़ियाँ साफ़ करने का
चिंटू को हल के पीछे बैल चलाने वाले चाचा की मदद करने का
कबीर को खाद छँटाई में हाथ बँटाने का
और बबली को मिट्टी की नमी नापने और बीज छाँटने का
बबली ने मुँह बनाया – “मैं बीज कैसे पहचानूँगी?”
राजा ने धीरे से कहा – “अगर तुम सीखना चाहो तो दिखा सकता हूँ।”
बबली ने पहली बार राजा की ओर देखा – और हामी भर दी।
गुड्डू यादव अब तक नहीं आया था। गुरुजी ने बस एक बार आकाश की ओर देखा और बोले –
“जो शिक्षा को नहीं चुनता, शिक्षा भी उसे नहीं चुनती।”
पंद्रह मिनट के अंदर बच्चों की हालत देखने लायक थी।
आरव ने एक बाल्टी पानी में गिरा दी – और खुद भी लगभग नहर में गिर पड़ा।
सिया के हाथ में काँटों की खरोंच लग गई थी, वो रोने के करीब थी।
नेहा ने पहली बार ज़ोर से कहा – “मुझे वापस जाना है!”
चिंटू तो हल देखते ही पीछे भागा – “ये बैल मुझे देख कर हँस रहे हैं!”
बबली के हाथ मिट्टी से सने हुए थे – लेकिन उसने शिकायत नहीं की। उसने एक बीज उठाया और राजा से पूछा – “ये कौन-सा है?”
राजा ने मुस्कुराकर कहा – “मक्का।”
कबीर शांत था – वो धीरे-धीरे खाद को बराबर फैला रहा था। उसके हाथों में स्थिरता थी, आँखों में ध्यान।
दोपहर तक गर्मी अपने चरम पर थी।
गुरुजी ने सबको वापस पेड़ के नीचे बुलाया। सब थके हुए, पसीने से तर-बतर और थोड़ा-थोड़ा चिढ़े हुए थे।
आरव बोला – “गुरुजी, ये पढ़ाई नहीं है। ये मेहनत है।”
चिंटू ने कहा – “हम तो मज़दूर बन गए!”
सिया चुप थी, लेकिन उसके चेहरे पर थकावट थी।
गुरुजी ने सबकी बात सुनी – और फिर कहा:
> “तुमने आज क्या सीखा?”
बच्चे चुप। सब सोचने लगे।
गुरुजी ने कहा,
“आरव – जब बाल्टी गिराई, तब क्या सीखा?”
“ध्यान नहीं दिया… तो हाथ फिसल गया।”
“यही – जब ध्यान नहीं होता, तो काम बिगड़ता है।”
चिंटू – बैल ने तुझे क्यों नहीं माना?”
“क्योंकि मैं डरा हुआ था…”
“काम और डर एक साथ नहीं चलते। खेत को हिम्मत चाहिए।”
गुरुजी ने एक-एक से बात की। सबकी थकावट कुछ कम होने लगी – क्योंकि उन्हें लगने लगा कि थकान के पीछे कोई बात है।
गुरुजी ने मिट्टी का एक ढेला उठाया और कहा:
> “बच्चों, ये मिट्टी केवल अनाज नहीं देती – ये इंसान को बना भी देती है। जो झुकता है, वही बोता है। जो बोता है, वही काटता है।”
फिर उन्होंने बबली की ओर देखा – “तुमने आज क्या सीखा?”
बबली ने धीरे से कहा – “बीज पहचानना… और यह कि मिट्टी गंदी नहीं होती।”
राजा के चेहरे पर एक शांत मुस्कान थी।
खेत से निकलने के समय, सिया चलते-चलते लड़खड़ा गई – पाँव में काँटा चुभ गया था। बबली झुकी, अपने रुमाल से उसका पाँव बाँधने लगी।
सिया ने धीरे से कहा – “तुम्हें ये करने की ज़रूरत नहीं…”
बबली ने कहा – “शायद है… मिट्टी सबकी होती है ना?”
कुछ भारी, कुछ हल्की
बच्चे खेत से लौटे – कुछ के हाथों में फफोले थे, कुछ के मन में उलझन, लेकिन आँखों में सोच थी।
गुरुजी सबसे पीछे चल रहे थे – और कह रहे थे:
“आज का पाठ खत्म नहीं हुआ है… ये तो शुरुआत थी।”
"खामोशी और हल"
सुबह की हवा आज थोड़ी ठंडी थी। रात में गाँव में हल्की फुहार पड़ी थी, जिससे खेत की मिट्टी नर्म हो गई थी और पेड़ों के पत्तों पर ओस की बूंदें चमक रही थीं। महेश गुरुजी हमेशा की तरह समय से पहले खेत पहुँच गए थे। आज भी उन्होंने साधारण कपड़े और गले में गमछा डाला हुआ था। साथ में पानी की बोतल और कुछ खाने का समान।
उन्होंने मिट्टी की महक गहरी सांस में भरी, मानो अपने बचपन की याद ताज़ा कर रहे हों।
बच्चे एक-एक करके आने लगे – कुछ अब भी सुस्त चेहरे लिए, कुछ पिछली दिन की थकान भूलकर उत्सुक। बबली अपने सिर पर दुपट्टा बाँधे, हाथ में एक कपड़े का छोटा थैला लेकर आई।
राजा शादी के सफेद शर्ट ब्लैक पेंट हाफ और गले में दुपट्टा लिया हुआ था राज ने आते ही मिट्टी में अपने पाँव गाड़कर देखा, फिर मुस्कुराया – शायद उसे आज का दिन अच्छा लगने वाला था।
गुरुजी ने सबको एक जगह इकट्ठा किया और कहा –
“आज खेत की खामोशी में सीखना है। कोई ऊँची आवाज़ नहीं, कोई बेकार की बात नहीं। बस सुनना, देखना और महसूस करना।”
चिंटू ने तुरंत फुसफुसाकर नेहा से कहा – “मतलब हमें बात करने की सजा मिली है।”
गुरुजी ने बिना उनकी ओर देखे कहा – “चिंटू, खामोशी सजा नहीं, ताकत है। आज पता चल जाएगा।”
तीसरे दिन की योजना
आरव और राजा – हल चलाना सीखेंगे। बैलों के साथ चलना, मिट्टी को पलटना।
सिया और बबली – नर्म मिट्टी में सीधी कतारें खींचकर बीज बोना।
कबीर और नेहा – पानी का बहाव नियंत्रित करना, छोटी-छोटी नालियों में पानी छोड़ना और रोकना।
चिंटू – गुरुजी के साथ रहकर खेत के एक कोने में लगी नई फसल की जाँच करना।
बैलों के गले में बँधी घंटियों की धीमी-धीमी आवाज़ फैलने लगी। आरव पहले तो डर रहा था, लेकिन राजा ने उसका कंधा थपथपाकर कहा – “पकड़ रस्सी को, डरो मत। बैल तुझे गिरा नहीं देंगे।”
आरव ने हिम्मत करके रस्सी पकड़ी, लेकिन हल की लोहे की नोक जैसे ही मिट्टी में धँसी, उसके हाथों में झटके लगे। राजा ने कदम की चाल समझाई – “हल के साथ चलना होता है, उसके खिलाफ नहीं।” तुम उन्हें दिशा दिखाओ और वह चलते जाएंगे उनके खिलाफ मत चलो उनके साथ चलो काम जल्दी होगा और सही से होगा।
दूसरी तरफ, बबली और सिया ने एक लंबी लकड़ी से मिट्टी में सीधी लकीरें खींचनी शुरू कीं। पहले-पहल उनकी लकीरें टेढ़ी-मेढ़ी बनती रहीं, उनको थोड़ी परेशानी हो रही थी सीधी लकीर खींचने में लेकिन धीरे-धीरे दोनों का तालमेल बैठने लगा। बबली ने एक बीज उठाकर सिया को दिखाया – “ये गेहूँ का है, देख… नुकीला होता है।”
कल मक्का बोला था और आज गेहूं क्या बात है। अलग-अलग बीज देखने को मिल रहे हैं। पहले तो कभी हमने प्लीज देख ही नहीं।
सिया ने मुस्कुराकर सिर हिलाया – कल का काँटा और दर्द शायद अब दोस्ती में बदल रहा था।
कबीर और नेहा पानी की नालियों में झुककर काम कर रहे थे। नेहा को बार-बार डर लगता कि पानी कहीं बहकर खेत से बाहर न निकल जाए। धीरे-धीरे पानी डाल रही थी।
कबीर ने कहा – “पानी को बहने दो, लेकिन जहाँ रुकना है, वहाँ मिट्टी का छोटा बाँध बना दो। जैसे किसी बच्चे को खेलने दो, लेकिन गिरने न दो।”
नेहा ने पहली बार कबीर की बात ध्यान से सुनी – उसमें एक अजीब-सी शांति थी। उसे समझ में आया कि काम कैसे करना है
कुछ देर बाद खेत में बस मिट्टी की खर्र-खर्र, बैलों की सांस, पानी की छल-छल और बीज गिरने की हल्की आवाज़ें थीं। बच्चों के चेहरे पसीने से भीग रहे थे, लेकिन आज शोर नहीं था – बस ध्यान था।
गुरुजी ने खेत के एक छोर से दूसरे छोर तक जाते हुए सबका काम देखा। उन्होंने किसी को टोका नहीं, बस समय-समय पर हल्के इशारे से मार्गदर्शन किया। कहीं किसी को समझ में नहीं आया तो उनको समझते हुए चले जा रहे थे।
चिंटू आज ज्यादा बातें नहीं कर रहा था। वह गुरुजी के साथ नए पौधों की पत्तियाँ देख रहा था – कौन-सा पौधा स्वस्थ है, कौन-सा पीला पड़ रहा है। गुरुजी ने उससे कहा – “हर पत्ता अपनी कहानी कहता है, बस सुनने वाला चाहिए।”
दोपहर के करीब, हल्की हवा चलने लगी। गुरुजी ने हाथ उठाकर सबको बुलाया। बच्चे थके जरूर थे, लेकिन चेहरों पर आज अलग-सी चमक थी। सभी बच्चों ने दोपहर में खाना खाया थोड़ी देर आराम किया फिर
उन्होंने कहा –
“आज तुमने महसूस किया कि बिना बोले भी बहुत कुछ कहा जा सकता है। खेत की खामोशी में जो बातें सुनाई देती हैं, वे किताबों में नहीं मिलतीं।”
फिर उन्होंने आरव से पूछा – “हल चलाने में सबसे मुश्किल क्या था?”
आरव ने कहा – “शुरू में लगता था बैल मुझे खींच लेंगे, लेकिन फिर समझ आया कि अगर मैं उनके साथ चलूँ, तो आसान है।”
गुरुजी ने कहा – “ज़िंदगी भी ऐसे ही है, अगर उसके साथ चलो, तो वो तुम्हें गिराएगी नहीं।”
सिया और बबली ने बीज बोने के बारे में बताया। बबली ने कहा – “बीज बहुत छोटे हैं, लेकिन उनमें पूरा खेत छुपा है।”
गुरुजी मुस्कुराए – “और इंसान भी ऐसे ही हैं – छोटे दिखते हैं, लेकिन भीतर अनंत संभावना है।”
नेहा ने कबीर की बात दोहराई – “पानी को बहने देना है, लेकिन बेकाबू नहीं होने देना।”
गुरुजी ने सिर हिलाया – “यही जीवन का संतुलन है।”
खेत से लौटते वक्त आज बच्चों ने थकान की शिकायत नहीं की। वे धीरे-धीरे बातें कर रहे थे, कोई मिट्टी के ढेले उछाल रहा था, कोई बीज की थैली देख रहा था। सब खुश थे अपने-अपने काम से की और उन्होंने धीरे-धीरे अच्छा काम किया किसी भी काम में जलवा जी करो तो वह काम खराब हो जाता है कहीं नई दोस्ती बन रही थी तो कहीं दिलों में जो काटे थे वह निकल रहे थे अब देखते हैं आगे क्या होता है
गुरुजी सबसे पीछे चलते हुए मन में सोच रहे थे – अब बीज अंकुरित होने का समय है – मिट्टी में भी और इन बच्चों में भी।
प्लीज डू लाइक और शेयर
सुबह का आसमान हल्के सुनहरे रंग में रंगा था। रात भर हवा थोड़ी ठंडी रही, लेकिन आसमान में बादल नहीं थे – इसका मतलब था कि आज धूप तेज़ होगी। गाँव की गलियों से बच्चों की हल्की-हल्की बातें और हँसी की आवाज़ें आ रही थीं।
महेश गुरुजी हमेशा की तरह समय से पहले खेत पहुँच गए थे। उन्होंने पानी की छोटी-सी बाल्टी से अपने हाथ-मुँह धोए, मिट्टी की एक मुट्ठी उठाकर सूंघी और मन ही मन सोचा – "आज धैर्य सिखाना है।"
धीरे-धीरे बच्चे आने लगे। आज सबके चेहरे पर हल्की मुस्कान थी, शायद कल की "खामोशी की कक्षा" ने भीतर कुछ बदल दिया था।
राजा सबसे पहले आया, हाथ में एक छोटा गीला कपड़ा लिए – “गुरुजी, आज बैलों की आँखें साफ करूँगा। कल देखा था, उनमें धूल चली जाती है।”
गुरुजी ने सिर हिलाकर कहा – “अच्छा है, जब हम किसी के साथ काम करते हैं तो उसकी देखभाल करना भी हमारी जिम्मेदारी है।”
बबली, सिया और नेहा साथ-साथ आईं, लेकिन आज तीनों के हाथों में कपड़े के छोटे-छोटे पोटलियाँ थीं। सिया ने कहा – “गुरुजी, माँ ने कहा था कि खेत में जाते हो तो अपने लिए भी थोड़ी गुड़-चना ले जाओ। काम करते वक्त ताकत रहेगी।”
चिंटू हमेशा की तरह सबसे आखिर में आया, लेकिन इस बार वह खाली हाथ नहीं था। उसकी जेब से एक छोटा सा हरा पत्ता झाँक रहा था।
गुरुजी ने पूछा – “ये क्या है?”
