झारा हाशमी ने कभी नहीं सोचा था कि इब्राहिम मिर्जा, जिसे वो बचपन से जानती और भरोसा करती थी, एक दिन उसके सामने शादी का ऐसा प्रस्ताव रखेगा, जिसमें शर्तें होंगी और समझौता भी। दस साल का उम्र का फर्क, सोच में जमीन-आसमान का अंतर, और एक शादी जो हालात की मजबू... झारा हाशमी ने कभी नहीं सोचा था कि इब्राहिम मिर्जा, जिसे वो बचपन से जानती और भरोसा करती थी, एक दिन उसके सामने शादी का ऐसा प्रस्ताव रखेगा, जिसमें शर्तें होंगी और समझौता भी। दस साल का उम्र का फर्क, सोच में जमीन-आसमान का अंतर, और एक शादी जो हालात की मजबूरी बन जाती है। इब्राहीम, एक सख्त और कामयाब बिज़नेस मैन, जिसकी ज़िंदगी डिसिप्लिन और कंट्रोल से चलती है। ज़ारा, एक खुले विचारों वाली, सेल्फ रिस्पेक्ट रखने वाली लड़की, जिसे अपनी पहचान और हदें पता हैं। जब मजबूरी उन्हें एक साथ लाती है, तो क्या उनका ये रिश्ता प्यार में बदल पाएगा? या ये बस एक समझौते की शादी बनकर रह जाएगा? क्या ज़ारा इब्राहिम के बनाए नियम तोड़ पाएगी? या खुद को खो बैठेगी? जानने के लिए पढ़िए
Ibrahim Mirza
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Zara Hashmi
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लखनऊ के पुराने लेकिन रॉयल हिस्से में बसा "मिर्जा हाउस", बाहर से जितना भव्य और आलीशान दिखता है, अंदर से उतना ही सुकून भरा और तहज़ीब से सराबोर है।
छतों पर नक्काशीदार मेहराबें, संगमरमर के खंभे और लकड़ी के ऊँचे दरवाज़े उस ज़माने की याद दिलाते हैं जब हर ईंट में शान और हर कोने में इज़्ज़त बसी होती थी।
मुख्य दरवाज़े पर चांदी की चेन लटकी होती है, जो सालों से चली आ रही है — जिसे बजा कर आज भी कोई मेहमान अपनी मौजूदगी का ऐलान करता है। अंदर घुसते ही एक बड़ा सा औपन हॉल है जहाँ दीवार पर लगे पुराने फ़ैमिली पोर्ट्रेट और कुरान की आयतों की ख़ूबसूरत ख़त्ताती उस विरासत को दर्शाते हैं जिसे फ़ैज़ खानदान ने पीढ़ियों से सँजो कर रखा है।
हॉल के एक कोने में बेशकीमती लकड़ी की अलमारी में रईस मिर्जा की कुछ किताबें और दस्तार रखी हुई हैं — जिनके सामने नसीरा अक्सर बैठ कर यादों में खो जाती हैं।
पीतल की फ़व्वारा जैसी वॉटर बाउल, उसके पास लगे गुलाबों से सजी हुई क्यारियाँ, और पुराने जमाने की झूमर से लटकती रोशनी एक ऐसा माहौल बनाते हैं जहाँ वक़्त ठहर जाता है।
नसीरा फ़ैज़ का कमरा, ग्राउंड फ्लोर पर, पूरी तरह से सफेद पर्दों, गुलाबी नमाज़ी चटाई और लोहे के फ़्रेम वाले पलंग से सजा हुआ है। वहां एक कोना है जहाँ वो हर सुबह नमाज़ पढ़ने बैठती हैं और रईसा को याद करके एक चुप सी दुआ करती हैं।
54 साल की नसीरा आरीफ मिर्जा, मिर्जा ग्रुप ऑफ़ इंडस्ट्रीज़ की एकमात्र मालिक, के माथे पर झुर्रियाँ पड़ गई थीं — अपनी उम्र की वजह से नहीं, बल्कि एक अजीब ख़बर की फ़ोन कॉल के आने पर। सुबह के 4 बजे थे। उसने बंद आँखों से अपना मोबाइल ढूँढने के लिए हाथ हिलाया और आख़िरकार फ़ोन कटने से पहले ही उसे ढूँढ़ लिया था।
"क्या ...!" जब उसने दूसरी तरफ़ से आवाज़ सुनी तो वह एकदम से सीधी बैठ गई और जल्दी से अपना दुपट्टा उठाया और अपने बेटे के कमरे की ओर भागी।
इब्राहीम का कमरा, ऊपर वाले हिस्से में एक साइलेंट ज़ोन की तरह है। बड़ी खिड़कियाँ जो खुले आसमान की ओर जाती हैं, और अंदर हर चीज़ सलीके से रखी जाती है — जैसे उसके लाइफस्टाइल और उसकी सख़्त लेकिन ज़िम्मेदार शख़्सियत का आईना हो।
मिर्ज़ा इंडस्ट्री के इकलौते वारिस, 29 साल के इब्राहिम मिर्जा ने अपनी माँ के लिए दरवाज़ा खोलते हुए जम्हाई ली और अपनी माँ के आँसू भरे चेहरे को देखकर उसकी नींद उड़ गई। । ।
इब्राहिम , 29 साल का, लंबा, चौड़ा और मस्क्युलर पर्सनालिटी वाला शख़्स — जिसकी मौजूदगी में सन्नाटा भी अदब से सर झुका ले। गहरी भूरी आँखें, हल्की दाढ़ी, और सीधा, सख़्त चेहरा — मगर माँ के सामने बच्चा बन जाने वाला बेटा। ।
ब्लैक कुर्ते या फिटेड शर्ट में उसका लुक किसी हीरो से कम नहीं। उसकी आवाज़ धीमी लेकिन असरदार, चाल में ठहराव और बातों में वज़न है।
इब्राहिम नज़रों में नहीं, दिल में उतरता है।
"अम्मी, क्या हुआ...?" उसने चिंतित स्वर में पूछा, जबकि वह अपने आँसू पोंछते हुए बोली —
"
रईसा अब नहीं रही..."
रईसा हाशमी।
बचपन से नसीरा की सबसे अच्छी और इकलौती दोस्त, जो हमेशा उसके साथ खड़ी रही थी।
रईसा हाशमी, बचपन से ही नसीरा की सबसे अच्छी और एकलोती सहेली, जो उसके हर सुख-दुख में उसके साथ खड़ी रही, अचानक ही दिल का दौरा पड़ने से चल बसी थी।
"क्या !!" इब्राहीम ने भी कहा, लेकिन उसकी अम्मी उसकी पहली प्रायोरिटी थी। उन्हें यूँ रोते देखकर चिंता हो रही थी, और वह क्यों नहीं रोएंगी।
पिछले 3 सालों से उन्होंने कभी नहीं रोया था, जब से उनके शौहर की सड़क हादसे में मौत हो गई थी। यह आख़िरी बार था जब इब्राहिम ने अपनी अम्मी को यूँ टूटते हुए देखा था — तब भी और अब भी। उसने अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश की और सुझाव दिया कि उन्हें वहाँ जाना चाहिए, क्योंकि रईसा ख़ाला की इकलौती बेटी अब अकेली रह गई होगी।
"हाँ... पता नहीं ज़ारा कैसी है... चलो... जल्दी चलो।" उन्होंने अपने आँसू पोंछे और दोनों रईसा हाशमी के घर की ओर निकल पड़े।
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लखनऊ के शांत और साफ़-सुथरे कॉलोनी एरिया में बना हाशमी हाउस, वो जगह है जो न तो बहुत आलीशान है और न ही तंगी का मारा — लेकिन उसमें एक सलीकेदार शोभा है, जो आंखों को सुकून देती है और दिल को गर्मी।
रईसा हाशमी का घर
हर मेहमान उस नाम को देखकर ही समझ जाता है कि यह घर पढ़े-लिखे, समझदार और इज़्ज़तदार लोगों का है।
लिविंग एरिया में हल्के बेज़ और मरून रंग की सोफ़ा सेट है, जिसकी सिलाई से रईसा के पसंदीदा डिज़ाइनों की झलक मिलती है। सामने एक मोक़ा वुड का टीवी यूनिट, जिस पर कुरआनी आयत फ्रेम में टंगी हुई है और पास में इब्राहिम और नसीरा की एक फैमिली फोटो, जो ज़ारा के बचपन की यादें समेटे हुए है।
दराज़ों में सजे किताबों के कलेक्शन, चाय का पुराना समोवर, और मेटल की बनी टेबल लैंप — सब कुछ छोटा मगर खास। घर में हर चीज़ चुनी हुई है, हर कोना बसाया गया है, जैसे किसी माँ ने अपनी बेटी के लिए दुआओं से घर गढ़ा हो।
रईसा की इकलौती बेटी, 19 साल की ज़ारा हाशमी, जो इंजीनियरिंग के सेकेंड ईयर में थी, किसी बेजान मूर्ति की तरह बैठी हुई थी और अब आँसू भी नहीं बहा पा रही थी।
उसके आँसू अब नहीं बचे थे, क्योंकि वह पहले ही बह चुके थे।
ज़ारा हाशमी, 19 साल की एक सीधी-सादी लेकिन बेहद ख़ूबसूरत लड़की — जिसकी आंखों में ना जाने कितनी अनकही कहानियाँ छुपी हैं। गेहुआ रंग, बड़ी-बड़ी काली आंखें, लंबी घनी पलकों के नीचे हमेशा कुछ सोचती हुई सी नज़रों वाली ज़ारा, खुद में ही एक सुकून है।
उसके चेहरे पर हमेशा एक हलकी सी मायूसी रहती है — जैसे किसी ने उसकी हँसी चुरा ली हो, लेकिन इज़्ज़त और अदब में कभी कमी नहीं आने दी।
लंबे काले बाल, सिंपल सूट सलवार, और दुपट्टा हमेशा ढंग से ओढ़े हुए — उसकी शख़्सियत में नज़ाकत भी है और नर्मी भी। वो कम बोलती है, मगर जब बोलती है तो सामने वाला चुप हो जाता है।
ज़ारा, आवाज़ नहीं — एहसास है।
तीन साल पहले उसके अब्बा की मौत हुई थी — उसी एक्सीडेंट में जिसमें नसीरा के शौहर, आरिफ मिर्जा की मौत हुई थी — और अब उसकी अम्मी भी अचानक उसे छोड़कर चली गई थीं। जब नसीरा उसके पास आईं और उसे अपनी बाहों में लिया, तो ज़ारा फूट-फूटकर रोने लगी।
नसीरा ने हमेशा ज़ारा को अपनी बेटी की तरह माना था और उसे बहुत लाड़-प्यार दिया था, क्योंकि ज़ारा रईसा की शादी के कई साल बाद पैदा हुई थी। उसने सभी को अपने आने का इंतज़ार करवाया था। ज़ारा ने हमेशा अपनी अम्मी रईसा हाशमी और नसीरा मिर्जा की दोस्ती का बहुत सम्मान किया था।
अपने जीवन की सबसे बड़ी ट्रेजेडी ी के बाद भी, उन दोनों ने कभी भी हादसे के लिए एक- दूसरे के शौहर को दोष नहीं दिया, बल्कि एक-दूसरे का सहारा बनीं। उनकी दोस्ती ने सभी के दिलों में जगह बनाई थी। उनके जानने वाले तक उनकी दोस्ती से जलते थे।
अब जब रईसा चली गई थीं, नसीरा भी एकदम अकेली रह गई थीं — बिल्कुल ज़ारा की तरह।
हालाँकि इब्राहिम और ज़ारा की उम्र में 10 साल का अंतर था, और वे कभी भी एक -दूसरे के इतने करीब नहीं थे, सिवाय कुछ मुस्कुराहटों के।
रईसा ने हमेशा इब्राहिम को अपने बेटे की तरह माना था क्योंकि वह ज़ारा से पहले पैदा हुआ था और जब वह शादी के बाद कई सालों तक मां नहीं बन पाई थीं।
ज़ारा न इब्राहिम की दोस्त थी और न ही रिश्तेदार। वह बस उसकी अम्मी की सहेली की बेटी थी, जिसे उसने बचपन से देखा था और यही बात ज़ारा के लिए भी लागू होती थी।
चूँकि वह उससे बड़ा था, इसलिए उनके पास बात करने को कभी कोई कॉमन टॉपिक नहीं था। और सबसे बढ़कर, अपने बीसवें साल में दाखिल होने के बाद से ही इब्राहिम ने जो गंभीर और ताक़तवर रुतबा हासिल किया था, उसने ज़ारा को हमेशा थोड़ा घबराया ही रखा था। वह उससे दूर-दूर ही रहती थी।
लेकिन अब उसे यूँ टूटा हुआ देखकर, इब्राहिम का दिल पिघल गया और वह घर से बाहर निकल गया और पास की कुर्सी पर बैठ गया।
"अरे, हम क्यों ले जाएँगे उसे...? वो तो तुम्हारे भाई की बेटी है... ये तुम्हारी ज़िम्मेदारी है..."** उसने वहाँ खड़े एक आदमी को कहते सुना।
"
ज़िम्मेदारी से तुम्हारा क्या मतलब है...? वो भाई बहुत पहले मर गया था और उसकी बीवी- बच्ची से हमें क्या लेना-देना...!?"**
"जो आज मरी है वो तुम्हारी बहन है ना... तो उस लड़की को अपने साथ ले जाओ..."दूसरे आदमी ने कहा, जो ज़ारा का चाचा कहलाता था।
"वो हमारी सगी बहन नहीं है... बहुत पुराना रिश्ता है... हमारे घर में पहले से ही 6 लोग रह रहे हैं... हम उसे अपने साथ नहीं रख सकते..."वह बड़बड़ाता हुआ अपनी बीवी के पास गया।
"मैं बता रही हूँ, हम उस लड़की की देखभाल नहीं कर सकते... ये बहुत बड़ा बोझ है... उसकी पढ़ाई, फिर निकाह और फिर उसके बच्चे... ये लिस्ट कभी खत्म नहीं होगी... किसी की बात मत मानो..."उस चाचा की बीवी ने फुसफुसाते हुए कहा और उसका शौहर आज्ञाकारी ढंग से सिर हिलाने लगा।
"Disgusting Relatives..." इब्राहीम ने सोचा और उसके चारों ओर इंसानियत को यूँ दम तोड़ता देखकर उसकी उंगलियाँ तक सफेद पड़ गईं।
वह अंदर गया और देखा कि ज़ारा, उसकी अम्मी नसीरा की गोद में लेटी हुई थी और सुबह के 6 बज रहे थे।
"अम्मी... मैं 10 बजे तक वापस आ जाऊँगा... अगर आपको कुछ चाहिए तो रहमान यहाँ होगा..." इब्राहीम ने कहा और नसीरा ने उसकी बिज़नेस ज़िम्मेदारियों को देखते हुए कोई सवाल नहीं किया। और वह यह भी जानती थीं कि वह अपनी रईसा ख़ाला से बहुत मोहब्बत करता था और इस समय सब कुछ संभालने की कोशिश कर रहा है।
"रहमान, इनका ख़्याल रखना... मैं कुछ देर में वापस आ जाऊँगा..."उसने जाते हुए कहा और रहमान, उसके मैनेजर ने सिर हिलाकर हामी भरी।
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कुछ घंटों बाद, जब इब्राहिम वापस लौटा, तो दूर के रिश्तेदार आख़िरी बार रईसा को दुआ देने के लिए इकट्ठा हो रहे थे, और ज़ारा अब भी उसी जगह पर बैठी थी, जबकि उसकी अम्मी की सबसे करीबी दोस्त उसे कुछ खाने के लिए मना रही थीं।
जब भीड़ कम हुई, तो इब्राहिम ने फिर से उसी रिश्तेदार जोड़े को बहस करते हुए सुना, लेकिन इस बार मामला बिल्कुल पलट चुका था।
"वो हमारे भाई की बेटी है... हमारा हक़ बनता है... वो हमारे साथ ही रहेगी..."ज़ारा के चाचा ने कहा। ।
इब्राहीम उनके बदले हुए तेवर देखकर बिल्कुल हैरान रह गया था।
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क्या होगा ज़ारा का अब...?
क्या करेगा इब्राहिम उसकी मदद के लिए...?
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"वो हमारे भाई की बेटी है... पहले हमारा हक है... वो हमारे साथ ही रहेगी..." झारा के चाचा ने कहा।
"ऐसे कैसे... हमारी कोई औलाद नहीं है और मेरी बहन रिश्ता हमारे बहुत करीब थी... अगर चाहो तो झारा से खुद पूछ लो... वो हमारे साथ रहना पसंद करेगी... हम उसे अपने साथ ले जाएंगे..." झारा के दूर के मामू ने जवाब दिया।
इब्राहिम मिर्जा ने भौंहें सिकोड़ लीं। न जाने इन चंद घंटों में ऐसा क्या हुआ कि दोनों पक्षों की ज़ुबान और नियत में इतनी तेज़ तब्दीली आ गई थी।
अपने तजुर्बे से, वो जानता था कि बस एक चीज़ है जो इंसान के इरादों को इस कदर पलट सकती है —
पैसा, पैसा और सिर्फ पैसा।
जब वह सोच में डूबा था, उसने देखा कि उनमें से एक जोड़ा एक कोने में जाकर फुसफुसा रहा था।
इब्राहिम की तेज़ सुनने की आदतों ने उनके अल्फ़ाज़ को पकड़ लिया:
> "छोड़ो ना यह हिसाब किताब... ये 100% पक्की बात है कि इस मकान की कीमत करीब एक करोड़ है... और ये मकान झारा के नाम पर ही है... हमें उसे अपने क़ब्ज़े में लेना है..."