चिंटू ने मुस्कुराकर कहा – “कल आपने कहा था कि हर पत्ता कहानी कहता है, तो ये पत्ता मेरे घर के सामने के पेड़ का है… मैं चाहता हूँ कि आज इसे खेत में लगाएँ।”
गुरुजी ने पत्ता हाथ में लेकर देखा – “ठीक है, लेकिन धैर्य रखना पड़ेगा। पेड़ रातों-रात नहीं उगते।”
आज का काम बाँटना
गुरुजी ने बच्चों को इकठ्ठा कर कहा –
“आज हम एक ही चीज़ सीखेंगे – धैर्य। काम छोटा हो या बड़ा, बिना जल्दी किए, ध्यान से करना है। जो जल्दबाज़ी करेगा, उसका काम बिगड़ जाएगा।”
आरव और राजा – बैलों के साथ खेत के ऊबड़-खाबड़ हिस्से को सीधा करना।
सिया और बबली – कल बोए गए बीज पर हल्की मिट्टी डालना, ताकि चिड़ियाँ उन्हें न खा जाएँ।
कबीर और नेहा – पानी की नालियों में टूटे हिस्से ठीक करना।
चिंटू – गुरुजी के साथ खेत के किनारे एक छोटी जगह तैयार करना, जहाँ नया पौधा लगाया जाएगा।
काम मिलाने के बाद सब आपने आप्न्र काम पर लग गए।
राजा और आरव बैलों को लेकर खेत के उस हिस्से में पहुँचे जहाँ कल हल सही से नहीं चल पाया था। मिट्टी थोड़ी सख्त थी, बैलों को खींचने में मुश्किल हो रही थी।
आरव ने कहा – “राजा, ये तो बहुत टाइम लेगा।”
राजा ने शांत स्वर में कहा – “गुरुजी ने कहा था न… धैर्य। एक-एक कदम चलेंगे, तो काम पूरा हो जाएगा।”
आरव ने गहरी सांस ली और बैलों की चाल के साथ खुद को मिलाया। धीरे-धीरे दोनों की लय बन गई।
सिया और बबली अपने काम में लगी थीं। उन्हें बस बीज पर हल्की मिट्टी डालनी थी, लेकिन ये काम जितना आसान दिखता था, उतना था नहीं। मिट्टी कम डालो तो चिड़ियाँ बीज निकाल लें, ज़्यादा डालो तो अंकुर फूट नहीं पाएगा।
बबली ने मिट्टी डालते हुए कहा – “ये तो जैसे किसी बच्चे को रजाई ओढ़ाना है… ज्यादा ओढ़ाओगे तो घुट जाएगा, कम ओढ़ाओगे तो ठंड लग जाएगी।”
सिया हँस पड़ी – “तुम तो बहुत समझदार हो गई हो।”
गुरुजी पास से गुज़रे और बोले – “देखा, यही है काम में समझ। हर चीज़ का सही माप, सही समय।”
कबीर और नेहा की जिम्मेदारी पानी की नालियों की मरम्मत थी। बीच-बीच में मिट्टी बह जाती थी, जिससे पानी गलत दिशा में चला जाता था।
नेहा ने एक जगह मिट्टी डालकर उसे हाथ से दबाया, लेकिन पानी का बहाव इतना तेज़ था कि मिट्टी टूट गई।
कबीर ने कहा – “पहले बहाव को थोड़ी देर रोक दो, फिर मिट्टी डालो। वरना जितना डालोगी, उतना बह जाएगा।”
नेहा ने कबीर की सलाह मानी और इस बार मिट्टी मजबूती से बैठ गई।
दूसरी तरफ, चिंटू और गुरुजी खेत के किनारे छोटे-से गड्ढे खोद रहे थे।
गुरुजी ने कहा – “देख चिंटू, ये पत्ता अभी सिर्फ एक हिस्सा है पौधे का। हमें इसके लिए मिट्टी तैयार करनी होगी, नमी देनी होगी, और फिर इंतज़ार करना होगा।”
चिंटू ने थोड़ा नाक सिकोड़ते हुए कहा – “मतलब कल ही बड़ा पेड़ नहीं बनेगा?”
गुरुजी ने मुस्कुराकर कहा – “अगर कल ही पेड़ बन जाए, तो उसमें मेहनत की कीमत कहाँ रहेगी?”
चिंटू ने सिर हिलाया और ध्यान से पौधा लगाया। उसने मिट्टी को अपने हाथों से दबाया और पानी दिया।
दोपहर तक धूप तेज़ हो गई थी। बच्चे पसीने से भीग गए थे, लेकिन आज किसी ने शिकायत नहीं की।
राजा और आरव ने खेत का ऊबड़-खाबड़ हिस्सा समतल कर दिया था। सिया और बबली ने सभी बीजों को मिट्टी से ढक दिया था। कबीर और नेहा की बनाई नालियों से पानी एकदम संतुलित बह रहा था।
गुरुजी ने सबको पेड़ की छाँव में बुलाया। बच्चों ने अपने-अपने पोटलियों से गुड़-चना निकाला और आपस में बाँटा।
गुरुजी ने कहा – “तो, आज क्या सीखा?”
आरव ने कहा – “काम कितना भी मुश्किल हो, अगर धैर्य रखो तो पूरा हो जाता है।”
बबली ने जोड़ा – “और हर चीज़ का सही माप होना चाहिए।”
नेहा ने कहा – “पहले हालात को समझो, फिर काम करो।”
चिंटू ने पौधे की ओर इशारा करके कहा – “बड़ा बनने में टाइम लगता है, लेकिन अगर सही से देखभाल करो, तो ज़रूर बड़ा होता है।”
गुरुजी ने संतुष्टि से सिर हिलाया – “ये बातें खेत की किताब में नहीं लिखी, लेकिन ज़िंदगी की किताब में ज़रूर लिखी हैं।”
शाम होते-होते खेत सुनहरा हो गया था। बैल अपनी-अपनी रस्सियों में बंध गए थे, पानी की आवाज़ धीरे-धीरे कम हो गई थी। बच्चे धीरे-धीरे गाँव की तरफ लौट रहे थे।
आज किसी के कपड़े कीचड़ से भरे थे, किसी के हाथों पर मिट्टी की परत थी, लेकिन चेहरों पर एक ही चीज़ थी – संतोष।
गुरुजी सबसे पीछे चलते हुए सोच रहे थे – “धैर्य का बीज भी आज बो दिया… अब देखना है कब अंकुर फूटता है।”
सुबह की हवा में आज एक अलग-सी नमी थी। रात में हल्की फुहार पड़ी थी, जिससे मिट्टी की महक और भी गहरी हो गई थी।
गाँव की गलियों में मुर्गे की बांग और गायों की घंटियों की आवाज़ें गूंज रही थीं।
महेश गुरुजी हमेशा की तरह समय से पहले खेत पहुँचे। आज उनके चेहरे पर हल्की-सी चमक थी।
उन्होंने खेत में नज़र दौड़ाई — जहाँ कल तक सिर्फ मिट्टी का रंग था, वहाँ अब-तब छोटी-छोटी हरी रेखाएँ दिखाई दे रही थीं।
ये वही बीज थे जिन्हें बच्चों ने पिछले दिनों अपने हाथों से बोया था।
राजा और आरव सबसे पहले आए।
राजा ने खेत के किनारे खड़े होकर अचानक उँगली से इशारा किया – “देखो… ये!”
आरव ने झुककर देखा — मिट्टी को चीरकर एक नन्हा हरा अंकुर बाहर झाँक रहा था।
आरव की आँखें चमक उठीं – “ये तो जैसे कोई बच्चा चादर से बाहर झाँक रहा हो।”
दोनों बहुत खुश हो रहे थे
थोड़ी देर में सिया, बबली, नेहा और कबीर भी पहुँच गए।
बबली ने लगभग दौड़ते हुए कहा – “गुरुजी! अंकुर… अंकुर निकल आए हैं!”
नेहा घुटनों के बल बैठ गई और हल्के हाथ से मिट्टी छूकर बोली – “इतने नाजुक हैं… डर लगता है कहीं टूट न जाएँ।”
चिंटू सबसे आखिर में आया, लेकिन जैसे ही उसने अपना लगाया हुआ पौधा देखा, उसकी आँखें गोल हो गईं –
“गुरुजी! इसमें नई पत्तियाँ आ रही हैं!”
अच्छी उत्साहित हो गए थे कि उनकी मेहनत सफल होती दिख रही है तो
गुरुजी मुस्कुराए – “यही तो है मेहनत का इनाम। लेकिन याद रखो, इन्हें बड़ा होने में अभी समय लगेगा।”
आज का काम – देखभाल और सुरक्षा।
गुरुजी ने बच्चों को इकट्ठा किया और कहा –
“आज हमारा काम खेत को संभालना है, कोई नई बुआई नहीं।
अंकुर छोटे हैं, नाजुक हैं, और इन्हें हमारी सुरक्षा चाहिए।”
आरव और राजा – खेत के चारों ओर बाँस और रस्सी का छोटा-सा घेरा बनाना, ताकि जानवर अंदर न आएँ।
सिया और बबली – अंकुरों के आसपास की मिट्टी को हल्के से ढीला करना, ताकि पानी आसानी से पहुँचे।
कबीर और नेहा – पानी का सही बहाव बनाना, ताकि ज़्यादा या कम पानी से पौधे खराब न हों।
चिंटू – गुरुजी के साथ पौधों पर पड़ने वाली छाया और धूप का संतुलन देखना।
राजा और आरव की टीमवर्-
राजा और आरव ने खेत के चारों ओर बाँस गाड़ने शुरू किए।
आरव जल्दी-जल्दी काम करने लगा, लेकिन एक बाँस टेढ़ा गड़ गया।
राजा ने कहा – “धीरे कर, वरना घेरा कमज़ोर होगा और कोई जानवर घुस जाएगा।”
आरव ने मुस्कुराकर कहा – “तुम तो अब गुरुजी जैसे बोलने लगे हो।”
राजा ने जवाब दिया – “जब बात फसल की हो, तो हम सबको गुरुजी बनना पड़ता है।”
सिया और बबली की नाज़ुक जिम्मेदारी
सिया ने अंकुरों के पास हल्के से मिट्टी ढीली की।
बबली ने फुसफुसाकर कहा – “ये तो जैसे किसी बच्चे के बाल सहलाना हो, बहुत हल्के हाथ से करना पड़ता है।”
एक बार सिया का हाथ ज़रा सा ज़ोर से चला और एक अंकुर थोड़ा झुक गया।
वो घबराई – “अरे! टूट तो नहीं गया?”