"लेकिन उसकी तालीम और बाकी खर्चों का क्या...?" चाचा ने अपनी चालाक बीवी से पूछा।
> "देखो, वो इस वक्त पूरी तरह से टूटी हुई है... और जो कोई भी इस वक़्त उसकी देखभाल करेगा, वो उसके लिए वफ़ादार हो जाएगी... हम दो-तीन महीने में उससे ट्रांसफर पेपर पर दस्तख़त करवा लेंगे... फिर चाहे वो कहीं भी जाए, हमें क्या! हम कौन-सा ज़िंदगी भर पालने वाले हैं..." उनकी बीवी ने बेरहम लहजे में कहा।
इब्राहिम ने नज़रे फेर लीं और एक लंबी सांस ली।** उसका अंदाज़ा बिल्कुल सही था — ये सब **पैसे का खेल** था।
> "ख़ुदग़रज़ दरिंदे..." इब्राहिम ने सोचा और फिर जनाज़े की रस्में पूरी होने तक खामोशी से इंतज़ार करता रहा।
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**दो घंटे बाद**
"इब्राहिम बेटा... तुम घर जाओ, मैं झारा के साथ रह जाऊँगी..." नसीरा बेगम ने कहा।
जब उसे लगा कि दोनों कपल अब अपना नया नाटक शुरू करेंगे, इब्राहिम उनके सामने खड़ा हो गया। अपनी मां की तरफ देखा और साफ़ कहा:
> "नहीं अम्मी... आपको यहाँ रहने की कोई ज़रूरत नहीं है..."
"लेकिन बेटा, झारा को इस हाल में अकेले कैसे छोड़ दें?"
"आप उसे छोड़ कर नहीं जाएंगी अम्मी।"
फिर इब्राहिम ने रिश्तेदारों की तरफ देखा, भौंहें चढ़ाईं और कड़ाई से बोला:
> "झारा भी हमारे साथ आएगी।"
"अरे ऐसे कैसे! हम सब उसके लिए हैं यहाँ... वो किसी ऐसे मर्द के साथ कैसे जा सकती है जो उसका रिश्तेदार भी नहीं!" कथित चाची ने विरोध जताया।
इब्राहिम ने उनकी बात को अनसुना किया और पुकारा:
> "झारा..."
वो उसकी आवाज़ सुनकर झिझकी, लेकिन फिर भी उसने अपनी पलकों को उठाकर उसकी तरफ देखा।
इब्राहिम ने नरम लहजे में पूछा:
> "क्या तुम हमारे साथ चलने के लिए तैयार हो...?"
झारा ने पहले नसीरा बेगम की तरफ देखा — जो उसे हमेशा अपनी बेटी की तरह चाहती थीं, फिर अपने लालची रिश्तेदारों की तरफ —
जिन्होंने अब्बू की मौत के बाद एक बार भी उन्हें नहीं पूछा — और आखिर में **इब्राहिम** की तरफ देख कर चुपचाप सिर हिला दिया।
**इब्राहिम ने ठंडी नज़र से लालची रिश्तेदारों को देखा,** जो एक-दूसरे का मुँह ताक रहे थे।
> "जाओ अपना सामान पैक करो..." — उसने नरमी से कहा।
**नसीरा बेगम** झारा के साथ उसके कमरे में गईं और ज़रूरी सामान पैक कराने में मदद की।
जब दोनों बाहर निकलीं, तो **रहमान** ने झट से बैग उठाया और कार में रखने चला गया।
"झारा, दरवाज़ा बंद करो..." — इब्राहिम ने कहा।
और पूरे वक़्त रिश्तेदारों को नज़रें गड़ा कर देखता रहा।
**नसीरा बेगम को अब सब समझ आ गया था।**
जो भी हुआ, उसकी वजह जो भी हो, पर उन्हें इत्मीनान था कि **झारा अब सुरक्षित हाथों में थी।**
> "और चाबी अपने पास रखो... ये घर तुम्हारा है, और रहेगा..." — इब्राहिम ने झारा से कहा।
हर लफ़्ज़ में इतनी **ताक़त और भरोसा** था कि कोई भी विरोध करने का साहस नहीं कर सकता था।
रिश्तेदारों को इब्राहिम की **तेज़ आँखों और भारी आवाज़** ने अंदर तक डरा दिया।
इब्राहिम ने अपनी अम्मी को सिर हिलाकर इशारा किया और वे झारा के साथ कार की तरफ बढ़ गए।
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### **मिर्जा हवेली**
"अम्मी, मैं स्टडी में हूँ... अगर कुछ चाहिए तो आवाज़ दे देना," इब्राहिम ने घर पहुँचते ही कहा और झारा पर एक नज़र डाली — जो सफर भर खामोश रही थी — फिर ऊपर चला गया।
नसीरा बेगम ने झारा को उसके कमरे तक पहुंचाया, और एक घरेलू नौकर उनका सामान ले आया।
झारा इससे पहले भी यहाँ कई बार अपनी मां के साथ आई थी, लेकिन कभी एक रात से ज़्यादा नहीं रुकी थी।
> "बेटा झारा, ये तुम्हारा कमरा है... इसे अपना घर समझो... तुम्हारा बाकी सामान हम कल ले आएँगे। कुछ चाहिए हो तो बता देना..." — नसीरा बेगम ने कहा।
झारा चुपचाप बैठी रही।
> "जाओ, वुज़ू कर लो... फ्रेश फील करोगी..." — उन्होंने मुलायम लहजे में कहा।
कुछ देर बाद, झारा वुज़ू करके लौटी।
> "कुछ खाओगी, बेटा? दूध के गिलास के अलावा कुछ नहीं लिया तुमने..." — नसीरा बेगम ने चिंता से पूछा।
> "नहीं आंटी... बस थोड़ी देर सोना चाहती हूँ..." — उसने थकी हुई आवाज़ में जवाब दिया।
**नसीरा बेगम ने उसे अपनी गोद में लिटाया और सुला दिया।**
वो झारा को देखती रहीं, आँसू पोंछती रहीं...
और जब यक़ीन हो गया कि झारा सो चुकी है, धीरे से कमरे से बाहर निकल आईं।
वो **लिविंग रूम में बैठकर अपनी मरहूम दोस्त रिश्ता की यादों में डूब गईं।**
कुछ देर बाद रहमान नीचे आया और कहकर चला गया:
> "सर की आधे घंटे में मीटिंग है, मैडम... काम खत्म करके आएंगे।"
नसीरा बेगम ने सिर हिलाया और फिर किचन की ओर बढ़ीं। नौकरानी उनके साथ मदद कर रही थी।
रात के क़रीब दो बजे का वक्त था। हवेली की लाइटें बुझ चुकी थीं। पूरा घर गहरी नींद में था… मगर एक इंसान अब भी जाग रहा था।
इब्राहिम मिर्जा।
स्टडी रूम में उसकी फाइलें अब भी खुली पड़ी थीं। लाइट की मंद पीली रौशनी में उसकी आंखें कुछ सोच रही थीं, लेकिन दिमाग़ पूरी तरह कहीं और अटका हुआ था — झारा हाशमी में।
वो कुर्सी से उठा, धीरे-धीरे दरवाज़ा खोला और स्टडी से बाहर निकल आया।
उसके कदम बगैर आवाज़ किए चलते रहे... जैसे उसकी आत्मा खुद भी नहीं चाहती थी कि कोई उसे चलते हुए सुने।
वो चलते-चलते झारा के कमरे के सामने आकर रुक गया।
दरवाज़ा अंदर से बंद नहीं था, हल्के से खुला था। एक बारीक-सी दरार से कमरे की हल्की रौशनी बाहर छलक रही थी — शायद झारा ने नाइट लैम्प जलाकर रखा था।
इब्राहिम की सांसें कुछ देर के लिए थम गईं।
उसका हाथ दरवाज़े की चौखट पर पहुंचा... लेकिन रुक गया।
वो जानता था... उसे खटखटाना नहीं चाहिए।
इस वक्त झारा नींद में होगी, शायद पहली बार खुद को महफूज़ महसूस कर रही हो... और वो नहीं चाहता था कि वो डर जाए, हड़बड़ा जाए।
मगर उसके अंदर एक बेचैनी थी — जैसे दिल कह रहा हो "एक बार देख लो... क्या वो ठीक है..."
दरवाज़े की दरार से इब्राहिम की नज़र झारा पर पड़ी।
वो पलंग पर चुपचाप लेटी थी, लेकिन करवट बदलते वक्त उसकी पलकें भीग चुकी थीं।
उसका चेहरा मासूम था... टूटा हुआ... जैसे वो नींद में भी खुद से लड़ रही हो।
इब्राहिम की उंगलियाँ एक बार फिर दरवाज़े की ओर बढ़ीं, मगर उसने खुद को रोका।
"नहीं... ीं इस वक्त कीसी लड़की के रूम में जाना सही नहीं है । "
क्या झारा ने महसूस किया था कि कोई उसके कमरे के बाहर था...?
क्यों इब्राहिम झारा से कुछ कह नहीं पाया...?
क्या जारा के रिश्तेदार चुप बैठ जाएंगे?
और... क्या झारा खुद तैयार है उन जवाबों का सामना करने के लिए...?
जवाब... जल्द ही।
अगले चैप्टर में ।
story ko complete padhna hai to mujhe follow kare 😊
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**इब्राहीम के रूल्स सेट करना और झारा का उन्हें फॉलो करना**
"अरे अम्मी, आपको खाना तो खा लेना चाहिए था ना...?" इब्राहीम ने अपनी अम्मी को इंतज़ार करते हुए देखा। जब वह उनके साथ खाने के लिए बैठीं, तो वह बस हल्का-सा मुस्कुराया।
"क्या वह ठीक है...?" उसने बीच में पूछा।
नसीरा खाला ने कहा, "ठीक होने की कोशिश कर रही है... उसे थोड़ा वक्त लगेगा..."
इब्राहीम ने चुपचाप सिर हिलाया और दोनों ने अपना खाना जारी रखा।
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**अगले दिन, डिनर पर...**
"उसे हमारे साथ आकर खाना खाने को कहिए अम्मी..." इब्राहीम ने डिनर की कुर्सी पर बैठते हुए कहा।
"थोड़ा वक्त दे बेटा..." नसीरा खाला ने समझाया।
इब्राहीम ने जवाब दिया, "हमें वक्त नहीं मिलता अम्मी... हमें वक्त के साथ चलना होता है... तभी तो कहते हैं 'वक़्त किसी का इंतज़ार नहीं करता'..."
इतना कहकर वह झारा के कमरे की तरफ गया और दरवाज़ा खटखटाया।
झारा ने दरवाज़ा खोला तो उसे देखकर चौंक गई।
"क्या तुम्हें हमारे साथ डिनर पर आने में कोई परेशानी है, झारा...?"
उसकी आवाज़ में एक अजीब सी रौब और सख़्ती थी। कोई भी उसे मना करने की हिम्मत नहीं कर सकता था। ठीक वैसे ही, जैसे झारा ने भी चुपचाप सिर हिलाया और उसके साथ डाइनिंग टेबल पर चली आई। नसीरा खाला ने उसे देखकर हल्की मुस्कान दी और सभी को खाना परोसा। कुछ नज़रों को छोड़कर, डिनर में सन्नाटा पसरा रहा।
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**एक हफ्ते बाद...**
कुछ खास नहीं बदला... सिवाय इसके कि अब झारा रोज़ खुद ही डिनर में शामिल हो जाती थी। डिनर के समय कुछ चुपचाप नज़रों का आदान-प्रदान ज़रूर होने लगा था।
इब्राहीम उसे सुबह नहीं देख पाता था क्योंकि वह उसके ऑफिस जाने के बाद ही कमरे से बाहर आती थी और दिनभर नसीरा खाला के साथ रहती थी।
ऐसी ही एक रात, जब झारा हमेशा की तरह अपना डिनर खत्म कर लिविंग रूम में चली गई थी,
"अम्मी... झारा कॉलेज क्यों नहीं जा रही है...?" इब्राहीम ने धीरे से पूछा।
नसीरा खाला ने कंधे उचका दिए, "शायद अभी भी वो तैयार नहीं है... मुझे भी नहीं पता कि कैसे पूछूं..."
"ये क्या है अम्मी...? वो हमेशा ऐसे नहीं रह सकती ना... प्लीज़ उससे बात कीजिए..."
इब्राहीम के कहने पर नसीरा खाला कुछ सोच ही रही थीं कि वे लिविंग रूम में आ गए।
झारा खड़ी थी और इब्राहीम को अपनी खाला के साथ आते देख रही थी — ऐसा उसने पहले कभी नहीं देखा था। वह उठकर अपने कमरे की तरफ जाने लगी, तभी नसीरा खाला ने उसका हाथ पकड़ लिया और उसे बैठाया।
"झारा बेटा... तुम कब तक अपने कॉलेज वापस जॉइन करने का सोच रही हो...?"
झारा की आँखों में आँसू आ गए। नसीरा खाला ने उसे अपने गले से लगा लिया। वह चुपचाप रोने लगी।
"श्श्श... शांत हो जाओ बेटा..." नसीरा खाला उसकी पीठ सहलाते हुए बोलीं। इब्राहीम एक कोने में खड़ा चुपचाप ये सब देख रहा था।
"मैं नहीं जाना चाहती, खाला... मुझे डर लगता है..." उसने रोते हुए कहा।
"कब तक...? कब तक ऐसे ही रहोगी...?" इब्राहीम ने सख़्त लहजे में पूछा।
"इब्राहीम..." नसीरा खाला ने उसे टोका और चुप रहने का इशारा किया। वह जानती थीं कि उसका मिज़ाज थोड़ा सख्त है।
लेकिन झारा को इस हाल में देखकर इब्राहीम का मूड खराब हो गया था।
"झारा... क्या तुम पूरी ज़िंदगी एक कमरे में बैठकर यूं ही रोती रहोगी...? क्या तुम खुद को एक बिखरी हुई तस्वीर बना लोगी...?"
उसकी आवाज़ थोड़ी तेज़ हो गई थी और झारा झेंप गई। वह अपने कमरे में भाग गई।
"इब्राहीम... मैं तुम्हारे जज़्बात समझती हूं... लेकिन तुम्हें थोड़ा सब्र रखना होगा उसके साथ..."
"अम्मी... मुझे उससे बात करनी है... बस एक बार..."
नसीरा खाला ने सिर हिलाया और इब्राहीम झारा के कमरे में गया।
दरवाज़े पर दस्तक दी — कोई जवाब नहीं।
धीरे से दरवाज़ा खोला — वह बिस्तर पर बैठी रो रही थी।
दरवाज़ा खुला छोड़ वह अंदर आया। झारा उसे देखकर खड़ी हो गई।
वह बिस्तर पर बैठ गया और पास बैठने का इशारा किया।
वह आँसू पोंछती हुई उसके बगल में बैठ गई।
"माफ़ कर दो मुझे... मेरा इरादा तुम्हें डराने या दुख देने का नहीं था, झारा..."
झारा ने चुपचाप आँसू पोंछे।
"देखो... हम अपनी ज़िंदगी एक ही दर्द में रोक नहीं सकते... हमें आगे बढ़ना पड़ता है।"
उसने बाहर लिविंग रूम में नसीरा खाला की तरफ इशारा करते हुए कहा,
"मिसेज़ नसीरा मिर्ज़ा... मेरी अम्मी... उन्होंने अपने शोहर जनाब फैज़ मिर्ज़ा के जाने के बाद सिर्फ 11वें दिन ऑफिस जाना शुरू किया था... कंपनी के लिए, अपने वजूद के लिए..."
"रईशा खाला — जिन्हें तुम जानती हो... मेरे लिए माँ जैसी थीं... उन्होंने भी तुम्हारे अब्बू के इंतकाल के बाद खुद को संभाला था, जबकि रिश्तेदारों ने कोई साथ नहीं दिया... फिर भी एक हफ्ते बाद ही अपनी नौकरी पर लौटीं..."
"और मैंने खुद... मैंने अपने पूरे 25 साल अपने अब्बा की गोद में बिताए... उनके इंतकाल के दूसरे ही दिन ऑफिस जाना पड़ा था दस्तख़त करने..."
"सोचो झारा... क्या हम सब ठहर जाते... तो आज क्या होता...?"
झारा की सिसकियाँ धीमी हो गई थीं।
उसने खिड़की से बाहर दिखते आसमान की तरफ इशारा किया,
"वो देखो तारे... सबको लगेगा वो वहीं हैं... लेकिन वो भी आगे बढ़ रहे होते हैं... तुम्हें भी चलना होगा..."
फिर वह मुस्कुराया,
फिर उसने उसके आँसू पोंछे और कहा,
"अब्बा के बाद अम्मी के लिए मुझे मज़बूत बनना पड़ा... और अब तुम्हें सोचना है — क्या तुम खुद को यूं ही रोक दोगी...? या चलना शुरू करोगी...?"