गुरुजी पास आए, अंकुर को सीधा किया और बोले – “गलती से डरना नहीं, उससे सीखना है।”
कबीर और नेहा का पानी संतुलन
कबीर ने नालियों में पानी छोड़ा, लेकिन बीच में एक जगह मिट्टी कमज़ोर थी और पानी बहकर बाहर निकलने लगा।
नेहा ने जल्दी से उस हिस्से में मिट्टी भर दी।
कबीर ने कहा – “देखा, यही टीमवर्क है। अगर मैं पानी छोड़ रहा हूँ, तो तुम नालियाँ देखती रहो।”
नेहा ने हँसते हुए कहा – “मतलब हम दोनों को खेत का पहरेदार बनना है।”
चिंटू का पौधा और धूप का खेल
गुरुजी और चिंटू खेत के कोने में गए जहाँ उसका पौधा था।
गुरुजी ने कहा – “देख, सुबह की धूप पौधे के लिए अच्छी है, लेकिन दोपहर की तेज़ धूप उसे जला सकती है। हमें पास में एक छोटी लकड़ी गाड़कर उस पर बोरी टांगनी होगी।”
चिंटू ने तुरंत लकड़ी लगाई और बोरी टांग दी।
वो गर्व से बोला – “अब ये मेरे घर के सामने वाले नीम जैसा बड़ा होगा।”
गुरुजी मुस्कुराए – “होगा… लेकिन धैर्य रखना पड़ेगा।”
सब बच्चे बहुत खुश होकर काम कर रहे थे उनकी मेहनत रंग लाई थी उन्होंने जो 20 हुए थे अब वह नाजुक से पत्तियों से निकलते हुए झाड़ बनने की ओर अग्रसर थे
---
दोपहर का सुकून
दोपहर तक खेत का घेरा पूरा हो चुका था, अंकुरों के आसपास की मिट्टी ढीली कर दी गई थी और पानी का संतुलन सही हो गया था। बच्चों ने अपना सभी काम बड़े उत्साह से जल्दी-जल्दी और सावधानी से पूरा कर लिया था
गुरुजी ने सबको पेड़ की छाँव में बुलाया।
आज बच्चों के पास पहले से ज़्यादा बातें थीं — कोई अपने अंकुर के बारे में बता रहा था, कोई पानी के बहाव की तारीफ़ कर रहा था।
राजा ने कहा – “गुरुजी, अब लगता है ये खेत हमारा है।”
गुरुजी ने हँसते हुए कहा – “जब किसी चीज़ में मेहनत लगाते हो, तो वो तुम्हारा हो ही जाता है।”
---
शाम का नज़ारा
शाम को जब धूप हल्की पड़ने लगी, तो खेत पर एक सुनहरा रंग छा गया।
हरे अंकुर उस रोशनी में ऐसे चमक रहे थे जैसे किसी ने खेत पर हरी मखमली चादर बिछा दी हो।
बच्चों ने आखिरी बार अपने-अपने काम की जाँच की और धीरे-धीरे गाँव की ओर चल दिए।
पीछे खेत में हवा से अंकुर हल्के-हल्के झूम रहे थे — जैसे बच्चों को अलविदा कह रहे हों।
बहुत कुछ बच्चों ने सिखाया और नया सीखा सब बच्चे अपनी कक्षा के लिए बहुत उत्साहित थे। इन्होंने खेत की कक्षा में बहुत कुछ सीख रहे थे आज जैसे-जैसे कक्षा आगे बढ़ रही थी सब बच्चों का बहुत मन लग रहा था अपनी मेहनत को सफल होते हुए देखना बच्चों के लिए किसी आश्चर्य से काम नहीं था। सभी बच्चे अपने-अपने घर पहुंच कर अपने-अपने माता-पीताओं के अपने दिन भर के बारे में बता रहे थे कि उनकी मेहनत रंग लाई आज सब बच्चे बहुत खुश थे और अपनी खुशी में अपने मां-बाप को भी शामिल किया और बताया कि कैसे बीच से पौधा निकल रहा है
सुबह की पहली किरण ने आज गाँव को जैसे सोने की परत चढ़ा दी थी। रात की हल्की नमी और ओस ने मिट्टी को नर्म और सुगंधित बना दिया था। आकाश बिल्कुल साफ़ था, और कहीं-कहीं सफ़ेद बादलों के छोटे-छोटे गुच्छे तैर रहे थे। मुर्गों की बांग, बकरियों की मिमियाहट और दूर कहीं से आती बैलों की घंटियों की टुनटुनाहट, इस सुबह को और भी ज़िंदा बना रही थी।
आज कोई साधारण दिन नहीं था। आज महेश गुरुजी ने बच्चों को वादा किया था कि खेत की कक्षा का "विशेष दिन" होगा — एक ऐसा दिन जब वे न केवल अपनी मेहनत का नतीजा देखेंगे, बल्कि पूरे गाँव के सामने अपना काम भी दिखाएँगे।
गाँव की पगडंडी पर चलते हुए राजा, आरव, सिया, बबली, कबीर, नेहा और चिंटू, सबके चेहरे पर एक अलग-सी चमक थी। उनके पैरों की चाल तेज़ थी, जैसे मन बेचैन हो कि जल्दी से खेत पहुँचे और देखें कि आज उनके नन्हे अंकुर कितने बड़े हुए हैं।
राजा के हाथ में पानी की एक छोटी बाल्टी थी, और आरव एक बोरी में बाँस की कुछ पतली डंडियाँ और रस्सी ले जा रहा था। सिया के हाथ में एक कपड़े की थैली थी जिसमें घर से लाया हुआ गोबर खाद और सूखी पत्तियाँ थीं, जो मिट्टी में मिलाने से पौधों को ताकत मिलती।
बबली सबसे आगे-आगे चल रही थी और बार-बार अपने पाँव से रास्ते के किनारे लगी जंगली घास को ठोकर मारकर हटाती जा रही थी।
चिंटू थोड़ा पीछे चल रहा था, लेकिन उसके चेहरे पर एक गंभीर भाव था — जैसे आज का दिन उसके पौधे के लिए इम्तिहान का हो।
जैसे ही सब खेत पहुँचे, तो एक पल के लिए सब रुक गए। उनके सामने का नज़ारा किसी सपने जैसा था।
जहाँ कुछ हफ्ते पहले खाली मिट्टी थी, अब वहाँ एक हरी-भरी कालीन बिछी थी। अंकुर अब इतने बड़े हो गए थे कि उनमें छोटी-छोटी शाखाएँ और नन्ही पत्तियाँ निकल आई थीं।
हवा हल्की थी, लेकिन उसमें इतना स्पर्श था कि पत्तियाँ धीरे-धीरे झूम रही थीं — मानो बच्चों का स्वागत कर रही हों।
बबली ने सबसे पहले चिल्लाकर कहा –
“गुरुजी! ये तो… ये तो जैसे खेत में त्योहार लग गया हो।”
गुरुजी, जो पहले से ही खेत में मौजूद थे, मुस्कुराकर बोले –
“हाँ, ये त्योहार है मेहनत का, जिसमें हर एक पौधा तुम्हारा मेहमान है।”
गुरुजी ने सबको इकट्ठा किया और बोले –
“आज हम कोई नया काम नहीं करेंगे। आज हम केवल देखभाल और सुंदरता पर ध्यान देंगे, क्योंकि दोपहर को गाँव वाले यहाँ आएँगे। तुम सबको अपना-अपना हिस्सा दिखाना है और बताना है कि तुमने कैसे उसकी देखभाल की।”
राजा और आरव — खेत के चारों तरफ़ बाँस के घेरे को मज़बूत करना।
सिया और बबली — पौधों के बीच की ज़मीन को हल्का-सा खुरचना, ताकि हवा और पानी आसानी से पहुँच सके।
कबीर और नेहा — पानी के बहाव की नालियों की सफ़ाई।
चिंटू — अपने पौधे के पास छाया और धूप का संतुलन देखना और बाकी पौधों पर भी नज़र रखना।
राजा और आरव ने बाँस के घेरे को कसकर बाँधा, बीच-बीच में रस्सी को ऐसे खींचा कि कोई छोटा जानवर भी घुस न सके।
आरव बोला –
“अब तो खेत हमारी किलेबंदी में है, राजा!”
राजा हँसकर बोला –
“किले में राजा भी हूँ और पहरेदार भी।”
सिया और बबली मिट्टी में हल्के-हल्के हाथ चला रही थीं। बबली बोली –
“सिया, देख! ये पत्तियाँ कैसे फैल रही हैं, जैसे किसी ने पंख खोल दिए हों।”
सिया ने मुस्कुराकर कहा –
“हाँ, और इन पंखों को उड़ान देने के लिए हमें इन्हें और मज़बूत बनाना है।”
कबीर और नेहा पानी की नालियों में मिट्टी के टुकड़े हटाकर रास्ता साफ़ कर रहे थे।
कबीर बोला –
“नेहा, पानी का रास्ता सही है, लेकिन अगर कहीं ज़्यादा बहाव हो तो पौधे बह भी सकते हैं।”
नेहा ने तुरंत एक जगह हाथ से मिट्टी दबाई –
“लो, अब बहाव बराबर है।”
चिंटू अपने पौधे को देख रहा था, फिर बाकी पौधों की ओर मुड़ा। उसने महसूस किया कि एक कोने में धूप ज़्यादा पड़ रही है।
वह दौड़कर वहाँ गया और लकड़ी गाड़कर बोरी टाँग दी।
गुरुजी ने दूर से देखा और कहा –
“शाबाश चिंटू! ये ही है सच्ची ज़िम्मेदारी।”
दोपहर होने से पहले ही कुछ गाँव वाले खेत के पास आने लगे। बुज़ुर्ग महिलाएँ, छोटे बच्चे, और कुछ किसान भी देखने आए कि ये ‘खेत की कक्षा’ कैसी है।
हर बच्चा गर्व से अपने हिस्से का काम दिखा रहा था।
राजा ने अपने घेरा बनाने के काम को दिखाकर कहा –
“ये घेरे के बिना पौधों की सुरक्षा नहीं हो सकती थी।”
सिया और बबली ने मिट्टी की नर्मी दिखाते हुए कहा –
“हमने कोशिश की कि पौधों को सांस लेने में आसानी हो।”
कबीर और नेहा ने पानी की नालियों की ओर इशारा करके बताया –
“हमने पानी का रास्ता ऐसा बनाया कि न ज़्यादा पानी रहे, न कम।”
चिंटू ने अपने पौधे को छाया दिखाकर कहा –
“धूप अच्छी है, लेकिन हर चीज़ का संतुलन ज़रूरी है।”
जब बच्चों के माता-पिता पहुँचे, तो उनके चेहरे पर हैरानी और खुशी दोनों थीं।
आरव की माँ ने भावुक होकर कहा –
“ये वही बेटा है जो घर में गमले में पौधा लगाने से भागता था, और आज देखो…”
बबली के पिताजी ने हँसते हुए कहा –
“लगता है हमारी बेटी अब खेती भी सिखा देगी।”
गुरुजी सबको देख रहे थे, उनके चेहरे पर गहरा संतोष था।
सूरज ढलने लगा था, और खेत सुनहरी रोशनी में नहा रहा था।
गुरुजी ने बच्चों और गाँव वालों को पास बुलाया और बोले –
“आज तुम सबने ये देख लिया कि मेहनत का फल कितना सुंदर होता है।
ये खेत सिर्फ मिट्टी और पौधों का नहीं, ये तुम्हारी लगन, धैर्य और मेहनत का प्रतीक है।
याद रखो — जीवन भी इसी खेत की तरह है।
अगर हम समय पर मेहनत करें, देखभाल करें, तो फल जरूर मिलता है… और अगर लापरवाह हों, तो सारी मेहनत बर्बाद हो जाती है।”
बच्चे चुपचाप सुन रहे थे, उनकी आँखों में चमक थी।
गाँव वाले धीरे-धीरे अपने घर लौटने लगे।
बच्चों ने आख़िरी बार अपने पौधों को देखा, जैसे अलविदा कह रहे हों।
हवा में मिट्टी और पत्तियों की मिली-जुली महक थी, और दूर मंदिर की घंटी बज रही थी।
जब बच्चे अपने घर पहुँचे, तो रात का खाना खाते समय हर कोई अपने दिन के बारे में बात कर रहा था।
हर घर में आज खेत की कक्षा की चर्चा थी।
गुरुजी अपने छोटे-से कमरे में बैठे थे, खिड़की से बाहर देख रहे थे।
बाहर अँधेरा था, लेकिन उनके मन में एक रोशनी जल रही थी — एक संतोष कि उन्होंने बच्चों को केवल किताबों से नहीं, बल्कि ज़िंदगी से भी पढ़ना सिखाया।
उस रात, गाँव में नींद भी एक मुस्कान के साथ आई।
खेत में पौधे धीरे-धीरे हवा के साथ हिल रहे थे — मानो कह रहे हों,
"हम बढ़ते रहेंगे, क्योंकि किसी ने हमें प्यार और मेहनत से पाला है।"
सुबह के आठ बजे थे। गाँव के मंदिर से आरती की घंटियाँ और शंख की आवाज़ें गूँज रही थीं। खेतों में ओस से भीगे पत्तों पर सूरज की पहली किरणें पड़ रही थीं। हवा में मिट्टी और ताज़ी घास की मिली-जुली खुशबू थी।
महेश गुरुजी अपने घर के आँगन में खाट पर बैठे, हाथ में पीतल का गिलास लेकर चाय की चुस्कियाँ ले रहे थे। उनके चेहरे पर हमेशा की तरह हल्की-सी मुस्कान थी, लेकिन आज उनकी आँखों में एक खास चमक थी। आज वे बच्चों को एक नया पाठ पढ़ाने वाले थे—समय की कीमत।
गाँव में यह आम बात थी कि बच्चे पढ़ाई के समय देर से आते थे, खासकर तब जब सुबह हल्की ठंड हो या खेत में कुछ खेलकूद का मज़ा आ रहा हो। आज भी गुरुजी ने पहले से अंदाज़ा लगा लिया था कि आधी कक्षा फिर देर से आएगी। क्योंकि गुरुजी इसलिए 8-10 दिनों से यह बात नोटिस कर रहे थे कि बच्चों को समय की कीमत बिल्कुल नहीं है।
रामू, जो हर काम में “थोड़ा-थोड़ा” करता था, अभी भी अपनी लकड़ी की चप्पल खोज रहा था।
“अरे ओ रामू! जल्दी कर, नहीं तो गुरुजी फिर तेरी बेंच पीछे भेज देंगे।” मार पड़ेगी बो अलग लेट होगी।चल जल्दी कर – उसका दोस्त पप्पू चिल्लाया।
उधर, सीता अपने बालों में रिबन बाँधते-बाँधते खिड़की से देख रही थी कि बाकी बच्चे जा चुके हैं या नहीं। अगर ज़्यादा बच्चे देर से जा रहे होते तो उसे लगता कि आज तो सब एक साथ डाँट खाएँगे और मज़ा आएगा। सबको दांत साथ में पड़ेगी तो सजा भी साथ में मिलेंगे।
नन्हा चिंटू, जो हमेशा किसी न किसी बहाने से किताबें भूल आता था, आज भी अपनी स्लेट लेने के बजाय आँगन में कबूतरों के पीछे भाग रहा था। ठंडी थी और उसकी मां खेलने में ज्यादा था पढ़ाई में नहीं तभी उसकी मां ने उसको जबरदस्ती स्कूल भेजो कि जा मां गुरूजी की मार पड़ेगी गुरु जी का नाम सुनते ही वह जल्दी से अपना बैग उठाया और स्कूल की ओर चल पड़ा।
महेश गुरुजी जानते थे कि बच्चों को समय पर लाना केवल डाँट से मुमकिन नहीं। उन्हें ऐसा अनुभव देना होगा जो उनकी आदत बदल दे। हर समस्या का हाल मारपीट नहीं होती।
आज उन्होंने ठान लिया था कि जो बच्चे देर से आएँगे, उन्हें एक ऐसा खेल करवाएँगे जिसमें समय की अहमियत खुद-ब-खुद समझ आ जाए।
गुरुजी पहले से ही खेत के पास बने खुले बरामदे में पहुँच गए थे, जहाँ आज की कक्षा लगनी थी। उन्होंने अपनी पुरानी, लेकिन साफ़ धोती और हल्के पीले रंग का कुर्ता पहना था। पास में एक टोकरी रखी थी, जिसमें कुछ मिट्टी के घड़े, रेत, पत्थर और पानी भरे लोटे रखे थे।
पहले पहुँचे बच्चे—राजा, सिया, नेहा और कबीर—गुरुजी को देखकर हैरान हुए।
राजा ने पूछा, “गुरुजी, आज हम ये सब लेकर क्या करने वाले हैं?”