वह चुप रही, बस उसकी आंखों से आंसू बहते रहे।
इब्राहीम ने एक ग्लास पानी दिया — उसने दो घूँट लिए।
"मुझे डर लगता है..."
"क्यों...? क्या चीज़ तुम्हें डराती है...?"
"मैं अकेली हूं... लगता है मेरा कोई नहीं है... और अगर मैं बाहर गई तो कोई मेरा फ़ायदा उठा लेगा... मुझे लगता है मैं खुद को संभाल नहीं पाऊँगी..."
इब्राहीम ने उसकी हथेली को थामकर कहा,
"हम तुम्हारा परिवार हैं झारा... मेरी अम्मी तुम्हारी भी अम्मी हैं... और मैं... मैं तुम्हारे साथ हूँ..."
"अगर तुम्हें छोड़ना होता... तो मैं तुम्हें वहीं रिश्तेदारों के हवाले कर देता... लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया। मैं यहाँ हूँ, तुम्हें संभालने और तुम्हारी हिफ़ाज़त के लिए।"
झारा ने उसकी तरफ देखा — हल्की मुस्कान दी।
उसने उसके आँसू पोंछे और कहा,
"अब तुम इस बारे में सोचो... मैं सुबह तुमसे मिलूंगा... गुड नाईट..."
"गुड नाईट..."
इब्राहीम कमरे से बाहर चला गया और पीछे दरवाज़ा बंद कर दिया।
"सब ठीक है?"
नसीरा खाला ने पूछा।
"चिंता मत कीजिए अम्मी... वह ठीक हो जाएगी... आप सो जाइए... गुड नाईट..."
वह मुस्कुराईं और अपने कमरे में चली गईं। इब्राहीम भी अपने कमरे में चला गया।
इब्राहीम अपने कमरे में गया लेकिन उसका दिल अब भी झारा के आंसुओं में उलझा हुआ था ।
झारा उस रात जल्दी नहीं सो पाई।
वह बहुत देर तक छत की तरफ देखती रही — और सोचती रही कि क्या सच में कोई है जो बिना शर्त उसका था...?
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**आपके लिए सवाल:**
👉 क्या झारा इब्राहीम की बातों से प्रेरित होकर कॉलेज वापसी का फैसला ले पाएगी?
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अगली सुबह,
इब्राहीम ने झारा के कमरे के दरवाज़े पर दस्तक दी। जैसे ही उसने दरवाज़ा खोला, इब्राहीम ने कोई मौका दिए बिना सीधा कहा,
"अस्सलामु अलैकुम... साढ़े आठ बज चुके हैं। तुम्हारे पास सिर्फ़ पंद्रह मिनट हैं। मैं कार में इंतज़ार कर रहा हूँ... तुम्हें कॉलेज छोड़ कर फिर ऑफिस जाऊँगा। जल्दी करो।"
उसकी आवाज़ में वही सख्त लेकिन जिम्मेदार लहजा था।
"आज ही से...?!" झारा ने थोड़ी घबराहट और हल्की बेचैनी के साथ पूछा।
इब्राहीम उसकी तरफ़ पलटा, उसके चेहरे के करीब झुकते हुए नर्म लेकिन सीधी बात कही —
"आज से नहीं, अभी से... अब... चलो।"
इब्राहीम वैसे तो अपनी बात दूसरों पर थोपने वाला इंसान नहीं था, लेकिन इस बार वह जानता था कि झारा को बस एक हल्के से धक्के की ज़रूरत है — और वह वही कर रहा था।
"क्या तुम्हें यकीन है कि वो ठीक हो जाएगी...?" नसीरा बेगम ने झारा के लिए वही चिंता दिखाई, जो एक माँ अपने बच्चे के लिए करती है।
"मुझ पर ऐतबार रखिए अम्मी ा..." इब्राहीम ने संजीदगी से कहा और फिर अपनी कार की तरफ़ बढ़ गया।
नसीरा बेगम ने झारा को प्यार से लिपटा लिया और जाते हुए उसके हाथ में पैक किया हुआ नाश्ता थमाते हुए कहा,
"अगर किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो फौरन कॉल करना बेटा..."
झारा झिझकती हुई पेसेंजर सीट पर आकर बैठ गई। इब्राहीम ने उसे देख एक हल्की सी मुस्कान दी और फिर कार स्टार्ट कर दी।
पूरी ड्राइव खामोश थी। कॉलेज के गेट के बाहर कुछ स्टूडेंट्स को देखकर झारा की उंगलियाँ थरथरा गईं। उसकी आँखें डर से भीगी-भीगी थीं।
इब्राहीम ने लंबी साँस ली और फिर उसके हाथ को अपने हाथ में लेते हुए कहा,
तुम कर सकती हो, झारा... तुममें हिम्मत है..."
"मुझे अब भी डर लग रहा है... क्या हम कल आ सकते हैं...?" उसकी आवाज़ काँप रही थी, जैसे अभी भी दिल तैयार नहीं था।
इब्राहीम मुस्कुराया, उसकी आँखों में तसल्ली थी।
"अगर तुम आज पहला क़दम नहीं उठाओगी तो कल कभी नहीं आएगा... देखो, हमने तुम्हें एक हफ्ते तक पूरी आज़ादी दी... अब सिर्फ़ हमारे लिए — तीन दिन... सिर्फ़ तीन दिन कॉलेज जाओ। उसके बाद जो तुम्हारा दिल चाहे, वही करना... यक़ीन मानो, हम तुम्हारे फैसले का इज़्ज़त करेंगे..."
झारा ने कुछ पल सोचा... फिर धीरे से सिर हिलाया, और इब्राहीम को वो मुस्कान दी जो उसने बहुत दिनों बाद देखी थी।
"माशा’अल्लाह, बहुत खूब..." इब्राहीम ने कहा,
"अच्छा बताओ, शाम को तुम्हारी क्लास कब खत्म होगी?"
"चार बजे..." झारा ने जवाब दिया।
ठीक है... ड्राइवर तुम्हें लेने आ जाएगा..." उसने बात खत्म की।
लेकिन झारा की आँखों में हल्की सी उम्मीद उभरी,
"आप नहीं आएँगे...?"
इब्राहीम ने हँसते हुए जवाब दिया,
"नहीं... कुछ जरूरी काम निपटाना है। लेकिन फिक्र मत करो, ड्राइवर वक़्त पर पहुँच जाएगा।"
उसने सिर हिलाया और कार से उतर गई। कुछ कदम ही चली थी कि अचानक जैसे कुछ याद आया और उसके पाँव रुक गए। वो पीछे मुड़ी और देखा कि इब्राहीम अब तक वहीं खड़ा था, कार का दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल चुका था।
वो धीमे कदमों से वापस उसके पास आई।
"क्या तुम्हारे पास मेरा नंबर है...?" इब्राहीम ने सीधा पूछा।
झारा ने धीरे से सिर हिलाकर 'ना' में जवाब दिया।
इब्राहीम ने बिना कुछ कहे उसका मोबाइल लिया, अपना नाम "इब्राहीम भाई" के नाम से सेव किया और मोबाइल वापस देते हुए कहा —
"अगर तुम्हें कभी किसी चीज़ की ज़रूरत हो... कोई तकलीफ़ हो... तो बिना झिझक मुझे कॉल करना। मैं बस एक कॉल दूर हूँ, झारा।"
उसकी आवाज़ में हुक्म नहीं, हिफ़ाज़त थी। और झारा के चेहरे पर पहली बार एक भरोसेमंद सुकून उभरा।
झारा ने सिर हिलाया और कार से उतर गई। कुछ कदम चलने के बाद जैसे ही उसने अपना फोन निकाला, वो अचानक रुक गई। पीछे मुड़ी तो देखा — इब्राहीम अब कार से उतर चुका था और उसी की तरफ़ देख रहा था।
वो धीमे कदमों से वापस लौट आई।
"क्या तुम्हारे पास मेरा नंबर है?" इब्राहीम ने नज़रें झुकाए बिना सीधा सवाल किया।
झारा ने शर्माते हुए सिर हिलाकर 'ना' में जवाब दिया।
इब्राहीम ने उसका मोबाइल लिया, अपना नंबर सेव किया और नाम के सामने "इब्राहीम भाई" लिखते हुए वापस उसे थमाया।
फिर गहरी लेकिन मुलायम आवाज़ में कहा —
"अगर तुम्हें किसी भी चीज़ की ज़रूरत हो... दिन हो या रात... एक कॉल करना। मैं बस एक कॉल दूर हूँ, झारा।"
"जी..." झारा ने धीमे से कहा, और क्लास की ओर बढ़ने से पहले पहली बार एक हल्की सी मुस्कान उसके होंठों पर आई — जो सीधी इब्राहीम के दिल तक उतर गई।
इब्राहीम ने उसे जाते हुए देखा और फिर नज़रें फेरकर अपने ऑफिस की ओर रवाना हो गया।
कॉलेज कैंपस – दोपहर का वक़्त
ज़ारा क्लास से बाहर निकल रही थी। जैसे ही उसने कॉरिडोर में कदम रखा, उसकी दो क्लासमेट्स — हिना और मरियम — उसकी तरफ़ बढ़ती दिखाई दीं। उनके चेहरों पर सहानुभूति की झलक थी, लेकिन लफ़्ज़ों में वो गहराई नहीं, जो ज़ारा महसूस कर रही थी।
"अरे ज़ारा... हम बहुत अफ़सोस में हैं... तुम्हारी अम्मी की मौत की खबर सुनकर दिल टूट गया था," हिना ने कहा, और मरियम ने फौरन हामी भरी,
"हाँ... हम तो सोच ही नहीं सकते तुमने कैसे सब संभाला... अल्लाह तुम्हें सब्र दे..."
ज़ारा ने नज़रे झुका लीं। कुछ लम्हों के लिए वो चुप रही, फिर धीरे से बोली,
" थैंक यू ा..."
"अगर तुम्हें किसी भी चीज़ की ज़रूरत हो... हम सब तुम्हारे साथ हैं..." मरियम ने उसके कंधे पर हाथ रखा। लेकिन ज़ारा के अंदर कुछ टूट रहा था। उसे महसूस हुआ —
उनके लफ़्ज़ सही थे, पर उनका असर नहीं।
वो तो बस औपचारिक जुमले थे... जैसे किताब में लिखा होता है, वैसे।
"माँ की कमी... कोई नहीं भर सकता..." ज़ारा की आवाज़ रूखी थी, लेकिन आँखें नम।
"अल्लाह जानता है... इस दर्द को समझने के लिए सिर्फ़ अल्लाह ही काफ़ी है..."
हिना और मरियम असहज हो गईं। उनके पास कहने को कुछ नहीं था। कुछ पल की चुप्पी के बाद वे मुस्कराते हुए बोले,
"अच्छा चलो, तुम क्लास आ रही हो ना? अब नॉर्मल हो जाना चाहिए ना, इतना वक़्त हो गया..."
ज़ारा ने उनकी बात सुनी, पर कुछ नहीं कहा।
उसने सिर हिलाया और दूसरी तरफ़ चल पड़ी — अकेली। उसकी चाल में एक ठहराव था, लेकिन उसके दिल में एक तूफान।
"लोग कहते हैं कि वक्त के साथ सब ठीक हो जाता है... पर कोई यह नहीं कहता कि हर लम्हा उस वक्त तक कैसे जिया जाए..."
उसके ज़ेहन में यही ख़याल घूम रहा था।
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झारा के लिए डरने की कोई बात नहीं थी, क्योंकि उसके क्लासमेट्स का रवैया उससे बिलकुल आम था — ना ज़्यादा सवाल, ना बेवजह की हमदर्दी। क्लास का माहौल शांत और नॉर्मल था, और यही उसकी बेचैनी को कुछ हद तक कम कर रहा था।
लेकिन दूसरी तरफ़...
इब्राहीम अपने ऑफिस में बैठा तो था मीटिंग के नोट्स के सामने, लेकिन उसकी नज़रें हर पाँच मिनट में मोबाइल स्क्रीन की ओर चली जातीं — एक कॉल, एक मैसेज, या सिर्फ़ किसी अनकहे इशारे की उम्मीद में।
तभी उसका फोन वाइब्रेट हुआ और उसने तुरंत देखा — **"अम्मी कॉलिंग..."**
उसने फौरन कॉल उठाया।
**"इब्राहीम... बेटा, झारा ठीक है न...? मैंने उसे कॉल किया लेकिन उसने उठाया नहीं... तुझे यकीन है कि वो अकेले कॉलेज मैनेज कर लेगी...?"** नसीरा बेगम की आवाज़ में वही चिंता थी, जो किसी भी माँ को एक नाज़ुक सी बेटी के लिए होती है।
इब्राहीम ने गहरी साँस ली, जैसे खुद को भी यकीन दिला रहा हो, और फिर कहा:
**अम्मी ,फिक्र मत कीजिए... मैंने उसे खुद कॉलेज छोड़ा है। क्लासमेट्स ठीक हैं, माहौल नॉर्मल है। और हाँ, शायद उसका फोन साइलेंट हो... आप लंच टाइम में ट्राय कीजिएगा।"**
**"ठीक है बेटा... अल्लाह उसे हिम्मत दे..."**
**"आमीन..."** इब्राहीम ने कहा और कॉल काट दी।
लेकिन कॉल कटते ही उसकी नज़र फिर घड़ी पर गई —
**11:32 AM**
और दिल में वही सवाल घूम गया —
**"उसे सच में अकेले भेजकर मैंने ठीक किया या नहीं...?"**
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**"इब्राहीम... झारा ठीक है न...? तुम्हें यकीन है कि वो मैनेज कर लेगी न?"**
नसीर बेगम ा की बेचैन आवाज़ फोन के उस पार से गूंज रही थी।
इब्राहीम ने हल्के से आँखें बंद कीं, वो भी तो यही सोच रहा था…
सुबह जिस नर्म सी, कांपती हुई झारा को वो कॉलेज छोड़कर आया था, उसकी तस्वीर अभी भी उसके जहन में ताज़ा थी।
उसने अपने गले को साफ़ किया और माँ को तसल्ली देने के लिए धीमे से कहा,
*अम्मी, प्लीज़ टेंशन मत लें... झारा ठीक है... और इंशाअल्लाह, वो और बेहतर हो जाएगी... आप दोपहर में लंच टाइम पर कॉल करिए... यकीन रखिए, सब ठीक होगा..."**
फोन कट करते हुए भी उसकी उंगलियाँ बेचैनी में मोबाइल के कवर को दबा रही थीं।
**"क्या मैंने उसे सही वक़्त पर धक्का दिया...? या कहीं वो इस सबके लिए अभी भी तैयार नहीं थी...?"**
उसने खुद से पूछा और थके हुए हाथों से अपना चेहरा रगड़ा।
वक़्त देखा — **3:45 बजे।**
उसे बेचैनी ने फिर से घेर लिया। उसने फौरन नसीरा बेगम को कॉल किया:
अम्मी ा, क्या आपने झारा से बात की?"**
**"नहीं बेटा... मैंने दो बार कॉल किया लेकिन उसने नहीं उठाया... सोचा शायद क्लास में हो... अब उसकी क्लास खत्म होने का वक्त है, इसलिए इंतज़ार कर रही हूँ..."**
उनकी आवाज़ में वही फिक्र थी जो हर माँ के दिल में होती है।
इब्राहीम ने होंठ भींच लिए।
**"ठीक है .. आप फिक्र मत करें, मैं ड्राइवर भेज देता हूँ..."**
लेकिन जैसे ही उसने झारा को कॉल करने की कोशिश की — **फोन अनरिचेबल।**
अब रहा नहीं गया। उसने कार की चाबी उठाई ही थी कि उसके असिस्टेंट, रहमान कमरे में दाख़िल हुआ,
**"सर, आपकी 4 बजे की मीटिंग..."**
इब्राहीम ने एक इशारा किया — मीटिंग एक घंटे के लिए टाल दो।
और खुद निकल पड़ा।
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**कॉलेज गेट – शाम 4:10 बजे**
वो अपनी कार में बैठा, गेट की तरफ़ देख रहा था। तभी वो दिखाई दी — झारा।
वो उसे देखकर थोड़ी हैरान हुई लेकिन जब उसकी आँखों ने इब्राहीम की राहत भरी मुस्कान देखी, तो वो भी थोड़ी रिलैक्स हुई।
**"आप यहाँ...?? आपने तो कहा था कि बहुत काम है..."** उसने पूछा।
**"काम जल्दी निपट गया... सोचा तुम्हारे हाल पूछ लूँ और तुम्हें घर भी छोड़ दूँ..."**
उसने हल्के से मुस्कुराकर कहा।
जब आपकी राहत आपकी टेंशन से ज़्यादा हो जाती है, तब दिल की सच्ची बातें खुद-ब-खुद छिप जाती हैं।
इब्राहीम को अब ना टेंशन दिखानी थी, ना प्यार — बस झारा का ठीक होना उसके लिए सबसे ज़्यादा मायने रखता था।
**"ओह..."** वह हल्का मुस्कराई और ड्राइवर के बगल वाली सीट पर बैठ गई।
**"तो... सब ठीक रहा?"** उसने कार स्टार्ट करते हुए पूछा।
**"हाँ... अल्हम्दुलिल्लाह..."** झारा ने धीरे से जवाब दिया।
**"हमने तुम्हें कॉल किया था..."** इब्राहीम ने उसकी तरफ़ देखा।
उसकी आँखें चौड़ी हो गईं और वह फौरन अपना बैग खंगालने लगी।
" आइ एम सॉरी ... मेरा फोन साइलेंट मोड में था... मैं लाइब्रेरी में थी... कुछ किताबें देख रही थी..."**
इब्राहीम ने मुस्कुराते हुए कहा,
**"कोई बात नहीं... अम्मी को थोड़ी टेंशन थी... अब उन्हें कॉल कर लो..."**
**"जी..."** उसने कहा और नसीरा बेगम ा को कॉल करके बताया कि वो ठीक है और घर वापस आ रही है।
इब्राहीम ने उसे देखकर एक और सुकून भरी साँस ली।
**"अम्मी से कहना मैं डिनर के वक़्त तक आ जाऊँगा..."**
**"जी..."** उसने नम्रता से जवाब दिया और घर के दरवाज़े तक पहुँचकर इब्राहीम को जाते देखा।
---
**"झारा बेटा... आ गई तू?"**
**नसीरा बेगम** ने जैसे ही दरवाज़े पर उसे देखा, उनके चेहरे पर तसल्ली की मुस्कान फैल गई।
**"चलो, फ्रेश होकर आओ... फिर साथ बैठकर मस्त सी चाय पीते हैं..."**
झारा ने एक धीमी सी मुस्कान दी और अपने कमरे की ओर चली गई।
कुछ देर बाद, बग़ीचे में दोनों — **नसीरा बेगम और झारा** — शाम की चाय का लुत्फ़ उठा रही थीं। हर घूंट के साथ एक राहत उनके दिलों में उतर रही थी। झारा अब थोड़ी सहज लग रही थी।
उन्होंने साथ बैठकर गार्डनिंग की — मिट्टी को हाथ लगाया, गुलाब की सूखी पत्तियाँ हटाईं, मोगरे में पानी डाला और तुलसी के पौधे को नए गमले में रखा।
चाय की सोंधी महक के साथ झारा ने अपनी क्लासेस की बातें कीं — प्रोफेसर के लेक्चर, लाइब्रेरी के कोने, और कुछ सहेलियाँ जिनसे उसकी हल्की मुलाक़ातें हुई थीं।
**शाम के 6 बज गए थे।**
झारा ने धीमे से कहा, **" खाला... मुझे कुछ नोट्स बनाने हैं..."**
**"हाँ बेटा... बिल्कुल करो, पढ़ाई में दिल लगाना अच्छी बात है... मैं भी अब किचन की तरफ़ देख लेती हूँ, डिनर का वक़्त होने वाला है,"** उन्होंने प्यार से जवाब दिया।
**"लेकिन अभी तो सिर्फ़ 6 बजे हैं ना... एक घंटे रुकिए, फिर मैं आकर आपकी मदद कर दूँगी..."**
झारा ने उत्साह से कहा।
**"नहीं मेरी बच्ची... फातिमा बी है ना मेरी मदद के लिए, तुम पढ़ाई करो... और हाँ, अगर तुम्हें बोरियत लगे या अकेलापन महसूस हो तो बस आवाज़ देना,"**
**नसीरा बेगम** ने झारा के सिर पर हल्की थपकी देते हुए कहा और उसे सामान्य होते देख खुद पर मुस्कुरा दीं।
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शाम के 7:30 बज चुके थे।
इब्राहीम फ़ैज़ ऑफिस से घर लौट आया था। जैसे ही उसने दहलीज़ पार की, उसकी माँ नसीरा बेगम और झारा को लिविंग रूम में साथ बैठकर टीवी देखते पाया।
एक नज़दीकी, घरेलू और सुकून देने वाला दृश्य था। टीवी पर शायद कोई हलकी-फुलकी ड्रामा सीरीज़ चल रही थी, लेकिन झारा की आँखें स्क्रीन पर कम और इब्राहीम की ओर ज़्यादा थीं।
नसीरा बेगम अपनी रोज़ की आदत के मुताबिक़ डाइनिंग टेबल सेट करने के लिए उठ खड़ी हुईं। उन्होंने चाय के प्याले समेटे, टेबल पर साफ़ कपड़े बिछाए और रोटियों का डिब्बा रसोई से मँगवाया।
झारा चुपचाप उन्हें देख रही थी... और फिर नज़रें इब्राहीम पर टिक गईं, जो बस एक हल्की सी मुस्कान के साथ उसे देखकर अपने कमरे की ओर बढ़ गया।
वो मुस्कान बहुत कुछ कह गई थी — "मैं देख रहा हूँ... मैं जानता हूँ कि तुम अब पहले से बेहतर हो रही हो..." लेकिन बिना एक शब्द बोले।
झारा के होंठों पर अनकही सी मुस्कान तैर गई। ।
क्या झारा तीन दिनों के बाद कॉलेज जाना जारी रखेगी या फिर पुराना डर उसे फिर से घेर लेगा?