गुरुजी मुस्कुराए, “अरे भाई, ये तो आज का पाठ है। लेकिन इसका जवाब समय पर आने वालों को ही मिलेगा।”
राजा सिया नेहा कबीर गुरु जी को देख रहे थे और साथ-साथ में थोड़े से निराश भी थे कि बाकी के बच्चों को लेट होने में के कारण उन लोगों की पढ़ाई भी लेट हो जाती है। वह लोग अपनी पढ़ाई के प्रति बहुत ईमानदार और मेहनती बच्चे थे।
गुरुजी उनकी तरफ देख रहे थे और समझ रहे थे उन्होंने सिया से पूछा सिया क्या बात है तुम थोड़ी उदास दिख रही हो।
सिया:- कुछ नहीं गुरुजी बस सब बच्चे नहीं आते तो क्लास कक्षा लेट चालू होती है
सिया की बात में कबीर राजा और नेहा ने भी हमें हां मिलाई
गुरुजी ने उनका आशीर्वाद किया कि आज उनका कक्षा का विषय ही है समय की कीमत तुम लोग चिंता मत करो आज सबको समय की कीमत का ही पाठ पढ़ने वाला होता कि किसी का नुकसान ना हो।
थोड़ी ही देर में रामू, पप्पू, सीता और चिंटू हाँफते हुए पहुँचे। उनके कपड़ों पर धूल थी और माथे पर पसीना।
गुरुजी ने बस घड़ी की ओर देखा, कुछ नहीं कहा।
सीता ने धीरे से फुसफुसाया, “गुरुजी गुस्सा नहीं कर रहे, इसका मतलब आज कुछ अलग होने वाला है।”
गुरुजी ने सब बच्चों को घेरकर बैठा दिया और एक बड़ा घड़ा बीच में रखा। पास में अलग-अलग आकार के पत्थर, कंकड़, और एक लोटा पानी था।
गुरुजी बोले, “ये घड़ा तुम्हारी ज़िंदगी है। इसमें जितनी जगह है, उतना ही समय तुम्हारे पास है। अब देखो, अगर हम सबसे पहले बड़े पत्थर डालते हैं…”
उन्होंने घड़े में बड़े पत्थर डाले।
“ये बड़े पत्थर तुम्हारे जीवन के सबसे ज़रूरी काम हैं—पढ़ाई, सेहत, परिवार।”
फिर उन्होंने कंकड़ डाले।
“ये वो काम हैं जो ज़रूरी तो हैं, पर उतने बड़े नहीं—दोस्तों से मिलना, खेलना।”
अंत में रेत डाली और लोटे का पानी उड़ेला।
“ये छोटी-छोटी चीज़ें हैं—जैसे मोबाइल में समय गँवाना, बेवजह बातें करना।”
फिर गुरुजी ने पूछा, “अगर मैं पहले रेत डाल देता, तो क्या बड़े पत्थर घड़े में आते?”
सबने एक साथ कहा, “नहीं!”
गुरुजी ने समझाया, “ठीक वैसे ही, अगर तुम अपना समय पहले छोटी-छोटी बेकार चीज़ों में गँवा दोगे, तो बड़े और ज़रूरी काम के लिए जगह नहीं बचेगी।”
इसके बाद गुरुजी ने एक और चाल चली। उन्होंने कहा, “आज जो भी बच्चा अपने हिस्से का पाठ पहले खत्म करेगा, उसे मैं अपनी टोकरी से एक छोटा सा इनाम दूँगा।”
बच्चों ने पूरी मेहनत से काम करना शुरू किया। जो रोज़ देर से आते थे, वे भी आज समय पर खत्म करने की कोशिश करने लगे।
जब इनाम बाँटे गए—कभी गुड़ के टुकड़े, कभी पेंसिल, तो सबके चेहरे खिल उठे।
शाम तक, जब बच्चे घर लौट रहे थे, वे आपस में बात कर रहे थे—
“यार, अगर हम रोज़ समय पर आएँ तो कितना काम हो सकता है।”
“हाँ, और इनाम भी मिल सकता है।”
आपके साथ कुछ बच्चे उदास थे जो समय पर नहीं पहुंचे और जिनका कम समय पर पूरा नहीं हुआ। और जिनको कुछ इनाम नहीं मिला।
लेकिन उनका समय की कीमत समझ में आ गई कि अगर हम समय के साथ नहीं चल तो हमारा ही नुकसान होगा।
गुरुजी दूर से सुनकर मुस्कुराए। उन्हें पता था, आज बीज बो दिया गया है। अब ये आदत धीरे-धीरे पनपेगी।
सुबह का समय था। गाँव के पूरब वाले खेतों में सूरज की पहली किरणें धान के पत्तों पर हल्की-सी सुनहरी परत चढ़ा रही थीं। ओस की बूंदें मोतियों-सी चमक रही थीं और हवा में मिट्टी की ताज़गी घुली हुई थी। महेश गुरुजी अपने हमेशा वाले कपड़ों – सफेद धोती, हल्का खादी का कुर्ता और कंधे पर झोला – के साथ स्कूल की ओर जा रहे थे।
गुरुजी के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान थी, जैसे उन्हें पहले से पता हो कि आज कोई खास घटना घटने वाली है। वे रास्ते में बच्चों को देखते जा रहे थे – कोई अपनी बकरियाँ चरा रहा था, कोई खपरैल वाले घर की छत पर कपड़े फैला रहा था, तो कोई दौड़ता हुआ स्कूल की ओर बढ़ रहा था। अपने-अपने काम में व्यस्त थे तभी गुरुजी चौपाल से होते हुए जा रहे थे विद्यालय की ओर
लेकिन तभी, बड़के पीपल के पास, गुरुजी का ध्यान एक अजीब-सी आवाज़ पर गया। "म्याँऊ… म्याँऊ…" — यह रोने की आवाज़ थी, लेकिन डर और दर्द से भरी हुई।
गुरुजी रुके, इधर-उधर देखा। उन्होंने देखा आवाज किस दिशा से आ रही है और आवाज़ नीचे से आ रही थी। झुककर देखा तो एक छोटी-सी सफेद बिल्ली, जिसकी टाँग में गहरा ज़ख्म था, काँप रही थी। उसका शरीर धूल-मिट्टी से सना हुआ था, और आँखों में डर और बेबसी थी। ना उसे खड़ा हो जाए जा रहा था ना बैठ जा रहा था बहुत दर्द में थी।
गुरुजी झट से नीचे बैठे, अपना झोला एक ओर रखा और बिल्ली को धीरे-से अपनी गोद में उठा लिया। बिल्ली ने पहले तो सहमकर पंजा मारने की कोशिश की, लेकिन गुरुजी की हथेली में उतनी गर्माहट और अपनापन था कि वह चुप हो गई। ओर शांत पड़ हो गई
---
जब गुरुजी स्कूल पहुँचे तो बच्चे पहले से उनका इंतज़ार कर रहे थे। गुरुजी थोड़ा सा देरी से आए। लेकिन आज उनके हाथ में किताबें नहीं, बल्कि एक जर्जर-सी टोकरी थी जिसमें वह बिल्ली ले आए थे।
"अरे गुरुजी, यह क्या है?"— सोनू ने आश्चर्य से पूछा।
"आज हमारी कक्षा का मेहमान," गुरुजी ने मुस्कुराकर कहा।
"मेहमान? बिल्ली भी कोई मेहमान होती है क्या?"— मुकेश हँसते हुए बोला।
गुरुजी ने गम्भीर स्वर में कहा, "हाँ, और यह कोई साधारण मेहमान नहीं। यह हमें आज बहुत बड़ा पाठ पढ़ाने आई है।"
कल्लू :- चकित होकर बोला
बिल्ली हमें क्या पाठ पड़ेंगे गुरुजी?
गुरुजी सभी क्लास शांत हो जाए
बच्चों की उत्सुकता और बढ़ गई। गुरुजी ने टोकरी से बिल्ली को निकाला, उसके घाव को पानी से साफ किया और अपनी थैली से निकाली कपड़े की पट्टी से बाँध दिया। चपरासी को बोला कि बिल्ली के लिए थोड़ा सा दूध लेकर आए क्योंकि देखने से लग रहा था कि उसको भूख भी लगी है।
बिल्ली को दवा मारा करके दूध पिलाया उसके बाद में
गुरुजी ने बच्चों से पूछा—
"तुम्हें क्या लगता है, यह बिल्ली यहाँ तक अकेले आई होगी?"