इब्राहीम का अचानक बदलता व्यवहार क्या सिर्फ़ हमदर्दी है... या कुछ और भी?
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इब्राहीम फ़ैज़ ऑफिस से घर लौट आया था। जैसे ही उसने दहलीज़ पार की, उसकी माँ नसीरा बेगम और झारा को लिविंग रूम में साथ बैठकर टीवी देखते पाया।
एक नज़दीकी, घरेलू और सुकून देने वाला दृश्य था। टीवी पर शायद कोई हलकी-फुलकी ड्रामा सीरीज़ चल रही थी, लेकिन झारा की आँखें स्क्रीन पर कम और इब्राहीम की ओर ज़्यादा थीं।
नसीरा बेगम अपनी रोज़ की आदत के मुताबिक़ डाइनिंग टेबल सेट करने के लिए उठ खड़ी हुईं। उन्होंने चाय के प्याले समेटे, टेबल पर साफ़ कपड़े बिछाए और रोटियों का डिब्बा रसोई से मँगवाया।
झारा चुपचाप उन्हें देख रही थी... और फिर नज़रें इब्राहीम पर टिक गईं, जो बस एक हल्की सी मुस्कान के साथ उसे देखकर अपने कमरे की ओर बढ़ गया।
वो मुस्कान बहुत कुछ कह गई थी — "मैं देख रहा हूँ... मैं जानता हूँ कि तुम अब पहले से बेहतर हो रही हो..." लेकिन बिना एक शब्द बोले।
जारा के होंठों पर अनकही सी मुस्कान तैर गई। ।
इब्राहीम के फ्रेश होकर नीचे आते ही नसीरा बेगम ने अपनी नरम, माँ जैसी आवाज़ में पुकारा —
"बेटा... पाँच मिनट ठहर जाओ, गरम रोटियाँ उतार रही हूँ... बस अभी बुला लेती हूँ तुम्हें…"
वो तवे पर सेकती रोटियाँ सलीके से स्टील के डिब्बे में डाल रही थीं। उनके चेहरे पर वही पुराना अपनापन, वही सलीका था जो किसी भी घर को घर बनाता है।
झारा हाशमी, जो अभी-अभी रसोई से बाहर निकली थी, ने देखा कि इब्राहीम मिर्जा लिविंग रूम में बैठे उसके बनाए नोट्स पलट रहे थे।
वो कुछ पल वैसे ही खड़ी रही — शायद थोड़ी झिझकती हुई, शायद थोड़ी फिक्र में कि उसे उसके नोट्स कैसे लगेंगे।
इब्राहीम ने एक पेज पलटा, फिर उसकी तरफ देखा। उसके होंठों पर हल्की सी मुस्कुराहट आई और भौंहें हल्के अंदाज़ में उठाते हुए बोला,
तुम मुझे कोई प्रोफेसर समझ रही हो क्या, जो इस तरह सामने स्टूडेंट बनकर खड़ी हो?"
झारा हल्के से मुस्कुरा दी, लेकिन कुछ बोली नहीं।
इब्राहीम ने अगला पन्ना पलटा और पूछा,
"ये नोट्स... तुमने ही तैयार किए हैं?"
उसने बस गर्दन हिलाकर हामी भर दी।
इब्राहीम ने नोट्स को ध्यान से देखा और सराहना भरे लहजे में कहा,
"अच्छे हैं... Crisp भी हैं और डिटेल में भी... मुझे पसंद आए।"
झारा के चेहरे पर सुकून की मुस्कुराहट थी। ये कोई आम तारीफ़ नहीं थी, ये उस इंसान की राय थी जिसे वो अनजाने में मान देती थी — शायद इज्ज़त, शायद भरोसा।
तभी नसीरा बेगम की आवाज़ आई,
"चलो तुम दोनों, खाना लग गया है। गरम-गरम रोटियाँ हैं, फिर कोई बहाना नहीं चलेगा!"
वो दोनों रसोई की ओर बढ़े।
डाइनिंग टेबल पर चुपचाप बैठकर तीनों ने हल्की-फुल्की बातचीत करते हुए खाना खाया। इब्राहीम ने ऑफिस की एक मामूली सी बात साझा की, झारा ने भी कॉलेज में हुए किसी प्रोजेक्ट का ज़िक्र किया। माहौल घरेलू था, हल्का, लेकिन दिल को छू जाने वाला।
रात में सब अपने-अपने कमरों में चले गए।
अगली सुबह...
जब इब्राहीम लिविंग रूम में आया तो देखा झारा पूरी तरह तैयार थी — उसके कंधे पर बैग, हाथ में फोल्डर और चेहरे पर वही शांत आत्मविश्वास।
वो बिना कुछ कहे थोड़ी देर उसे देखता रहा — फिर जैसे खुद ही मुस्कुरा उठा।
झारा ने नसीरा बेगम को सलाम किया,
"खाला जान, मैं निकल रही हूँ।"
नसीरा बेगम ने दुआओं के साथ जवाब दिया,
"रब तेरा हाफिज़ हो, बेटी। इल्म का रास्ता सबसे पाक होता है, और तुझे इल्म बहुत रास आता है।"
इब्राहीम ने उसे कॉलेज छोड़ते हुए कार में कोई बात नहीं की — लेकिन उसकी आँखों में एक अजीब सी तसल्ली थी।
वो राहत की सांस लेकर लौटा, जैसे उसका दिन अब शुरू हो सकता था।
जैसे ही इब्राहीम लिविंग रूम में दाखिल हुआ, झारा ने घबराहट में तेजी से अपनी किताबें समेटनी चाहीं। मगर उसकी उंगलियों से एक किताब फिसलकर नीचे गिर पड़ी।
वो फौरन खड़ी हो गई — जैसे किसी टीचर ने रंगे हाथों पकड़ लिया हो।
इब्राहीम ने हल्के से हँसते हुए देखा —
उसकी आँखों में एक नर्म शरारत थी।
"अरे, रिलैक्स करो..." वो मुस्कराते हुए बोला,
"मैं तुम्हें खा नहीं जाऊँगा... टेक इट ईज़ी, झारा।"
झारा ने झेंपते हुए नीचे झुकी किताब उठाई, मगर उसकी मुस्कान छुपी नहीं थी।
इब्राहीम सीढ़ियों की ओर बढ़ गया, और वो वहीं खड़ी — किताब को अपनी बेवकुफी पर थपथपाते हुए हल्की-सी हँसी हँस पड़ी। जैसे खुद को ही डाँट रही हो —
"अल्लाह... झारा! तू भी ना!"
उसके चेहरे पर अब मुस्कान थी — एक मासूम सी राहत, एक अजीब सा सुकून… जो बस इब्राहीम मिर्जा की मौजूदगी से जुड़ा था।
डाइनिंग टेबल पर, सब अपने-अपने खाने में व्यस्त थे। चुप्पी का माहौल था — सिर्फ बर्तनों की आवाज़ और कभी-कभी नसीरा बेगम की हिदायतें।
तभी इब्राहीम मिर्जा ने अपनी गहरी, दबदबे वाली आवाज़ में कहा —
"तो... झारा..."
उसकी आवाज़ सुनते ही झारा ने जो निवाला मुँह में लिया था, झट से निगल लिया और अपनी बड़ी-बड़ी हिरनी जैसी आँखों से उसकी ओर देखने लगी।
नसीरा बेगम ने उसका रिऐक्शन देखकर हल्की-सी मुस्कान दबा ली, जैसे उन्हें पता था कि ये लड़की इस आवाज़ से थोड़ा सहम जाती है।
इब्राहीम ने हल्के से सिर हिलाया और आगे कहा,
"तुमने कॉलेज के बारे में क्या सोचा है?"
नसीरा बेगम ने हल्के से भौंहें सिकोड़ीं, क्योंकि उन्हें इस "डील" की कोई जानकारी नहीं थी जो इन दोनों के बीच की गई थी।
वहीं झारा, बिना पलक झपकाए इब्राहीम को घूर रही थी — उसकी निगाहों में एक खामोश गुस्सा और घबराहट थी।
"देखो," इब्राहीम ने धीरे से खाना चबाते हुए कहा,
"डील तो डील है... मैंने जो कहा था, उस पर कायम हूँ। तुम्हारी मर्ज़ी जो भी हो, हम मान लेंगे। तो तुम कॉलेज जारी रखना चाहती हो या छोड़ना चाहती हो?"
उसने एक नज़र नसीरा बेगम की तरफ डाली जो अब तक पूरी तरह बेखबर बैठी थीं, और फिर झारा की तरफ —
जो अब तक अपनी हँसी रोकने की कोशिश कर रही थी और खुद को संयत रखे हुए थी।
"मैं कॉलेज रेगुलर रखूंगी..." उसने बमुश्किल बुदबुदाया।
इब्राहीम ने भौंहें उठाईं,
"मुझे सुनाई नहीं दिया... ज़रा ज़ोर से बताओ, झारा।"
वो एक पल के लिए सकपकाई, फिर थोड़ी हिम्मत से बोली —
"मैं कॉलेज जाऊँगी..."
इब्राहीम ने अपने लहजे में हल्की-सी मुस्कान छिपाते हुए कहा,
"अच्छा... और तुम्हारी एग्ज़ाम कब से हैं?"
"एक महीने में..." उसने नज़रें झुकाकर जवाब दिया।
इब्राहीम ने सिर हिलाया और गंभीर लहजे में कहा,
"अच्छी तरह से तैयारी करना। अगर किसी तरह की मदद चाहिए हो... तो मुझसे कहना।"
झारा ने उसकी तरफ देखे बिना सिर हिलाया, मानो बहुत कुछ कहना चाहती हो लेकिन कह नहीं पा रही।
वहीं नसीरा बेगम ने उनकी बातचीत के दौरान अपनी आँखें गोल-गोल घुमाईं, जैसे कहना चाहती हों —
"इन दोनों के बीच कुछ तो है... और मुझे पता नहीं चल रहा!"
झारा हाशमी को कॉलेज जाते हुए अब दो हफ्ते हो चुके थे।
वो अपने कमरे में बैठकर पढ़ाई कर रही थी। टेबल पर किताबें फैली थीं, कुछ नोट्स उसके हाथ में थे। एग्ज़ाम का वक्त पास था और वो पूरी तरह से फोकस में थी।
इधर नसीरा बेगम कोई बुक पढ़ रहीं थीं । हर कुछ मिनटों में वो दरवाज़े की तरफ देख लेतीं, मानो इब्राहीम मिर्जा के लौटने का इंतज़ार कर रही हों।
अचानक उन्हें याद आया कि कुछ ज़रूरी दवाइयाँ वॉशरूम में रखी हैं, तो वो किचन से निकलकर अंदर चली गईं।
उसी वक़्त डाइनिंग टेबल पर रखा मोबाइल फोन बजा — स्क्रीन पर लिखा था:
इब्राहीम मिर्जा कॉलिंग..."
झारा ने एक पल के लिए देखा। फिर हिचकिचाते हुए उठकर कॉल रिसीव कर लिया।
"सलाम अलेकुम... झारा?" इब्राहीम की आवाज़ थी — थोड़ी थकी हुई, मगर वही रौबदार।
"व... वालेकुम अस्सलाम... जी," झारा ने धीमे से कहा।
इब्राहीम ने चौंकते हुए पूछा,
"अरे... झारा? नसीरा खाला कहाँ हैं?"
झारा ने तुरंत जवाब दिया,
"अंदर हैं... शायद वॉशरूम में। आपने कोई पैगाम देना है, तो मैं बता दूं?"
फोन के दूसरी तरफ कुछ सेकंड की खामोशी थी, फिर इब्राहीम ने मुस्कराकर कहा,
"नहीं, बस पूछना था कि मैं थोड़ी देर से आऊँगा। खाला से कहना कि खाना मेरे लिए मत रोकें, मैं बाहर खा लूंगा।"
झारा ने धीरे से जवाब दिया,
"ठीक है... बता दूंगी।"
फिर एक पल की खामोशी रही। इब्राहीम ने हल्के से पूछा,
"तुम कैसी हो... पढ़ाई कैसी चल रही है?"
वो थोड़ी घबराई, लेकिन बोली,
"अल्हम्दुलिल्लाह... तैयारी कर रही हूँ। बस... थोड़ी टेंशन है एग्ज़ाम की..."
इब्राहीम की आवाज़ और मुलायम हो गई थी,
"घबराने की ज़रूरत नहीं... अगर किसी चीज़ में मदद चाहिए हो, तो बताना... मैं हूँ न।"
झारा के होंठों पर हल्की मुस्कान आ गई थी।
"जी... शुक्रिया।"
इब्राहीम कुछ कहने ही वाला था कि तभी नसीरा बेगम बाहर आईं और बोलीं,
"अरे, झारा बेटा, फोन क्यों उठा लिया?"
झारा ने फौरन फोन उनकी तरफ बढ़ा दिया,
"इब्राहीम भाई का फोन था, कह रहे थे उन्हें देर होगी। खाना पर इंतजार मत करनाा..."
ओह... लेकिन मुझे भूख लगी है..." नसीरा बेगम ने मुंह बनाया था ।
"आपने खा लिजिए खाला... उन्होंने कहा कि इंतजार मत करना ..." उसने तुरंत कहा और नसीरा बेगम ने पूछा "और तुम...?"
"मुझे भूख नहीं लगी है... मैं खाना बाद में खा लूँगी..." जारा ने पढ़ते हुए जवाब दिया था ।
और नसीरा बेगम ने आह भरते हुए कहा "ठीक है... मैं अपना खाना खा रही हूँ... मुझे दवाइयाँ भी लेनी हैं..."
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झारा ने फौरन फोन उनकी तरफ बढ़ा दिया,
"इब्राहीम भाई का फोन था, कह रहे थे उन्हें देर होगी। खाना पर इंतजार मत करनाा..."
ओह... लेकिन मुझे भूख लगी है..." नसीरा बेगम ने मुंह बनाया था ।
"आपने खा लिजिए खाला... उन्होंने कहा कि इंतजार मत करना ..." उसने तुरंत कहा और नसीरा बेगम ने पूछा "और तुम...?"
"मुझे भूख नहीं लगी है... मैं खाना बाद में खा लूँगी..." जारा ने पढ़ते हुए जवाब दिया था ।
और नसीरा बेगम ने आह भरते हुए कहा "ठीक है... मैं अपना खाना खा रही हूँ... मुझे दवाइयाँ भी लेनी हैं..."
एक घंटे बाद,
ज़ारा ने देखा कि नसीरा बेगम इब्राहिम फैज़ का इंतज़ार करते हुए नींद की झपकियों के बीच जागने की कोशिश कर रही थी।
"आंटी... आप प्लीज़ जाकर सो जाइए..." ज़ारा ने कहा और नसीरा बेगम ने खुद को सीधा करते हुए कहा, "अरे नहीं बेटा... इब्राहिम घर आता होगा ना... मैं ठीक हूँ... यह सिर्फ दवाइयों का असर है..."
"मैं समझती हूँ आंटी... लेकिन आप आराम करो... मैं वैसे भी यहाँ पढ़ाई कर रही हूँ... उनके आने पर मैं आपको जगा दूँगी..." उसने सुझाव दिया और नसीरा बेगम ने एक पल सोचा और कहा, "तुमने भी खाना नहीं खाया ना... चलो आओ..."
"मुझे अभी भूख नहीं है आंटी... जब मुझे भूख लगेगी तो मैं खुद ही खा लूँगी... इसलिए मैं कह रही हूँ कि आप जाकर आराम करो... उनके आने पर मैं आपको फोन करूँगी..." उसने फिर कहा था।
"Are you sure?" नसीरा बेगम ने पूछा और ज़ारा ने हाँ में सिर हिलाया और उन्हें उनके कमरे में जाने दिया था।
एक घंटे बाद…
इब्राहिम फैज़ घर लौटा और उसने देखा कि **ज़ारा** अपनी आँखें मलते हुए पढ़ने की कोशिश कर रही थी।
**इब्राहिम *
“अरे… अभी तक सोई नहीं…?”
(जैसे ही वह अंदर आता है, ज़ारा तुरंत उठ जाती है, मुस्कुरा कर नींद से लड़ती हुई जवाब देती है)
**ज़ारा:**
“मैं एग्ज़ाम की तैयारी कर रही हूँ…”
**इब्राहिम:**
“ओके… मॉम कहाँ हैं?”
(ब्लेज़र उतारते हुए पूछता है)
**ज़ारा:**
“वो… उन्हें दवाइयों की वजह से नींद आ रही थी… मैंने उन्हें सोने को कहा… क्या मैं मॉम को जगा दूँ…?”
**इब्राहिम:**
“नहीं नहीं… उन्हें सोने दो।”
(उसने रोकते हुए कहा और दोनों चुप हो गए)
---
इब्राहिम कभी खुद खाना परोस कर नहीं खाया था; उसकी मॉम ही हमेशा उसे खिलाती थीं। पर अब ज़ारा उनकी रुटीन समझ रही थी।
**ज़ारा:**
“आप… फ्रेश हो कर आइए, मैं टेबल पर खाना लगा देती हूँ…”
(इब्राहिम मुस्कुराता हुआ गया)
कुछ मिनटों बाद वह डाइनिंग टेबल पर आया—ज़ारा ने खाना गर्म करके सब कुछ तैयार रखा था।
वहीं, **इब्राहिम** ने ज़ारा से पूछा, “क्या तुमने खाया?”
(वह अपनी मॉम से यह सवाल कभी नहीं भूलता)
**ज़ारा:**
“नहीं…”
(सिर हिलाते हुए)
“भूख नहीं है, मैं पढ़ रही थी…”
**इब्राहिम** मुस्कुराया और उसे बैठने का इशारा किया; उसने अपनी प्लेट पलट दी ताकि ज़ारा खुद खाना परोस सके।
वे चुपचाप खाना खाने लगे, फिर इब्राहिम ने पूछा:
“आज आप इतनी देर से क्यों आए?”
**ज़ारा:**
“वो… मेरा कैलिफ़ोर्निया क्लाइंट के साथ प्रोजेक्ट मर्जर था… उसके कारण सुबह की मीटिंग थी… और ये एक हफ़्ते या शायद दस दिन तक चलेगा।”
**इब्राहिम** चौंका और पूछा:
“तो अगले दस दिन तक हमारे साथ डिनर नहीं करोगे?”
इब्राहिम ने कंधे उचकाए, सिर हिलाया और कहा:
“तुम बताओ… कॉलेज कैसा चल रहा है? तुम्हारी एग्ज़ाम कब शुरू होंगी?”
---
उस रात, ज़ारा नसीरा बेग़म को जगा कर मदद करना चाहती थी।
**ज़ारा:**
“आंटी… मैं आपको जगा दूँगी…”
**नसीरा बेग़म (मुस्कुराते हुए):**
“हाँ, कल की तरह…?”
**ज़ारा:**
“मैं आपको जगाने ही वाली थी आंटी… लेकिन उन्होंने कहा था नहीं जगाने को…”
**नसीरा बेग़म:**
“अगर तुम्हें कुछ चाहिए तो मुझे जगा देना…”
**ज़ारा:**
“जी आंटी।”
(फिर वो सोने चली गईं)
3 घंटे बाद, इब्राहिम आया और मुस्कुराते हुए फ्रेश होने चला गया। ज़ारा रसोई में टेबल सेट करने लगी।
वे चुपचाप डिनर कर रहे थे, हर कोई अपने काम से थोड़ा थका हुआ।
इब्राहिम अपनी उंगलियों से माथे को दबाते हुए सोफे पर बैठ गया।
"ये पेन किलर दवाएँ मेरे सिर को चीर रही हैं...बहुत परेशान कर रही हैं!"
सुबह से ही उसका सिर दर्द कर रहा है। इन दवाओं के साइड इफ़ेक्ट से बहुत ज़्यादा सिरदर्द और थकान हो रही है।
"तुम यहाँ क्यों खड़ी हो? जाकर पढ़ाई करो, Go and study"
" इब्राहिम ने कहा।
जारा थोड़ी सी से चौंकी।
"मैं..मुझे एक रेमेडी पता है इब्राहिम भाई..."
इब्राहिम ने अपनी आँखें ऊपर उठाई।
"तो लाओ. ..मेरा सिर दुख रहा है"
जारा ा तुरंत बाहर निकल गई। वह खुश और एक्साइटेड महसूस कर रही थी। उसे हमेशा खुशी होती है अगर उसे दूसरों की मदद करने का मौका मिले। उसने मालिश का तेल बनाना शुरू किया। आधे घंटे के बाद, वह वापस लिविंग रूम में चली गई।
इब्राहिम को सोता हुआ पाकर वह रुक गई।
अब वह क्या करेगी? तेल गर्म है और उसे इस सिरदर्द को दूर करने के लिए गर्म तेल की मालिश की ज़रूरत है लेकिन वह सो रहा है।
तारा ने कंटेनर को एक मेज पर रखा और किसी सर्वेंट की तलाश में बाहर आई।
" लेकिन, इब्राहिम के गुस्सैल स्वभाव की वजह से कोई भी सर्वेंट उसकी मालिश करने को तैयार नहीं हुईं थीं ।
उसने नसीरा बेगम को बुलाने के बारे में सोचा लेकिन फिर वह रुक गई थी क्योंकि दवाई के असर से उन्हें बहुत गहरी नींद आती थी ।
जारा कुछ सेकंड के लिए वहीं कोरीडोर में खड़ी रही, फिर अंदर चली गई। इस बार उसने इब्राहिम को जगा हुआ पाया। वह अपना सिर बहुत कसकर पकड़े हुए है।
जारा को बहुत बुरा लगा। उसके लिए, उसने उसे कोलेज वापस भेजा था । उसे यह झिझक दूर करनी चाहिए और उसकी मदद करनी चाहिए।
"मैं...मैं एक...मालिश का तेल लाई ा हूँ..इसे अपने सिर पर लगाने से तुम्हें अच्छा लगेगा.."
उसने बहुत झिझकते हुए कहा।
इब्राहिम ने भौंहें सिकोड़ीं।
"क्या तुम्हें यकीन है?"
उसने पूछा।
जारा ा ने अपना सिर हिलाया।
"ठीक है..."
जारा ने कंटेनर इब्राहिम के सामने रख दिया। इब्राहिम ने अपनी उंगली तेल पर डुबोई और फिर उसने अपने माथे पर लगाया।
जारा और भी स्टेरेस में आ गई। उसे मालिश की ज़रूरत है। यह इस तरह से काम नहीं करेगा।
"तुम्हें. .तुम्हें.. अपना माथा रगड़ना होगा"
उसने कहा।
इब्राहिम ने उसके इंस्ट्रक्शंस को फोलो किया और उसने अपना माथा थोड़ा रगड़ा।
जारा ा ने अपनी आँखें बंद कर लीं। उसे इसे पूरी तरह से लागू करने की जरूरत ा है ।
उसके माथे और सिर पर। वह ठीक से नहीं कर रहा है।
"तुम्हें..इसे और अच्छी तरह से करना होगा..."
"तो तुम कर दो"
इब्राहिम ने चिढ़कर कहा। यह सिरदर्द उसे मार रहा है।
जारा ा की आँखें चौड़ी हो गईं।
"मैं?"
"हाँ तुम...इसे अभी करो"
जारा ा का हाथ काँपने लगा। उसकी साँसें गले में अटकने लगीं। उसे बहुत बेचैनी महसूस हुई। डर से उसका पेट ऐंठ गया।
वह कुछ पल चुपचाप खड़ी रही, फिर धीरे-धीरे उसके पीछे चली गई। उसके लहज़े में कुछ ऐसा था, जिसे वह नकार नहीं सकती।
उसने अपनी उँगलियाँ तेल में डुबोईं और फिर उसके माथे को छुआ। उसकी उँगलियाँ उसके माथे पर धीरे-धीरे चलीं, उसकी त्वचा को थोड़ा और सहजता से दबाते हुए।
इब्राहिम ने अपनी आँखें बंद कर लीं। उसकी उँगलियाँ जादू कर रही थीं। उसकी उंगलियाँ बायोएक के माध्यम से इतनी जादुई ढंग से फिसल रही हैं ।
उसका भयंकर सिरदर्द कम होने लगा। उसे बहुत अच्छा और सुकून महसूस हो रहा था।
अचानक उसे लगा कि उसके कंधे पर कुछ गिर रहा है और तुरंत ही वह खुशबू उसके नथुनों तक पहुँच गई।
वह चौंक गया और हैरान हो गया। उसने धीरे से अपना सिर घुमाया और पाया कि जारा ा के बाल उसके कंधे पर गिर रहे थे और उसने तुरंत इस खुशबू के स्रोत का पता लगा लिया।
उसे पूरे शरीर में रोंगटे खड़े हो गए। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि उसकी नसें किनारे पर खड़ी थीं। वह अपना दिमाग खो बैठा। खुशबू उसके पूरे शरीर में थी। यह सिर्फ उसके परफ्यूम की खुशबू नहीं थी। यह उसके बालों, उसके शरीर की खुशबू थी ।
वही मासूमियत जिसे वह पहले दिन से ही अनदेखा कर रहा था।
जारा की उंगलियाँ उसके बालों में चल रही थीं, जबकि वह उसकी खुशबू में नहा रहा था। यह उसकी आत्मा, मन और शरीर को खा रही थी। उसके बालों का उसके कंधे पर स्पर्श उसके दिल की धड़कन को बेकाबू कर रहा था। उसे लगा जैसे उसकी नसों में खून दौड़ रहा है। उसने पहले कभी किसी चीज के लिए इतना इंटेंस एहसास नहीं किया था। वह अपने शरीर के हर हिस्से से जाग रहा था। यह खुशबू उसे खा रही थी। एक फोरबिडेन डीजायर उभर रही थी जो रहस्यमय और डरावनी थी।
अचानक उसने उसका हाथ पकड़ा और उसे अपने सामने खींच लिया।
जारा हैरान रह गई। उसने टेंशन में इब्राहिम की ओर देखा।
क्या उसने कुछ गलत किया? उसकी आँखों को देखने के बाद, वह डर गई।
"I'm sorry... ा...क्या यह काम नहीं कर रहा?"
उसने डरते हुए पूछा।
इब्राहीम अभी भी उसकी कलाई पकड़े हुए था। वह खड़ा हो गया। उसका विशाल शरीर उसके ऊपर मंडरा रहा था। वह डर से उसकी ओर देखने लगी।
"इब्राहीम भाई" जारा ने उसे पुकारा था ।
इब्राहीम अचानक अपने हिसार से बाहर निकल आया और उसकी कलाई छोड़ दि थी ।
" जाओ, अपने कमरे में चली जाओ" इब्राहिम ने उसे कहा था ।
" लेकिन, हेड मसाज, आपके सिर का दर्द?" जारा ने पूछा था ।
इब्राहीम उसकी मासूमियत से भरें चेहरे को देखकर मुस्कुराया था ।
" अब ठीक है, जाओ इतनी देर तक जागना अच्छा नहीं ।" इब्राहीम ने उसे कहा और जारा वहां से चली गई थी ।
उसके वहां से ज्यादा ही इब्राहिम ने खुद को डांटा था ।
" शर्म करो इब्राहिम फेस तुम एक अनाथ लड़की पर बुरी नजर डाल रहे थे जो तुम्हारे घर म है और तुमहारी ें पनाह में है ।"
"अस्तगफिरुल्लाह, या अल्लाह मुझे माफ कर दे ।" इब्राहीम ने कहा था ।
---
अगली सुबह, ज़ारा 8 बजे तैयार हो गई। इब्राहिम मीटिंग के लिए 7 बजे ही ऑफिस निकल गया था।
उस रात, डिनर के दौरान ज़ारा ने पूछा:
“कल भी आप जल्दी निकलोगे?”
**इब्राहिम (एक पल सोचकर):**
“उम… नहीं… कल मीटिंग है, लेकिन मैं 8:30 तक निकल जाऊँगा… मुझे दूसरे ब्रांच जाना है।”
**ज़ारा (झिझकते हुए पूछा):**
“तो आप मुझे भी कॉलेज ड्रॉप कर दोगे?”
**इब्राहिम:**
“बेशक मैं तुम्हें ड्रॉप कर दूँगा।”
वे मुस्कुराए, एक-दूसरे को गुड नाइट कहा, और कमरे चले गए।
---
सुबह, नसीरा बेग़म और ज़ारा ने इब्राहिम को अलविदा कहा। ज़ारा की जम्हाई देखकर इब्राहिम मुस्कुराया।
रास्ते में ज़ारा ने नीले से कहा:
“तो आप जल्दी घर आ जाया करो ना…”
**इब्राहिम (संकोच में मुस्कुरा कर):**
“सॉरी… और ड्रॉप करने के लिए थैंक्स… बाय।”
(कार से उतरकर इब्राहिम ने ज़ारा का सिर थपथपाया)
---
उस रात, इब्राहिम अचानक जल्दी लौट आया।
**नसीरा बेग़म:**
“आज तुम जल्दी आ गए?!”
**इब्राहिम:**
“हाँ मॉम… मुझे ज़ोर की भूख लगी है… मैं अभी फ्रेश होकर आता हूँ।”
(कमरे में चला गया)
**नसीरा बेग़म (ज़ारा से):**
“ये लड़का भी… अब डिनर आधा-आधा रह गया है… ज़ारा बेटा, मेरी मदद करो ना।”
जब इब्राहिम मेज़ पर आया, ज़ारा ने मोहल्लातैन से उसकी मदद की और खाना फाइनल किया।
**नसीरा बेग़म:**
“काम खत्म हो गया? आज तुम जल्दी आ गए?”