"नहीं, किसी ने इसे मारा होगा!"— छोटू ने तुरंत कहा।
"हाँ, शायद बच्चों ने पत्थर मारे हों!"— रीना बोली।
शायद किसी ने से अपनी साइकिल से ठोक दिया होगा मिना ने बोला ---
कहीं से गिर गई होगी इसलिए लग गई होगी कल्लू ने बोला
गुरुजी ने सिर हिलाया, कुछ भी हो सकता है पर "देखो, इंसान और जानवर में सबसे बड़ा फ़र्क क्या है? यह कि इंसान सोच सकता है, महसूस कर सकता है, और सबसे बढ़कर— दया कर सकता है। जबकि जानवरों में भावनाएं होती हैं पर वह सोच नहीं सकता तुम। उन। को थोड़ा से प्यार ओर दया और वह तुम्हारे अच्छे दोस्त बन जाएंगे"
फिर उन्होंने बच्चों को एक कहानी सुनाई—
"बहुत साल पहले, जब मैं छोटा था, हमारे घर के पास एक कुतिया रहती थी। एक दिन वह ज़ख्मी हो गई। मैं डरता था कि अगर पास गया तो काट लेगी, लेकिन मेरी माँ ने कहा, ‘बेटा, अगर तू डर के कारण मदद नहीं करेगा, तो ज़ख्म उसका दर्द बढ़ा देगा। और याद रख, जिसे दर्द होता है, वह कभी उस पर दया करने वाले को नुकसान नहीं पहुँचाता।’ मैंने उसकी देखभाल की, और कुछ ही दिनों में वह ठीक हो गई। तब से वह हर दिन मेरी राह देखती थी। हम धीरे-धीरे अच्छे दोस्त बन गए दया भावना सभी में होती है इंसान और जानवर अच्छा करोगे तो उसका फल अच्छा ही मिलेगा इंसान को हमेशा मदद के लिए सतत रहना चाहिए "
---
कक्षा के बीच में गुरुजी ने एक छोटा-सा प्रयोग किया।
उन्होंने कहा— "आज का गृहकार्य यही है कि तुम अपने आसपास किसी भी ज़रूरतमंद जीव की मदद करो— चाहे वह पंछी हो, गाय हो, या कोई इंसान। लेकिन मदद सच्चे दिल से होनी चाहिए, दिखावे के लिए नहीं।"
बच्चों के चेहरे चमक उठे। सोनू बोला, "गुरुजी, अगर हम बिल्ली को दूध दें तो?"
मुझे मैं इसे डॉक्टर के पास ले जाकर दवा दिला दूं राधा बोली।
हां राधा यह तो बहुत अच्छी बात है गुरुजी ने बोला
हम इस गांव के चौपाल में रखेंगे आते जाते तब इसकी मदद करेंगे कबीर ने कहा
"तो यह दया का पहला कदम होगा," गुरुजी ने मुस्कुराकर कहा।
---
दिन का अंत
शाम को स्कूल की छुट्टी के बाद, बिल्ली अभी भी गुरुजी के पास बैठी थी। उसके चेहरे पर अब डर की जगह एक भरोसे की चमक थी। गुरुजी ने उसे गाँव के चौपाल के पास छोड़ा, जहाँ रोज़ कोई न कोई उसे खाना देता।
गुरुजी ने जाते-जाते बच्चों से कहा—
"याद रखो, करुणा सिर्फ़ किताबों में पढ़ने की चीज़ नहीं। यह हमारे दिल में होनी चाहिए, और हमारे हाथों से ज़ाहिर होनी चाहिए। दिखावे के लिए नहीं दिल से मदद करो इंसान तो इंसान के साथ-साथ जानवर भी तुम्हारा बहुत अच्छा दोस्त बन जाएगा"
उस दिन गाँव में बच्चों के चेहरे पर एक अजीब-सी संतोष की लहर थी। किसी ने आँगन में पानी की कटोरी रखी, किसी ने रास्ते में भूखे पंछियों के लिए दाना डाला। और उस सफेद बिल्ली की आँखों में पहली बार सुकून का रंग भर आया था। उसने एक नया पाठ सीख हमें इंसानों के साथ-साथ जानवर की भी मदद करनी चाहिए। और मदद निस्वार्थ होनी चाहिए दिखावे की मदद का कोई महत्व नहीं।
सुबह का समय था। गाँव की गलियों में हल्की-हल्की धूप उतर रही थी। बकरियों की घंटियाँ टुन-टुन कर रही थीं और घर-घर से चूल्हे पर चढ़ी चाय की खुशबू हवा में तैर रही थी।
विद्यालय के आँगन में बच्चे धीरे-धीरे इकट्ठे हो रहे थे। आज के दिन में कुछ खास था, क्योंकि महेश गुरुजी ने कल ही घोषणा की थी—
“कल का पाठ कक्षा में नहीं होगा, बल्कि चाय की गली में होगा।”
बच्चों ने आपस में चर्चा शुरू कर दी थी।
राकेश (हँसते हुए): “गुरुजी भी अजीब हैं, पढ़ाई छोड़कर चाय की गली क्यों ले जा रहे हैं?”
पूजा: “पता नहीं… हो सकता है चाय पिलाने वाले अंकल से हमें गणित सिखाएँ।”
सुमित: “नहीं-नहीं, हो सकता है हमें फ्री चाय मिले। मैं तो दो कप पिऊँगा।”
कल्लू :- चाय के साथ है ना बिस्किट में मिल जाए तो मजा आ जाएगा।
मीना:- तुम सब लोग कुछ भी सोच रहे हो देखना ऐसा कुछ नहीं होगा।
सभी बच्चे खिलखिलाकर हँस पड़े।
इतने में महेश गुरुजी सफेद कुर्ता-पाजामा और हल्के नीले रंग की जैकेट पहने आ पहुँचे। उनकी आँखों में वही चमक थी जो हर दिन बच्चों को हैरान कर देती थी।
गुरुजी: - “तो भई, तैयार हो? आज की कक्षा थोड़ी अलग होगी। किताबों की जगह अनुभव और सवालों की कॉपी चाहिए।”
आरती (उत्साहित होकर):- “गुरुजी, सच में आज पढ़ाई बाहर होगी?”
गुरुजी:- “हाँ बेटी, आज हम चलेंगे उस चाय वाले के पास, जो पिछले बीस साल से गाँव वालों को सुबह जगाने का काम करता है। चलो।”
बच्चे कतार बनाकर गुरुजी के साथ चल पड़े। गाँव के बीचों-बीच एक छोटी-सी गली थी जहाँ लालटेन की तरह चमकता हुआ मिट्टी का चूल्हा जल रहा था। वहीँ पर बैठे थे रामदयाल चायवाले।
उनकी झोपड़ीनुमा दुकान में दो लकड़ी की बेंच थीं, एक टूटी-फूटी टेबल, और ऊपर टँगा हुआ बोर्ड — रामदयाल चायवाला “गरम-गरम चाय – 2 रुपये कप”।
रामदयाल मुस्कराते हुए बोले,
रामदयाल: “अरे! महेश बाबू, आप सब बच्चों के साथ! आइए-आइए, बैठिए। आज तो दुकान रोशन हो गई।”
बच्चे हँसते-खिलखिलाते हुए बेंचों पर बैठ गए।
गुरुजी: “रामदयाल भाई, आज हम आपकी दुकान पर कक्षा लगाएंगे। बच्चों को समाज का एक नया अध्याय पढ़ाना है।”
रामदयाल:- अरे गुरुजी क्यों मजाक कर रहे हैं हमारी दुकान पर भला क्या अच्छा लगेगी आप तो यहां बैठी है हम आपको अच्छी चाय पिलाते हैं।
गुरुजी:- तुम भी दिखाते जाओ।
सुमित (धीरे से राकेश के कान में): “देख लेना, अभी गुरुजी बोलेंगे कि चाय में चीनी डालना जोड़ है, दूध डालना घटाव है।”
सब बच्चे ठहाका मारकर हँस दिए।
मीना :- ने उसकी आंख दिखाइए ज्यादा मत बोल नहीं तो गुरुजी मरेंगे हम सबको तेरे साथ में
गुरुजी ने बच्चों की तरफ देखा और मुस्कराए।
गुरुजी: “हँसो, हँसो, पर ज़रा ध्यान से देखो। यह रामदयाल भाई रोज सुबह चार बजे उठते हैं, लकड़ियाँ चुनते हैं, पानी भरते हैं, फिर यह चूल्हा जलाते हैं। ताकि गाँव का हर आदमी, चाहे वह मज़दूर हो या बाबू, सबकी नींद चाय से खुले।”
पूजा (भौंहें चढ़ाते हुए) :- “लेकिन गुरुजी, ये तो बस चाय बेचते हैं। इसमें इतना बड़ा क्या है?”
गुरुजी ने तुरंत पलटकर सवाल किया।
गुरुजी :- “अगर कल से रामदयाल भाई दुकान बंद कर दें तो?”
बच्चे चुप हो गए।
राकेश :- “फिर… हमें चाय नहीं मिलेगी।”
गुरुजी :- “सिर्फ तुम्हें? नहीं बेटा, खेत में जाने वाले मज़दूर देर से काम पर पहुँचेंगे, दुकान खोलने वाले आधे नींद में रहेंगे। सोचो, एक आदमी का काम कितनों की दिनचर्या को प्रभावित करता है।”
रामदयाल की आँखें भर आईं। उन्होंने हँसकर कहा,
रामदयाल :- “गुरुजी, पहली बार किसी ने मेरी चाय की इतनी कीमत समझाई। मेरी मेहनत की भी ”
गुरुजी ने बच्चों को छोटे-छोटे समूहों में बाँट दिया।
गुरुजी :- “हर समूह एक-एक कप चाय बनाएगा और खुद बेचेगा। देखो, यह काम कितना आसान या मुश्किल है। तुम सबको लग रहा है यह काम आसान है तो चलो करके दिखाओ”
आरती :- “गुरुजी! हमें तो यह बड़ा मज़ेदार लगेगा।”
कल्लू :- "" यह तो मेरे दाएं हाथ का काम है।"
गुरुजी (मुस्कराकर) :- “हाँ, अभी लगता है। पर जब दस लोग एक साथ चाय माँगेंगे, तब समझ आ जाएगा।”
बच्चों ने दूध उबाला, चीनी डाली, चायपत्ती डाली। शुरुआत में तो सब मज़े ले रहे थे, पर जैसे ही भीड़ बढ़ी, अफरा-तफरी मच गई।
सुमित: “अरे! किसका कप पहले देना है?”
पूजा: “ओह! मेरा हाथ जल गया!”
राकेश: “गणित के सवाल आसान हैं, लेकिन यह हिसाब बड़ा मुश्किल है। इससे पैसे लिए और किस नहीं लिए यह तो याद ही नहीं रहा ”
गुरुजी दूर खड़े मुस्कराते रहे।
आधे घंटे बाद बच्चे थककर बैठ गए। उनके चेहरे पर पसीना, हाथों पर दूध के छींटे और आँखों में थकान थी और उनको समझ में आ रहा था यह काम वाकई में मुश्किल है ।
गुरुजी: “तो बच्चों, अब बताओ, यह काम आसान है या मुश्किल?”
सभी बच्चे (एक साथ): “बहुत मुश्किल!”
गुरुजी: “यही है आज का पाठ। समाज में हर काम की कीमत होती है। चाय बनाना सिर्फ उबालना नहीं है, यह मेहनत, धैर्य और हिसाब का काम है। हमें कभी भी किसी को उसके काम से छोटा नहीं समझना चाहिए।”
रामदयाल भावुक होकर बोले,
रामदयाल :- “गुरुजी, आज तो आपने मेरा दिल जीत लिया। अब ये बच्चे कभी मुझे ‘बस चायवाला’ नहीं कहेंगे। उनको भी समझ में आएगा मैं भी मेहनत करता हूं ”
बच्चों ने एक स्वर में कहा,
बच्चे: “जी गुरुजी, अब हम हर काम का सम्मान करेंगे।”
गुरुजी ने हाथ जोड़कर कहा,
गुरुजी: “याद रखो बच्चों—
👉 डॉक्टर, किसान, चायवाला, सफाईकर्मी, शिक्षक—हर इंसान समाज की एक कड़ी है।
👉 अगर एक कड़ी टूटे, तो पूरी श्रृंखला कमज़ोर हो जाती है।
👉 इसलिए हर किसी का सम्मान करना ही असली शिक्षा है।”
---
सूरज धीरे-धीरे ऊपर चढ़ चुका था। गली में चाय की भाप अब बच्चों के दिलों की सीख बनकर उतर गई थी।
गुरुजी ने चलते-चलते कहा,
गुरुजी: “आज की कक्षा यहीं समाप्त होती है। पर असली परीक्षा तब होगी जब तुम घर जाकर अपने माता-पिता, पड़ोसियों और दोस्तों से यह सीख बाँटोगे।”
बच्चे सिर हिलाते हुए निकल पड़े। उनके दिलों में अब एक नई सोच अंकुरित हो चुकी थी — सामाजिक जागरूकता और हर काम का सम्मान।
विद्यालय में आज कुछ अलग ही हलचल थी। कक्षा की दीवारें मिट्टी-पुती थीं, बीच में फूस की छत और लकड़ी के बेंच। बच्चे धीरे-धीरे आ रहे थे—
सोनू – हल्के हरे रंग की कमीज़, नंगे पाँव, मगर चेहरे पर हमेशा हंसी।
गुड्डी – बालों में लाल रिबन, हाथ में अपनी छोटी बहन का टूटा हुआ स्लेट का टुकड़ा।
राजू – गाँव के चौधरी का बेटा, थोड़ी शरारती आदत, लेकिन दिमाग़ तेज।
माया – सीधी-सादी, मगर सवाल बहुत पूछने वाली।
फैज़ल – अपने अब्बा की पुरानी सफ़ेद टोपी पहने हुए, थोड़ा संकोची स्वभाव।
गीता और पप्पू – भाई-बहन, हमेशा झगड़ते रहते थे।
बच्चे आकर अपनी-अपनी जगह पर बैठ गए, मगर आज गुरुजी के चेहरे पर कुछ अलग चमक थी।
🌱 गुरुजी की घोषणा
गुरुजी ने कक्षा में कदम रखते ही चुप्पी साध ली। उन्होंने न तो “राम-राम” कहा, न “बच्चो पढ़ाई शुरू करें”। बस एक बड़ी सी मुस्कान दी और चौक ले कर ब्लैकबोर्ड पर बड़े अक्षरों में लिखा—
“आज का पाठ – मोनापाठ”
बच्चे चौंक गए।
राजू ने फुसफुसाकर कहा, “ये मोनापाठ क्या बला है?”