**इब्राहिम:**
“उम… मॉम, मैंने सोचा कि घर से मीटिंग अटेंड कर लूँ… देर हुई तो दिक्कत हो जाती।”
डिनर के बाद नसीरा बेग़म अपने कमरे चली गईं। इब्राहिम जाने लगा, लेकिन ज़ारा ने इशारे से पूछा, “ओके?”
**ज़ारा (मुस्कुराते हुए):**
“Thank you.”
**इब्राहिम:**
“Good night।”
वे मुस्कुराकर विदा हुए।
---
गलतियों को नज़रअंदाज़ करें…
अब तक की कहानी कैसी रही?
और हाँ—शायद दस चैप्टर के बाद शादी होगी… या उससे पहले!
कोई सिक्रेट लव अफेयर नहीं है, वैसे ही कोई सेकेंड लीड्स भी नहीं। ।
अगर आपको ये पसंद आई, तो कमेंट जरूर करें! ☺️
कुछ दिन बाद…
इब्राहिम ने पूछा था ।
“तुम्हारी स्टडीज़ कैसी चल रही हैं?”
(कॉलेज छोड़ते समय रेगुलर दिन पर पूछा)
“हाँ, अच्छी चल रही हैं... एग्ज़ाम चल रहे हैं—3 पेपर हो चुके और बाकी बचा है... फिर छुट्टियाँ...”
ज़ारा ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया था ।
इब्राहिम:
“अच्छा... वेरी गुड...”
(उतरने के बाद)
“बाय।”
ज़ारा:
“थैंक यू...”
(हाथ हिलाकर)
कॉलेज के लॉन पर ज़ारा अपनी दो सहेलियों, लाना और मरयम, के बीच एक बेंच पर चली गयी थी।
इब्राहिम अपनी कार लेकर निकल गया था।
और उनकी प्रेजेंस से ज़ारा का ध्यान बेमन से टूट गया। इसके कुछ ही पल बाद लाना चुटकी लेते हुए मुस्कुराई,
"वो देखा? इब्राहिम फैज़—वो तुम्हें देखकर हँस तो नहीं दिया?"
मरयम ने भी हँसते हुए कहा, "तुम्हारे रंगत से पता चलता है, कोई बात है!" दोनों की बातें सुन ज़ारा का चेहरा लाल हो गया। उसने धीरे से कहा, "कुछ नहीं, बस... वह इब्राहिम है—मेरी अम्मी के फ्रेंड के बेटा हैं ।"
लेकिन ज़ारा के दिल पर फिर भी एक हल्की सी गर्माहट दौड़ गई थी।
सुबह इब्राहिम के "वेरी गुड" कहने की मीठी आवाज़, उसके इंतज़ार में टूटी नींद पर ज़ारा की चिंता दिखाना, और उससे मिली हेल्प ा—ये सब उसके जहन में घूम रहे थे।
उसने खुद से पूछा, "क्या मैं वाकई शिकायत करना चाहती हूँ कि मैं उससे बहुत बात करती हूँ? क्या ये सिर्फ दोस्ती है?"
सांसों के बीच उसकी दिल की धड़कन तेज हो उठी। लाना और मरयम ने फिर एक बार हंसते हुए देखा, लेकिन ज़ारा मुस्कुराकर टाल गई।
फिर भी अंदर ही अंदर एक हल्की सी उमंग और अनजानी सी उलझन थी —और ये छोटे-से पल उसे खुद के अंदर एक नए एहसास से रूबरू करा रहे थे।
ज़ारा के आख़िरी पेपर से पहले…
ज़ारा अपने कमरे में तैयारी कर रही थी, जबकि नसीरा बेग़म और इब्राहिम लिविंग रूम में थे।
नसीरा बेग़म:
“इब्राहिम... ज़ारा की एग्ज़ाम कल तक ख़त्म हो जाएँगी... क्या हम कहीं छुट्टी मनाने चलें? उसे भी अच्छा लगेगा...!”
इब्राहिम:
(फोन से नज़रें उठाकर)
“उम्म मॉम, मैं नहीं आ सकता... मुझे ऑफिस में बहुत काम है...”
नसीरा बेग़म:
“प्लीज़ ना इब्बु...”
(रिक्वेस्ट करती हुई)
इब्राहिम:
“मॉम, प्लिज समझने की कोशिश करो... अभी हमें एक नया प्रोजेक्ट मिला है... मेरी यहाँ ज़रूरत है... मैं नहीं आ सकता मॉम... लेकिन तुम दोनों आगे बढ़ो—बस मुझे जगह बताओ, और मैं सारी अरेंजमेंट कर दूंगा।”
नसीरा बेग़म:
(होठ हिलाते हुए)
“ठीक है।”
(ज़ारा के पास चली गई)
नसीरा बेग़म:
“बेटा... क्या मैंने तुम्हें परेशान किया?”
(कमरे में घुसते)
ज़ारा:
“अरे नहीं खाला ... मैं बस ब्रेक लेने वाली थी...”
(जल्दी से मुस्कुराकर)
नसीरा बेग़म:
“ओह... ज़ारा बेटा... तुम छुट्टियों में कहाँ जाना चाहती हो?”
(पूछते)
ज़ारा:
“मैंने इसके बारे में अभी तक सोचा नहीं, खाला...”
नसीरा बेग़म ने सुझाव दिया, “सोच के बताओ बेटा… हम दोनों कहीं जाकर मौज–मस्ती करेंगे।”
ज़ारा ने पूछा, “सिर्फ हम दोनों?”
नसीरा बेग़म उदास स्वर में बोली, “हाँ बेटा, तुम्हारा भाई ऑफिस की वजह से नहीं आ पाएगा।”
ज़ारा ने एक पल सोचा और फिर चिंता जताई, “लेकिन खाला… अगर हम दोनों जाएँ, तो क्या वो अकेले मैनेज कर पाएगा? वैसे भी हाउस हेल्प है, लेकिन…”
नसीरा बेग़म ने कंधे उचकाते हुए कहा, “हाँ, मैंने भी यही सोचा है... लेकिन करना तो कुछ है—दूध, खाना सर्व करना…”
ज़ारा झिझकते हुए बोली, “मुझे भी घूमने का मन नहीं है… क्यों न यहीं आसपास घूम लिया जाए? वैसे भी, उसे अकेले मैनेज करना मुश्किल हो सकता है... डिनर के लिए तो आपको ही चाहिए…”
नसीरा बेग़म मुस्कुराई, “बात तो ठीक कही…” फिर उसकी आवाज़ नरम हुई, “लेकिन…”
नसीरा बेग़म ने कंधे उचकाते हुए कहा, “हाँ, मैंने भी यही सोचा है... लेकिन करना तो कुछ है—दूध, खाना सर्व करना…”
ज़ारा झिझकते हुए बोली, “मुझे भी घूमने का मन नहीं है… क्यों न यहीं आसपास घूम लिया जाए? वैसे भी, उसे अकेले मैनेज करना मुश्किल हो सकता है... डिनर के लिए तो आपको ही चाहिए…”
नसीरा बेग़म मुस्कुराई, “बात तो ठीक कही…” फिर उसकी आवाज़ नरम हुई, “लेकिन…”
ज़ारा ने तुरंत कहा, “कोई बात नहीं खाला, अगले सेमेस्टर के बाद छुट्टियाँ होंगी, तब हम एक बड़ी ट्रिप पर चलेंगे।”
जाने से पहले ज़ारा ने नर्मी से कहा, “खाला...”
नसीरा बेग़म मुड़ी और ज़ारा ने झिझकते हुए पूछा, “अगर तुम्हें कोई परेशानी न हो, तो क्या हम एक बार अजमेर शरीफ़ चलेंगे? मम्मा वहाँ जाना चाहती थीं लेकिन नहीं जा पाईं।”
नसीरा बेग़म की आंखें चमकीं, उसने उदास मुस्कान दी और कहा, “ज़रूर बेटा, हम चलेंगे... तुम इतना हिचकिचा क्यों रही हो?”
ज़ारा ने बस हल्की मुस्कान दी, जबकि नसीरा बेग़म ने जल्दी से अपने आंसू पोंछते हुए कहा, “चलो, चलो खाना भी खा लेते हैं।”
अगली सुबह...
नसीरा बेग़म ने इब्राहिम (आरव) से कहा, “हम एक या दो दिन के लिए अजमेर शरीफ़ जाना चाहते हैं…”
इब्राहिम भौंंचक्का हुआ, “बस दो दिन? फिर बाकी दिनों में आप क्या करेंगी?”
ज़ारा चम्मच से खेलते हुए धीरे बोली, “मैं अभी कहीं जाना नहीं चाहती… सेमेस्टर खत्म होने के बाद छुट्टियाँ मिलेंगी, तब चलेंगे।”
इब्राहिम ने आह भरी, फिर मुस्कुराते हुए कहा, “ठीक है… मैं सारी अरेंजमेंट कर दूँगा।”
कुछ दिन बाद...
नसीरा बेग़म और ज़ारा अजमेर शरीफ़ के लिए निकल पड़ीं, और जब इब्राहिम ऑफिस से लौटा, घर शांत था।
“भगवान का शुक्र है कि सिर्फ दो दिन की योजना बनाई है…” उसने सोचा और हाउस हेल्प दीदी से रात का खाना लेकर अपने कमरे में चला गया।
रात में...
इब्राहिम ने पहले ज़ारा को फोन किया, लेकिन उसने कहा, “जी सब ठीक है...” और फोन उसकी माँ को दे दिया।
“बोल बेटा...” नसीरा बेग़म ने फोन उठाया, हँसते हुए कहा, “सब ठीक है, फोन साइलेंट था, मिस्ड कॉल भी देख लिया।”
इब्राहिम ने पूछा, “ठीक है… आप कब वापस आ रही हैं?”
नसीरा बेग़म ने मुस्कुराकर कहा, “तुमने ही तो टिकट बुक किए थे—परसों लौटेंगे।”
इब्राहिम ने मुस्कुरा कर फोन काट दिया।
दो महीने बाद...
नया सेमेस्टर शुरू हो चुका था। एक शाम इब्राहिम ऑफिस से लौटा, तो वह लिविंग रूम में आंसुओं में डूबी ज़ारा को ढाढ़स देती देख हैरान रह गया।
नसीरा बेग़म बोली, “प्लीज़ ज़ारा, रोना बंद कर दो… हम मिलकर इसे सुलझा लेंगे।”
लेकिन ज़ारा की सिसकियाँ रुकीं नहीं।
लिविंग एरिया में सन्नाटा था—इब्राहिम की आँखें फ्रस्ट्रेशन से बंद हो गईं।
तभी वह चिल्लाया, “चुप!”
नसीरा बेग़म बीच में आईं, और इब्राहिम व्याकुल स्वर में बोले, “क्या हुआ?”
नसीरा बेग़म ने हिम्मत कर कहा, “ज़ारा के इस सेमेस्टर में एक सब्जेक्ट में समस्या हो गई—असाइनमेंट में बहुत कम मार्क्स मिले हैं।”
इब्राहिम ने तीखे स्वर में पूछा, “कौन सा सब्जेक्ट?” फिर अपनी आँखें ज़ारा पर टिकाईं।
ज़ारा ने भारी साँस ली और फुसफुसाई, “इकोनोमिक्स।”
कुछ दिन बाद, शाम का वक़्त...
---
इब्राहीम ने एक गहरी साँस ले कर कहा,**
“पिछले कुछ महीनों से मैंने तुम्हें कितनी बार कहा है—अगर तुम्हें किसी मदद की ज़रूरत हो, तो मेरे पास आओ? कई बार, है न?”
ज़ारा चुप थी; तभी वह चिल्लाया,
“हाँ या ना कहो?”
ज़ारा डर के मारे बमुश्किल बोली, “हाँ...”
इब्राहीम बोले, “तो फिर यह क्या है? इस छोटी‑सी बात पर ये आंसू क्यों बहा रही हो? तुम्हें अगर किसी सब्जेक्ट—जैसे इकोनोमिक्स—में परेशानी थी, तो तुम बस मुझे या खाला को बता देती। हम मदद करते, अरेंज करते... तुम इतने महीनों से क्या कर रही थी?”
नसीरा बेग़म बीच में आईं और शांत करने की कोशिश की। एक पल चुप रहने के बाद, आरव ने नरमी से कहा,
“ठीक है… ज्यादा वरी मत करो... बस रात के बाद अपनी किताबें लेकर पढ़ाई में आ जाओ। हम साथ मिलकर काम करेंगे।”
ज़ारा बेचैन मन से मुस्कुराई और अपने कमरे में चली गई।
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थोड़ी देर बाद, नसीरा बेग़म ने आकर हल्के तानों में पूछा,
“ओये... तुम इतनी हक्का-बक्का क्यों दिख रही हो?”
ज़ारा ने उस पर आँखे घुमाईं और जवाब दिया,
“इकोनोमिक्स ऑब्जेक्ट है, खाला…”
**नसीरा बेग़म मुस्कुराईं:**
“तो? मेरा बेटा MBA ग्रेजुएट है—इकोनोमिक्स में टॉपर है!”
ज़ारा ने खुली मुस्कान के साथ नसीरा बेग़म की तरफ देखा।
“बस बस... चलो...” खाला ने हँसते हुए उसे टोक दिया।
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**नाइट डाइनर के बाद...**
इब्राहीम ने ज़ारा को किताबें उठाते देखा और चिढ़ते हुए पूछा,
“तुम्हारा रोना बंद हो गया?”
फिर कहा, “चलो, स्टडी रूम में चलते हैं… मुझे भी काम निपटाना है।”
ज़ारा पीछे- पीछे चली गई।
इब्राहीम ने किताबें लीं और पूछा,
“क्या हम पहले चैप्टर से शुरू करें या तुम्हारे पास कोई खास चैप्टर है?”
ज़ारा मुश्किल से सिर हिलाकर 'नहीं' में जवाब दी। इब्राहीम ने पहला चैप्टर समझाना शुरू किया।
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**एक घंटे बाद...**
इब्राहीम ने पैन और कागज दिया और कहा,
“अब अपने शब्दों में लिखो—जो कुछ समझा।”
ज़ारा ने डेली-लाइफ़ उदाहरण के साथ समझाया और उसे कागज़ पर उतारा।
इब्राहीम ने चेक किया, ज़ारा काँप गई।
इब्राहीम ने पूछा,
“क्या समझ गई हो या कोई कन्फ्यूजन है?”
ज़ारा ने यकीन से सिर हिलाया—“समझ गई।”
इब्राहीम ने मुस्कुरा कर कहा,
“ठीक है, कल अगला चैप्टर लेते हैं—अब देर हो चुकी है, जाओ सो जाओ।”
ज़ारा ने गर्मजोशी से कहा,
“जी… थैंक यू।”
इब्राहीम ने नर्मी से कहा,
“जारा...”
ज़ारा रुक गई।
इब्राहीम ने प्यार से कहा,
“किसी भी बात पर रोने या परेशान होने की ज़रूरत नहीं है... बस मुझे कहना... मैं इसका ध्यान रखने के लिए यहाँ हूँ—हम दोनों मिलकर संभाल लेंगे, ठीक है?”
ज़ारा ने एक हल्की मुस्कान के साथ हां में सिर हिलाया।
* इब्राहीम** “गुड नाईट।”
**ज़ारा:** “गुड नाईट।”
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उस दिन के बाद से, ज़ारा हाशमी की स्टडीज़ में हेल्प करना इब्राहीम फ़ैज़ का डेली रूटीन बन गया था।
वो ऑफिस से आने के बाद फ्रेश होता, थोड़ा आराम करता और फिर ज़ारा के साथ पढ़ने बैठ जाता।
कुछ दिन बाद की बात है — इब्राहीम ने उसे एक चैप्टर समझाया और कहा, "अब तुम इससे रिलेटेड अपने नोट्स बना लो।"
"ठीक है..." ज़ारा ने हल्की आवाज़ में जवाब दिया और सिर झुकाकर लिखने लगी।
करीब बीस मिनट बाद उसने कॉपी इब्राहीम की तरफ बढ़ा दी — उसके चेहरे पर हल्की सी उम्मीद थी, शायद वो कहे, "Well done" या कम से कम मुस्कुरा दे।
मगर जैसे ही इब्राहीम ने कॉपी खोली, उसके चेहरे के एक्सप्रेशन्स बिल्कुल बदल गए। उसकी जॉ लाइन टाइट हो गई और उसने अपनी जगह सीधा होकर बैठते हुए ज़ारा को घूरा।
"तुम्हें क्या कहा था मैंने?" उसने दबे हुए गुस्से में पूछा।
ज़ारा का दिल धक से रह गया।
"ये क्या है? ये तो वही लाइनें हैं जो किताब में हैं — verbatim कॉपी की हुई। मैंने कहा था, अपने words में explain करो ताकि तुम खुद भी समझ सको।
Just copying won't help!"
ज़ारा ने चुपचाप नजरें झुका लीं। वो कुछ बोलना चाहती थी, लेकिन इब्राहीम का टोन बहुत स्ट्रिक्ट था।
"मैं तुम्हें spoon-feeding नहीं करने वाला, ज़ारा। तुम अगर खुद effort नहीं करोगी, तो कोई फायदा नहीं... समझी?"
उसकी आवाज़ में disappointment था... और कुछ पल के लिए रूम में बिल्कुल साइलेंस छा गया।
"क्या तुमने सुना भी जो मैंने समझाया...??"