सोनू बोला, “लगता है नया खेल होगा।”
राजू :- "जो भी हो मजा आएगा"
फैजल :- " हां यह बात तो सही है गुरु जी के पाठ में मजा आता है।"
माया ने गंभीर होकर कहा, “नहीं, गुरुजी कोई अतरंगी प्रयोग करेंगे।”
गुड्डी ने धीरे से कहा, “लेकिन गुरुजी बोल क्यों नहीं रहे? बिना बोले क्या ही नया पाठ सिखाएंगे।”
गुरुजी ने सब बच्चों को बैठने का इशारा किया और अपनी जेब से सीटी निकालकर टेबल पर रख दी। फिर कक्षा में बोर्ड के बगल पर एक बड़ा सा चार्ट टाँग दिया, जिस पर लिखा था—
👉 नियम:
1. अगले एक घंटे तक कोई बच्चा बोलेगा नहीं।
2. सब केवल इशारों और आँखों से बात करेंगे।
3. जो बोलेगा, उसका नाम “शोर-पट्टिका” पर लिखा जाएगा।
🌱 बच्चों की उलझन
सभी बच्चे चुप हो गए, मगर उनकी आँखों में सवाल थे।
राजू (धीरे से फुसफुसाया): “बिना बोले पढ़ाई कैसे होगी?”
माया (गुस्से में): “चुप रहो! सुनाई दे जाएगा।”
गुड्डी:- " तुम लोगों का कुछ नहीं हो सकता गुरु जी ने देख लिया तो अब भी तुम्हारा नाम शोर पट्टिका पर लिखा जाएगा।"
सोनू ने मुँह पर हाथ रखकर हँसने की कोशिश की।
गुरुजी ने सबकी ओर देखकर मुस्कुराते हुए ताली बजाई और बोर्ड पर एक घड़ी का चित्र बनाया। उन्होंने इशारे से कहा कि समय की सुइयों को देखो—एक-एक पल कीमती है।
🌱 पहली गतिविधि – बिना बोले कहानी
गुरुजी ने एक बड़ा चार्ट निकाला जिस पर कुछ चित्र बने थे—एक किसान, बैल, खेत और सूरज। उन्होंने इशारों से कहा कि अब बच्चों को इन चित्रों से कहानी बनानी है, मगर बिना बोले इशारों में ही कहानी बनाओ।
सब बच्चे हड़बड़ाने लगे।
माया ने हाथ से खेत जोतने की एक्टिंग की।
फैज़ल ने सूरज उगने का इशारा किया।
सोनू ने बैल की आवाज़ निकाल दी—“मूँऽऽऽ”
पूरी कक्षा ठहाके से गूँज उठी। गुरुजी ने तुरंत सीटी बजाई और सोनू का नाम “शोर-पट्टिका” पर लिख दिया। बच्चे हँसी दबाकर चुप हो गए।
धीरे-धीरे थोड़ी ही देर में बच्चों ने इशारों से कहानी जोड़ी। आखिरकार पूरी कहानी बनी—
“किसान सुबह उठकर बैल जोतता है, सूरज निकलता है और फसल उगती है।”
गुरुजी ने ताली बजाकर बच्चों को शाबाशी दी।
🌱 दूसरी गतिविधि – चुप्पी में सुनना
गुरुजी ने खिड़की खोली। बाहर से पंछियों की चहचहाहट, हवा की सरसराहट और दूर कहीं बैलगाड़ी की चर्र-चर्र की आवाज़ आ रही थी।
गुरुजी ने इशारे से कहा—“इन आवाज़ों को पहचानो।”
बच्चे ध्यान से सुनने लगे।
गुड्डी बोली (अनजाने में): “ये तो कोयल की आवाज़ है!”
सारी कक्षा हँस दी। फिर उसका नाम भी “शोर-पट्टिका” पर चढ़ गया।
गुड्डी का मुंह बन गया उसको अफसोस हो रहा था कि उसका नाम शोर - पट्टिका पर लिखा गया।
राजू ने हाथ उठाकर इशारा किया कि उसे बैलगाड़ी की आवाज़ सुनाई दी।
माया ने हवा की सरसराहट बताई।
फैज़ल ने धीरे से मुस्कुराकर खिड़की की ओर इशारा किया और पक्षियों की तरफ़ उंगली दिखाई।
गुरुजी ने बच्चों को समझाया—
“देखो, जब हम चुप रहते हैं, तभी प्रकृति की आवाज़ें सुनाई देती हैं। शोर में कुछ सुनाई नहीं देता। शांति में कुछ नई चीज सुनाई देती है शोर में वह चीज दब जाती है।”
🌱 तीसरी गतिविधि – चुप्पी का असर
अब गुरुजी ने एक और प्रयोग किया। उन्होंने बोर्ड पर तीन वाक्य लिखे—
1. शांति में ज्ञान मिलता है।
2. शोर में मन भटकता है।
3. सुनना भी सीखना है।
फिर उन्होंने बच्चों को 5 मिनट तक चुपचाप आँखें बंद करके बैठने को कहा।
शुरू में बच्चे हिल-डुल रहे थे। पप्पू ने आँखें खोलकर माया को देखा और इशारे से हँसने की कोशिश की। मगर धीरे-धीरे सब शांत हो गए।
जब पाँच मिनट पूरे हुए, तो गुरुजी ने आँखें खोलने को कहा और पूछा—
“क्या महसूस हुआ?”
राजू बोला, “गुरुजी, ऐसा लगा जैसे पूरा गाँव सुनाई दे रहा है।”
माया बोली, “मन हल्का हो गया।”
गुड्डी बोली, “लेकिन बहुत मुश्किल था।”
फैज़ल ने धीरे से कहा, “चुप रहने से दिमाग साफ हो जाता है।”
🌱 गुरुजी का संदेश
गुरुजी ने अब बोलना शुरू किया।
“बच्चो, यही है मोनापाठ। हम हमेशा बोलते रहते हैं, पर कभी चुप रहकर सुनना नहीं सीखते। याद रखो—
चुप्पी हमें आत्मा की आवाज़ सुनाती है।
चुप्पी हमें दूसरों को समझना सिखाती है।
और चुप्पी हमें धैर्यवान बनाती है।”
उन्होंने सोनू और गुड्डी की ओर देखकर कहा,
“आज तुम दोनों के नाम शोर-पट्टिका पर चढ़े, मगर कोई बात नहीं। असली सीख यही है कि गलती से भी सीखना चाहिए।”
🌱 बच्चों की प्रतिक्रिया
राजू खड़ा होकर बोला, “गुरुजी, अब मैं वादा करता हूँ कि पहले सुनूँगा, फिर बोलूँगा।”
माया बोली, “अब मुझे समझ आया कि सिर्फ बोलने से कोई बड़ा नहीं बनता, सुनने से भी इंसान समझदार होता है।”
फैज़ल ने कहा, “गुरुजी, आज का दिन मेरी ज़िंदगी का सबसे शांत दिन था।”
सोनू ने हाथ जोड़कर कहा, “गुरुजी, अगली बार मैं भी शोर-पट्टिका पर नाम नहीं चढ़ाऊँगा।”
🌱 अंत की सीख
गुरुजी ने सभी बच्चों को खड़ा करके एक साथ कहलवाया—
“हम समय पर चुप रहना सीखेंगे, ताकि सही समय पर सही शब्द बोल सकें।”
कक्षा ताली से गूँज उठी।
बाहर हवा बह रही थी और बच्चों के चेहरे पर नई समझ की रोशनी थी।
गाँव की शामें वैसे तो बड़ी सुकून भरी होती थीं—पंछियों का घर लौटना, बैलों की घंटियों की झंकार, और कहीं दूर से आती ढोलक की थाप। पर आज की शाम अलग थी। सूरज ढल चुका था, और आकाश में गाढ़ा नीला रंग उतर रहा था। चाँद बादलों में छिपा था, और गाँव की गलियाँ लगभग अंधेरी हो चली थीं।
गाँव के बच्चों को इस बात का बिल्कुल अंदाज़ा नहीं था कि आज की कक्षा कुछ अलग ही होने वाली है।
महेश गुरुजी ने सुबह ही ऐलान कर दिया था –
“आज की पढ़ाई रात को होगी। सबको ठीक आठ बजे पीपल के पेड़ के नीचे आना है। कोई बहाना नहीं चलेगा।”
बच्चे तो हैरान रह गए थे।
रामू बोला – “गुरुजी, रात में? पढ़ाई होती है क्या?”
चंदा ने कहा – “माँ तो मुझे बिल्कुल जाने नहीं देंगी। कहेंगी भूत आ जाएगा।”
कालू :- "गुरु जी मुझे अंधेरे से तो बहुत डर लगता है।"
मीना :- " गुरु जी क्या किताब और बस्तर भी लेकर आना है "
शिवा बोला – “और अगर अँधेरे में साँप निकल आया तो?”
गुरुजी बस मुस्कुरा दिए। उनका चेहरा हमेशा रहस्यमयी लगता था, जैसे भीतर ही भीतर कोई गहरी योजना बना रहे हों। उन्होंने केवल इतना कहा –
“जिसे सीखना है, वह आएगा। डरने वाले घर बैठकर डरते रहें।”
---
शाम ढलते ही बच्चे इधर-उधर से बहाने बनाने लगे।
रामू ने अपनी माँ से कहा – “गुरुजी ने आज रात को क्लास रखी है।”
माँ चौंक गईं – “पगला गए हैं क्या तुम्हारे गुरुजी? रात में कौन पढ़ाता है?”
रामू बोला – “माँ, गुरुजी तो अतरंगी ही हैं। कह रहे थे कि बहुत ज़रूरी सबक देंगे।”
माँ थोड़ी सोच में पड़ीं, फिर बोलीं – “ठीक है, पर साथ में लाठी लेकर जाना। और देर मत करना।”
इधर चंदा ने अपनी दादी से रोते-रोते कहा – “मुझे नहीं जाना अंधेरे में।”
दादी ने उसे गोद में लेकर समझाया – “बिटिया, डर से भागने से डर बड़ा हो जाता है। गुरुजी कुछ सोच-समझकर ही कर रहे होंगे। जा, हिम्मत जुटा।”
मीना वह तो समय से तैयार हो गई उसे बहुत शौक था नई-नई चीज सीखना और उसे अपने गुरुजी की कक्षाएं बड़ी पसंद थी
धीरे-धीरे सभी बच्चों ने अपने-अपने घरवालों को मना लिया। किसी ने लालटेन उठाई, किसी ने टॉर्च, किसी ने डंडा। और कुछ तो ऐसे भी थे जो बस बिना बताए चुपचाप निकल पड़े।
---
रात के ठीक आठ बजे गाँव के बीच वाले चौक में खड़ा विशाल पीपल का पेड़ जैसे बच्चों का इंतज़ार कर रहा था। हवा सरसराती थी तो उसकी शाखाएँ डरावने साए बनातीं। बच्चे एक-एक करके आने लगे।
रामू सबसे पहले पहुँचा। उसने इधर-उधर देखा और घबराकर बोला – “अरे, कोई है क्या?”
फिर शिवा और मोहन आ गए।
मोहन ने कहा – “देख रामू, अगर आज गुरुजी सच में भूत दिखा देंगे न, तो मैं भाग जाऊँगा।”
शिवा ने डरते-डरते कहा – “भागेगा कहाँ? अंधेरे में रास्ता भी तो दिखेगा नहीं।”
इतना कहते ही अचानक गुरुजी प्रकट हुए। उनके हाथ में एक छोटी-सी लालटेन थी। चेहरे पर वही रहस्यमयी मुस्कान।
“तो आ गए सब?” उन्होंने धीमी आवाज़ में पूछा।
बच्चों ने चारों तरफ देखा। अब तक करीब पंद्रह बच्चे जमा हो चुके थे।
---
गुरुजी ने लालटेन ज़मीन पर रख दी और बोले –
“आज की कक्षा किताबों की नहीं है। आज हम सीखेंगे अंधेरे में रास्ता ढूँढना।”
बच्चे चौंक गए।
चंदा ने तुरंत कहा – “गुरुजी, हमें तो डर लग रहा है।”
गुरुजी ने गंभीर स्वर में कहा –
“डर सबको लगता है। लेकिन जो डर को जीत ले, वही सच्चा विद्यार्थी है। आज तुम सबको गाँव के बाहर वाले तालाब तक जाना होगा। बिना लालटेन, बिना टॉर्च। सिर्फ चाँद की रोशनी और अपनी हिम्मत के सहारे।”
सब बच्चे एक-दूसरे को देखने लगे। कुछ ने तो तुरंत विरोध कर दिया।
रामू बोला – “गुरुजी, इतना अंधेरा है कि हमें रास्ता भी नहीं दिखेगा।”
गुरुजी ने कहा – “रास्ता वही देख पाते हैं जो आँखें खोलकर चलते हैं। तुम सबको यह सीखना है कि अंधेरे में भी रास्ता होता है।”
---
जैसे ही बच्चों ने कदम बढ़ाया, पेड़ों की शाखाएँ हिलने लगीं। रात का सन्नाटा और गहरा हो गया।
मोहन ने धीरे से कहा – “सुन, ये कैसी आवाज़ आई?”
शिवा बोला – “लगता है उल्लू बोल रहा है।”
चंदा तो काँप ही गई – “मुझे तो लग रहा है कोई पीछा कर रहा है।”
गुरुजी पीछे-पीछे चल रहे थे। बीच-बीच में बस इतना कहते –
“मत डरना। आवाज़ें हमेशा होती हैं। डर केवल तुम्हारे मन में है।”
---
चलते-चलते रामू अचानक एक पत्थर से ठोकर खाकर गिर पड़ा।
वह गुस्से में चिल्लाया – “गुरुजी, ये कैसा खेल है? हमें चोट लग जाएगी।”
गुरुजी ने उसे उठाया और कहा –
“ठोकर लगना रास्ते का हिस्सा है। जो गिरकर उठना सीख लेता है, वही आगे बढ़ पाता है। अगर गिरने के डर से रुक जाओगे तो मंज़िल कभी नहीं मिलेगी।”
रामू चुप हो गया। बाकी बच्चों ने भी एक-दूसरे का हाथ पकड़ लिया ताकि कोई और न गिरे।
---
करीब आधे घंटे के डर, हँसी और ठोकरों के बाद सब बच्चे तालाब तक पहुँच गए। चाँद अब बादलों से निकल आया था और पानी पर उसकी परछाईं लहरों की तरह झिलमिला रही थी।
गुरुजी ने सबको बैठा लिया।
“तो बताओ,” उन्होंने पूछा, “कैसा लगा अंधेरे में सफ़र?”
शिवा बोला – “डर तो लगा, पर अब लग रहा है कि इतना भी मुश्किल नहीं था।”
चंदा ने कहा – “अगर सब साथ न होते तो मैं तो कभी नहीं पहुँच पाती।”
रामू ने धीरे से कहा – “गुरुजी, सच कहूँ तो… रास्ता अंधेरे से नहीं, हमारे डर से मुश्किल लग रहा था।”
गुरुजी ने संतोष से सिर हिलाया और बोले –
“यही पहला सबक है। अंधेरा बाहर नहीं, अंदर होता है। जो भीतर के अंधेरे को जीत ले, वही असली रोशनी देखता है।”
---
बच्चों ने पहली बार महसूस किया कि डर केवल एक भ्रम है। रास्ता कठिन था, पर असंभव नहीं।
गुरुजी ने अंत में कहा –
“आज तुमने अंधेरे में चलना सीखा। अगले अध्याय में सीखोगे – अंधेरे में भी दोस्ती का हाथ कैसे सबसे बड़ी रोशनी बनता है।”
बच्चे लौटते समय अब उतने डरे हुए नहीं थे। हाँ, आवाज़ें वही थीं, पेड़ों के साए वही थे, लेकिन उनके मन में रोशनी जल चुकी थी।
plz follow me
गाँव का आसमान उस दिन थोड़ा धुंधला था। हल्की ठंडी हवाएँ बह रही थीं और खेतों के किनारे खड़े पेड़ झूमते हुए किसी रहस्य की गवाही दे रहे थे। सुबह से ही बच्चों में उत्साह था। पिछली शाम महेश गुरुजी ने घोषणा की थी कि वे आज बच्चों को एक अलग जगह ले जाएँगे—गाँव के बाहर, उस पुराने रास्ते पर, जिसे गाँव वाले बरसों से “अंधेरी सुरंग” कहकर पुकारते हैं।
गाँव के बुजुर्ग अक्सर उस रास्ते का ज़िक्र करते हुए बच्चों को डराया करते थे। कहते थे—“वहाँ मत जाना, वहाँ अंधेरा है, वहाँ खतरनाक चीज़ें छिपी रहती हैं।” बच्चे भी अपने-अपने घरों में इन कहानियों को सुनते-सुनते बड़े हुए थे।
लेकिन आज, वही रास्ता महेश गुरुजी की कक्षा का हिस्सा बनने वाला था।
सुबह की शुरुआत हो चुकी थी
गाँव का चौक फिर से चहल-पहल से भरा हुआ था। बच्चे इकट्ठा हो चुके थे।
गुरुजी हमेशा की तरह सादा सफेद कुर्ता और धोती पहने हुए थे। उनकी आँखों में वह खास चमक थी जो बताती थी कि आज कुछ बड़ा सीखने को मिलेगा।
“तो बच्चों,” गुरुजी ने ऊँची आवाज़ में कहा, “क्या तुम सब तैयार हो उस नए सफ़र के लिए?”
“हाँ गुरुजी!” बच्चों की आवाज़ पूरे चौक में गूँज उठी।
रामू, जो हमेशा सबसे आगे रहता था, बोला—
“गुरुजी, सच में हमें अंधेरी सुरंग में ले चलेंगे? वहाँ तो भूत रहते हैं, मेरी दादी कहती हैं।”
सभी बच्चे हँस पड़े।
गुरुजी ने मुस्कुराते हुए कहा—
“रामू, अगर दादी की बात सही होती तो मैं आज तक जिंदा कैसे रहता? मैं तो कई बार उस रास्ते पर गया हूँ।”
सीमा, जो हमेशा थोड़ी डरपोक रहती थी, धीरे से बोली—
“लेकिन गुरुजी… अगर सच में वहाँ कुछ हुआ तो?”
गुरुजी ने पास आकर उसके सिर पर हाथ फेरा और बोले—
“डर वहीं होता है जहाँ हमें रास्ता दिखता नहीं। आज हम वही सीखेंगे—अंधेरे में भी रास्ता कैसे निकाला जाता है।”
सफ़र की शुरुआत मेँ
बच्चे कतार बनाकर चल पड़े। रास्ते में खेत-खलिहान थे, कहीं-कहीं छोटे-छोटे नाले बह रहे थे। पंछियों की चहचहाहट और हल्की धूप बच्चों के कदमों को और तेज़ कर रही थी।
चलते-चलते बबली ने कहा—
“गुरुजी, हमें पढ़ाई के लिए अंधेरी जगह पर क्यों ले जा रहे हैं? स्कूल में तो उजाला है।”
गुरुजी रुके, बच्चों को चारों ओर घेरा बनाकर बैठाया और बोले—
“बबली, ज़िंदगी में हमेशा उजाला ही नहीं होता। बहुत बार हमें अंधेरे में भी रास्ता ढूँढना पड़ता है। अगर हम केवल रोशनी में ही सीखेंगे, तो अंधेरे से लड़ना कैसे आएगा? आज की कक्षा इसी सवाल का जवाब देगी।”
बच्चे अब और उत्सुक हो गए।
अंधेरी सुरंग का पहला दर्शन
करीब आधे घंटे की पैदल यात्रा के बाद सब गाँव के बाहर उस पुराने पहाड़ी रास्ते पर पहुँचे। सामने एक बड़ा सा पत्थरों का ढेर था, जिसके बीच में गुफ़ा जैसा मुँह दिखाई दे रहा था।
गुफ़ा का मुँह काला था, जैसे भीतर कुछ भी दिखाई नहीं देता। बच्चे एक-दूसरे के पीछे छिपने लगे।
मोहित ने धीरे से कहा—
“ये वही जगह है ना गुरुजी? जिसके बारे में सब कहते हैं कि वहाँ साँप निकलते हैं?”
गुरुजी हँस पड़े—
“साँप तो खेतों में भी निकलते हैं, मोहित। पर उससे हम खेत जाना छोड़ देते हैं क्या?”
रामू ने ज़ोर से कहा—
“नहीं! लेकिन फिर भी ये जगह डरावनी है।”
गुरुजी ने सबको पास बुलाकर कहा—
“बच्चों, याद रखो—डर हमेशा बाहर नहीं होता। डर हमारे भीतर होता है। आज हमें अपने भीतर के डर को हराना है। अब बताओ, कौन सबसे पहले अंदर जाएगा?”
कुछ देर सन्नाटा रहा। सभी बच्चे एक-दूसरे का मुँह देखने लगे।
फिर अचानक सोनू बोला—
“मैं जाऊँगा गुरुजी। अगर आप हमारे साथ रहेंगे तो मुझे डर नहीं लगेगा।”
गुरुजी ने उसकी पीठ थपथपाई—
“बहादुरी यही है। डरना नहीं, बल्कि डर के बावजूद आगे बढ़ना।”
सुरंग के भीतर जाने के लिए
गुरुजी ने बच्चों को कतार में खड़ा किया। सबसे आगे सोनू, फिर रामू, सीमा, बबली और बाकी बच्चे। गुरुजी सबसे पीछे।
जैसे ही वे अंदर गए, अंधेरा घना होता गया। बाहर की रोशनी पीछे छूट चुकी थी। दीवारों से टप-टप पानी गिरने की आवाज़ गूँज रही थी।
सीमा ने डरकर कहा—
“गुरुजी, मुझे कुछ दिखाई नहीं दे रहा!”
गुरुजी की आवाज़ आई—
“सीमा, आँखें मत डराओ। धीरे-धीरे अंधेरे में भी चीज़ें दिखने लगेंगी। थोड़ी देर धैर्य रखो।”
रामू ने चुटकी लेते हुए कहा—
“अगर भूत दिख गया तो?”
सभी बच्चे फिर हँस पड़े। डर थोड़ा कम हो गया।
कुछ कदम और आगे बढ़े तो अचानक किसी ने सीमा के पैर को छुआ। वह चीख पड़ी।
“आsss!”
सब रुक गए।
गुरुजी ने अपनी छड़ी नीचे मारी—
“ये तो बस एक मेंढक है। देखो।”
बच्चे पास आए और देखा—सचमुच एक छोटा सा मेंढक उछलकर दीवार पर चढ़ गया।
गुरुजी ने कहा—
“देखा, डर कैसे बना? हमें लगा कोई बड़ी चीज़ है, लेकिन असल में वह बहुत छोटा था। यही ज़िंदगी है बच्चों। डर को बड़ा मत बनाओ।”
बीच की चालू हो गई गुरूजी की शिक्षा
गुरुजी ने सबको वहीं बैठा लिया।
“बच्चों, आज की शिक्षा यही है—
जब अंधेरा हो, तो हमें धैर्य, विश्वास और साहस चाहिए।
जब डर लगे, तो उसे पहचानो, समझो और फिर उससे आगे बढ़ो।
ज़िंदगी में ऐसे ही पल आएँगे—कभी परीक्षा का डर, कभी असफलता का, कभी लोगों की बातें सुनने का।
लेकिन अगर तुम हिम्मत से सामना करोगे, तो रास्ता अपने आप साफ़ हो जाएगा।”
बच्चे ध्यान से सुन रहे थे।
सुरंग का दूसरा छोर
करीब आधे घंटे बाद वे सुरंग के दूसरे छोर पर पहुँचे। वहाँ हल्की सी रोशनी अंदर आ रही थी।
रामू ने खुशी से कहा—
“गुरुजी! हमें बाहर का रास्ता दिख रहा है!”