इब्राहीम फ़ैज़ का लहजा अब और सख़्त हो गया था। "ये उस चैप्टर से रिलेटेड भी नहीं है जो मैंने अभी पढ़ाया था..." उसने काग़ज़ उसके सामने इस तरह किया जैसे उसका जवाब उसकी आँखों में ढूंढ रहा हो।
"देखो खुद... ये क्या है?"
ज़ारा हाशमी ने बस सर झुका लिया। उसकी उंगलियाँ आपस में उलझने लगीं और होंठ एक-दूसरे पर दबे हुए थे।
वो चुपचाप बैठी रही, जैसे अब कोई सफाई देने की हिम्मत नहीं बची थी उसमें।
इब्राहीम ने एक गहरी साँस ली। उसकी नाराज़गी अब फिक्र में बदल रही थी। वो कुर्सी से थोड़ा झुक कर बोला,
"ज़ारा... कुछ पूछूँ तो सच-सच बताओगी?"
ज़ारा ने धीरे से उसकी तरफ देखा, फिर बिना आवाज़ किए 'ना' में सिर हिला दिया।
"क्या हुआ ज़ारा...?? Are you okay? क्या तुम्हें कुछ परेशान कर रहा है?"
वो चुप रही, लेकिन उसकी आँखों की नमी ने सब बयां कर दिया।
इब्राहीम ने थोड़ा और नरम होकर कहा —
"तो फिर तुम ध्यान क्यों नहीं लगा पा रही हो...? बताओ मुझे... I'm not going to scold you, promise... बस एक बार honest हो जाओ... किस बात पर तुम्हारा ध्यान भटक रहा है?"
ज़ारा की पलकें नीची थीं, लेकिन उसकी आँखों में एक अजीब सा खालीपन था — जैसे बहुत कुछ कहने को था, मगर अल्फ़ाज़ नहीं मिल रहे थे।
उसने अपनी आँखें झपकाईं और फिर धीमे से कहा —
"मूवी..."
इब्राहीम ने थोड़ी हैरानी से उसकी तरफ देखा —
"क्या?"
उसने भौंहें सिकोड़ते हुए सवाल किया, और ज़ारा ने अपनी बात थोड़ा क्लियर किया —
"शाहरुख़ ख़ान की मूवी... आने वाली है टीवी पर..."
इब्राहीम कुछ पल के लिए चुप रहा... फिर उसने एक लंबी साँस ली और आंखें घुमा कर बोला —
"बस... इतनी सी बात...? Seriously, ज़ारा?"
ज़ारा ने धीरे से होंठ भींच लिए और नजरें चुराकर मुस्कुरा दी।
इब्राहीम ने हल्के से सिर हिलाया और मुस्कराकर कहा —
"तुम्हें तो मुझे पहले ही बता देना चाहिए था ना... इतनी भी क्या tension थी..."
चलो... मूवी देखते हैं।"
उसने किताब बंद की, और रिमोट उठाते हुए सोफ़े की तरफ इशारा किया —
"चलो Miss Khan Fan... आज पढ़ाई कैंसिल, फ़िल्मी रात चालू!"
वो मुस्कुराई और फिर दोनों टीवी के सामने बैठकर शाहरुख़ ख़ान की फिल्म देखने लगे।
पूरी फिल्म के दौरान ज़ारा की आंखों में excitement और खुशी झलक रही थी, और इब्राहीम ने भी पहली बार उसे इतने हल्के मूड में देखा था।
3 घंटे बाद...
इब्राहीम ने रिमोट साइड में रखा और उसकी तरफ देखकर कहा,
"अब खुश हो...? क्या अब हम पढ़ाई पर वापस लौट सकते हैं?"
ज़ारा ने एक बड़ी सी मुस्कान के साथ सिर हिलाया — "जी..."
दोनों फिर से टेबल की तरफ चले, लेकिन जैसे ही ज़ारा कुर्सी पर बैठने लगी, इब्राहीम ने उसे रोकते हुए कहा —
"रुको... खड़ी रहो।"
ज़ारा ने हैरानी से उसकी तरफ देखा।
"क्या हुआ?" वो थोड़ा कन्फ्यूज़ हो गई थी।
इब्राहीम ने उसकी कॉपी उठाते हुए कहा —
"जब तक मैं चैप्टर फिर से समझाता हूँ और तुम इसे ठीक से लिखती हो, तब तक खड़ी रहो। ये तुम्हारी सज़ा है — मुझे पहले न बताने और टाइम वेस्ट करने की।"
"That’s your punishment, Miss Hamesha Confused!"
ज़ारा ने बच्चों की तरह मुंह बनाया, लेकिन इब्राहीम बिल्कुल नहीं पिघला।
वो फिर से सीरियस होकर चैप्टर समझाने लगा और ज़ारा पूरे ध्यान से खड़ी-खड़ी सुनने लगी।
उसे समझाने में इब्राहीम को लगभग एक घंटा लगा — और ज़ारा को लिखते वक़्त काफी मेहनत करनी पड़ी।
आखिर में, उसने लंबी सांस लेते हुए कहा,
"अच्छा... अब जाकर सो जाओ..."
ज़ारा ने गुस्से में मुंह बनाया, फिर बिना कुछ कहे उठी और कमरे से चली गई — जिससे इब्राहीम ज़ोर से हंसने लगा।
दिन नदी की तरह बहते गए...
अब ज़ारा हाशमी को अब फ़ैज़ हाउस में रहते हुए एक साल से ज़्यादा हो गया था।
वो अपने थर्ड ईयर में पहुंच चुकी थी, और उसकी फाइनल एग्ज़ाम क़रीब थीं।
इब्राहीम की मौजूदगी अब उसके लिए routine बन गई थी — वो उसके strict तरीकों की भी आदी हो गई थी। हां, अब भी उसके लहजे से थोड़ा डर जरूर लगा रहता था, लेकिन नसीरा बेगम ने जो माँ जैसा प्यार उसे दिया था, उसने उस कमी को भर दिया था जो उसकी ज़िंदगी में बहुत वक्त से थी।
इब्राहीम ने एक बार वादा किया था — "मैं हर कदम पर तुम्हारे साथ रहूँगा,"
और उसने अपने बिज़ी शेड्यूल के बावजूद उस वादे को बख़ूबी निभाया।
एक दिन ज़ारा अपने पुराने घर की सफाई करवा कर वापस लौटी, तो उसने ड्राइंग रूम से ऊँची आवाज़ें सुनीं —
"अम्मी... प्लीज़... मैंने पहले ही कहा था ना, इस टॉपिक को दोबारा मत उठाइए... जब मैं खुश रहने की कोशिश करता हूँ, तब ही आपको तकलीफ़ क्यों होती है? क्यों आप मुझे सुकून से नहीं जीने देतीं...??"
इब्राहीम का लहजा frustrate था।
नसीरा बेगम भी ग़ुस्से में थीं —
"मैं तुम्हें चैन से जीने नहीं दूंगी... ऐसा बोल रहे हो? सुनो बेटा, मैं कोई अनोखी बात नहीं पूछ रही, जो हर माँ अपने बेटे से पूछती है... तुम अब छोटे नहीं हो, और अगर तुम्हें लगता है कि तुम अब भी टीनएजर हो, तो मैं तुम्हारा वहम तोड़ देती हूँ — इस बार तुम्हारा birthday था ना? तुम 32 साल के हो गए हो, इब्राहीम!"
इब्राहीम ने आँखें घुमाईं और कुछ कहने ही वाला था, लेकिन जैसे ही उसकी नजर पीछे पड़ी — ज़ारा वहाँ खड़ी थी, उलझन और बेचैनी के साथ।
ज़ारा बेटा... आ गई तुम... जाओ, फ्रेश हो आओ..."
नसीरा बेगम ने तुरंत आवाज़ में softness लाकर कहा।
लेकिन ज़ारा ने टस से मस न होते हुए धीरे से पूछा —
"क्या हुआ खाला जान...?"
"कुछ नहीं बच्ची... तुम जाओ... मैं चाय बनाती हूँ हमारे लिए..."
उन्होंने हल्की सी मजबूर मुस्कान दी, लेकिन आँखें बहुत कुछ छुपा रही थीं।
ज़ारा फिर भी कुछ बोलने ही वाली थी कि इब्राहीम ने सख़्त लहजे में कहा —
"ज़ारा..."
उसके नाम के साथ ही सब कुछ रुक गया।
ज़ारा ने उसकी तरफ देखा और कुछ कहने के लिए गले में शब्द अटक गए।
"अंदर जाओ..."
इब्राहीम ने फिर दोहराया। और ज़ारा बिना कुछ कहे अपने कमरे की तरफ बढ़ गई।
इब्राहीम ने आह भरी और फिर अपनी माँ की ओर मुड़कर बोला —
"अम्मी... ऐसा कोई rule नहीं है कि अगर आप तीस पार कर जाएं तो शादी कर ही लें... तब भी नहीं, जब आप 32 के हो जाएं... शादी कोई ज़रूरी चीज़ नहीं है, अम्मी... आपको इसे समझना होगा। और जब मुझे लगेगा कि मुझे कोई ऐसी लड़की मिली है, जो मुझे भी समझ सके और इस घर को भी संभाल सके — तभी मैं निकाह करूँगा... और तब तक नहीं..."
नसीरा बेगम चुप रहीं। उनके चेहरे पर बहुत कुछ था, जो वो कह नहीं सकीं।
इब्राहीम ने उनका हाथ पकड़ा और नरमी से कहा —
"आप पर चिल्लाया... उसके लिए I'm sorry, अम्मी..."
नसीरा बेगम को चुप देखकर, इब्राहीम फ़ैज़ ने उनका हाथ थामा और धीमे से कहा —
"आप पर चिल्लाने के लिए... I’m sorry, अम्मी..."
यह कहकर वो उन्हें सोच में डूबा छोड़, अपने कमरे की तरफ चला गया था। मगर उसके लहजे में जो नर्मी थी, वो नसीरा बेगम के दिल को छू गई थी।
कुछ देर बाद, ज़ारा ने देखा कि नसीरा खाला अब भी उसी जगह पर बैठी थीं — जैसे किसी ख्याल में गुम हों। वहीं सोफ़े पर, आँखें ज़मीन पर टिकाए हुए।
और इब्राहीम... वो पूरे घर में कहीं नज़र नहीं आया।
"खाला जान..."
ज़ारा ने धीरे से उनके कंधे पर हाथ रखा।
"सब ठीक है...?" उसने सादगी से पूछा।
नसीरा बेगम ने हल्की सी मुस्कान के साथ सिर हिलाया —
"हाँ बेटा... सब ठीक है..."
ज़ारा उनकी आँखों की थकान और दिल का बोझ समझ गई थी, लेकिन फिर भी ज़्यादा कुछ पूछने की बजाय बस वही बैठ गई — ताकि उनकी तन्हाई में एक साथ हो।
रात को...
नसीरा बेगम ने गहरी सांस लेकर इब्राहीम के कमरे के दरवाज़े पर दस्तक दी।
"इब्राहीम...?"
"आ जाओ अम्मी..." अंदर से आवाज़ आई।
उन्होंने दरवाज़ा खोला और कमरे में दाखिल हुईं।
"अम्मी... बैठो न..."
इब्राहीम ने पास में कुर्सी खींची और खुद उनके बगल में बैठ गया।
"आपने डिनर किया...?"
नसीरा बेगम ने सवाल को टालते हुए सिर हिला दिया।
इब्राहीम ने उनकी तरफ देखा —
"फिर क्या बात है...? आप कुछ कहना चाहती हो, न?"
नसीरा बेगम ने कुछ पल ख़ामोशी में गुज़ारे — जैसे अल्फ़ाज़ ढूंढ रही हों।
"इब्बु..."
नसीरा बेगम ने उसकी ओर देखते हुए धीमे से कहा,
"मुझे पता है कि एक खास उम्र में शादी करना कोई फर्ज़ नहीं है... कोई क़ानून नहीं है... लेकिन..."
वो कुछ पल के लिए रुकीं, फिर उसका हाथ थामते हुए पूछा —
"लेकिन जब तुम्हें वो लड़की मिल जाएगी... तो क्या तुम निकाह कर लोगे ना...?"
इब्राहीम ने थोड़ा चौंक कर उनकी तरफ देखा, फिर हल्के से मुस्कुराकर कहा —
"Of course, अम्मी... ज़रूर करूँगा..."
"तो फिर... क्या होगा अगर मैं कहूं कि... मुझे वो लड़की मिल गई है?"
नसीरा बेगम की आवाज़ में हल्की सी हलचल थी।
इब्राहीम ने भौंहें सिकोड़ते हुए उनकी तरफ देखा — कुछ समझते हुए, कुछ नहीं समझते हुए।
"क्या होगा अगर वो लड़की... तुम्हारे हर mood को संभाल सकती है?"
"क्या होगा अगर वो लड़की... हमारी फैमिली के इतने क़रीब है कि हम उसे अपने से जुदा नहीं समझते?"
इब्राहीम ने अब उनके हाथ धीरे से छोड़ दिए।
"क्या होगा अगर वो लड़की... हमारे लिए इतनी ख़ास है... और हमें अंदर-बाहर से जानती है?"
नसीरा बेगम ने बात पूरी की, और इब्राहीम अब चुपचाप खड़ा हो गया।
वो एक पल को ग़ुस्से, उलझन और असहजता में सिर हिलाते हुए बोला —
"अम्मी... मैं समझ रहा हूँ आप किसकी बात कर रही हैं... लेकिन नहीं... प्लीज़ नहीं..."
"क्यों बेटा...??"
नसीरा बेगम ने उसकी तरफ देखकर कहा,
"मैंने उसे बचपन से देखा है... और इस एक साल में और भी बेहतर जाना है। इब्राहीम, तुम्हें ज़ारा से बेहतर कोई लड़की नहीं मिलेगी..."
इब्राहीम ने गहरी सांस ली, अपनी आंखें बंद कर लीं और थकान से भरकर उनके पास बैठ गया।
"अम्मी... मैंने कभी उसे उस नज़र से नहीं देखा..."
उसकी आवाज़ अब बेहद शांत थी, जैसे अपने ही ख़याल से उलझा हुआ हो।
"तो अब से देखना शुरू करो..."
नसीरा बेगम ने सख़्ती से कहा, लेकिन उस सख़्ती में मोहब्बत भी छिपी थी।
"अम्मी प्लीज़... वो अभी भी इतनी mature नहीं है... निकाह और शादी जैसी ज़िम्मेदारियों के लिए वो बहुत छोटी है।"
नसीरा बेगम ने हल्का सा मुस्कुराते हुए पूछा —
"तो क्या तुम मानते हो कि अब तुम बूढ़े हो चुके हो?"
इब्राहीम ने सिर झुका लिया। वो कुछ कहना चाहता था लेकिन उसके पास अल्फ़ाज़ नहीं थे।
क्या जवाब देगा इब्राहीम?
क्या होगा जब जारा नसीरा बेगम का इरादा जानेंगी?
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इब्राहीम ने गहरी सांस ली, अपनी आंखें बंद कर लीं और थकान से भरकर उनके पास बैठ गया।
"अम्मी... मैंने कभी उसे उस नज़र से नहीं देखा..."
उसकी आवाज़ अब बेहद शांत थी, जैसे अपने ही ख़याल से उलझा हुआ हो।
"तो अब से देखना शुरू करो..."
नसीरा बेगम ने सख़्ती से कहा, लेकिन उस सख़्ती में मोहब्बत भी छिपी थी।
"अम्मी प्लीज़... वो अभी भी इतनी mature नहीं है... निकाह और शादी जैसी ज़िम्मेदारियों के लिए वो बहुत छोटी है।"
नसीरा बेगम ने हल्का सा मुस्कुराते हुए पूछा —
"तो क्या तुम मानते हो कि अब तुम बूढ़े हो चुके हो?"
इब्राहीम ने सिर झुका लिया। वो कुछ कहना चाहता था लेकिन उसके पास अल्फ़ाज़ नहीं थे।
वो अभी भी पढ़ रही है अम्मी..."
इब्राहीम ने शांत लहजे में कहा।
"तो...?"
नसीरा बेगम ने नज़रें मिलाते हुए पूछा,
"मैंने कब कहा कि निकाह के बाद वो पढ़ाई नहीं कर सकती? क्या तुम उसे रोकोगे?"
इब्राहीम ने आँखें घुमा दीं, जैसे ये बहस उससे झेली नहीं जा रही थी।
"अम्मी, हमारे दरमियान उम्र में दस साल का डिफरेंस है..."
नसीरा बेगम मुस्कुरा दीं —
"मेरे और तुम्हारे अब्बू के बीच 12 साल का फर्क था... श्यामा और उसके शौहर के बीच 9 साल का डिफरेंस था... इसमें कौन सी नई बात है बेटा?"
वो अब थोड़ा तेज़ बोल रही थीं, लेकिन हर अल्फ़ाज़ में एक माँ की समझदारी थी।
"उसे इसके लिए तैयार होना चाहिए..."
इब्राहीम ने झुके स्वर में कहा।
"इब्राहीम... मैं इस वक़्त सिर्फ तुम्हारे बारे में बात कर रही हूँ। चलो पहले तुम्हारे दिल की बात साफ़ कर लेते हैं।"
नसीरा बेगम ने अपने बाल पीछे करते हुए गहरी नज़र से बेटे को देखा।
"मुझे नहीं पता, अम्मी... सच कहूं तो मुझे सिरियसली समझ नहीं आ रहा कि आपको क्या जवाब दूं..."
उसने खुद को कुर्सी में धँसाते हुए कहा।
नसीरा बेगम ने धीमे से उसका हाथ थामा और एक माँ की तरह, एक औरत की तरह, समझाते हुए बोलीं —
"देखो बेटा... मैंने तुम्हें पैदा किया है, तुम्हें 30 साल से ज़्यादा वक्त तक पाला है... मैं सिर्फ तुम्हारी माँ नहीं हूँ, मैं एक औरत भी हूँ, एक बीवी भी रही हूँ... मैंने तुम्हारे अब्बा के साथ 25 साल गुज़ारे हैं — और तुम बिल्कुल उनके जैसे हो..."
"मैं जानती हूँ कुछ बातें बेटे अपनी माँ से शेयर नहीं करते, लेकिन इस बार मेरी बात पर भरोसा करो — ज़ारा बिल्कुल मेरी तरह है..."
"मैं महसूस कर सकती हूँ बेटा, मैं समझ सकती हूँ — तुम्हारे अब्बा जैसे डोमिनेटिंग नेचर वाले इंसान को मैंने ज़िंदगी भर संभाला है... और मुझे पूरा यक़ीन है, तुम ज़ारा के साथ बहुत खुश रहोगे। तुम मेरी बात समझ रहे हो ना?"
इब्राहीम चुपचाप उन्हें देखता रहा — जैसे हर शब्द उसके ज़ेहन में उतर रहा हो।
"ठीक है..."
नसीरा बेगम ने बात आगे बढ़ाई,
"अब ये सब छोड़ो — कुछ दिन के लिए, सिर्फ कुछ दिन — उसे एक अलग नज़र से देखने की कोशिश करो। मेरी मुराद ये है कि उसे अपनी ज़िंदगी के हिसाब से देखो। सोचो — क्या उसमें वो सब है जो तुम अपने हमसफ़र में चाहते हो... अगर हाँ, तो आगे सोचेंगे..."
"लेकिन मेरी नज़र में... वो हर लिहाज़ से तुम्हारे लिए सबसे बेहतरीन है..."
इब्राहीम ने बेबसी से आह भरी —
"मुझे समझ नहीं आता कि क्या कहूं... आप तो वैसे भी अपनी बातों से किसी को भी मना सकती हैं..."
"तो फिर एक बार कोशिश तो करो ना..."
नसीरा बेगम की आवाज़ अब रिक्वेस्ट में बदल गई थी।
"हूँ... ठीक है... मैं कोशिश करूँगा..."
इब्राहीम ने आखिरकार मान लिया था।
"लेकिन पॉज़िटिव माइंडसेट के साथ सोचो, और कोई भी बेवकूफी वाली वजह देकर इंकार मत करना — समझे?"
उन्होंने उंगली दिखाते हुए कहा।
इब्राहीम ने हल्का सा मुस्कुरा कर उनका हाथ थामा —
"ठीक है... लेकिन मेरी एक शर्त है..."
"क्या?"
नसीरा बेगम ने पूछा।
"आप वादा करें कि आप ज़ारा से कुछ नहीं कहेंगी... ये टॉपिक उसके सामने कभी नहीं लाएँगी। उसे वैसे ही रहने दो... अपनी पढ़ाई पूरी करने दो। और... भले ही मेरी तरफ से हाँ हो, अगर वो आगे पढ़ना चाहती है, या तैयार नहीं है — तो हमें उस पर कोई दबाव नहीं डालना चाहिए... आख़िरी फैसला उसका होगा।"
"मैं वादा करती हूँ बेटा..."
नसीरा बेगम ने आत्मविश्वास से कहा, और फिर उसके गाल को हल्के से सहलाते हुए बोलीं —
"और बहुत-बहुत शुक्रिया, इब्राहीम... अल्लाह कसम, तुम मेरी पसंद के लिए शुक्रगुज़ार रहोगे..."
इब्राहीम ने मुस्कुराते हुए कहा —
"देखते हैं..."
दोनों ने एक-दूसरे को "गुड नाइट" कहा — और नसीरा बेगम कमरे से बाहर निकल गईं।
इब्राहीम बिस्तर पर लेटा, छत की तरफ देखते हुए गहरी सोच में डूब गया।
"तो... मुझे कल से उसके लिए अपना नज़रिया बदलना होगा... देखते हैं..."
अगली सुबह...
इब्राहीम फ़ैज़ सादे मगर क्लासी सफ़ेद कुर्ते-पायजामे पर ग्रे वेस्टकोट पहने अपने ऑफिस के लिए तैयार था। वो सीढ़ियों से नीचे उतरा और सीधा डाइनिंग एरिया की तरफ आया, जहाँ नसीरा बेगम पहले से बैठी हुई थीं।
ज़ारा हाशमी, जो हर सुबह की तरह अपने रुटीन में थी, नसीरा बेगम से कह रही थी —
"ख़ाला जान... ये आपका फ्रेस ऑरेंज जूस और दवाइयाँ हैं... मैं नाश्ता पैक कर चुकी हूँ — अपने लिए भी और उनके लिए भी..."
वो बेहद नरम और सलीके से बात कर रही थी। लेकिन जैसे ही उसने इब्राहीम को सीढ़ियों से उतरते देखा, वो चुप होकर फौरन रसोई की ओर बढ़ गई।
इब्राहीम ने अपनी माँ को "सुभा बखैर, अम्मी..." कहा और उनके पास बैठ गया।
"अल्लाह तुम्हें सलामत रखे बेटा..."
नसीरा बेगम ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए दुआ दी।
उसी वक़्त ज़ारा, बिना नज़रें मिलाए, हाथ में एक ट्रे लेकर बाहर आई और इब्राहीम की तरफ बढ़ी।
"आपका इकोनॉमिक टाइम्स और सुबह की चाय..."
उसने बेहद तहज़ीब से कहा।
इब्राहीम ने अख़बार और चाय लेते हुए उसकी तरफ एक नर्म मुस्कान फेंकी —
"Thank you, ज़ारा..."
ज़ारा ने बस हल्की सी नज़र मिलाई और फिर दोबारा किचन की तरफ मुड़ गई।
इब्राहीम ने ट्रे में उसकी सफाई, सलीका, और सादगी को गौर से देखा — लेकिन बिना कुछ कहे चाय की चुस्की लेते हुए अपने अख़बार में उलझ गया।
नसीरा बेगम, जो ये छोटा सा पल देख रही थीं, उनके होंठों पर एक तस्सली भरी मुस्कान थी।
उसने भी मुस्कान का जवाब दिया — और फिर धीरे से अपना जूस लेकर नसीरा बेगम के पास बैठ गई।
ज़ारा हाशमी, अब इस घर की हर सुबह का हिस्सा बन चुकी थी — जैसे हर दिवार, हर कोना उसकी मौजूदगी का आदी हो चुका था।
पिछले कुछ महीनों में, वो इस क़दर रूटीन में ढल गई थी कि अब उसे इस घर का काम करना बोझ नहीं, बल्कि एक अजीब सा सुकून देने वाला काम लगने लगा था। नसीरा बेगम की सेवा, किचन का इंतज़ाम, इब्राहीम के दस्तावेज़ों को जगह पर रखना — सब कुछ अब उसकी आदत बन चुका था।
नसीरा बेगम ने प्यार से ज़ारा की तरफ देखा, फिर हल्के से इब्राहीम की कुहनी को छूते हुए फुसफुसाईं —
"देखो तो सही ज़रा उसकी तरफ..."
इब्राहीम फ़ैज़ ने चाय का घूंट लिया, फिर धीरे से आँखें घुमाईं — और एक लंबी आह भरते हुए जैसे मन ही मन बुदबुदाया,
"अम्मी... फिर शुरू हो गईं आप..."
नसीरा बेगम मुस्कुरा दीं, लेकिन कुछ नहीं बोलीं।
वो जानती थीं कि ये सब इब्राहीम के लिए अभी नया था — लेकिन दिल की किसी तह में हलचल जरूर मच चुकी थी।
ज़ारा, जो सामने बैठी थी, अब टेबल से नमाज़ टाइम की लिस्ट उठा रही थी, और खुद में मसरूफ़ दिख रही थी — लेकिन उसकी निगाहें अब भी कभी-कभी इब्राहीम की तरफ उठ जातीं थीं, और फिर झुक जाती थीं।
ज़ारा, डाइनिंग से उठकर पैक्ड नाश्ता लेने किचन की तरफ गई। तभी उसने फुसफुसाकर कहा —
"ख़ाला जान, प्लीज़... अभी कल रात ही हमने इस बारे में बात की थी... और आपने सुबह-सुबह ही फिर से शुरू कर दिया... बस थोड़ा-सा वक़्त दीजिए ना मुझे..."
नसीरा बेगम ने मुस्कराते हुए उसके मासूम चेहरे की तरफ देखा और शरारत भरे अंदाज़ में कंधे उचकाते हुए कहा —
"बेशक बेटा... जितना वक़्त चाहिए ले लो, लेकिन सोचना ज़रूर... मैं तो बस तुम्हें याद दिला रही थी..."
उसी वक़्त...
इब्राहीम फ़ैज़, जो अपनी घड़ी पर नज़र डाल रहा था, उठते हुए बोला —
"चले?"
ज़ारा ने उसकी ओर देखा, हल्के से सिर हिलाया —
"जी..."
"क्या तुमने अपने रिकॉर्ड्स संभाल कर रख लिए हैं...? आज तुम्हारी लैब है ना?"
इब्राहीम फ़ैज़ ने पूछा, तो ज़ारा हाशमी की आंखें अचानक खुलीं — और वो अपनी जुबान काटते हुए तेज़ी से पलटी और भागकर अपने कमरे की ओर चली गई।
"अरे... वो फाइल्स तो दो दिन पहले ही पूरी कर ली थीं..."
वो खुद से बड़बड़ाई और लाज से मुस्कुरा उठी।
इब्राहीम ने disbelief में सिर हिलाया —
"Unbelievable..."
उसकी मुस्कान के पीछे हल्की सी शरारत थी।
नसीरा बेगम ने उसे देखकर हँसते हुए कहा —
"सच्चा इश्क़ हमेशा गड़बड़ी में होता है बेटा... लवली डिस्टर्बेंस!"
कुछ देर बाद, दोनों ने नसीरा बेगम को सलाम किया और ज़ारा को कॉलेज छोड़ने निकल पड़े।
वो दोनों दरवाज़े की तरफ बढ़े — ज़ारा उसके थोड़े पीछे-पीछे चल रही थी। दरवाज़े के पास खड़ी नसीरा बेगम उन्हें जाते हुए देख रही थीं — और उनके दिल में एक दुआ थी...
"या अल्लाह... इन दोनों के नसीबों में भलाई लिख दे..."
रास्ते में, ज़ारा ने महसूस किया कि आज इब्राहीम कुछ बहुत ही चुप था। आम दिनों में वह उसकी क्लासेस, लैब्स, प्रोजेक्ट्स सब कुछ लेकर सवाल करता रहता था। लेकिन आज... जैसे खामोशी उसकी ज़ुबान पर ताला लगा रही थी।
"आप ठीक हैं ना...?"
ज़ारा ने धीरे से पूछा जब उनकी गाड़ी उसके कॉलेज के पास पहुँच रही थी।
इब्राहीम ने एक पल को उसकी तरफ देखा, लेकिन कुछ नहीं कहा।
ज़ारा ने तुरंत नज़रें नीचे कर लीं —
"नहीं मतलब... आप आज बहुत चुप हो... और लग रहा है जैसे कोई बात आपको परेशान कर रही है..."
इब्राहीम ने गहरी साँस ली और कॉलेज के गेट के पास गाड़ी रोक दी।
उतरने से पहले, ज़ारा ने पीछे मुड़कर उसकी आँखों में झाँका।
"Don’t worry, इब्राहीम... इंशा’अल्लाह... तुम्हें अपने सारे जवाब मिल जाएँगे..." जारा ने कहा था ।
इब्राहीम की आँखों में हल्की सी मुस्कान चमकी।
"I hope so..."
उसने बस इतना कहा।
ज़ारा भी हल्का मुस्कुराई, "ख़ुदा हाफ़िज़..." कहकर अपने बैग के स्ट्रैप को कसते हुए कॉलेज की तरफ बढ़ गई।
इब्राहीम वहीं कुछ देर तक बैठा रहा — अपनी माँ की बातें, ज़ारा की मासूम मुस्कुराहट और अपने अंदर की आवाज़ के बीच झूलता हुआ...
गाड़ी कॉलेज गेट से थोड़ा आगे बढ़ चुकी थी लेकिन इब्राहीम फ़ैज़ का दिल अब तक वहीं अटका हुआ था जहाँ ज़ारा हाशमी कुछ पल पहले उतरी थी।
उसे हल्की सी बेचैनी महसूस हुई — और नज़रें फौरन रियर-व्यू मिरर की ओर घूम गईं।
और फिर... उसने देखा।
कॉलेज के गेट के पास, ज़ारा किसी लड़के से बात कर रही थी।
लड़का उसकी उम्र का ही लग रहा था — कॉलेज बैग पीठ पर टांगे, हाथ में कुछ पन्ने और एक नर्म मुस्कान उसके होंठों पर।
ज़ारा भी हल्के से मुस्कुरा रही थी।
उस पल, इब्राहीम के सीने में कुछ चुभा।
कोई अजीब सी जलन, जैसे नफ़स के नीचे कुछ सुलग रहा हो।
"कौन है ये लड़का?"
उसने खुद से बुदबुदाया।
उसने अचानक ब्रेक मारा, गाड़ी को रिवर्स किया और कॉलेज गेट के पास पहुँचा।
दरवाज़ा खोला और बेमक़सद तेज़ी से गेट की ओर बढ़ा।
"ये क्या माजरा है?"
उसकी आवाज़ बेहद सख़्त थी — वो दोनों के बीच आकर खड़ा हो गया।
लड़का थोड़ा घबराया — और ज़ारा ने चौंक कर उसकी तरफ देखा।
लड़के ने बैग में जल्दी से कुछ ठूँसा —
"सलाम भाई... मैं अरबाज़ हूँ... ज़ारा की क्लास में हूँ... हम ग्रुप प्रोजेक्ट पे काम कर रहे हैं।"
इब्राहीम ने उसकी तरफ एक कड़ी नज़र डाली — फिर ज़ारा की तरफ मुड़ा।
"ग्रुप प्रोजेक्ट?"
उसका लहजा बेहद कंट्रोल्ड था — लेकिन आँखों में साफ़-साफ़ जलेस फीलिंग तैर रही थी।
"जी... हम बस डिटेल्स डिस्कस कर रहे थे..."
ज़ारा ने थोड़ा अनकंफरटेबल होते हुए जवाब दिया।
" हम्माम" इब्राहीम कुछ सोचने लगा था ।
ज़ारा ने चौंक कर उसकी ओर देखा — उसकी आँखें जवाब माँग रही थीं, लेकिन इब्राहीम अब पलट चुका था।
"जाओ क्लास में..."
वो बस इतना कहकर गाड़ी की तरफ बढ़ गया।
। कुछ देर बाद ।
इब्राहीम फ़ैज़ तेज़ क़दमों से अपने कमरे में दाख़िल हुआ और दरवाज़ा ज़ोर से बंद कर दिया।
उसके माथे पर शिकन थी, सांसें तेज़ चल रही थीं।
उसने अपनी वेस्टकोट उतारी, टेबल पर फेंकी और दीवार की तरफ बढ़ा।
"क्यों...? मैंने ऐसा क्यूँ फील किया?"
उसने खुद से सवाल किया और…
"अगर वो किसी से बात कर रही थी तो...? वो उसकी ज़िंदगी है..."
"तो क्या हुआ अगर वो उसे पसंद करती है...? वो कॉलेज में है, जवान है, उसका हक़ है किसी को डेट करना..."
लेकिन यह सोचते हुए ही जैसे उसके सीने में कोई आग सी सुलग उठी।
"लेकिन... क्यों मुझे इतना ग़ुस्सा आ रहा है...? क्यों मैं इस कदर बेचैन हूँ...??"
और तभी...
उसका हाथ दीवार पर जा लगा — एक ज़ोरदार मुक्का।
उसके हाथ की हड्डियाँ जैसे दर्द से चीख़ उठीं, लेकिन उसका दिल अभी भी और ज़्यादा तड़प रहा था।
"यह सही नहीं है... यह सब गलत है..."
वो अब तक समझ नहीं पा रहा था कि ये कैसा इमोशन है —
ग़ुस्सा? दर्द? जलन...? या शायद... मोहब्बत...?
कमरे में एक अजीब सी खामोशी फैल गई थी।
दीवार की तरफ पीठ टिकाकर, उसने आँखें बंद कर लीं —
और धीमे से बुदबुदाया:
"ज़ारा... तुम्हारे चेहरे की वो मुस्कान, किसी और के लिए थी — और वो मुस्कान मेरे अंदर आग लगा गई..."
क्या इब्राहीम को अब अपने जज़्बातों का एहसास हो रहा है...? क्या ये सिर्फ जलन है या उस दिल का पहला कबूलनामा जो ज़ुबान पर नहीं आ पा रहा...?
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या फिर इब्राहीम की अंदरूनी जंग और बढ़ती जाए...?