सब बच्चे भागते हुए बाहर निकल आए।
बाहर का नज़ारा बेहद सुंदर था। हरे-भरे पेड़, नीला आसमान और ठंडी हवा। सबने राहत की साँस ली।
गुरुजी ने वहीं खड़े होकर कहा—
“बच्चों, अब बताओ—अंधेरे से ज़्यादा सुंदर क्या है?”
सीमा बोली—
“रोशनी गुरुजी।”
गुरुजी मुस्कुराए—
“हाँ। लेकिन अगर हम अंधेरे में न जाते, तो इस रोशनी की कीमत भी न समझते। यही है आज का पाठ—अंधेरे में भी रास्ता होता है। हिम्मत से चलो, तो मंज़िल जरूर मिलती है।”
---
सोनू बोला—
“गुरुजी, अब मुझे डर नहीं लगता। मैं जान गया हूँ कि डर सिर्फ दिमाग का खेल है।”
रामू ने कहा—
“गुरुजी, अब जब भी मैं परीक्षा से डरूँगा, तो याद करूँगा कि सुरंग भी तो पार कर ली थी।”
सीमा ने धीरे से कहा—
“गुरुजी, सच में… अगर आप हमारे साथ न होते, तो मैं कभी सुरंग में नहीं जाती।”
गुरुजी ने प्यार से कहा—
“सीमा, यही तो असली बात है। जीवन में भी जब तुम अकेली चलोगी, तो विश्वास तुम्हारा साथ देगा। गुरु ही रास्ता दिखाता है, लेकिन चलना तुम्हें ही होता है।”
---
बच्चे खुशी-खुशी गाँव लौटे। रास्ते भर वे सुरंग के किस्से सुनाते रहे। कुछ बच्चे बहादुरी दिखाने लगे, कुछ मज़ाक में कहने लगे कि “रामू तो भूत से डर गया था!”
गुरुजी पीछे-पीछे मुस्कुरा रहे थे।
आज की शिक्षा उनके दिल में भी ताज़ा थी—
“अंधेरा कभी डराने के लिए नहीं आता, बल्कि हमें रोशनी की अहमियत सिखाने के लिए आता है।”
गाँव रतनपुरा की सुबह इस बार कुछ अलग थी। हर रोज़ सूरज की किरणें जैसे ही कच्ची गलियों पर बिखरती थीं, लोग अपने-अपने खेतों और काम पर लग जाते थे, लेकिन आज गाँव में एक अलग सी हलचल थी। गाँव का चौक सजा हुआ था। मिट्टी की पुरानी हवेलियों के सामने आम की टहनियों से बने तोरण लटक रहे थे। चौपाल पर बैठे बुजुर्ग धूप का आनंद ले रहे थे और पास ही बच्चे खेलकूद कर रहे थे। परंतु, हवा में एक हल्की-सी फुसफुसाहट भी तैर रही थी—"आज गुरुजी फिर कुछ नया पाठ पढ़ाने वाले हैं… लेकिन इस बार क्या होगा?"
महेश गुरुजी गाँव के सबसे अनोखे और अतरंगी शिक्षक थे। उनका मानना था कि शिक्षा केवल किताबों तक सीमित नहीं है। असली शिक्षा है—जीवन जीने की कला सीखना। इसलिए वे रोज़ कुछ नया प्रयोग करते, जिससे बच्चे ही नहीं, गाँव वाले भी सीख लें।
आज वे अपनी लकड़ी की छड़ी और झोले के साथ निकल पड़े। लेकिन इस बार उनका पहनावा अलग था। सफ़ेद धोती और हल्के नीले रंग का कुर्ता पहने, कंधे पर एक पुराना लेकिन साफ़-सुथरा अंगोछा डाले, वे चलते हुए ऐसे लग रहे थे मानो कोई साधारण किसान ही हों। उनकी आँखों में हमेशा की तरह शरारत और ज्ञान की चमक थी।
बच्चों का जमावड़ा
गाँव के सभी बच्चे—राजू, पप्पू, सीमा, गुड्डी, लक्ष्मी, सोनू और बाकी साथी—गुरुजी का इंतज़ार कर रहे थे। वे सब चौपाल पर पहले से मौजूद थे।
राजू (उत्साहित होकर):
"गुरुजी, आज क्या पढ़ाएंगे? पिछले हफ्ते तो आपने हमें समय की कीमत समझाई थी। अब क्या नया होगा?"
गुड्डी (हँसते हुए):
"कहीं फिर से खेत में काम न करा दें! मेरी तो अब भी कमर दर्द कर रही है।"
सब हँस पड़े।
तभी गुरुजी चौपाल पर पहुँचे।
गुरुजी (मुस्कुराते हुए):
"अरे, कमर दर्द? यह तो अच्छा है गुड्डी! अब जब बड़ी होगी और घर का काम करेगी, तो यह दर्द तुम्हें पहले से याद रहेगा और तुम काम की अहमियत समझोगी।"
बच्चे फिर हँसने लगे।
गुरुजी की अनोखी योजना
गुरुजी ने सब बच्चों को इकट्ठा किया और बोले—
"आज का पाठ है – गुमनाम उपहार और निस्वार्थ सेवा।"
पप्पू (हैरान होकर):
"गुरुजी, उपहार तो सबको पसंद होते हैं। लेकिन ये गुमनाम उपहार क्या होता है?"
गुरुजी ने गंभीर स्वर में कहा:
"गुमनाम उपहार वही होता है जो बिना नाम बताए दिया जाए। जहाँ देने वाले का नाम, पहचान या बड़प्पन दिखाने की इच्छा न हो। निस्वार्थ सेवा वही है जिसमें बदले में कुछ उम्मीद न हो। आज तुम सबको यही सिखाना है।"
सीमा:
"लेकिन गुरुजी, ये हम कैसे सीखेंगे? हम तो बस बच्चे हैं, हमारे पास तो देने के लिए कुछ है ही नहीं।"
गुरुजी ने शरारती अंदाज़ में आँखें चमकाईं और बोले:
"अरे, देने के लिए पैसे या बड़ी चीज़ें होना ज़रूरी नहीं है। सच्ची सेवा तो मन से होती है। आओ, आज मैं तुम्हें इस गाँव की गलियों में ले चलता हूँ और तुम सब खुद सीखोगे।"
रतनपुरा गाँव नर्मदा नदी के किनारे बसा था। यहाँ मिट्टी के घर, खपरैल की छतें और बीच-बीच में नीम और पीपल के पेड़ गाँव की खूबसूरती को बढ़ाते थे। लोग सीधे-सादे थे, आपसी मेलजोल में विश्वास रखते थे। परंतु हर गाँव की तरह यहाँ भी कुछ परिवार सम्पन्न थे और कुछ बिल्कुल ग़रीब।
गाँव के दक्षिणी छोर पर हरिराम काका का घर था। वे बूढ़े थे, अकेले रहते थे। उनकी आँखें अब ठीक से देख नहीं पाती थीं। गाँव के उत्तर में सुनीता बाई का घर था—वो विधवा थीं, सिलाई-कढ़ाई करके अपना गुज़ारा करती थीं। बीच में चौपाल था, जहाँ सबका जमावड़ा होता।
गुरुजी बच्चों को गाँव के उत्तर की ओर ले चले।
पहला सबक – किसी को बिना बताए मदद करना
गुरुजी ने बच्चों को सुनीता बाई का टूटा दरवाज़ा दिखाया।
गुरुजी:
"देखो बच्चों, यह दरवाज़ा टूटा हुआ है। हवा चलती है तो वह हिलता है और रात को आवाज़ करता है। सुनीता बाई के पास पैसे नहीं हैं कि वह इसे ठीक करवा सकें। अब तुम बताओ, अगर हमें निस्वार्थ सेवा करनी हो तो क्या कर सकते हैं?"
राजू (सोचते हुए):
"गुरुजी, हम सब मिलकर इसे ठीक कर सकते हैं। लकड़ी और कील तो चौपाल के पास पड़े रहते हैं।"
गुरुजी (मुस्कुराकर):
"सही कहा राजू। लेकिन याद रखना, सुनीता बाई को पता नहीं चलना चाहिए कि यह काम किसने किया। यही है गुमनाम उपहार।"
बच्चों ने उत्साह से काम शुरू किया। सोनू और पप्पू ने लकड़ी उठाई, सीमा और गुड्डी ने कीलें और हथौड़ा लिया। सब मिलकर दरवाज़े को ठीक करने लगे। आधे घंटे में दरवाज़ा पहले से मजबूत और सुंदर दिखने लगा।
गुड्डी (हाथ झाड़ते हुए):
"लो गुरुजी, काम पूरा हो गया। अब जब सुनीता बाई लौटेंगी तो सोचेंगी कि दरवाज़ा किसने बनाया।"
गुरुजी (मुस्कुराते हुए):
"यही तो असली सेवा है। किसी की मदद करो, लेकिन नाम और पहचान छुपा कर।"
दूसरा सबक – भूखे को भोजन
इसके बाद गुरुजी बच्चों को हरिराम काका के घर ले गए।
गुरुजी:
"बच्चो, हरिराम काका बूढ़े हो चुके हैं। वे खुद खाना नहीं बना पाते। अक्सर गाँव वाले उन्हें खाना देते हैं, लेकिन कभी समय पर, कभी देर से। सोचो, हम उनके लिए क्या कर सकते हैं?"
लक्ष्मी:
"गुरुजी, हम सब अपनी-अपनी थाली से थोड़ा-थोड़ा निकालकर रोज़ उनके लिए खाना ले जा सकते हैं।"
गुरुजी ने सिर हिलाकर कहा:
"सही है। और अगर यह काम तुम बारी-बारी से करोगे, तो न सिर्फ काका का पेट भरेगा बल्कि तुम्हारे दिल में संतोष भी होगा।"
बच्चे तुरंत मान गए। उस दिन सबने अपनी थालियों से रोटी, दाल और सब्ज़ी मिलाकर काका के घर रख दिया। और फिर चुपचाप लौट आए।
हरिराम काका जब बाहर आए तो उनकी आँखों में आँसू थे।
"हे भगवान, ये किस देवता ने मेरे लिए खाना रखा?"
बच्चे थोड़ी दूरी पर छुपकर यह देख रहे थे। उनके दिल में एक अलग ही खुशी थी।
तीसरा सबक – सेवा में स्वार्थ न हो
अगले दिन चौपाल पर बच्चों के बीच चर्चा हुई।
पप्पू (गर्व से):
"देखा, हमने कितना अच्छा काम किया! अब तो गाँव में सब हमें बहुत मान देंगे।"
तभी गुरुजी ने गंभीर स्वर में टोका:
"यही तो गलती है पप्पू। अगर सेवा में दिखावा और मान पाने की इच्छा हो, तो वह निस्वार्थ सेवा नहीं रहती। असली सेवा वही है जिसमें दिल से मदद की जाए और बदले में कुछ उम्मीद न हो।"
बच्चे चुप हो गए।
गुरुजी की शिक्षा
गुरुजी ने सबको बैठाकर समझाया:
"बच्चो, जीवन में सबसे बड़ी ताक़त है—गुमनाम उपहार। जब तुम किसी के लिए अच्छा काम करो और उसका नाम भी न लो, तो समाज खुद समझेगा कि अच्छाई बिना शोर किए भी फैल सकती है। सेवा करने से आत्मा को शांति मिलती है। यही असली शिक्षा है।"
उस शाम गाँव का नज़ारा बदला हुआ था। सुनीता बाई का दरवाज़ा अब सुरक्षित था, हरिराम काका का पेट भरा था और बच्चों के मन में एक नई रोशनी जल चुकी थी।
गुरुजी चौपाल पर खड़े होकर बोले:
"आज तुम सबने सीख लिया कि बिना नाम बताए, बिना बदले की चाह रखे भी किसी की मदद की जा सकती है। यही असली इंसानियत है।"
बच्चे तालियाँ बजाने लगे।
राजू ने धीमे स्वर में कहा:
"गुरुजी, अब समझ आया—सबसे बड़ा उपहार वही है जो बिना नाम के दिया जाए।"
गुरुजी मुस्कुरा उठे।